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प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से
(इस श्रंखला में अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )
नर्मदा परिक्रमा 2
ग्वारीघाट से तिलवारा घाट
ग्वारीघाट से चले दो घंटे हो चुके थे। तिलवारा घाट शाम तक पहुँचने का लक्ष्य था। तिलवारा घाट का पुल तीन किलोमीटर पहले से दिखने लगा था। उसे देखते ही लगा कि लो पहुँच गए तिलवारा घाट परंतु चलते-चलते पुल नज़दीक ही नहीं आ रहा था।
पुल के दृश्य का पेनोरमा नज़ारा जैसा का तैसा बना था।
तभी सामने एक बड़ा चौड़ा पहाड़ी नाला रास्ता रोककर खड़ा हो गया। खेतों में काम कर रहे मल्लाहों से पूछा तो उन्होंने बताया कि दो किलोमीटर ऊपर चढ़कर नाला पार करके नागपुर रोड पर पहुँच कर तिलवारा घाट पहुँचा जा सकता है इसका मतलब हुआ चार किलोमीटर का चक्कर। सबके पसीने छूट गए।
टी पी चौधरी साहब सपत्नीक गेंदों की मालाओं, नारियल,फल और ढेर सारा प्यार व परकम्मावासियों के प्रति हृदय में सम्मान आस्था लेकर तिलवारा घाट पर खड़े थे। हमारी स्थिति लेते रहे थे। मोबाइल से उनको निवेदन किया कि एक नाव घाट से भिजवा दें। इसके पहले कि वे घाट पर आएँ, एक नाविक को हम दिख गए और हमने भी तेज़ आवाज़ के साथ हाथ हिलाए। एक नाव में बैठकर तिलवारा घाट पर उतरे। चौधरी साहब ने बड़ी आत्मीयता और सम्मान से मालाओं को पहनाकर स्वागत किया और नारियल चीरोंजी अर्पित किया मानो हम देव हो गए हों। हमेशा की तरह हम उनके चरणस्पर्श करने को झुके तो उन्होंने हमें रोक दिया क्योंकि हम परिक्रमा वासी थे। भाभी जी अभिभूत थीं। उनका मातृवत प्रेम पूरी यात्रा हमारे साथ चला। सब लोग चौधरी दम्पत्ति के बारे में बतियाते रहे।
वैराग्य पर बातें करने लगे। घर, कपड़े, बिस्तर, पानी, खाना, पंखा, फ़र्निचर, गद्दे, गाड़ी, रुपया-पैसे, रिश्ते-नाते इन सब से परे भगवान भरोसे सिर्फ़ भगवान भरोसे। न रास्ते का पता, न खाने का पता, न ठिकाने का पता।
बस एक अवलंबन नर्मदा, जिसके भरोसे ईश्वर के रिश्ते की डोर आदमियत से बंधी है। बस वही बचाएगी, वही खिलाएगी, वही सुलाएगी।
सब कुछ तोड़कर और सब कुछ छोड़कर उसकी धारा में जाओगे तो वह पार लगाएगी। कर्मकांड से परे एक दीपक आस्था का। जूझो धूप से, पहाड़ से, पानी से, इंसानी नादानी से।
धौंकनी सा चलता दिल, पिघल कर पसीना होती देह और आत्मा में तारनहार के प्रति असीम आस्था की परीक्षा है नर्मदा यात्रा।
जिस घर के सामने पहुँचकर कंठ से “नर्मदे हर” का अलख जगाया। उत्तर में हर-हर नर्मदे का स्वर घर के सभी सदस्यों की आवाज़ में एकसाथ गूंजा और सबसे बुज़ुर्ग सदस्य की आवाज़ सुनाई देती है बैठो साहब पानी पी लो, चाय पी लो, भोजन बना दें।
सिर्फ़ आदमियत का रिश्ता कि पूरी पृथ्वी के जीव एक ही ब्रह्म के अंश हैं। सब अन्योनाश्रित हैं। वसुधेव कुटुम्बकम। भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य, जो मानवता वादियों का सबसे बड़ा संबल है। धर्म का सच्चा रूप। दुनिया की आतंकवाद के विरुद्ध एकमात्र आशा।
अत्यावश्यक से परे न्यूनतम पर जीवन पर विचार हुआ। भूख, भोजन, यौनइच्छा और आराम ये चार चीज़ें मानुष और पशु को प्रकृति की अनिवार्य देन हैं क्योंकि जीवन का चक्र इन्हीं से गतिमान होता है। भूख है तो भोजन की तलाश है, शरीर की थकान से भरपेट भोजन मिला तो यौन इच्छा जागती है, जिसकी पूर्ति होते ही नींद की प्रगाढ़तावश आराम अनिवार्य हो जाता है।
छः दिन भूख, भोजन, यौनइच्छा से परे सुबह से शाम तक चलते-चलते चूर होने से भूख मिट गई, भोजन नहीं मिला तो यौनइच्छा लुप्त सी रही क्योंकि काम की जननी ऊर्जा का अंश देह में बचा ही नहीं।
यहाँ से प्रथम सह यात्री विनोद प्रजापति दमोह को वापिस चले गये, श्रीवर्धन नेमा व रवि भाटिया जबलपुर।
प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से
(इस श्रंखला में अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ रहे होंगे।
श्री पटवा जी ने नर्मदा परिक्रमा खंड-1 की यात्रा अपने परिक्रमा-दल के साथ पूर्ण कर ली है। अब हम साझा करेंगे उनकी यात्रा का अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में ।)
नर्मदा परिक्रमा-1
परिक्रमा दल
नाम उम्र परिचय
बी सी कोलिता 91 सेवानिवृत्त फ़ौजी
जगमोहन अग्रवाल 71 सेवानिवृत बैंकर
प्रयास जोशी 66 सेवानिवृत बैंकर
अरुण दनायक 59 स.म.प्र. भारतीय स्टेट बैंक
श्रीवर्धन नेमा 59 सेवारत बैंकर
रवि भाटिया 63 सेवानिवृत्त बैंकर
विनोद प्रजापति 59 सेवारत बैंकर
अविनाश दवे 60 सेवारत बैंकर
मुंशीलाल पाटकर 59 वक़ील
सुरेश पटवा 67 सेवानिवृत्त बैंकर
नर्मदा नदी का प्राकृतिक विवरण।
उद्गम – मेकल पर्वत श्रेणी, अमरकंटक
समुद्र तल से ऊंचाई – 1051 मीटर
म.प्र में प्रवाह – 1079 किमी
कुल प्रवाह (लम्बाई) – 1312 किमी
नर्मदा बेसिन का कुल क्षेत्रफल – 98496 वर्ग किमी
राज्य – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात
विलय – भरूच के आगे खंभात की खाड़ी
सनातन मान्यता
नर्मदा जी – वैराग्य की अधिष्ठात्री है
गंगा जी – ज्ञान की,
यमुना जी – भक्ति की,
ब्रह्मपुत्रा – तेज की,
गोदावरी – ऐश्वर्य की,
कृष्णा – कामना की और
सरस्वती जी – विवेक के प्रतिष्ठान की।
सनातन परम्परा में सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है। श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है। नर्मदा तटवासी माँ नर्मदा के करुणामय व वात्सल्य स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बडी श्रद्धा से पैदल चलते हुए इनकी परिक्रमा करते हैं। अनेक देवगणों ने नर्मदा तत्व का अवगाहन ध्यान किया है। ऐसी एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हीं नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिग आदि स्थापित हैं। जिनकी महत्ता चहुँ ओर फैली है। परिक्रमा वासी लगभग तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं। परिक्रमा प्रारंभ् श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ् होती है।
नर्मदा की इसी ख्याति के कारण यह विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है । प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है। यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी ।
व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं । आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है ।
पैदल परिक्रमा का आनंद सबसे अलग है। पैदल परिक्रमा अखंड और खंड दो प्रकार से ली जाती है। जो लोग 3 साल, 3 महीना और 13 दिन का समय एक साथ नहीं निकल सकते वे कई टुकड़ों में परिक्रमा कर सकते हैं।
नर्मदा परिक्रमा के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करने के लिए स्वामी मायानन्द चैतन्य कृत नर्मदा पंचांग (1915) श्री दयाशंकर दुबे कृत नर्मदा रहस्य (1934), श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत नर्मदा दर्शन (1988) तथा स्वामी ओंकारानन्द गिरि कृत श्रीनर्मदा प्रदक्षिणा पठनीय पुस्तकें हैं जिनमें इस परिक्रमा के तौर-तरीकों और परिक्रमा मार्ग का विवरण विस्तार से मिलता है।
इसके अतिरिक्त श्री अमृतलाल वेगड द्वारा पूरी नर्मदा की परिक्रमा के बारे में लिखी गई अद्वितीय पुस्तकें ’’सौंदर्य की नदी‘‘ नर्मदा तथा ’’अमृतस्य नर्मदा‘‘ नर्मदा परिक्रमा पथ के सौंदर्य और संस्कृति दोनों पर अनूठे ढंग से प्रकाश डालती है । श्री वेगड की ये दोनों पुस्तकें हिन्दी साहित्य के प्रेमियों और नर्मदा अनुरागियों के लिए सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर जैसी हैं । यद्वपि ये सभी पुस्तकें नर्मदा पर निर्मित बांध से बने जलाशयों के कारण परिक्रमा पथ के कुछ हिस्सों के बारे में आज केवल एतिहासिक महत्व की ही रह गई है, परन्तु फिर भी नर्मदा परिक्रमा के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए अवश्य पठनीय है । नर्मदा की पहली वायु परिक्रमा संपन्न करके श्री अनिल माधव दवे द्वारा लिखी गई पुस्तक ’अमरकण्टक से अमरकण्टक तक‘ (2006) भी आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत प्रासंगिक है ।
पतित पावनी नर्मदा की विलक्षणता यह भी है कि वह दक्षिण भारत के पठार की अन्य समस्त प्रमुख नदियों के विपरीत पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है । इसके अतिरिक्त केवल ताप्ती ही पश्चिम की ओर बहती है परन्तु एक वैज्ञानिक धारणा यह भी है कि करोडों वर्ष पहले ताप्ती भी नर्मदा की सहायक नदी ही थी और बाद में भूगर्भीय उथल-पुथल से दोनों के मुहाने पर समुद्र केकिनारों में भू-आकृति में बदलाव के फलस्वरूप ये अलग-अलग होकर समुद्र में मिलने लगीं । कुछ भी रहा हो परन्तु इस विषय पर भू-वैज्ञानिक आमतौर पर सहमत हैं कि नर्मदा और ताप्ती विश्व की प्राचीनतम नदियाँ हैं । नर्मदा घाटी में मौजूद चट्टानों की बनावट और शंख तथा सीपों के जीवाश्मों की बडी संख्या में मिलना इस बात को स्पष्ट करता है कि यहां समुद्री खारे पानी की उपस्थिति थी । यहां मिले वनस्पतियों के जीवाश्मों में खरे पानी के आस-पास उगने वाले पेड-पौधों के सम्मिलित होने से भी यह धारणा पुष्ट होती है कि यह क्षेत्र करोडों वर्ष पूर्व भू-भाग के भीतर अरब सागर के घुसने से बनी खारे पानी की दलदली झील जैसा था । नर्मदा पुराण से भी ज्ञात होता है कि नर्मदा नदी का उद्गम स्थल प्रारंभ में एक अत्यन्त विशाल झील के समान था । यह झील संभवतः समुद्र के खारे पानी से निर्मित झील रही होगी । कुछ विद्वानों का मत है कि धार जिले में बाघ की गुफाओं तक समुद्र लगा हुआ था और संभवतः यहां नर्मदा की खाडी का बंदरगाह रहा होगा।
जंगल को बचाने के लिए,
पहाड़ पर कविता जाएगी,
कुल्हाड़ी की धार के लिए,
कमरे में दुआ मांगी जाएगी,
पहाड़ पर बोली लगेगी,
कविता भी नीलाम होगी,
कवियों के रुकने के लिए,
कटे पेड़ के घरौंदे बनेंगे,
उनके ब्रेकफास्ट के लिए,
सागौन के पेड़ बेचे जाएंगे,
उनके मूड बनाने के लिए,
महुआ रानी चली आयेगी,
कविता याद करने के लिए,
रात रानी बुलायी जाएगी,
कविता के प्रचार के लिए,
नगरों के टीवी खोले जाएंगे,
कवि लोग कविता में,
जंगल बचाने की बात करेंगे,
टी वी में कविता के साथ,
पेड़ रोने की आवाजें आयेंगी,
दूसरे दिन मीडिया से,
जांच कमेटी खबर बनेगी,
और पहाड़ पर कविता,
बेवजह बिलखती मिलेगी,
जीवन में जो दुःख आयेंगे, वो दिन भी वह ही काटेगा…..”
तेजी से भागती हरिद्वार अहमदाबाद एक्सप्रेस में कच्चे कंठ से यह गाना सुनाई दिया, धीरे-धीरे गाने के बोल साफ होने लगे। थोड़ी देर बाद एक छोटी-सी लड़की पत्थर की दो चिप्स उंगलियों में फंसाकर ताल देकर गाना गाते हुये आगे निकल गई। डिब्बे के दूसरे छोर पर पहुँच कर उसने हाथ फैलाकर पैसे मांगना शुरू किया। मेरे पास जब वो आई तो उसे ध्यान से देखा, आठ-नौ साल की लड़की, मैली से जीन्स टी शर्ट पहने सामने खड़ी थी। चेहरे पर भिखारियों का भाव न होकर छिपा हुआ अभिजात्य दिख रहा था। उसकी मासूमियत देखकर उसे भिखारी मानने का मन नहीं करता था। उसके हाथ पर पैसे रखते हुये सहज भाव से मैंने पूछा – “स्कूल में पढ़ती हो?”
उसने झिझकते हुये कहा- “पढ़ती थी, चौथी कक्षा में।”
मैंने फिर प्रश्न किया- “फिर अब ये काम क्यों करती हो?”
जवाब में उसने सूनेपन से कहा- “पिताजी का देहांत हो गया है।”
मेरी उत्सुकता ने फिर प्रश्न दागा- “फिर अब घर कौन चलाता है?” ……
उसने विरक्त भाव से मुझे देखा, पैसे जेब में रखे, गाना शुरू किया और आगे चल दी –
“जिसने जीवन बांटा है वो सुख के पल भी बांटेगा,
जीवन में जो दुःख आयेंगे, वो दिन भी वह ही काटेगा…..”
(श्री सदानंद आंबेकरजी हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में अभिरुचि। गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से निरंतर प्रवास।)
प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से
(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ हैं।)
लोग अक्सर नर्मदा को सतपुड़ा की बेटी कह देते हैं जो पूरी तरह सही नहीं है। भारत के भूगोल को जानने वाले समझते हैं कि विंध्याचल और सतपुड़ा दो पर्वत श्रेणियाँ मध्यभारत में पूर्व से पश्चिम की तरफ़ पसरी हुईं हैं। आज के रीवा संभाग में सीधी से एक पर्वत श्रंखला रीवा सतना पन्ना छतरपुर दमोह सागर रायसेन सिहोर देवास इंदौर झाबुआ होते हुए गुजरात निकल जाती है। वही विंध्याचल पर्वत शृंखला है। जिससे हिरन, टिंदोली, बारना, चंद्रकेशर, कानर, मान, उटी और हथनी, ये आठ नदियाँ आकर माँ नर्मदा में मिलतीं हैं।
रेवा कुंड अमरकण्टक
मैकल पर्वत से निकलकर नर्मदा के साथ सतपुड़ा की पर्वतश्रेणियाँ डिंडोरी मंडला जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद और हरदा से होकर गुज़रती है। इस तरफ़ से बरनार, बंजर, शेर, शक्कर, दूधी, तवा, कुंदी, देव और गोई, ये नौ नदियाँ नर्मदा में मिलतीं हैं।
इस प्रकार कुल 17 बड़ी नदियाँ नर्मदा को सही मायने में नर्मदा बनातीं हैं। हम पलकमती जैसी छोटी तो कई नदियाँ हैं जो सीधी माता के चरणों में विश्राम पाती हैं। सारी छोटी नदियों का जल ओंकारेश्वर में पहुँचकर ॐ के आकार में मिलकर एकसार होता है। थोड़े आगे एक जगह है बड़वाह के नज़दीक जहाँ भारत का एक अत्यंत प्रतिभाशाली सैन्य निपुण प्रशासक बाज़ीराव पेशवा पूना के चितपावन ब्राह्मणों के षड्यंत्रों के चलते अकाल मृत्यु का ग्रास बना था। वह अपने जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारा था परंतु घरेलू प्रपंचों से मस्तानी से दूर होकर ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश खो चुका था। वह ज़िंदा रहता तो शायद हिंदुस्तान अंग्रेज़ों का ग़ुलाम न हुआ होता। उसने दिल्ली को जीतकर मुग़ल बादशाह को सुरक्षा प्रदान की थी। शिवाजी के बाद वह ही प्रतिभाशाली व्यक्ति मराठा साम्राज्य में था जिसका नज़रिया अखिल भारतीय था जो कूटनीति, सैनिक और प्रशासनिक बारिकियाँ समझता था। बाक़ी सब मराठा सरदार स्वार्थपरता और क्षेत्रीयता की चाशनी में पगे हुए थे।
ओंकारेश्वर के संकुल में माँ नर्मदा ने हम बहनों को पहले रेवा फिर नर्मदा नाम से पुकारे जाने की कहानी सुनाई थी।
शब्द और नाम भी काल और परिस्थितियों के हिसाब से अर्थ ग्रहण करते और छोड़ते हैं। मुझे समझने के लिए आप लोग भाव और तत्व दोनो तरीक़े अपना सकते हैं। वैसे भाव भी तत्व में ही समा जाता हैं। जैसे आत्मा 1 है, तत्व 5 हैं, गुण 108 हैं। यहाँ जैसे ही 1, 5, 108 कहा तो भाव विलुप्त हो गया गणना आ गई। भाव गणनीय नहीं है, और तत्व खड़ा हो गया, विज्ञान आ गया, गौतम बुद्ध ने इसे ही विज्ञान कहा है। भाव को सहारा देने तर्क आ खड़ा हुआ। इसी विज्ञान पर महावीर और बुद्ध ने निरीश्वरवादी दर्शन खड़ा किया जो कि विश्व दर्शन की श्रेणी में आता है। सनातन विचारों की कोख से ही जैन और बौद्ध दर्शन आए हैं। सनातन की पराकाष्ठा महावीर और बुद्ध में परिलक्षित हुई है।
पहले भाव अभिव्यक्ति से रेवा और नर्मदा को समझें। भारत में किसी भी चीज़ का अस्तित्व अंततः भगवान विष्णु और शिव से जुड़ जाता है। गुप्त काल में रचित स्कन्द पुराण के रेवा खंड में वर्णित है कि विष्णु के कुल इक्कीस अवतार में से बीस अवतार के दौरान मानव हत्या के पाप से मुक्ति के लिए शिव के पसीने से राजा मैकल के घर में एक बारह वर्षीय कन्या उत्पन्न हुई। उसने वरदान माँगा कि उसका हरेक पत्थर शिवलिंग की मान्यता प्राप्त किया हो। उसे बिना किसी अनुष्ठान के शिव के रूप में पूजनीय माना गया। वह उछल कूद करते हुए सारी नदियों से उलटी दिशा में बह चली। 1312 किलोमीटर चलकर खम्बात की खाड़ी में जलधि में विलीन हो गई। उछल-कूद को रेवा भी कहा जाता है। वह डिंडोरी और मंडला जिले के पहाड़ी क्षेत्रों से उछल-कूद मचाते हुए गुज़रती है इसलिए उसे रेवा पुकारा गया। आज का रीवा उसी रेवा शब्द से बना है। अंग्रेज़ी में उसे आज भी Rewa लिखा जाता है। बघेलखंड के विंध्याचल पर्वत की एक श्रेणी मैकल भू-भाग से जो नदी निकलती थी वह पहले शहडोल जिले में था परंतु अब अनूपपुर जिले में आता है। वह सम्पूर्ण भू-भाग रेवा राज्य के नाम से जाना गया है। जिसमें रीवा सतना शहडोल उमरिया सीधी कटनी तक के इलाक़े आते थे। उसके परे दक्षिण में गोंडवाना लगता था। उत्तर में काशी और कारा राज्यों की सीमा थी।
इसमें एक बड़ा महत्वपूर्ण भाव छुपा हुआ है कि मानव धर्म सबसे बड़ा धर्म है। भले ही राक्षस ने मानवता के विरुद्ध काम किया हो और उसका वध करने के लिए विष्णु को अवतार लेकर मारना पड़ा हो लेकिन मानव हत्या का पाप भगवान विष्णु को भी लगा और उसकी मुक्ति की व्यवस्था सनातन दर्शन में रखी गई है। यह भाव ही मानवता के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है।
(कल आपसे साझा करेंगे श्री सुरेश पटवा जी एवं उनकी टीम की नर्मदा परिक्रमा (प्रथम खण्ड) की वास्तविक शुरुआत का प्रथम चरण )
करेला और नीम चढ़ा की तरह सेल में डिस्काउंट चढ़ बैठता है पुरुष सेल और डिस्काउंट से चिढ़ते हैं और महिलाएं सेल और डिस्काउंट के चक्कर मे सीढ़ी चढ़तीं हैं। माल में सेल और डिस्काउंट का बोलबाला है।माल के बाहर बैठा हुआ एक फिलासफर टाइप का आदमी एक डेढ़ घंटे से S. A. L. E और डिस्काउंट शब्दों की उधेड़बुन में इतना परेशान दिख रहा है कि उसके चेहरे में हवाईयां उड़ रही हैं। बीच बीच में बुदबुदाता हुआ वो आदमी कभी दाढ़ी के बाल नोंचता है कभी नाक में ऊंगली डाल के नाक छिंनकता है। कभी पेन खोलकर हाथ की गदेली में एस ए एल ई लिखकर आसमान की तरफ देखता है तो कभी दूसरे हाथ की गदेली में डिस्काउंट लिखकर थूक से मिटाता है। जिस चमचमाते वैभवशाली अलबेले मॉल के सामने वह बैठा है वहां लड़के लड़कियों के झुंड फटे जीन्स पहने कूल्हे मटका रहे हैं, बीच बीच में कुछ लड़के लड़कियां अल्हड़ सी आवारगी के साथ भटकते हुए स्वचलित सीढ़ियों से माल की रंगत और जगमगाहट का आनंद लेते हैं माल के गेट का कांच दरवाजा शर्म से पानी पानी हो जाता है जब ये करीब आते हैं।
वह फिलासफर टाइप का आदमी अपने आप से ही पूछता है कि क्या बाजार संस्कृति का मायावी तिलिस्म हमसे हमारा समय बोध छीनने पर उतारू है? माल के सामने दो आटो वाले डिस्काउंट पर बहस करते हुए मजाकिया अंदाज में कह रहे हैं कि सेल में अधिकांश चीजें एक खरीदो साथ में एक फ्री मिलतीं हैं जिसके पास बीबी नहीं होती उसको भी सुविधा मिलती है। माल के गेट पर दो तीन मनचले माल में आते जाते मनभावन माल की फटी जीन्स पर फिदा लग रहे हैं।
माल की सारी दुकानों के गेट पर चमचमाते शब्दों में अंग्रेजी में सेल और डिस्काउंट लिखे शब्दों को वह कांच से देख रहा है पत्नी अंदर माल की सेल में है। वह बार बार सोचता है कि ये सेल और डिस्काउंट शब्दों में लार टपकता गजब का आकर्षण क्यों होता है जो महिलाओं और खाऊ पुरुषों को आकर्षित कर चुम्बक की तरह खींचता है। उसे याद आया पड़ोसन जब भी सेल से कुछ खरीद कर लाती है उस दिन घर में खूब उठापटक और गालीगलौज का माहौल बनता है।
सुबह अखबार आता है अखबार के अंदर सेल के पम्पलेट से उसे चिढ़ होती है इसलिए वह चुपके से उस पम्पलेट को फाड़ कर छुपा देता है। एक बार फाड़ते समय बीबी ने रंगे हाथों पकड़ लिया और खूब सुनाया बोली – ‘तुम मेरी भावनाओं और इच्छाओं से खिलवाड़ करते हो, मेरे शापिंग के शौक में अडंगा डालते हो’….. और भी बहुत बोला, बताने लायक नहीं है।
सब शापिंग पीड़ित पतियों को आज तक समझ नहीं आया कि महिलाओं को सेल और डिस्काउंट से इतना प्रेम क्यों होता है। सेल और डिस्काउंट से पति लोग चिढ़ते हैं पर पत्नियां सेल और डिस्काउंट से अजीब तरह का प्रेम करतीं हैं। प्रेम करते समय उनसे पूछो तो कहतीं हैं “पता नहीं क्या हो जाता है खरीदारी का भूत सवार हो जाता है” हांलाकि हर बार घर पहुंच कर दबी जुबान से ठगे जाने का अहसास करातीं हैं और दुकान मालिक की ‘ठठरी बंध जाए’ कहके पति का दिल जीतना चाहतीं हैं। ऐसे में पति का बाप कवि हो तो बहू बेटे की ये बातें सुन सुन कर सेल और डिस्काउंट विषय पर महाकाव्य लिख लेता है।
माल संस्कृति ने सेल और डिस्काउंट को बढ़ावा दिया है। सेल से निकली एक महिला से एक भिखारी ने पूछा कि सेल में महिलाओं की ज्यादा भीड़ क्यों रहती है?
महिला ने तपाक से जबाब दिया – वहां सब टंगी चीजों को बार – बार छूने का सुख मिलता है और सबको उलटा पलटा के पटकने का मजा आता है वहां खूब मन भी भटकता है मन भटकने से गुदगुदी होती है और इंद्रधनुषी निर्णय के महासागर में बार बार डुबकी लगाने का अवसर भी मिलता है, अंडर गारमेंट के पोस्टर देखने का आनंद भी लूटते हैं और तरह-तरह से सज धज के आयी औरतों को देखकर ईर्ष्या का चिपचिपा रस भी पैदा होता है।
भिखारी बोला – पर मेडम यहां तो सब माल रिजेक्टेड वाला रखा जाता है, ऐसा माल जो कहीं नहीं बिकता। सेल और डिस्काउंट का लोभ ऐसे सब माल को बिकवा देता है यहां मन ललचाने का पूरा प्रपंच रचा जाता है।
भिखारी की सच बात सुनकर मेडम नाराज हो जाती है पुरानी चौवन्नी उसके कटोरे में फैंक कर माल के बाहर इंतजार कर रहे पति की तलाश करने लगती है।
हाथ में दो बड़े बड़े चमचमाते मुस्कराते बैग भारी लग रहे हैं इसलिए पति को थमा दिये गये, पति लद गया है कार पार्किंग तक पहुंचते पहुंचते हांफने लगता है।
कार चलाते हुए रास्ते भर इसी उधेड़बुन में रहता है कि घर पहुंच कर पहले चाय बनानी पड़ेगी, उनके थके पैर दबाना होगा फिर सेल से खरीदे गए हर सामान की चुम्मी ले लेकर झूठी तारीफ करनी पड़ेगी।
जैसा रास्ते भर सोचा था वही सब सब करने का आदेश हुआ। चमचमाते फिसलते पहले बैग से एक से एक साड़ियाँ और अंडर गारमेंट निकाल कर तारीफ के पुल बांधे गए। दूसरे बैग से निकाले गए शाल को देखकर उसका गला सूख गया, काटो तो खून नहीं, दिन में तारे नजर आने लगे, आसमान धरती पर गिर पड़ा, होश उड़ गए…. वह वही शाॅल था जो उसके पिता की शव यात्रा में उसके फूफा ने पिता के शव के ऊपर डाला था।
तीन महीने पहले ही उसके पिता कविता लिखते लिखते चल बसे थे उन्हें जीवन भर शाॅल श्रीफल से सम्मानित किया जाता रहा इसलिए दोस्तों ने अंतिम यात्रा में मंहगे मंहगे शाॅल उनके शव पर डाले थे………….
शाॅल की सलवटें ठीक करती पत्नी चहकते हुए बोली – ये शाॅल तुम्हारे लिए लिया है, कई महिलाओं को ये शाॅल ज्यादा पसंद आ रहा था इसलिए इसमें डिस्काउंट भी नहीं मिला……….
प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से
(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ हैं।)
ऐतिहासिक तत्व दर्शन से भी नर्मदा को समझना उतना ही ज़रूरी है जितना भाव दृष्टि से है।
हिंदू दर्शन का काल निर्धारण इस तरह हुआ है कि सबसे पहले ईसा से दो हज़ार साल याने आज से चार हज़ार साल पहले चार वेदों की रचना पंजाब की पाँच नदियों व्यास सतलज झेलम रावी चिनाब और अफगानिस्तान की काबुल नदी लद्दाख़ से आती हुई सिन्ध में समाहित हो जाती हैं, उस क्षेत्र में हुई थी।
आज से तीन हज़ार पाँच सौ साल पहले वेदों के 108 उपनिषद गंगा और यमुना के मैदानी भू-भाग में रचे गए। वैदिक काल में कृषि और ऋषि, ये दो महान संस्थाएँ थीं। लोग कृषि से अवकाश पाकर ऋषि की कुटिया के पास बने चबूतरों के चारों तरफ़ पाल्थी मारकर हाथ जोड़कर बैठ जाते थे। उप+निष्ठत:=उपनिषद, जब प्रधान ऋषि गण बीच में मंच पर बैठ पर वेदों की गहनता और गूढ़ अर्थ पर चर्चा करते थे तब उनके शिष्य नीचे बैठ कर टिप्पणी या नोट लिख लिया करते थे वे ही बाद में संकलित होकर उपनिषद कहलाए। जहाँ वेदों का अंत वही हुआ वेदांत या उत्तर मीमांसा। जिसे विवेकानन्द ने शिकागो में दुनिया को बताया उसके पूर्व कृष्ण ने अर्जुन को सिखाया।
तब तक आर्य अफ़ग़ानिस्तान से बंगाल तक फैल चुके थे और द्रविड़ विंध्याचल पर्वत पार करके दक्षिण की तरफ़ हिंदमहासागर तक फैल गए। पुराणों में एक कहानी कई जगह आती है कि अगस्त्य ऋषि विंध्याचल पर्वत को हिमालय से नीचा रखने के लिए यह कहकर दक्षिण गए थे कि उनके आने तक वह वैसा ही बना रहे। यह प्रतीकात्मक कहानी एक बड़े रहस्य का उद्घाटन करती है कि आर्यों ने अपने दर्शन को दक्षिण में पहुँचाने के लिए अगस्त्य ऋषि का सहारा लिया था। इस प्रकार एक समावेशी अखिल भारतीय संस्कृति का जन्म हुआ था।
जब अगस्त्य ऋषि विंध्याचल पार कर रहे थे तब कपिल, जमदग्नि, मार्कण्डेय और भृगु ऋषि विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत श्रेणियाँ के सम्पर्क में आए। अमरकण्टक में कपिलधारा नर्मदा परिक्रमा का एक प्रमुख बिंदु है जहाँ से नर्मदा पहाड़ी बियाँबान में प्रवेश करती है। तब तक गंगा और यमुना का मैदान वनस्पति और जंगलों से साफ़ किया जा चुका था। वहाँ हिमालय पर हाड़फोड़ ठंड और मैदानी भाग में भयानक गर्मी का आलम शुरू हो गया था। उन्होंने डिंडोरी और मंडला जिलों से नीचे आकर अपने आश्रम बनाए। जिसे हम ऋषि भृगु के नाम से पहले भृगुघाट और कालांतर में भेड़ाघाट के नाम से जानते हैं। भृगु ऋषि स्वयं नर्मदा की परिक्रमा करते रहते थे। आगे बरमान और होशंगाबाद के बीच भारकच्छ और भरूच में भृगु मंदिर है।
उस काल में पूर्व के पहाड़ों से नदी तक का भू-भाग बारहों महीने पानी से भरा रहता था। घने जंगलों से जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद और हरदा जिले की जलवायु वर्ष के बारह महीने नर्म रहती थी। इस कारण यहाँ की मृदा यानी मिट्टी भी नर्म होती थी। भृगु ऋषि अपने आश्रम के शिष्यों को “रमता जोगी बहता पानी” की सीख के तहत एक जगह स्थिर नहीं रखते थे। साधु को उसका नाम और स्थान का मोह त्यागना होता था। लिहाज़ा उन्हें चौमासा छोड़कर बाक़ी आठ माह वन विचरण ज़रूरी हो जाता था। विचरण के लिए पानी, फल-फूल भिक्षा और सुरक्षा की ज़रूरत भी नदी किनारे आसानी से पूरी हो जाती थी।
इस पूरे क्षेत्र में नम जलवायु के साथ नम मृदा याने नरम मिट्टी रहती थी जिस पर पैदल चला जा सकता था। इस प्रकार नर्म+मृदा = नर्मदा इस नदी का नाम उन ऋषियों मुनियों के वाचन में आ गया।
जब इस नदी के समुद्र मिलन तक की थाह मिल गई तो इसके उद्गम की तरफ़ साधुओं का कौतुहल जागा और वे चल पड़े उत्तर-पूर्व की तरफ़ और पहुँच गए अमरकण्टक। इस प्रकार नर्मदा की परिक्रमा और परिक्रमा पथ का निर्धारण एक-दो नहीं सौ-दो सौ सालों में हुआ था। जो कि अब तक जारी है। यह शुरुआत सनातन पुनर्जागरण याने गुप्त काल में हुई मानी जाती है। इसी नर्म मृदा के कारण सोहागपुर में उत्तम कोटि का पान होते हैं और सुराहियाँ बनाई जातीं हैं। पिपरिया से गाड़रवाडा तक की उत्तम स्वादिष्ट दालें और करेली का गुड प्रसिद्ध है।
नर्मदा 1312 किलोमीटर लम्बी है जाना और वापस आना 2624 किलोमीटर पैदल परिक्रमा पथ हैं। पहले तीन साल तीन महीने और तेरह दिन में यह दूरी तय की जाती थी। याने एक दिन में क़रीबन दो किलोमीटर। उस समय बियाबन जंगल होने से यात्रा कठिन थी। अब यह यात्रा चार से छः महीनों में पूरी की जा सकती है।
इस प्रकार इस नदी का नाम रेवा और नर्मदा पड़ा और परिक्रमा एवं परिक्रमा पथ की परम्परा विकसित हो गई। जो विश्व में अनूठी है।
सतपुड़ा से एक और नदी निकलती है जिसके बारे में बैतूल जिले से महादेव, चौरागढ़ और नाथद्वारा की जत्तरा करने आने वाले लोग बताया करते हैं। वह है ताप्ती नदी, जो कि मुल्ताई से उद्गमित होती है। इन जिलों में देवनागरी की मराठी भाषा का प्रभाव है। मराठी में बहन को ताई पुकारा जाता है। नदी माँ-बहन के समान है। उसका मूल+ताई = मुल्ताई हो गया है। असीरगढ़ के पास महाराष्ट्र के अकोला ज़िला की सीमा पर देवी का एक सर्व कामना मंदिर है। साथ में शिव मंदिर भी है। लोग मुल्ताई से जल लेकर उस मंदिर की भी पैदल यात्रा करते हैं।
नर्मदा और ताप्ती क्रमशः बुरहानपुर और हरदा के हंडिया से समानांतर अरब सागर तक जातीं हैं जैसे दो सहेलियाँ जल भर कर बतियातीं चली जा रहीं हो मस्त चाल से। इन दो नदियों के बीच दस किलोमीटर से चालीस किलोमीटर की चौड़ी ज़मीन तीन सौ किलोमीटर याने खम्बात की खाड़ी तक चली गई है। यहाँ बाँस के घने जंगल हैं। इसी कारण पास में नेपानगर में काग़ज़ का कारख़ाना लगा है। पानी की बहुलता के कारण इस क्षेत्र में केले की भरपूर फ़सल होती है जिसे पूरा उत्तर भारत खाता है।
(कल आपसे साझा करेंगे रेवा : नर्मदा से संबन्धित विशेष जानकारी )
आर्यों के साहित्य में यह चीज़ बार-बार मिलती है कि उन्होंने अनार्यों से वैवाहिक सम्बंध बनाकर अपने में मिला लिया। यही बात नर्मदा के प्रेम प्रसंग में भी दिखती है। लोक कथा में नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है। राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल (महाकाल) की पुत्री थी। राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। पड़ौसी राज्य के राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ।
नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी। विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला ने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और धारण करके चल पड़ी राजकुमार से मिलने। सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा। जुहिला की नीयत में भी खोट आ गया। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर नर्मदा का सब्र का बांध टूटने लगा। दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलने।
वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं। तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए। सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई।
जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला (इस नदी को दुषित नदी माना जाता है, पवित्र नदियों में इसे शामिल नहीं किया जाता) का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है। रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने की कथा इलाहाबाद के कारा क्षेत्र में आज भी प्रचलित है।
यह कथा भी आर्य शोनभद्र-नर्मदा और अनार्य जुहिला के प्रेम त्रिकोण पर रच कर पुराणों में रख दी गई है। जुहिला नदी मंडला के सघन आदिवासी इलाक़ों से निकलती है जबकि नर्मदा और शोनभद्र अमरकण्टक से निकलती हैं जहाँ कि आर्यों के ऋषि मुनियों ने आश्रम बना लिए थे।
नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशील मन महसूस करता है। कहने को वह नदी रूप में है लेकिन चाहे-अनचाहे भक्त-गण उनका मानवीयकरण कर ही लेते है। पौराणिक कथा और यथार्थ के भौगोलिक सत्य का सुंदर सम्मिलन उनकी इस भावना को बल प्रदान करता है। नर्मदा सा स्वाभिमान और स्वच्छता नर्मदा अंचल के निवासियों के जीवन में भी झलकता है।
इस पौराणिक कहानी का भौगोलिक-एतिहासिक संदर्भ है। हमने नदियों को व्यक्तित्व में गढ़ दिया है। नर्मदा अमरकण्टक से निकलकर दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर चलती है वहीं सोन भी वहीं से निकलकर उत्तर-पूर्व की तरफ़ चल पड़ती है। जुहिला नदी भी उद्गम से निकलकर थोड़ा दक्षिण-पूर्व की तरफ़ नर्मदा की ओर बढ़ती है लेकिन कबीर चौड़ा पहाड़ रास्ते में आ जाने से वह सोन की तरफ़ उत्तर-पूर्व की तरफ़ मुड़ जाती है। यही कहानी का आधार बन गया।
सोन नदी विंध्याचल और कैमोर पर्वत मालाओं के बीच से सीधी जिले से होकर अम्बिकापुर के पीछे से झारखंड होते हुए बिहार निकल जाती है। वह सासाराम होते हुए पटना के नज़दीक गंगा में मिल जाती है।
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। वर्तमान में आप जनरल मैनेजर (विद्युत) पद पर पुणे मेट्रो में कार्यरत हैं।)
आज मैं आपको एक अत्यन्त साधारण एवं मिलनसार व्यक्तित्व के धनी मेरे अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सुरेश कुशवाहा जी से उनके ही शब्दों के माध्यम से मिलवाना चाहता हूँ।
उनका परिचय या आत्मकथ्य उनके ही शब्दों मेँ –
अन्तस में जीवन के अनसुलझे,
सवाल कुछ पड़े हुये हैं
बाहर निकल न पाये,
सहज भाव के ताले जड़े हुये हैं।
फिर भी इधर-उधर से
कुछ अक्षर बाहर आ जाते हैं,
कविताओं में परिवर्तित,
हम जंग स्वयं से लड़े हुये हैं।
अनुभव चिन्तन मनन,
रोजमर्रा की आपाधापी में
अक्षर बन जाते विचार,
मन की इस खाली कॉपी में,
कई विसंगत बातें,
आसपास धुंधुवाती रहती है,
तेल दीये का बन जलते,
संग जलने वाली बाती में।
अ आ ई से क ख ग तक,
बस इतना है ज्ञान मुझे
कवि होने का मन में आया
नहीं कभी अभिमान मुझे
मैं जग में हूं जग मुझमें है,
मुझमें कई समस्याएं हैं,
इन्हीं समस्याओं पर लिखना,
इतना सा है भान मुझे।
अगर आपको लगे,
अरे! ये तो मेरे मन की बातें हैं
या फिर पढ़कर अच्छे बुरे
विचार ह्रदय में जो आते हैं,
हो निष्पक्ष सलाह आपकी,
भेजें मेरे पथ दर्शक बन
आगे भी लिख सकूं,
कीमती ये ही मुझको सौगातें हैं।
आपकी प्रिय विधा है – साहित्य।
डॉ सुरेश जी के शब्दों मेँ –
जैसा दिखा वैसा लिखा, कहीं मीठा कहीं तीखा।
उपर्युक्त पंक्ति के अनुसार ही मेरा प्रयास रहा है कि कविता एवं लघुकथा विधाओं में अपने विचार तथा मनोभावों को प्रगट कर सकूं। साहित्य के प्रति बचपन से ही अभिरूचि रही, घर में पठन-पाठन का अनुकूल वातावरण था। बचपन में ही पिताजी के माध्यम से गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित अनेक किताबों व ग्रंथों को पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस प्रकार साहित्य के प्रति लगाव बढ़ता गया। वर्ष 1969 से छिटपुट लेखन तुकबंदियों के रूप में प्रारंभ हुआ, प्रोत्साहन के फलस्वरूप लेखन के प्रति गंभीरता बढ़ती गई और मुख्य झुकाव छांदस कविता के प्रति हुआ। वर्ष 1971 से भोपाल में नौकरी के दौरान कवि-गोष्ठियों के माध्यम से आकाशवाणी भोपाल से कविताओं का प्रसारण एवं स्थानीय अखबारों में प्रकाशन” का सिलसिला प्रारंभ हुआ, जो आज तक अनवरत रूप से जारी है।
मुख्य रूप से साहित्य में काव्य विधा में प्रमुख रूप से गीत व लघुकथा के माध्यम से वैचारिक अभिव्यक्ति सृजित होती रही। मुझे लगता है कि जहां कविता के माध्यम से रूपक व अलंकारों के द्वारा रचनाकार अपनी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति देता है वहीं लघुकथा के द्वारा कम शब्दों में बड़ी बात सरलता से कह दी जाती है। यूं तो साहित्य की सभी विधाओं का व्यापक क्षेत्र है तथा सभी का अपना महत्व है, फिर भी मेरी प्रिय विधाओं में गीत काव्य एवं लघुकथा सम्मिलित है।
विशेष – आपकी एक लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9 की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित है।
यह परिचय डॉ सुरेश ‘तन्मय’ जी की मात्र साहित्यिक आत्माभिव्यक्ति है। विस्तृत परिचय हमारे Authors लिंक पर उपलब्ध है।