आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (16) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )

 

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌।।16।।

 

क्या है कर्म,अकर्म ओैर क्या, ज्ञानवान भी भ्रम में हैं

इससे तुझको समझाता हूँ क्या है शुभ औ” क्या कम है।।16।।

      

भावार्थ :  कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा।।16।।

 

What is action? What is inaction? As to this even the wise are confused. Therefore, I shall teach thee such action (the nature of action and inaction), by knowing which thou shalt be liberated from the evil (of Samsara, the world of birth and death).

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 36 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 36 

 

ई-अभिव्यक्ति में बढ़ती हुई आगंतुकों की संख्या हमारे सम्माननीय लेखकों एवं हमें प्रोत्साहित करती हैं।  हम कटिबद्ध हैं आपको और अधिक उत्कृष्ट साहित्य उपलब्ध कराने  के लिए। आपको यह जानकार प्रसन्नता होगी कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इतने कम समय में 36,000 से अधिक आगंतुक गण  ई-अभिव्यक्ति में  विजिट कर चुके होंगे।  इसके लिए हम अपने सम्माननीय लेखकों एवं पाठकों के हृदयतल से आभारी हैं।

ई-अभिव्यक्ति एक ऐसा मंच है जिस पर नवोदित से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के ख्यातिलब्ध साहित्यकारों द्वारा हम पर अपना विश्वास प्रकट कर अपनी रचनाएँ पाठकों से साझा की गई हैं।  हम पर वरिष्ठ साहित्यकारों का आशीर्वाद बना हुआ है जो हमें समय-समय पर मार्गदर्शन देते रहते हैं।

हम प्रयासरत हैं ताकि साहित्यिक एवं तकनीकी रूप से आगामी अंकों को और नए संवर्धित स्वरूप में प्रस्तुत किया जा सके।

प्रासंगिक तौर पर यह उल्लेख करना मेरा कर्तव्य है कि हमारे नियमित स्तम्भ श्री जगत सिंह बिष्ट जी की “योग साधना” में श्री अनुपम खेर का हास्य योग पर विडियो एवं प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव जी का श्रीमद भगवत गीता के भावानुवाद के अतिरिक्त  आप जिन तीन वरिष्ठ लेखकों की रचनाएँ पढ़ने जा रहे हैं वे भी अपने अपने क्षेत्र के सशक्त हस्ताक्षर हैं।

डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’  हिन्दी साहित्य की विभिन्न  विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आपकी  लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में  सम्मिलित है।

सुश्री प्रभा सोनवणे जी  मराठी साहित्य की वरिष्ठ साहित्यकारा हैं , जो मराठी साहित्य की लगभग सभी विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आप कई राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों से अलंकृत हैं जिनमें कवी कालिदास, राष्ट्रगौरव, मदर तेरेसा साहित्य पुरस्कार, कवी केशवकुमार, लळित साहित्य (मृगचांदणीला), बंधुता प्रतिष्ठान साहित्य गौरव, साहित्य गौरव, गझलगौरव, काव्यदीप (साहित्यदीप संस्था), शिवांजली साहित्य गौरव, प्रियदर्शनी इंदिरा (लेखिका पुरस्कार) आदि प्रमुख हैं। 

श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। इसके अतिरिक्त वे  हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में दक्ष हैं । आपका पत्रकारिता में भी विशेष योगदान रहा है। श्रीमति समीक्षा तैलंग कुछ समय पूर्व ही  अबू धाबी से पुणे शिफ्ट हुई हैं।

हम अपने सभी सम्माननीय साहित्यकारों के आभारी हैं जो हिन्दी साहित्य, मराठी साहित्य एवं अङ्ग्रेज़ी साहित्य की उत्कृष्ट रचनाओं को हमारे सम्माननीय पाठकों से साझा कर रहे हैं।

इस सफर में मुझे अपनी निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं:

 

अब तक का सफर तय किया, इक तयशुदा राहगीर की मानिंद।

आगे का सफर पहेली है, इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको ।

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बवानकर 

10 जुलाई 2019

(अपने सम्माननीय पाठकों से अनुरोध है कि- प्रत्येक रचनाओं के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स का उपयोग अवश्य करें और हाँ,  ये रचनाओं के शॉर्ट लिंक्स अपने मित्रों के साथ शेयर करना मत भूलिएगा।)

 

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ दक्षिण की वो महिला ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

(आदरणीया  श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं।  साथ ही आप साहित्य की अन्य विधाओं में भी उतनी ही दक्षता रखती हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक कहानी “दक्षिण की वो महिला”। दक्षिण की वो महिला आपको निश्चित ही जिंदगी जीने का जज्बा सिखा देगी। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप आखिर जीना कैसे चाहते हैं?)

 

दक्षिण की वो महिला 

 

आज अस्पताल जाना हुआ। बेटे की रिपोर्ट दिखाने। दो महिलाएं पहले से बैठी थीं। एक की नाक में सीधी तरफ नथ थी। समझ गई कि दक्षिण की है। और दूसरी मराठी ही दिख रही थी।

दूसरी महिला ने बोलना शुरू किया तो पहली वाली भी मराठी में ही बात करने लगी। दोनों ही डायबिटीज की मरीज थी। लेकिन बहुत स्मार्ट।

जो दक्षिण से थीं उनकी उम्र कोई 70 साल होगी और दूसरी की 50 के आसपास। बोली डेली जिम जाती हूं। सास बीमार थी तो नहीं जा पायी। शुगर हाई की बजाय लो हो गई।

हाथ में बैंक ऑफ महाराष्ट्र का बैग था। जूट का…। यहां पॉलीथीन बैग्स पूर्ण रूप से बैन है। कोई शादियों में बंटे कपड़े के थैले लेकर भी खूब दिख जाते हैं।

बैग देखकर मैंने पूछा आप जॉब करती हैं।

बोली- मेरे पति हैं बैंक में।

तब तक पहली वाली महिला से बातचीत होने लगी। कहने लगी मुझे पुणे बिल्कुल पसंद नहीं आता फिर भी यहां रहती हूं। 2011 दिसंबर को मुंबई छोड़ दिया। जहां बेटा कहेगा वहीं रहूंगी अब।

पूछा उनसे कि क्यों नहीं पसंद?

बोली- जिंदगी के 28 साल नवी मुंबई वाशी में गुजारे। वहां ज्यादा अच्छा है। 10×10 के घर में रहते थे। जबकि यहां टूबिएचके…। पूरी बिल्डिंग की हालत जर्जर हो गई थी। जिनकी थी उन्होंने वाशी में ही बड़े बड़े बंगले बना लिए। कोई देखने वाला नहीं था। दीवारों में इतनी दरख्त थी कि बाहर देख लो उन झरोखों से।

बारिश में घर के अंदर छाता लेकर बैठना पड़ता था। फिर भी छोडने का मन नहीं था। जिन्होंने नहीं छोड़ा उन्हें 30 लाख मिले। खाली करा दी थी बाद में बिल्डिंग।

लेकिन बेटा माना नहीं। बुला लिया अपने पास।

फिर अपने पति के गुजरने की बात कही। बोली कमानी कंपनी में थे। बहुत बड़ी कंपनी थी। नाम था उसका और हमारी इज्ज़त थी वहां नौकरी करना। कैशियर था वो (पति)।

1973 से ही केरल छोड़ मुंबई बस गए। बहुत अच्छी कंपनी थी। एक दिन 800 वर्करों को निकाल दिया कह कर की कंपनी बंद हो गई है अब।

एक पैसा भी नहीं दिया। पेंशन तो दूर की बात है, पगार भी खा गए वो लोग।

मैं भी स्टेनो थी। जॉब करती थी। सास ने झगड़ा कर कर के मेरी जॉब छुड़वा दी थी। अब न पति है न सास।

बेटी है। चैन्नई में सेटल है। दो बच्चे हैं। जॉब करती है।

लंबी सांस लेते हुए बताने लगी कि मेरे बेटे को तीन बार ऑफर आया लेकिन उसने मना कर दिया मेरे लिए।

लेकिन अभी उसे जबर्दस्ती भेजा है। क्यों उसके आगे बढ़ने की रुकावट बनना। पिछले महीने ही गया अमेरिका। कंपनी जब तक रखेगी, रहेगा।

लेकिन मैं बहुत आध्यात्मिक हूं। वीणा वादन, शास्त्रीय गायन संगीत सब करती हूं। भजनों में जाती हूं।

एक पेपर पर पूरा टाइमटेबल बना है। उसी के हिसाब से चलती हूं। ज्यादा कुछ परवाह नहीं करती। बच्चे सीखने आते हैं, सिखाती हूं। ऐसे ही…। मतलब फ्री में…।

मलयालम, तेलुगु, तमिळ, इंग्रजी, कन्नड़ सब भाषाएं आती हैं। बस इसी में सारा समय निकल जाता है।

शुगर है लेकिन बॉर्डर के ऊपर नहीं जाने देती। डॉक्टर के यहां बहुत कम जाती हूं। अच्छा नहीं लगता। बस आज के बाद अब एक साल बाद ही आऊंगी।

मस्त जिंदगी गुजार रही हूं। किसी की चिंता नहीं…। उतने में ही डॉक्टर आ गए और मैं अंदर चली गई।

सोच रही थी कि जीना इसी का नाम है…।

 

© श्रीमति समीक्षा तैलंग, पुणे 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # – मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी……. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक व्यंग्य कविता  दूरदर्शी दिव्य सोच – बनाम – मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी…….। 

डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी ने बिना किसी लाग -लपेट के जो कहना था कह दिया और जो लिखना था लिख दिया।  अब इस व्यंग्य कविता का जिसे जैसा अर्थ निकालना हो निकलता रहे।  सभी साहित्यकारों के लिए विचारणीय व्यंग्य कविता।  फिर आपके लिए कविता के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स तो है ही। हाँ, शेयर करना मत भूलिएगा।

आप आगे पढ़ें उसके पहले मुझे मेरी दो पंक्तियाँ तो कहने दीजिये:

अब तक का सफर तय किया इक तयशुदा राहगीर की मानिंद।

आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको ।

  • हेमन्त बावनकर )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #6 ☆

 

☆  दूरदर्शी दिव्य सोच 

बनाम———————

मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी……. ☆  

 

आत्ममुखी एकाकी,  80 वर्षीय वरिष्ठ साहित्यकार  के नगर में होने वाले सभी आयोजनों में उनके एकाएक सदाबहार, मुखर उपस्थिति का कारण पूछने पर उन्होंने जो बताया, सुनकर सुखद आश्चर्य से अचम्भित हुए बिना न रह सका——

“स्मृति स्मारक निर्माण, गली-मुहल्ले, चौराहे पर स्वमूर्ति स्थापना, मरणोपरांत राष्ट्रीय अलंकरण के अवसर आदि के सुंदर ख्वाब सजाए आगे की तैयारियों के तहत जीवन की सांध्यबेला में ये चहल-पहल कर भव्य शवयात्रा के अपने गुप्त एजेंडे का ज्ञान कराया उन्होंने” ।

अमरत्व प्राप्ति के उनके इस दिव्य प्रखर सूत्र से प्रभावित हो एक कविता का सृजन हुआ।

आप भी पढ़ें और अपने लिए भी कुछ सोचें :-

 

मृत्यु पूर्व, खुद की

शवयात्रा पर करना तैयारी है

बाद मरण के भी तो

भीड़ जुटाना जिम्मेदारी है।

 

जीवन भर एकाकी रह कर

क्या पाया क्या खोया है

हमें पता है, कलुषित मन से

हमने क्या क्या बोया है,

अंतिम बेला के पहले

करना कुछ कारगुजारी है।

मृत्युपूर्व खुद की शवयात्रा

पर करना………

 

तब, तन-मन में खूब अकड़ थी

पकड़  रसूखदारों  में  थी

बुद्धि,  ज्ञान, साहित्य  सृजन

प्रवचन, भाषण नारों में थी,

शिथिल हुआ तन, मन बोझिल

इन्द्रियाँ स्वयं से हारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

होता नाम निमंत्रण पत्रक में

“विशिष्ट”,  तब जाते थे

नव सिखिए, छोटे-मोटे तो

पास फटक नहीं पाते थे,

रौबदाब तेवर थे तब

अब बची हुई लाचारी है।

मृत्युपूर्व……

 

अब मौखिक सी मिले सूचना

या अखबारों में पढ़ कर

आयोजन कोई न छोड़ते

रहें उपस्थित बढ़-चढ़ कर,

कब क्या हो जाये जीवन में

हमने बात विचारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

हंसते-मुस्काते विनम्र हो

अब, सब से बतियाते हैं

मन – बेमन से, छोटे-बड़े

सभी को गले लगाते हैं,

हमें पता है, भीड़ जुटाने में

अपनी अय्यारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

मालाएं पहनाओ हमको

चारण, वंदन गान करो

शाल और श्रीफल से मेरा

मिलकर तुम सम्मान करो,

कीमत ले लेना इनकी

चुपचाप हमीं से सारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

हुआ हमें विश्वास कि

अच्छी-खासी भीड़  रहेगी तब

मिशन सफल हो गया,खुशी है

रामनाम सत होगा जब,

जनसैलाब देखना, इतना

मर कर भी सुखकारी है। मृत्युपूर्व…….

 

हम न रहेंगे, तब भी

शवयात्रा में अनुगामी सारे

राम नाम है सत्य,

साथ, गूंजेंगे अपने भी नारे,

मरकर भी उस सुखद दृश्य की

हम पर चढ़ी खुमारी है

मृत्युपूर्व……………

 

शव शैया से देख हुजुम

तब मन हर्षित होगा भारी

पद्म सिरी सम्मान, प्राप्ति की

कर ली, पूरी तैयारी,

कहो-सुनो कुछ भी, पर यही

भावना सुखद हमारी है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 7 – पाऊस ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी  वर्षा ऋतु से संबन्धित कवितायें और उनसे जुड़ी हुई यादें। निःसन्देह यादें अविस्मरणीय होती हैं।  विगत अंक में सुश्री प्रभा जी ने “रिमझिम के तराने” शीर्षक से वर्षा ऋतु और उससे संबन्धित साहित्यिक संस्मरण साझा किए थे।  कृषि पृष्ठभूमि से जुड़े होने से वर्षा ऋतु में गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू, धन-धान्य से परिपूर्ण जीवन के संस्मरण, घर के वयोवृद्ध जनों का स्नेह निःसन्देह आजीवनअविस्मरणीय  होते हैं। साथ ही सूखे और अकाल के दिन भी हमें रुलाते हैं। उन्होने इस सुदीर्घ साहित्यिक अविस्मरणीय इतिहास को सँजो कर रखा और हमारे पाठकों के साथ साझा किया इसके लिये उनका आभार और लेखनी को नमन । 

आज प्रस्तुत है उनका संक्षिप्त आलेख “पाऊस” एवं तत्संबंधित कविता “आठवणी”। 

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 7 ☆

 

☆ पाऊस  ☆

 

पावसाच्या माझ्या ज्या काही आठवणी आहेत त्या सुखद आणि सुंदरच आहेत, शेतकरी कुटुंबात वाढल्यामुळे पाऊस प्रियच….लहानपणी आजोबा आम्हाला विचारायचे “आज पाऊस पडेल का” आणि पडला की साखर तोंडात भरवायचे !

गावाकडचा पाऊस खुप छान वाटायचा एकदा मी चौथीत असताना आमच्या गावात खुप पाऊस पडला आम्ही भावंडे आणि आमचे धाकटे काका वाड्याच्या  वरच्या मजल्यावरच्या खिडकीतून तो धुवांधार पाऊस पहात होतो ओढा भरून वहात होता आणि घरासमोरची विहिर तुडुंब भरून ओसंडून वहात होती….

तसा आमचा शिरूर तालुका तसा दुष्काळग्रस्त पण आमच्या लहानपणचा तो पाऊस लक्षात राहिलेला  …..

एकूणच लहानपणीचे पावसाळे…खुपच आवडलेले ..त्याकाळी आम्ही पुण्यात रहात असू पण आषाढ, श्रावणात आवर्जून गावाकडे जायचो!

नंतरच्या काळात मात्र पावसानं शेतक-यांना खुप रडवलं… ७२ चा दुष्काळ आणि शेतीव्यवसायाला लागलेली उतरती कळा….हिरवं ऐश्वर्य हरवलं….

 

☆ आठवणी ☆

 

नका मनाशी घालू पिंगा आठवणींनो जुन्या

मला वाटते, एकदा तरी, कुशीत घ्यावे पुन्हा

पुढेच जाई, काळ परंतू ,मन घुटमळते तिथे

दगडी वाडा, बाग फुलांची, आणि फळांचे मळे

 

घरात नांदे सुखसमृद्धी,होती दौलत खरी

तुळशी वृंदा वनी मंजिरी आनंदे डोलती

माय आणखी  ,आजी काकी सांजवात लावती

खमंग येती, वास कशाचे? सा-या हो सुगरणी

 

गुरे वासरे,गोठ्यामधली,अबलख घोडा दिसे

धनधान्यांनी भरली पोती कसली चिंता नसे

वळणावरती, वेडीबाभळ,वाट कुणाची बघे ?

झुळझुळणारा अवखळ ओढा त्या पांदीतुन निघे

 

शिवालयाशी वटवृक्षावर  पक्षीमेळा जमे

स्वर घंटेचा सांगे येथे सत्य सुंदरम् वसे

मनीमानसी ,सदा नांदती माहेराच्या खुणा

कुळवंताची लेक सांगते गतकाळाच्या त-हा

 

नसे फुकाचा डामडौल हा ,कथा सांगते खरी

कधीतरी या पहावया ती गावाची चावडी

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ How to laugh: Taught by Anupam Kher, Bollywood Actor ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ How to laugh: Taught by Anupam Kher, Bollywood Actor 

Video Link : How to laugh: Taught by Anupam Kher, Bollywood Actor

 

In this video, veteran Bollywood actor, Anupam Kher, teaches you how to breathe in and laugh.  It’s lucid, technically sound and beautifully demonstrated.

Laughing is a valuable life skill that drives all the stress away. We are especially bringing this video for all beginners, laughter lovers/ practitioners/therapists and Laughter Yoga Leaders/ Teachers/ Master Trainers across the globe.

Use this technique freely for the benefit of all in laughter therapy and laughter clubs.

We express our deep gratitude to Anupam Kher whom we all admire and adore!

 

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (15) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )

 

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।

कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌।।15।।

 

यही समझकर पूर्वकाल में मुनुज्ञओं ने कर्म किये

तू भी सब कर्म समझ यह निज जीवन उत्कर्ष लिये।।15।।

 

भावार्थ :  पूर्वकाल में मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर।।15।।

 

Having known this, the ancient seekers after freedom also performed actions; therefore, do thou perform actions as did the ancients in days of yore. ।।15।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #7 – दस्तक ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  पौराणिक कथा पात्रों पर आधारित  शिक्षाप्रद लघुकथा  “दस्तक ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  को  मीन साहित्य संस्कृति मंच द्वारा  हिन्दी साहित्य सम्मान  प्राप्त  प्रदान किया  गया है ।  ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारी सम्माननीय  लेखिका श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ  ‘शीलु’ जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 7 ☆

 

☆ दस्तक ☆

 

मिस अर्पणा सिंग’ स्कुल की अध्यापिका। नाम भी सुन्दर दिखने में औरों से बहुत अच्छी। सख्त और अनुशासन प्रिय। सभी उनके रूतबे से डरते थे। किसी की हिम्मत नहीं होती कि बिना परमिशन के उनके स्कूल या घर में कोई दस्तक दे। घर परिवार में भी उसी प्रकार रहना, न किसी  का आना जाना और न ही स्वयं किसी के घर मेहमान बनना। इसी वजह से  सब लोगों ने उनका नाम बदल दिया ‘मिस अपना सिंग’ । उनको कोई पसंद भी नहीं करता था। बस स्कूल की गरिमा और उनका कड़क जीवन यापन ही उन्हें अच्छा लगता था।

किसी ने आज तक उनसे उनके बारे में जानने की कोशिश नहीं की। जानता भी कौन? किसी से उनकी बात ही नहीं  होती थी। समय बीतता गया। कब तक अकेली सफर करती। एक दिन अचानक पाँव फिसल जाने के कारण पैर की हड्डी टूट गई। जैसे उन पर दुखों का पहाड़ आ गया। जैसे तैसे पड़ोसी अस्पताल ले जा कर प्लास्टर लगवा कर ले आये। फिर घर पर अकेली अपनी काम वाली बाई के साथ पड़े रहना।

स्कूल में कुछ बच्चे खुश पर कुछ उदास थे। पर उनके पास जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी। पता चला दरवाजे से ही बाहर भगा दिया तो? पर सब की बातों से बेखबर एक उनके कक्षा का विद्यार्थी जिसका नाम ‘अनुज’ था जो बहुत ही शरारती और अपने चंचल स्वभाव के कारण सब का मनोरंजन करता रहता था। सिंग मेडम कभी टेबिल के उपर तो कभी क्लास रूम के बाहर कर देती थीं। उसे अपनी अध्यापिका को देखने और मिलने जाने का मन हुआ।

चुपके से सब बच्चों के साथ जा पहुँचा मेडम के घर। दरवाजे पर दस्तक दिया।  दरवाजा अधखुला और हाथों में पेपर लिए मेडम चश्मे से दरवाजे पर देख कर बोली. कौन? क्या काम है? बस क्या था बाकी बच्चे अनुज को छोड़कर भाग खड़े हुए। परन्तु अनुज हिम्मत कर बोला…. “मेडम जी मैं, आपका अपना अनुज”।

अपना अनूज सुनते ही अध्यापिका की आँखें भर आईं। बड़ी मुश्किल से अपनी भावना को दबाते हुए उसे अन्दर बुलाकर पूछी.. “कैसे आना हुआ?” अनूज ने बड़े डर से बताया “आप को देखने आया था। सब कोई आना चाहते हैं। क्या सब को बुला लूं?”  मेडम ने हां में सिर हिलाया। अनुज दौड़ कर बाहर चला गया।

आज अध्यापिका ‘मिस अपना सिंग’ को अपने नाम से ज्यादा अच्छा ‘अपना अनुज’ कहना  लग रहा था। उनके दिल पर किसी ने ‘दस्तक’ जो दे दिया है। जैसे उन्हें सारे जहां की खुशी मिल गई हो।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #7 – व्हावे मानव ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  कविता  “ व्हावे मानव”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 7 ☆

? व्हावे मानव ?

 

नटराजा तू पुन्हा एकदा कर रे तांडव

टाक चिरडुनी धरतीवरचे सारे दानव

 

मांडून शकुनि डाव बैसला अजून येथे

द्यूत खेळण्या उत्सुक सारे कौरव पांडव

 

घमेंड नाही जिद्द ठेवली होती त्याने

ससा हारला आणि जिंकले येथे कासव

 

शतकांमागे पुन्हा एकदा जावे म्हणतो

धर्म जातिला झुगारून या व्हावे मानव

 

सूर्यालाही रोखू त्यांना असे वाटले

आभासाचे कुजके पडदे पोकळ मांडव

 

पहा तुला या रातराणिचा सुंगध म्हणतो

कशास घाई वेड्या आधी दीपक मालव

 

थकलेला हा चंद्र रात्रिला म्हणतो आहे

या देहावर तुझीच सत्ता कायम चालव

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ चरखा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  किन्तु, इस आलेख  में आप उनके स्वराष्ट्र प्रेम की भी झलक पाएंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्मृति में  गांधीजी के चरखे  एवं चरखे से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों को  वर्तमान से जोड़ता हुआ  शोधपूर्ण आलेख   “चरखा ।) 

 

☆ चरखा 

 

दिनांक ५-११-२०१७ च्या सकाळ सप्तरंग मधील प्रा.उत्तम कांबळे यांचा “सेवाग्राम मधील प्रार्थना आणि चरखा” हा लेख वाचला.त्यांचे सर्वच लेख मला खूप आवडतात.कारण लेखनाच्या आधी ते जिथं जिथं फिरस्तीला. जातात आणि तिथं ते जे जे पाहतात त्यावर त्यांचं लगेचंच वास्तववादी व जिवंत प्रतिक्रिया देणारं लेखन असतं, त्यामुळे ते मनाला चटका लावून जातं.

आत्ताचा लेखही म. गांधींच्या चरखा विषयाचा. पवनार येथील पूज्य विनोबांच्या आश्रमातल्या प्रार्थनेचा. मी विचार करु लागले,चरखा हा माझाही अत्यंत जिव्हाळ्याचा. माझ्या लहानपणी मला आठवतं माझे काका – काकू घरी रोज चरख्यावर सूत कातून त्या सुताच्या गुंड्या बनवून पुण्यातल्या खादी ग्रामोद्योग मध्ये देऊन त्यापासून विणलेले सर्व कपडे वापरीत असत.

१९५१ ते १९५८ अखेर माझं प्राथमिक शिक्षण खंडाळा-पारगाव पुणे-सातारा रोडवरचं. येथे झालं.शाळेत त्यावेळी ती बेसिक शाळा होती. तिथं आम्हाला मेंढ्यांची लोकर वर्गवारी करुन, लोकर स्वच्छ करून ती छोट्या धनुकलीने पिंजून त्याचे पेळू तयार करून त्या लोकरीचे सूत चरख्यावर कातून त्यापासून हातमागावर घोंगड्या  विणण्याचा मूलमंत्र मिळाला होता.

घरी आणि शाळेत सतत चरखा सोबतीला असल्यानं तो माझ्या जिव्हाळ्याचा.पण गेली कित्येक वर्षात मला त्याचं साधन दर्शनही झालं नाही, आणि कांबळे सरांनी मला ते त्यांच्या लेखातून करविलं त्यामुळं मला अक्षरशः भरुन आलं स्वातंत्र्यपूर्व काळात चरख्यानं अख्ख्या भारताला,भारतातील खेड्यापाड्यातील आबालवृद्धांना, सुशिक्षीत अशिक्षितांना,सामान्यातील सामान्यांना बापूजींच्या चरख्याने गती दिली होती.

खेडोपाडी स्वदेशीची चळवळ उभी राहिली.स्वदेशी चळवळीने देश व्यापला. एवढासा चरखा पण तो देशव्यापी ठरला. मूलोद्योगी शिक्षणाचा मंत्र अख्ख्या भारताला  मिळाला तो चरख्यामुळे. समानतेचा संदेश दिला तो चरख्याने !

कित्येकांना रोजगाराची हमी दिली ती चरख्याने. लोकांमध्ये आत्मविश्र्वास निर्माण केला गेलातो चरख्यामुळे.

१५  आगष्ट १९४७ ला इंग्रज भारत देश सोडून गेले पण जाताना देशाचे दोन तुकडे करून त्यांची कोट हॅट पॅन्ट आपल्याला ठेऊन गेले जे आजही आपण आवडीने वापरतोय! पण त्यांनी काही आपलं कोट टोपी धोतर त्यांच्या देशात नेलं नाही.

आमच्या साताऱ्यातील ज्येष्ठ समाजसेविका मा.अंजलीताई महाबळेश्वरकर  म्हणाल्या की, आपल्या लोकांना ब्रॅंडेड व इंपोर्टेडच कपडे आवडायला लागले.आपल्या लोकांना स्वदेशी कपडे आवडत नाहीत.आपल्या देशाच्या हवामानाला खरम्हणजे सुती कपडेच योग्य !पण लोकांनी त्याकडे पाठ फिरवल्यानं चरखे व हातमाग आपोआप मागे पडले.

इंग्रजांनी भारतात आल्यावर मुंबईत कापड गिरण्या सुरू केल्या. इथून कच्चा माल तयार करून तो स्वत:च्या देशात नेऊन त्याचा पक्का माल करून ते भारतातल्या लोकांना महागड्या किंमतीला विकून आपल्यालाच लुटत राहिले.

स्वातंत्र्यानंतर आपल्या गिरण्यांच्या मालाला उठाव नसल्याने त्या तोट्यात येवू लागल्या, व एकेकाळी सोन्यासारखं वैभव असलेल्या मुंबईच्या कित्येक गिरण्यांना टाळेबंदी आली व लाखो कुशल कामगार बेकार होऊन अक्षरशः देशोधडीला लागले.

आज हे लिहितानाही माझे डोळे पाणावलेत.तर प्रत्यक्ष ज्यांनी भोगलं त्यांना काय झालं असेल.?

७ आगष्ट रोजी शासनाने हातमागदिन म्हणून साजरा करण्याचे मागीलवर्षी जाहीर केले आहे. तेव्हा देशवासियांना विनंती करावीशी वाटते, की प्रत्येकाने किमान एकदातरी चरखा हातात घेऊन पहावा. त्यावर सूत कातताना आपली होणारी एकाग्रता आपल्याला आयुष्यात किती उपयोगी पडते. मोबाईल व टीव्ही मुळे मंद होत चाललेल्या आपल्या मेंदूला चालना मिळून तो किती कार्यक्षम होतो ते पहा. त्याबरोबरच किमान बंद पडलेले हातमाग व पश्र्चिम महाराष्ट्रातल्या सूतगिरण्या ज्यामध्ये शासनाचे अमूल्य भांडवल वाया जाते आहे त्या पुन्हा सुरू होतील, हजारो बेकार हातांना चांगला रोजगार मिळेल. !

जय हिंद जय महाराष्ट्र!!

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

दिनांक :-८-७-१९

 

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