हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – एक बहके बुजुर्ग का संकट – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

एक बहके बुजुर्ग का संकट

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार जी विगत पाँच दशक से भी अधिक समय से साहित्य सेवा के लिए समर्पित हैं।  चालीस वर्ष तक महाविद्यालयीन अध्यापन के बाद 2001 में जबलपुर के गोविन्द राम सेकसरिया अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। आप म.प्र. हिन्दी  साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार एवं राजस्थान पत्रिका के सृजनशीलता सम्मान से सम्मानित हैं।  आपके  पाँच कथा संग्रह एवं दो व्यंग्य संग्रह  प्रकाशित हो चुके हैं।  साथ  ही  200  से अधिक कहानियाँ एवं लगभग इतने ही व्यंग्य विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। e-abhivyakti में हम आपके इस प्रथम व्यंग्य को प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं एवं भविष्य में भी साहित्यिक सहयोग की अपेक्षा करते हैं।) 

बब्बू भाई करीब पैंतीस साल की शानदार सेवा करके दफ्तर से बाइज़्ज़त और बेदाग़ रिटायर हो गये। रिटायर होने के बाद ज्यादातर रिटायर्ड लोगों की तरह न घर के रहे, न घाट के। रोज सवाल मुँह बाये खड़ा हो जाता कि कहाँ जायें और क्या करें। घर में ज्यादा धरे रहें तो आफत, ज्यादा घूमें घामें तो आफत।

बब्बू भाई की पूजा-पाठ में कभी रुचि रही नहीं। कभी घरवालों का जोर पड़ा तो मंदिर हो लिए, कभी घर में पूजा हुई तो यंत्रवत खानापूरी कर ली, और उसके बाद फुरसत। इसलिए रिटायरमेंट का वक्त पूजा-पाठ में गुजारने का वसीला नहीं बना, जो बहुत से रिटायर्ड लोग करते हैं।
बब्बू भाई सबेरे उठकर पास के पुल की तरफ निकल जाते। वहाँ धीरे धीरे टहलते रहते। पुल की दीवार से टिककर कानों में इयर फोन लगाकर पसंद के गाने सुनते रहते। इसी में घंटा डेढ़ घंटा कट जाता। कोई परिचित मिल जाता तो आराम से बात भी हो जाती।

इधर कुछ दिन से बब्बू भाई पास के पार्क में जाने लगे हैं। पार्क साफ-सुथरा है। घूमने के लिए पक्की पट्टी है, बैठने के लिए पत्थर की बेंचें हैं, बीच में हरी घास का मैदान है। बब्बू भाई गीत-गज़ल के शौकीन हैं। समझ भी रखते हैं। मोबाइल में यू-ट्यूब पर गज़लें लगा लेते हैं। बेंच पर बैठकर बड़ी देर तक सुनते रहते हैं और वाल्यूम बढ़ा देते हैं ताकि आसपास के लोग भी आनंद लें। बेगम अख्तर, जगजीत सिंह, मेंहदी हसन, गुलाम अली, फरीदा खानम, नूरजहां, मलिका पुखराज के स्वर देर तक गूंजते रहते हैं। आजू-बाजू में टहलते लोग उन सुरों को सुनकर कुछ देर ठमक जाते हैं।

बब्बू भाई पार्क से संतुष्ट होकर, अच्छे संगीत को बांटने का एहसास लेकर लौटते हैं। बड़ी देर तक मूड अच्छा बना रहता है।
लेकिन मुहल्ले में बब्बू भाई के खिलाफ कुछ और खिचड़ी पकने लगी। मुहल्ले की महिलाओं ने बब्बू भाई की पत्नी से शिकायत की कि बब्बू भाई के लच्छन कुछ अच्छे नहीं हैं, वे पार्क में बैठकर ऊटपटाँग गाने सुनते रहते हैं। शिकायत है कि उनका आचरण बुजुर्गों जैसा कम और लफंगों जैसा ज्यादा है।

बब्बू भाई की पत्नी किराने की दूकान पर मुहल्ले की ‘बुआ जी’ से मिलीं तो बात और तफसील से हुई। बुआ जी बोलीं, ‘बहन अब क्या बतायें। आपके हज़बैंड पार्क में रोज इश्क विश्क वाले गाने लगाकर बैठ जाते हैं। कोई बेगम हैं जो गाती हैं– ‘अय मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, कोई गाती हैं ‘आज जाने की जिद न करो, यों ही पहलू में बैठे रहो’, मतलब यह सब कि सब काम-धंधा छोड़कर इनके बगल में धरे रहो। एक और गाती हैं ‘अभी तो मैं जवान हूँ।’ अब बताओ भैना, आपके हज़बैंड को इस उमर में ये गाने सुनना शोभा देता है क्या? बुढ़ापे में कोई गाये कि अभी तो मैं जवान हूँ तो कैसा लगेगा? एक और पाकिस्तानी गायक हैं जो गाते हैं कि तेरा छत पे नंगे पांव आना याद है। अब बताओ मुहल्ले के लड़के ये गाने सुनेंगे तो उनके दिमाग पर क्या असर पड़ेगा? वैसे ही नयी पीढ़ी का सत्यानाश हो रहा है। आपके हज़बैंड को चाहिए कि परलोक की चिन्ता करें और भजन कीर्तन वगैरह सुनें। उन्हें सत्संग में भेजा करो। संस्कार चैनल दिखाया करो। इस उम्र में इश्क के गाने सुनकर परलोक नहीं  बनने वाला।’

बुआ जी आगे बोलीं, ‘और फिर आपके हज़बैंड ज़्यादातर पाकिस्तानी गायकों के गाने क्यों सुनते हैं? पाकिस्तान हमारा दुश्मन है। हम पाकिस्तानी गायकों को घुसने नहीं देते। लेकिन आपके हज़बैंड उन्हें कान से और दिल से चिपकाए रहते हैं। ये अच्छी बात नहीं है। इससे आपके हज़बैंड की देशभक्ति पर सवाल उठता है।’

बब्बू भाई की पत्नी ने लौटकर सब पति को बताया। बब्बू भाई भी चिंता में पड़ गये। यह कहाँ की मुसीबत आ गयी!

अब बब्बू भाई पार्क में बैठते तो मुहल्ले की महिलाएं टहलते टहलते रुककर सुझाव देने लगतीं -‘भाई साहब, हरिओम शरन लगा लीजिए। ‘तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार’ या ‘मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तुम्हारे  आऊँ ‘।अनूप जलोटा को लगाइए। गजल वजल सुनना भूल जाएंगे। ‘ बब्बू भाई अब इयरफोन से ही सुनते ताकि आसपास के लोगों को हवा न लगे कि वे क्या सुन रहे हैं।

बब्बू भाई के पास अब सत्संग में चलने के निमंत्रण आने लगे। बब्बू भाई बहाना बनाकर बचते। मुहल्ले वाले उन्हें सुधारने पर आमादा हो गये थे। बुआजी ने बब्बू भाई की पत्नी को यह सलाह दे दी थी कि हर साल बब्बू भाई को तीर्थयात्रा पर ले जायें और हर महीने घर में सुन्दरकांड का पाठ करायें।

इस चौतरफा हमले से परेशान बब्बू भाई फिलहाल अंतर्ध्यान हो गये हैं। सुना है कि वे ससुराल-सेवन के लिए निकल गये हैं। एक दो महीने वहाँ रहेंगे, फिर दूसरी रिश्तेदारियां खंगालेंगे। फिलहाल उनका शहर लौटने का इरादा नहीं है। उम्मीद की जा रही है कि उनकी अनुपस्थिति से मुहल्ले का प्रदूषण-स्तर कुछ कम हो जायेगा।

यह भी चर्चा है कि उनका इरादा नर्मदा किनारे एक दो एकड़ ज़मीन खरीदने का है जहाँ वे कुटिया बनाकर रहेंगे और जहाँ उन्हें टोकने और नसीहत देने वाला कोई न होगा।

© डॉ कुन्दन सिंह परिहार (मो. 9926660392)

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हिन्दी साहित्य- कविता – ‘दिल्ली’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

दिल्ली

किसे समझते हैं आप दिल्ली!

जगमगाती ज्योति से नहाए

लोकतंत्र की पालकी उठाए खड़े लकदक

संसद,राष्ट्रपति और शास्त्रीभवन

व्य्यापारिक व कूटनीतिक बाँहैं फैलाए

युद्धिष्ठिर को गले लगाने को आतुर

लोहे के धृतराष्ट्र-से बेचैन

दुनिया भर के राष्ट्रों के दूतावास,

विश्वस्वास्थ्य संगठन,बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालय

सर्वोच्च न्यायालय,एम्स और

जवाहर लाल नेहरू विश्वद्यालय

यानी न्याय,स्वास्थ्य,अर्थ और शिक्षा के

नित नए सांचे-ढाँचे, गढ़ते -तोड़ते संस्थान

इतिहास,धर्म,संस्कृति,साहित्य और कला को

छाती पेटे लगाए

लालकिला, कुतुबमीनार, शीशमहल

अक्षरधाम, ज़ामामस्ज़िद, इंडियागेट, चाँदनी चौक

रामलीला मैदान, प्रगति मैदान, ललित कला अकादमी, हिंदी अकादमी, ज्ञानपीठ,

वाणी, राजकमल, किताबघर जैसे

अद्भुत विरासत साधे

स्थापत्य, स्थान और प्रतिष्ठान

आखिर किसे समझते हैं आप दिल्ली !

 

कल-कारखानों का विष पीती-पिलाती

काँखती,कराहती बहती

काली-कलूटी कुब्जा यमुना

दिल्ली और एन सी आर के बीचोबीच

अपने पशुओं के लिए घास ढोती

उपले थापती आधी दुनिया

माने औरत जाति

आखिर किसे कहते हैं आप दिल्ली!

 

मिरांडा हॉउस, लेडी श्रीराम कॉलेज में

किताबों में सर गाड़े

या किसी पब्लिक स्कूल के पीछे वाले भूभाग में

बड़े पेड़ या झाड़ की आड़ में स्मैक के आगोश में

छिपके बैठी होनहार पीढ़ी

रेडलाइट इलाके में छापे मारती हाँफती भागती पुलिस

पंचतारों में बिकने को आतुर किशोरियाँ

और उनको ढोते दलाल

बोलो! किसे पुकारेंगे आप  दिल्ली?

 

ओला, ऊबर को चलते-चलते बुक करती

मालों में काम को सरपट जाती लड़कियाँ

मेट्रो, बस या बाज़ार में

पर्स और मोबाइल मारते  जेबकतरे

चिचिलाती धूप और शीत लहर में

पानी की लाइन में खड़े बच्चे-बूढ़े और अधेड़

क्या ये भी नहीं है दिल्ली?

 

संघ लोक सेवा आयोग की अग्नि परीक्षा में

घर-बार की होलिका जलाए

ककड़ी-से फटे होठों को चाटते

कोचिंगों की परिक्रमा करते तरुण

क़र्ज़ में डूबे किसान-से

चिंताओं के पहाड़ के साथ

अपना स्ववृत्त लादे रोज़गार खोजते युवा

चौराहों पर बाबू जी !बाबू जी !

चिल्लाते सहमे हुए पास आते

झिड़कियां खाकर भी हाथ बाँधे

आशा में खड़े मज़दूर

इनमें सबके सब दिल्ली  के भले न हों

पर इन में भी  खोज  सकते हैं आप दिल्ली।

 

दिल्ली सिर्फ जन प्रतिनिधियों की आबादी नहीं है

बीमारी से बचे पैसों से साग सब्जी लाते

आम आदमियों के हिस्से में भी है

कुछ दिल्ली

इसे धृतराष्ट्र के हवाले किया तो

हस्तिनापुर के झगड़े में

निर्वस्त्र हुई द्रोपदी -सी

हाहाकारी हो सकती है दिल्ली

बारबाला भी नहीं है दिल्ली

जो सुरा परोसे और मुस्काए

और, किसी नगर सेठ की जंघा पर बैठ जाए

दिल्ली सिर्फ और सिर्फ़ सफ़ेद खादी नहीं है

दिल्ली बहुत कुछ स्याह भी है

उसके बरक्स

मलमली रंगीनियाँ भी हैं दिल्ली में।

दिल्ली में कुछ के ही होते हैं हफ्ते में पाँच दिन

बाक़ी के हिस्से में चौबीस घंटों वाला

सात दिन का ही है सप्ताह

क्या सोचते हैं दिल्ली के बारे में आप!

 

धक्कामुक्की हो सकती है मेट्रो और बसों में

पर केवल भीड़ भी नहीं है दिल्ली

दिल्ली में कोई पूछ भी सकता है

परिवार के हाल-चाल और नहीं भी

एकांत में थाम सकता है कोई हाथ

अपना सकता है जीवन भर के लिए

पल में छूट  सकता है कोई हाथ

पुकारने पर दूर -दूर तक नहीं दिख सकती है

कोई आदम की छाया भी

लेकिन दिल्ली निर्जन भी  नहीं है

डियरपार्क में बतकही हो सकती है

विश्वनाथ त्रिपाठी से

किसी आयोजन में मिल सकते हैं

नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डे

हरनोट और दिविक रमेश

‘काला पहाड़’ लादे रेगिस्तान की रेत

फाँकते आए मोरवाल

या उसे धकेलते

देश के कोने-कोने से आए

कई साहित्यकार छोटे-बड़े  गुट में

यानी निर्गुट भी नहीं है दिल्ली

दिल्ली में दल हैं दलों के कीचकांदो से उपजे

जानलेवा दलदल भी हैं दिल्ली में

नेता,अभिनेता,व्यापारी,चोर,दिवालिया,साहित्यकार

नाटककार,साहूकार हो या फिर चोर छिनार,

दिल्ली में बसना सब  चाहते हैं

लेकिन बसाना कोई नहीं चाहता है दिल से

किसी को अपनी -अपनी दिल्ली में

बसाने को बसाते भी हैं जो नई दिल्ली

वे बस संख्या लाते हैं दिल्ली में

इनमें केवल साहित्यकार ही नहीं हैं

जो बनाने को मठ

उदारतावश ढोते रहे हैं यह संज्ञाविहीन संख्या

ला-ला के भरते रहे हैं

अपना गाँव,देश-जवार बाहर-बाहर से

गुडगांवा,गाज़ियाबाद,फरीदाबाद वाली दिल्ली में

शकूर और दयाबस्ती में

नेता भी कुछ कम नहीं हैं इनमें अग्रणी

कौन पूछे कि किस वजह से

आधे से ज़्यादा नेता और साहित्यकर ही

बसते हैं हमारी दिल्ली में?

आपको भी बनना है कुछ तो आ जाओ दिल्ली

छानो ख़ाक

किसी का लंगोट छाँटो या पेटीकोट

शर्माओ मत

कविता हो या राजनीति

सब गड्डमड्ड कर डालो

बढ़ो आगे

गढ़ो नए प्रतिमान

जिसमें कुछ न हो उसमें ही सबकुछ दिखाओ

और सबकुछ वाली पांडुलिपि को कूड़ा बताओ

तभी तो तुम्हारा प्रातिभ दरसेगा

सर्जक यदि कुबेर हुआ तो धन यश सब बरसेगा

और जब कुछ हो जाओ तो फिर देर मत लगाओ

गुट बनाओ जैसे बनाया था तुम्हारे गुरु ने

सबसे पहले उसी को पटखनी दो

जिसका छांटा है दिन-रात लंगोट

फिर क्या है

मज़े से शराब पी-पीकर जिस-तिस को गरियाओ

पगुराओ गंधाती आत्म कथा

यह भी इसी दिल्ली की एक हृष्ट-पुष्ट यानी

स्वस्थ ,साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा है।

खैर छोड़ो!यह तो रही हमारी अपनी बताओ

आखिर आप किसे मानते हैं दिल्ली!

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल–Meditation: Breathing with feeling – Learning Video #5 -Shri Jagat Singh Bisht

MEDITATION: BREATHING WITH FEELING

Learning Video #5

Having trained to breathe with the body earlier, we train to breathe with feelings in this session.

Instructions:

Sit down with legs folded crosswise, back straight and eyes closed.

Always mindful, breathe in; mindful, breathe out.

Breathing in long, understand:I am breathing in long; breathing out long, understand: I am breathing out long.

Breathing in short, understand: I am breathing in short; breathing out short, understand: I am breathing out short.

Breathe in experiencing the whole body, breathe out experiencing the whole body.

Breathe in tranquilizing the whole body, breathe out tranquilizing the whole body.

As you breathe in and out, observe your feelings.

Breathe in experiencing your feelings, breathe out experiencing your feelings.

Breathe in experiencing rapture, breathe out experiencing rapture.

Breathe in experiencing pleasure, breathe out experiencing pleasure.

Ever mindful, breathe in; mindful, breathe out.

May all beings be happy, be peaceful, be liberated.

Open your eyes and come out of meditation gently.

(Based on the Anapanasati Sutta) 

Jagat Singh Bisht, Founder: LifeSkills

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पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य – पंचमढ़ी की खोज – श्री सुरेश पटवा

आत्मकथ्य – पंचमढ़ी की खोज – श्री सुरेश पटवा 

(‘पंचमढ़ी की खोज’  श्री सुरेश पटवा की प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। आपका जन्म देनवा नदी के किनारे उनके नाना के गाँव ढाना, मटक़ुली में हुआ था। उनका बचपन सतपुड़ा की गोद में बसे सोहागपुर में बीता। प्रकृति से विशेष लगाव के कारण जल, जंगल और ज़मीन से उनका नज़दीकी रिश्ता रहा है। पंचमढ़ी की खोज के प्रयास स्वरूप जो किताबी और वास्तविक अनुभव हुआ उसे आपके साथ बाँटना एक सुखद अनुभूति है। 

श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं। आप अभी अपनी नई पुस्तक ‘पलक गाथा’ पर काम कर रहे हैं। प्रस्तुत है उनकी पुस्तक पंचमढ़ी की खोज पर उनका आत्मकथ्य।)

मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ज़िला की सोहागपुर तहसील में 1860 से 1870 के दशक में दो अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं जिन्होंने न सर्फ़ तहसील के जीवन को पूरी तरफ़ बदल कर रख दिया अपितु एक नया शहर पिपरिया अस्तित्व में आ गया, जिसे पंचमढ़ी के प्रवेश-द्वार और प्रोटीन से भरपूर तुअर दाल के लिए पूरे देश में जाना जाता  है। अंग्रेज़ों के सोहागपुर को रेल का ठिकाना बनाने से बस्ती के बाशिंदों को नई अंग्रेज़ी शिक्षा के द्वार खुल गए 50 किलोमीटर के घेरे से लोग पढ़ने-लिखने वहाँ आने लगे। इलाक़े में  यह उलाहना पूर्ण कहावत चल पड़ी कि “पढ़े न लिखे सोहागपुर रहते हैं”, जिसके जवाब में एक नई कहावत बाजु के नरसिंघपुर जिले में बन गई कि “पढ़ौ न लिखो होय, मनो नरसिंघपुरिया होय”। यह प्रतिस्पर्धा निरंतर है।

पहली घटना थी, सोहागपुर से इटारसी-जबलपुर खंड की रेल लाइन का बिछाना जिसके लिए लकड़ी सिलीपाट, लाल मुरम, पलकमती की बारीक रेत और सस्ता श्रम सोहागपुर की बस्ती ने उपलब्ध कराया। दूसरी घटना थी, जबलपुर को सेंट्रल प्राविन्स की राजधानी बनाकर होशंगाबाद को कमिशनरी और ज़िला मुख्यालय बनाना एवं होशंगाबाद जिले का  सीमांकन और फ़ौजी ठिकाने हेतु कैप्टन जेम्ज़ फ़ॉर्सायथ द्वारा खेतिहर ज़मीन की पहचान, कोयला के भण्डारों का पता लगाना व सुरक्षित अभयारण्य की स्थापना हेतु पंचमढ़ी की खोज।

जबलपुर से पंचमढ़ी तक की इस यात्रा में वन्य-जीवन, आदिवासी संस्कृति, सतपुड़ा की वनस्पति, आदम खोर का शिकार और क़दम-क़दम पर जोखिम के रोमांच है।

पंचमढ़ी की खोज से ……..

जेम्स फ़ॉर्सायथ ने जनवरी 1862 में जब पंचमढ़ी की तरफ अपनी यात्रा शुरु की तब तक रेल लाइन डालने के लिए बावई से बागरा तक आकर, रेल लाइन के किनारे-किनारे गिट्टी, रेत, सिलिपाट मजदूर मशीन और दूसरी अन्य चीजें ले जाने के लिए लाल मुरम डालकर एक कच्ची सड़क नरसिंघपुर तक बन गई थी। फ़ॉर्सायथ के पास एक बहुत होशियार और समझदार ऊँट था, जिसे उसने बुंदेलखंड में विद्रोहियों और ठगों की सफाई की मुहिम के दौरान पकडा था। वह ऊँट लावारिस घूम रहा था संभवत: उसके मालिक को ठगों ने ठिकाने लगा दिया हो और माल लूटकर ऊँट छोड दिया होगा। उस ऊँट की एक अजीब सी आदत थी कि वह कुछ दिनों के लिए फ़ॉर्सायथ को छोडकर जंगल की तरफ की तरफ ऊंटनी की खोज में निकल जाता था और निपट सुलझ कर पूँछ हिलाते हुए वापस मालिक के पास आ जाता था। तब उसकी आँखो और शरीर में एक चमक होती थी। प्रतिवर्ष अक्टूबर से दिसम्बर तक वह ऐसा ही करता था इसलिए फ़ॉर्सायथ ने उसका नाम ‘जंगली’ रख दिया था। जब वह जंगल से वापस आता तो जुगाली में मुँह चलाते हुए एकटक फ़ॉर्सायथ को देखता रहता था मानो कह रहा हो हमको तो मेम मिल गई पर तुम्हारी ऊँटनी कहाँ है।

आप अमेरिका का नक्शा देखें। उसमें उनके 52 राज्य की सीमाएँ आयताकार हैं। राज्य बनाने के लिए 1780 के आसपास सीथी-सीधी रेखाएँ खींच दी गईं थीं क्योकि तब तक ऊबड़-खाबड़ जमीन, कहीं-समतल, कहीं-पहाड़, कहीं-नदी, कहीं घाटी और कहीं खाइयाँ नापने के सूत्र विकसित नहीं हुए थे । ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और ग्लासगो विश्वविद्यालयों में पाइथागोरस के रेखागणित और बीजगणित के सूत्रों और सिद्धांतों पर फार्मूले विकसित किए गए जिनसे उन्नीसवीं सदी में सबसे पहले हिंदुस्तान को नापा गया। उस समय इंग्लैंड के लिए हिंदुस्तान सबसे महत्वपूर्ण था क्योंकि अमेरिका हाथ से निकल चुका था और आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिणी अफ्रीका और कनाडा पूरी तरह हाथ में नहीं आए थे। ग्रीक के एरेटोस्थेनेस ने पृथ्वी के व्यास की गणना पता करने के लिए सूत्रों का प्रयोग किया था तदनुसार इंग्लैंड के भूगर्भशास्त्रियों ने पृथ्वी के केंद्र से सतह की दूरी 6371  किलोमीटर आँकी थी। अग्रेजों ने हिदुस्तान को नापने के लिए Great Trigonometric Survey नाम से एक प्रोजेक्ट 1802 में शुरू की, जिसमें भारत को कई ट्राइएंगल याने तिकोने में बाँटा गया। उन ट्राइएंगल का क्षेत्रफल निकाल कर सूबे और फिर देश का क्षेत्रफल आँका गया था।

प्रोजेक्ट के मुखिया थे विलियम लामटन, उनके सहायक थे जॉर्ज एवरेस्ट और उनके सहायक एंड्रू स्कॉट वॉ थे। विलियम 1823 में सिरोंज, मध्यप्रदेश तक का सर्वेयर जनरल ऑफ इंडिया बनाया गया जिसने 1861 तक माउंट एवरेस्ट को नाप दिया, उसे मलेरिया हो गया वह इंग्लैंड लौट गया। लेकिन काम पूरा न होने की वज़ह से प्रोजेक्ट एंड्रू स्कॉट वॉ को सौंपी गई जिसने 1871 में काम पूरा करके भारत का पहला अधिकृत नक्शा बना कर दिया। उन्हीं एंड्रू स्कॉट वॉ की ब्रिटिश आर्टिलरी में एक कैप्टन थे जेम्स फ़ॉर्सायथ जिन्होने पंचमढ़ी को खोज निकाला और आज की पंचमढ़ी की नींव रखी थी।

हिंदुस्तान के सर्वे के दौरान नर्मदा घाटी को मोटा-मोटा नाप में तो ले लिया गया था परंतु नाप के ट्राइएंगल हरदा से नर्मदा पार करके हँडिया, सिहोर, श्यामपुर दोराहा, विदिशा से सिरोंज शिवपुरी ग्वालियर होते हुए आगरा, दिल्ली तरफ निकल गए थे। दूसरी तरफ नागपूर से गोंदिया, राजनांदगांव, दुर्ग, रायपुर और बिलासपुर होते हुए बिहार होकर गोरखपुर निकल गए थे। इसी बीच 1857 का संग्राम शुरू हो क्या तो काम रुक गया, वह पुनः 1861 में जाकर शुरू हुआ। सवाल उठना लाजिमी है, तो फिर अकबर के जमाने में टोडरमल ने क्या किया था। उसने सिर्फ कृषि जोत योग्य ज़मीनों को गुणवत्ता के हिसाब से नाप कर लगान तय किया था। जिलों और नगर की सीमाएं नदी नालों के अनुसार तय होतीं थीं जो आज भी देखी जा सकती हैं। जैसे तवा नदी के इस तरफ सोहागपुर तहसील और उस तरफ होशंगाबाद तहसील या नर्मदा के दक्षिण में नरसिंहपुर या होशंगाबाद जिले और उत्तर में सागर और रायसेन जिले। मुगल काल तक हिंदुस्तान के वैज्ञानिक गणना आधारित नक्शे नहीं बने थे।

© सुरेश पटवा

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – आँचल : एक श्रद्धांजलि – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 
‘आँचल : एक श्रद्धांजलि’
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। e-abhivyakti में हम आपके इस प्रथम व्यंग्य को प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं एवं भविष्य में भी साहित्यिक सहयोग की अपेक्षा करते हैं।) 
3 जुलाई, 2048. ऑप्शनल सब्जेक्ट हिंदी, क्लास टेंथ. भावार्थ के लिए मैम ने कविता पढ़ी -“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी”
“मैम, ये आँचल कैसा होता है ?”  अचकचा गई मैम. कैसे बताये ?
“आँचल पल्लू जैसा होता है.”
“मैम, ये पल्लू कैसा होता है ?” – एक स्टूडेंट ने पूछा.
“ओके. दुपट्टा देखा है ? या तुमारा ग्रान’मा का फोटू में कभी साड़ी, ओढ़नी, चुन्नी देखी होगी…वो भी नहीं……ओके. नो प्रॉब्लम. लुक एट मी, लाइक हम मॉडर्न इंडिया का वुमंस जींस और टॉप पहनता हैं ना. पहले का वुमन सलवार-कुर्ता-दुपट्टा पहनता था.” – मैम कविता से कपड़ों पर आ गई. पसंद का विषय. उन्होंने प्रोजेक्टर पर एक ओल्ड हेरिटेज साईट ऑन की.  “लुक हियर, ये सलवार, ये कुर्ता और उसके ऊपर ये जो दुपट्टा है ये पहनना कम्पलसरी था.”
“व्हाय मैम ?”
“हमारा कंट्री बैकवर्ड और दकियानूस होता था इसीलिए. जैसे जैसे कंट्री मॉडर्न बनता गया वैसे वैसे दुपट्टा कम्पलसरी से ऑप्शनल होता चला गया. उसकी जगह भी बदलती गई. पहले वो पूरे सीने पर था, फिर गले में लिपटा, फिर कंधे पर झूला. फिर लुप्त हो गया.”
“किसी ने उसे सेव नहीं किया ?”
“बचाने की कोशिशें पहले होती थीं.  एक बार एक हीरोईन ने कम्प्लेंट की – हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का. उड़ानेवाले की हवा टाईट करना पड़ी मगर दुपट्टा बचा लिया गया. ऑनलाइन कम्प्लेंट करने का चलन तो था नहीं, मीनाकुमारी को डांस परफॉर्म करके पुलिसवालों की कम्प्लेंट करानी पड़ी. बोला –‘सिपहिया से पूछो जिसने बजरिया में छीना दुपट्टा मेरा.’  पुलिसवाले को लाइन अटैच करके दुपट्टा वापस दिलवा दिया गया. फिर आर्थिक सुधारों के ट्रोजनहार्स में छुपकर जो हवा आई उसने लाल, पीले, हरे, मलमल के, शिफोन के, जार्जेट के हर तरह के दुपट्टे उड़ा दिये. अंकल सैम की हवा दिखती नहीं है मगर वह जिस देश में चल निकलती है भाषा,संस्कृति, संस्कार सब उड़ा ले जाती है.”
“मैम, वो पोयट आँचल, दूध, आँखें पानी – ऑल दिस क्यों लिखता था ?”
“हिन्दी का पोयट था ना. ओनली हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी में जीता था. ऐसा हिन्दी ही नहीं उर्दू का पोयट ने भी लिखा. यू नो, हिंदी-उर्दू का पोयट लोग का कारण हमारा देश अर्ली मॉडर्न नहीं बन सका. मौलाना हसरत मौहनी ने एक बार गलती से खेंच लिया पर्दे का कोना दफ़अतन.  महबूबा का वो मुँह छुपाना  उनकी मेमोरी में स्टोर हो गया. उन्होने गुलामअली साहब को लिखकर दिया जिन्होने लाखों लोगों को ये इंसिडेंस गा गा कर सुनाया. कितना लोग का कितना टाईम वेस्ट किया. तब कंट्री डिसाईड किया आगे से नो मोर दुपट्टा नो मोर मुँह छुपाना. उर्दू का पोयट के लिए तो रुख से सरकती थी नकाब आहिस्ता अहिस्ता. जवान लोग काम-धंधा छोड़कर घंटों छज्जे आई मीन बॉलकनी के सामने सरकी नकाब की एक झलक पाने के लिए खड़े रहते थे. प्रोडक्शन में कितने मेन-अवर्स का लॉस हुआ ! जीडीपी वेरी-वेरी लेट से बढ़ा.”
(क्लास में आखिरी बेंच पर बैठे एक लड़के ने दूसरे से फुसफुसा कर कहा – अबी वो सब चक्कर ख़त्म. अवनि से पूछ लिया आती क्या खंडाला. नखरे करे तो नेहा को लेकर निकल जाने का. टेंशन लेने का नई.)
“साईलेंट प्लीज.  नो क्रास टॉक.”
“मैम वो पोयट ने आँचल क्यों बोला दुपट्टा क्यों नहीं?”
“आँचल नार्मली साड़ी के पल्लू को कहते थे.”  मैम ने वेब-पेज बदला – “सी दिस ओल्ड फैशंड लेडी. इसने जो पहन रखा है उसे साड़ी कहा जाता था. मोस्ट बेकवर्ड इंडिया में वुमंस का यही मेन ड्रेस होता था. साड़ी का ये जो पार्ट दिख रहा है ना – कंधे से सामने नीचे आता हुआ इसे ही आँचल या पल्लू कहा जाता था. पोयट इसी की चर्चा कर रहे हैं. दूध से उनका आशय माँ की ममता से है जो कि अब भी वहीँ है और बच्चे का स्नेह भी वहीँ है – बस वो आँचल गायब हो गया है.”
गायब तो हिन्दी का कवि, उसकी कविता और उसका भावार्थ भी हो गया है बट एच्छिक विषय में सब चलता है. घंटी बजी. पीरियड ख़त्म हुआ. बाहर जाते जाते मैम ने कहा –“मैं क्राफ्टवाली मैम को बोलती हूँ. वो तुमको क्लॉथ लाकर दुपट्टा बनाकर सबमिट करने का प्रोजेक्ट करवायेंगी. ए ट्रिब्यूट टू अवर कल्चर बाय दुपट्टा.”
© शांतिलाल जैन
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हिन्दी साहित्य- कविता – (गंगा) माँ से संवाद – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(गंगा) माँ से संवाद

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास

हम श्री सदानंद आंबेकर जी  के आभारी हैं इस अत्यंत मार्मिक काव्यात्मक संवाद के लिए जो हमें ही नहीं हमारी अगली पीढ़ी के लिए भी एक संदेश है।  )

बैठे थे गंगा के तीरे शीतल मंद पवन बहती थी,
आओ पथिक शांत हो बैठो, कानों में वह ये कहती थी।
कलरव करते पंछी उड़ते, नभमंडल को जाते थे
जाने किस अनगढ़ बोली में, गीत कहाँ के गाते थे।
मेला लगा हुआ ज्यों तट पर, नर नारी की रेलमपेल
डुबकी लेते छप छप करते, पानी में वो खेले खेल।
जटा खोल कर भस्म लगा कर साधू बाबा ध्यान लगाये
मंदिर में कोई श्रद्धा से, घंटी के संग शंख बजाये।
मन्नत पूरी करने कोई, जल में दीप चढ़ाते थे
तन के संग संग मन धोने को, मल मल खूब नहाते थे।
इस हलचल में, कोलाहल में, बात अनोखी जान पड़ी
ध्यान लगा कुछ शांत हुआ तो, सिसकी मेरे कान पड़ी।
देखा तो माता रोती थी मन की बात बताती है
मैंने पूछा माँ कुछ बोलो कैसी पीर सताती है।
गंगा माता रुक कर बोली कैसा अपना नाता है
बेटा होकर जिसे सताये, वो तो तेरी माता है।
मैंने उसे पलटकर बोला माता कैसी बात करे
करते हैं सम्मान तुम्हारा, तेरी पूजा पाठ करे।
फीकी हंसी संग माँ बोली यह कैसा सम्मान हुआ
मेरा आंचल मैला करता, कैसे दूँगी तुझे दुआ।
बेटे तुम मेरे बच्चे हो पाला पोसा प्यार दिया
इस धरती पर मानवता को, मैंने ही संस्कार दिया।
तुमने की भरपूर उन्नति हर्ष मुझे यूं होता है
वन में रहने वाला बेटा, आज महल में सोता है।
ब्रह्माजी ने भूपर भेजा, सबका तारण करने को
मुझसे पुण्य कमाकर बेटा, छोड़ दिया यूं मरने को।
अपनी सुख सुविधा का कचरा, मेरे आंचल में डाला
मरे पशु  नाली का पानी, सड़े गले फूलों की माला।
देव मूर्तियाँ फटी जूतियाँ सब मुझमें है डाल दिया
नदियाँ कूड़ादान समझ कर, तुमने इस्तेमाल किया।
अपना नीड़ बनाने तुमने, मेरा जंगल काटा है
हर हर करते जल प्रवाह ने, मेरे तट को छाटा है।
जगह जगह पर बांध बनाकर, जल को तुमने रोका है
अति विकास लाता विनाश है, रोक, अभी भी मौका है।
मेरी बाकी बहिनों पर भी तुमने, खूब किए हैं अत्याचार
उनकी भी पीड़ा सुन लो तुम, कर दो उनका भी उद्धार।
अब भी समय बचा है बेटे, बहुत नहीं कुछ बिगड़ा है
तुम विनाश को रोक सको तो, फिर काहे का झगड़ा है।
मैं तो माँ हूँ पर बेटों को, माफ मुझे ही करना है
बेटों की ममता की खातिर, त्याग मुझे ही करना है।
मेरी ताकत कम है बेटा, कब तक ये सब झेलूँगी
दम टूटेगा जिस दिन मेरा, विदा यहाँ से ले लूँगी।
याद रखो मेरे बेटों यह, नदियाँ जिस दिन रूठ गईं
नष्ट हुई मानवता समझो, जीवन धारा टूट गई।
नदियों को सचमुच माँ समझो, माता सा सम्मान करो
माँ की पीड़ा जानो बेटा, मत उसका अपमान करो।
ईश्वर को मत परखो बच्चों, अब भी तुम सब जाग उठो
नदी बचाओ, पेड़ लगाओ, इस कारज में आज जुटो।

©  सदानंद आंबेकर

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हिन्दी साहित्य- कविता – यह जो विधान भवन है न – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

यह जो विधान भवन है न 

एक दिन मेरी माँ

आँगन में बने मिट्टी के चूल्हे से

इकलौती बची लकड़ी

खींचते हुए  कह रही थी

‘यह जो विधानभवन है न

अपने प्रदेश का

यहाँ बहुत बड़ा जंगल था कभी

शेर,बाघ,भालू ,भेड़िए और लोमड़ी तक

निर्द्वंद्व रहते थे इनमें

पेड़ों पर छोटी चिड़ियों से लेकर

तोतों और कबूतरों के

झुंड के झुंड बसा करते थे उसमें

बाजों और  गिद्धों के डेरे रहते थे

जंगल कटा तो

सब जानवर उसी भवन में छिप गए ‘

और चिड़ियां?

आँगन में एक रोटी के इंतज़ार में बैठे-बैठे

मैंने पूछ ही लिया तपाक से

बोली ,’देखो न

आँगन में कौन मंडरा रही हैं

चोंच भर आटे की फिराक में

और तोते ,कबूतर आदि?

इस पर माँ बोली

‘इन्हें बाज और गिद्ध खा गए’

और गिद्धों को कौन खा गया माँ ?

इतना सुनते ही माँ बिफर पड़ी

‘इंसान और कौन बेटा ?’

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल–Meditation: Breathing with the Body – Learning Video 4 -Shri Jagat Singh Bisht

MEDITATION: BREATHING WITH THE BODY

Learning Video #4

This is the fourth video in a series of videos – a step-by-step tutorial – to learn and practice meditation by yourself by listening to and following the instructions given in the video.

In this session, we are re-visiting and deepening what we have learned in the three earlier videos.

Instructions:

Please sit down – legs folded crosswise, back straight and eyes closed.

Focus your attention on the nostrils as you breathe in and as you breathe out.

In this session, we will re-visit and deepen what we have learned earlier.

Begin by simply bringing attention to the breathing.

Always mindful of your breath, breathe in; mindful, breathe out.

If you breathe in long, know: I am breathing in long. If you breathe out long, know: I breathe out long.

If you breathe in short, know: I am breathing in short. If you breathe out short, know: I breathe out short.

Don’t worry if your mind wanders away, bring it back gently. Observe your breath.

As the breathing becomes deeper, focus on the body.

Keeping a watch on your breath in the background, look inwards to the major parts of your body: head, shoulders, hands, palms, chest, stomach, upper back, lower back, legs and the feet.

Sensitive to the whole body, breathe in. Sensitive to the whole body, breathe out.

As you familiarize with your body, while keeping a watch on your breathing, relax your limbs one-by-one: forehead, eyes, cheeks, neck, shoulders, heart, stomach, upper back, lower back, thighs, calf muscles, ankles, and soles of your feet.

Calming the whole body, breathe in. Calming the whole body breathe out.

May all beings be happy, be peaceful, be liberated!

Open your eyes gently and come out of meditation.

Continue your practice of meditation. When you feel, you have mastered this segment, you may proceed to the next video. Remember, meditation is a lifetime’s work.

We will be happy to have your feedback and would answer any questions that you may have. Questions may be sent to us at lifeskills.happiness@gmail.com.

Jagat Singh Bisht, Founder: LifeSkills

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हिन्दी साहित्य – आलेख – आत्मनिर्भरता ही आत्मविश्वास की पहली सीढ़ी – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

आत्मनिर्भरता ही आत्मविश्वास की पहली सीढ़ी

(सुश्री ऋतु गुप्ता जी के लेख ,कहानी व कविताएँ विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।दैनिक ट्रिब्यून में जनसंसद में आपको लेख लिखने के लिए कई बार प्रथम पुरस्कार मिला है। आपका एक काव्य संग्रह ‘आईना’ प्रकाशित हो चुका है। दो किताबें प्रकाशन के लिए तैयार हैं। प्रस्तुत है सुश्री ऋतु जी का यह प्रेरणास्पद लेख।)

मैनें अपनी जिंदगी से चाहे कुछ सीखा हो या न पर एक बात जरूर सीखी है कि- अगर आत्मविश्वास प्रबल है तो जीत निश्चित है।आत्मविश्वास का अर्थ यही है कि अपने ऊपर विश्वास या फिर यह भी कह सकते हैं कि अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों पर पूर्ण विश्वास। इंसान को जब तक यह लगता है कि वह हर कार्य करने में सक्षम व समर्थ है तब उसका अपने ऊपर विश्वास बना रहता है और यह जीवनरूपी गाड़ी सरपट दौड़ती रहती है,जैसे ही अपने ऊपर से भरोसा डगमगाता है तो उसकी स्थिति पंक्चर टायर वाली गाड़ी के समान हो जाती है।और उसके साथ खत्म होने लगता है उत्साह भरे जीवन का नेतृत्व।यह बात सही कही गई है “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”। 

आत्मविश्वास खोने के जिम्मेदार बहुत से हालात व परिवेश, जगह और समाज हो सकते हैं।बहुत बार इंसान मानसिक कुंठाओं से व हीन भावनाओं से ग्रस्त हो इसका कारण बन बैठता है। बच्चे बहुत कोमल दिल वाले होते हैं । वे जल्द ही इन कुंठाओं के शिकार हो बैठते हैं। अपने आसपास ही ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं जैसे- एक घर में दो बहनों और भाइयों की सुंदरता या गुणों में अंतर है तो यह तुलना उनके बीच बचपन  से ही चल पड़ती है। तुलना करने वालों का मकसद चाहे कुछ भी हो पर वे मासूम इस बात को दिल पर ले बैठते हैं। यहाँ तक माँ-बाप व सभी यह बात भूल जाते हैं कि अपनी पाँचों उंगलियां भी कभी बराबर नहीं होती।

एक उदाहरण और ले सकते हैं कि कोई बच्चा जो जन्म से ही शारिरिक विकलांगता लिए पैदा हुआ है या फिर किसी दुर्घटना वश विकलांग हो गया है तो उसका दिल बेहद कोमल हो जाता है वह इस बात को स्वीकार करने को तैयार होता भी है तो सामाजिक माहौल ऐसा होता है कि उसको यह बात भूलने ही नहीं दी जाती। हर जगह चाहे नौकरी हो, शादी का सवाल हो या फिर शिक्षा हर जगह  यह कमी आड़े आने लगती है।उसका विश्वास टूटने लगता है, ऊपर से सामाजिक ताने और आहत कर जाते हैं।

कोई इंसान किस परिवार या जगह पर जन्म लेता है सफलता सिर्फ उसी पर निर्भर नहीं करती कई बार गरीब परिवार के बच्चों ने वो मुकाम हासिल किये हैं जो अमीर भी नहीं सोच सकते। उदाहरण के लिए हम अब्राहम लिंकन, डॉक्टर ए. पी. जे. अब्दुल कलाम  और अल्बर्ट आइंस्टीन आदि अनेक ऐसे उदाहरण है जिन्होंने अपने दृढ़ निश्चय व आत्मविश्वास के साथ हर कामयाबी हासिल की है।थॉमस अल्वा एडीसन ने 1000 बार बल्ब के बनाने के बाद सफलता प्राप्त की थी पर हौंसले बुलंद रहे उनके।

“हौंसले हों गर बुलन्द कामयाबी भी पैर चूम जाती है

इरादे हों दृढ़ तो वक्त की सुई पक्ष में ही घूम जाती है।

चाहे आप छोटी या बड़ी जगह से हो, पर आपकी सफलता आपके आत्मविश्वास और दृढ़ता से निर्धारित होती है।” -मिशेल ओबामा

अच्छा भला इंसान भी कई बार आत्मविश्वास खोने लगता है जैसे – अच्छी शिक्षा के बाद भी मन लायक नौकरी का न मिलना, मन लायक जीवनसाथी का न मिलना और व्यवसाय आदि में घाटा। इन सब घटनाओं से जीवन असंतुलित हो जाता है। जीवन की डोर हाथ से छूटने लगती है। बहुत कोशिश के बाद भी संभलना मुश्किल हो जाता है। जीवन नैया जब तक आत्मविश्वास रहता है बिना किसी भंवर के आगे बढ़ती रहती है, लेकिन जब अविश्वास रूपी भंवर में फंसने लगती है डूबने के पूरे-पूरे आसार नजर आते हैं।

स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार- “पुराने धर्मों में कहा गया है कि नास्तिक वह है,जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता। नया धर्म कहता है कि नास्तिक वह है,जो अपने ऊपर विश्वास नहीं करता।”

किसी का खोया आत्मविश्वास कैसे लौटे इसमे इंसान खुद अपनी सबसे ज्यादा मदद कर सकता है।सबसे पहले तो उसे खुद चाहिए कि कितने ही बुरे हालात क्यूँ न हो अपने ऊपर से भरोसा कतई न खोये। उसके बाद उसे समझना चाहिए कि अगर राह सही है तो भटकने के बाद भी वह अपनी मंजिल तक ही पहुंचेगा। समाज में भी दूसरे लोगों से अपेक्षा की जाती है कि ऐसे व्यक्ति का मनोबल बढ़ायें ना कि हतोत्साहित करें।

कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके चिंतन से हर चिंता दूर हो सकती है जैसे- हर कार्य के लिए दृढ़ इच्छा रखें, लगन से ही कार्य सिद्ध हुआ करते हैं, न कि सोच से।  एक निश्चित लक्ष्य साध कर चलें, नाकामी से मनोबल न गिरने दें, चिंतन करे चिंता नहीं ,सफल हस्तियों की जीवनी पढ़ें व साकारात्मक सोच रखें। एक बार असफलता से जिंदगी पूरी नहीं हो जाती सफलता के लिए तो अभी पूरा जीवन पड़ा है। अगर बार-बार असफलता मिलती है तो भी घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह अकेला ऐसा इंसान नहीं है। उसके पड़ाव में ऐसे अनगिनत लोग मिल जायेंगे जो उसका हाथ पकड़ चलने को तैयार हैं और जिनको हालातों ने वैसा ही बना दिया है। वे मिलजुल  कर अपनी समस्याओं का सामाधान निकाल सकते हैं व एक-दूसरे का सहारा बन सकते हैं।

ऐसे ही बच्चों के मामले में तो बहुत एहतियात बरतने की जरूरत है क्योंकि बच्चे कच्ची मिट्टी से बने बर्तनों के समान है जैसे ढालें ढल जाते हैं। बच्चों के ऊपर कभी अपने सपनों का बोझ नहीं लादना चाहिए। उनकी अपनी अलग सपनों की दुनिया हो सकती है। हमेशा उनका मनोबल उंचा कर उनके काम की तारीफ करनी चाहिए। किसी के साथ तुलना न कर उसकी योग्यता को बढ़ावा देना चाहिए। सबके सामने उसकी काबिलियत की तारीफ करनी चाहिए। ऐसा करने से बच्चों में दृढ़ सकंल्प की भावना पैदा होगी व मनोबल बढ़ेगा।

आवेग में आकर कभी गलत कदम नहीं उठाने चाहिए क्योंकि यह बुजदिलों का काम है। जीवन अनमोल है इसका एक-एक क्षण महत्वपूर्ण है अगर हम अपने को महत्त्व देते हैं और प्यार करते है तो यह समाज व दुनिया भी हमें प्यार करेगें। अपने को किसी से कम आंकना खुद के साथ नाइंसाफी है।

आत्मविश्वास से आत्मसम्मान मिलता है और वह आत्मनिर्भरता की पहली सीढ़ी है। यह सफलता व कामयाब जीवन की कुंजी है। बुरा वक्त कभी कह कर नहीं आता।उससे लड़कर आगे बढ़ना ही बाहदुरी है। अपने ऊपर विश्वास रखने वाले कमजोर से कमजोर इंसान कामयाब हो जाते हैं व आत्मविश्वास खोने वाले कामयाब से कामयाब इंसान नाकाम। आत्मविश्वास ही हर सफलता की सीढ़ी है।

© ऋतु गुप्ता

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पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य – ग़ुलामी की कहानी – श्री सुरेश पटवा 

आत्मकथ्य – ग़ुलामी की कहानी – श्री सुरेश पटवा 

(‘गुलामी की कहानी’  श्री सुरेश पटवा की प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। आपका जन्म देनवा नदी के किनारे उनके नाना के गाँव ढाना, मटक़ुली में हुआ था। उनका बचपन सतपुड़ा की गोद में बसे सोहागपुर में बीता। प्रकृति से विशेष लगाव के कारण जल, जंगल और ज़मीन से उनका नज़दीकी रिश्ता रहा है। पंचमढ़ी की खोज के प्रयास स्वरूप जो किताबी और वास्तविक अनुभव हुआ उसे आपके साथ बाँटना एक सुखद अनुभूति है। 

श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं। आप अभी अपनी नई पुस्तक ‘पलक गाथा’ पर काम कर रहे हैं। प्रस्तुत है उनकी पुस्तक गुलामी की कहानी पर उनका आत्मकथ्य।)


यह किताब  भारत के उन संघर्षशील सौ सालों का दस्तावेज़ है जिसमें दर्ज हैं मुग़लों, मराठों, सिक्खों, अंग्रेज़ों और असंख्य हिंदुस्तानियों की बहादुरी, कूटनीति, धोखाधड़ी, कपट, सन्धियाँ और रोमांचक बहादुरी व रोमांस की अनेकों कहानियाँ। यह किताब उपन्यास के अन्दाज़ में इतिहास की प्रस्तुति है इसमें इतिहास का बोझिलपन और तारीख़ों का रूखापन नहीं है। गहन अध्ययन और खोजबीन के  बाद  हिंदी में उनके लिए रोचक अन्दाज़ में लिखी गई है जो कौतुहल वश हमारी ग़ुलामी की दास्तान को एक किताब में पढ़ना चाहते हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी माध्यम से आधुनिक इतिहास लेकर शामिल होना चाहते हैं।

आदिम युग से मध्ययुग तक ग़ुलामी पूरी पृथ्वी पर एक सशक्त संस्था के रूप में विकसित हुई है वह किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद है। जिज्ञासुओं के लिए इसमें इस प्रश्न के उत्तर का ख़ुलासा होगा कि आख़िर हमारा भारत ग़ुलाम क्यों हुआ? ताकि इतिहास की ग़लतियों को दुहराने की फिर ग़लती न करें। कहावत है कि जो इतिहास नहीं जानते वे उसकी ग़लतियों को दोहराने को अभिसप्त होते हैं।

भारत की ग़ुलामी को दो  भाग में बाँटा जा सकता है। 1757-1857 के एक सौ एक साल जिनमे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हमें ग़ुलाम बनाया और 1858-1947 के नब्बे साल ब्रिटिश सरकार ने हमारे ऊपर राज्य किया।

ग़ुलामी मानवता के प्रति  सबसे बड़ा अभिशाप है। ग़ुलामी लादने और ग़ुलामी ओढ़ने वाले दोनों ही खलनायक हैं। ऐसे ही खलनायकों की दास्तान है यह किताब।

ग़ुलामी की कहानी से…….

आम भारतीय आज़ादी के बारे में बहुत कुछ जानता है कि कैसे भारत में राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ? हिंसक और अहिंसक कार्यवाही और आंदोलन हुए? कांग्रेस का गठन, फिर गरम-दल, नरम-दल, साईमन कमीशन,  जालियाँवाला बाग़ में बर्बरता, स्वदेशी आंदोलन, नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन और अंत में आज़ादी। इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी, क्योंकि 1858 से 1947 तक हम  90 साल  अंग्रेज़ी हुकूमत के शासन में पूरी तरह ग़ुलाम रहे  थे। जिसकी प्रक्रिया 1757 में  एक सौ एक साल पहले शुरू हो चुकी थी। उसके बारे में हम कितना जानते हैं?

इतिहासकारों और विद्वानों को छोड़ दें तो भारत का आम आदमी यह नहीं जानता कि अंग्रेज़ों ने भारत को किस प्रक्रिया से और कैसे ग़ुलाम बनाया था? वे सब चीज़ें इतिहास की बड़ी-बड़ी किताबों में बिखरी हुई मिलती हैं। बहुत ढूँढने पर भी न तो अंग्रेज़ी में और न ही हिंदी में या अन्य किसी भारतीय भाषा में एक जगह ग़ुलामी की कहानी पढ़ने को नहीं मिलती है।

1757 से 1857 के एक सौ एक साल भारत के इतिहास का वह कालखंड हैं जिसमें भारत दुनिया के दूसरे देशों से दो सौ साल पिछड़ गया था। जबकि छलाँग लगा के सौ साल आगे निकल सकता था।  अंग्रेज़ों का कहना है कि उन्होंने हमें प्रशासन, सेना, संचार, शिक्षा और संस्थाएँ दीं ये ठीक वैसा ही है कि पेट की भूख तो बढ़ा दी और भोजन छीन लिया। उन्होंने हमारा भयानक शोषण किया और शोषण का ढाँचा खड़ा करने में स्वमेव कुछ विकसित हुआ, उसे वे देना कहते हैं। हमें अपने हाल पर रहने देते जैसे उनके बग़ैर जापान और चीन रास्ते तलाश कर विज्ञान टेक्नॉलोजी विकसित करके आगे निकल  विकसित देशों की क़तार में खड़े हैं।

ब्रिटेन के ही आर्थिक इतिहासकार ऐंगस मैडिसॉन ने गहन अध्ययन से दुनिया के सामने एक चौंकाने वाली बात रखी है कि जब 1757 में भारत में ग़ुलामी की शुरुआत हो रही थी। उस समय अकेले भारत का दुनिया के सकल उत्पाद में हिस्सा 27% था,  जो कि यूरोप के कुल उत्पाद के बराबर था। जबकि इंग्लैंड का दुनिया के सकल उत्पाद में 3% हिस्सा था। 1947 में जब अंग्रेज़ भारत को  छोड़कर गए उस समय भारत का दुनिया के सकल उत्पाद में 3%  अंशदान बचा था और इंग्लैंड का बढ़कर 23% हो गया था। इसका सीधा अर्थ निकलता है कि भारत को निचोड़कर इंग्लैंड धनाढ़्य हुआ था। यह ग़ुलामी का परिणाम था।

एक और मापदंड है भारत में ग़ुलामी की भयावहता को मापने का। अंग्रेज़ों के आने के बाद 1770 से 1943 तक भारत में आर्थिक शोषण की नीतियों के कारण 17 अकाल पड़े जिनमें कुल 3 करोड़ 50 लाख लोग काल-कवलित हुए थे। जबकि उसी समयावधि में दुनिया के युद्धों में कुल 50 लाख लोग ही मारे गए थे। इसको तानाशाही से मारे गए मानवों से तुलना करें तो पाते हैं कि रूस में स्टालिन की तानाशाही से 2 करोड़ 50 लाख, चीन में माओ के अत्याचार से 4 करोड़ 50 लाख और द्वितीय विश्वयुद्ध में 5 करोड़ 50 लाख लोग मारे गए थे।  भारत में अंग्रेज़ों के शोषण  दुश्चक्र के ये प्रमाण ख़ुद अंग्रेज़ विद्वानों ने दुनिया के सामने रखे हैं। भयावहता इससे कहीं भयानक थी। उसके लिए आपको बिना खाए-पिए चार दिन भूखा प्यासा रहना होगा तब समझ आएगी भूख से तड़पती मौतें कैसी हुई होंगी। उस समय भारत की जनसंख्या 20 करोड़ थी 3.50 करोड़ लोगों का भूख से तड़फ कर मर  जाना याने 17.50% जनसंख्या का सफ़ाया।

सहज ही इस विषय को अध्ययन का केंद्रबिंदु बनाकर पढ़ना शुरू किया तो लिखने की इच्छा हुई और नतीजा आपके सामने है। अक्सर कहानी में नायक और खलनायक होते हैं लेकिन इस कहानी की विशेषता है कि इसमें नायक कोई नहीं, सब खलनायक हैं, जो ग़ुलाम बना रहे हैं वो भी और जो ग़ुलाम बन रहें हैं वो भी क्योंकि दोनो मानवता का ख़ून कर रहे हैं। जो ग़ुलाम बना रहे हैं वो भलाई के नाम पर इंसानियत का ख़ून कर रहे हैं और जो ग़ुलाम बन रहे हैं वो आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने के उपक्रम में ख़ुद अपनी बर्बादी के दोषी हैं। इसमें मुख्य नायिका “सत्ता की देवी” है। जो एक अदृश्य पात्र है। जिसका आहार मनुष्य का ख़ून है। उसके अस्त्र काम, क्रोध, लोभ और मोह हैं। उसके मुकुट में अहंकार और द्वेष के माणिक लगे हैं जिनकी चकाचौंध में वह रिश्तों का ख़ून करने से नहीं चूकती है। वह नृशंसता में किसी सीमा को नहीं मानती। सत्ता की देवी के पुजारी राजा-महाराजा या शाह-बादशाह हैं।  वह उनके माध्यम से ही बलि का प्रसाद ग्रहण करती है। मध्ययुग में मनुष्यता उसके पैरों के नीचे दबी कराह रही थी। ऐसी है हमारी ग़ुलामी की कहानी।

© सुरेश पटवा

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