(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
डॉ कुंवर प्रेमिल जी का e-abhivyakti में स्वागत है।
(विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन)
एक माँ ने अपनी बच्ची को रंग-बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गई। सर्वप्रथम उसने एक प्यारी सी नदी बनाई। नदी के दोनों किनारों पर हरे-भरे दरख्त, एक हरी-भरी पहाड़ी, पहाड़ी के पीछे से ऊगता सूरज और एक प्यारी सी हट। बच्ची खुशी से नाचने लगी थी। तालियाँ बजाते हुए उसने अपनी मम्मी को आवाज लगाई -‘ममा देखिये मैंने कितनी प्यारी सीनरी बनाई है।’
चौके से ही मम्मी ने प्रशंसा कर बच्ची का मनोबल बढ़ाया। कला जीवंत हो उठी।
थोड़ी देर बाद मुन्नी घबराई हुई सी चिल्लाई – ‘ममा गज़ब हो गया, दादा-दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं बन पा रही है।’
ममा की आवाज आई- आउट हाउस बनाकर समस्या का निराकरण कर लो। दादा-दादी वहीं रह लेंगे।’
मम्मी की सलाह सुनकर बच्ची एकाएक हतप्रभ होकर रह गई। उसे लगा कि सीनरी एकदम बदरंग हो गई है। चित्रकारी पर काली स्याही फिर गई है। हट के बीचों-बीच एक मोटी सी दरार भी पड़ गई है।
श्री सदानंद आंबेकरजी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।गायत्री तीर्थशांतिकुंज, हरिद्वारके निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 सेनिरंतर प्रवास।
कल आपनेश्री सुजितकदमजीकामराठी आलेख – * घराचे घरपण *पढ़ा।आखिर चिड़िया का घोंसला भी तो घर ही है?
इसी क्रम में हम श्री सदानंद आंबेकर जीके आभारी हैं इस मराठीलघुकथा – “घरटं” के लिए जो कि उनके जीवन के ही एक प्रसंग से प्रेरित है। )
शहरातील प्रसिद्ध समाजसेवक, अनेक धर्मार्थ संस्थांचे प्रमुख आणि नामवंत बिल्डर, डॉ प्रताप आपल्या बालकनी मधे त्यांच्या धर्मपत्नी सह बसून सकाळच्या चहा चा आनन्द घेत होते। देशकाळाची चर्चा होत असतांना अचानक प्रताप चे लक्ष बालकनी मधे ठेवलेल्या उंची लाकडी रॅक कडे गेले, त्यात सर्वात वरच्या कप्यावर दोन सुरेख लहानगे पक्षी येर-झार करीत होते। लक्ष देऊन पाहिले तर कळले कि ते वारंवार येत-जात, वाळके गवत, कापूस, पंख इत्यादि वस्तु आणून तिथे आपले एक घरटं बनवून राहिले आहेत। बायकोला ती गोष्ट दाखविली तर तिच्या तोंडून सहजपणे निघाले – ‘अय्या, किती सुंदर घरटं बनवून राहिले आहेत ते, कित्ती मज्जा येईल जेव्हां लहान-लहान पिले चीव-चीव करतील ते . . . .’
हे ऐकतांच प्रतापराव लगेच बोलले- ‘हे कसलं सुंदर, यानी तर घरांत कचरांच व्हायचा आणि कसलं ते चीव-चीव म्हणे, उगांच नसला तो कल्ला व्हायचा। छे छे, हा त्रास आत्ताच लांब करायला हवा। तू नोकराला सांग कि ही घाण आत्ताच्या आत्ता इथून फेक।’
यावर त्यांच्या सौ उत्तरल्या – ‘अहो, यांत काय नुकसान होतंय आपलं ? न ते बिचारे तुम्हांला सीमेंट-वाळू मागतांत न तंर तुमच्या प्लॉट चा हक्कं, मग त्यात कसंला त्रास तो? अहो, तुम्हीं पण तर शहराभरांत कुठेहि इमारती उभ्या करता नां, मग या बिचारयांना कां म्हणून हाकलावे? त्या शिवाय तुम्हीं तर गोर-गरीबांना मदतीचे कामं पण करता नं?’
बायकोचे उत्तर ऐकून लगेच उठून प्रतावरावांनी लांब दंडा हातांत घेतला नि त्या चिमुकल्या पक्ष्यांचं ते घरटं उधळलं आणि बायको कडे पहांत बोलले- ‘अगं तू पण एकदम भाबडीच, आपल्या या बंगल्याची ब्यूटी खराब व्हायची आणि या घरट्याने आपल्याला काय तरी प्रॉफिट मिळणार??’
प्रतापरावांची पत्नी त्यांच्या कडे न समजणार्या नजरेनी नुसती बघत राहून गेली।
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ।।9।।
संजय बोले
ऐसा कह श्री कृष्ण से अर्जुन हो चुपचाप
नहीं लडूँगा मैं प्रभो ! मन में भर संताप।।9।।
भावार्थ : संजय बोले- हे राजन्! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान् से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए।।9।।
Having spoken thus to Hrishikesa (Lord of the senses), Arjuna (the conqueror of sleep), the destroyer of foes, said to Krishna: “I will not fight,” and became silent. ।।9।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
आदिवासी जिले में भ्रमण के दौरान बैगाओं की दयनीय स्थिति देख प्रशांत का मन द्रवित हो गया । क्योंकि आदिवासी समाज के विकास एवं उन्नति हेतु सरकार के द्वारा आजादी के बाद से ही विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत करोड़ों रुपये खर्च किये जा चुके हैं ।
बैगाओं की इस स्थिति हेतु उसने वहां के आदिवासी विकास अधिकारी से पूछ ही लिया — ” आजादी के 65 वर्षों के बाद भी आदिवासियों के तन पर सिर्फ लंगोटी ही क्यों ? ”
अधिकारी ने जवाब दिया — ” यदि हम आदिवासियों को लंगोट के स्थान पर पेंट शर्ट पहना देंगे तो हममें और उनमें क्या अंतर रह जावेगा ? उनकी पहचान नष्ट हो जावेगी , फिर हम विदेशी पर्यटकों को बैगा आदिवासी कैसे दिखावेंगे और वे उनकी लंगोटी वाली वीडियो फ़िल्म , फ़ोटो कैसे उतारेंगे ? अतः उनकी पहचान बनाये रखने उन्हें लंगोटी में ही रहने देने के लिए सरकार द्वारा करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हैं । इसमें आदिवासियों का विकास हो या न हो , हमारा तो हो रहा है । ” कहते हुये उन्होंने बेशर्मी से ठहाका लगाया ।
(श्री सुजित कदम जी का यह आलेख टूटते हुए संयुक्त परिवारों जीवन एवं जीवन की सच्चाई को उजागर करता है।)
आजकाल घरांची वाढत जाणारी संख्या बघता काही घरांमध्ये अस्तित्वात असणारी एकत्र कुटुंब पध्दत ही लयाला जाईल की काय असं वाटायला लागलंय. कुटुंबातील माणसं माणसाशी औपचारिक पणे वागतात. कौटुंबिक ओलावा कुठेतरी नष्ट होत चाललाय.
एकत्र कुटुंबात राहणं त्रासदात्रक वाटू लागलय की काय कळत नाही . छोट्या छोट्या गोष्टीत एकमेकांच मन जपायचं असत हेच आम्ही विसरलोय. सतत एकमेंकाशी जुळवून घेणं, एकमेकांची मन संभाळणं, ह्याचा उगाचच नको इतका बाऊ करु लागलोय आपण. अगदी छोट्या छोट्या कारणावरून आपण एकत्र कुटुंबातून वेगळं राहण्याचा निर्णय घेऊन मोकळे होतो.
कालांतराने लोकांनी विचारल्यावर कारण देतो…, आधीच घर लहान होतं म्हणून.. पोरांना जरा आभ्यासासाठी वेळ मिळावा म्हणून…हवा पालट.. स्पेस, प्रायव्हसी अशी एक ना अनेक कारण आपल्याजवळ तयार असतात. .अर्थात ती आपण नव्या घरात रहायला येण्या आधीच पाठ करून ठेवलेली असतात..!
पण.., खरं कारण कधी सांगत नाही. मनात जे चाललय ते सांगायला घाबरतो. तेव्हा आपण आपला आणि आपल्या कुटुंबाचा विचार करतो.. आणि
खरं कारण लोकांना समाजाला कळल्यावर मात्र
लोक काय म्हणतील ह्याचा विचार करतो..!
हाच विचार आपण वेगळ राहण्या आधी का करत नाही,आपण कुटुबापासून विभक्त होताना जरासुद्धा विचार करत नाही. आपण लहानपणापासून ज्या घरात लहानाचे मोठे झालो.. ज्यांच्या अंगाखांद्यावर लहानाचे मोठे झालो, माणसांना ओळखायला शिकलो,
ज्या घराने,घरातल्या आपल्या माणसांनी आपल्याला लहानपणापासून सांभाळून घेतलं.. त्याच माणसांचा आपण जरासुद्धा विचार नाही करता घराबाहेर पडतो. ज्या माणसांनी आपल्याला घडवलं त्याच माणसांचा आपण मोठे झाल्यावर त्रास होऊ लागतो..
कदाचित…मनात नव्या घराला जागा हवी असल्याने मनातली..,आपल्या माणसांची जागा आपण नकळतपणे कमी करत जातो..! बाहेरचं जग आणि घरातल जग समजून घेण्यात गल्लत करतो. आपल्या स्वतःच्या विचारापुढेस अनुभवी बोलांकडे आपण दुर्लक्ष करत आहोत हे आपल्या लक्षात देखील येत नाही.
आपण नव्या घरात राहायला जाण्या आधी जर..
एकदा … लोकांना काय वाटेल हा विचार सोडून जरा शांत पणाने घरच्यांना काय वाटेल हा विचार केला…
तर घरांची वाढत जाणारी ( विभक्त कुटुंब ची) संख्या निश्चितच कमी होईल…,!
नव्या घरात रहायला जा…अगदी आंनदाने जा .
स्वतःच्या कर्तबगारीवर नव्या घरात राहायला जाणारच असाल तर एकत्र कुटुंब घेऊनच रहायला जा…कारण
घर मोठ नसलं तरी चालेल मन मोठं असल पाहिजे…!
मनात जागा असली की जनात देखील आपोआप मानाचे स्थान मिळते. बघा विचार करा. स्वतःच घरकुल सजवताना घरातल्या माणसांच्या काळजात असलेले घर देखील तितकेच मजबूत ठेवा.
भावार्थ : क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।।8।।
I do not see that it would remove this sorrow that burns up my senses even if I should attain prosperous and unrivalled dominion on earth or lordship over the gods. ।।8।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सामाजिक माध्यमों और आधुनिक तकनीक के सामंजस्य के सदुपयोग/दुरुपयोग पर अत्यंत सामयिक, सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)
आप जवरसिंग को नहीं जानते. उसे जानना जरूरी है. वो इन दिनों ‘आधुनिक भारत का इतिहास’ लिखने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है. हालाँकि उसकी पृष्ठभूमि से नहीं लगता कि वो इतिहास लेखन जैसी महती परियोजना पर काम कर रहा होगा, मगर सच यही है. उसके लिखे इतिहास के चुनिन्दा अंश प्रस्तुत करने से पहले मैं, संक्षेप में, उसकी पृष्ठभूमि बताना चाहता हूँ.
जवरसिंग हमारे दफ्तर में साढ़े पैंतीस साल चपरासी के पद का निर्वहन करते हुए तीन महीने पहले सेवा निवृत्त हुआ. बायो-डाटा में उसकी शैक्षणिक योग्यता पाँचवी तक लिखी हुई थी मगर अपने नाम के पांच अक्षरों से ज्यादा वो कभी नहीं लिख सका. हाँ, वो हिंदी पढ़ लेता था. अखबार घंटों पढ़ता था. दोपहर का टैब्लॉयड ‘जलती मशाल’ उसका पसंदीदा अखबार रहा. क्राईम न्यूज़ सबसे पहले पढ़ता. जब जब दफ्तर में हमारे पास उसके लायक जरूरी काम होता वो अखबार पढ़ने में तल्लीन हो जाता और तब तक तल्लीन ही रहता जब तक हमारा काम बिना उसके भी पूरा न हो जाए. वो प्रखर राजनैतिक चेतना का धनी था. दैनिक वेतनभोगी कर्मियों को सामने बैठाकर घंटों समकालीन राजनीति पर अपना अभिमत देता. उसके किसी श्रोता में इतनी हिम्मत नहीं होती कि उससे असहमत हो जाए, बल्कि वे उसके लिए समोसा-चाय लेकर आते. उसके अन्दर एक अदम्य विश्वास कूट-कूट कर भरा था कि भारत सहित दुनिया के तमाम राष्ट्र-प्रमुख यदि उसकी सलाह से चलें तो देश-विदेश की सारी समस्याएं घंटो में सुलझाई जा सकती हैं. बहरहाल, उसकी सेवा निवृत्ति पर हम सबने कंट्रीब्यूट करके उसे एक स्मार्ट फ़ोन गिफ्ट किया था. फिर उसने सबसे तेज़, सबसे ज्यादा डाटा, सबसे सस्ता देने वाली कंपनी से इन्टरनेट पैक लिया, अपनी पोती से व्हाट्सऐप करना सीखा.
जिस रोज़ व्हाट्सऐप पर उसकी पहली पोस्ट मुझे मिली मैं कदाचित विस्मित रह गया. जवरसिंग और इतना लंबा मैटर! खुद ने मोबाइल पर टाईप किया या किसी से लिखवाकर मुझे फॉरवर्ड करा!! जो भी हो, मेरे आश्चर्य की वजह उसकी तकनीकी योग्यता में सुधार को लेकर नहीं थी बल्कि उस पोस्ट में झलकती इतिहास की उसकी अनूठी समझ, नायाब और नवीन जानकारी को लेकर थी. उसने पोस्ट में लिखा था कि आज़ादी के लिए अनेक बार जेल जाने वाले, आधुनिक भारत के निर्माता, ‘भारत एक खोज’ के रचयिता किसी भी प्रकार से आदर योग्य महापुरुष नहीं थे. उन्होंने जो भी निर्णय लिए वे देशहित के कभी नहीं रहे. वे जननायक भारत के थे और प्रेम पकिस्तान से करते थे. मैं भौंचक्का रह गया. मुझे लगा कि मेरे पिता, मेरे दादाओं, परदादाओं की पूरी पूरी पीढ़ियाँ गलत थीं, जो उनके एक आव्हान पर जेल जाने और लाठी गोली खाने को उद्यत रहती थीं. मेरी दादी ने आज़ादी के नायक की जो कहानियां मुझे सुनाई थीं जवरसिंग की भेजी गई एक पोस्ट ने उसे धो कर रख दिया.
जवरसिंग ने फिर एक पोस्ट भेजी जिसमें उसने उसी नायक के बारे में बताया कि उनके परदादा म्लेच्छ थे, कि उन्होंने धर्मान्तरण किया था, कि उनका जन्म इलाहाबाद की एक बदनाम बस्ती में हुआ था. मन किया श्रीमान, कि जवरसिंग के चरण छू लिए जाएँ. कहाँ थे प्रभु आप अब तक ? आप इतने साल साथ रहे मगर कभी बताया नहीं कि किस महापुरुष की अंत्येष्टि में कौन शामिल हुआ, नहीं हुआ, हुआ तो किस विधि से संस्कार करना था, किस विधि से कर दिया गया. आज़ादी का कौन सा सेनानी ईश्कबाज़ी में मसरूफ़ रहता था और अपने जीवन साथी के प्रति बेवफा था. ऐसे ऐतिहासिक तथ्य जुटाने के लिए कितना परिश्रम किया होगा जवरसिंग ने, कितना समय लगाकर कितना अध्ययन किया होगा, !! व्हाट्सऐप नहीं होने के कारण वो मुझे और देश को इतिहास का ये पक्ष पहले बता नहीं सका. थैंक यू ब्रायन एक्टन, आपने व्हाट्सऐप बनाया.
जो फोन हमने गिफ्ट किया था वो स्मार्ट फोन था, जवरसिंग के हाथों में आकर ओवर स्मार्ट हो गया है. इसी से वो इन दिनों लगभग रोज़ ही एक, दो या उससे भी अधिक पोस्ट भेजता है जिनमें उन प्रतिमाओं को खंडित किया हुआ होता जो अब तक पूजनीय बनी रही. उसका राजनैतिक आकलन देखिये श्रीमान – उसने लिखा कि अगर ‘अ’ की जगह ‘ब’, या ‘ब’ की जगह ‘स’, ‘द’, या ‘ढ़’ देश के प्रथम जननायक रहे होते तो क्या से क्या हो गया होता. जवरसिंग जब पोस्ट लिखता है तो आत्मविश्वास से लबरेज़ रहता है. वो बहुत सी ऐसी घटनाओं को शिद्दत से परोसता है जो शायद कभी घटी ही नहीं. वह अपने जन्म के पूर्व की किसी दिनांक को दो दिवंगत महापुरूषों के बीच हुए संवाद को ऐसे प्रेषित करता है जैसे वो उस बातचीत का चश्मदीद गवाह रहा हो. उसकी एक पोस्ट ने तो मेरे पैरों के नीचे की जमीन ही खिसका दी, लिखा कि अहिंसा से आज़ादी दिलाने वाला अधनंगा फ़कीर तो अंग्रेजों का एजेंट था और स्वतन्त्रता संग्राम की अगुवाई वो इस तरह से कर रहा था कि फिरंगी अधिक से अधिक बरसों तक भारत पर शासन कर सकें. बताईये साहब, सदी के महानायक की समूची साधना पर जवरसिंग के लिखे ने पानी फेर दिया. जवरसिंग की शोध कहती है कि साहित्य का नोबेल पुरस्कार गुरुवर ने अंग्रेजों के सामने गिड़गिड़ा कर हाँसिल किया. ये तो चंद, चुनिन्दा बानगियाँ हैं श्रीमान, जवरसिंग ने ऐसी ढेर सारी सामग्री जुटा ली है. उन पोस्टों के फॉरवर्ड किये जाने का सिलसिला अनवरत जारी है. जवरसिंग ने अपने ज्ञान-क्षितिज को विस्तार दिया है. अब वो कूटनीति पर भी पोस्ट भेजने लगा है, रक्षा मामलों पर और देश की अर्थनीति पर तो साधिकार पोस्टें भेजता ही रहता है. जवरसिंग अपने इतिहास लेखन की रॉयल्टी नहीं लेता मगर हाँ, वो चाहता है कि उसकी ऐसी पोस्टों को वाईरल किया जाए. इसके लिए कभी कभी वो चैलेंज भी करता है कि तुम सच्चे ये हो या सच्चे वो हो तो इसको जरूर फैलाओ.
जवरसिंग ने हमारे समय के पनिक्करों, बिपिन चंद्राओं, रामचंद्र गुहाओं, रोमिला थापरों के वर्षों के परिश्रम से किये गए शोध और इतिहास लेखन को अपने व्हाट्सऐप अकाउंट के एक क्लिक से झुठला दिया है. मुझे अपने आप पर ग्लानि हो रही है कि इतने बड़े इतिहासविद, जानकार, ज्ञानी आदमी ने मेरे दफ्तर में मेरे साथ मामूली पद पर नौकरी करते हुए जिन्दगी गुजार दी और मुझे पता ही नहीं चला. जिसे हम एक साधारण और लगभग अनपढ़ सहकर्मी समझते रहे वो तो गुदड़ी का लाल निकला. इन दिनों वो अपनी समस्त ऐतिहासिक पोस्टों को सम्पादित करके ग्रंथावली के रूप में प्रकाशित करवाने की परियोजना पर काम कर रहा है. आने वाले वर्षों में, इतिहासविद श्रेणी में, वो पद्मविभूषण सम्मान पाने का मजबूत दावेदार है. वो हमारे समय का ‘अनसंग हीरो’ है. उसने प्रमाणित तथ्यों, खोजपरक लेखों और सबूतों की बिला पर लिखी पुस्तकों से विद्यार्थियों को कक्षा में इतिहास पढ़ाने की जरूरत समाप्त कर दी है. अब इसके लिए जवरसिंह का व्हाट्सऐप अकाउंट है ना !!!
(आदरणीया सुश्री रंजना लसणे जी के शिक्षिका/लेखिका हृदय का अभिनंदन। इस अत्यंत शिक्षाप्रद एवं हृदयस्पर्शी कथा के लिए सुश्री रंजना जी को सादर नमन)
जून महिना म्हणजे प्रवेशाची गडबड नवीन येणाऱ्या मुलांची ओळख करून घेणे, त्यांच्या आवडी निवाडी जाणून घेणे, एकदम उत्साहाचे वातावरण, मी मुलांशी छान गप्पा मारत होते एवढयात एक नवीन विद्यार्थी प्रवेश झाला. नाव ऋषीकेश नावा प्रमाणे दिसायला सुंदर गोरागोमटा स्मार्ट अभ्यासातही चांगला होता. पाहताच मनात भरावा असं व्यक्तीमत्व, वरकरणी पाहता सर्व काही ठीकठाक वाटायचे, परंतु दिसतं तसं अजिबात नव्हते. मुलांच्या रोज नवीन तक्रारी, “मेम याने मला मारलं”. कधी दगड कधी छडी तर कधी लाताळी, बर विचारलं तर एकही शब्द न बोलता गप्प उभा राहायचा समजावून पाहिलं चिडून पाहिलं एकदोन वेळेस मारून ही पाहिलं. मुख्याध्यापकांकडे नेऊन टी.सी. देईन असे सांगितले, परंतु काहीच बदल नव्हता.
एक दिवस तर त्याने एका मुलाचं चक्क दगड मारून डोके फोडलं. मला या मुलाचं काय करावं खरंच कळत नव्हतं तीस वर्षाची नोकरी करून मला एका मुलाला समजावून सांगता येतं नव्हतं. मी पुरती हतबल झाले होते. घरच्यांना सांगून पाहावे म्हणून, मुलांना पाठवून “त्याच्या घरून कोणालातरी बोलावून आणा,” असे सांगितले. मुलानी त्याच्या काका म्हणजे मावशीचा नवरा, यांना बोलावून आणले. बहुतेक येताना मुलांनी काय घडले ते सांगितले असावे.
शाळेत आल्याबरोबर त्यांनी तोंडाने अर्वाच्य शिव्या देत हातातल्या छडीने बेदम झोडपायला सुरूवात केली. मला ते पहाणे असह्य होऊन “आहो, सोडा त्याला ही काय पद्धत झाली समजावून सांगण्याची, ” म्हणत मी चक्क त्याला त्यांच्या तावडीतून सोडवून घेतले . आणि त्यांना
जायला सांगितलं. “माजलाय साला,” म्हणत तावातावात ते निघून गेले अन् मला चक्क चपराक मारल्यासारखं झालं. “सॉरी बेटा” म्हणून त्याला जवळ घेताच, एवढा वेळ मुकाटयाने मार खाणाऱ्या ऋषीला भरून आलं आणि चक्क मला घट्ट घरून एवढा रडला की अक्षरशः पूर्ण वर्ग रडला.
जवळजवळ पंधरा वीस मिनिटांनी तो शांत झाला. बाकी मुलांना बाहेर पाठवून त्याची चौकशी केली तेव्हा कळलं की, खरं तर त्याला एकट्या आईला पुण्याला सोडून इथं राहायचं नव्हतं.
त्याचे वडील सहा महिन्या पूर्वी लाईटचे काम करताना शॉक लागून मरण पावले. आई मामाकडे पुण्याला राहते मामा मामी पण काका सारखेच वागायचे. आई आणि बहिणी यांचे हाल त्याने पाहिलेले होते. दोन मोठ्या बहिणी आई एवढे एकत्र शिवाय याच्या शिक्षणाचा खर्च एवढे एकाच ठिकाणी नको म्हणून मावशी उदार अंतःरणाने याला घेऊन आलेली. परंतु सर्वांनी असं अलग अलग राहावे हे त्याला मान्य नव्हते . तसेच त्याला आई आणि बहिणींची काळजी वाटत होती. “तू नकोस काळजी करू, मी तुझ्या आईशी नक्की बोलेण, पुढच्या वर्षी तुम्ही नक्कीच एकत्र राहाल, असे मधेच पुण्याच्या शाळेत तुला कोणी घेणार नाही तुझे वर्ष वाया जाईल पुन्हा चौथीत बसायला तुला आवडेल का ? ” असे म्हटल्यावर त्याला चे पटले . मी आईला सांगते असे म्हणताच तो खूष झाला . चॉकलेट खाऊन खेळायला गेला आईचा नंबर मिळवून त्यांना, “ताई, बाळापूरला आल्यानंतर मला भेटा आणि तो छान अभ्यास करत आहे,” असे ही सांगितले. हे सर्व सगळ्या मुलांच्या समोर घडल्यामुळे मुलांनी त्याची तक्रार करणे नुसते बंद केले असे नाही, तर तो नेहमी खूष कसा राहील यासाठी ती सारी न सांगताच प्रयत्न करू लागली . वर्षभरात अप्रतिम अभ्यास केला, एवढेच नव्हे, तर काका सोबत राहून दाढी कटिंग चे कामही शिकला. त्याच्यातील हा बदल पाहून मलाही समाधान वाटलं मधेच दोनचार वेळा तू पुढच्या वर्षी माझ्याकडे राहातोस का विचारलं परंतु स्वारी जागेवरच अडलेली. शेवटी त्याच्या आईलाच मी घडलेला सर्व प्रकार समजावून सांगितला, ” ताई कुठेही राहिलात तरी काम तर करावेच लागणार कुणीही सगळ्या कुटुंबाला बसून खाऊ घालणार नाही, मग सगळेच गावी राहा सासरच्या लोकांशी गोड बोलून त्यांची मदत घ्या त्याच्या आधाराने जमलं तर एकत्र किंवा वेगळं का असेना राहा. तुम्हाला त्यांची मदतच होईल तिथेच राहून काम बाहेर करण्या पेक्षा त्यांची कामे करा, हेही दिवस जातील.” त्यांनाही ते पटले असावे कांही दिवसातच त्या राहायला गावाकडे आल्या आणि सगळं व्यवस्थित झालं.
चौथी पास झाल्यावर सुट्टी नंतर तो परत आला तेव्हा म्हणाला, “आम्ही सर्वजण आमच्या गावीच राहतो. आम्हाला असलेली शेती करतो मीही सुट्टीत आणि सकाळ- संध्याकाळी दुकानात काम करून आईला मदत करतो.” असे सांगताना त्याच्या चेहऱ्यावर आनंद ओसंडून वाहात होता.
त्याचे गाव जवळच असल्यामुळे आला की भेटतो “आजी काका पण मदत करतात, ” असे सांगत असतो.
तात्पर्य : एखाद्या निर्णय जरी आपण तो त्यांच्या भल्यासाठी घेत असलो तरीसुद्धा तो घेताना मुले लहान आहेत म्हणून त्यांना गृहीत धरण्यापेक्षा त्यांच मत सुद्धा विचारात घेणे आवश्यक असते. अन्यथा त्यांचे आयुष्य उद्ध्वस्त व्हायला वेळ लागत नाही.