मेरे पास जितनी भी रचनाएँ आपसे साझा करने के लिए e-abhivyakti में आती हैं वास्तव में वे रचनाएँ साहित्य के सागर में किसी भी प्रकार से मोतियों से कम नहीं हैं। मेरा सदैव प्रयास रहता है कि मैं उन मोतियों को सूत्रधार की भांति एक माला में पिरोकर इस माध्यम से आप तक प्रेषित कर दूँ। प्रत्येक रचनाकार अपने पाठकों तक अपने हृदय के सारे उद्गार उन रचना रूपी मोतियों में सजा चमका कर मुझे प्रेषित कर देते हैं। फिर उन मोतियों से भी चुनिन्दा मोतियों को चुनकर प्रतिदिन आप तक पहुँचने का प्रयास बड़ा ही सुखद होता है। यह संवाद तो कदाचित उन मोतियों के माध्यम से अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति है जो मुझे आप से जोड़ती है।
मेरा तो सदैव यह प्रयास रहता है कि प्रतिदिन आपको चुनिन्दा रचनाएँ प्रस्तुत करूँ। आपका रुचिकर स्नेह मुझे साहित्य में नित नवीन प्रयोगों को आपसे साझा करने हेतु प्रोत्साहित करता है। प्रत्येक दिन आपको कुछ नया दूँ बस यही लालसा मुझे एवं e-abhivyakti के माध्यम से संभवतः मेरे-आपके साहित्य तथा साहित्यिक जीवन जीने की लालसा को जीवित रखती है।
अब आज की रचनाएँ देखिये न। दैनिक स्तंभों में श्री मदभगवत गीता के एक श्लोक के अतिरिक्त श्री जगत सिंह बिष्ट जी का गंगाजी के तट एवं हिमालय श्रंखलाओं के मध्य प्रकृति के गोद में शांतचित्त बैठ कर “निर्वाण” जैसे विषयों पर रचित रचना आपके मस्तिष्क के आध्यात्मिक तारों को निश्चित ही झंकृत कर देंगी।
इसी क्रम में श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की कविता “सावली” मुझे चमत्कृत करती है। मराठी शब्द “सावली” का अर्थ “छाया” होता है। उनकी प्रथम दो पंक्तियाँ “अपनी ही छाया में जब उलझ जाता हूँ कभी कभी, तो सूर्य भी मुझ पर हँसता है कभी कभी।“ यह रचना श्री अशोक जी के गंभीर एवं दार्शनिक मनोभावों को अभिव्यक्त करती है।
इस बार बतौर प्रयोग आपके समक्ष नारी की भावनाओं पर दो कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ। आप स्वयं रचनाओं की साहित्यिक तुलना किए बगैर निर्णय लें कि यदि नारी के मनोभावों को एक कवियित्रि डॉ भावना शुक्ल लिखती हैं और एक कवि श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश” लिखते हैं तो उनकी दृष्टि, संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति कैसी होती है। मैं तो आपको मात्र दोनों कवियों की अंतिम दो पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा।
स्त्री है सबसे न्यारी
है वो हर सम्मान की अधिकारी।
डॉ भावना शुक्ल
पता नहीं पिंजरे में,
“मैं हूँ या मेरी भावनाएं ….?”
माधव राव माण्डोले “दिनेश”
इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता कि निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं:
कहते हैं कि –
स्त्री मन बड़ा कोमल होता है
उसकी आँखों में आँसुओं का स्रोत होता है।
किन्तु,
मैंने तो उसको अपनी पत्नी की विदाई में
मुंह फेरकर आँखें पोंछते हुए भी देखा है।
श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी कि प्रसिद्ध पुस्तक “सफर रिश्तों का” पर आत्मकथ्य एवं उनकी चर्चित कविता “मृत्युबोध” अवश्य आपको जीवन के शाश्वत सत्य “मृत्यु” के “बोध” से अवश्य रूबरू कराएगी।
इस संदर्भ में भी मुझे मेरी कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं:
आत्मकथ्य: सफर रिश्तों का – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर
(‘सफर रिश्तों का’ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी का एक अत्यंत भावनात्मक एवं मार्मिक कविताओं का संग्रह है। ये कवितायें न केवल मार्मिक हैं अपितु हमें आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में जीवन की सच्चाई से रूबरू भी कराती हैं। हमें सच्चाई के धरातल पर उतार कर स्वयं की भावनाओं के मूल्यांकन के लिए भी प्रोत्साहित करती हैं। इतनी अच्छी कविताओं के लिए श्री माथुर जी की कलम को नमन।)
आत्मकथ्य: आज के आधुनिक काल में भारतीय संस्कृति में तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में धुंधले पड़ते रिश्तों के मूल्य उनकी महत्वता और घटते मान सम्मान का विभिन्न कविताओं के माध्यम से बहुत भावुक एवं ममस्पर्शी वर्णन किया गया हैं. रिश्तों पर जो सटीक लेखन कविताओं के माध्यम से किया गया हैं वो दिल को छू लेने वाला हैं. “इंसानियत शर्मसार हो गयी “ में बूढ़े माँ बाप की व्यथा का भावुक वर्णन किया हैं. “मृत्यु बोध “ एक बहुत ही भावुक कविता हैं जिसमें मृत्यु होने के बाद सारे रिश्तेदारों का आपके प्रति कितना लगाव हैं बहुत ही दिल छू लेने वाला वर्णन किया हैं. माता पिता के साथ सिकुड़ते रिश्तों की व्यथा का ममस्पर्शी वर्णन करने का प्रयास किया हैं, सभी कविताऐं बहुत ही भावुक एवं मार्मिक हैं. आज रिश्तो की अहमियत कम होती जा रही हैं रिश्ते पीछे छूट रहे हैं.अन्य कविताए भी बहुत भावपूर्ण एवं शिक्षाप्रद हैं. पुस्तक हर उम्र के व्यक्तियों के पढ़ने एवं आत्म मनन करने योग्य हैं. यह पुस्तक सामाजिक मूल्यों, माँ बाप और बच्चों के बीच पुनःआत्मीय रिश्ते स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा सकती हैं.
Excerpts from Author’s Amazon Page : In “Safar Rishto ka,” the author through various poems has made a very touching and heart-rendering description of the decline in the relationship between parents and children in today’s Indian society. In “insaniyat sharmsaar ho gayi” has given an emotional description of the sadness of old parents. “Mrityu bodh” is a very emotional poem in which it is described that after the death how relatives are attached to your heart. Apart from these there are various precise poems on today’s social environment. The book covers for all ages people and must read by them. It is eye opener to the youth.This book can play a vital role in increase of social values and the rebuilt of intimate relationship between parents and children.
(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक अत्यंत भावप्रवण कविता। जीवन के सत्य को अपनी गंभीर एवं दर्शनिक दृष्टि से चुने हुए शब्दों के साथ इस रचना को रचने के लिए आपकी कलम को नमन।)
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(सांख्ययोग का विषय)
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।28।।
निराकार जो पूर्व में,मध्य में रह साकार
निराकार होते पुनः तो क्या दुख-आधार।।28।।
भावार्थ : हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?।।28।।
Beings are unmanifested in their beginning, manifested in their middle state, O Arjuna,and unmanifested again in their end! What is there to grieve about? ।।28।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
Nirvana is an Illusion, Serving for a Cause is Divine
I am penning this piece on the banks of the holy Ganga in the sacred land of Sages and Rishis on the foothills of the Himalayas.
I feel blessed as I am attending an international festival of yoga in Rishikesh. Around me are more than a thousand yoga gurus and yogis from more than a hundred countries. It is but natural to feel high on yoga, meditation and spiritual discourses from 4 am to 10 pm.
Last night was a restless one for me. Thoughts moved as fleeting clouds the whole night in my mind. Is nirvana a necessity or a luxury? Is it for real? Or, is it an illusion, delusion, confusion, or hallucination created by the spiritual guys?
I am an old man now by worldly standards. Even then, I stand on the crossroads like an Arjuna on the battle ground of Kurukshetra, with no Krishna around.
All my life, I tried all the available faiths and doctrines by hit and trial. I did not find much solace anywhere. Finally, I saw a silver lining – the path of the Buddha. Meditation is the quintessence of his teachings. I started practicing it.
I am just a step away from nirvana. Nirvana looks down upon me and gives a wry smile. I feel I am not interested in taking the next step. It seems futile. What will anyone else gain if I am enlightened?
I have seen the glow in the eyes of spiritual persons at the sight and smell of dollars. And feel saddened when they ignore us who have the most valuable currency – authenticity and happiness. It really hurts.
I do have a few vices remaining – ego which erupts from time to time, aversion towards those who play games, and craving for the beautiful ones. I sometimes feel that I am a sexual volcano on a human, spiritual journey.
I tried to attain all the perfections and succeeded to some extent. I admit that I have not been able to develop patience, temperance and humility. Why should I be polite to the hypocrites, scoundrels and rascals?
As I told you, I am almost in the neighborhood of Nirvana but I am not interested now. I feel disillusioned by the very concept of nivana.
Nirvana is non-productive. It makes people idle and alienates them from real world and their duties. To be here and now in the present moment, I feel one should be totally engaged in work, play, love and relationships. That is true happiness!
I feel the best form of spiritual life is serving for a social or humanitarian cause. One should strive to be a Mother Teresa, a Gandhi, a Martin Luther King, an Abraham Lincoln or a Malala or Satyarthi, instead of chasing a mirage called nirvana.
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का एक प्रश्न के विभिन्न लेखकों के द्वारा दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु तो अवश्य ही खोल देंगे। तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।
वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………
तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न और उसके अनेक उत्तर। प्रस्तुत है दूसरा उत्तर लखनऊ से विख्यात व्यंग्यकार एवं प्राध्यापक श्री अलंकार रस्तोगी जी की ओर से –
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
लखनऊ से श्री अलंकार रस्तोगी जी ___2
(श्री अलंकार रस्तोगी जी लखनऊ से प्रसिद्ध कवि, व्यंग्यकार एवं प्राध्यापक हैं।)
इस सवाल पर मेरी यह नितांत व्यक्तिगत राय है और इससे सहमत होना कतई आवश्यक नही है। भाई मुझे तो ऐसा लगता है कि लेखक एक समाज के लिए लगाम की तरह नही बल्कि उस कसी हुई लगाम की तरह होता है जैसी लगाम राणा प्रताप के घोड़े के लगी हुई थी। बस पुतली फिरी नही कि चेतक मुड़ जाता था। विशेषकर एक व्यंग्यकार के पास तो समाज मे विसंगतियां देखकर उसे सही दिशा देने की लगाम तो होती ही है। अगर वह लगाम बनता है तो उसे आंखे बनने की ज़रूरत ही नही है क्योंकि आँखे भले ही गलत देखें लेकिन कसी हुई लगाम उसे अपने मार्ग से विचलित नही होने देती है। एक लेखक के पास वह शक्ति और ज़िम्मेदारी होती है कि वह अपने हर शब्द से समाज के अंदर वह वांछित परिवर्तन ला सके जिससे समाज अपने अपने कुत्सित स्वरूप से अवगत भी हो और उसमें सुधार भी ला सके।
अलंकार रस्तोगी, व्यंग्यकार लखनऊ
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
सवाल एक, जबाब अनेक : ब्रजेश कानूनगो __ 3
(श्री ब्रजेश कानूनगो जी 25 सितंबर 1957 को देवास जन्मे सेवानिवृत्त बैंकर हैं। आपका साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। आपकी प्रसिद्ध पुस्तकों में व्यंग्य संग्रह – पुनः पधारें, सूत्रों के हवाले से, मेथी की भाजी और लोकतंत्र। कविता संग्रह- धूल और धुंएँ के पर्दे में,इस गणराज्य में,चिड़िया का सितार, कोहरे में सुबह। कहानी संग्रह – ‘रिंगटोन’। बाल कथाएं- ‘फूल शुभकामनाओं के।’ बाल गीत- ‘ चांद की सेहत’। उपन्यास- ‘डेबिट क्रेडिट’ एवं आलोचना (साहित्यिक नोट्स) – ‘अनुगमन’ हैं ।
संप्रति:इंदौर से सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी। साहित्यिक,सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न। तंगबस्ती के बच्चों के व्यक्तित्व विकास शिविरों में सक्रिय सहयोग।)
प्रश्न – आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
उत्तर – –
जहां तक इस सवाल की बनावट की बात है वह कुछ इस तरह होना चाहिए कि ‘ क्या लेखक वर्तमान दौर में समाज की आंख है या लगाम?
मेरा मानना है कि समाज लोगों, प्रकृति,पर्यावरण,जीव जंतु,पशु पक्षी सबको शामिल करके बनता है। यदि इसमें मनुष्य शामिल है तो वहां केवल आंख और लगाम का जिक्र करके मुद्दे को सीमित नहीं किया जा सकता। पूरे समाज को हम मात्र एक घोड़ा नहीं मान सकते। समाज का एक व्यापक स्वरूप, रीति नीति और मस्तिष्क के विवेकपूर्ण इस्तेमाल करने की क्षमता का होना भी स्वीकार करना होगा।
घोड़े की आंखों के आसपास यदि तांगा मालिक पट्टियां लगाकर केवल एक दिशा में देखने को बाध्य कर देता है तो ऐसा किसी सच्चे लेखक के साथ करना लगभग असंभव होगा। इसी तरह केवल लेखक के हाथ में ही समाज की लगाम नहीं होती।अनेक बल और घटक होते हैं जिससे समाज की रीति नीति तय होती है। सरकारों और सत्ताधारियों की लोक कल्याणकारी नीतियों और विचारधारा की भूमिका भी बहुत कुछ भविष्य की दिशा तय करती है। एक समय राष्ट्रीयकरण को विकास और समाज के लिए कल्याणकारी माना जाता है तो आगे ‘निजीकरण’ में विकास के रास्ते खोजे जाने लगते हैं।यह एक महज उदाहरण है। ऐसी अनेक बाते होती हैं जो समाज को दिशा देती हैं।
जहां तक इस काम में एक सजग लेखक की भूमिका का सवाल है उसका काम लोगों के हित में समाज में मौजूद विषमताओं, असमानताओं, साधन,सुविधाओं के समान वितरण की विसंगतियों की ओर इशारा करना होता है ताकि उन पर नीति निर्माताओं और कार्यान्वयन के जिम्मेदारों का ध्यान आकर्षित हो। मेरा यह भी मानना है कि लेखक की भूमिका सदैव सत्ता और सरकार के विपक्ष की तरह होना चाहिए चाहे सत्ता में उसके प्रिय और उसकी अपनी विचारधारा के लोग ही क्यों न बैठे हों।उसकी जिम्मेदारी सत्ता से ज्यादा जनता के दुख दर्दों के साथ होना चाहिए।
गंदे पानी में दो बूंद फिटकरी पानी को शुद्ध करने का काम करने का प्रयास करती है, समाज में सच्चे और ईमानदार लेखक की भी लगभग यही भूमिका होती है। वर्तमान समय में लेखक को तांगे में जुटे घोड़े में बदलने के प्रयास दिखाई देते हैं उससे सचेत रहने की जरूरत है। किसी भी गणराज्य में समाज की लगाम तो अंततः संविधान और जनता के हाथों में होती है। इसमें विचलन तो कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता।
श्री ब्रजेश कानूनगो
(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)
(इस अत्यंत शिक्षाप्रद एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा के लिए श्रीमति रंजना जी की लेखनी को सादर नमन)
सकाळची वेळ होती कोवळे ऊन पडलेले होते. सर्वत्र उत्साहाचे वातावरण होतं.
आज मंगळवार बाजारचा दिवस असल्यामुळे मजूर लोकांना कामाला सुट्टी होती. ओळखीचे एकजण सुट्टीच्या दिवाशी “काही काम आहे का ताई” विचारायला आले . काय काम सांगावे हा विचार करत असतानाच, घराच्या दोन्ही बाजूला बाभळीच्या फांद्या मधे डोकावणाऱ्या फांद्या दिसल्या. येताजाता त्यांचे काटे अंगाला टोचत असत. ” मामा याच्या मधे आलेल्या फांद्या कट कराल का?” “हो करतो की ताई” असे म्हणून ते कुऱ्हाड आणायला निघून गेले आणि मी शाळेला गेले.
चार वाजता येऊन पाहिले आणि त्याला फांद्या तोडायला सांगून अक्षम्य अपराध केल्यासारखे वाटायला लागले .
कारण डेरेदार वाढलेल्या बाबळीच्या प्रत्येक फांदीवर सुगरणींचे अनेक घरटे जवळजवळ शेवटच्या टप्प्यावर आलेले होते जवळपास एक महिन्याच्या अथक प्रयत्नांची पराकाष्ठा करून ते बिचारे जीव घरटे तयार करत होते.
मुख्य म्हाणजे पोर्च मधे बसून त्यांची कारागीरी पाहणे हा माझ्यासाठी आवडता छंदच बणलेला होता. काडी काडी जमवून घरटे तयार करणारे सुगरण पक्षी पाहून एक नवीन चैतन्य मनात संचारत असे, परंतु मात्र मन पुरतं कोलमडून गेलं होतं. या नराधमाने त्या बाभळीच्या सर्वच्या सर्व फांद्या तोडून त्यावरील घरटे मुलांना खेळायला देऊन टाकले होते. या माणसाचं काय करावं तेच कळत नव्हतं
जातायेता टोचणाऱ्या काट्यां पेक्षा शेजारच्या झाडावरून पाहणाऱ्या दहाबारा सुगरणींच्या नजरा आज मला जास्तच टोचत होत्या.
आपण याला फांद्या तोडायला सांगून फार मोठा गुन्हा केला आहे असं सतत जाणवत होतं. पुढचे दोन दिवस पक्षांची हालत पाहावी वाटतच नव्हती. परंतु नंतर मात्र ते सारे नवीन घरट्याच्या तयारीला लागले. परंतु आजही झाडाकडे पाहिले की ते अपुरे घरटे चटका लावून जाते.
तात्पर्य :- काम करणाऱ्याची वैचारिक कुवत लक्षात न घेता इतरांना गृहीत धरून काम सांगितले की असे अनर्थ ओढावतात, मग पश्चात्ताप करूनही काहीच उपयोग नसतो. त्यामुळे संभाव्य धोके लक्षात घेऊन स्पष्ट सुचना देणे फार महत्वाचे असते.