( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(कर्मयोग का विषय)
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ।।49।।
योग श्रेष्ठ है , नीच है फल इच्छा से काम
बुद्धि बना तू योग की मन पर लगा लगाम।।49।।
भावार्थ : इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं।।49।।
Far lower than the Yoga of wisdom is action, O Arjuna! Seek thou refuge in wisdom; wretched are they whose motive is the fruit. ।।49।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
One thing I can say for sure – flow brings real happiness!
Flow is a state of joy, creativity and total involvement, in which problems seem to disappear and there is an exhilarating feeling of transcendence.
According to Mihaly Csikszentmihalyi, flow is what we feel when we are fully alive, involved with what we do, and in harmony with the environment around us. It is something that happens most easily when we sing, dance, do sports – but it can happen when we work, read a good book, or have a good conversation.
Engagement, or flow, is one of the strongest pillars around which Positive Psychology is built. Here, one is fully in the present, immersed in something worthwhile. For an auto-telic person, the experience becomes its own reward.
We each have the potential to experience flow, whether at work, at play or in our relationships.
(मैं आदरणीया डॉ मुक्ता जी का हृदय से आभारी हूँ। उन्होने आज के अंक के लिए अतिथि संपादक के रूप में अपने उद्गार प्रकट किए।डॉ मुक्ता जी ने ई-अभिव्यक्ति: संवाद–22 के संदर्भ में मेरे आग्रह को स्वीकार कर अपने बहुमूल्य समय में से मेरे लिए अपने हृदय के समुद्र से मोतिस्वरूप शब्दों को पिरोकर जो यह शुभाशीष दिया है, उसके लिए मैं निःशब्द हूँ। यह आशीष मेरे साहित्यिक जीवन की पूंजी है, धरोहर है। इसी अपेक्षा के साथ कि – आपका आशीष सदैव बना रहे। आपका आभार एवं सादर नमन। )
संवेदनाओं का सागर
हृदय में जब सुनामी आता /सब कुछबहाकर ले जाता। गगनचुंबी लहरों में डूबता उतराता मानव। । प्रभु से त्राहिमाम …… त्राहिमाम की गुहार लगाता/लाख चाहने पर भी विवश मानव कुलबुलाता-कुनमुनाता परंतु नियति के सम्मुख कुछ नहीं कर पाता और सुनामी के शांत होने पर चारों ओर पसरी विनाश की विभीषिका और मौत के सन्नाटे की त्रासदी को देख मानव बावरा सा हो जाता है और एक लंबे अंतराल के पश्चात सुकून पाता है ।
इसी प्रकार साहित्यकार जन समाज में व्याप्त विसंगतियों – विशृंखलताओं और विद्रूपताओं को देखता है तो उस्का अन्तर्मन चीत्कार कर उठता है। वह आत्म-नियंत्रण खो बैठता है और जब तक वह अंतरमन की उमड़न-घुमड़न को शब्दों में उकेर नहीं लेता, उसके आहत मन को सुकून नहीं मिलता। वह स्वयं को जिंदगी की ऊहापोह में कैद पाता है और उस चक्रव्युह से बाहर निकलने का भरसक प्रयास करता है। परंतु, उस रचना के साकार रूप ग्रहण करने के पश्चात ही वह उस सृजन रूपी प्रसव-पीड़ा से निजात पा सकता है। वह सामान्य मानव की भांति सृष्टि-संवर्द्धन में सहयोग देकर अपने दायित्व का निर्वहन करता है।
जरा दृष्टिपात कीजिये, हेमन्त बावनकर जी की रचना ‘स्वागत’ पर …. एक पुरुष की परिकल्पना पर जिसने गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं को सहज-साकार रूपाकार प्रदान किया है, जो उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है। वे गत तीन दिन तक नीलम सक्सेना चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविताओं ‘Tearful Adieu’ एवं ‘Fear of Future’ और प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता ‘यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है’ को पढ़कर उद्वेलित रहे। इन कविताओं ने उन्हें उनकी रचना ‘स्वागत’ की याद दिला दी जिसकी रचना उन्होने अपनी पुत्रवधु के लिए की थी जब वह गर्भवती थी।
उस समय उनके मन का ज्वार-भाटा ‘स्वागत’ कविता के सृजन के पश्चात ही शांत हुआ होगा, ऐसी परिकल्पना है । हेमन्त जी ने नारी मन के उद्वेलन का रूपकार प्रदान किया है – भ्रूण रूप में नव-शिशु के आगमन तक की मनःस्थितियों का प्रतिफलन है। उन दोनों के मध्य संवादों व सवालों का झरोखा है जो बहुत संवेदनशील मार्मिक व हृदयस्पर्शी है।
‘स्वागत’ कविता को पढ़ते हुए मुझे स्मरण हो आया, सूरदास जी की यशोदा मैया का, कृष्ण की बालसुलभ चेष्टाओं व प्रश्नों का, जो गाहे-बगाहे मन में अनायास दस्तक देते हैं और वह उस आलौकिक आनंद में खो जाती है। ‘सूर जैसा वात्सल्य वर्णन विश्व-साहित्य में अनुपलब्ध है….. मानों वे वात्सल्य का कोना-कोना झांक आए हैं? कथन उपयुक्त व सार्थक है। हेमन्त जी ने इस कविता के माध्यम से एक भ्रूण के दस्तक देने से मन में आलोड़ित भावनाओं को बखूबी उड़ेला है व प्रतिपल मन में उठती आशंकाओं को सुंदर रूप प्रदान किया है। भ्रूण रूप में उस मासूम व उसकी माता के मन के अहसासों-जज़्बातों व भावों-अनुभूतियों को सहज व बोधगम्य रूप में प्रस्तुत किया है। भ्रूण का हिलना-डुलना, हलचल देना उसके अस्तित्व का भान कराता है, मानों वह उसे पुकार रहा हो। वह सारी रात उसके भविष्य के स्वप्न सँजोती है। नौ माह तक बच्चे से गुफ्तगू करना, अनगिनत प्रश्न पूछना, मान-मनुहार करना उज्ज्वल भविष्य के स्वप्न संजोना, रात भर माँ का लोरी तथा पिता का कहानी सुनना। दादा-दादी का उसे पूर्वजों की छाया-प्रतीक रूप में स्वीकारना, जहां उनके बुजुर्गों के प्रति श्रद्धाभाव को प्रदर्शित करता है वहीं भारतीय संस्कृति में उनके अगाध-विश्वास को दर्शाता है, वही उससे आकाश की बुलंदियों को छूने के शुभ संस्कार देना, माँ के दायित्व-बोध व अपार स्नेह की पराकाष्ठा है, जिसमें नवीन उद्भावनाओं का दिग्दर्शन होता है।
भ्रूण रूप में उस मासूम के भरण-पोषण की चिंता, गर्मी, सर्दी, शरद, वर्षा ऋतु में उसे सुरक्षा प्रदान करना। सुरम्य बर्फ का आँचल फैलाना उसके आगमन पर हृदय के हर्षोल्लास को व्यक्त करता है। मानव व प्रकृति का संबंध अटूट है, चिरस्थायी है और प्रकृति सृष्टि की जननी है। और दिन-रात, मौसम का ऋतुओं के अनुसार बदलना तथा अमावस के पश्चात पूनम का आगमन समय की निरंतर गतिशीलता व मानव का सुख-दुख में सं रहने का संदेश देता है।
परन्तु, माता को नौ माह का समय नौ युगों की भांति भासता है जो उसके हृदय की व्यग्रता-आकुलता को उजागर करता है। धार्मिक-स्थलों पर जाकर शिशु की सलामती की मन्नतें मानना व माथा रगड़ना जहां उसका प्रभु के प्रति श्रद्धा -विश्वास व आस्था के प्रबल भाव का पोषक है, वहीं उसकी सुरक्षा के लिए गुहार लगाना, अनुनय-विनय करना भी है।
अंत में माँ का अपने शिशु को संसार के मिथ्या व मायाजाल और जीवन में संघर्ष की महत्ता बतलाना, आगामी आपदाओं व विभीषिकाओं का साहस से सामना करने का संदेश देना बहुत सार्थक प्रतीत होता है। परंतु माँ का यह कथन “मैंने भी मन में ठानी है, तुम्हें अच्छा इंसान बनाऊँगी’ उसके दृढ़ निश्चय, अथाह विश्वास व अगाध निष्ठा को उजागर करता है। यह एक संकल्प है माँ का, जो उस सांसारिक आपदाओं में से जूझना ही नहीं सिखलाती, बल्कि स्वयं को महफूज़ रखने व सक्षम बनाने का मार्ग भी दर्शाती है।
हेमन्त जी ने ‘स्वागत’ कविता के माध्यम से मातृ-हृदय के उद्वेलन को ही नहीं दर्शाया, उसके साथ संवादों के माध्यम से हृदय के उद्गारों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया है। उनका यह प्रयास श्लाधनीय है, प्रशंसनीय है, कल्पनातीत है। उनकी लेखनी को नमन। उनकी चारित्रिक विशेषता व साहित्यिक लेखन के बारे में मुझे शब्दभाव खलता है और मैं अपनी लेखनी को असमर्थ पाती हूँ। वे साहित्य जगत के जाज्वल्यमान नक्षत्र की भांति पूरी कायनात में सदैव जगमगाते रहें तथा अपने भाव व विचार उनके हृदय को आंदोलित-आलोकित करते रहें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ —
शुभाशी,
मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।)
(आज प्रस्तुत है सुदूर पूर्व भारत की प्रख्यात लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी का आलेख। यह आलेख असम की आहोम जनजाति जो कि मूल रूप से ताई जाति से संबद्ध हैं के बारे में बेहद रोचक जानकारी प्रदान करता है । )
अहोम लोग मूल रूप से ताई जाति के लोग हैं। असम में आने के बाद से ही उन्हें आहोम नाम से संबोधित किया गया। इन लोगों का मूल निवास स्थान चीन के दक्षिण पश्चिम अंचल, वर्तमान में यूनान प्रांत के मूंगमाउ राज्य में था। इन लोगों को ताई लोगों के बीच बड़े गुट के तौर पर जाना जाता है। इन लोगों के पूर्वज 13वीं शताब्दी में चुकाफा राजा के नेतृत्व में पाटकाई पर्वत पार कर पूर्वी असम या तत्कालीन सौमार में आए और राज्य की स्थापना की। बाद में धीरे धीरे पश्चिम की तरफ मनाह तक राज्य का विस्तार कर 600 वर्षों से अधिक समय तक राज्य का शासन किया। इन लोगों की भाषा ताई या शान थी। लेकिन कालक्रम में विभिन्न वजहों से खास तौर पर राज्य विस्तार के साथ देश की जनसंख्या में वृद्धि होने पर प्रजा की सुविधा के बारे में सोच कर उन लोगों ने अपनी भाषा की जगह असमीया भाषा को स्वीकार कर लिया। लेकिन प्राचीन पूजा पाठ, रीति नीति संबंधी समस्त कार्य उनके पंडित पुरोहित ताई भाषा में ही करते रहे और आज भी कर रहे हैं। इसी तरह राज्य के कार्य में भी 18 वीं शताब्दी तक आहोम भाषा का प्रचलन था। वर्तमान समय में ताई भाषा बोलने वाले लोगों कीसंख्या
पूर्वोत्तर भारत के असम से लेकर म्यांमार, दक्षिण चीन, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया, वियतनाम तक फैल गई है। आहोम के अलावा असम में खामती, फाके, खामयांग, आइतन और तुकंग नामक पांच ताई जनगोष्ठीयों के लोग रहते हैं। सन 2012-14 के सर्वेक्षण के अनुसार वर्तमान समय में आहोम लोगों की जनसंख्या लगभग 25 लाख है।
वर्तमान समय में उनका निवास स्थान चराईदेव, शिवसागर, डिब्रूगढ़, जोरहाट, गोलाघाट, लखीमपुर, धेमाजी और तिनसुकिया जिले में है। इसके अलावा गुवाहाटी सहित अन्य शहरों में भी काफी मात्रा में आहोम लोग रहते हैं। इनकी मुख्य जीविका शालि धान की खेती थी। इसके साथ ही वे गाय, भैंस, सूअर, बकरी, मुर्गी का पालन भी करते थे। आजकल काफी लोगों ने जीव जंतु पालना छोड़ दिया है। पुरुष रेशम के कीट का पालन करते हैं और महिलाएं एंडी, मुगा, रेशम कीट का पालन करती हैं। सूत कातकर घर में ही वे जरुरी कपड़े का इंतजाम करती हैं। साग सब्जी की बाड़ी, केले सुपारी का बगीचा, एक लकड़ी की बाड़ी (घर) आहोम लोगों के निवास स्थान का स्वाभाविक मंजर होता है। जिनके पास जमीन है वे घर के परिसर में ही खेती करते हैं। वर्तमान समय में चाय की खेती भी कर रहे हैं।
पहले ये लोग मचान घर में रहते थे। जिनके खंभे लकड़ी के और दीवारें बांस की होती थीं और फूस का छप्पर होता था। घर के दो हिस्से होते थे। एक बड़ा घर और एक अतिथि घर। बड़े घर में एक रसोई होती थी और बाकी कमरों का उपयोग स्त्रियों के शयनकक्ष के रूप में किया जाता था। अतिथि घर का उपयोग अतिथियों के बैठने और रहने के लिए किया जाता था। प्रत्येक घर के साथ एक मवेशी घर भी अवश्य होता था। लेकिन आजकल सबके पास पक्के मकान हैं। आहोम लोगों का मुख्य भोजन भात है। भात के साथ स्वादिष्ट व्यंजन पकाना उनकी एक संस्कृति है। अक्सर वे लोग एक खट्टा साग या किसी दाल का व्यंजन विभिन्न सब्जियों, मछली या मांस आदि को भूनकर या उबालकर खाना पसंद करते हैं।
आहोम लोग दैनिक जीवन में जिन पेय पदार्थों का उपयोग करते हैं। उसका नाम है लाउ या साज। अक्सर लाही और बड़ा चावल को मिश्रित कर उबाल कर उसके साथ हूरपीठा को मिलाकर लाउ तैयार किया जाता है। काली चाय भी मुख्य पेय पदार्थ है।
आहोम लोग पूर्वजों की अवस्थिति पर विश्वास करते हैं। पूर्वजों की पूजा आराधना करना उनका प्रधान धर्म है। मृत माता पिता सहित 14 पुरखों को डाम के तौर पर मानकर विभिन्न अवसरों पर पूजा करते हैं। इन सभी पूजा में जीव का उत्सर्ग किया जाता है और ताई भाषा में स्तुति की जाती है। वैष्णव धर्म ग्रहण करने के बाद से यह पूजा आराधना सिर्फ पंडितों के बीच ही रह गई है।
आहोम लोगों के लिए विवाह वंश रक्षा के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण मांगलिक अनुष्ठान है। ये लोग सकलंग और देऊबान पद्धति से विवाह संपादित करते हैं। इन लोगों का शब्दकोश, इतिहास, आख्यान, नीतिशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, पूजा विधि आदि आहोम भाषा में रचित कई भोजपत्र ग्रंथ मौजूद हैं।
आहोम लोगों की संस्कृति अनूठी है। कृषि, स्थापत्य, शिल्पकला, रेशम और बुनाई शिल्प, पोशाक, अलंकार, खाद्य प्रस्तुति, विश्वास अविश्वास आदि का असमीया संस्कृति के सभी पहलुओं पर आहोम लोगों का सांस्कृतिक प्रभाव देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर शालि खेती का प्रचलन, पौद की सहायता से धान रोपना, गोटिया भैंस की मदद से हल जोतना, पगडंडी बनाकर खेत में सिंचाई की व्यवस्था करना, डिब्बे में बीज भरकर रखना इत्यादि। कई पहलुओं पर उनकी संस्कृति का प्रभाव असमीया संस्कृति में मौजूद है।
धन जन सहित असम को एक शक्तिशाली देश के हिसाब से निर्मित करने और यहां रहने वाले सभी लोगों को एक शासन के अधीन लाने में एक असमीया जाति के हिसाब से निर्मित करने के अलावा असम में रहने वाली विभिन्न जातियों और जनजातियों के बीच संपर्क भाषा के तौर पर असमीया भाषा का प्रचलन करने में आहोम लोगों का योगदान अतुलनीय है।
(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं। मैं विस्मित हूँ उनकी इस रचना को पढ़ कर। आज कितने ऐसे कवि या साहित्यकार हैं जिन्होने समाज के उस अंग के लिए लिखा है जिसे घृणा (किळस) की दृष्टि से देखा जाता है। उस अंग के लिए जिनका जीवन ही श्राप समान है। श्रीमती रंजना जी की कविता अनायास ही बाबा आमटे जी की याद दिला देता है जिनका सारा जीवन ही कुष्ठ रोगियों की सेवा में व्यतीत हो गया। ऐसे विषय पर इस अभूतपूर्व भावुक एवं मार्मिक रचना के लिए श्रीमती रंजना जी आपको एवं आपकी लेखनी को नमन।)
नाही किळस वाटली त्यांना अंगावरच्या जखमांची.
आणि झडलेल्या बोटांची….
पांढरपेशी सुशिक्षित आणि स्वतःला….
सर्जनशील सुसंस्कृत समजणाऱ्या समाजाने बहिष्कृत केलेल्या कुष्ठरोग्यांची ….
धुतल्या जखमा केली मलमपट्टी घातली पाखरं मायेची….
अंधकारात बुडलेल्या जीवांना दिली उमेद जगण्याची …..
पाहून सारा अधम दुराचार असह्य झाली पीडा अंतःकरणाची ..!
हजारोच्या संख्येने जमली जणू फौजच ही दुखीतांची.,
रक्ताच्या नात्यांनाही नाकारले
तीच गत समाजाची . …
कुत्र्याचीही नसावी…. इतकी ! लाही लाही… झाली जीवाची.
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(कर्मयोग का विषय)
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ।।49।।
योग श्रेष्ठ है , नीच है फल इच्छा से काम
बुद्धि बना तू योग की मन पर लगा लगाम।।49।।
भावार्थ : इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं।।49।।
Far lower than the Yoga of wisdom is action, O Arjuna! Seek thou refuge in wisdom; wretched are they whose motive is the fruit. ।।49।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
विश्व की प्रत्येक भाषा का समृद्ध साहित्य एवं इतिहास होता है, यह आलेखों में पढ़ा था। किन्तु, इसका वास्तविक अनुभव मुझे ई-अभिव्यक्ति में सम्पादन के माध्यम से हुआ। हिन्दी, मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी के विभिन्न लेखकों के मनोभावों की उड़ान उनकी लेखनी के माध्यम से कल्पना कर विस्मित हो जाता हूँ। प्रत्येक लेखक का अपना काल्पनिक-साहित्यिक संसार है। वह उसी में जीता है। अक्सर बतौर लेखक हम लिखते रहते हैं किन्तु, पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाते। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ जो मुझे इतनी विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिभावान साहित्यकारों की रचनाओं को आत्मसात करने का अवसर प्राप्त हुआ।
आज के अंक में सुश्री सुषमा भण्डारी जी की कविता “ये जीवन दुश्वार सखी री” अत्यंत भावप्रवण कविता है। इस कविता की भाव शैली एवं शब्द संयोजन आपको ना भाए यह कदापि संभव ही नहीं है।
सुश्री प्रभा सोनवणे जी हमारी पीढ़ी की एक वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं । स्कूल-कॉलेज के वैर-मित्रता के क्षण, सोशल मीडिया के माध्यम से सहेलियों का पुनर्मिलन और नम नेत्रों से विदाई। किन्तु, इन सबके मध्य स्वर्णिम संस्मरणों की अनुभूति। समय और पारिवारिक जिम्मेवारियों के साथ हम कितना बदल जाते हैं इसका हमें भी एहसास नहीं होता। हमें हमारे अस्तित्व से रूबरू कराती हुई वृत्ती -निवृत्ती जैसी लघुकथा सुश्री प्रभा सोनवणे जी जैसी संवेदनशील लेखिका ही लिख सकती हैं।
अन्त में मराठी साहित्य से जुड़े मराठी कवियों के लिए एक सूचना राज्यस्तरीय आयोजन *काव्य स्पंदन!!!*(साभार – कविराज विजय यशवंत सातपुते) में सहभागिता के लिए।
(सुश्री सुषमा भंडारी जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप साहित्यिक संस्था हिंदी साहित्य मंथन की महासचिव एवं प्रणेता साहित्य संस्थान की अध्यक्षा हैं ।आपको यह कविता आपको ना भाए यह कदापि संभव नहीं है। आपकी विभिन्न विधाओं की रचनाओं का सदैव स्वागत है। )
(सुश्री प्रभा सोनवणे जी हमारी पीढ़ी की एक वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं । हमें हमारे अस्तित्व से रूबरू कराती हुई वृत्ती -निवृत्ती जैसी लघुकथा सुश्री प्रभा सोनवणे जी जैसी संवेदनशील लेखिका ही लिख सकती हैं।)
आजही कामवाली आली नाही. निशा भांडी घासायच्या तयारीला लागली पण बराच वेळ भांडी घासायची मानसिकता होईना, नवरा म्हणाला “शेजा-यांच्या बाईला सांग ना आपलं काम करायला”!
“असं ऐनवेळी कोणी येणार नाही.” असं म्हणत ती भांडी घासायला लागली! कामवाली जे काम वीस मिनीटात करते त्याला पाऊण तास लागला!
हुश्श ऽऽ करत निशा आराम खुर्चीत बसली. मोबाईल हातात घेतला उगाचच दोन मैत्रिणीं मैत्रिणींना फोन केले, नंतर फेसबुक ओपन केलं…तर समोर नॅन्सी फर्नांडिस चा फोटो, “people you may know” मधे नॅन्सी फर्नांडिस! तिची कॉलेज मधली मैत्रीण! निशा ला अगदी युरेकाऽऽ युरेकाऽऽ चा आनंद! पन्नास वर्षांनी मैत्रीण फेसबुक वर दिसली! बी.एस.सी. च्या शेवटच्या वर्षी त्या दोघींचं कशावरून तरी बिनसलं होतं. सख्ख्या मैत्रिणी वैरीणी झाल्या!
पण त्या क्षणी निशाला नॅन्सी ची तीव्रतेने आठवण आली. कॉलेज च्या पहिल्या दिवशीच नॅन्सी भेटलीआणि मैत्री झाली. तीन वर्षे एकमेकींवाचून चैन पडत नव्हतं. पहाटे अभ्यासासाठी नॅन्सी चं दार ठोठावलं की, नॅन्सी ची आई म्हणे,
“नॅन्सी म्हणजे “लेझी मेरी” आहे, दहा वेळा उठवलं पण अजून बिछान्यातच आहे!”
नॅन्सी च्या आईच्या हातचा तो मस्त आल्याचा चहा… आणि अभ्यास! किती सुंदर होते ते दिवस….
कुठल्या शाळेत अगदी क्षुल्लक कारणावरून झालेलं भांडण…. एकमेकींपासून किती दूर नेऊन ठेवलं त्या भांडणाने….निशाचे डोळे भरून आले.
तिनं नॅन्सी ची फेसबुक प्रोफाईल पाहिली. ती वसई ला रहात असल्याचं समजलं….निशानं तिला रिक्वेस्ट पाठवली…
पाच सहा दिवस झाले तरी रिक्वेस्ट स्वीकारली गेली नव्हती. निशाचं आडनाव बदललेलं.. पन्नास वर्षात चेहरा मोहरा बराच बदललेला!
नॅन्सी ने ओळखलं नसेल का? की मनात राग आहे अजून? निशा खुपच बेचैन झाली!
आणि एक दिवस फ्रेन्ड रिक्वेस्ट स्वीकारल्या चा मेसेज आला. मेसेंजर वर नॅन्सी चे मेसेज ही होते, “कशी आहेस? खुप छान वाटलं तुला फेसबुक वर पाहून! आठ दिवस फेसबुक पाहिलंच नाही!”
मग महिनाभर चॅटींग, फोन होत राहिले! नॅन्सी चा वसई ला ये…हे आग्रहाचं आमत्रंण स्वीकारून निशा वसई ला पोचली! थांब्यावर नॅन्सी स्कूटर वर न्यायला आली होती. टिपीकल ख्रिश्चन बायका घालतात तसा फ्रॉक, पांढ-या केसांचा बॉयकट….दोघी ही सत्तरीच्या आत बाहेर!
नॅन्सी ची स्कूटर एका चर्च च्या आवारात येऊन थांबली. बाजूलाच तिचं बैठं घर….मस्त कौलारू …प्रशस्त!
“हे घर माझ्या आजी चं आहे, मला वारसा हक्काने मिळालेलं!”
नॅन्सी बरीच वर्षे अमेरिकेत राहिलेली, नवरा, मुलं, सूना, नातवंडं सगळे अमेरिकेत!
नॅन्सी ला मातृभूमी चे वेध लागले आणि ती भारतात आली. वसई तिचं आजोळ, दोन वर्षांपूर्वी नॅन्सी इथे आली, अगदी एकटी….
“तुला एकटीला करमतं इथे?” या निशा च्या प्रश्नावर नॅन्सी हसली,
“आपण एकटेच असतो गं आयुष्याभर, कुटुंबात राहून एकटं असण्यापेक्षा, हे एकटेपण आवडतं मला!”
“पण मग वेळ कसा जातो तुझा?”
“अगं दिवस कसा जातो कळत नाही. माझी सगळी कामं मीच करते. बाई फक्त डस्टींग आणि झाडूफरशी करायला येते! आधी मीच करत होते, पण ती बाई विचारायला आली,”
“काही काम आहे का?”
“ती सकाळी लवकर येऊन काम करून जाते, आम्ही सकाळ चा चहा आणि ब्रेकफास्ट बरोबर घेतो. खुप गप्पीष्ट आहे ती, लक्ष्मी नाव तिचं!”
मग दिवस भर मी एकटीच…स्वयंपाक, कपडे मशीन ला लावणं, भांडी घासणं, रेडिओ ऐकते, वाचन करते, मोबाईल आणि टीव्ही फारसा पहात नाही. आणि मुख्य म्हणजे मी लोकरीचं विणकाम भरपूर करते, दुपारी चार मुली येतात लोकरीचं वीणकाम शिकायला!
रविवारी चर्च, गरीबांना मदत करते, माझं एकटेपण मी छान एंजॉय करतेय….
थोडं फार सोशल वर्क…गरीब गरजूंना मदत करते…पैसे आहेत माझ्या कडे आणि माझे खर्च ही फार नाहीत.
विशीत दिसत होती त्यापेक्षा नॅन्सी आता खुप सुंदर दिसत होती. चेह-यावर, व्यक्तिमत्वात जबरदस्त आत्मविश्वास!
पूर्वी ची झोपाळू, हळूबाई असलेली नॅन्सी खुपच चटपटीत, स्मार्ट झाली होती. तिचा त्या घरातला वावर, व्यवस्थितपणा, वक्तशीरपणा, कामातली तत्परता, कामवाली शी बोलण्याची पद्धत, पटकन केलेला रूचकर स्वयंपाक सारंच विलोभनीय होतं!
चार दिवसांत निशानं इकडचा चमचा तिकडे केला नाही..म्हणजे नॅन्सी ने तिला तो करू दिला नाही..” तू बस गं, ही माझी रोज ची कामं आहेत” असं म्हणत ती घरातली कामं फटाफट उरकत होती.
भरपूर गप्पा…जुनी गाणी ऐकणं…वसई च्या किल्ल्यातली आणि आसपासच्या परिसरातील भटकंती… सारं खुप सुखावह! पन्नास वर्षाचा भला मोठा कालखंड निघून गेला होता. पण या चार दिवसांत त्या कॉलेजमधल्या निशा – नॅन्सी होत्या.
“नॅन्सी किती छान योगायोग आहे आपल्या भेटीचा! आठवणींना वय नसतं, त्या सदा टवटवीत असतात…..जशी तू..मी मात्र आता म्हातारी झाले…आणि म्हणूनच निवृत्त ही!”
“निशा निवृत्ती ला वय नसतं, ते आपण ठरवायचं…जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबह शाम ….”
“खुप छान वाटतंय गं, का अशा दूर गेलो आपण? आपल्या भांडणाचं कारण ही किती फालतू……”
“जाऊ दे निशा….नको त्या आठवणी, जर तसं घडलं नसतं तर आज हा आनंद आपण घेऊ शकलो असतो का? सारी देवबापाची इच्छा!
नॅन्सी ला दोन मुलगे, निशाला दोन मुली सगळे आपापल्या करिअर मधे, संसारात मश्गुल……
नॅन्सी सारे पाश सोडून इतक्या लांब नव्या उमेदीने आलेली… वयाच्या अडुसष्टाव्या वर्षी केलेली नवीन सुरूवात…तिच्या वैवाहिक आयुष्याबद्दल ती फारसं बोलत नव्हती! निशा चा संसार ही फारसा सुखाचा नव्हता, गेली पन्नास वर्षे टिकून होता इतकं च!
निशा जायला निघाली तेव्हा नॅन्सी नं तिला घट्ट मिठी मारली. दोघींच्या डोळ्यात अश्रू च्या धारा…बाहेर पाऊस….
नॅन्सी ने स्वतः विणलेला बिनबाह्यांचा शुभ्र पांढरा स्वेटर निशा च्या अंगावर चढवला आणि हातात हात गुंफून पाऊस थांबायची वाट पहात बसून राहिल्या…
आता त्या परत कधी परत भेटणार होत्या माहित नाही….
निशा घरी पोचली तेव्हा, नवरा टीव्ही वर रात्री च्या बातम्या पहात होता…तिला पाहून त्याच्या चेह-या वरची रेषा ही हलली नाही.
निशा च्या आळशी सुखवस्तूपणाची साक्षीदार असलेली आराम खुर्ची तिची वाटच पहात होती…….
खरंच निवृत्ती ला वय नसतं ती वृत्ती असते निशा स्वतःला च सांग त होती…..
भावार्थ : हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम ‘समत्व’ है।) ही योग कहलाता है।।48।।
Perform action, O Arjuna, being steadfast in Yoga, abandoning attachment and balanced in success and failure! Evenness of mind is called Yoga. ।।48।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)