मराठी साहित्य – आलेख – प्रतिसाद – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

प्रतिसाद 

(यह सत्य है  कि ईश्वर ने  मानव हृदय को साद-प्रतिसाद  के  भँवर में उलझा कर रखा है जबकि प्रकृति अपना कार्य करती रहती है। उसे प्रतिसाद से कोई लेना देना नहीं है। इस तथ्य पर प्रकाश डालती यह रचना सुश्री ज्योति हसबनीस जी के संवेदनशील हृदय को दर्शाती है।) 

*पाऊस मनातला*….

 

मनातल्या पावसाची रूपं एक का असतात ? सहस्त्रधारांनी कोसळणारा पाऊस …आणि लक्षावधी रूपांनी त्याचं मनाचा ताबा घेणं  ,  कधी आत आत झिरपत माझ्यातल्या ‘मी’शी मुक्त संवाद साधणं …कधी आठवणींचं बेट गदागदा हलवत हलकेच एखादा हळवा सूर आळवणं …तर कधी चिंब भंवतालाला डोळ्यात साठवतांना घरट्यातली ऊब अनुभवणं … त्याच्या बेताल वागण्यावर माझं चिडणं..त्याच्या लयबद्ध पदन्यासावर माझं ठेका धरणं ..त्याच्या फसव्या रूपाला बळी पडणं …तर लोभस रूपाला डोळे भरून पाहणं …त्याचं भरभरून देतांनाचा कृतकृत्य भाव आणि सारं काही देऊन झाल्यानंतरचं इंद्रधनुषी हास्य …सारं सारं मनात तस्संच जपणं आणि प्रत्येक भेटीच्या वेळी असाच आहेस ना रे तू असं त्याला आसूसून विचारणं …!

शैशव आणि अबोघ वयातल्या पावसाचं भेटणं , त्याच्याशी केलेली दंगामस्ती , त्याने केलेली तनामनाची पार घुसळण साऱ्याच्या गोड आठवणी पहिल्या पावसाच्या मृद्गंधासारख्या असतात , भरून येऊ दे आभाळ की मन भरून आलंच , आठवणींची कुपी उघडलीच , मृद्गंध दरवळलाच !

पाण्याच्या खळाळात सोडलेल्या होड्या , डौलात जाणारी त्यांची स्वारी , बुडणार तर नाही ना असं शंकाकुल मन …बिंधासपणे टू व्हिलरवर मुक्तपणे अंगावर घेतलेला पाऊस …रेनकोटचा जामानिमा करत मुलांची केलेली शाळेतली पाठवणी ..आणि आता परत तितक्याच उत्साहात चिमुरड्या नातींबरोबर खळाळात सोडलेल्या रंगीत होड्या …एक कटाक्ष त्यांच्यांतले उत्सुक सचिंत भाव हेरण्यात गुंतलेला तर दुसरा नितळ निळ्या आकाशाचा वेध घेण्यात गुंतलेला !

खरंय ..जीवनचक्र हे असेच असते सृष्टीचक्र हे असेच असते !!

पाऊस येऊ दे ना दरचवर्षी पण त्याला भेटायला आतुरलेल्या मनाचं हे अस्संच असतं …!

पहिला शिडकावा पावसाचा होऊ दे की आठवणीच्या किर्र रानातले असंख्य काजवे सारं रान उजळीत मुक्तछंद आळवू लागतात ….आणि होते थाटामाटात एका दैदिप्यमान उत्सवाची सुरूवात ,  गडगडाटात , कडकडाटात आणि लखलखाटात …!

त्या लखलखाटात वसुंधरेचे भंवतालात झिरपलेले तृप्तीचे हुंकार असतात , तिच्या डोळ्यातली हिरवाईच्या डोहाळ्याची चमचमती स्वप्न असतात , अंगाखांद्यावर झुलणारी पाचूची बेटं असतात , तृणपात्यांच्या गळ्यातले पाणीदार मोत्यांचे सर असतात , मनोहर रंगीबेरंगी फुलांचा मोहक कशिदा असतो आणि अशा अपूर्व हिरव्या शालू शेल्याच्या साजातलं तिचं रूप अगदी उत्सवी असतं ,मंत्रमुग्ध करणारं असतं !

 

*ज्योति हसबनीस*

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हिन्दी साहित्य – आलेख – आज की पत्रकारिता – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आज की पत्रकारिता
(दिनांक 23 दिसंबर 2018 को कच्छी  जैन भवन जबलपुर में पत्रकार विकास मंच के तटवाधान में आयोजित पत्रकारिता पर डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी का व्याख्यान)
निज कबित्त केहि लाग न नीका
सरस होउ अथवा अति फीका
अपना काम, अपना नाम, अपना व्यवसाय किसे अच्छा नहीं लगता। वकील अपने व्यवसाय और अपनी जीत के लिए कितनी झूठी-सच्ची दलीलें देते हैं, हम सभी जानते हैं। डॉक्टर और दूकानदार अपने लाभ के लिए क्या झूठ नहीं बोलते?
तब पत्रकार बंधु कोई अलग दुनिया के तो हैं नहीं। इन्हें भी लाभ की आकांक्षा है, सारी दुनिया में लोग रोजी-रोटी से आगे भी कुछ चाहते हैं।
बस यही वह चाह है जो हमें ईमानदारी के मार्ग पर चलने से रोकती है। आज मैं कुछ ऐसी बातों का उल्लेख करना चाहता हूँ, जो कुछ पत्रकार बंधुओं  को अच्छी नहीं लगेंगी। दूसरी ओर ये वो बातें हैं जो समाज में  पत्रकारों के लिए आये दिन कही भी जाती हैं।
मेरा सभी बंधुओं से निवेदन है कि वे इन बातों एवं तथ्यों को व्यक्तिगत नहीं लेंगे।
आज के बदलते वक्त और परिवेश में पत्रकारिता के उद्देश्य एवं स्वरूप में जमीन-आसमान का अंतर हो गया है। अकल्पनीय परिवर्तन हो गए हैं।आईये, हम कुछ कड़वे सच और उनकी हक़ीक़त पर चिंतन करने की कोशिश करें।
सर्वप्रथम, यदि हम ब्रह्मर्षि नारद जी को पत्रकारिता का जनक कहें तो उनके बारे में कहा जाता है कि वे एक स्थान पर रुकते ही नहीं थे. आशय ये हुआ कि नारद जी भेंटकर्ता एवं घुमंतू प्रवृत्ति के थे.
आज की पत्रकारिता से ये गुण लुप्तप्राय हो गये हैं. इनकी जगह दूरभाष, विज्ञप्तियाँ और एजेंसियाँ ले रहीं हैं. सारी की सारी चीज़ें प्रायोजित और व्यावसायिक धरातल पर अपने पैर जमा चुकी हैं.
आज की पत्रकारिता के गुण-धर्म और उद्देश्य पूर्णतः बदले हुए प्रतीत होने लगे हैं. आजकल पत्रकारिता, प्रचार-प्रसार और अपनी प्रतिष्ठा पर लगातार ध्यान केंद्रित रखती है.
पहले यह कहा जाता था कि सच्चे पत्रकार किसी से प्रभावित नहीं होते, चाहे सामने वाला कितना ही श्रेष्ठ या उच्च पदस्थ क्यों न हो, लेकिन अब केवल इन्हीं के इर्दगिर्द आज की पत्रकारिता फलफूल रही है.
आज हम सारे अख़बार उठाकर देख लें, सारे टी. वी. चेनल्स देख लें. हम पत्र-पत्रिकाएँ या इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री देख लें, आपको हर जगह व्यावसायिकता तथा टी. आर. पी. बढाने के फार्मूले नज़र आएँगे. हर सीधी बात को नमक-मिर्च लगाकर या तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का चलन बढ़ गया है. बोला कुछ जाता है, समाचार कुछ बनता है. घटना कुछ होती है, उसका रूप कुछ और होता है.
कुछ समाचार पत्र एवं चेनल्स तो मन माफिक समाचारों के लिए एजेंसियों की तरह काम करने लगे हैं. इससे भी बढ़कर कुछ धनाढ्य व्यक्तियों अथवा संस्थानों द्वारा बाक़ायदा अपने समाचार पत्र और टी. वी. चेनल्स संचालित किए जा रहे हैं. हमें आज ये भी सुनने को मिल जाता है कि कुछ समाचार पत्र और चेनल्स काला बाज़ारी पर उतार आते हैं.
मैं ऐसा नहीं कहता कि ये कृत्य हर स्तर पर है, लेकिन आज इस सत्यता से मुकरा भी नहीं जा सकता.
आज की पत्रकारिता कैसी हो? तो प्रतिप्रश्न ये उठता है कि पत्रकारिता कैसी होना चाहिए?
पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक घटनाओं और गतिविधियों को समाज के सामने उजागर कर जन-जन को उचित और सार्थक दिशा में अग्रसर करना है.
हमारी ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं के साथ ही उनकी कार्यप्रणाली से भी अवगत कराना पत्रकारिता के कर्तव्य हैं.
हर अहम घटनाओं तथा परिस्थिजन्य आकस्मिक अवसरों पर संपादकीय आलेखों के माध्यम से समाज के प्रति सचेतक की भूमिका का निर्वहन करना भी है.
एक जमाने की पत्रकारिता चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती ठंड एवं वर्षा-आँधी के बीच पहुँचकर जानकारी एकत्र कर ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ हमारे समक्ष प्रस्तुत करने को कहा जाता था,
लेकिन आज की पत्रकारिता वातानुकूलित कक्ष, अंतर-जाल, सूचना-तंत्र, ए. सी. वाहनों और द्रुतगामी वायुयान-हेलिकॉप्टरों से परिपूर्ण व्यवस्थाओं के साथ की जाने लगी है, लेकिन बावज़ूद इसके लगातार पत्रकारिता के मूल्यों का क्षरण चिंता का विषय है.
आज आपके मोहल्ले की मूलभूत समस्याओं को न्यूज चेनल्स या समाचार पत्रों में स्थान नहीं मिलता, लेकिन निरुद्देशीय किसी नेता, अभिनेता या किसी धार्मिक मठाधीश के छोटे से क्रियाकलाप भी  प्रमुखता से छापे या दिखाये जाएँगे. ऐसा क्यों है? इसके पीछे जो कारण हैं वे निश्चित रूप से विचारणीय हैं? यहाँ पर इसका जिम्मेदार आज की  उच्च जीवन शैली, लोकप्रियता एवं महत्त्वाकांक्षा की भावना को भी माना जा सकता है.
हर छोटा आदमी, बड़ा बनाना चाहता है और बड़ा आदमी, उससे भी बड़ा.
आख़िर ये कब तक चलेगा ? क्या शांति और सुख से मिलीं घर की दो रोटियों की तुलना हम फ़ाइव स्टार होटल के खाने से कर सकते हैं?
 शायद कभी नहीं.
 हर वक्त एक ही चीज़ श्रेष्ठता की मानक नहीं बन सकती. यदि ऐसा होता तो आज तुलसी, कबीर, विनोबा या मदर टेरेसा को इतना महत्त्व प्राप्त नहीं होता.
जब तक हमारे जेहन में स्वांतःसुखाय से सर्वहिताय की भावना प्रस्फुटित नहीं होगी, पत्रकारिता के मूल्यों में निरंतर क्षरण होता ही रहेगा.
आज हमारे पत्रकार बन्धु निष्पाप पत्रकारिता करके देखेंगे तो उन्हें वो पूँजी प्राप्त होगी जो धन-दौलत और उच्च जीवन शैली से कहीं श्रेष्ठ होती है.
आपके अंतःकरण का सुकून, आपकी परोपकारी भावना, आपके द्वारा उठाई गई समाज के आखरी इंसान की समस्या आपको एक आदर्श इंसान के रूप में प्रतिष्ठित करेगी.
आज के पत्रकार कभी आत्मावलोकन करें कि वे पत्रकारिता धर्म का कितना निर्वहन कर रहे हैं.
कुछ प्रतिष्ठित या पहुँच वाले पत्रकार स्वयं को अति विशिष्ट श्रेणी का ही मानते हैं. ऐसे पत्रकार कभी ज़मीन से जुड़े नहीं होते, वे आर्थिक तंत्र और पहुँच तंत्र से अपने मजबूत संबंध बनाए रखते हैं.
लेकिन यह भी वास्तविकता है कि ज़मीन से जुड़ी पत्रकारिता कभी खोखली नहीं होती, वह कालजयी और सम्मान जनक होती है.
हम देखते हैं, आज के अधिकांश पत्रकार कब काल कवलित हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता और न ही कोई उन्हें याद रखने की आवश्यकता महसूस करता।
आज पत्रकारिता की नयी नयी विधियाँ जन्म ले चुकीं हैं. डेस्क पर बैठ कर सारी सामग्री एकत्र की जाती है, जो विभिन्न आधुनिक तकनीकि, विभिन्न एजेंसियों एवं संबंधित संस्थान के नेटवर्क द्वारा संकलित की जाती हैं. इनके द्वारा निश्चित रूप से विस्तृत सामग्री प्राप्त होती है,
 लेकिन डेस्क पर बैठा पत्रकार / संपादक प्रत्यक्षदर्शी न होने के कारण समाचारों में वो जीवंतता नहीं ला पाता, समाचारों में वो भावनाएँ नहीं ला पाता, क्योंकि वो दर्द और वो खुशी समाचारों में आ ही नहीं सकती, जो एक प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार की हो सकती है.
आज के कुछ प्रेस फोटोग्राफर पीड़ित, शोषित अथवा आत्मदाह कर रहे इंसान की मदद करने के बजाय फोटो या वीडियो बनाने को अपना प्रथम कर्त्तव्य मानते है और दूसरे प्रेस फोटोग्राफर्स को कॉल करके बुलाते हैं। वह दिन कब आएगा जब वे कैमरा फेंककर मदद को दौड़ेंगे? जिस दिन ऐसा हुआ वह दिन पत्रकारिता के स्वर्णिम युग की शुरुआत होगी।
मेरी धारणा है कि यदि आपने पत्रकारिता को चुना है तो समाज के प्रति उत्तरदायी भी होना एक शर्त है अन्यथा आपका जमीर और ये  पीड़ित समाज आपको निश्चिंतता की साँस नहीं लेने देगा।
हम अपने ज्ञान, अनुभव, लगन तथा परिश्रम से भी वांछित गंतव्य पर पहुँच सकते हैं, बस फर्क यही है कि आपको अनैतिकता के शॉर्टकट को छोड़कर नैतिकता का नियत मार्ग चुनना होगा। पत्रकारिता को एक बौद्धिक, मेहनती, तात्कालिक एवं कलमकारी का जवाबदारी भरा कर्त्तव्य कहें तो गलत नहीं होगा।
धन तो और भी तरह से कमाया जा सकता है, लेकिन पत्रकारीय प्रतिष्ठा का अपना अलग महत्त्व होता है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है और लोकतंत्र के इस स्तम्भ की हिफाजत करना हम सब का दायित्व है।
अंततः निष्कर्ष यह है कि पत्रकारिता यथा संभव यथार्थ के धरातल पर चले, अपनी आँखों से देखे, अपने कानों से सुने और पारदर्शी गुण अपनाते हुए समाज को आदर्शोन्मुखी बनाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे, आज विकृत हो रहे समाज में ऐसी ही पत्रकारिता की ज़रूरत है।
© विजय तिवारी  “किसलय”, जबलपुर 
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – पोथी पढ़ि पढ़ि : ढ़ाई से तीन होते अक्षर – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

पोथी पढ़ि पढ़ि : ढ़ाई से तीन होते अक्षर
(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नवीन व्यंग्य जिसमें सभ्यता के विकास  के नवीनतम दौर में युवा डेटिंग के तीन अक्षर पढ़कर पंडित हो रही बिंदास और बेफ़िक्र युवा  पीढ़ी की विचारधारा को परत दर परत उघाड़ा है। )
ये सभ्यता के विकास का नवीनतम दौर है जिसमें युवा डेटिंग के तीन अक्षर पढ़कर पंडित हो रहे हैं – बिंदास और बेफ़िक्र
“अंकल मैं परसों नहीं आ पाऊंगा. मेरी डेट है.”
“रविवार को कौनसी कोरट कचहरी खुली रहती है जो तुम्हारी डेट है ?”
“वो नहीं अंकल – लव वाली डेट. आई ऐम गोइंग ऑन डेट विथ माय न्यू डेट.” – भतीजे आर्यन का ये कथन यमक अलंकार का अंग्रेजी प्रयोग नहीं है श्रीमान. यहाँ पहला डेट शब्द रोमांस के लिए प्रयोग किया गया है और दूसरा श्रेया के लिए. मैंने कहा – “अगले रविवार को चले जाना. घर में सत्यनारायण की कथा रखी है और तुम नहीं आओगे ?”
“नहीं ना अंकल. बड़ी मुश्किल से श्रेया तैयार हुई है. कब से उसे ट्राई कर रहा था. तीन बार अथर्व के साथ डेट पर जा चुकी है. फर्स्ट टाईम मेरे साथ जाने वाली है. मना कर दूंगा तो वो मुझे कॉवर्ड समझेगी और फ्रेंड्स बैकवर्ड.”
“तुम पहले भी तो किसी के साथ कहीं गए थे ?”
“मैं ना अवनि को दो बार और कनु को एक बार डेट कर चुका हूँ. वे मुझे लाईफ पार्टनर के लायक लगी नहीं. नाऊ, देखते हैं इफ श्रेया से मैच हो पाता है तो.”
“उनको कैसे जानते थे तुम ?”
“टिंडर पर मुलाकात हुई थी अंकल. डेटिंग का बेस्ट ऐप है. मैंने अवनि की प्रोफाइल देख कर राईट स्वाईप करा उसने मेरा प्रोफाइल देख कर राईट स्वाईप करा – मैच हो गया. एक दूसरे से चैट करी और एक दूसरे के डेट हो गए.”
“अभी कहाँ है वो ?”
“पता नहीं अंकल. दो बार की डेटिंग के बाद शायद उसने मुझे लेफ्ट स्वाईप कर दिया है. फिनिश. नाऊ नो इन्फो. वोई कनु के साथ भी हुआ.”
“तुम्हारी दो एक्स हैं !!”
“कम है अंकल. आजकल दो-तीन एक्स तो ये जो गाँव-वाँव से पढ़ने आते हैं उनके होते हैं. कमला, विमला, किशन, गणेश टाईप के लड़के-लड़कियाँ. कॉलेज में जिसके जितने ज्यादा एक्स वो उतना ही एडवांस. विमला तो डिप्रेशन में चली गयी है. थर्ड ईयर में आ गई है बट अभी तक उसका एक भी ब्वॉय फ्रेंड नहीं बन पाया.”
“ओके,  डैड को क्या कहोगे ? घर में इतने मेहमान होंगे और तुम ?”
“वोई तो टेंशन है अंकल. बट आप हो ना ! प्लीज डैड को भी संभालियेगा. कथा पिछलेबार वाली है ना. यू टेक केयर ऑफ़ लीलावती एंड कलावती. मेरा तो श्रेया के साथ जाना बहुत जरूरी है, नहीं गया तो लॉस हो जाएगा.”
“कैसा लॉस ?”
“वो क्या है अंकल कि सुब्बी बहुत कपड़े फाड़ रहा है. श्रेया को डेट करना चाह रहा था. टिपिकल साउथ इंडियन. ईडियट अभी तक चांवल में रसम मिलाकर हाथ से खाता है. और क्या तो नेम उसका – सुब्रा… आगे क्या था वो …मण्यहम. सुब्रामण्यहम. श्रेया तो उसका नाम बोल भी नहीं पाती. उसने तो सुब्बी को ब्लॉक कर दिया है. लेकिन अक्की है, अनिंदो है, विरल है. श्रेया को डेट करने की विश करने वालों की लाईन लगी है अंकल. मैं कथा में आया तो फ्रेंड्स में मेरी कथा हो जायेगी, प्लीज.”
“चलो ठीक है – बीच में टाईम मिले तो आकर के प्रसाद ले जाना उसके लिये.”
“अपन की कौनसी लता-पत्र-बेल होनेवाली है अंकल. फोर्टी किलोमीटर दूर है रिसोर्ट, बीच में कैसे आ पायेंगे ? सारा इन्वेस्टमेंट वेस्ट हो जाएगा.”
“प्रेम में इन्वेस्टमेंट कैसा ?”
“अंकल, कॉस्टली पड़ती है डेटिंग. इटालियन फरेरो के चोकलेट्स ले जाने पड़ते हैं. अरमानी का परफ्यूम लगाना पड़ता है. जीन्स तो फटी हुई चल जाती है बट टी शर्ट डेट की लाईक की होना. श्रेया को मेजेंटा पसंद है – मैंने फ्लोरिस्ट को बोलकर मेजेंटा कलर की ट्यूलिप का बुके आर्डर किया है. बाय-द-वे, आपने भी तो आंटी को डेट किया होगा कभी ?”
“घोड़े की नाल ठुके जूते का तला दिखाकर तुम्हारे दादाजी ने कहा था – लड़की देखने जा रहे हो तो ज्यादा सवाल मत करना. मुँह से निकले तो बस ये कि लड़की पसंद है. तब से न तुम्हारी काकी को किसी और का ख्याल आया न मुझे.”
“आपके जमाने ईश्क नहीं किया करते थे ?”
“करते थे राजकपूर नर्गिस टाईप के लोग सेल्युलाईड के पर्दे पर या शिरी-फरहाद कहानियों में.”
“फरहाद बेवकूफ था अंकल. पहाड़ तोड़ कर नहर बनाने में जान दे दी. पहाड़ के उस पार जो नेटवर्क अवेलेबल होता – एक सिम उस कंपनी की भी ले सकता. हर डेट के लिए अलग अलग सिम. लक्झरी कॉटेजेस बने हैं पहाड़ पे. ईजिली डेट कर सकते थे दोनों. जान क्यों देने का ?”
“उस पवित्र प्रेम को तुम समझ नहीं पाओगे आर्यन. जस्ट गो एंड एन्जॉय.”
“एन्जॉय नहीं अंकल ये तो लाईफ के स्ट्रगल हैं. लव करना इतना आसान नहीं है. बहुत स्ट्रगल करना पड़ता है ! टेंशन सा बना रहता है कब कौन अपन की डेट को अपनी डेट बना ले. अपनी वाली को सेव करते हुवे दूसरे की को डेट पर ले जाने में बहुत एफर्ट्स लगते हैं.”
ठीक ही कह रहा होगा आर्यन. युवा पीढ़ी पर आधे अक्षर का अतिरिक्त बोझ आ गया है. कभी प्रेम के ढ़ाई अक्षर पढ़कर पंडित हुआ जा सकता था अब तीन अक्षर डेटिंग के पढ़ने पड़ते हैं. लेकिन इससे भगवान का काम आसान हो गया है – अब उनको जोडियाँ स्वर्ग से बना कर भेजना नहीं पड़तीं. बच्चे खुद बना लेते हैं. ‘ओके’ – मैंने कहा.
कुछ क्षणों के बाद……. “खड़े क्यों हो ? जाओ तुम्हें देर होगी.”
“वो अंकल …फ्यू बक्स मिल जाते तो… ज्यादा नहीं… ओनली फाइव-के…. मना मत करना माय डियरेस्ट अंकल. मेरी सर्विस लगने ही वाली है. आई विल रिटर्न…. अंकल प्लीज. नई डेट है, बिल को फुट नहीं किया तो वो फिर से अथर्व के साथ चली जायेगी…थैंक यू अंकल… बाय…..डैड को मत बताना.”
आर्यन मुद्राएँ भी ले गया, इज़ाज़त भी, और श्रेया को तो ले ही गया होगा. ये सभ्यता के विकास का नवीनतम दौर है जिसमें युवा डेटिंग के तीन अक्षर पढ़कर पंडित हो रहे हैं – बिंदास और बेफ़िक्र
© श्री शांतिलाल जैन 
मोबाइल : 9425019837
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मराठी साहित्य – आलेख – प्रतिसाद – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

प्रतिसाद 

(यह सत्य है  कि ईश्वर ने  मानव हृदय को साद-प्रतिसाद  के  भँवर में उलझा कर रखा है जबकि प्रकृति अपना कार्य करती रहती है। उसे प्रतिसाद से कोई लेना देना नहीं है। इस तथ्य पर प्रकाश डालती यह रचना सुश्री ज्योति हसबनीस जी के संवेदनशील हृदय को दर्शाती है।) 

सरलेली संध्याकाळ, अलगद होणारं निशेचं आगमन, उगवतीचा चंद्र आणि आकाशातल्या चांदण्यांशी स्पर्धा करणारी चांदणफुलं अंगभर दिमाखाने मिरवणारा , दैवी सुगंधाने सारा भंवताल भारून टाकणारा डौलदार प्राजक्त ..

आषाढाचे मेघ , श्रावणाची सर सारं काही अंगाखांद्यावर झेलून तृप्तीच्या हुंकारात लाल ,पिवळ्या ,गुलाबी ,जांभळ्या रानफुलांनी नटलेली देखणी सह्यपठारे ..उष:कालची तांबूस पिवळी आभा पांघरत कोवळ्या सूर्यकिरणांत लखलखणारी हिमशिखरे ..आपल्या ऋतुचक्रात सातत्य राखणारा निसर्ग असं विविधरंगी दर्शन देत साद घालत असतो , आणि आपण जसं जमेल तसं कधी अनाहूतपणे तर कधी आवर्जून याची दखल घेत प्रतिसाद देत असतो ,सृष्टीची ही रूपं नवलाईने न्याहाळत असतो , त्यातल्या अपूर्वाईच्या गोडीने नादावून जात असतो .

खरं तर साद -प्रतिसाद हा खेळ मानवाचा , निसर्गाला त्याच्याशी काय देणं घेणं ? तुमच्या कौतुकाने तो काही बहर वाढवणार नाही की प्रतिसाद मिळाला नाही म्हणून बहर आवरता घेणार नाही …मी केलं हे सारं , हा त्याचा पुसटसा देखील अभिनिवेशही नाही …पण हाडामासाच्या जित्या जागत्या माणसाचं तसं नाहीय ना ! माणसाला देवाने अतिशय तरल आणि संवेदनशील  ‘मन’ बहाल केलंय आणि साद – प्रतिसादाच्या खेळांत त्याला पुरतं अडकवलंय ! अपेक्षांचं ओझं खांद्यावर वागवत , जमेल तसा त्याचा भार हलका करत असतांना , हक्काच्या गोतावळ्यातला एखादा कौतुकाचा कटाक्ष त्याला कृतकृत्य करतो ! मस्त मेन्यू आखून दिवसभर खपून छान बेत जुळवून आणला आणि ‘काय छान झालंय सगळं’ अशी हवीहवीशी दाद देत पदार्थांचा आस्वाद घेऊन मंडळी तृप्त झाली की मिळालेल्या प्रतिसादाने मन सुखावतंच ! मैफलीतली वाद्यांची रंगलेली जुगलबंदी , रसिकांच्या टाळ्यांच्या कडकडाटाविना अपुरीच होय ! ..काळजाचा वेध घेत आत अलवारपणे झिरपणारे सूर कानात साठवत उत्सफूर्तपणे तोंडातून निघणारा ‘ वन्स मोअर ‘आणि तो ऐकल्यावर गोडसं हसून तितक्याच तडफेने पुन: ती गझल ऐकवणारा कलाकाराचा आनंदाने उजळणारा चेहरा ह्या प्रतिसादाचं बोलकं रूपच नव्हे काय ?

स्वान्तसुखाय अनेक गोष्टी आपण करतो . आपले छंद तर स्वान्त सुखायच असतात ! छंद मग तो रांगोळी रेखाटण्याचा असो , लेखनाचा असो , समाजाप्रति  काही देणं लागतो ह्या जाणीवेतून अनेक संस्थांमध्ये कार्यरत राहून त्या संस्थांच्या कार्यशैलीत झोकून देता देता आपलं स्वत:चं एक स्थान तिथे निर्माण करण्याचा प्रयत्न देखील त्या छंदाची दुसरी बाजूच नव्हे काय ? आणि हे सारं मिळणाऱ्या प्रतिसादावरच अवलंबून असणार ना! स्वान्तसुखाय जरी माणूस हे सारं करत असला तरी योग्य त्या व्यासपीठाद्वारे  स्वत:तल्या कलागुणांचं प्रगटन करण्याचा त्याचा स्थायीभावच असतो . आणि योग्य त्या प्रतिसादानेच हे कलागुण बहरतात हे वास्तव आहे ! आणि तसे ते बहरायलाच हवेत ! त्यांना प्रतिसाद हा मिळायलाच हवा !

स्त्री स्वत:साठीच साजशृंगार करत असली तरी , तिच्या साडीचं , निवडीचं , केलेलं कौतुक तिला सुखावून जातं , पाठवलेला लेख खुप आवडला असं जेव्हा मोबाईलवरून कळवलं जातं तेव्हा मोरपीस फिरतंच ना गालावर ..! आणि प्रतिसादाच्या अपेक्षेनेच तर मोबाईल नंबरही देत असतो ना आपण पेपरमध्ये !

*प्रतिसाद* ..केलेल्या कामाची पोचपावती ..परिश्रमाचं कौतुक हे सारं सारं माणसाचं जीवन सुखकर बनवण्यात खुप मोठ्ठी भूमिका बजावतं ! जितक्या तत्परतेने हाकेला ओ दिली जाते तितक्याच तत्परतेने साद घातली असता प्रतिसाद ही मिळावा …तृप्तीची साय ही त्याविना धरलीच नाही जाणार माणसाच्या जीवनावर !!

© ज्योति हसबनीस

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English Literature – Book-Review/Abstract – Can I have this chance – Ms. Neelam Saxena Chandra

Can I have this chance

A novel by Authors Press written by Ms. Neelam Saxena Chandra. 

(This is a story about courage, justice, love, sacrifices, a quest for the truth, and crucial choices, all revolving around the life of a simple woman from India, but with a fire in her eyes to prove herself.)

About the Book :  “Avantika, a fiery young journalist, is about to board a flight to New York to pay a visit to the Editor of The New York Times, to consider a job offer she received as a result of her hard work and determination as a crime journalist in India. Little does she know that this one brief trip will change her life forever. Minutes before boarding her flight, she receives a proposal, which leads her to a very imperative decision – career against love. She tries postponing the impending decision, to enjoy her short voyage. Suddenly, in the midst of her turbulent thoughts, she notices a man walking up the aisle of the aeroplane, a gun in hand. Before she manages to digest this news and the fact that the plane is far away from civilisation, hovering somewhere above the Atlantic; with a jolt, she realises that the hijacker is a man she recognises- a man from her past! From the villages of North India, to the posh highways of New York, this is a story about courage, justice, love, sacrifices, a quest for the truth, and crucial choices, all revolving around the life of a simple woman from India, but with a fire in her eyes to prove herself. Read on, to find out more.”

Excerpts from the book – Can I have this chance

Sunil looked at her adoringly. Could he really bid farewell to a gal who had been not only his companion at work but also in his every personal turmoil? It was indeed impossible for him. This was his last chance and he wanted to have it. He had hoped till the last moment that she would come and say, “Hey, Sunil! I have cancelled my journey and I am not going to the US of A anymore. I wish to be here, with you. And…and I agree to your proposal.”

Sunil had been in love with Avantika right since the time she had joined his newspaper ‘MAGMA’ as a journalist, specialising in the crime section. In fact, it was he who had chosen her for the job despite opposition from all his senior colleagues. He had somehow felt the lava and the desire to do something hidden deep inside her. This, combined with her intelligence had made him choose her from among a flock of candidates who had come for the interview – some much more experienced and qualified than her. In fact, she had just barged into his room from nowhere and was not even a candidate registered with them.

Sunil had never been proved wrong. Avantika had substantiated each day that his choice had been THE right choice. MAGMA had been begun with the intent of exposing the corrupt wolves in society without any bias. And Avantika had been performing amazingly well –  revealing and uncovering the so-called respectable front runners  of society. MAGMA had, in fact, begun an amazing revolution in the country which had set off chain reactions. The surrender of Bajju bhaiya had been one of the most astonishing incidents which had led the nation into thinking mode. Of course, it was Avantika who had handled the case.

However, it was not only on professional front that Sunil would be missing Avantika. Their relationship had blossomed from colleagues to close friends soon enough. Their close proximity and understanding of each other had made Sunil fall in love with her. He respected her, he admired her, he was in awe of her and he also adored her. It was not the sort of love which only craves for physical oneness – but the one which yearns for oneness of the soul. He had indicated the same to Avantika sometimes indirectly and at other times, directly; however, she had always laughed at his proposals.

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Amazon Link for Hindi translation: ज़िंदगी इत्तेफ़ाक है

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English Literature – Book-Review/Abstract – The Ruiner – Mr. Ashish Kumar

The Ruiner

(It is difficult to comment about young author Mr Ashish Kumar and his mythological/spiritual writing.  I am really mesmerized.  I am sure you will be also amazed – an entire chapter as an excerpts will change your thinking.) 

Blurb : Two boys and two girls of the current era are in the quest of mythological history of Hindu scriptures. Their aim and hobbies are different. Even their professions are different. They have come together to explore the fascinating story of the world. Yes, they have come together to walk on the footprints of Lord Rama and Lakshman in Sri Lanka. There they meet their guide, a person who explains and also makes them visit places of Ramayana like they all are part of that era. They also got the answers to some facts which no one knew before, such as: Ravana knew clone science and created 1 lakh clones of his sons and 1.25 lakhs clones of his grandsons. Where are they now? Ravana knew the science to use moon energy to prepare food. How? How were Gods able to transport themselves from one location to another? How Ravana created the link between this realm to heaven? What is the science behind Indrajaal, Mohini Astra, Lakshmana Rekha etc? Why did Goddess Sita demand golden deer? Why didn’t Lord Hanuman kill Bali? What is Sita’s Gita? How did Lanka get its name, Sri Lanka? What is the significance of Dakshinamukhi and Panchmukhi Hanuman? Why is moon revolving around the earth with overlapped of one paksha of 15 days? How could Kaalnemi fly faster than Lord Hanuman? What is the science behind Weapons Shakti, Brahmastra? What is the Science behind Sanjeevani medicine? How can Puspak Viman fly at a different speed? Is reason behind Mahabharata war Lord Krishna? Can we stop aging by manipulating our DNA? How do Karmas work? Do curses and boons affect our karma? Prana, consciousness, and soul are the same or different? What is the science behind Amavasya? Who is the goddess of moon phase? What is the Science behind sacrifices? Is any other formula more powerful than E=mc2 ? If yes, what is that? Is inter-caste marriage responsible for crime and corruption in our society? How do emotions impact our mind and body? Want to know more? Go and grab your copy today!

Excerpts from the book:  A Chapter from ‘The Ruiner’

Once I had asked Lord Hanuman that why our mind is not stable and vibrates here and there?”

Lord Hanuman replied,“My dear, our mind is bound from four main emotions, and these are kaam or desire of lust, Krodh or anger, Lobha or greed and Moha or attachments of me and mine. Every human mind lives on these four emotions. Some have one more than the other emotion, other humans have another more, and so on. Like a person have more Krodh and Lobha or less Moha and kaam, etc. Also the quantity o, or more general essence of these emotions keep changing rapidly. You can note that sometimes you feel more kaam, less Moha, or more Krodh, and more Moha and less Lobha and kaam. Many such combinations are possible.”

Then I asked from Lord Hanuman,“Oh! My Lord, so what is the way for household to make mind stable at one point?”

Lord Hanuman replied, “You can think like that total percentage of all four emotions will be 100 % in each human being which includes different percentage of four emotions in each human being. Now there are two ways—one for Sanyasi’s (Ascetic), and that is to convert percentage of all four emotions means Kaam, Krodh, Lobha and Moha into detachment and reduce the total percentage of all four emotions. When total 100% will convert into detachment, Sanyasi  gets enlightenment from his mind.

Second household method is to take all emotions in equal percentage inside mind. You can say like 25% kaam, 25% Krodh, 25% Lobha, 25% Moha. It will make household mind balance towards three aims of life called kaam—very deep desire of luxuries sex etc., Arth—basic requirements to survive according to once position in family and society, and Dharma—rightful action according to clan, society, background etc.and then general progress naturally towards fourth aim of life called moksha—Salvation. So by practice of mediation and following dharma defined for individual, he or she can balance his or her four main emotions (other emotions are sub-categories of these four) and then progress in right direction even as a household.”

Then I asked, “My Lord why we see our surrounding differently? Like one is looking good for one, and same thing is bad for others?”

Lord Hanuman said, “Every person can only see his own universe, which was the outcome of his current ripping karmas fruits, that universe of his is created with his bondage and goes away with his liberation. Although it remains for others who are in same type of bondage, because those same types karmas are still unripe.”

Also good and bad are relative terms. The thing which is good for me is bad for you. The same thing is also good at one part of our life and bad at another part. Like in childhood every kid likes to eat sweets. For kids it is good, but when that kid grows old and lots of diseases enter inside his body, then the same sweets become bad for him. My dear, it is the same consciousness which gives us an awareness of pleasure at one time and pain at other. What else you want to know?”

Then I asked, “My Lord you are the sun of Vayu—air, and have full command over vayu. You are even the vayu in the form of Prana inside our body. So who is the best teacher to teach about Pranavayu other than you in three worlds?

Lord Hanuman smiled and said, “Okay, I am going to tell you secrets of Pranavayu which is unreachable to even Devtas.”

Then Lord Hanuman said to me, “Due to Prana, this universe is active and this Prana exists in every manifestation life.

Different elements of worlds are nothing but vibrations of Prana at varying frequencies. You must be aware of different types of Prana in body.”

I said,“Yes Lord I know about ten Pranas inside our body, in which five are most important—prana, udana, vyana, samana and apana.”

Lord Hanuman ji said, “Yes when a man dies, the thought held in the mind enters into prana. prana and udana join together the soul and take it to the desire world. udana resides in the Nadi passing through the center of the spine.

If udana is in the higher part of spinal Nadi then person go to heaven or upper worlds, if lower, then to lower worlds and if in between, then got almost similar human life as current.

I have told you about four main emotions, but there are nine Rasas or emotions which can easily identify humans. Now I’ll tell you how emotions are generated inside the mind. When prana interact with the Ayurvedic dosa (Vata, Kapha and Pitta) in the body, the Rasas are experienced in our mind. It is like prana make active to some passive patterns. At that point ‘I’—the ego has to decide if it accepts the Rasa (emotion) that is experienced. If ego, after consulting the intellect (Bhuddhi), does not support a Rasa, then it will changed by act of will power. If the ego supports a Rasa, then even the intellect can do nothing and may be forced by the ego to support Rasa. When the ego support Rasa, it refers to the type of emotion from nine is of basic essence of that particular ego, which will be created due to four daily necessities of humans, which are Sex, Sleep, Food and Self-preservation. The different combinations of these four make different types of ego categories which can be didvied into nine types of emotions.

The aim of all yogas is to make our intelligence so strong that ego will not overcome its decision to reject all emotions inside mind, so that the mind becomes stable in any emotion and can concentrate on single point.

I asked, “Lord, it means all emotions generate from different parts of body?”

Lord Hanuman replied, “I’ll give you a simple example of how Singhara Rasa or emotion of Love is generated.

Flow of pranavayu comes down from heart region to down navel and mixes with water dominant Pitta dosa. Mind it, Pitta is a combination of water and fire elements, so there are three possibilities—one when water is more than fire, like in this case which is responsible to generate love emotion, or fire is more than water, which is responsible to generate anger emotion or both fire and water are equal, generate calm emotion. When this prana mix with water dominating Pitta dosa, then this flow moves towards Manomaya kosha and generate Dynamic sensation in ‘I’—the ego, and move towards upwards direction (near heart), this movement arranges the particles of mind in very simple and known patterns, and generate sensation in body. This sensation is called Love. Now understand?”

I fell at the feet of Lord Hanuman and requested him to tell me about the soul. Then he said,“Atma or soul is ever conscious. It has some opposite properties:

  • Atma—Soul is form of akasa (Space) because of zero visible structure in space. But also atma is form of Non-akasa because it is present everywhere.
  • It is not an object because no one can describe it, but it is object because it exists.
  • Atma is conscious because it is light. But it is unconscious because no one can see it from senses.
  • Atma is faster than fastest speed because it is present everywhere, but Atma is unmovable because it doesn’t have motion.
  • Atma doesn’t require any support to exist, so it looks like it does not exist. But atma is truth, so it exists.

My friend the only thing to know in three worlds is atma and nothing else, but we all know it.

Now I’ll tell you what is manna (Mind) Knowledge of sense objects is called manna, resolution and alternative is the nature of manna. This is that, I am this, all these objects belong to me—this desire is actually manna because we desire either resolution or alteration for some objects or concepts.

Sacrifice of all the objects for which manna desire is a way to liberate or Enlightenment.

Now I’ll tell you evolution of mind and senses from Consciousness.

When Consciousness is bound from Time–Space and causation, it receives alternate form and this is called chitta.

When chitta is thought from desire of me and mine, it called ego.

When ego is decision-making and defect, then called Bhuddhi—Intelligence.

When intelligence starts taking resolution, it become manna.

When manna takes a deep dip into options, it takes form of senses.

Take an example: Consciousness is only awareness inside us so Consciousness deciced that we do some thing or not, then other parts of mind like chitta, manna etc do their duties to fullfil the decision of Consciousness as a team.

Hanuman ji further said,“dear now I’ll tell you more about Prana, manna, senses, etc. All the physical works in which body energy is used like running, talking, etc. are done when pranavayu and apanavayu of body unite.

When a person sleeps, all the senses absorb in the prana, even manna, so we can contemplate while sleeping.

The subtle part of solid food which we eat goes upside in body with pranavayu after getting filtered by Jathar Agni at Manipura Chakra. This subtle part is manna. So if we eat Sattvic food, the subtle part of that Sattvic food makes Sattvicmanna, and we will take decisions which will be right for us. But if we eat more Rajsvic or Tamsic food, our manna will become more Rajsvic or Tamasic.

Similarly, the subtle part of consumed water collects and comes up—that is prana in pure form inside our body, and subtle part of clarified butter—greasing that we eat, collects and comes up to make voice of a person.  So if we eat clarified butter made of cow milk, it is Sattvic and makes our voice pleasant and good to hear for all. But in case of Rajsvic or Tamsic it can harm ourselves and others.

The power of food we eat has sixteen Kalas or art or phases, so manna also has sixteen Kalas or phases.

Indriyas or senses work with the combination of prana. If we remove prana from Indriyas then there will be no impact on chitta in any case. Keep in mind that anything where change is happening in micro cosmos or macro cosmos, is because of movement of Prana in one or other form. Without Prana there is no motion or movement or change so life is not possible.

Do you know that apanavayu is carrier for food? vayanvayu is nothing but a combination of prana and apana and this vayanavayu is actually responsible for our speech. This is the reason when person speak he don’t do work of prana and apana. I told you speech is made from greasing. Also vayana is our speech so we can say that greasing of our body is responsible for vayana. Again prana is made from subtle part of liquid we drink and vayana from greasing of body, and also vayana is combination of prana and apana. So it means apana is what left if we remove greasiness from subtle liquid of inside body. It is very deep science.

Now what will happen if we churn milk? It separates or generates butter and what left is butter milk. Now according to Ayurveda this butter milk is best possible thing to purify our body apanavayu which is actually responsible for all our stomach problems if misbalanced. So now clear that if you drink milk of cow it will create Sattvic prana inside your body and if you eat butter made of those cow milk, it will be good for purify vayana vayu and leftover of churning cow milk, means butter milk is best to make apanavayu work on its best inside our body. Now link between some important vayus is clear? Now I’ll tell you some more things.

Breath is unit of prana inside our bodies.

If anyone can do mastery over the flow and directions of vayu inside the body he can do anything. There are some yoga techniques for it. Even man can decide during sex if his semen goes to female body that child will be born or not. Means if he want to make his wife pregnant, then he has to make sequences of vayus in lower abdomen. kandrpavayu (special form of apanavayu which is works as carrier of semen) remains below and prana above which is general case for common human.

But if he does not want to make his wife pregnant, he has to locate pranavayu below kandrpavayu. But we don’t have to do this because sex is allowed only between husband and wife to generate children.

The knowledge of prana, soul, manna, etc. is very deep and I can’t tell you whole, but remember that when your chitta, ego, intelligence, manna, senses are filled with the name of Lord Rama, then you don’t need to understand these complex topics. Just surrender yourself to Lord Rama.”

© Ashish Kumar

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मराठी साहित्य – कविता – स्मृति-गंध  – श्री सदानंद आंबेकर 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास

हम श्री सदानंद आंबेकर जी  के आभारी हैं इस अत्यंत  भावप्रवण मराठी कविता के लिए)

पाहुनि इवल्याश्या चोची,
              चीव-चीव ऐकोनि,
स्मृति उजळली आईची ती, अश्रु गेले वाहोनि।
स्नेहाची ती मधुर छाया,
                    वर्षणारी सतत माया,
निर्मिली माझी ही काया,
                    राहुनि तुझियाच पाया,
आज दरवळला स्मृतिंचा- गंध- दृश्य पाहोनि. . . . . .
हात धरुनि चालवीले,
                    कष्ट सोसुनि वाढवीले,
तम जगाचा घालवीला,
                    जन्म माझा सुखद झाला,
व्यक्त करितो भाव माझे- स्मृति तुझ्या रेखाटुनि. . . . .
©  सदानंद आंबेकर
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – कचरा बड़े काम की चीज  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कचरा बड़े काम की चीज 

एक समय गंगा तीरे व्यंग्य – कुम्भ की एक मढ़ैया के पास कचरे का ढेर लग गया। मढ़ैयाधारी संत पुराण पढ़ रहे थे और सूत जी सुन रहे थे, अचानक कचरे में बम की खबर से सब भागने लगे और चारों तरफ हवा में अफवाह फैल गई….” कचरे में बम बम…. । खबर सुनकर कुछ नागा बाबा गा – गा कर नाचने लगे…………

” सिर्फ़ तुम्हारे हैं हम,

सह लेंगे सारे गम,

चाहे कचरे का बम, ”

श्री सूत जी बाहर धूनी जमाकर बैठ गए। कचरे की लकड़ियों को धो-पौंछकर धूनी जलने लगी। कचरे में बम बम करते अघोरी बाबा लोग कचरे में बैठकर चिलम का मजा लेने लगे, कुछ अघोरी उसी कचरे को जलाकर मांस भूनने लगे जब मांस मदिरा पेट में चली गई तो धूनी की राख तन में मली गई शरीर के बाल कचरे में बम बम करते दिखे तो राम रहीम और आशा बापू याद आ गये।

सब मस्ती से बैठ गए तो सूत जी बोले – एक समय ऊंघते – अनमने सतपुड़ा के जंगल के किनारे बसे गांव का गंगू बेरोजगारी, गरीबी से परेशान भूख एवं प्यास से बेचैन होकर पास के शहर की तरफ भटकने लगा। कचरे में भूख शांत करने की चीजें ढ़ूडने लगा, खाने का तो कुछ नहीं मिला पर अमीर और सुंदरियों द्वारा फेंके परफ्यूम के एल्युमीनियम के खोके और अन्य ऐसे समान मिले जिससे गंगू के अंदर न्यूटन जैसी सोच सवार हो गई उसके अंदर जुनून पैदा हो गया, सब जगह के कचरों के ढेर से उसने एल्युमिनियम के टुकड़े बटोरना चालू किया फिर उस कचरे से सुंदर करैहा (कढ़ाई) बनाना चालू कर दिया। चारों तरफ उसकी करैहा (कढ़ाई) की मांग होने लगी। खूब बिक्री बढ गई।मुंबई जैसे महानगरों में पांच सितारा होटलों में रेस्टोरेंट में कचरे से बनी करैहा सजावट के काम आने लगी। जब गंगू खाने कमाने लगा तो सेल्स टैक्स वाले तंग करने लगे, कहने लगे – कच्चा माल यदि कचरे से उठाया तो कचरा तो सरकार का है इसलिए कचरे की चोरी का केस बन गया। प्रदूषण बोर्ड के अधिकारी बोले – भट्टी जलाने से प्रदूषण फैलता है आसपास के सतपुड़ा के जंगल अनमने हो रहे हैं, गंगू बोला – साब उस तरफ की बड़ी फैक्ट्री की चिमनी से उगलते धुंए से ऐसा हो शायद।प्रदूषण अधिकारी बोला – मंत्री जी की फैक्ट्री से तो प्रदूषण कभी नहीं होता।। अनेक विभाग के अधिकारी बाबू रोज रोज, तरह तरह से गंगू को तंग करने लगे तो गंगू ने परेशान होकर फांसी लगा ली इस तरह गंगू की बेरोजगारी गरीबी दूर हो गई। कचरे में उसका तन जल गया और हवा उस राख को उड़ा कर मंत्री के बेटे की फैक्ट्री तरफ ले गई।

सूत जी बोले – इस प्रकार कोई गरीब बेरोजगार यदि सब विभागों को प्रसाद चढ़ाए बिना अपनी गरीबी बेरोजगारी दूर करता पाया जायेगा तो उसकी दुर्गति गंगू जैसी होना निश्चित है।गंगू के भाई और बहुत से बेरोजगारों ने अब एक नया काम चालू किया है बेरोजगार तालाबों में में कचरा फेंक कर कीचड़ पैदा करते हैं फिर कीचड़ में उच्चकोटि के कमल पैदा कर नेताओं को बेचे जाते हैं सरकार बेरोजगारी दूर करने का इसे अच्छा उपाय बता रही है। सूत जी को बोलते बोलते प्यास लग गई अतः…….

इति कचरे में बम बम कथा प्रथम अध्याय समाप्त।

द्वितीय अध्याय – – 

श्री सूत जी ने कहा – कि … हे    श्रेष्ठ अहंकारी, लोभी और मौकापरस्त लोगो.. एक शहर में एक कवि रहता था उसे अपने आप में कवि होने का बहुत घमंड था हालांकि सब उसे कचरा कवि कहते थे क्योंकि वह कचरा कविताएँ लिखता था। सुबह सुबह मुंडेर पर चाय पीते हुए कचरा बीनने आने वाली मधुमती पर बेचारा कवि मोहित हो गया और नित्य कचरा बीनती मधुमती और कचरे के ढेर पर उसने सैकड़ा भर कचरा कविताएँ लिख डालीं, जब  मधुमती झुकती तो कविराज भी खड़े होकर झुकते फिर बैठते फिर खड़े होते…… पड़ोसी के पूछने पर कि आप सुबह-सुबह बालकनी में बार बार झुकते – बैठते खड़े क्यों होते हैं ? तो कविराज का जबाब होता कि जैसे सुबह – सुबह आप आंख बंद करके योग करते हो वैसे ही हम बालकनी में आंख खोलकर एक्सरसाइज करते हैं। कविराज ने कचरे और मधुमती की कविताओं का कविता संग्रह छपवाया, जुगाड़ लगाकर विमोचन में तालियां ठुकवायीं और पुरुस्कार का जुगाड़ भी कर लिया पर कचरे बीनने वाली मधुमती अभी भी कचरा बीन रही है, फटे ब्लाऊस और कचरे से उठाई साड़ी अभी भी पहन रही हैं और उस पर लिखी कविताएँ खूब धन यश बटोर रहीं हैं, कचरे के कारण कविराज बम – बम कर रहे हैं। सूत जी के लस्सी पीने का समय हो गया था अतः……

इति कचरे में बम बम कथा द्वितीयो अध्याय समाप्त भयो

तृतीय अध्याय – 

सूत जी बोले – हे विरोधी पार्टी वालो स्वच्छता अभियान की फोटो और लफड़ेबाजी देखकर परेशान न हो, टीवी वाले पैसे लेकर जिन लोगों को झाड़ू पकडे़ दिखा रहे हैं उन सबके दिमाग में कचरा भरा हुआ है, भले सफेद झक पाजामा कुर्ता पहनकर कचरा साफ करने का नाटक कर रहे हों पर कचरा फैलाने में इन्हीं का अहम रोल होता है। झाडू पकड़ के कचरे तरफ देखने भर से कई दंदी – फंदियों ने करोड़ों अरबों की कमाई कर डाली। हर मोहल्ले से डोर टू डोर कचरा उठाने का बहाना बनाने वाली कंपनियां कई करोड़ का वारा-न्यारा कर चुकीं हैं। बड़ी बड़ी तोंद निकाले सेठ कचरे से बिजली बनाने के बड़े बड़े संयंत्र लगाकर सरकार को खूब उल्लू बना रहे हैं। लोगों को उल्लू बनाने आनंदम् विभाग के ये हाल है कि लोग घर के अनुपयोगी कपड़े कचरा समझकर नगर परिषदों के पिंजरे में डाल रहे हैं दो चार दिन बाद नगर परिषद् वाले रात को सारे कपड़े ट्रक पोंछने वालों को बेचकर जेब गर्म कर रहे हैं।

बड़े लोगों के लिए कचरा बड़े काम की चीज है ऐश-अय्याशी करके नवजातों को कचरे में फेंकने से कचरे घर पटे पड़े हैं। नेता लोग नदियों में कचरा फिकवाते हैं फिर फोटो खिंचवाने सफाई अभियान चलाते हैं।

नोटबंदी के समय 1000 – 500 के कचरा नोटों को काट-काट कर कचरा बनाया गया था कचरे में गांधी जी की कहीं कटी नाक पड़ी थी कहीं कटा चश्मा, तो कहीं कटा मस्तक पडा़ था, फिर इस कचरे को ईंट बनाने वाले को कचरे के भाव से बेचा गया था। सूत जी बताते बताते रोने लगे भूख – प्यास से व्याकुल हो गए थे इसलिए………

इति कचरे में बम बम कथा तृतीयो अध्याय समाप्त।

अध्याय चार – 

सूत जी के कहने पर कचरे वाले बम बम बाबा ने बताया कि अस्थि – मज्जा, कफ वात पित्त के इस तन में ईर्ष्या, द्रोह क्रोध मोह का कचरा भरा पड़ा है। मूर्खता के अहंकार का कचरा इतना खतरनाक होता है कि मूर्खता भरा इंसान खुद को पूरे ब्रम्हांड का सर्वज्ञानी मान लेता है और हर बात में अपनी उल्टी टांग घुसेड़ता है जो साश्वत सत्य होता है उसमें भी अपनी टांग घुसेड़कर बल, पद धन और यश प्रतिष्ठा के अहंकार के कचरे से ढंकने का प्रयास करता है बड़ा पद मिल जाने पर कचरा फैलाना और कचरे साफ करने का दिखावा करने में अपनी शान मानता है। बम बम बाबा ने बताया कि मन को वश में नहीं करने से मन में कचरे का भण्डार लगता जाता है तरह तरह का कचरा खुद ही खुद बढ़ता जाता है ये कचरा कभी आंखों से कभी कानों से कभी मुंह से घुसता है, आजकल सोशल मीडिया के कचरे की भरमार हो गई है यदि समझदारी से काम नहीं लिया तो सोशल मीडिया का कचरा तन मन सबको बर्बाद कर देगा फिर हर जगह कचरे में बम ही बम का कचरा मिलेगा। बम के डर से बम बम बाबा को उल्टी हो गई इसलिए…………

इति कचरे में बम बम कथा बंद……… ।

Smiley, Happy, Face, Smile, Lucky, Luck

© जय प्रकाश पाण्डेय

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मराठी साहित्य – आलेख – सुरेल संगत … – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

सुरेल संगत …

(Today we present wonderful article on music, songs and our moods written by  Mrs. Jyoti Hasabnis. She is a renowned Marathi Author/Poetess. Her articles are being published in Sakal Nagpur Edition.) 

एखादं गाणं जेव्हा मनात रूंजी घालू लागतं ना तेव्हा त्या शब्दांनीच जाग येते , त्याचे सूर दिवसभर संगतीला असतात आणि रात्री ते उशाशी घेऊनच त्याच्या तालावर झुलत आपण निद्रेच्या अधीन होतो . खरंच गीताची ही मोहिनी मनावर इतकी जबर्दस्त असते की त्या क्षणी जाणवतं , संगीत हा आयुष्याचा केवढा सुरेल भाग आहे ! रोजच्या नीरस आणि कंटाळवाण्या आयुष्याची लय बिघडू न देण्यात ह्या शब्द सूरांचा केवढा मोठा वाटा आहे !

गाण्याचं सुद्धा असं असतं ना ,  गाण्याचे जसे भाव , शब्द ,  सूर , तसा मूड व्हायला लागतो . एखादं गाणं ऐकताक्षणी मूड अगदी प्रसन्न होतो . प्रसन्न मूड असला की मनात अगदी चांदणं फुललेलं असतं आणि त्या चांदणगावात चंद्र , तारका , आणि आपण एवढेच वस्तीला असतो , सूरावर झुलत असतो , ठेक्यात ताल धरत असतो  ‘ आ जा सनम पासून तर नीले नीले अंबर ‘ पर्यंतचा जोडीदाराबरोबरचा प्रवास असा चांदणप्रकाशात अगदी झोकात पार पडतो !     गीतातल्या शब्दाबरोबरच तृप्त करणारं संगीत आणि कलाकारांनी त्यात ओतलेला जीव सारं कसं एखाद्या सुंदर कलाकृतीसारखं मनात ठसतं . आणि मग काही गाण्यांबरोबर

कायमच ते भाव मनात घर करतात   . ‘तेरा मेरा प्यार अमर ‘ ऐकतांना उगाचच हळवं व्हायला होतं , ‘ तेरे बिना जिंदगीसे कोई शिकवा तो नहीं ‘ ऐकतांना बेचैन व्हायला होतं , तर ‘ वो शाम कुछ अजीब थी ‘ऐकतांना आत आत असे तरंग उठल्यासारखे वाटतात , ‘ हमने देखी है इन आँखोंकी महकती खुशबू ‘ ऐकताना तर हलका शहारा मनाला व्यापतो , अंतर्मुख करतो ! एखाद्या गाण्याने आळवलेला दु:खी सूर आयुष्याच्या फोलपणाची जाणीव करून देत अगदी रितं रितं करून टाकतो तर ,’ दिखाई दिए यूँ ‘ सारखं गाणं काळीज चीरत जातं . गाणं संपलं तरी सुप्रिया पाठकचा कोवळा चेहरा , आणि गीतातले शब्द त्याच्या सूरासकट संगीतासकट पाठलाग करत राहतात . ‘ ये जीवन है ‘ असो की ‘ जिंदगी के सफरमें गुजर जाते हैं ‘ असो ह्या सारखी जीवनावर नितांत सुंदर भाष्य करणारी गाणी विरळाच  . काल परवा माचिस मधलं ‘ छोड आएँ हम ये गलियाँ ‘ हे गुलजारने लिहीलेलं सुरेश वाडकरांनी गायलेलं गाणं ऐकलं आणि अक्षरश: मनात विचारांचं मोहोळच उठलं ! अशांत पंजाब , आणि भडकलेला वाट चुकलेला , आणि परतीच्या वाटेला मुकलेला अगतिक तरूणवर्ग इतकी भेदक परिस्थिती आणि विदारक वास्तव त्या चित्रपटात चितारलंय , की सगळा चित्रपटच हे गाणं ऐकतांना डोळ्यासमोरून झर्रकन सरकतो . ह्या गाण्यातल्या सुरूवातीच्या शब्दांतून झरणारा गोडवा कधी नैराश्यात कडवटपणात बदलतो ते कळतही नाही आणि मग गाणं संपलं तरी मनात ते सगळ्या भावनिक आंदोलनांसकट सुरूच राहतं . आजची काश्मिरची परिस्थिती , बहकलेला , बिथरलेला तरूण वर्ग असाच नैराश्याच्या गर्तेत गेला तर …परतीच्या वाटा त्यालाही बंद झाल्या तर ..

अशीही काही गाणी , जिवाची घालमेल करणारी  , घायाळ करणारी , जिवाच्या चिंधड्या करणारी ,  !!

सुख -दु:ख , प्रीति -असूया , मीलन-विरह ह्या साऱ्या छटांनी नटलेलं जीवन आणि त्याचंच प्रतिबिंब ही गाणी ! सावलीसारखी त्यांची आपल्याला असलेली सोबत आयुष्याची वाटचाल सुरेल करते हे मात्र नक्की !

© ज्योति हसबनीस

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हिन्दी साहित्य – कविता – शेष कुशल है – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

शेष कुशल है

ये तीन शब्द

“शेष कुशल है”

काफी कुछ समेटे हैं

अपने आप में।

 

एक पुस्तक गढ़ दी है

इन तीन शब्दों नें।

मेरी चिट्ठी पढ़ी आपने

मैंने आपकी चिट्ठी पढ़ी

अपने आप में।

 

सच ही तो है

मन बड़ा चंचल है।

जाने क्या-क्या है सोचता?

जाने क्या-क्या है सुनता?

जैसे

हरि अनन्त

हरि कथा अनन्ता।

 

कुछ बातें चिट्ठी में

नहीं लिखी हैं जाती

अन्तर्मन की

पीड़ाएँ खुलकर के

मुखरित नहीं हैं होती।

 

वैसे तो आज

चिट्ठी कौन लिखता है?

सोशल मीडिया पर

नकली मुस्कराहट लिए चेहरा

और बेमन मन

दोनों ही दिखता है?

चिट्ठी उसे वही है लिखता

जिसका जमीर

कहीं नहीं है बिकता

या फिर

ऐसा हो मजमून

ताकि सनद रहे

वक्त जरूरत पर काम आवे।

 

गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू

जाने कहाँ खो जाती है?

भैया भाभी की याद

सदा एकान्त में

सदा रुलाती है।

 

अलमारी सिरहाने में

चिट्ठी के एक-एक शब्द में

आपका अथाह प्रेम झलकता है।

एक-एक लिखी घटना से

सारा हृदय धड़कता है।

 

कितने भोले हो भैया

सारे गाँव की बात बताते हो।

अपना मर्म अपनी तकलीफ़ें

संकेतों में समझाते हो।

खुद आंबाहल्दी – चूना

गुड़ का लेप लगाते हो

और

भाभी के इलाज के खर्चे की

चिन्ता बहुत जताते हो।

 

आपका छोटे हूँ

ऐसी बहुत सी बाते हैं

लिखना मुश्किल है

अब क्या लिखूँ

बस

यही सोच सोच

अपना मन बहलाते हैं।

 

यह सच है कि

साठ सत्तर के बाद

हम सब

बोनस जीवन ही जीते हैं

और

अपने आपको

मुक्तिधाम की कतार में पाते हैं।

 

अब तो

मन साझा करने

चिट्ठियाँ लिखें भी तो

लिखें किसे?

 

आपकी लाड़ी भी छूट गईं!

 

बस

अब तो

खुद को ही लिखना है

और

खुद को ही पढ़ना है।

 

शेष कुशल है।

शेष कुशल है।

 

© हेमन्त बावनकर  

(वरिष्ठ साहित्यकार अग्रज  डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की कृति  ‘शेष कुशल है’ से प्रेरित कविता।)

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