हिन्दी साहित्य- कविता – आँखें – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

नीलम सक्सेना चंद्रा

 

 

 

 

 

आँखें 

मंज़र बदल जाते हैं

और उनके बदलते ही,

आँखों के रंग-रूप भी

बदलने लगते हैं…

 

ख़्वाबों को बुनती हुई आँखें

सबसे खूबसूरत होती हैं,

न जाने क्यों

बहुत बोलती हैं वो,

और बात-बात पर

यूँ आसमान को देखती हैं,

जैसे वही उनकी मंजिल हो…

अक्सर बच्चों की आँखें

ऐसी ही होती हैं, है ना?

 

यौवन में भी

इन आँखों का मचलना

बंद नहीं होता;

बस, अब तक इन्हें

हार का थोड़ा-थोड़ा एहसास होने लगता है,

और कहीं न कहीं

इनकी उड़ान कुछ कम होने लगती है…

 

पचास के पास पहुँचने तक,

इन आँखों ने

बहुत दुनिया देख ली होती है,

और इनका मचलनापन

बिलकुल ख़त्म हो जाता है

और होने लगती हैं वो

स्थिर सी!

 

और फिर

कुछ साल बाद

यही आँखें

एकदम पत्थर सी होने लगती हैं,

जैसे यह आँखें नहीं,

एक कब्रिस्तान हों

और सारी ख्वाहिशों की लाश

उनमें गाड़ दी गयी हो…

 

सुनो,

तुम अपनी आँखों को

कभी कब्रिस्तान मत बनने देना,

तुम अपने जिगर में

जला लेना एक अलाव

जो तुम्हारे ख़्वाबों को

धीरे-धीरे सुलगाता रहेगा

और तुम्हारी आँखें भी हरदम रहेंगी

रौशनी से भरपूर!

© नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। वर्तमान में  आप जनरल मैनेजर (विद्युत) पद पर पुणे मेट्रो में कार्यरत हैं।)

 

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जीवन यात्रा -डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

 

 

 

 

आज मैं आपको एक अत्यन्त साधारण एवं मिलनसार व्यक्तित्व के धनी  मेरे अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सुरेश कुशवाहा जी से उनके ही शब्दों के माध्यम से मिलवाना चाहता हूँ।

उनका परिचय या आत्मकथ्य उनके ही शब्दों मेँ –    

अन्तस में जीवन के अनसुलझे,

सवाल कुछ पड़े हुये हैं

बाहर निकल न पाये,

सहज भाव के ताले जड़े हुये हैं।

 

फिर भी इधर-उधर से

कुछ अक्षर बाहर आ जाते हैं,

कविताओं में परिवर्तित,

हम जंग स्वयं से लड़े हुये हैं।

 

अनुभव चिन्तन मनन,

रोजमर्रा की आपाधापी में

अक्षर बन जाते विचार,

मन की इस खाली कॉपी में,

 

कई विसंगत बातें,

आसपास धुंधुवाती रहती है,

तेल दीये का बन जलते,

संग जलने वाली बाती में।

 

अ आ ई से क ख ग तक,

बस इतना है ज्ञान मुझे

कवि होने का मन में आया

नहीं कभी अभिमान मुझे

 

मैं जग में हूं जग मुझमें है,

मुझमें कई समस्याएं हैं,

इन्हीं समस्याओं पर लिखना,

इतना सा है भान मुझे।

 

अगर आपको लगे,

अरे! ये तो मेरे मन की बातें हैं

या फिर पढ़कर अच्छे बुरे

विचार ह्रदय में जो आते हैं,

 

हो निष्पक्ष सलाह आपकी,

भेजें मेरे पथ दर्शक बन

आगे भी लिख सकूं,

कीमती ये ही मुझको सौगातें हैं।

 

आपकी प्रिय विधा है – साहित्य।

डॉ सुरेश जी के शब्दों मेँ –

जैसा दिखा वैसा लिखा, कहीं मीठा कहीं तीखा।

उपर्युक्त पंक्ति के अनुसार ही मेरा प्रयास रहा है कि कविता एवं लघुकथा विधाओं में अपने विचार तथा मनोभावों को प्रगट कर सकूं। साहित्य के प्रति बचपन से ही अभिरूचि रही, घर में पठन-पाठन का अनुकूल वातावरण था। बचपन में ही पिताजी के माध्यम से गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित अनेक किताबों व ग्रंथों को पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस प्रकार साहित्य के प्रति लगाव बढ़ता गया। वर्ष 1969 से छिटपुट लेखन तुकबंदियों के रूप में प्रारंभ हुआ, प्रोत्साहन के फलस्वरूप लेखन के प्रति गंभीरता बढ़ती गई और मुख्य झुकाव छांदस कविता के प्रति हुआ। वर्ष 1971 से भोपाल में नौकरी के दौरान कवि-गोष्ठियों के माध्यम से आकाशवाणी भोपाल से कविताओं का प्रसारण एवं स्थानीय अखबारों में प्रकाशन” का सिलसिला प्रारंभ हुआ, जो आज तक अनवरत रूप से जारी है।

मुख्य रूप से साहित्य में काव्य विधा में प्रमुख रूप से गीत व लघुकथा के माध्यम से वैचारिक अभिव्यक्ति सृजित होती रही। मुझे लगता है कि जहां कविता के माध्यम से रूपक व अलंकारों के द्वारा रचनाकार अपनी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति देता है वहीं लघुकथा के द्वारा कम शब्दों में बड़ी बात सरलता से कह दी जाती है। यूं तो साहित्य की सभी विधाओं का व्यापक क्षेत्र है तथा सभी का अपना महत्व है, फिर भी मेरी प्रिय विधाओं में गीत काव्य एवं लघुकथा सम्मिलित है।

विशेषआपकी एक लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा  9  की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित है।

यह परिचय डॉ सुरेश ‘तन्मय’ जी की मात्र साहित्यिक आत्माभिव्यक्ति है। विस्तृत परिचय हमारे Authors लिंक पर उपलब्ध है। 

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सफरनामा-नर्मदा घाटी का ऐतिहासिक महत्व-3 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा घाटी का ऐतिहासिक महत्व – 3 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

सनातनी हिंदुओं के लिए नर्मदा नदी का धार्मिक महत्व है क्योंकि परम्परा में जल को देवता और नदियों को देवियाँ मानकर पूजा जाता रहा है। प्रकृति और पंचभूत अन्योनाश्रित हैं। प्रकृति है तो पंचभूत हैं और पंचभूत हैं तो प्रकृति है। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश हमारे आभासी ब्रह्माण्ड में हैं और मानव देह समस्त ब्रह्माण्ड को अपने भीतर समेटे हुए है इसलिए प्रथम कृति नियंता की प्र+कृति है। इसी में से आना है और इसी में समा जाना है। हिंदू मान्यता के अनुसार पुरुष का एक अंश आत्मा रूप में प्रकृति में जीव की संरचना करता है तब जीव जगत अस्तित्व में आता है।

प्रकृति के अंगों का अध्ययन प्राकृतिक भूगोल कहलाता है। भूगोल मनुष्य के खान-पान रहन-सहन सोच-विचार से संस्कृति का निर्माण करता है जैसे यूरोप में ईसाई संस्कृति, अरब में मुस्लिम संस्कृति, चीन-जापान में बौद्ध संस्कृति और भारत में हिंदू संस्कृति। संस्कृति के निर्माण के कई दौर चलते है उनमें आध्यात्म और राजनीति के घोर संघर्ष होते हैं। उन संघर्षों को हम इतिहास कहने लगे। इस प्रकार हम आज जो भी कुछ हैं अपने भूगोल और इतिहास की उपज हैं। हमारे पितरों में हमारा भूगोल और इतिहास अविच्छिन्न रूप से समाहित था इसलिए पितरों को पूज कर हम अपनी परम्परा को सम्मान देते हैं।

इसी सांस्कृतिक संदर्भ में जब हम नर्मदा घाटी का इतिहास देखते हैं तो विस्मयकारी जानकारी हमारे हाथ लगती है। करोड़ों साल पहले जब पृथ्वी सूर्य से आग के गोले के रुप में छिटक कर ठंडी होने लगी तब ऊपर की परत ठंडी होकर कड़क ज़मीन में बदल गई परंतु अंदर गहराई में गर्म लावा धधकता रहा। वह लावा कई जगहों से ऊपर आया, जिस कारण से पृथ्वी पर पर्वतों का निर्माण हुआ था। ऐसी ही प्रक्रिया में हिमालय, विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत अस्तित्व में आए। हिमालय से सात बड़ी नदियाँ काबुल, सिंध, रावी, चिनाब, झेलम, सतलज और व्यास पश्चिम की तरफ़ दौड़ चलीं और गंगा व यमुना पूर्व की तरफ़ चल पड़ीं थीं। बीच में असंख्य झरने, श्रोते और छोटी नदियाँ ने उनमें मिलकर पंजाब और दोआब का सबसे उपजाऊ इलाक़ा बना दिया। यहीं भारतीय संस्कृति का अभ्युदय और विकास हुआ।

अमरकण्टक के पठार से कैमोर से आता विंध्याचल पश्चिम की तरफ़ मुंड गया जो शहडोल उमरिया कटनी के किनारे से होता हुआ दमोह जिले को छूकर सागर रायसेन सीहोर देवास इंदौर झाबुआ से गुजरात में निकल गया। दूसरी तरफ़ सतपुड़ा पर्वत माला डिंडोरी मंडला जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद हरदा खंडवा खरगोन होते हुए महाराष्ट्र निकल गई। इन दो पर्वत शृंखलाओं के बीच एक 1400 किलोमीटर लम्बी घाटी बन गई। जिसमें विंध्याचल-सतपुड़ा दोनों से चालीस बड़ी और असंख्य छोटी नदियों और झरनो से नर्मदा घाटी का निर्माण किया।

इस नर्मदा घाटी में सरीसृप के फ़ॉसिल्ज़ और आदिमानव की गुफाएँ मिलीं हैं। जिसका मतलब है कि आदिमानव के साथ ड़ायनासोर जैसे सरीसृप रहा करते थे। जब आर्य आए तो वे अफ़ग़ानिस्तान से घुसकर पंजाब से सीधे गंगा-यमुना के दोआब में बसते चले गए। नर्मदा घाटी सघन वन आच्छिदित थी। दोनों पर्वतों के बीच से चुपचाप बहती रही। जिसमें आदिवासी जंगली जानवरों के साथ रहते रहे। आर्य-द्रविड़ संग्राम के दौरान भी द्रविड़ नर्मदा घाटी के आजु-बाजु से दक्षिण की तरफ़ खिसक लिए। राम भी जब गोदावरी के तट पर आज के नासिक पहुँचे तो वे भी कौशल से आज के छत्तीसगढ़ होते हुए गए थे। कृष्ण भी मथुरा से टीकमगढ़ अशोकनगर उज्जैन से सीधे द्वारका चले गए थे। इस प्रकार नर्मदा घाटी में आदिवासियों का एकक्षत्र राज्य रहा आया। महाभारत काल में कई राक्षस राजाओं ने नर्मदा घाटी से आकर महायुद्ध में दोनों पक्षों की तरफ़ से भाग लिया था। लेकिन नर्मदा घाटी में तब तक कोई बड़ी बसावट नहीं हुई थी।

पुराणों में आर्य-अनार्य संघर्षों के प्रमाण मिलते हैं। जब आर्य भारत के मैदानी क्षेत्रों में आए तब अनार्य उत्तर से दक्षिण की तरफ़ खिसकना शुरू हुए थे। उन्हें अपनी आदिम संस्कृति पसंद थी। जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे। आर्य उन्हें परिष्कृत करके अपने जैसा बनाना चाहते थे।

बहुत से अनार्य उन जैसे बन कर उनमें घुलमिल गए लेकिन कुछ लोगों ने तय किया कि वे अपनी संस्कृति की रक्षा करेंगे। आर्यों ने उन्हें राक्षस कह कर सम्बोधित किया। राक्षसों में मानव बलि और नरमांस सेवन आम बात थी। भीम ने जब हिडिंबा से शादी करके घटोत्कच पैदा किया था तब बाक़ी चार पांडव कुंती के साथ पेड़ों पर घर बनाकर रात गुज़ारते थे। भीम ने उनकी राक्षसों से रक्षा हेतु सुरक्षित व्यवस्था कर रखी थी।

जैसे-जैसे आर्य मैदानी हिस्सों में अपने राज्य स्थापित करते चले गए वैसे-वैसे आदिवासी विंध्याचल-सतपुड़ा पर्वतों में आवासित होते गए। शिवपुराण में एक बांणासुर राक्षस का ज़िक्र आता है वह शोणितपुर को राजधानी बनाकर इन पहाड़ों में रहता था। जिसकी पुत्री का प्रेम प्रसंग कृष्ण के पुत्र से हो गया था तब कृष्ण ने उसका वध करके अपने पुत्र को वहाँ का शासक नियुक्त किया था। इस प्रकार आर्य धीरे-धीरे इन पहाड़ों में प्रवेश करते रहे थे।

दसवीं से बारहवीं सदी के बीच महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी के आक्रमण के बाद उत्तर भारत और पश्चिमी भारत से हिंदुओं का पलायन हुआ तब उन्होंने इन पहाड़ों के बीच में नर्मदा घाटी में शरण लेना शुरू किया। यह दौर कई सौ सालों तक चला।

उत्तर से लोधी, रघुवंशी, पश्चिम से गूज़र, कन्नौज से ब्राह्मण, उत्तर से ही बनिया और उनके साथ तेली, लोहार, चमार, बसोड और अन्य जातियाँ नर्मदा के किनारे आकर बसने लगी थीं। तभी से नर्मदा घाटी आबाद होने लगी थी।

(कल आपसे साझा करेंगे नर्मदा की असफल प्रेम कथा। )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा नदी का प्राकृतिक विवरण-2 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा नदी का प्राकृतिक विवरण-2 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

उद्गम – मेकल पर्वत श्रेणी, अमरकंटक
समुद्र तल से ऊंचाई – 1051 मीटर
म.प्र में प्रवाह – 1079 किमी
कुल प्रवाह (लम्बाई) – 1312 किमी
नर्मदा बेसिन का कुल क्षेत्रफल – 98496 वर्ग किमी
राज्य – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात
विलय – भरूच के आगे खंभात की खाड़ी

सनातन मान्यता।
नर्मदा जी वैराग्य की अधिष्ठात्री है
गंगा जी ज्ञान की,
यमुना जी भक्ति की,
ब्रह्मपुत्रा तेज की,
गोदावरी ऐश्वर्य की,
कृष्णा कामना की और
सरस्वती जी विवेक के प्रतिष्ठान की।

सनातन परम्परा में सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है। श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है। नर्मदा तटवासी माँ नर्मदा के करुणामय व वात्सल्य स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बडी श्रद्धा से पैदल चलते हुए इनकी परिक्रमा करते हैं। अनेक देवगणों ने नर्मदा तत्व का अवगाहन ध्यान किया है। ऐसी एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हीं नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिग आदि स्थापित हैं। जिनकी महत्ता चहुँ ओर फैली है।

परिक्रमा वासी लगभग तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं। परिक्रमा प्रारंभ् श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ् होती है।

नर्मदा की इसी ख्याति के कारण यह विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है । प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है । यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी ।

व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं । आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है ।

पैदल परिक्रमा का आनंद सबसे अलग है। पैदल परिक्रमा अखंड और खंड दो प्रकार से ली जाती है। जो लोग 3 साल, 3 महीना और 13 दिन का समय एक साथ नहीं निकल सकते वे कई टुकड़ों में परिक्रमा कर सकते हैं।

मोह सुविधा की सगी बहन है। सुविधा मिली नहीं कि मोह का बंधन इस आशा से बँधने लगता है कि यह सुविधा छोड़कर न जाए। मोह के साथ एक असुरक्षा बोध भी आता है कि सुविधा छूट न जाए।

वैराग्य असुविधा और अनिश्चित्ता का अनुगामी है। सुविधा-असुविधा के विचार से परे होकर अपने आप को नर्मदा को सौंप देना धीरे-धीरे मोह को ढीला करना है।

जे विधि राखे ते विधि रहिए।

 

 

 

 

नर्मदा परिक्रमा:लम्हेंटा घाट।

नर्मदा का उद्गम मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले (पुराने शहडोल जिले का दक्षिण-पश्चिमी भाग) में स्थित अमरकण्टक के पठार पर लगभग 22*40 अंश उत्तरी अक्षांश तथा 81*46 अंश पूर्वी देशान्तर पर एक कुण्ड में है । यह स्थान सतपुडा तथा विंध्य पर्वतमालाओं को मिलने वाली उत्तर से दक्षिण की ओर फैली मैकल पर्वत श्रेणी में समुद्र तल से 1051 मी0 ऊंचाई पर स्थित है । अपने उद्गम स्थल से उत्तर-पश्चिम दिशा में लगभग 8 कि0मी0 की दूरी पर नर्मदा 25 मी0 ऊंचाई से अचानक नीचे कूद पडती है जिससे ऐश्वर्यशाली कपिलधारा प्रपात का निर्माण होता है।

इसके बाद लगभग 75 कि0मी0 तक नर्मदा पश्चिम और उत्तर-पश्चिम दिशा में ही बहती है । अपनी इस यात्रा में आसपास के अनेक छोटे नदी-नालों से पानी बटोरते-सहेजते नर्मदा सशक्त होती चलती है ।

डिंडोरी तक पहुंचते-पहुंचते नर्मदा से तुरर, सिवनी, मचरार तथा चकरार आदि नदियाँ मिल जाती हैं । डिंडोरी के बाद पश्चिमी दिशा में बहने का रूझान बनाए हुए भी नर्मदा सर्पाकार बहती है । अपने उद्गम स्थल से 140 कि0मी0 तक बह चुकने के बाद मानों नर्मदा का मूड बदलता है और वह पश्चिम दिशा का प्रवाह छोडकर दक्षिण की ओर मुड जाती है ।

इसी दौरान एक प्रमुख सहायक नदी बुढनेर का नर्मदा से संगम हो जाता है । दक्षिण दिशा में चलते-चलते नर्मदा को मानों फिर याद आ जाता है कि वह तो पश्चिम दिशा में जाने के लिए घर से निकली थी अतः वह वापस उत्तर दिशा में मुडकर मण्डला नगर को घेरते हुए एक कुण्डली बनाती है ।

मण्डला में दक्षिण की ओर से आने वाली बंजर नदी इससे मिल जाती है जिससे चिमटे जैसी आकृति का निर्माण होता है । यहाँ ऐसा लगता है कि नर्मदा बंजर से मिलने के लिए खुद उसकी ओर बढ गई हो और मिलाप के तुरंत बाद वापस अपने पुराने रास्ते पर चल पडी हो । इसके बाद नर्मदा मोटे तौर पर उत्तर की ओर बहती है । जबलपुर के पहले नर्मदा पर बरगी बांध बन जाने के बाद यहां विशाल जलाशय का निर्माण हो गया है ।

यह लम्हेंटा घाट है जहाँ भू विज्ञानियों को प्रस्तर युग के जीवों डायनोसार के फ़ॉसिल्ज़ मिले हैं आदि मानव यहाँ रहते आए थे।

(कल आपसे साझा करेंगे नर्मदा नदी के ऐतिहासिक महत्व से जुड़ी जानकारियाँ । )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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संस्मरण-यादें: भूली-बिसरी – इन्दल – श्री संतोष रावत

यादें: भूली-बिसरी – इन्दल

‘मे आई कम इन सर’ सुनते ही पूरी क्लास का ध्यान दरवाजे की ओर गया और एक ही क्षण में शिक्षक की ओर। शिक्षक की ओर से कोई उत्तर नहीं। उन्होनें अपना रूल उठाया और दरवाजे की ओर खुद ही बढ़ चले।

दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ रहा था क्लास में पिछली सीट पर बैठा इन्दल। गले से मफलर निकाल कर दोनों हथेलियों पर लपेटा, यह सोच कर कि भरी ठंड में रूल से मार खाई हथेलियों को आपस में रगड़ने से और मफलर की गर्माहट से दर्द से शीघ्र आराम मिल जाएगा।

पूरी क्लास स्तब्ध। कभी इन्दल के रुआंसे चेहरे की ओर देखती, कभी ब्लैक बोर्ड के सामने बैठे शिक्षक को।

इन्दल हमारे साथ पढ़ता था। वैसे उसका नाम इंदर था। समाज में निम्न जाति का कहलाने वाला यह क्लास के सभी छात्रों से ज्यादा तगड़ा था। ऊंचा कद, सीधा होकर चलने वाला यह क्लास में सबसे बड़ा दिखता था। हालांकि उम्र में वह हमारे जितना ही बड़ा था। जहां हम निकर पहनते, वह अपने ऊंचे कद, लंबे हाथ-पैर की वजह से बड़ी मोहरी का पायजामा पहनता था। सातवीं कक्षा (सन 1967) में पढ़ने वाले हम छात्रों के बीच वह अपनी कद-काठी के कारण ग्यारहवीं का छात्र लगता था।

श्री रामनारायण दुबे जी, जो आर. एन. दद्दा (होशंगाबाद में डॉ. सीठा के पास जिनका निवास स्थान था) के नाम से प्रसिद्ध थे, हमें अंग्रेजी विषय पढ़ाते थे। सफेद झक्क धोती-कुर्ता पहनने वाले, सीधी कमर कर और कंधों को चौड़ा कर तेज कदमों से चलने वाले, रोबीले व्यक्तित्व के दद्दा जब एस. एन. जी. स्कूल में जब भी कोई क्लास लेते थे तो उस क्लास में पूर्ण अनुशासन रहता था। उनका पीरियड होता था तो समय पूर्व क्लास में पहुंच जाते थे और साथ ही अपनी कॉपी पुस्तक आदि तैयार रखते थे। जब वे क्लास लेते थे तो उनकी क्लास के सामने से स्कूल का कोई छात्र आपस में बात करते हुए और चलते समय जूते-चप्पल की आवाज करते हुए नहीं निकलता था।

समय के पाबन्द थे दद्दा। छात्रों को एकाग्रता, समय की पाबंदी, अनुशासन की शिक्षा उदाहरण सहित देते थे। सबसे ज्यादा जोर वे सत्य बोलने के लिए देते थे, हम छात्रों को। उनकी क्लास में आपस में बातचीत करना, समय पश्चात आना दंडनीय था। यही कारण था कि इन्दल को क्लास प्रारंभ होने के बाद आने की सजा मिली थी।

पूरी क्लास शान्त। इन्दल सिर झुकाए शान्त। कुर्सी पर बैठे दद्दा शान्त।

कुछ देर बाद दद्दा की तेज आवाज गूंजी – जानते हो अकेले तुम्हारे कारण पूरी क्लास को पढ़ाई का नुकसान हुआ है। ठंड में यदि ये सभी समय से आ सकते है तो तुम क्यों नहीं आ सकते हो? बोलों, सच-सच बोलों क्यों देर हुई?

इन्दल कांपते हुए अपनी जगह पर खड़ा हुआ और बोला- सर, मेरे पिताजी नहीं चाहते कि मैं पढ़ाई करूँ और न ही वे किताब-कापियों, फीस आदि के पैसे देते हैं। किंतु, मैं पढ़ना चाहता हूँ। इसलिए मैं टाकीज में गेटकीपर की नौकरी करता हूँ। (याद करें होशंगाबाद में उन दिनों एक ही टाकीज हुआ करती थी – बसंत टाकीज और वहां से कंजर मोहल्ला नजदीक था)। सर, रोज रात को बारह बजे तक घर आ जाता हूं।  किन्तु, कल फिल्मों के पोस्टर आदि चिपकाने में समय ज्यादा हो गया और आज मेरी नींद समय पर नहीं खुल पाई। यह कहते रुआंसा हो गया था इन्दल।

इन्दल बोल रहा था। क्लास की दीवारों से टकराकर उसकी आवाज प्रतिध्वनि के रूप में हमारे कानों में गूंज रही थी।

कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। फिर दद्दा खड़े हुए। झुके कंधों, बोझिल कदमों से चलते हुए इन्दल के पास पहुंचे और उसके सिर पर हाथ रखकर अपने से चिपका लिया। इन्दल सुबक रहा था। दद्दा अपनी आँखों को हथेली से पोंछ रहे थे। हम छात्रों में कुछ के आँसू आ गए थे और कुछ की आँखें पनिया गई थी।

दद्दा उसके कंधों पर हाथ रखे अपने साथ बोर्ड तक लाये और हमसे कहा – तुमको सिखाने वाला मैं आज एक बात सीखा- किसी को बिना कारण जाने सजा नहीं देना चाहिए। अब कोई विद्यार्थी बिना कारण जाने मुझसे सजा नही पायेगा। कौन जाने किसी का कारण इन्दल जैसा हो। मैं अपने इस कृत्य के लिए दुःखी हूँ।

सातवीं क्लास के छात्रों के सामने एक शिक्षक अपनी गलती स्वीकार करें इससे बड़ी महानता और क्या हो सकती है! और इन्दल, जो कद-काठी, ऊंचाई, चौड़े सीने के कारण हमारी क्लास में सबसे बड़ा दिखता था, वह अब हमें अपने स्कूल में सबसे ‘बड़ा’ लगने लगा।

इतने वर्षों बाद भी यह घटना मुझे प्रायः याद आती रहती है। सातवीं कक्षा का एक छात्र, स्वयं नौकरी कर अपनी पढ़ाई कर रहा हो, यह सन 1967 में कोई सोच भी नहीं सकता था। हमारी क्लास में भी किसी को नहीं मालूम था कि इन्दल नौकरी करते हुए पढ़ाई कर रहा है।

अब कहाँ है इन्दल मुझे नहीं  मालूम।

क्या आप में से किसी को मालूम है?

©  सन्तोष रावत

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संस्मरण-चुटका परमाणु घर – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

चुटका परमाणु घर 

बीस साल पहले मैं स्टेट बैंक की नारायणगंज (जिला – मण्डला) म. प्र. में शाखा प्रबंधक था। बैंक रिकवरी के सिलसिले में बियाबान जंगलों के बीच बसे चुटका गांव में जाना हुआ था आजीवन कुंआरी कलकल बहती नर्मदा के किनारे बसे छोटे से गांव चुटका में फैली गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता देखकर मन द्रवित हुआ था और आज संस्मरण लिखने का अचानक मन हो गया। चुटका गांव की आंगन में रोटी सेंकती गरीब छोटी सी बालिका ने ऐसी प्रेरणा दी कि हमारे दिल दिमाग पर चुटका के लिए कुछ करने का भूत सवार हो गया। उस गरीब बेटी के एक वाक्य ने इस संस्मरणात्मक कहानी को जन्म दिया।

आफिस से रोज पत्र मिल रहे थे,……. रिकवरी हेतु भारी भरकम टार्गेट दिया गया था । कहते है – ”वसूली केम्प गाँव -गाँव में लगाएं, तहसीलदार के दस्तखत वाला वसूली नोटिस भेजें ….. कुर्की करवाएं ……और दिन -रात वसूली हेतु गाँव-गाँव के चक्कर लगाएं, … हर वीक वसूली के फिगर भेजें,…. और ‘रिकवरी -प्रयास ‘ के नित-नए तरीके आजमाएँ ………. । बड़े साहब टूर में जब-जब आते है ….. तो कहते है – ”तुम्हारे एरिया में २६ गाँव है, और रिकवरी फिगर २६ रूपये भी नहीं है, धमकी जैसे देते है …….कुछ नहीं सुनते है, कहते है – कि पूरे देश में सूखा है … पूरे देश में ओले पड़े है ….. पूरे देश में गरीबी है ……हर जगह बीमारी है पर हर तरफ से वसूली के अच्छे आंकड़े मिल रहे है और आप बहानेबाजी के आंकड़े पस्तुत कर रहे है, कह रहे है की आदिवासी इलाका है गरीबी खूब है ………….कुल मिलाकर आप लगता है की प्रयास ही नहीं कर रहे है …….आखें तरेर कर न जाने क्या -क्या धमकी ……… ।

तो उसको समझ में यही आया की वसूली हेतु बहुत प्रेशर है और अब कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा …….. सो उसने चपरासी से वसूली से संबधित सभी रजिस्टर निकलवाये , ….. नोटिस बनवाये … कोटवारों और सरपंचों की बैठक बुलाकर बैंक की चिंता बताई । बैठक में शहर से मंगवाया हुआ रसीला -मीठा, कुरकुरे नमकीन, ‘फास्ट-फ़ूड’ आदि का भरपूर इंतजाम करवाया ताकि सरपंच एवम कोटवार खुश हो जाएँ … बैठक में उसने निवेदन किया कि अपने इलाका का रिकवरी का फिगर बहुत ख़राब है कृपया मदद करवाएं, बैठक में दो पार्टी के सरपंच थे …आपसी -बहस ….थोड़ी खुचड़ और विरोध तो होना ही था, सभी का कहना था की पूरे २६ गाँव जंगलों के पथरीले इलाके के आदिवासी गरीब गाँव है, घर-घर में गरीबी पसरी है फसलों को ओलों की मार पड़ी है …मलेरिया बुखार ने गाँव-गाँव में डेरा डाल रखा है ,….. जान बचाने के चक्कर में सब पैसे डॉक्टर और दवाई की दुकान में जा रहा है ….ऐसे में किसान मजदूर कहाँ से पैसे लायें … चुनाव भी आस पास नहीं है कि चुनाव के बहाने इधर-उधर से पैसा मिले …….. सब ने खाया पिया और “जय राम जी की”कह के चल दिए और हम देखते ही रह गए ……. ।

दूसरे दिन उसने सोचा – सबने डट के खाया पिया है तो खाये पिए का कुछ तो असर होगा, थोड़ी बहुत वसूली तो आयेगी …….. यदि हर गाँव से एक आदमी भी हर वीक आया तो महीने भर में करीब 104  लोगों से वसूली तो आयेगी ऐसा सोचते हुए वह रोमांचित हो गया ….. उसने अपने आपको शाबासी दी ,और उत्साहित होकर उसने मोटर सायकिल निकाली और “रिकवरी प्रयास”’ हेतु वह चल पड़ा गाँव की ओर ………… जंगल के कंकड़ पत्थरों से टकराती ….. घाट-घाट कूदती फांदती … टेडी-मेढी पगडंडियों में भूलती – भटकती मोटर साईकिल किसी तरह पहुची एक गाँव तक ……… ।

सोचा कोई जाना पहचाना चेहरा दिखेगा तो रोब मारते हुए “रिकवरी धमकी” दे मारूंगा, सो मोटर साईकिल रोक कर वह थोडा देर खड़ा रहा, फिर गली के ओर-छोर तक चक्कर लगाया …………. वसूली रजिस्टर निकलकर नाम पड़े ………… बुदबुदाया …….उसे साहब की याद आयी …..फिर गरीबी को उसने गालियाँ बकी………पलट कर फिर इधर-उधर देखा ……..कोई नहीं दिखा। गाँव की गलियों में अजीब तरह का सन्नाटा और डरावनी खामोशी फैली पडी थी, कोई दूर दूर तक नहीं दिख रहा था, ………… ।

कोई नहीं दिखा तो सामने वाले घर में खांसते – खखारते हुए वह घुस गया, अन्दर जा कर उसने देखा ….दस-बारह साल की लडकी आँगन के चूल्हे में रोटी पका रही है, रोटी पकाते निरीह …… अनगढ़ हाथ और अधपकी रोटी पर नजर पड़ते ही उसने ”धमकी” स्टाइल में लडकी को दम दी ……. ऐ लडकी! तुमने रोटी तवे पर एक ही तरफ सेंकी है, कच्ची रह जायेगी ? ……………. लडकी के हाथ रुक गए, … पलट कर देखा, सहमी सहमी सी बोल उठी ………… बाबूजी रोटी दोनों तरफ सेंकती तो जल्दी पक जायेगी और जल्दी पक जायेगी तो ……. जल्दी पच जायेगी ….फिर और आटा कहाँ से पाएंगे …..?

वह अपराध बोध से भर गया …… ऑंखें नम होती देख उसने लडकी के हाथ में आटा खरीदने के लिए 100 का नोट पकड़ाया … और मोटर सायकिल चालू कर वापस बैंक की तरफ चल पड़ा ……………..।

रास्ते में नर्मदा के किनारे अलग अलग साइज के गढ्ढे खुदे दिखे तो जिज्ञासा हुई कि नर्मदा के किनारे ये गढ्ढे क्यों? गांव के एक बुजुर्ग ने बताया कि सन् 1983 में यहां एक उड़न खटोले से चार-पांच लोग उतरे थे गढ्ढे खुदवाये और गढ्ढों के भीतर से पानी मिट्टी और थोड़े पत्थर ले गए थे और जाते-जाते कह गए थे कि यहां आगे चलकर बिजली घर बनेगा। बात आयी और गई और सन् 2006 तक कुछ नहीं हुआ हमने शाखा लौटकर इन्टरनेट पर बहुत खोज की चुटका परमाणु बिजली घर के बारे में पर सन् 2005 तक कुछ जानकारी नहीं मिली। चुटका के लिए कुछ करने का हमारे अंदर जुनून सवार हो गया था जिला कार्यालय से छुटपुट जानकारी के आधार पर हमने सम्पादक के नाम पत्र लिखे जो हिन्दुस्तान टाइम्स, एमपी क्रोनिकल, नवभारत आदि में छपे। इन्टरनेट पर पत्र डाला सबने देखा सबसे ज्यादा पढ़ा गया….. लोग चौकन्ने हुए।

हमने नारायणगंज में “चुटका जागृति मंच” का निर्माण किया और इस नाम से इंटरनेट पर ब्लॉग बनाकर चुटका में बिजली घर बनाए जाने की मांग उठाई। चालीस गांव के लोगों से ऊर्जा विभाग को पोस्ट कार्ड लिख लिख भिजवाए। तीन हजार स्टिकर छपवाकर बसों ट्रेनों और सभी जगह के सार्वजनिक स्थलों पर लगवाए। चुटका में परमाणु घर बनाने की मांग सबंधी बच्चों की प्रभात फेरी लगवायी, म. प्र. के मुख्य मंत्री के नाम पंजीकृत डाक से पत्र भेजे। पत्र पत्रिकाओं में लेख लिखे। इस प्रकार पांच साल ये विभिन्न प्रकार के अभियान चलाये गये।

जबलपुर विश्वविद्यालय के एक सेमिनार में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ काकोड़कर आये तो “चुटका जागृति मंच” की ओर से उन्हें ज्ञापन सौंपा और व्यक्तिगत चर्चा की उन्होंने आश्वासन दिया तब उम्मीदें बढ़ीं। डॉ काकोड़कर ने बताया कि वे भी मध्यप्रदेश के गांव के निवासी हैं और इस योजना का पता कर कोशिश करेंगे कि उनके रिटायर होने के पहले बिजलीघर बनाने की सरकार घोषणा कर दे और वही हुआ लगातार हमारे प्रयास रंग लाये और मध्य भारत के प्रथम परमाणु बिजली घर को चुटका में बनाए जाने की घोषणा हुई।

मन में गुबार बनके उठा जुनून हवा में कुलांचे भर गया। सच्चे मन से किए गए प्रयासों को निश्चित सफलता मिलती है इसका ज्ञान हुआ। बाद में भले राजनैतिक पार्टियों के जनप्रतिनिधियों ने अपने अपने तरीके से श्रेय लेने की पब्लिसिटी करवाई पर ये भी शतप्रतिशत सही है कि जब इस अभियान का श्रीगणेश किया गया था तो इस योजना की जानकारी जिले के किसी भी जनप्रतिनिधि को नहीं थी और जब हमने ये अभियान चलाया था तो ये लोग हंसी उड़ा रहे थे। पर चुटका के आंगन में कच्ची रोटी सेंकती वो सात-आठ साल की गरीब बेटी ने अपने एक वाक्य के उत्तर से ऐसी पीड़ा छोड़ दी थी कि जुनून बनकर चुटका में परमाणु बिजली घर बनने का रास्ता प्रशस्त हुआ। वह चुटका जहां बिजली के तार नहीं पहुंचे थे आवागमन के कोई साधन नहीं थे, जहां कोई प्राण छोड़ देता था तो कफन का टुकड़ा लेने तीस मील पैदल जाना पड़ता था। मंथर गति से चुटका में परमाणु बिजली घर बनाने का कार्य चल रहा है। प्रत्येक गरीब के घर से एक व्यक्ति को रोजगार देने कहा गया है जमीनों के उचित दाम गरीबों के देने के वादे हुए हैं वहां से बनी बिजली से मध्य भारत के जगमगाने की उम्मीदें कब पूरी होगीं चुटका का वो टीला इस इंतजार में है।

© श्री जय प्रकाश पांडेय

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

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जीवन-यात्रा-पं. आयुष कृष्ण नयन – श्री दिनेश नौटियाल

पं॰ आयुष कृष्ण नयन

मुझे उन लोगों के जीवन वृत्तान्त सदैव ही विस्मित करते रहे हैं, जिन्होने लीक से हट कर कुछ नया किया है।

आज मैं जिस अभिव्यक्ति के स्वरूप एवं व्यक्तित्व की चर्चा करने जा रहा हूँ वह है “कथा वाचन”। यहाँ मैं आपसे  साझा कर रहा हूँ जानकारी, एक साधारण गाँव  के एक विलक्षण प्रतिभा के  धनी बालक की  जो  मात्र   10 वर्ष की आयु से श्रीमदभागवत, रामायण, महाभारत, शिवपुराण आदि ग्रन्थों का कथावाचक है। वह श्लोकों की संदर्भ सहित व्याख्या करने की क्षमता रखता है, तो निःसन्देह कोई इसे चमत्कार की संज्ञा देगा और कोई ईश्वर की अनुकम्पा या गॉड गिफ्ट कहेगा।

मैं अध्ययन करने की इस वैज्ञानिक/मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को उस विलक्षण प्रतिभा के धनी बालक की निर्मल हृदय से धार्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञानार्जन की भावना, अन्तर्मन की एकाग्रता से कुछ सीखने का प्रयास, ईश्वर के प्रति समर्पण, परिवार के संस्कार के अतिरिक्त ईश्वर के आशीर्वाद को नकार नहीं सकता। 

(पं॰ आयुष कृष्ण नयन जी का जीवन वृत्तान्त उनके पिता श्री दिनेश नौटियाल जी  की  ही कलम से अक्षरशः लेने का पूर्ण प्रयास है।श्री  दिनेश जी  उत्तराखंड के एक विद्यालय में शिक्षक हैं । यह लेख कतिपय विज्ञापन नहीं है। )

आपका जन्म 05.03.2006 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद के अन्तर्गत अंतर्गत यमुनोत्तरी  धाम के निकट देवराना घाटी श्री रुद्रेश्वर महादेव की पावन धर्मस्थली के कण्डाउ ग्राम के सारी नामक एक गौशाला में हुआ। आपकी माता श्रीमती नीलम नौटियाल को गर्भावस्था के दौरान देहरादून डॉक्टर के पास ले जाते वक्त अत्यधिक प्रसवपीड़ा के कारण गौशाला में ही ठहराया गया जिसमें आपका जन्म हुआ। स्थानीय प्रथानुसार जहां जन्म होता है वहीं 21 दिन व्यतीत करने होते हैं। अतः उसी गौशाला में 21 गायों के मध्य आप 21 दिनों तक रहे। तत्पश्चात अपने गाँव कण्डाउ में वापस आ गए। जीवन बढ़ता गया। बचपन से ही भगवान की मूर्तियों पर आपकी दृष्टि टिकी रहती थी। ईश्वर की कृपा से घर पर मांगलिक कार्यक्रम तथा सुख शान्ति के साथ परिवार बहुत अच्छी प्रकार से आगे बढ्ने लगा। अन्न-धन घर में आने लगा, साथ ही पहले परिवार की दयनीय स्थिति थी उसमे भी सुधार होने लगा। आपकी माता गर्भावस्था के दौरान धार्मिक कार्यक्रमों, पूजा-पाठ व पुराणों में बहुत रुचि लेतीं थी। वे अपने ससुर पंडित श्री महिमानन्द नौटियाल जी से वेदों, पुराणों की कथा निरन्तर सुना करती थी। आपके पिता श्री दिनेश नौटियाल एक शिक्षक होने के साथ-साथ पूजा-पाठ में भी बहुत रुचि लेते थे। आपके जन्म के 2 वर्ष पश्चात आपको एक सर्प के साथ खेलते देखा तो सभी लोग भौंचक्के रह गए।

समय बीतता गया। आप जैसे ही 3 वर्ष के हुए तो निरन्तर अपने दादा जी के साथ पूजा में बैठने लगे और रात्रि को आपको तब तक नींद नहीं आती, जब तक आप पुराण की कोई कथा नहीं सुन लेते।

आपका दाखिला जागृति पब्लिक स्कूल, उत्तरकाशी, नौगांव में कराया गया किन्तु पढ़ाई में मन न लगने से आप स्कूल में भी अध्यापकों को पुराण की कथा सुनाने लगे। इसके कुछ दिनों के पश्चात अपने पिता श्री दिनेश नौटियाल जी से वृंदावन जाने की जिद करने लगे। लेकिन वृंदावन दूर होने का बहाना बना कर पिताजी ने बात को टाल दिया। कुछ दिनों के बाद आप पुनः बार-बार वृंदावन जाने की जिद करने लगे। पुत्र की जिद्द के सामने पिता हार गए। जब आपने कहा की कभी ऐसा हो सकता है कि मैं स्कूल जाते वक्त सीधा वृंदावन चला जाऊंगा। इस कारण यह निश्चय किया गया कि अब चाहे जो भी हो भविष्य भगवान के हाथ में छोड़ते  हुए 30 अप्रैल 2015 को हम उनकी माताजी के साथ वृंदावन गए।

सर्वप्रथम श्री बाँके बिहारी जी के दर्शन किए तत्पश्चात भगवान की ऐसी कृपा हुई कि हम सीधे अनजान वृंदावन में “शालिग्राम चित्रकुटी आश्रम” पहुंचे जहां ऐसे सन्त के दर्शन हुए, जिन्होने आपको अपने सानिध्य में रखा। वे सन्त हैं “शिरोमणि परमपूज्य गुरुदेव भगवान श्री रामकृपाल  दास चित्रकुटी जी”, जिनकी देखरेख में आप विद्याध्ययन करने लगे। यह सब इतना आसान नहीं था। पहले गुरुदेव ने आपसे श्लोक कंठस्थ करवाकर आपकी परीक्षा ली जिसमें आप सफल हुए। आश्रम के कठोर नियमों का बड़ी सहजता से पालन करते हुए गुरुदेव द्वारा तय समय मानकों में अपेक्षा से अधिक श्लोक कंठस्थ किए। गुरुदेव भगवान का स्नेह आप पर दिनों दिन बढ़ता गया। गुरुदेव आपको अपने साथ प्रतिदिन विद्वत गोष्ठियों में ले जाते और आपने भी बाल्यकाल में ही अनेक संतों के आशीर्वाद प्राप्त किए। जो पाठ्यक्रम लगभग तीन वर्षों में पूर्ण होता है वह आपने लगभग दस माह में ही पूर्ण कर लिया। आपने रामायण तथा महाभारत के विभिन्न श्लोकों सहित श्रीमदभागवत महापुराण के 12,000 (बारह हजार) से अधिक श्लोकों को कंठस्थ किया है। आपकी प्रथम श्रीमदभागवत कथा 11वें माह पश्चात ही 3 मार्च 2016 को विभिन्न विद्वानों के मध्य श्री वृंदावन धाम में सम्पन्न हुई जिसमें हजारों की संख्या में लोग आए और अचंभित रह गए कि मात्र आठ वर्ष का बालक श्रीमद्भगवत कथा का वाचन इतनी सहजता से कैसे कर रहा है? आपने यह कथा प्रतिदिन लगभग आठ घंटे के वाचन से सात दिनों में पूर्ण की। ठाकुर जी कि कृपा आप पर ऐसे बनी कि प्रथम कथा वृंदावन धाम तथा ठीक एक माह पश्चात दूसरी कथा श्री राम जी के धाम अयोध्या में हुई।

आपके दीक्षा गुरु श्री राम कृपाल दास चित्रकुटी जी महाराज ने आपका नाम “आयुष नौटियाल” से “पंडित आयुष कृष्ण नयन” रख दिया।  आपके पिता जो आपके भविष्य को लेकर चिन्तित थे वह सब आज आपकी प्रतिभा से खुश हैं। आपके परिवार में आपकी एक छोटी बहन कु. अदिति है जो आपकी हर संभव मदद करती है। आपने इतनी छोटी सी उम्र में समाज को जागरूक करने के साथ सम्पूर्ण भारत में कथाओं द्वारा भगवान की भक्ति के लिए प्रेरित करने एवं समाज में विभिन्न प्रकार की कुरीतियों को समाप्त करने का संकल्प लिया है।  आप दहेज, अशिक्षा, बालिका स्वास्थ्य, प्रकृति में पेड़ पौधे, माता-पिता की सेवा, वृद्धजनों की सेवा, दिव्याङ्ग सेवा तथा सभी प्रकार के व्यसनों (शराब, तंबाकू आदि) पर रोक के लिए सभी कथाओं में चर्चा करते हैं। आप अब तक 79 कथाओं का वाचन कर चुके हैं। वर्तमान में आप श्री राम कथा, शिवमहापुराण, देवी भागवत, श्रीमदभागवत आदि कथाओं का वाचन करते हैं। इसके अतिरिक्त विशेष यह कि वे कथावाचन के किसी भी प्रकार के व्यवसायीकरण के सख्त विरोधी हैं।

इनके कुछ वीडियो यूट्यूब के इस लिंक https://www.youtube.com/channel/UCAf-Z4cPBI9lYOa0IYmw3Tg पर देखे जा सकते हैं।

© श्री दिनेश नौटियाल, ग्राम कण्डाउ, उत्तरकाशी (उत्तराखंड) मोबाइल 9760498242

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा:ग्वारीघाट से सर्रा घाट-1 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा परिक्रमा:ग्वारीघाट से सर्रा घाट – 1

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

नर्मदा अमरकण्टक से निकलकर डिंडोरी-मंडला से आगे बढ़कर पहाड़ों को छोड़कर दो पर्वत श्रंखलाओं, दक्षिण में सतपुड़ा और उत्तर में कैमोर से आते हुए विंध्य के पहाड़ों से समानांतर दस से पंद्रह किलोमीटर की दूरी बनाकर अरब सागर की तरफ़ कहीं उछलती-कूदती, कहीं गांभीर्यता लिए हुए, कहीं पसर के और कहीं-कहीं सिकुड़ कर बहती है। उसके अलौकिक सौंदर्य और उसके किनारे स्निग्ध जीवन के स्पंदन की अनुभूति के लिए पैदल यात्रा पर निकल रहे हैं।

कुछ लोगों ने इस यात्रा पर चलने की इच्छा जताई थी। यह यात्रा वानप्रस्थ के द्वारा सभ्रांत मोह से मुक्ति का अभ्यास भी है। जिस नश्वर संसार को एक दिन अचानक छोड़ना है क्यों न उस मोह को धीरे-धीरे प्रकृति के बीच छोड़ना सीख लें और नर्मदा के तटों पर बिखरे अद्भुत जीवन सौंदर्य का अवलोकन भी करें।

इच्छुक मित्र ग्वारीघाट पहुँचें। दो से तीन बजे पैदल यात्रा गुरुद्वारा की ओर से आरम्भ होगी। प्रतिदिन अनुमानित 10 किलोमीटर पैदल चलना होगा। एक जींस या पैंट के साथ फ़ुल बाहों की शर्ट पहन कर चलें। एक पेंट और तीन-चार शर्ट, एक जोड़ी पजामा कुर्ता, एक शाल, एक चादर, तौलिया, अन्तर्वस्त्र और साबुन तेल के अलावा कोई अन्य सामान न रखें। बैग पीछे टाँगने वाला हल्का हो।

वैसे तो आश्रम और धर्मशालाओं में भोजन की व्यवस्था हो जाती है फिर भी रास्ते में ज़रूरत के लिए समुचित मात्रा में खजूर, भुनी मूँगफली, भुना चना और ड्राई फ़्रूट रखें। पानी की बोतल और एक स्टील लोटा के साथ एक छोटा चाक़ू भी रखें। कहीं कुछ न मिले तो परिक्रमा वासियों का मूलमंत्र  “करतल भिक्षु-तरुतल वास” भी आज़माना जीवन का एक विलक्षण अनुभव होगा।

जो लोग पूरी यात्रा नहीं चल सकते वे अगले दिन भेड़ाघाट से वापस लौट सकते हैं। तिथिवार भ्रमण निम्न अनुसार है। रात्रि विश्राम की जगह ऐसी चुनी गई हैं जहाँ धर्मशाला और भंडारा भोजन उपलब्ध होगा।

13 अक्टूबर ग्वारीघाट -रामनगर 11 किलोमीटर
14 अक्टूबर रामनगर-भेड़ाघाट 10 किलोमीटर
15 अक्टूबर भेड़ाघाट-रामघाट 09 किलोमीटर
16 अक्टूबर रामघाट-जलहरी 08 किलोमीटर
17 अक्टूबर जलहरी-झाँसीघाट 09 किलोमीटर
18 अक्टूबर झाँसीघाट-सर्राघाट 13 किलोमीटर

कुल 60 किलोमीटर की छः दिन में यात्रा याने प्रतिदिन 10 किलोमीटर चलना होगा। यह कोई कठिन काम नहीं है। हर छः माह में आगे की यात्रा सम्पन्न करने का ध्येय है।

पृथ्वी अग्नि जल वायु आकाश का पूरा खुलापन, पेट भर भोजन और तन पर कपड़े के अलावा कोई अन्य कामना नहीं। मानव क़दम दर क़दम नंगे पाँव सदियों से नर्मदा को दाहिनी ओर से लेकर 1312 किलोमीटर उत्तरी तट से और उतना ही दक्षिणी तट से चले जा रहे हैं। चले जा रहे हैं। अनवरत काल से अनवरत खोज में अनवरत यात्रा के अनगिनत पड़ाव।

पगडंडी, गड़वाट, खेत-रेत, घास-झाड़ी, पहाड़-पानी, जीव-जंतु, पशु-मवेशी और इन सबसे बनी बाँसुरी के सप्त सुरों से निकलती कर्णप्रिय लहरियाँ। कहाँ ऐसे निश्छल लोग और कहाँ ऐसी बहुरियाँ। हिरणियों की कुलाँचे, बंदरों की अंडाडावरी, कोयल की कूक और कौए की कांव।  ढोलक की थाप और टिमकी की टिकटिकी के साथ नृत्य की पदचाप और रंगबिरंगी साड़ियों में लहराते साये।

शहरों के आलीशान घरों की बैठक में पहलू और चैनल बदलते थुलथुल देह, मन और धन के बीमार लोग जो न जी पा रहे हैं और न डॉक्टर उन्हें मरने दे रहे हैं। सब एक दूसरे के धन पर घात लगाए चीते की तरह झुके हुए बैठे हैं।

चलो निकल चलो इनसे दूर जहाँ न कारों की रेलमपेल है न रिश्तेदारों की खोजती निगाहें। कुछ दिन तो जी लो जी भरकर निसर्ग के साये में। जिस प्रकृति से तुम आए हो जिसमें तुम्हें अंततः जाना है क्या उसे तुम्हें नहीं पहचानना है।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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