श्री आशीष कुमार
Retired दोपहर
श्री आशीष कुमार
Retired दोपहर
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
प्रथम अध्याय
अर्जुनविषादयोग
(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।31।।
लक्षण सारे दिख रहे केशव ! मन विपरीत
स्वजनों का वध युद्ध में, दिखती अनुचित रीति।।31।।
भावार्थ : हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥
And I see adverse omens, O Keshava! I do not see any good in killing my kinsmen in battle. ।।31।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
श्री रमेश सैनी
लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र
(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का व्यंग्य – “लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र”।)
शहर में क्या पूरे प्रदेश में हलचल है। वैसे यह हलचल यदाकदा दो-चार महीने में समुद्री ज्वार-भाटा की भांति उठती गिरती है कि ‘‘लोकतंत्र खतरे में है’’ या ‘‘लोकतंत्र की हत्या हो गयी है’’ यह उसी तरह है जब पाकिस्तान में इस्लाम खतरे में हो जाता है। जब-जब देश में चुनाव होते हैं तब-तब लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगता है। चुनाव और लोकतंत्र, ये हैं तो सगे भाई, पर दिखते दुश्मन जैसे हैं।
लोकतंत्र है तो चुनाव है, और चुनाव है तो लोकतंत्र भी रहेगा। पर देश में हर पार्टी का अपना लोकतंत्र है, जो कभी लाल हरे, केशरिया हरे तो कभी तीन रंगों में रंगे हैं। सभी पार्टियों ने लोकतंत्र को अपने रंग में रंगकर, लोकतंत्र की दुकान सजा ली है। वे अपने-अपने तरह से लोकतंत्र की मार्केटिंग कर रहे हैं। लोकतंत्र इनके हाथ में है। आज लोकतंत्र शोकेस का पीस बन गया है। लोग उसे देख सकते हैं पर महसूस नहीं कर सकते हैं।
यह सब सोच रहा था कि भाई रामलाल आ धमके – नमस्कार। मैंने उन्हें सदा की भांति हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा अपनाई। वे इस मुद्रा को व्यंग्य समझते हैं, पर इसके उत्तर में दुबारा नमस्कार कह जवाब भी देते हैं। ‘‘कहिये क्या समाचार है।’’ मैंने उनसे पूछा, तब उनका जवाब आया – गुप्ता जी का फ़ोन आया है कि लोकतंत्र की हत्या हो गई। वे बता रहे थे कि किसी कद्दावर नेता ने किसी चैनल पर कहा है। पर भाई साहब, मुझे नहीं लगता कि यह ख़बर सही है। इस पर मुझे संदेह है, गुप्ता कभी-कभी लम्बी फेंकता है। जब कोई गंभीर मामला होता है तभी वह फ़ोन करता है, वरन वह सिर्फ मिस-काल करता है। उसकी बैटरी मिस-काल में खर्च हो जाती है। तब मैंने रामलाल को रोकते हुए कहा – अरे ऐसा नहीं हो सकता। वरना अब तक शोर मच गया होता। मेरी बात को बीच में काटते हुए उन्होंने कहा – भाई साब, आप किस दुनिया में रहते हैं, हल्ला मच गया है। गुप्ता कह रहा था वाट्स ऐप, फेस बुक, ट्वीटर, पूरे सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा है।
मैंने कहा – राम लाल अभी तो सुबह के सात बजे हैं और लोग….? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा – भाई साब, अब कट-कॉपी और पेस्ट का जमाना है, हवा फैलते देर नहीं लगती है। फिर भी मुझे गुप्ता पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने अपने मुहल्ले के राजनैतिक विशेषज्ञ नागपुरकर को फ़ोन लगाया। तब उसने बताया कि ऐसी कोई ख़बर नहीं है। नागपुरकर तो राजनीति का एंटीना है, वह इस तरह की ख़बर जल्दी पकड़ता है। उसकी न सुनकर यह लगा कि वह भी फेल हो गया है। अचानक रामलाल जी को स्मरण आया और उन्होंने अंदर की ओर इशारा किया – ‘‘चाय कहाँ है?’’ मैंने भी निश्चिन्त रहो का इशारा किया। चाय आ रही है। हमारे घर में रामलाल जी की आवाज सुनकर सब लोग उनके लिए चाय-नाश्ता की तैयारी में लग जाते हैं, वरना वे इसके बिना खिसकते नहीं है। यह सब चर्चा तो उनके लिए चाय का बहाना है। जब वे आश्वस्त हो गये तब उन्होंने कहा – ‘‘तब मैंने स्वयं दो-तीन चैनल पलटाये, सब जगह अपनी-अपनी चिंताएँ, अपने-अपने राग बज रहे थे, पर लोकतंत्र की ख़बर नहीं थी।’’
ऐसा लगता है वे लोकतंत्र को लेकर निश्चिन्त हैं। उनका लोकतंत्र मजबूत है, कोई भी उसे कुछ भी कहला सकता है। पूरा लोकतंत्र उन्होंने नेताओं पर छोड़ दिया है। वे (मीडिया) तो बस जनता के मनोरंजन के लिए बने हुए हैं। मैंने उन्हें रोका – चाय आ गयी है। चाय देखकर वे तुरन्त रुक गये। उनकी नज़रें नाश्ते की प्लेट को ढूढ़़ रही थीं। नाश्ता भी आया, तब नाश्ता और चाय लेकर वे कहने लगे – एक चैनल में लोकतंत्र की हत्या पर कुछ लोग बतियाते हुए दिख रहे थे, पर उनके चेहरे शांत, प्रसन्न और निर्विकार थे। जैसे वे लोकतंत्र के सन्यासी हों। उन्हें उससे कोई लेना-देना नहीं। वे अपना काम समान भाव से कर रहे थे। उनके सामने चाय के कप रखे थे। फिर भला आप ही सोचिए, लोकतंत्र या किसी की भी हत्या हो जाय तो दुख की बजाय कोई बेशर्मी से चाय पी सकता है, क्या?। फिर मैंने सोचा यह ख़बर सही नहीं है। सह कहकर रामलाल जी मेरे मुँह की ओर देखने लगे तब मैं अचकचाया और फिर कहा, आप सही कह रहे हैं, का इशारा किया। मेरे इशारे से उनके चेहरे पर रौनक फैल गई। यह देखकर लगा कि रामलाल जी की चिन्ता कम हो गई है। थोड़ी देर तक हमारे बीच अनबोला रहा। उन्होंने एक-दो बार सांस ली और कहा – ‘‘लोकतंत्र की हत्या होने पर यह भी पता चलता कि हत्या कहाँ हुई, कैसे हुई, किस हथियार से हुई, किसने की, कितने लोग थे? या हत्या के पीछे सिर्फ लूट थी या हत्या अवैध सम्बन्धों की वजह से हुई। कुछ इस तरह की कोई भी सुगबुगाहट नहीं थी। अरे, हत्या के बाद पुलिस जाँच-परख करती है। हत्या होने पर पुलिस की सूंघने की शक्ति बढ़ जाती है। वह उसमें अपना फायदा देखने लगती है। पर वहाँ तो पुलिस का अता-पता तक नहीं था। हमारे यहाँ की पुलिस इतनी निकम्मी नहीं है कि हत्या हो जाये और कुछ न करे। पर गुप्ता इतना बड़ा झूठ नहीं बोल सकता।
कहीं कुछ तो है, पर सन्नाटा फैला है। अब लोगों को चिन्ता नहीं रही है। लोकतंत्र 70 साल का हो गया है। बूढ़े लोकतंत्र की कौन चिन्ता करता है।’’ रामलाल की चिन्ता देख मैं चिन्तित हो गया। उनको रोकते हुए कहा – रामलाल जी आप जल्दी भावुक हो जाते हैं। कभी-कभी इतिहास भी पढ़ लिया करो। क्यों क्या हुआ? उन्होंने प्रश्न झोंका। मैंने कहा, भाई साहब लोकतंत्र की हत्या अब से 43 बरस पहले हो चुकी थी। तब लोगों की बोलती बंद हो गई थी। बोलने वालों को जेल में ठूंस दिया गया था। शहरों में सन्नाटा फैला रहता था। अभी जो लोकतंत्र देख रहे हो वह तो लोकतंत्र की लाश है। इस लाश को नेताओं ने सम्हालकर, मतलब का लेप लगाकर फ्रीज़र में रख दिया है। तब से लोकतंत्र की लाश सुरक्षित है। जब-जब नेताओं को ज़रूरत पड़ती है, वे किराया चुकाकर लाश को बाहर निकाल लेते हैं और चीख-चीख कर कहते हैं – लोकतंत्र खतरे में है। फलानी पार्टी ने लोकतंत्र की हत्या कर दी है, या करने वाली है। जब उनका काम हो जाता है, तब उस लाश को पुनः फ्रीज़र में वापिस रख देते हैं।
यह खेल सभी पार्टियाँ अपने मतलब के लिए खेल रही हैं और जनता को पता नहीं है कि लोकतंत्र कहाँ है। वैसे राजनीतिक पार्टियों को पता है कि लोकतंत्र कहाँ है। वे जनता को लोकतंत्र का लेज़र शो दिखाती हैं और जनता इस रंग-बिरंगे खेल से खुश है तो नेता भी खुश हैं। जब दोनों खुश हैं तो लोकतंत्र की ज़रूरत नहीं है। जब लोकतंत्र की ज़रूरत पड़ेगी तो उसकी लाश तो है।
© रमेश सैनी , जबलपुर
सुश्री ज्योति हसबनीस
जेथे जातो तेथे तू माझा सांगाती
(प्रस्तुत है सुश्री ज्योति हसबनीस जी का रोचक आलेख तो तेथे तू माझा सांगाती हमें बताता है कि कैसे मोबाइल हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है और हम उसके बिना कितने अपूर्ण हैं ?)
बागेला पाणी घालता घालता आज मी हेच गुणगुणत होते. आणि जशी मी रंगून गेले ना तशी नजरेसमोर माझा सांगातीच फेर धरू लागला. माझा सांगाती ..माझा मोबाईल !! हो..विश्वास बसत नाहीय ना ..माझा माझ्यावरही विश्वास बसत नाहीय ..पण अगदी खरं तेच सांगतेय ! अगदी गाता गाता ‘सांगाती’ ह्या शब्दाशी मी अडखळले आणि जणू मला साक्षात्कारच झाला ! सांगाती ह्या शब्दाचा खराखुरा अर्थ मला उमगला !
अक्षरश: जिथे जाईन तिथे जळी, स्थळी, काष्ठी, पाषाणी येणारच माझ्या बरोबर तो ! कधी एखाद्या नम्र सेवकासारखा उशा पायथ्याशी निमूटपणे बसणार, तर एकांतात सारं जग पुढ्यात टाकून ‘काय प्रिय करू गं मी तुझं’ करत माझ्या हातचं बाहुलं बनत बघ्याची भूमिका घेणार ! एकाग्रपणे काही वेगळं करू म्हंटलं तर सारखा साद घालणार, जणू ओरडूनच सांगतोय जसा ‘बघ तरी कोण आलंय तुला भेटायला, ‘काय आणलंय बघ तरी, ‘अगं काय म्हणणं आहे ते तरी बघ जरा डोकावून .. ! ‘अक्षरश: लहान मुलासारखं लक्ष्य वेधून घेणार, भंडावून सोडणार, आणि हातातलं काम टाकून एकदाचा जवळ घेतला की जिवाला निवांतता … त्याच्या आणि माझ्याही ..! हो कधी कधी मुकाट बसवावंच लागतं त्याला, किती सारखा सहन करायचा त्याचा टणटणाट !
त्याला न घेता बाहेर जायची काय बिशाद ! सारे रस्ते, पत्ते, फोन नंबर्स, माझ्यापेक्षा यालाच पाठ ! माझ्यापेक्षा तीक्ष्ण याचे डोळे, तल्लख याची स्मरणशक्ती, आणि उत्तुंग बुद्धीची झेप ! इकडून तिकडे सांगावा धाडण्याचा वायूवेग तर विचारूच नका ..साऱ्याचंच कौतुक करावं तेवढं थोडंच ! महत्वाच्या भेटीगाठीच्या वेळा, औषधाच्या वेळा, एकवेळ मी विसरेन पण हा पठ्ठा नाही विसरणार ! ती वेळ वेळेवारी पाळण्यात, साधण्यात याचा वाटा लाख मोलाचा ! दऱ्या , खोऱ्या , समुद्र किनारे किर्रजंगल ,सगळीकडे हा माझ्याबरोबर असणारच ! मी डोळ्यात साठवण्याआधीच सारं काही टिपायची याला कोण घाई ! याच्या या घाईपायी कित्येकदा सारं नीटपणे डोळ्यात साठवायचं पण राहून जातं आणि थोडी चुटपूट लागते जिवाला ! मनस्वी संताप येतो त्याच्या अगोचरपणाचा आणि स्वत:च्या धांदरटपणाचा देखील ! पण मग कधीतरी याने गोळा केलेला खजिना न्याहाळतांना अपार कौतुक मनात दाटतं, त्याच्या एकनिष्ठपणाची साक्ष पटते, आणि उगाचच रागावतो आपण याच्यावर म्हणून मन खंतावतं देखील ! कधी मनात काही दाटून आलं की सारं ह्याला सांगून मी मोकळी ! अगदी सगळी माझी स्पंदनं तोही तितक्याच असोशीने अनुभवणार आणि क्षणार्धात माझ्या सख्यांपर्यंत ती तशीन् तशी पोहोचवणार. संवाद राखला जाणं याचं पुरतं श्रेय या तत्परतेने सांगावा धाडणाऱ्या माझ्या सांगात्याला ! सकाळी कितीही वाजता उठायचं असलं तरी ‘तूच उठवशील रे’ असा माझा लाडिक हट्ट असतो त्याच्याजवळ ! मंद मंद संगीत ऐकत हळूच डोळे उघडावेत, काही क्षण परत ते सूर कानामनात साठवून घेत डोळे अलगद मिटावेत असा नित्यक्रमच ठरवून टाकलाय मी.. !
अरे हो ! एक तर सांगायचंच राहिलं.
चिमुरड्या नातींना सोबत करण्यात, त्यांना अंगाई म्हणून झोपवण्यात, आवडती गाणी गोष्टी, व्हिडिओ दाखवण्यात काय interest घेतला ह्या माझ्या दोस्ताने ! तिथे जर तो माझ्या सोबत आला नसता ना तर मग मात्र माझी काही खैर नव्हती…! अवखळ नातींचे मनस्वी हट्ट पुरवणं तर माझ्या आवाक्याबाहेरचंच झालं असतं !
आणि अजून एक, जरा आतली गोष्ट सांगते हा माझा दोस्त अगदी सावलीसारखा पाठीराखा,
आणि म्हणूनच माझ्या जोडीदाराचा अगदी कडवा प्रतिस्पर्धी ! ह्याची माझ्याशी वेळी अवेळीची जवळीक हा एक वादाचा ज्वलंत विषय ..कायम धगधगता ..!ठिणगीच पडू दे की वणवा पेटलाच म्हणून समजा …
तर असा आहे हा माझा सांगाती, जिथे मी जाते तिथे हा असतोच! आणि मी कसली चालवतेय त्याला, तोच मला चालवतो, साऱ्या जगाची सैर करवतो, अक्षरश: सुखात आणि निवांत असते मी त्याचा हात धरून ..!!
© ज्योति हसबनीस, नागपूर
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
प्रथम अध्याय
अर्जुनविषादयोग
(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।।30।।
दया भाव से भरे मन से बोला तब पार्थ,
गिरा जा रहा हाथ से अनायास गांडीव
त्वचा जल रही,भ्रमित मन,उठना कठिन अतीव।।30।।
भावार्थ : हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥30॥
The (bow) “Gandiva” slips from my hand and my skin burns all over; I am unable even to stand, my mind is reeling, as it were. ॥30॥
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
हेमन्त बावनकर
तिरंगा अटल है
अचानक एक विस्फोट होता है
और
इंसानियत के परखच्चे उड़ जाते हैं
अचानक
रह रह कर ब्रेकिंग न्यूज़ आती है
सोई हुई आत्मा को झकझोरती है
सारा राष्ट्र नींद से जाग उठता है
सबका रक्त खौल उठता है
सारे सोशल मीडिया में
राष्ट्र प्रेम जाग उठता है
समस्त कवियों में
करुणा और वीर रस जाग उठता है।
देखना
घर से लेकर सड़क
और सड़क से लेकर राष्ट्र
जहां जहां तक दृष्टि जाये
कोई कोना न छूटने पाये।
शहीदों के शव तिरंगों में लपेट दिये जाते हैं
कुछ समय के लिए
राजनीति पर रणनीति हावी हो जाती है
राजनैतिक शव सफ़ेद चादर में लपेट दिये जाते हैं
तिरंगा सम्मान का प्रतीक है
अमर है।
सफ़ेद चादर तो कभी भी उतारी जा सकती है
कभी भी।
शायद
सफ़ेद चादर से सभी शहीद नहीं निकलते।
हाँ
कुछ अपवाद हो सकते हैं
निर्विवाद हो सकते हैं
गांधी, शास्त्री, अटल और कलाम
इन सबको हृदय से सलाम।
समय अच्छे अच्छे घाव भर देता है
किन्तु,
समय भी वह शून्य नहीं भर सकता
जिसके कई नाम हैं
पुत्र, भाई, पिता, पति ….
और भी कुछ हो सकते हैं नाम
किन्तु,
हम उनको शहीद कह कर
दे देते हैं विराम।
परिवार को दे दी जाती है
कुछ राशि
सड़क चौराहे को दे दिया जाता है
अमर शहीदों के नाम
कुछ जमीन या नौकरी
राष्ट्रीय पर्वों पर
स्मरण कर
चढ़ा दी जाती हैं मालाएँ
किन्तु,
हम नहीं ला सकते उसे वापिस
जो जा चुका है
अनंत शून्य में।
समय अच्छे-अच्छे घाव भर देता है
जीवन वैसे ही चल देता है
ब्रेकिंग न्यूज़ बदल जाती है
सोशल मीडिया के विषय बदल जाते हैं
शांति मार्च दूर गलियों में गुम जाते हैं
कविताओं के विषय बदल जाते हैं।
तिरंगा अटल रहता है
रणनीति और राजनीति
सफ़ेद कपड़ा बदलते रहते हैं।
गंगा-जमुनी तहजीब कहीं खो जाती है
रोटी कपड़ा और मकान का प्रश्न बना रहता है
जिजीविषा का प्रश्न बना रहता है।
खो जाती हैं वो शख्सियतें
जिन्हें आप महामानव कहते हैं
उन्हें हम विचारधारा कहते हैं
गांधी, शास्त्री, अटल और कलाम
जिन्हें हम अब भी करते हैं सलाम।
© हेमन्त बावनकर
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
प्रथम अध्याय
अर्जुनविषादयोग
(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्।
अर्जुन उवाच
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।।28।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ।।29।।
दया भाव से भरे मन , से बोला तब पार्थ
कृष्ण देख इन स्वजन को तत्पर यों युद्धार्थ।।28।।
शिथिल है मेरे अंग सब , मुख अति सूखा तात ।
कंपित है सारा बदन , रोमांचित है गात ।। 29।।
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है॥28 और 29॥
Seeing these, my kinsmen, O Krishna, arrayed, eager to fight. My limbs fail and my mouth is parched up, my body quivers and my hairs stand on end! ॥28 and 29॥
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
डॉ . प्रदीप शशांक
श्री विवेक चतुर्वेदी
नर्मदा – विवेक की कविता
(प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की एक भावप्रवण कविता – श्री जय प्रकाश पाण्डेय)
© विवेक चतुर्वेदी
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
प्रथम अध्याय
अर्जुनविषादयोग
( दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )
( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ।।26।।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।।27।।
देखे वहां पै पार्थ ने,पिता प्रपिता महान
गुरू,मामाओं,भाइयों,मित्र ,पौत्र पहचान।।26।।
थे दोनों सेनाओं में श्वसुर,सुहद,सब लोग
जिन्हें देखकर पार्थ को हुआ बड़ा ही क्षोभ।।27।।
भावार्थ : इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा ,उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। ॥26 और 27॥
Then Arjuna beheld there stationed, grandfathers and fathers, teachers, maternal uncles, brothers, sons, grandsons and friends, too. (He saw) fathers-in-law and friends also in both armies. The son of Kunti—Arjuna—seeing all these kinsmen standing arrayed, spoke thus sorrowfully, filled with deep pity ।।26 and 27।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)