हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विश्वमारी या महामारी ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(आज मानवता अत्यंत कठिन दौर से गुजर रही है।  कई दिनों से ह्रदय अत्यंत  विचलित था । अंत में रचनाधर्मिता की जीत हुई और कुछ पंक्तियाँ लिख पाया। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह मिलेगा और आप मेरी मनोभावनाओं से सहमत होंगे। आपको यह कविता पसंद आये तो मित्रों में अवश्य साझा करें। मेरे लिए नहीं सम्पूर्ण मानवता के लिए। यह आग्रह है मेरा  मानवता से मानवता के लिए । प्रस्तुत है मेरी  इसी क्षण लिखी गई समसामयिक कविता  “विश्वमारी या महामारी”।)

☆विश्वमारी या महामारी ☆

तुम मुझे कुछ भी कह सकते हो

विश्वमारी या महामारी

प्राकृतिक आपदा या मानव निर्मित षडयंत्र

अंत में हारोगे तो तुम ही न।

 

चलो मैं मान लेती हूँ,

मैं प्राकृतिक आपदा हूँ।

तुमने मेरा शांत-सौम्य रूप देखा था

और विभीषिका भी, यदा कदा।

 

कितना डराया था तुम्हें

आँधी-तूफान-चक्रवात से

भूकंप और भूस्खलन से

ओज़ोन छिद्र से

वैश्विक उष्णता से

जलवायु परिवर्तन से

और न जाने कितने सांकेतिक रूपों से

किन्तु,

तुम नहीं माने।

चलो अब तो मान लो

यह मानव निर्मित षडयंत्र ही है

जिसके ज़िम्मेदार भी तुम ही हो

तुमने खिलवाड़ किया है

मुझसे ही नहीं

अपितु

सारी मानवता से।

 

तुम्हें मैंने दिया था

सारा नश्वर संसार – ब्रह्मांड

और

यह अपूर्व मानव जन्म

सुंदर सौम्य प्राकृतिक दृश्य

शीत, वसंत, पतझड़, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुएँ

हरे भरे वन उपवन

जीव-जंतु और सरीसृप

सुंदर मनमोहक झरने

शांत समुद्र तट

और

और भी बहुत कुछ

उपहारस्वरूप

जिनका तुम ले सकते थे ‘आनंद’।

 

किन्तु, नहीं,

आखिर तुम नहीं माने

तुमने शांत सुरम्य प्रकृति के बजाय

‘वैश्विक ग्राम’ की कल्पना की

किन्तु ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का सिद्धान्त भूल गए।

तुमने मानवता को

कई टुकड़ों में बांटा

रंगभेद, धर्म और जातिवाद के आधार पर।

तुमने प्राथमिकता दी

युद्धों और विश्वयुद्धों को

महाशक्ति बनने की राजनीति को

पर्यावरण से खेलने को

जीवों -सरीसृपों  को आहार बनाने को

विनाशक अस्त्र शस्त्रों को

स्वसंहारक जैविक शस्त्रों को

अहिंसा के स्थान पर हिंसा को

प्रेम के स्थान पर नफरत को

 

तुमने सारी शक्ति झोंक दी

विध्वंस में

गॅस चेम्बर और कॉन्सेंट्रेशन कैम्प

हिरोशिमा-नागासाकी और भोपाल गैस त्रासदी

गवाह हैं इसके।

तुम भूल गए

तुमने कितनी भ्रूण हत्याएं की

प्रत्येक सेकंड में कितने प्यारे बच्चे / मानव

भुखमरी, महामारी, रोग

और

नफरत की हिंसा के शिकार होते हैं।

काश,

तुम सारी शक्ति झोंक सकते

मानवता के उत्थान के लिए

दे सकते दो जून का निवाला

और बना सकते

अपने लिए अस्पताल ही सही।

 

तुम मुझे कुछ भी कह सकते हो

विश्वमारी या महामारी

प्राकृतिक आपदा या मानव निर्मित षडयंत्र

अंत में हारोगे तो तुम ही न।

 

आज जब मैंने तुम्हें आईना दिखाया

तो तुम डर गए

अपने घरों में दुबक कर बैठ गए

अब उठो

और लड़ो मुझसे

जिसके तुम्ही ज़िम्मेवार हो

अब भी मौका है

प्रकृति के नियमों का पालन करो

प्रकृति से प्रेम करो

रंगभेद, धर्म और जातिवाद से ऊपर उठकर

मानवता से प्रेम करो

अपने लिए न सही

कम से कम

अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए ही सही

जिसे तुमने ही जन्मा है

जैसे मैंने जन्मा है

तुम्हें – मानवता को

यह सुंदर सौम्य प्रकृति

उपहार है

तुम्हारे लिए

तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों के लिए

मानवता के लिए।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #42 ☆ जनता कर्फ्यू और हम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 41 –  जनता कर्फ्यू और हम

मित्रो, कोरोनावायरस के संक्रमण से बचाव के एक उपाय के रूप में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कल रविवार 22 मार्च 2020 को  *जनता कर्फ्यू* का आह्वान किया है। हम सबको सुबह 7 से रात 9 बजे तक घर पर ही रहना है। 24 घंटे की यह फिजिकल डिस्टेंसिंग इस प्राणघातक वायरस की चेन तोड़ने में मददगार सिद्ध होगी।

मेरा अनुरोध है कि हम सब इस *जनता कर्फ्यू का शत-प्रतिशत पालन करें।* पूरे समय घर पर रहें। सजगता और सतर्कता से अब तक भारतवासियों ने इस वायरस के अत्यधिक फैलाव से देश को सुरक्षित रखा है। हमारा सामूहिक प्रयास इस सुरक्षा चक्र का विस्तार करेगा।

एक अनुरोध और, आदरणीय प्रधानमंत्री ने संध्या 5 बजे अपनी-अपनी बालकनी में आकर *थाली और ताली* बजाकर हमारे लिए 24 x 7 कार्यरत स्वास्थ्यकर्मियों, स्वच्छताकर्मियों, वैज्ञानिकों और अन्य राष्ट्रसेवकों के प्रति धन्यवाद का भी आह्वान किया है। हम इस धन्यवाद में परिवार के लिए अखंड कर्मरत महिलाओं को भी सम्मिलित करें।

समूह के साथी भाई सुशील जी ने एक पोस्ट में इसका उल्लेख भी किया है। कल शाम ठीक 5 बजे हम *अपनी-अपनी बालकनी में आकर थाली एवं ताली अवश्य बजाएँ।*

एक बात और, कृपया बच्चों को घर से बाहर खेलने के लिए न जाने दें। यह कठिन अवश्य है पर इस कठिन समय की यही मांग है। बच्चों को एकाध मित्र/सहेली के साथ घर पर ही खेलने को प्रेरित करें। बच्चों के हाथ भी साबुन/सैनिटाइजर से धुलवाते रहें।

विश्वास है कि हमारा संयम और अनुशासन हमें सुरक्षित रखेगा। स्मरण रहे, जो सजग हैं, उन्हीं के लिए जग है।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 42 ☆ लघुकथा – कुशलचन्द्र और आचार्यजी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  की लघुकथा  ‘कुशलचन्द्र और आचार्यजी ’  में  डॉ परिहार जी ने उस शिष्य की पीड़ा का सजीव वर्णन किया है जो अपनी पढ़ाई कर उसी महाविद्यालय में व्याख्याता हो जाता है । फिर किस प्रकार उसके भूतपूर्व आचार्य कैसे उसका दोहन करते हैं।  इसी प्रकार का दोहन शोधार्थियों का भी होता है जिस विषय पर डॉ परिहार जी ने  विस्तार से एक व्यंग्य  में चर्चा भी की है। डॉ परिहार जी ने एक ज्वलंत विषय चुना है। शिक्षण के  क्षेत्र में इतने गहन अनुभव में उन्होंने निश्चित ही ऐसी कई घटनाएं  देखी होंगी । ऐसी अतिसुन्दर लघुकथा के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 42 ☆

☆ लघुकथा  – कुशलचन्द्र और आचार्यजी   ☆

 कुशलचन्द्र नामक युवक एक महाविद्यालय में अध्ययन करने के बाद उसी महाविद्यालय में व्याख्याता हो गया था। उसी महाविद्यालय में अध्ययन करने के कारण उसके अनेक सहयोगी उसके भूतपूर्व गुरू भी थे।

उनमें से अनेक गुरू उसे उसके भूतपूर्व शिष्यत्व का स्मरण दिलाकर नाना प्रकार से उसकी सेवाएं प्राप्त करते थे। शिष्यत्व के भाव से दबा और नौकरी कच्ची होने से चिन्तित कुशलचन्द्र अपने गुरुओं से शोषित होकर भी कोई मुक्ति का मार्ग नहीं खोज पाता था।

प्रोफेसर लाल इस मामले में सिद्ध थे और शिष्यों के दोहन के किसी अवसर को वे अपने हाथ से नहीं जाने देते थे।

वे अक्सर अध्यापन कार्य से मुक्त होकर कुशलचन्द्र के स्कूटर पर लद जाते और आदेश देते, ‘वत्स, मुझे ज़रा घर छोड़ दो और उससे पूर्व थोड़ा स्टेशन भी पाँच मिनट के लिए चलो।’

कुशलचन्द्र कंठ तक उठे विरोध को घोंटकर गुरूजी की सेवा करता।

एक दिन ऐसे ही आचार्य लाल कुशलचन्द्र के स्कूटर पर बैठे, बोले, ‘पुत्र, ज़रा विश्वविद्यालय चलना है। घंटे भर में मुक्त कर दूँगा।’

कुशलचन्द्र दीनभाव से बोला, ‘गुरूजी, मुझे स्कूटर पिताजी को तुरन्त देना है। वे ऑफिस जाने के लिए स्कूटर की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। उनका स्कूटर आज ठीक नहीं है।’

आचार्यजी हँसे, बोले, ‘वत्स, जिस प्रकार मैं तुम्हारी सेवाओं का उपयोग कर रहा हूँ उसी प्रकार तुम्हारे पिताजी भी अपने कार्यालय के किसी कनिष्ठ सहयोगी की सेवाओं का उपयोग करके ऑफिस पहुँच सकते हैं। अतः चिन्ता छोड़ो और वाहन को विश्वविद्यालय की दिशा में मोड़ो।’

कुशलचन्द्र चिन्तित होकर बोला, ‘गुरूजी, हमारे घर के पास ऑफिस का कोई कर्मचारी नहीं रहता।’

आचार्यजी पुनः हँसकर बोले, ‘हरे कुशलचन्द्र! तुम्हारे पिताजी बुद्धिमान और साधन-संपन्न हैं। वे इस नगर में कई वर्षों से रह रहे हैं। और फिर स्कूटर न भी हो तो नगर में किराये के वाहन प्रचुर मात्रा में हैं।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘लेकिन रिक्शे से जाने में देर हो सकती है। मेरे पिताजी ऑफिस में कभी लेट नहीं होते।’

आचार्यजी बोले, ‘हरे कुशलचन्द्र, यह समय की पाबन्दी बड़ा बंधन है। अब मुझे देखो। मैं तो अक्सर ही महाविद्यालय विलम्ब से आता हूँ, किन्तु उसके बाद भी मुझे तुम जैसे छात्रों का निर्माण करने का गौरव प्राप्त है। अतः चिन्ता छोड़ो और अपने वाहन को गति प्रदान करो।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘गुरूजी, आज तो मुझे क्षमा ही कर दें तो कृपा हो।’

अब आचार्यजी की भृकुटि वक्र हो गयी। वे तनिक कठोर स्वर में बोले, ‘सोच लो, कुशलचन्द्र। अभी तुम्हारी परिवीक्षा अर्थात प्रोबेशन की अवधि चल रही है और परिवीक्षा की अवधि व्याख्याता के परीक्षण की अवधि होती है। तुम जानते हो कि मैं प्राचार्य जी की दाहिनी भुजा हूँ। ऐसा न हो कि तुम अपनी नादानी के कारण हानि उठा जाओ।’

कुशलचन्द्र के मस्तक पर पसीने के बिन्दु झिलमिला आये। बोला, ‘भूल हुई। आइए गुरूजी, बिराजिए।’

इसी प्रकार कुशलचन्द्र ने लगभग छः माह तक अपने गुरुओं की तन, मन और धन से सेवा करके परिवीक्षा की वैतरणी पार की।

अन्ततः उसकी साधना सफल हुई और एक दिन उसे अपनी सेवाएं पक्की होने का आदेश प्राप्त हो गया।

दूसरे दिन अध्यापन समाप्त होने के बाद कुशलचन्द्र चलने के लिए तैयार हुआ कि आचार्य लाल प्रकट हुए। उसे बधाई देने के बाद बोले, ‘वत्स! कुछ वस्तुएं क्रय करने के लिए थोड़ा बाज़ार तक चलना है। तुम निश्चिंत रहो, भुगतान मैं ही करूँगा।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘भुगतान तो अब आप करेंगे ही गुरूजी,किन्तु अब कुशलचन्द्र पूर्व की भाँति आपकी सेवा करने के लिए तैयार नहीं है। अब बाजी आपके हाथ से निकल चुकी है।’

आचार्यजी बोले, ‘वत्स, गुरू के प्रति सेवाभाव तो होना ही चाहिए। ‘

कुशलचन्द्र ने उत्तर दिया, ‘सेवाभाव तो बहुत था गुरूजी, लेकिन आपने दो वर्ष की अवधि में उसे जड़ तक सोख लिया। अब वहाँ कुछ नहीं रहा। अब आप अपने इतने दिन के बचाये धन का कुछ भाग गरीब रिक्शे और ऑटो वालों को देने की कृपा करें।’

आचार्यजी ने लम्बी साँस ली,बोले, ‘ठीक है वत्स, मैं पैदल ही चला जाऊँगा।’

फिर वे किसी दूसरे शिष्य की तलाश में चल दिये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ क्या होएगा? ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आज  प्रस्तुत है आचार्य संजीव वर्मा ‘ सलिल ‘ जी की  एक समसामयिक रचना    क्या होएगा?।)

☆ क्या होएगा? ☆

इब्नबतूता

पूछे: ‘कूता?

क्या होएगा?’

 

काय को रोना?

मूँ ढँक सोना

खुली आँख भी

सपने बोना

आयसोलेशन

परखे पैशन

दुनिया कमरे का कोना

येन-केन जो

जोड़ धरा है

सब खोएगा

.

मेहनतकश जो

तन के पक्के

रहे इरादे

जिनके सच्चे

व्यर्थ न भटकें

घर के बाहर

जिनके मन निर्मल

ज्यों बच्चे

बाल नहीं

बाँका होएगा

.

भगता क्योंहै?

डरता क्यों है?

बिन मारे ही

मरता क्यों है?

पैनिक मत कर

हाथ साफ रख

हाथ साफ कर अब मत प्यारे!

वह पाएगा

जो बोएगा

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२१-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 27 – हाथों में हाथ  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण  एवं सार्थक रचना ‘हाथों में हाथ । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 27 – विशाखा की नज़र से

☆ हाथों में हाथ ☆

 

तुमनें हाथ से छुड़ाया हाथ

और हाथ मेरा

दुआ मांगता आसमां तकता रहा

 

मुझे नहीं चाहिए अनामिका में

किसी धातु का कोई छल्ला

जो दबाव बनाता हो हृदय की रग में

 

तुम बस मेरी उंगलियों के

मध्य के खाली स्थान को भर दो

मेरे हाथ को बेवजह यूँ ही पकड़ लो

 

ताकि, मैं महसूस कर सकूं

मुलायम हाथ की मज़बूत पकड़

कह सकूं,

           “दुनिया को हाथ की तरह 

             गर्म और सुन्दर होना चाहिये “

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दीपिका साहित्य # 8 ☆ नयी रोशनी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  एक अतिसुन्दर समसामयिक प्रेरणास्पद कविता नयी रोशनी । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ दीपिका साहित्य # 8 ☆

☆ नयी रोशनी

 

नयी रोशनी फिर जगमगाएगी , वो सुबह जल्द ही आएगी,

हौसला अपना रखना बुलंद, ये ख़ुशी हमसे कब तक छुप पाएगी ,

एक जुट होने का है वक़्त , फिर देखो हर जीत हमारी कहलाएगी ,

हिम्मत ना हारना बस जरा सा रास्ता है बाकी, उस पार फिर खुशियाली लहरायेगी ,

जीवन है संघर्ष का नाम दूसरा, उसके बाद सफलता तुमसे हाथ मिलाएगी ,

ये उतार चढ़ाव तो हिस्सा है, चलते रहना ही जिंदादिली कहलाएगी ,

फबता है खिलखिलाना तुमको , ये चिंता तो चंद लम्हेँ ही रह पाएगी ,

नयी रोशनी फिर जगमगाएगी, वो सुबह जल्द ही आएगी . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विश्व कविता दिवस विशेष – सुनो कविता ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  द्वारा विश्व कविता दिवस पर  रचित विशेष कविता सुनो कविता)

विश्व कविता दिवस विशेष – सुनो कविता

 

सुनो कविता

कविता दिवस पर रचना चाहती हूँ तुम्हें

जिसमें

गुनगुन निर्झर की

बोली सुने सृष्टि।।

कभी रोशनी की चादर से बुने दिन की कविता

कभी स्याह रेशम के ताने-बाने से बनी तारिका निशा की कविता।।

 

मानती हूँ कि बहुत गुनगुनाती है कविता मेरी

सूर कबीर तुलसी

रसखान की वाणी में

बहुत बोली है कविता!!

 

पर क्या आज वह वह बोलती है

जो बोलना चाहिए

क्या वह सुनाती है जो सुनाना चाहिए

वह दिखाती है जो दिखाना चाहिए।।

हाँ – – – सुनो कविता!!

सुनो कविता– सुनो ना

तुम्हें उगाने हैं बंजर में फूल

तुम्हें जगाने हैं बावरे बंजारे सपनें

तुम्हें जोड़नी है रिश्तों की टूटती डोर!!

बनना है तुम्हें वो साहित्य

जो समाज का दर्पण है!!

विश्व गुरु और सोन चिड़िया की कहानी वाला।।

चाणक्य और विदुर की रवानी वाला

अशफाक और आजाद की जवानी वाला।।

बनोगी ना?? रचोगी ना??चलोगी ना??

वहां तक मेरे साथ मेरी कविता।।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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English Literature – Poetry ☆ World Poetry Day – Yes, you are the Witness ☆ Ms. Swapna Amrutkar

Ms.  Swapna Amrutkar

(We are extremely thankful to  young poetess Ms.  Swapna Amrutkar for sharing her literary work with e-abhivyakti.  Today we  present her special poem Yes, you are the Witness on the eve of World Poetry Day. )

☆ World Poetry Day – Yes, you are the Witness ☆

 

Feelings are floating

Like a silent river

With fair and unfair

Every new thought deeper, 1

Yes, you are the witness

Some emotions overflow

May heart beats squeezes

Some incident happened

& seasonal memories breezes, 2

Yes, you are the witness

Life changes in a second

Unknowingly hard time comes

My words becoming my weapon

And Poems becomes realities, 3

Yes, you are the witness

At every turning point of life

I follow my Index finger

You became my sharing box

And friends are Pen and Paper, 4

Yes, you are the witness

© Swapna Amrutkar, Pune

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विश्व कविता दिवस – श्वास मोकळा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज  प्रस्तुत है  विश्व कविता दिवस पर आपकी एक  विशेष कविता   “श्वास मोकळा ।)

☆ श्वास मोकळा ☆

(जागतिक कविता दिनाच्या सर्व कवी, कवयित्री व कवितांचा आस्वाद घेणाऱ्या रसिकांना मनापासून शुभेच्छा!)

 

रस्त्याने या जरी घेतला श्वास मोकळा

मला वाटले रस्ता झाला आज पांगळा

 

सुन्याच बागा मैदानावर नाही गर्दी

हुशार काळा आळसावून बसलाय फळा

 

शस्त्राविन हे युद्ध लादले या जगतावर

रक्तपात ना मरतो आहे देह सापळा

 

मित्र जमेना संचारावर आली बंदी

आवरला मग साऱ्यांनी हा मोह आंधळा

 

सार्क देश हे मिळून करतील इथे सामना

नका करू रे तुम्ही पराचा उगा कावळा

 

बर्गर पिझ्झा खाणे आता बंदच केले

आंबट-चिंबट चाखत आहे संत्र आवळा

 

तुझ्या सारखे कितीतरी रे आले गेले

युद्ध जिंकुनी पुन्हा एकदा करू सोहळा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 3 ☆ जाऊ नकाचं तुम्ही ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण  कविता “जाऊ नकाचं तुम्ही“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 3 ☆

☆ कविता – जाऊ नकाचं तुम्ही☆ 

ओठात थांबलेल्या शब्दात गुंतलो मी

ती नजर मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

झाकोळल्या दिशा अन् मेघगर्जनांनी

संध्या ती मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

रात्रीत काजव्याचे स्वर कर्णकटू कानी

ती रजनी मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

सरता गं मध्यरात्र बोझील पापण्यांनी

ती निशा मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

सुटला पहाटवारा प्रीत बांधली ही कोणी

ती उषा मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही.

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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