भावार्थ : हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो।।45।।
The Vedas deal with the three attributes (of Nature); be thou above these three attributes, O Arjuna! Free yourself from the pairs of opposites and ever remain in the quality of Sattwa (goodness), freed from the thought of acquisition and preservation, and be established in the Self. ।।45।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
आपसे संवाद करना और आपकी प्रतिक्रियाएँ जानना फिर उन पर अमल करना मुझे इस क्षेत्र में कुछ करने हेतु सकारात्मक ऊर्जा देता है।
सम्मानित लेखक मित्रों की रचनाएँ अधिक से अधिक पाठकों द्वारा पढ़ी और सराही जाती है तो लगता है कि लेखक मित्र का लेखन सफल हो गया है और मेरा प्रयोग/ प्रयास सार्थक हो रहा है।
इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में लेखक/पाठक मित्रों का योगदान सराहनीय है। आज प्रातः इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जब e-abhivyakti के डेशबोर्ड पर दृष्टि डाली तो हृदय प्रफुल्लित हो उठा। लेखक पाठक मित्रों द्वारा पोर्टल पर विजिटर्स की बढ़ती हुई संख्या (12,600+) का बढ़ता हुआ ग्राफ कुछ और नया प्रयोग करने हेतु प्रोत्साहित करता है।
आज के दौर में जब स्तरीय पत्रिकाएँ बाजार से गुम होती जा रहीं हैं ऐसे में डिजिटल मंच पर ई-अभिव्यक्ति जैसे प्रयोग आशा की किरण हैं।
कुछ लेखक मित्रों ने उत्सुकता वश जानना चाहा कि उनकी रचनाएँ कितने पाठकों द्वारा पढ़ी गई?
यदि आप इसे तुलनात्मक दृष्टि से न लें और स्वस्थ प्रतियोगिता की दृष्टि से लें तो मैं गत एक माह में पाठकों द्वारा दस सर्वाधिक पढ़ी गई रचनाएँ एवं उनका लिंक आपसे शेयर करना चाहूँगा। इन्हें आप सांकेतिक रूप से ले सकते हैं क्योंकि इनमें वे संख्याएं सम्मिलित हैं जो पाठकों द्वारा शॉर्ट लिंक का उपयोग करते हुए पढ़ी गईं हैं। इनमें वे संख्याएँ सम्मिलित नहीं हैं जो पाठकों द्वारा सीधे पोर्टल पर जाकर पढ़ी गईं हैं। अतः वास्तविक पाठकों की संख्या इससे अधिक हो सकती है।
APRIL 4 मराठी कविता – ☆ असीम बलिदान ‘पोलीस’ ☆ – श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर – 263 पाठक – ly/2CWKVcW
APRIL 11 हिन्दी कविता – ? सुनहरे पल……… ? – सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ – 242 पाठक – ly/2GdvHlD
APRIL 6 – मराठी आलेख – ? आनंदाचं फुलपाखरू ?- श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे – 150 पाठक – ly/2G2Evuy
APRIL 3 – हिन्दी कविता ☆ दोहे ☆ – सुश्री शारदा मित्तल – 116 पाठक -ly/2WCzTRi
MAR 18 – मराठी आलेख – * विषवल्ली.. . ! * – डॉ. रवींद्र वेदपाठक – 77 पाठक – ly/2TGFglD
APRIL 5 – हिन्दी कविता – ☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव – 68 पाठक – bit.ly/2UiieBV
MAR 26 – रंगमंच स्मृतियाँ – “कोर्ट मार्शल” – श्री समर सेनगुप्ता एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव – 66 पाठक -ly/2HHXQU8
APRIL 4 – हिन्दी – लघुकथा – ☆ फर्ज़ ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता – 59 पाठक -ly/2OMbTZv
APRIL 3 – मराठी कविता – ☆ अळवाचं पाणी ☆ – श्रीमति सुजाता काले – 59 पाठक – ly/2OG4VFm
APRIL 12 – हिन्दी कविता ☆ मुक्ता जी के मुक्तक ☆ –डा. मुक्ता – 57 पाठक -ly/2KxhX9F
आज पत्रिकाएं खरीद कर और साझा कर पढ़ने वाले पाठकों की संख्या में निरंतर गिरावट आ रही है। पुस्तकालय बंद होने की कगार पर हैं। ऐसे में यदि मित्र लेखक / पाठक विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर, व्हाट्सएप्प या फेसबुक पर लिंक शेयर कर अधिकतम लेखकों /पाठकों तक रचनाओं को उपलब्ध कराने में सफल होते हैं तो निश्चित ही यह प्रयोग सफल होगा।
(Ms. Neelam Saxena Chandra’s poem “Fear of Future” is amazing. Feeling of an unborn child in a foetus can be only imagined and felt by a women author. Truly, as a gentleman author I can only honour the feelings of a women.)
(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का आधुनिक समाज को आईना दिखाता हुआ एक सटीक, सार्थक एवं सामयिक व्यंग्य।)
माय मॉम इज द बेस्ट मॉम. उन्होंने मुझे कभी रोने नहीं दिया. आया-माँ बताती हैं कि जब मैं अबोध शिशु था, तभी से, जब जब रोने लगता मॉम यूट्यूब पर ‘लकड़ी की काठी’ लगाकर फ़ोन थमा देतीं. ऊंगली पकड़कर चलना सिखाने की उम्र में मॉम ने मुझे मोबाइल चलाना सिखा दिया था. मॉम का दूसरावाला स्मार्टफ़ोन मुझे हमेशा थप्पड़ खाने से बचाता. होता ये मैं मॉम से कुछ न कुछ पूछने की भूल कर बैठता. एक बार मैं जोर का थप्पड़ खाते खाते बचा जब मैंने पूछा – “मॉम ये सन ईस्ट से ही क्यों राइज करता है?”
“आस्क योर डैड”
“मॉम होली पर कलर क्यों लगाते हैं ?”
“आय डोंट नो.”
“मॉम, सम्स करके ले जाने हैं कल.”
“अभी मिस आएगी तेरी, ट्यूशन वाली, कराएगी.”
“मॉम प्लीज. आप कराओ ना.”
“जान मत खा मेरी.” मन किया था मॉम का कि एक जोर का थप्पड़ रसीद कर दें. बुदबुदाईं वे, थोड़ी देर चैन से व्हाट्सएप भी नहीं देखने देता. रुककर बोलीं – “थोड़ा कीप क्वायट बेटा. हाऊ मच बकर बकर यू आर डूइंग. पता नहीं कब सुधरेगा ये लड़का. सुधरेगा भी कि नहीं. ” वे अपना टेबलेट फोर-जी छोड़कर उठीं, टेम्पर पे कंट्रोल किया, दूसरावाला स्मार्ट फ़ोन उठाया और कहा – “बेटा, प्ले इट फॉर थोड़ी देर”. यही नहीं उन्होंने मेरे चिक पर किस करते हुवे एक सेल्फी ली और इन्स्टाग्राम पर पोस्ट कर दी. फ़ोन मुझे मार से हमेशा बचाता रहा. अब समझ गया हूँ, जब मॉम फेसबुक पर ऑनलाइन हों तब मैं उसे बिलकुल डिस्टर्ब नहीं करता. हाँ, उस दिन मॉम का गाल चूमना मुझे अच्छा लगा और सेल्फी की फोटो ग्रुप की बाकी मम्मियों को. लाइक्स के इतने अंगूठे मिले मॉम को कि वे मुझे खाना देना भूल ही गईं.
ऐसा नहीं है कि मॉम को मेरी भूख का ख्याल नहीं रहता. बल्कि इस पर तो उन्हें क्लब में बेस्ट मॉम का अवार्ड मिला है. एन आईडियल मॉम. मेरे लिए टाईम निकालना जानती है. क्या नहीं रखा है फ्रिज़ में. सेंडविचेस, मैगी, चाऊमिन, पास्ता, पिज़्ज़ा, फ्रोजन फ़ूड, चोकलेट्स, कोल्ड ड्रिंक्स. दो मिनिट में तैयार. बाकी फिफ्टी एट मिनिट इन बॉक्स में.
एक बार एक राईम में मैंने गार्डन देखा, फ्लावर देखे, मंडराती तितलियाँ देखीं, ऑल एनीमेटेड. मॉम ने प्रॉमिस किया है, पक्का, एक बार वे मुझे सच्ची-मुच्ची के गार्डन में जरूर ले जायेंगी. इन दिनों मैं बहुत मुटा गया हूँ. किसी ने मॉम को ध्यान दिलाया तो उन्होंने कहा – डोंट वरी, बेरियाटिक सर्जरी करा दूँगी. वो एक ‘केयरिंग मॉम’ है.
एक दो बार ऐसा हुआ कि टॉयलेट तक जाने से पहले ही मेरी पॉट्टी निकल गई. तब से मॉम रिस्क नहीं लेती, डायपर पहनाकर ही रखती है. अब मैं पॉट्टी के बाद भी दो-तीन घंटे बिना क्लीन कराये घूम सकता हूँ. मोबाइल मेरा ट्वेंटी-फोर बाय सेवेन का साथी भले हो, ये दिया तो मॉम ने ही है ना, शी इज द बेस्ट मॉम.
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(कर्मयोग का विषय)
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।।42।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ।।43।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।44।।
वेदों पर वार्तायें मधु करते जो विद्वान
उससे अधिक न और कुछ कर लेते अनुमान।।42।।
जन्मकर्म फलदायी ले स्वर्ग प्राप्ति की चाह
भोग-ऐश्वर्य क्रियाओे की करते है परवाह।।43।।
ऐसे भोगासक्त की कोई न स्थिर बात
समय समय पर बेतुकी करते रहते बात।।44।।
भावार्थ : हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती।।42 -44।।
Flowery speech is uttered by the unwise, who take pleasure in the eulogising words of the Vedas, O Arjuna, saying: “There is nothing else!” ।।42।।
Full of desires, having heaven as their goal, they utter speech which promises birth as the reward of one’s actions, and prescribe various specific actions for the attainment of pleasure and power. ।।43।।
For those who are much attached to pleasure and to power, whose minds are drawn away by such teaching, that determinate faculty is not manifest that is steadily bent on meditation and Samadhi (the state of Super consciousness). ।।44।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का विभिन्न लेखकों के द्वारा दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु तो अवश्य ही खोल देंगे। तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।
वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………
तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न और उसके अनेक उत्तर। प्रस्तुत है पांचवा उत्तर जबलपुर के प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री राकेश सोहम जी की ओर से –
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
जबलपुर से व्यंग्यकार श्री राकेश सोहम जी – 5
सवाल बड़ा पेंचीदा है। क्योंकि इसमें बचने का मार्ग ही नहीं छोड़ा। या मैं कहूं सवाल गलत है। दो आप्शन हैं और दोनों स्थिति बंधन की हैं। मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। घोड़े की आंख बंधी होती है और लगाम तो है ही बंधन का प्रतीक। लगाम घोड़े को नियंत्रित करके उस ओर देखने को मजबूर करती है जिस मार्ग पर उसे बढ़ना है। खैर ! दूसरे दृष्टिकोण से कुल जमा हिसाब ये कि लेखक एक सामाजिक प्राणी है। इसी समाज में रहकर अनुभवों को उर्वरा करता है। जब ये अनुभव के बीज, लेखनी की भूमि पर पल्लवित होते हैं तब समाज और परिवेश को दिशा देते हैं।
एक तर्किक चिंतक के अनुसार कोई भी सोच शाश्वत् नहीं होती। सोच परिवेश से बनती वह प्रभावित होती है। यही सोच चिंतन की गहराई में उतरकर परिमार्जित होती है। फिर कलाकार या साहित्यकार की कृति के रूप में ढल जाती है। कितने नए पुराने साहित्यकारों की कृतियां आज भी दशा दिशा दे रहीं हैं।
खैर ! दूसरे दृष्टिकोण से कुल जमा हिसाब ये कि लेखक एक सामाजिक प्राणी है। इसी समाज में रहकर अनुभवों को उर्वरा करता है। जब ये अनुभव के बीज, लेखनी की भूमि पर पल्लवित होते हैं तब समाज और परिवेश को दिशा देते हैं।
सवाल बड़ा पेंचीदा है। क्योंकि इसमें बचने का मार्ग ही नहीं छोड़ा। या मैं कहूं सवाल गलत है। दो आप्शन हैं और दोनों स्थिति बंधन की हैं। मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। घोड़े की आंख बंधी होती है और लगाम तो है ही बंधन का प्रतीक। लगाम घोड़े को नियंत्रित करके उस ओर देखने को मजबूर करती है जिस मार्ग पर उसे बढ़ना है। खैर ! दूसरे दृष्टिकोण से कुल जमा हिसाब ये कि लेखक एक सामाजिक प्राणी है। इसी समाज में रहकर अनुभवों को उर्वरा करता है। जब ये अनुभव के बीज, लेखनी की भूमि पर पल्लवित होते हैं तब समाज और परिवेश को दिशा देते हैं।
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
श्री विजयानंद विजय मुजफ्फरपुर बिहार से लिखते हैं – 6
भौतिकवाद की आँधी में, आधुनिकता के घोड़े पर सवार मनुष्य आज वक्त की रफ्तार से भी तेज दौड़ने की कोशिश कर रहा है, इससे बिलकुल बेपरवाह और लापरवाह कि हकीकत की जमीन क्या है, हमारा वजूद क्या है, हमारी हैसियत क्या है, हमारी औकात क्या है, हमारी सामाजिक-आर्थिक दशा और दिशा क्या है।बस, हम अंधानुकरण की मानसिकता में जी रहे हैं…कृत्रिम, बनावटी और दिखावे की संस्कृति के कहीं-न-कहीं पोषक बनते हुए।
नैतिक मूल्यों के भयंकर क्षरण के इस दौर में जहाँ मर्यादाएँ टूट रही हैं, मान्यताएँ खंडित हो रही हैं, परंपराएँ सूली पर चढ़ी हैं, आदर्श तार-तार हैं, अपसंस्कृतिकरण प्रबल है, आचार-व्यवहार सतही हो चले हैं, वहाँ लेखक, रचनाकार, कलाकार समय और समाज की आँखें खोलता है,उन्हें आइना दिखाता है, वास्तविकता से साक्षात्कार कराता है, हमें जगाता है, सजग-सचेष्ट करता है कि हममें वो सबकुछ बचा रहे, जो हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी है, ताकि हम मनुष्य कहलाने योग्य बने रहें।
हम पृथ्वी के सबसे ज्ञानवान प्राणी समझे, माने, जाने और पहचाने जाते हैं, मगर हमारा यह ज्ञान कहाँ तिरोहित हो जाता है, जब हम परम स्वार्थ में डूबकर स्वजनों के ही दुश्मन बन जाते हैं, उनका अहित करते-सोचते हैं ? वक्त का मिजाज और स्वार्थ जब इंसान पर हावी होता है, तो वह उसकी पूरी सोच और विचारधारा पर हावी होने लगता है।जब यह नकारात्मक दिशा की ओर उन्मुख होता है, तो ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, नफरत की आग मन और विचार के साथ-साथ घर-समाज-राष्ट्र को भी भस्मसात करने पर उतारू हो जाती है।यह आत्मघाती प्रवृत्ति किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं हो सकती।यहीं रचनाकार, लेखक, कलाकार, सृजनधर्मी की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है, जहाँ उसे दिग्भ्रमित, दिशाहीन होती पीढ़ी को भटकाव से बचाकर समाज और राष्ट्रहित में उच्च आदर्शों और प्रतिमानों की स्थापना की ओर ले जाना होता है।यहाँ फटकार भी जरूरी है, चोट भी जरूरी है, कटाक्ष भी जरूरी है और प्यार-मनुहार भी जरूरी है, अपेक्षित अंकुश और लगाम भी जरूरी है। जरूरी है कि लेखक और रचनाकार अपनी भूमिका, अपने दायित्व, अपने कर्त्तव्य को समझें और समाज-राष्ट्र की दशा व दिशा सुधारने में अपना सकारात्मक सहयोग दें।
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
सुश्री निशा नंदिनी भारतीय, तिनसुकिया, असम से लिखती हैं -7
लेखक समाज रूपी घोड़े का क्या है ?
लेखक समाज रूपी घोड़े की आँख और लगाम दोनों है क्योंकि जन साधारण लेखक की आँख से देखता है। फिल्म नाटक आदि के द्वारा लेखक जो परोसता है। वही जन सामान्य खाने की कोशिश करता है और इस घोड़े की लगाम तो शत प्रतिशत लेखक के ही हाथ में होती है। लेखक अपनी लेखनी की लगाम से समाज रूपी घोड़े के विचारों को बदलने की ताकत रखता है इसलिए लेखक को बहुत सोच समझकर अपनी लगाम का प्रयोग करना चाहिए।
लगाम में कसावट होनी चाहिए। लगाम ढीली छोड़ते ही घोड़े की चाल बदल जाती है। वे भटकने लगता है। लेखक पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। तभी महान कवि गुप्त जी ने कहा था –
“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।”
कभी कभी एक सार्थक पंक्ति भी हृदय के तारों को झंकृत कर देती है।मस्तिष्क को सोचने के लिए मजबूर कर देती है। इसलिए ठीक ही कहा गया है कि तलवार से अधिक ताकत लेखनी में होती है।
लेखनी एक साथ लाखों लोगों को घायल कर सकती है। दिमाग में उत्पन्न विचारों, कल्पनाओं को कागज पर उकेरना एक लेखक की कला है। लेखक को लेखन से पहले यह सोचना चाहिए कि वह क्यों लिखना चाहता है? उससे समाज को क्या लाभ व हानि होगी। लेखक के लिए समाज का लाभ सर्वोपरि होना चाहिए।
एक अच्छा लेखक जब लिखने बैठता है तो हर पहलु के बारे में सोचकर उसे पूर्ण करता करता है।
लेखन शतरंज के खेल की तरह है फर्क सिर्फ इतना है की यहां आखिरी चाल सबसे पहले सोची जाती है।
फिल्म या टी. वी लेखन लेखकों पर एक बोझ होता है। उनकी अपनी पहचान विलुप्त हो जाती है। उसको जैसा कहा जाता है वह उसी दिशा में लिखता चलता है। पर सच्चे लेखक को यह सब स्वीकार नहीं करना चाहिए। उसे समाज को सदैव सकारात्मक और प्रेरणार्थक ही देने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी भी लेखक की सोच निश्चित ही उसके व्यक्तित्व का ही हिस्सा होती है, लेकिन वो अपने लेखों में उन्हें पूरी ईमानदारी से प्रतिबिंबित करता है या नहीं, ये निश्चित करना अत्याधिक कठिन है।
लेखक का जैसा गहरा रिश्ता समाज से होना चाहिए वैसा आज नहीं है। लेखक को जिस तरह अपनी परंपरा,अपने आज और अपने भावी कल के बीच का पुल होना चाहिए वैसा पुल वो नहीं बन पा रहा है। घोड़े की लगाम ढीली पड़ती जा रही है। जिसका कारण है कि आज लेखक तो बहुत है पर प्रेमचंद नहीं हैं। जो भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण के दौर में भारतीय जीवन में आए बदलाव और स्थाई-सी हो चुकी समस्याओं के द्वंद्व और उससे उबरने की छटपटाहट को शब्दों में बयां कर सके।
(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)