भावार्थ : इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।।7।।
My heart is overpowered by the taint of pity, my mind is confused as to duty. I ask Thee: tell me decisively what is good for me. I am Thy disciple. Instruct me who has taken refuge in Thee. ।।7।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
मैं पादुका हूँ. वही पादुका, जिन्हें भरत ने भगवान राम के चरणो से उतरवाकर सिंहासन पर बैठाया था. इस तरह मुझे वर्षो राज काज चलाने का विशद अनुभव है. सच पूछा जाये तो राज काज सदा से मैं ही चला रही हूँ, क्योकि जो कुर्सी पर बैठ जाता है, वह बाकी सब को जूती की नोक पर ही रखता है. आवाज उठाने वाले को को जूती तले मसल दिया जाता है. मेरे भीतर सुखतला होता है, जिसका कोमल, मृदुल स्पर्श पादुका पहनने वाले को यह अहसास करवाता रहता है कि वह मेरे रचे सुख संसार का मालिक है. मंदिरो में पत्थर के भगवान पूजने, कीर्तन, भजन, धार्मिक आयोजनो में दुनियादारी से अलग बातो के मायावी जाल में उलझे , मुझे उपेक्षित लावारिस छोड़ जाने वालों को जब तब मैं भी छोड़ उनके साथ हो लेती हूं , जो मुझे प्यार से चुरा लेते हैं . फिर ऐसे लोग मुझे बस ढ़ूढ़ते ही रह जाते हैं. मुझे स्वयं पर बड़ा गर्व होता है जब विवाह में दूल्हे की जूतियां चुराकर जीजा जी और सालियो के बीच जो नेह का बंधन बनता है, उसमें मेरे मूल्य से कहीं बड़ी कीमत चुकाकर भी हर जीजा जी प्रसन्न होते हैं. जीवन पर्यंत उस जूता चुराई की नोंक झोंक के किस्से संबंधो में आत्मीयता के तस्में बांधते रहते हैं. कुछ होशियार सालियां वधू की जूतियां कपड़े में लपेटकर कहबर में भगवान का रूप दे देतीं हैं और भोले भाले जीजा जी एक सोने की सींक के एवज में मेरी पूजा भी कर देते हैं. यदि पत्नी ठिगनी हो तो ऊंची हील वाली जूतियां ही होती हैं जो बेमेल जोड़ी को भी साथ साथ खड़े होने लायक बना देती हैं. अपने लखनवी अवतार में मैं बड़ी मखमली होती हूं पर चोट बड़ी गहरी करती हूँ. दरअसल भाषा के वर्चुएल अवतार के जरिये बिना जूता चलाये ही, शब्द बाण से ही इस तरह प्रहार किये जाते हैं, कि जिस पानीदार को दिल पर चोट लगती है, उसका चेहरा ऐसा हो जाता है, मानो सौ जूते पड़े हों. इस तरह मेरा इस्तेमाल मान मर्दन के मापदण्ड की यूनिट के रूप में भी किया जाता है. सच तो यह है कि जिंदगी में जिन्हें कभी जूते खाने का अवसर नही मिला समझिये उन्हें एक बहुत ही महत्वपूर्ण अनुभव नही है. बचपन में शैतानियो पर मां या पिताजी से जूते से पिटाई, जवानी में छेड़छाड़ के आरोप में किसी सुंदर यौवना से जूते से पिटाई या कम से कम ऐसी पिटाई की धमकी का आनंद ही अलग है.
तेनाली राम जैसे चतुर तो राजा को भी मुझसे पिटवा देते हैं. किस्सा है कि एक बार राजा कृष्णदेव और तेनालीराम में बातें हो रही थीं. बात ही बात में तेनालीराम ने कहा कि लोग किसी की भी बातों में बड़ी सहजता से आ जाते हैं, बस कहने वाले में बात कहने का हुनर और तरीका होना चाहिये. राजा इससे सहमत नहीं थे, और उनमें शर्त लग गई. तेनालीराम ने अपनी बात सिद्ध करने के लिये समय मांग लिया. कुछ दिनो बाद कृष्णदेव का विवाह एक पहाड़ी सरदार की सुंदर बेटी से होने को था. तेनाली राम सरदार के पास विवाह की अनेक रस्मो की सूची लेकर पहुंच गये, सरदार ने तेनालीराम की बड़ी आवभगत की तथा हर रस्म बड़े ध्यान से समझी. तेनालीराम चतुर थे, उन्हें राजा के सम्मुख अपनी शर्त की बात सिद्ध करनी ही थी, उन्होने मखमल की जूतियां निकालते हुये सरदार को दी व बताया कि राजघराने की वैवाहिक रस्मो के अनुसार , डोली में बैठकर नववधू को अपनी जूतियां राजा पर फेंकनी पड़ती हैं, इसलिये मैं ये मखमली जूतियां लेते आया हूँ, सरदार असमंजस में पड़ गया, तो तेनाली राम ने कहा कि यदि उन्हें भरोसा नही हो रहा तो वे उन्हें जूतियां वापस कर दें, सरदार ने तेनाली राम के चेहरे के विश्वास को पढ़ते हुये कहा, नहीं ऐसी बात नही है जब रस्म है तो उसे निभाया जायेगा. विवाह संपन्न हुआ, डोली में बैठने से पहले नव विवाहिता ने वही मखमली जूतियां निकालीं और राजा पर फेंक दीं, सारे लोग सन्न रह गये. तब तेनाली राम ने राजा के कान में शर्त की बात याद दिलाते हुये सारा दोष स्वयं पर ले लिया. और राजा कृष्णदेव को हंसते हुये मानना पड़ा कि लोगो से कुछ भी करवाया जा सकता है, बस करवाने वाले में कान्फिडेंस होना चाहिये.
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए पंडित मदन मोहन मालवीय धन एकत्रित कर रहे थे,अपनी इसी मुहिम में वे हैदराबाद पहुंचे. वहां के निजाम से भी उन्होंने चंदे का आग्रह किया तो वह निजाम ने कहा की मैं हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए पैसे क्यों दूं? इसमें हमारे लोगों को क्या फायदा होगा. मालवीय जी ने कहा कि मैं तो आपको धनवान मानकर आपसे चंदा मांगने आया था, पर यदि आप नहीं भी देना चाहते तो कम से कम मानवता की दृष्टि से जो कुछ भी छोटी रकम या वस्तु दे सकते हैं वही दे दें. निजाम ने मालवीय जी का अपमान करने की भावना से अपना एक जूता उन्हें दे दिया. कुशाग्र बुद्धि के मालवीय जी ने उस जूते की बीच चौराहे पर नीलामी शुरू कर दी .निजाम का जूता होने के कारण उस जूते की बोली हजारो में लगने लगी. जब ये बात निजाम को पता चली तो उन्हें अपनी गलती का आभास हो गया और उन्होंने अपना ही जूता ऊंचे दाम पर मालवीय जी से खरीद लिया. इस प्रकार मालवीय जी को चंदा भी मिल गया और उन्होने निजाम को अपनी विद्वता का अहसास भी करवा दिया. शायद मियाँ की जूती मियां के सर कहावत की शुरुआत यहीं से हुयी. भरी सभा में आक्रोश व्यक्त करने के लिये नेता जी पर या हूट करने के लिये किसी बेसुरी कविता पर कविराज पर भी लोग चप्पलें फेंक देते हैं. यद्यपि यह अशिष्टता मुझे बिल्कुल भी पसंद नही. मैं तो सदा साथ साथ जोडी में ही रहना पसंद करती हूं . पर जब पिटाई के लिये मेरा इस्तेमाल होता है तो मैं अकेली ही बहुत होती हूं. हाल ही नेता जी ने भरी महफिल में अपने ही साथी पर जूते से पिटाई कर मुझे एक बार फिर महिमा मण्डित कर दिया है.
वैसे जब से ब्रांडेड कम्पनियो ने लाइट वेट स्पोर्ट्स शू बनाने शुरू किये हैं , मैं अमीरो में स्टेटस सिंबल भी बन गई हूँ, किस ब्रांड के कितने मंहगे जूते हैं , उनका कम्फर्ट लेवल क्या है , यह पार्टियो में चर्चा का विषय बन गया है .एथलीट्स के और खिलाड़ियों के जूते टी वी एड के हिस्से बन चुके हैं. उन पर एक छोटा सा लोगो दिखाने के लिये करोड़ो के करार हो रहे हैं. नेचर्स की एक जोड़ी चप्पलें इतने में बड़े गर्व से खरीदी जा रहीं हैं, जितने में पूरे खानदान के जूते आ जायें . ऐसे समय में मेरा संदेश यही है कि दुनियां को सीधा रखना हो तो उसे जूती की नोक पर रखो.
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयोयद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ।।6।।
समझ न आता उचित क्या ! कल जीतेगा कौन।
जिन्हे मारना पाप , वे खड़े युद्ध हित मौन।।6।।
भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ।।6।।
I can hardly tell which will be better: that we should conquer them or they should conquer. Even the sons of Dhritarashtra, after slaying whom we do not wish to live, stand facing us. ।।6।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
गुरूजन वध के बाद क्या, रूधिर सिक्त साम्राज्य ?।।5।।
भावार्थ : इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥5॥
Better it is, indeed, in this world to accept alms than to slay the noblest teachers. But if I kill them, even in this world all my enjoyments of wealth and desires will be stained with (their) blood. ।।5।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
As social animals we need friends, but we make friends on the basis of trust, which comes about as a result of affection and concern for others. You can’t buy trust or acquire it by use of force. Its source is warm-heartedness.
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘हे राम!’)
(मेरे विशेष अनुरोध पर (डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन) द्वारा रचित मेरी प्रिय कविता “पहले क्या खोया जाए ” का मराठी भावानुवाद “काय राह्यलय हरवण्यासारखं ?” कविराज विजय यशवंत सातपुते जी द्वारा किया गया।
यह कविता इतनी मार्मिक है कि मैं कविराज विजय सातपुते जी के शब्दों में – “ये कविता इतनी भावपूर्ण थी कि मै खुद को रोक न सका. रोते रोते ये अनुवाद संपन्न हुआ. मूल रचनाकार जी को शत शत नमन. आज जिन चुनिन्दा लोगों को ये कविता और अनुवाद दिखाया सभी ने एक ही प्रतिक्रिया भेजी . . . . . निःशब्द.”
और मैं स्वयम भी निःशब्द हूँ। )
हिन्दी की मूल कविता एवं मराठी भावानुवाद दोनों ही स्वरूप आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं।
इस अतुलनीय साहित्यिक कार्य के लिए श्री विजय जी का विशेष आभार और मेरा मानना है कि ऐसे प्रयोग होते रहने चाहिए।