डॉ . प्रदीप शशांक
आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (35) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
प्रथम अध्याय
अर्जुनविषादयोग
(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन)
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।।35।।
इन्हें मारना कब उचित,चाहे खुद मर जाऊं
धरती क्या,त्रयलोक का राज्य भले मैं पाऊं।।35।।
भावार्थ : हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?॥35॥
These I do not wish to kill, though they kill me, O Krishna, even for the sake of dominion over the three worlds, leave alone killing them for the sake of the earth! ।।35।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * साहित्यिक सम्मान की सनक * – श्री मनीष तिवारी
श्री मनीष तिवारी
साहित्यिक सम्मान की सनक
(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि श्री मनीष तिवारी जी का एक सार्थक एवं सटीक व्यंग्य।)
सच कह रहा हूँ भाईसाब उम्र को मत देखिए न ही बेनूर शक्ल की हंसी उड़ाइये, मेरी साहित्यिक सनक को देखिए सम्मान के कीर्तिमान गढ़ रही है, सनक एकदम नई नई है, नया नया लेखन है, नया नया जोश है ये सब माई की कृपा है कलम घिसते बननी लगी, कितनी घिसना है कहाँ घिसना है ये तो अभी नहीं मालूम, पर घिसना है तो घिस रहे है।
हमने कहा- “भाईसाब जरूर घिसिये पर इतना ध्यान रखिए आपके घिसने से कई समझदार पिस रहें हैं।” वे अकडकर बोले- “आप बड़े कवि हैं इसलिए हम पर अत्याचार कर रहें हैं।आपको नहीं मालूम हम पूरी दुनिया में पुज रहे हैं। हमारी रचनाएं दुनिया के अनेक देशों में उड़ते उड़ते साहित्य पिपासुओं द्वारा भरपूर सराही जा रहीं हैं।”
मैंने एक चिंतनीय लम्बी साँस खींची और कहा – “आपकी इसी प्रतिभा का तो हमें मलाल है, जो कविता हमें और हमारे कुनबे को समझ नहीं आ रही है आपकी उसी कविता पर पूरी दुनिया तालियां बजा रही है। ये हिंदी साहित्य की भयंकर बीमारी है। विदेशियों का षड्यंत्र है ।”
मुझे तो लगता है जिस तरह पूरी दुनिया ने भारतीय बाजार पर कब्ज़ा कर कोहराम मचा दिया है वैसे ही अनर्गल प्रलाप को सम्मानित कर भारत के गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, कथा कहानी- नाटक को कुचलने की तैयारी है। और आप अपने सम्मान पर ऐंठे हैं, गर्वित हैं पर मुझे तो इस सम्मान में भी षड्यंत्र की बू आ रही है। श्रीमान जी व्यर्थ के बकवास सम्मान से आपकी छाती फूली जा रही है। माना कि आपको सम्मान का अफीमची नशा है जिसकी हिलोर मारती रंग तरंग में आप पूरी तरह वैचारिक रूप से नङ्ग धड़ंग हैं। मर्यादा का कलेवर आपको ढक नहीं सकता। लेकिन हे साहित्यिक विकलांगो इसे अपने ही बीच रहने दो, वरना 21 सदी के प्रारंभिक तीन दशकों का साहित्यिक सांस्कृतिक अवदान जब भी लिखा जाएगा स्वयम्भू सम्मानित साहित्यिक सनकियों में आपका भी नाम आएगा।
आप आत्ममुग्ध हो अपने सम्मान से स्वयम अभिभूत हो, आप सोचते हो कि आप जीते ही रहोगे, भूत नहीं बन सकते। प्रेमचंद, परसाई, नीरज, महादेवी, दुष्यंत और जयशंकर प्रसाद के वंशज आपके तथाकथित साहित्य को अलाव में भी फेंक दें पर आप भभूत नहीं बन सकते। आपका पेन सामाजिक सांस्कृतिक, कुरीतियों, कुप्रथाओं पर अमोघ बाण नहीं हो सकता, और आप जैसे सनकियों से राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता।
धन दूषित हो जाये तो शास्त्र में शुद्धि का उपाय है पर साहित्य दूषित होगा तो राष्ट्र की वैचारिक समृद्धि पर प्रश्न चिन्ह लगेगा इसलिये हे माँ सरस्वती या तो इनकी कलम को शुभ साहित्य से भर दो या फिर इन्हें साहित्यिक सनक से मुक्त कर दो।
© कवि मनीष तिवारी, जबलपुर
आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (34) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
प्रथम अध्याय
अर्जुनविषादयोग
(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन)
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥
पिता,पितामह,पुत्र औ” सब गुरूजन हो अंध
भूल ससुर साले तथा मामा के संबंध।।34।।
भावार्थ : गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥34॥
There are teachers, fathers, sons and also grandfathers, grandsons, fathers-in-law, maternal uncles, brothers-in-law and relatives.।।34।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य – किसलय मन अनुराग (दोहा कृति)– डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
आत्मकथ्य –
किसलय मन अनुराग (दोहा कृति) – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
पुरोवाक्:
(प्रस्तुत है “किसलय मन अनुराग – (दोहा कृति)” पर डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी का आत्मकथ्य। पुस्तकांश के रूप में हिन्दी साहित्य – कविता/दोहा कृति के अंतर्गत प्रस्तुत है एक सामयिक दोहा कृति “आतंकवाद” )
धर्म, संस्कृति एवं साहित्य का ककहरा मुझे अपने पूज्य पिताजी श्री सूरज प्रसाद तिवारी जी से सीखने मिला। उनके अनुभवों तथा विस्तृत ज्ञान का लाभ ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते मुझे बहुत प्राप्त हुआ। कबीर और तुलसी के काव्य जैसे मुझे घूँटी में पिलाए गये। मुझे भली-भाँति याद है कि कक्षा चौथी अर्थात 9-10 वर्ष की आयु में मेरा दोहा लेखन प्रारंभ हुआ। कक्षा आठवीं अर्थात सन 1971-72 से मैं नियमित काव्य लेखन कर रहा हूँ। दोहों की लय, प्रवाह एवं मात्राएँ जैसे रग-रग में बस गई हैं। दोहे पढ़ते और सुनते ही उनकी मानकता का पता लग जाता है। मैंने दोहों का बहुविध सृजन किया है, परंतु इस संग्रह हेतु केवल 508 दोहे चयनित किए गये हैं। इस संग्रह में गणेश, दुर्गा, गाय, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, वसंत, सावन, होली, गाँव, भ्रूणहत्या, नारी, हरियाली, माता-पिता, प्रकृति, विरह, धर्म राजनीति, श्रृंगार, आतंकवाद के साथ सर्वाधिक दोहे सद्वाणी पर मिलेंगे। अन्यान्य विषयों पर भी कुछ दोहे सम्मिलित किये गए हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि इस संग्रह में सद्वाणी को प्रमुखता देते हुए इर्दगिर्द के विषयों पर भी लिखे दोहे मिलेंगे। मेरा प्रयास रहा है कि पाठकों को दोहों के माध्यम से रुचिकर, लाभदायक एवं दिशाबोधी संदेश पढ़ने को मिलें। जहाँ तक भाषाशैली एवं शाब्दिक प्रांजलता की बात है तो वह कवि की निष्ठा, लगन एवं अर्जित ज्ञान पर निर्भर करता है। यहाँ पर मैं यह अवश्य बताना चाहूँगा कि विश्व का कोई भी साहित्य लोक, संस्कृति, एवं अपनी माटी की गंध के साथ साथ वहाँ के प्राचीन ग्रंथों, परंपराओं, महापुरुषों एवं विद्वानों की दिशाबोधी बातों का संवाहक होता है। साहित्य सृजन में गहनता, विविधता एवं सकारात्मकता भी निहित होना आवश्यक है। पौराणिक ग्रंथों, प्राचीन साहित्य, अनेकानेक काव्यों के अध्ययन के साथ-साथ मेरा लेखन भी जारी है। मेरा सदैव प्रयास रहा है कि दिव्यग्रंथों, पुराणों के सार्वभौमिक सूक्त तथा विद्वान ऋषि-मुनियों के प्रासंगिक तथ्यों को समाज के समक्ष प्रस्तुत कर सकूँ। इसमें मुझे कितनी सफलता मिली है, यह तो पाठक ही बतायेंगे। मेरा दोहा सृजन मात्र इस लिए भी है कि यदि गिनती के कुछ लोग भी मेरे दोहे पढ़कर सकारात्मकता की ओर प्रेरित होते हैं तो मैं अपने लेखन को सार्थक समझूँगा।
भारतीय जीवनशैली एवं संस्कृति इतनी विस्तृत है कि एक ही कथानक पर असंख्य वृत्तांत एवं विचार पढ़ने-सुनने को मिल जायेंगे। एक ही विषय पर विरोधाभास एवं पुनरावृति तो आम बात है। सनातन संस्कृति एवं परंपराओं में रचा बसा होने के कारण निश्चित रूप से मेरे लेखन में इनकी स्पष्ट छवि देखी जा सकती है। अंतर केवल इतना है कि मेरे द्वारा उन्हें अपनी शैली में प्रस्तुत किया गया है। मैं तो इन परंपराओं एवं संस्कृति का मात्र संवाहक हूँ। स्वयं को एक आम साहित्यकार के रूप में ज्यादा सहज पाता हूँ।
दोहा संग्रह ‘किसलय के दोहे’ के प्रकाशन पर मैं यदि अपनी सहधर्मिणी आत्मीया श्रीमती सुमन तिवारी का उल्लेख न करूँ तो मेरे समग्र लेखन की बात सदैव अधूरी ही रहेगी, क्योंकि वे ही मेरी पहली श्रोता, पाठक एवं प्रेरणा हैं। वे मेरे लेखन को आदर्श की कसौटी पर कसती हैं। यथोचित परिवर्तन हेतु भी बेबाकी से अपनी बात रखती हैं। मेरे इकलौते पुत्र प्रिय सुविल के कारण मुझे कभी समयाभाव का कष्ट नहीं उठाना पड़ता। हर परेशानी एवं बाधाओं के निराकरण की जिम्मेदारी बेटे सुविल ने ही ले रखी है। पुत्रवधू मेघा का उल्लेख मेरे परिवार को पूर्णता प्रदान करता है।
समस्त पाठकों के समक्ष मैं यह नूतन दोहा संग्रह ‘किसलय के दोहे’ प्रस्तुत करते हुए स्वयं को भाग्यशाली अनुभव रहा हूँ। आपकी समीक्षाएँ एवं टिप्पणियाँ मेरे लेखन की यथार्थ कसौटी साबित होंगी। सृजन एवं प्रकाशन में आद्यन्त प्रोत्साहन हेतु स्वजनों, आत्मीयों, मित्रों एवं सहयोगियों को आभार ज्ञापित करना भला मैं कैसे भूल सकता हूँ।
- डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’
2419 विसुलोक, मधुवन कॉलोनी, विद्युत उपकेन्द्र के आगे, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर (म.प्र.) 482002
हिन्दी साहित्य – कविता (दोहा) – * आतंकवाद * – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
विश्व शांति के दौर में, आतंकी विस्फोट
मानव मन में आई क्यों, घृणा भरी यह खोट
विकृत सोच से मर चुके, कितने ही निर्दोष
सोचो अब क्या चाहिए, मातम या जयघोष
प्रश्रय जब पाते नहीं, दुष्ट और दुष्कर्म
बढ़ती सन्मति, शांति तब, बढ़ता नहीं अधर्म
दुष्ट क्लेश देते रहे, बदल ढंग, बहुभेष
युद्ध अदद चारा नहीं, लाने शांति अशेष
मानवीय संवेदना, परहित जन कल्याण
बंधुभाव वा प्रेम ने, जग से किया प्रयाण
मानवता पर घातकर, जिन्हें न होता क्षोभ
स्वार्थ-शीर्ष की चाह में, बढ़ता उनका लोभ
हर आतंकी खोजता, सदा सुरक्षित ओट
करता रहता बेहिचक, मौका पाकर चोट
पाते जो पाखंड से, भौतिक सुख-सम्मान
पोल खोलता वक्त जब, होता है अपमान
रक्त पिपासू हो गये, आतंकी, अतिक्रूर
सबक सिखाता है समय, भूले ये मगरूर
सच पैरों से कुचलता, सिर चढ़ बोले झूठ
इसीलिए अब जगत से, मानवता गई रूठ
निज बल, बुद्धि, विवेक पर, होता जिन्हें गुरूर
सत्य सदा ‘पर’ काटने, होता है मजबूर
आतंकी हरकतों से, दहल गया संसार
अमन-चैन के लिए अब, हों सब एकाकार
मानव लुट-पिट मर रहा, आतंकी के हाथ
माँगे से मिलता नहीं, मददगार का साथ
आतंकी सैलाब में, मानवता की नाव
कहर दुखों का झेलती, पाये तन मन घाव
अपराधों की श्रृंखला, झगड़े और वबाल
शांति जगत की छीनने, ये आतंकी चाल
© विजय तिवारी “किसलय”, जबलपुर
आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (33) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
प्रथम अध्याय
अर्जुनविषादयोग
(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥
सुख,भोगों औ” राज्य की जिनके हित थी चाह
वे सब उतरे युद्ध में तज,तन धन परवाह।।33।।
भावार्थ : हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥33॥
Those for whose sake we desire kingdoms, enjoyments and pleasures, stand here in battle, having renounced life and wealth ।।33।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती
(प्रस्तुत है श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का एक सामयिक , सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)
बाअदब बा मुलाहिजा होशियार, बादशाह सलामत पधार रहे हैं … कुछ ऐसा ही उद्घोष करती थीं मंत्रियो, अफसरो की गाड़ियों की लाल बत्तियां. दूर से लाल बत्तियों के काफिले को देखते ही चौराहे पर खड़ा सिपाही बाकी ट्रेफिक को रोककर लालबत्ती वाली गाड़ियो को सैल्यूट करता हुआ धड़धड़ाते जाने देता था. लाल बत्तियां आम से खास बनने की पहचान थीं. चुनाव के पहले और चुनाव के बाद लाल बत्ती ही जीतने वाले और हारने वाले के बीच अंतर बताती थीं. पर जाने क्या सूझी उनको कि लाल बत्ती ही बुझा दी यकायक. मुझे लगता है कि यूं लाल बत्ती का विरोध हमारी संस्कृति पर कुठाराघात है. हम सब ठहरे देवी भक्त. मंदिर में दूर से ही उंचाई पर फहराती लाल ध्वजा देखकर भक्तो को जिस तरह माँ का आशीष मिल जाता है कुछ उसी तरह लाल बत्ती की सायरन बजाती गाड़ियो के काफिले को देखकर हमारी बेदम जनता में भी जान आ जाती थी और भीड़, भरी दोपहर तक में लाल बत्ती वाली गाड़ी से उतरते श्वेत वस्त्रावृत नेता से अपनी पीड़ा कहकर या ज्ञापन सौंपकर, आम जनता राहत महसूस कर पाती थी. अब जब लाल बत्ती का ही रसूख न रहा तो भला बिना लाल बत्ती का नेता जनता के हित में शोषण करने वालो को क्या बत्ती दे सकेगा ? लाल बत्ती से सजी चमचमाती कार पर सवार नेता, मंत्री जब किसी मंदिर भी जाते, तो उनके लिये आम लोगों की भीड़ से अलग वी आई पी प्रवेश दिया जाता है, पंडित जी उनसे विशिष्ट पूजा करवाते हैं, खास प्रसाद देते हैं. जब ये लाल बत्ती वाले खास लोग कही किसी शाप में पहुंचते हैं या किसी आयोजन में जाते हैं तो इन्हें घेरे हुये सुरक्षा कर्मी और प्रोटोकाल आफीसर्स देखकर ही सब समझ जाते हैं कि कुछ विशिष्ट है.
दुनिया भर में विवाह में मांग में लाल सिोंदूर भरने का रिवाज केवल हमारी ही संस्कृति में है, शायद इसलिये कि लाल सिंदूर से भरी मांग वाली लड़की में किसी की कुलवधू होने की गरिमा आ जाती है. अब जब मंत्री जी की गाड़ी से लाल बत्ती ही उतर गई तो उनसे किसी गरिमा की अपेक्षा किस मुंह से करेंगे हम? वी आई पी गाड़ियो से लाल बत्ती क्या उतरी मेरी पत्नी का तो सपना ही टूट गया. गाड़ियो से लालबत्ती का उतर जाना मेरी पत्नी के गले नही उतर पा रहा है. शादी होते ही मेरी पत्नी ने मुझे आई ए एस बनाने की मुहिम चलाई थी, और इसके लिये वह टाटा मैग्राहिल्स से प्रकाशित एक प्राईमर बुक भी खरीद लाई थी, उसका कहना था कि अपने पिता और भाई की लाल बत्ती वाली गाड़ियो में घूमने के कारण उसे उनका महत्व मालूम है,जब किसी के पोर्च में तेज गति से पहुंचती गाड़ी को ब्रेक मारकर रोका जाता है और फिर जब कार का दरवाजा कोई संतरी खोल कर आपको उतारता है तो जो सुख मिलता है वह मंहगी मर्सडीज में भी स्वयं ड्राइव कर पार्किंग में खुद गाड़ी लगाकर उतरकर आने में नहीं आता. मूढ़मति मैं अपनी पत्नी को समझाता ही रह गया कि जो मजा आम बने रहने में है वह खास बनने में नहीं? हमारा संविधान हम सब को बराबरी का अधिकार देता हैं. खैर ! जब वह मेरी ओर से हताश हो गई तो उसने अपने सपने सच करने के लिये अपने बच्चो को लाल बत्ती वाले अधिकारी बनाने की पुरजोर कोशिश की. प्राइमरी स्कूल से ही हर महीने कम्पटीशन सक्सेज रिव्यू खरीद कर बच्चो पर लाल बत्ती का भूत चढ़ाने की पत्नी की सारी कोशिश नाकाम हो गई क्योकि बच्चे इंफ्रा रेड वी आई पी बन गये हैं. उन्हें देश ही छोटा लगने लगा है. वे वर्ल्ड सिटिजन बन चुके हैं. उन्हें आई ए एस बड़े बौने लगते हैं. एक ही समय में हमारा परिवार कई टाइम जोन में बना रहता है. बच्चे उस कल्चर को एप्रीसियेट करते हैं जहां उनका टैक्सी ड्राइवर भी बराबरी से बैठकर ब्रेकफास्ट करता है. बच्चो को जब कारो से लालबत्ती उतरने की घटना पता चली तो उन्होने कुछ सवाल किये. क्या लाल बत्ती उतरने से जनता और मंत्री जी के बीच का घेरा टूट जायेगा ? क्या मंत्री जी का वी वी आई पी दर्जा समाप्त हो जायेगा ?
बच्चो के सवाल मेरे लिये यक्ष प्रश्न हैं. मेरे लिये ही क्या, ये सवाल तो स्वयं उनके लिये भी अनुत्तरित सवाल ही हैं जिन्होने लालबत्ती हटवाने की घोषणायें की हैं ! आपको इन सवालो के जबाब मिल जाये तो जरूर बताईयेगा. जो भी हो कभी समाचारो की सुर्खियो में जनता के सामने बने रहने में लाल बत्ती मददगार होती थी तो अब जाते जाते भी लालबत्तियो ने अपना फर्ज पूरी ईमानदारी से निभाया है, सबकी लाल बत्तियां बंद, बुझ हो रही हैं. लाल बत्ती हटने के समाचारो के कारण भी इन दिनो सारे वी आई पी सुर्खियो में हैं.
© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८
आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (32) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
प्रथम अध्याय
अर्जुनविषादयोग
(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥32॥
नहीं विजय की कामना, न ही राज सुख चाह
न ही राज्य वैभव तथा जीवन की परवाह।।32।।
भावार्थ : हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?॥32॥
For I desire neither victory, O Krishna, nor pleasures nor kingdoms! Of what avail is a dominion to us, O Krishna, or pleasures or even life? ॥32॥
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – * यह गांव बिकाऊ है * – श्री एम एम चन्द्रा (समीक्षक – श्री उमाशंकर सिंह परमार)
यह गांव बिकाऊ है
लेखक – श्री एम एम चन्द्रा
समीक्षक – श्री उमाशंकर सिंह परमार