Shri Jagat Singh Bisht
(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)
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Shri Jagat Singh Bisht
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ई-अभिव्यक्ति: संवाद–3
एक अजीब सा खयाल आया। अक्सर लोग सारी जिंदगी दौलत कमाने के लिए अपना सुख चैन खो देते हैं। फिर आखिर में लगता है, जो कुछ भी कमाया वो तो यहीं छूट जाएगा और यदि कुछ रहेगा तो सिर्फ और सिर्फ लोगों के जेहन में हमारी चन्द यादें। इसके बावजूद वो सब वसीयत में लिख जाते हैं जो उनका था ही नहीं।
ऐसे में मुझे मेरा एक कलाम याद आ रहा है जो आपसे साझा करना चाहूँगा।
जख्मी कलम की वसीयत
जख्मी कलम से इक कलाम लिख रहा हूँ,
बेहद हसीन दुनिया को सलाम लिख रहा हूँ।
ये कमाई दौलत जो मेरी कभी थी ही नहीं,
वो सारी दौलत तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
तुम भी तो जानते हो हर रोटी की कीमत,
वो ख़्वाहिशमंद तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
पूरी तो करो किसी ख़्वाहिशमंद की ख़्वाहिश,
ख़्वाहिशमंद की ओर से सलाम लिख रहा हूँ।
सोचा न था हैवानियत दिखाएगा ये मंज़र,
आबरू का जिम्मा तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना,
इसलिए यह अमन का पैगाम लिख रहा हूँ।
इंसानियत तो है ही नहीं मज़हबी सियासत,
ये कलाम इंसानियत के नाम लिख रहा हूँ।
ये सियासती गिले शिकवे यहीं पर रह जाएंगे,
बेहद हसीन दुनियाँ तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
कुछ भी तो नहीं बचा वसीयत में तुम्हें देने,
अमन के अलफाज तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
जाने क्या किया था इस बदनसीब कागज ने,
जो इसे घायल कर अपना नाम लिख रहा हूँ।
आज बस इतना ही।
हेमन्त बावनकर
श्री सुजित कदम
फोन नंबर…!
श्री सुजित कदम जी की कवितायेँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।
कविता “फोन नंबर ….!” एक अत्यन्त मार्मिक कविता है जिसने 12.03.2019 को महाराष्ट्र साहित्य परिषद, पुणे की काव्य गोष्ठी में सबके नेत्र नम कर दिये थे।
श्री सुजित कदम जी के शब्दों में – “सामाजिक बांधिलकी जोपासताना समाजाच हे वास्तव याकडे मी दुर्लक्ष करू शकत नाही.”
कट केला..!
© सुजित कदम, पुणे
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
द्वितीय अध्याय
साँख्य योग
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(सांख्ययोग का विषय)
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥
मैं तुम राजा सभी,न थे,न कोई काल
और न होंगे फिर कभी यह भी नहीं है हाल।।12।।
भावार्थ : न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।12।।
Nor at any time indeed was I not, nor these rulers of men, nor verily shall we ever cease to be hereafter. ।।12।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
ई-अभिव्यक्ति: संवाद–2
जैसा कि मैंने आपसे वादा किया था कि हम अपना संवाद जारी रखेंगे। तो मैं पुनः उपस्थित हूँ आपसे आपके एवं अपने विचार साझा करने के लिए।
हम सभी अपनी भावनाओं को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त करते हैं और उस क्रिया को अभिव्यक्ति की संज्ञा दे देते हैं। यह अभिव्यक्ति शब्द भी अपने आप में अत्यंत संवेदनशील शब्द है। यह अधिक संवेदनशील तब बन जाता है जब हम इसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से जोड़ देते हैं।
अब मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ। शब्दों के ताने बाने का खेल है “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता”। फिर यदि आप व्यंग्य विधा में माहिर हैं तो शब्दों के ताने बाने का खेल बड़े अच्छे से खेल लेते हैं। हो सकता है मैं गलत हूँ। किन्तु, व्यंग्य विधा की महान हस्ती हरीशंकर परसाईं जी नें शब्दों के ताने बाने का यह खेल बखूबी खेल कर सिद्ध कर दिया है कि “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” के बंधन में रहकर भी अपनी कलम से “हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा आए” की तर्ज पर अपने विचार निर्भीकता से अभिव्यक्त किये जा सकते हैं, बशर्ते आपकी कलम भी उतनी ही पैनी हो जितनी आपकी तीसरी दृष्टि।
हम लोग बड़े सौभाग्यशाली हैं की हमारी पीढ़ी के कई साहित्यकारों से उनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सरोकार रहा है। उनमें मेरे एक वरिष्ठ साहित्यकार मित्र श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी भी हैं। हाल ही में मुझे उनका एक संदेश मिला जो निश्चित ही मेरे मित्रों को भी मिला होगा यह संदेश मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ ताकि आप भी उस खेल में सहभागी बन सकें।
महोदय जी,
कृपया इस सवाल का जवाब कम से कम 100 शब्दों में और अधिक से अधिक 800 शब्दों में देने का कष्ट करें
प्रश्न – आज के संदर्भ में लेखक क्या समाज के घोड़े की आँख है या लगाम?
उत्तर – (उत्तर के साथ अपना चित्र भी भेजें)
(उत्तर आप [email protected] पर प्रेषित कर सकते हैं।)
फिर देर किस बात की उठाइये अपनी कलम और दौड़ा दीजिये दिमाग के घोड़े, समाज के घोड़े के लिए।
आज बस इतना ही।
हेमन्त बावनकर
15 मार्च 2019
डा. मुक्ता
नव कोंपलें
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है नारी हृदय की संवेदनाओं को उकेरती एक विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘नव कोपलें ’)
काश!वह समझ पाता
अपनी पत्नी को शरीक़े-हयात
जीवन-संगिनी सुख-दु:ख की
अनुभव कर पाता
उसके जज़्बातों को
अहसासों,आकांक्षाओं
तमन्नाओं व दिवा-स्वप्नों को
वह मासूम
जिस घर को अपना समझ
सहेजती-संजोती,संवारती
रिश्तों को अहमियत दे
स्नेह व अपनत्व की डोर में पिरोती
परिवारजनों की आशाओं पर खरा
उतरने के निमित्त
पल-पल जीती,पल-पल मरती
कभी उफ़् नहीं करती
अपमान व तिरस्कार के घूंटों का
नीलकंठ सम विषपान करती
परन्तु सब द्वारा
उपयोगिता की वस्तु-मात्र
व अस्तित्वहीन समझ
नकार दी जाती
कटघरे में खड़ा कर सब
उस पर निशाना साधते
व्यंग्य-बाणों के प्रहार करते
उसकी विवशता का उपहास उड़ाते
वह हृदय में उठते ज्वार पर
कब नियंत्रण रख पाती
एक दिन अंतर्मन में
दहकता लावा फूट निकलता
सुनामी जीवन में दस्तक देता
वह आंसुओं के सैलाब में
बहती चली जाती
और कल्पना करती
बहुत शीघ्र प्रलय आयेगा सृष्टि में
और सागर की गगनचुंबी लहरों में
सब फ़नाह हो जायेगा
अंत हो जायेगा असीम वेदना
असहनीय पीड़ा व अनन्त दु:खों का
उथल-पुथल मच जायेगी धरा पर
सब अथाह जल में समा जायेगा
फिर होगी स्वर्णिम सुबह
सूर्य की रश्मियों से
सिंदूरी हो जायेगी धरा
नव कोंपलें फूटेंगी
अंत हो जायेगा स्व-पर
राग-द्वेष व वैमनस्य का
समता,समन्वय
सामंजस्य और समरसता
का साम्राज्य हो जायेगा
नव जीवन मुस्करायेगा
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
द्वितीय अध्याय
साँख्य योग
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(सांख्ययोग का विषय)
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।।11।।
श्री भगवान बोले
जिनका शोक न चाहिये उनका शोक महान
व्यर्थ बातें बडी तेरी , हो जैसे विद्धान।।11।।
भावार्थ : श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते।।11।।
Thou hast grieved for those that should not be grieved for, yet thou speakest words of wisdom. The wise grieve neither for the living nor for the dead. ।।11।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
ई-अभिव्यक्ति: संवाद–1
मुझसे मेरे कई मित्रों ने पूछा कि – भाई वेबसाइट का नाम ई-अभिव्यक्ति ही क्यों?
मेरा उत्तर होता था जब ईमेल और ईबुक हो सकते हैं तो फिर आपकी वेबसाइट का नाम ई-अभिव्यक्ति क्यों नहीं हो सकता?
“अभिव्यक्ति” शब्द को साकार करना इतना आसान नहीं था। जब कभी अभिव्यक्ति की आज़ादी की राह में रोड़े आड़े आए तो डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के आशीर्वाद स्वरूप निम्न पंक्तियों ने संबल बढ़ाया –
सजग नागरिक की तरह
जाहिर हो अभिव्यक्ति।
सर्वोपरि है देशहित
बड़ा न कोई व्यक्ति।
इस क्रम में आज अनायास ही स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर अचानक सुश्री आरूशी दाते जी का एक मराठी आलेख अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य – गरज व अतिरेक… प्राप्त कर हतप्रभ हूँ।
15 अक्तूबर 2018 की रात्रि एक सूत्रधार की मानिंद जाने अनजाने मित्रों, साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर कुछ नया करने के प्रयास से एक छोटी सी शुरुआत की थी। अब लगता है कि सूत्रधार का कर्तव्य पूर्ण करने के लिए संवाद भी एक आवश्यक कड़ी है। कल्पना भी नहीं थी कि इस प्रयास में इतने मित्र जुड़ जाएंगे और इतना प्रतिसाद मिल पाएगा।
यदि मजरूह सुल्तानपुरी के शब्दों में कहूँ तो –
मैं अकेला ही चला था ज़ानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।
इस संवाद के लिखते तक मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि 15 अक्तूबर 2018 से आज तक 5 माह में कुल 485 रचनाएँ प्रकाशित की गईं। उन रचनाओं पर 297 कमेंट्स प्राप्त हुए और 8700 से अधिक सम्माननीय लेखक/पाठक विजिट कर चुके हैं।
इस यात्रा में कई अविस्मरणीय पड़ाव आए जो सदैव मुझे कुछ नए प्रयोग करने हेतु प्रेरित करते रहे। इनकी चर्चा हम समय समय पर आपसे करते रहेंगे। मित्र लेखकों एवं पाठकों से समय-समय पर प्राप्त सुझावों के अनुरूप वेबसाइट में साहित्यिक एवं अपने अल्प तकनीकी ज्ञान से वेबसाइट को बेहतर बनाने के प्रयास किए।
इस यात्रा की शुरुआत शीर्ष साहित्यकार एवं अनुज डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी से एक लंबी चर्चा एवं डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के आशीर्वाद से की थी। तत्पश्चात वरिष्ठ मित्रों के समर्पित सहयोग से पथ पर चल पड़ा। मुझे प्रोत्साहित करने में श्री जगत सिंह बिष्ट, श्री सुरेश पटवा, श्री जय प्रकाश पाण्डेय, डॉ भावना शुक्ल, श्री ज्योति हसबनीस, श्री सदानंद आंबेकर आदि मित्रों का अभूतपूर्व सहयोग प्राप्त हुआ। यदि कोई मित्र अनजाने में सूची में छूट गए हों तो करबद्ध क्षमा चाहूंगा।
आज बस इतना ही।
हेमन्त बावनकर
14 मार्च 2019
मिली भगत – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
संपादक – विवेक रंजन श्रीवास्तव
प्रकाशक – रवीना प्रकाशन, दिल्ली-110094
मूल्य – 400 रू हार्ड बाउंड संस्करण, पृष्ठ संख्या 256
फोन- 8700774571,७०००३७५७९८
समीक्षक – डॉ. कामिनी खरे,भोपाल
कृति चर्चा .. मिली भगत – (हास्य व्यंग्य का वैश्विक संकलन)
तार सप्तक संपादित संयुक्त संकलन साहित्य जगत में बहुचर्चित रहा है. सहयोगी अनेक संकलन अनेक विधाओ में आये हैं, किन्तु मिली भगत इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है कि इसमें संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के वैश्विक संबंधो के चलते सारी दुनिया के अनेक देशो से व्यंग्यकारो ने हिस्सेदारी की है. संपादकीय में वे लिखते हैं कि “व्यंग्य विसंगतियो पर भाषाई प्रहार से समाज को सही राह पर चलाये रखने के लिये शब्दो के जरिये वर्षो से किये जा रहे प्रयास की एक सुस्थापित विधा है. “यद्यपि व्यंग्य अभिव्यक्ति की शाश्वत विधा है, संस्कृत में भी व्यंग्य मिलता है, प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में व्यंग्य है, यह कटाक्ष किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि उसे सही मार्ग दिखाने के लिए ही होता है. कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता उसकी ढाल है. हास्य और व्यंग्य में एक सूक्ष्म अंतर है, जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग्य हमें सोचने पर विवश करता है. व्यंग्य के कटाक्ष पाठक को तिलमिलाकर रख देते हैं. व्यंग्य लेखक के संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है. शायद व्यंग्य, उन्ही तानों और कटाक्ष का साहित्यिक रचना स्वरूप है, जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में स्थाई रूप से घुलमिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं. कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है, भी कुछ कुछ व्यंग्य, छींटाकशी, हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है.
प्रायः अनेक समसामयिक विषयो पर लिखे गये व्यंग्य लेख अल्पजीवी होते हैं, क्योकि किसी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया व्यंग्य, अखबार में फटाफट छपता है, पाठक को प्रभावित करता है, गुदगुदाता है, थोड़ा हंसाता है, कुछ सोचने पर विवश करता है, जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह थोड़ा कसमसाता है पर अपने बचाव के लिये वह कोई अच्छा सा बहाना या किसी भारी भरकम शब्द का घूंघट गढ़ ही लेता है, जैसे प्रायः नेता जी आत्मा की आवाज से किया गया कार्य या व्यापक जन कल्याण में लिया गया निर्णय बताकर अपने काले को सफेद बताने के यत्न करते दिखते हैं.. अखबार के साथ ही व्यंग्य भी रद्दी में बदल जाता है. उस पर पुरानेपन की छाप लग जाती है. किन्तु पुस्तक के रूप में व्यंग्य संग्रह के लिये अनिवार्यता यह होती है कि विषय ऐसे हों जिनका महत्व शाश्वत न भी हो तो अपेक्षाकृत दीर्घकालिक हो. मिली भगत ऐसे ही विषयो पर दुनिया भर से अनेक व्यंग्यकारो की करिश्माई कलम का कमाल है.
संग्रह में अकारादि क्रम में लेखको को पिरोया गया है. कुल ४३ लेखकों के व्यंग्य शामिल हैं.
अभिमन्यु जैन की रचना ‘बारात के बहाने’ मजेदार तंज है. उनकी दूसरी रचना अभिनंदन में उन्होने साहित्य जगत में इन दिनो चल रहे स्वसम्मान पर गहरा कटाक्ष किया है. अनिल अयान श्रीवास्तव नये लेखक हैं, देश भक्ति का सीजन और खुदे शहरों में “खुदा“ को याद करें लेख उनकी हास्य का पुट लिये हुई शैली को प्रदर्शित करती है. अलंकार रस्तोगी बड़ा स्थापित नाम है. उन्हें हम जगह-जगह पढ़ते रहते हैं. ‘साहित्य उत्त्थान का शर्तिया इलाज’ तथा ‘एक मुठभेड़ विसंगति से’ में रस्तोगी जी ने हर वाक्य में गहरे पंच किये हैं. अरुण अर्णव खरे वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं, वे स्वयं भी संपादन का कार्य कर चुके हैं, उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं. बच्चों की गलती, थानेदार और जीवन राम तथा बुजुर्ग वेलेंटाईन, उनकी दोनो ही रचनायें गंभीर व्यंग्य हैं. इंजी अवधेश कुमार ’अवध’ पेशे से इंजीनियर हैं ‘पप्पू-गप्पू वर्सेस संता-बंता’ एवं ‘सफाई अभिनय’ समसामयिक प्रभावी कटाक्ष हैं. डॉ अमृता शुक्ला के व्यंग्य ‘कार की वापसी’ व ‘बिन पानी सब सून’ पठनीय हैं. बसंत कुमार शर्मा रेल्वे के अधिकारी हैं ‘वजन नही है’ और ‘नालियाँ’ व्यंग्य उनके अपने परिवेश को अवलोकन कर लिखने की कला के साक्षी हैं. ब्रजेश कानूनगो वरिष्ठ सुस्थापित व्यंग्यकार हैं. उनके दोनो ही लेख उपन्यास लिख रहे हैं वे तथा वैकल्पिक व्यवस्था मंजे हुये लेखन के प्रमाण हैं, जिन्हें पढ़ना गुनना मजेदार तो है ही साथ ही व्यंग्य की क्षमता का परिचायक है. छाया सक्सेना ‘प्रभु’ के लेख फ्री में एवलेबल रहते हैं पर फ्री नहीं रहते और ध्यानचंद्र बनाम ज्ञानचंद्र बढ़िया हैं. प्रवासी भारतीय धर्मपाल महेंद्र जैन एक तरफा ही सही और गड्ढ़े गड्ढ़े का नाम लेखो के माध्यम से कुछ हास्य कुछ व्यंग्य के नजारे दिखाते हैं. वरिष्ठ लेखक जय प्रकाश पाण्डे ने ‘नाम गुम जाएगा’ व ‘उल्लू की उलाहना’ लेखो के माध्यम से कम में अधिक कह डाला है. किशोर श्रीवास्तव के सावधान, यह दुर्घटना प्रभावित क्षेत्र है और घटे वही जो राशिफल बताये लेखो के जरिये स्मित हास्य पैदा किया है. कृष्णकुमार ‘आशु’ ने पुलिसिया मातृभाषा में पुलिस वालो की बोलचाल के तौर तरीको पर कलम चलाकर कटाक्ष किया है उनका दूसरा लेख फलित होना एक ‘श्राप का’ भी जबरदस्त है. मंजरी शुक्ला के दो लेख क्रमशः जब पडोसी को सिलेंडर दिया एवं बिना मेक अप वाली सेल्फी, मजेदार हैं व पाठक को बांधते हैं.
मनोज श्रीवास्तव के लेख अथ श्री गधा पुराण व यमलोक शीर्षक से ही कंटेंट की सूचना देते हैं. महेश बारमाटे ‘माही’ बिल्कुल नवोदित लेखक हैं किन्तु उनके व्यंग्य धारदार हैं बेलन, बीवी और दर्द व सब्जी क्या बने एक राष्ट्रीय समस्या पर उन्होने लिखा है, वे पेशे से इंजीनियर हैं, ओम वर्मा के लेख अनिवार्य मतदान के अचूक नुस्ख़े व ‘दो टूक’ शानदार हैं. ओमवीर कर्ण के लेख प्रेम कहानी के बहाने तथा पालिटीशियन और पब्लिक की सरल ताने भरी भाषा पैनी है. डा. प्रदीप उपाध्याय सुस्थापित नाम है, उनकी कई पुस्तकें लोगो ने पसंद की हैं. यह संपादक का ही कमाल है कि वे इस किताब में ढ़ाढ़ी और अलजाइमर का रिश्ता और उनको रोकने से क्या हासिल लेखों के माध्यम से शामिल हैं. रमाकान्त ताम्रकार परसाई की नगरी के व्यंग्यकार हैं.
उनके लेख दो रुपैया दो भैया जी व जरा खिसकना अनुभवजन्य हैं. रमेश सैनी व्यंग्य जगत में अच्छा काम कर रहे हैं, वे व्यंग्यम संस्था के संयोजक भी हैं. उनकी पुस्तकें छप चुकी हें. ए.टी.एम. में प्रेम व बैगन का भर्ता के जरिये उनकी किताब में उपस्थिति महत्वपूर्ण है. राजशेखर भट्ट ने निराधार आधार और वेलेंटाईन-डे की हार्दिक शुभकामनायें लिखी हैं. राजशेखर चौबे रायपुर में बड़े शासकीय पद पर कार्यरत हैं, किन्तु स्थापित संपादक व व्यंग्यकार की उनकी पहचान को उनके लेख ज्योतिष की कुंजी और डागी फिटनेस ट्रेकर मुखरित करते हैं. राजेश सेन को हर व्यंग्य में रुचि रखने वाले पाठक बखूबी जानते हैं. अपने प्रसिद्ध नाम के अनुरूप ही उनके लेख डार्विन, विकास-क्रम और हम एवं बतकही के शोले और ग्लोबल-वार्मिंग किताब में चार चांद लगा रहे हैं. अबूधाबी की प्रसिद्ध लेखिका समीक्षा तैलंग की हाल ही में चर्चित किताब जीभ अनशन पर है आई है, वे विषय की पिच पर जाकर बेहतरीन लिखती हैं. किताब में उनके दो लेख विदेश वही जो अफसर मन भावे तथा धुंआधार धुंआ पटाखा या पैसा लिये गये हैं. मेरठ के सुप्रसिद्ध साहित्यिक सांध्यकालीन अखबार विजय दर्पण टाईम्स के संपादक – संतराम पाण्डेय की लेखनी बहुप्रशंसित है. उनके लेख लेने को थैली भली और बिना जुगाड़ ना उद्धार पढ़ेंगे तो निश्चित ही आनंद आवेगा. दिव्य नर्मदा ब्लाग के संजीव सलिल ने हाय! हम न रूबी राय हुए व दही हांडी की मटकी और सर्वोच्च न्यायालय जैसे समाज की समकालीन घटनाओ को इंगित करते लेख लिखे हें. इंजी संजय अग्निहोत्री प्रवासी भारतीय और इंजीनियर हैं, यह विवेक जी का ही संपर्क जाल है कि उनके लेख यथार्थपरक साहित्य व अदभुत लेखकों को किताब में संजोया गया है. मुम्बई के सुप्रसिद्ध लेखक संजीव निगम के व्यंग्य लौट के उद्धव मथुरा आये और शिक्षा बिक्री केन्द्र जबरदस्त प्रहार करने में सफल हुये हैं. ब्लाग जगत के चर्चित व्यक्तित्व केनेडा के समीर लाल उड़नतश्तरी के लेखों किताब का मेला या मेले की किताब और रिंग टोनः खोलती है राज आपके व्यक्तित्व का ने किताब को पूरे अर्थो में वैश्विक स्वरूप दे दिया है. शशांक मिश्र भारती का पूंछ की सिधाई व अथ नेता चरित्रम् व्यंग्य को एक मुकाम देते लेख हैं. बहुप्रकाशित लेखक प्रो.शरद नारायण खरे ने ख़ुदा करे आपका पड़ोसी दुखी रहे एवं छोड़ें नेतागिरी बढ़िया व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं.
सशक्त व्यंग्य हस्ताक्षर शशिकांत सिंह ‘शशि’ जिनकी स्वयं कई किताबें छप चुकी हैं, तथा विभिन्न पत्रिकाओ में हम उन्हें पढ़ते रहते हैं के गैंडाराज और सुअर पुराण जैसे लेख शामिल कर विवेक जी ने किताब को मनोरंजक बनाने में सफलता प्राप्त की है. शिखरचंद जैन व्यंग्य में नया नाम है, किन्तु उनके व्यंग्य लेख पढ़ने से लगता है कि वे सिद्धहस्त व्यंग्यकार हैं उनके लेख आलराउंडर मंत्री और मुलाकात पार्षद से पुस्तक का हिस्सा है. सुधीर ओखदे आकाशवाणी के कार्यक्रम प्रोड्यूसर हैं, उनके व्यंग्य-संग्रह बहुचर्चित हैं. विमला की शादी एवं गणतंत्र सिसक रहा है व्यंग्यो के जरिये उनकी उपस्थिति दर्ज की जा सकती है. विक्रम आदित्य सिंह ने देश के बाबा व ताजा खबर लिखे हैं. विनोद साव का एक ही लेख है दूध का हिसाब पर, इसमें ही उन्होने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिखाया है. युवा संपादक, समीक्षक, व्यंग्यकार विनोद कुमार विक्की की व्यंग्य की भेलपुरी साल की चर्चित किताब है. पत्नी, पाकिस्तान और पेट्रोल तथा व्यथित लेखक उत्साहित संपादक के द्वारा उनके लेख किताब में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी करते हैं. विजयानंद विजय ने आइए, देश देश खेलते हैं एवं हम तो बंदर ही भले है व्यंग्यों के जरिये अपनी कलम का कमाल बता दिया है. स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव के भी दो लेख सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिये और आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती पुस्तक को महत्वपूर्ण व पठनीय बनाते हैं. अमन चक्र के लेख कुत्ता व मस्तराम पठनीय हैं. रमेश मनोहरा उल्लुओ का चिंतन करते हैं. दिलीप मेहरा के लेख कलयुग के भगवान, तथा विदाई समारोह और शंकर की उलझन गुदगुदाते हैं.
मिली भगत के सभी लेख एक से बढ़कर एक हैं. इन उत्तम, प्रायः दीर्घ कालिक महत्व के विषयो पर लिखे गये मनोरंजक लेखो के चयन हेतु संपादक विवेक रंजन श्रीवास्तव बधाई के पात्र हैं. सभी लेख ऐसे हैं कि एक बार पाठक पढ़ना शुरू करे तोलेख पूरा किये बिना रुक नही पाता. निश्श्चित ही मिली भगत को व्यंग्य जगत लंबे समय तक याद रखेगा व संदर्भ में इसका उपयोग होगा. कुल मिलाकर किताब पैसा वसूल मनोरंजन, विचार और परिहास देती है. खरीद कर पढ़िये, जिससे ऐसी सार्थक किताबो को प्रकाशित करने में प्रकाशकों को गुरेज न हो. किताब हार्ड बाउंड है, अच्छे कागज पर डिमाई साईज में लाईब्रेरी एडिशन की तरह पूरे गैटअप में संग्रहणीय लगी.
समीक्षक.. डा कामिनी खरे, भोपाल
अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य – गरज व अतिरेक…
(e-abhivyakti में सुश्री आरूशी दाते जी का स्वागत है। ई-अभिव्यक्ति में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं उससे संबन्धित तथ्यों पर विचारपरक लेख निःसन्देह एक उपहार ही है। इस आलेख के लिए हम सुश्री आरुशी जी के हृदय से आभारी हैं। )
अभिव्यक्ती ही देवाने दिलेली निसर्गदत्त देणगी आहे. प्राण्यांनासुद्धा ही देणगी आहे, पण मनुष्यप्राणी अधिक चांगल्या प्रकारे, वेगवेगळ्या पद्धतीने किंवा वेगवेगळ्या मार्गाने अभिव्यक्त होऊ शकतो. त्याच्या बुद्धीची भरारी गगनाचा ठाव घेऊ शकते…
अभिव्यक्त होताना मग ते प्रेमरूपात असो, राग असो, अबोला असो, इतकंच काय गायन, वादन, नृत्य, चित्रकला किंवा शिल्पकला असो, नैसर्गिक असल्यामुळे अभिव्यक्ती थांबवता येणारच नाही, ती फक्त कधी, कशी आणि कुठे करावी हे नक्कीच ठरवू शकतो… हे स्वातंत्र्य प्रत्येक व्यक्तिला मिळणं गरजेचं आहे, त्याला कारणंही तितकीच महत्वाची आहेत…
अभिव्यक्त होणे हे जिवंतपणाचे लक्षण आहे, आपल्या विचारांचा मनाशी, भावनांशी झालेला वाद-संवाद अभिव्यक्तीतून प्रगट आणि प्रगत होत असतो. वर म्हटल्याप्रमाणे त्याचे मार्ग अनेक आहेत, पण अभिव्यक्त होण्याची खरंच गरज आहे का? तर निःशंकपणे हो, हेच उत्तर मिळेल…
आपल्या मनातील भाव जर दुसऱ्यापर्यंत पोहोचवायचे असतील तर त्यात दोन पायऱ्या आहेत… पहिली म्हणजे स्वतःच्या अंतर्मनात व्यक्त होणे (अंतस्थ अभिव्यक्ती), आपल्याला स्वतःला काय वाटतं, ह्याचा अभ्यास करून बाह्यरूपात व्यक्त होणं गरजेचं आहे… त्यासाठी मनन, चिंतन आवश्यक आहे… ह्यावर आपली क्रिया अवलंबून असते…
उदाहरणार्थ, भूक लागली असेल तर, तसा संदेश मेंदूकडून मिळतो, तो मिळाला कि मनातल्या मनात भुकेची भावना जागृत होते, पोट रिकामं आहे, हा विचार मनात येतो, काही तरी खाल्लं पाहिजे नाहीतर विपरीत परिणाम होऊ शकतो हा संवाद घडतो (अंतस्थ अभिव्यक्ती)… मग खायचं कि नाही किंवा काय खायचं हे ठरवता आलं पाहिजे आणि त्यानुसार क्रिया केली जाते…
म्हणजेच जेव्हा एखादा विचार मनात येतो, तेव्हा तो कदाचित आपल्याला भावतो किंवा भावत नाही. कदाचित विचारातूनच त्याची अनुभूती मिळते… तो AWARENESS आपल्याकडे असणं अत्यंत गरजेचं आहे. त्यासाठी अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य उपयोगी येतं… आपण मनात आलेल्या विचारांना RESPOND करतो कि रिऍक्ट करतो हे ठरवता येते, मात्र अभ्यासपूर्ण सवयीनेच होऊ शकते…ह्याबरोबरच ह्या स्वातंत्र्याची दिशा ठरवणेही गरजेचे आहे. म्हणजे आपला मुद्दा मांडताना, अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा उपयोग करत असताना नक्की काय मांडलं पाहिजे हे कळलं पाहिजे आणि ते सर्वस्वी आपल्या हातात आहे…
तुम्हीच बघा ना… एखादी गोष्ट आपल्याला पटत नसेल किंवा एखाद्या माणसाचं मत आपल्याला पटत नसेल तर आपण लगेचच ते बोलून दाखवतो, समोरचा माणूस किती चुकीचा आहे, हे सांगायचा, मी तर म्हणेन ते सिद्ध करायचा आटोकाट प्रयत्न करतो… ह्यातून कदाचित आपला अहंकार नक्कीच सुखावतो, पण असे केल्याने आपण नक्की काय साध्य केलं ह्याचा अभ्यास होणं खूप आवश्यक आहे…. अभिव्यक्त होण्याच्या पद्धतीने माणसे दुरावू शकतात किंवा जवळ येऊ शकतात… ह्याबरोबर समोरच्या व्यक्तीलाही अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य आहे हेच आपण विसरवून जातो, जे अयोग्य आहे….
तेव्हा लक्षात घेतलं पाहिजे ते म्हणजे
१) विचार
२) त्यांच्याशी निगडित भावना (अंतस्थ अभिव्यक्ती)
३) त्यानुसार होणारी क्रिया (बाह्य अभिव्यक्ती)
ह्याचा सतत अभ्यास होणं आवश्यक आहे. नाहीतर अभिव्यक्तीसारख्या सुंदर देणगीचा अतिरेक होऊन अयोग्य गोष्टी घडायला वेळ लागणार नाही… ह्याचा अर्थ स्वत्व पणाला लावणे असा अजिबात होत नाही… पवित्रता, शांतता, सुख, समाधान, प्रेम, ज्ञान, शक्ती, युक्ती, सत्यता ह्यात कुठेच कमी पडणार नाही, ह्याची खात्री आहे आणि अभ्यासाने हे सहज शक्य आहे…
आता ह्यापुढची बाब लक्षात घेऊ या… विचार, भावना, क्रिया ह्या गोष्टी आयुष्याकडे किंवा जीवनाकडे बघायचा दृष्टिकोन ठरवतात, आणि मग त्याचेच रूपांतर सवयीमध्ये होऊ शकते, हीच सवय आपली वृत्ती बनते, त्यातूनच मानसिकता घडते आणि आपले व्यक्तिमत्व आकाराला येते… तेव्हा अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचे महत्व नाकारून चालणार नाही आणि त्याचप्रमाणे त्याचा गैरवापर करूनही चालणार नाही…
अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याची गरज आपल्याला, आपल्या कुटुंबाला आणि कुटुंब ज्या समाजाचा किंवा देशाचा भाग आहे त्याच्या विकासासाठी, ते सुदृढ बनवण्यासाठी आवश्यक आहे, जीवन सुखकर बनवण्यासाठी, नवनवीन शोध, प्रयोग घडवण्यासाठी मनुष्य वैचारिक दृष्ट्या सशक्त होणं गरजेचं आहे आणि त्यासाठी त्याची सृजनशीलतेचा उपयोग नक्कीच होतो… यासाठी अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा खूप हातभार लागतो… पण अति तिथे माती, ह्या नियमानुसार स्वातंत्र्याचा अतिरेक स्वैराचारात बदलून हानी पोहोचवू शकतो किंवा हे स्वातंत्र्य हिरावून घेतले तर विपरीत परिणाम होऊ शकतात… स्वातंत्राबरोबर येणारी जबाबदारी लक्षात ठेवून त्याप्रमाणे क्रिया प्रतिक्रिया झाल्या पाहिजेत… गरजेचं व्यसन आणि त्याचा अतिरेक ह्यातील सीमारेषा ओळखता आल्या की अनेक गोष्टी सुखकर होतील, ह्यात दुमत नाही…
हल्ली आपल्याला मीडियाच्या माध्यमातून होणार अतिरेक नाकारता येणार नाही… आजकाल सोशल मीडियाला प्राधान्य दिलं जातं, त्यावर घडणाऱ्या अभिव्यक्ती कितपत योग्य किंवा अयोग्य असतात हेही किंवा त्याची पद्धत काय आहे ह्यावर अवलंबून आहे… त्यांचा आपल्या जीवनावरील प्रभाव टाळता येईल की नाही ही व्यक्तिगत गोष्ट आहे… त्यामुळे नैसर्गिक गरज भागवण्यासाठी अभिव्यक्तीचं मिळालेलं स्वातंत्र्य उपभोगताना त्याचा अतिरेक टाळून आनंदी राहता येते, त्या दृष्टीने अभ्यास सतत चालू ठेवला पाहिजे…
© आरुशी दाते