मराठी साहित्य – मराठी कविता – ?  *कदंब काव्य*१ ? – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

(“Kadamb” is one of the best poems of Ms. Jyoti Hasabanis ji. This poem is in two parts.  Tomorrow, we will publish second part of the poem. 

You can feel her emotions.  In her own words –

I like the aura of that tree as it reminds me of the Krishna – Leela ! 
Its bloom time is Shrawan . 
I used to visit the tree in that period every year and witness the divine beauty n fragrance !)
?  *कदंब काव्य*१ ?
आषाढ सर कोसळली
श्रावण सर उजळली
नवचैतन्याने हिरवळली
तृप्त धरा नव्हाळली  ।
नव्या नव्हाळीचा
साज वसुंधरेला
नव नवोन्मेषाचे
कौतुकओझे तरूवेलीला
नवोन्मेषाच्या कौतुकात
सृष्टी रंगली
निसर्गाची वत्सल नजर
कदंबावर पडली
इवल्या इवल्या जिवांची
आस मनी होती
‘त्याच्या’ परिसस्पर्शाचीच
मात्र खोटी होती
लाभला परिसस्पर्श ,
चमत्कार झाला
हिरव्या पर्णसंभारातून ,
इवला जीव डोकावला ।
दिसामागून दिस ,
जाऊ लागले
कदंबाचे झाड ,
लेकुरवाळे झाले ।
वा-यासंगे झुलू लागले ,
मजेत जीव सानुले कोवळे
फांदी फांदी रंगू लागले ,
लपंडावाचे खेळ आगळे ।
झुलत मस्तीत ,
जीव ते बहरले
लेवून शुभ्र साज ,
अंगांगी मोहरले ।
शुभ्र साज त्यांचा ,
सोनपिवळ्या छायेतला
अलौकिक गंध त्यांचा ,
परिसरांस व्यापलेला ।
मोहरलेला कदंब आणि
बहरलेली रासलीला
अद्वैताचा बंध रेशमी
कदंब होता साक्षीला ।
तोच श्रावण तोच बहर ,
पण नाही मधुर बन्सीधून
तोच ध्यास तीच आस
पण नाही अधीर मीलन ।
मन वेडे कदंबाचे,
खुळे कान्ह्याच्या पदरवाचे
मन वेडे कदंबाचे ,
 पिसे गोपिकांच्या पैंजणांचे ।
सावळ्यासाठी आसावत
तृषित कदंब उभा
वैभव आपुले सावरीत
अदबीत कदंब उभा ।
© ज्योति हसबनीस
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हिन्दी साहित्य – कविता – सच, झूठ और जिंदगी  – श्री दीपक तिवारी ‘दिव्य’

श्री दीपक तिवारी ‘दिव्य’

सच, झूठ और जिंदगी 

(श्री दीपक तिवारी ‘दिव्य’ जी की जीवन के सच और झूठ को उजागर करती एक कविता।)
मुझे सच्चाई का शौक नहीं
खुदा का खौफ नहीं
झूठ की दुकान सजाता हूं
झूठ लिखता हूं
झूठ पढ़ता हूं
झूठ ओढ़ता हूं
झूठ बिछाता हूं
तभी सर उठाकर चल पाता हूं
इस दुनिया में
जो सच्चाई का दंश झेलते हैं
ना जाने कैसे वह जीते हैं
जहां झूठी तोहमतें हैं
आरोप भी झूठे हैं
पर इनके बल पर
मिलने वाली जिल्लतें
सच्ची होती हैं
इसके दम पर मिलने वाली
सजा सच्ची होती है।
वही उनका पारिश्रमिक है
यहां तक कि सत्य से मिलने वाला अंदर का सुकून भी
तब कचोटने लगता है
जब बाहर के हालात बद से बदतर
और भी भयावह होते चले जाते हैं और मैं कुछ नहीं कर पाता
इसलिए
मैं
झूठ भेजता हूं
लोग खरीदते हैं
और मैं जीता हूं
यही तरीका सिखाया है
मुझे
इस दुनिया ने
जिंदगी जीने का……
© श्री दीपक तिवारी ‘दिव्य’
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – अब हम सब रिजर्व – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

अब हम सब रिजर्व

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक सामयिक , सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)

रिजर्वेशन से अपना पहला परिचय तब हुआ था जब हम बहुत छोटे थे और ट्रेन की टिकिट पुट्ठे की, सच्ची की टिकिट की तरह की छोटी सी टिकिट ही होती थी.  मेरे जैसे सहेजू बच्चे सफर के बाद उसका संग्रह किया करते थे. यात्रा की तारीख उस टिकिट पर पंच करके बिना स्याही के केवल इंप्रेशन से अंकित की जाती थी.  पहले टिकिट विंडो से खरीदी गई  फिर काले कोट वाले टी सी साहब को वह दिखाकर पापा ने बर्थ रिजर्व करवाई थी. और हम लोग बड़े ठाठ से आरक्षित डब्बे में अपनी आरक्षित सीट पर सफर के लिये बैठे थे. वैसे जब मेरी बड़ी भांजी छोटी  सी थी तो, उसे हर बच्चे की तरह नानी मामा के पास बहुत अच्छा लगता था, जब भी वह कोई शैतानी करती तो मेरी माँ  उसे डराने के लिये मुझसे कहती कि इसका रिजर्वेशन करवाओ, वापसी का स्वगत अर्थ समझ कर वह नन्ही परी सी बच्ची तुरंत हमारा कहना मान जाती थी.
अब इसका यह  अर्थ कतई न लगाया जावे कि कहना मनवाने के लिये रिजर्वेशन का प्रयोग देश के प्रबुद्ध मतदाताओ के साथ भी किया जा सकता है. गाड़ी में पैट्रोल रिजर्व में आ जाता है तो लाल बत्ती का इंडीकेटर ब्लिंक होने लगता है, या बहुत अधिक रिजर्व व्यक्तित्व के लोग आत्मकेंद्रित होते हैं, इस दृष्टि से भले ही रिजर्व का भावार्थ सकारात्मक न हो पर  रिजर्व सीट पर बैठने के ठाठ ही अलग हैं. मूवी जाने से पहले आनलाइन सीट रिजर्व करके कार्नर सीट पर पत्नी के साथ बैठ कर भुट्टे की लाई को पाप कार्न के रूप में मंहगें दामो पर खरीद कर खाने से फिल्म का आनंद बढ़ जाता है. जिसके प्रभाव से अगले दिन फिल्म के विषय में मित्रो के साथ बात करते हुये एक गंभीर क्रिटिक नजरिया अपने आप पैदा हो जाता है. डिनर के लिये रेस्ट्रां जाने से पहले यदि टेबिल बुक कर ली जाती है तो ए सी डायनिंग हाल में पहुंचने पर जिस अदा से सफेद वर्दी में सजा हुआ, कलगी वाला वेटर आपको इज्जत से बैठाता है, सर्विस चार्ज अपने आप वसूल हो जाता है. सीट रिजर्व होने की ही महिमा होती है कि हवाई जहाज में सुंदर परिचारिकायें मुस्करा कर दरवाजा छेंककर आपका ऐसा स्वागत करती हैं, जो शादी के बाद जूता चुराई के समय हसीन साली मण्डली द्वारा मनुहार भरे स्वागत की याद दिला देता है.
अपार्टमेंट के पार्किंग लाउंज में यदि आपके फ्लैट का नम्बर आपकी कार के लिये लिखा हो या आफिस की पार्किंग में डेजिगनेशन से पार्किंग स्पेस आरक्षित हो तो कभी भी आओ कार पार्क करने का ठाठ ही निराला होता है. कहने का अर्थ है कि रिजर्वेशन  मनोबल बढ़ाता  है, बड़प्पन का अहसास करवाता है, भीड़ से अलग कुछ विशिष्ट बनाता है.अतः जो लोग समानता के नाम पर रिजर्वेशन के खिलाफ हैं, मैं उनके खिलाफ खड़े लोगो का पुरजोर समर्थन करता हूं.  रिजर्वेशन के मजे हर भारतवासी तक पहुंचे यह चुनी हुई सरकार की नैतिक जिम्मेवारी होनी ही चाहिये.
मेरे जैसे जितने टैक्स पेयर अपनी मेहनत से कमाये गये रुपयो के बल पर अपने लिये इस तरह के रिजर्वेशन के ये ठाठ खरीद सकते हैं , वे तो स्वतः धन्य हैं. उन्हें फिर से धन्यवाद. जो बेचारे जन्मना पिछड़ी जाति में, या संविधान की अनुसूची में दर्ज जातियो में पैदा हो गये हैं, उन्हें भी
धन्यवाद कि उन्हें रिजर्वेशन के ठाठ दिलवाने के लिये कम से कम आज की सरकार को कुछ नही करना पड़ रहा. पर मैं हृदय से आभारी हूं पक्ष विपक्ष के नेताओ का जिनके समर्थन से राज्य सभा, लोकसभा, चुनाव सभा हर जगह दस प्रतिशत ही सही पर हर पिछड़े हुये भारतवासी को जिसे और किसी जुगाड़ से रिजर्वेशन का स्वाद नही मिल पा रहा था, उन्हें भी यह सर्वाधिक आर्कषक फल चखने को मिलने की जुगत बन सकी है. अब जो विघ्न संतोषी यह तर्क कर रहे हैं कि भाई दस ही क्यो ?  ग्यारह , बारह या बीस क्यो नही ? उनसे मेरा प्रतिसवाल है कि दशमलव पद्धति है, दस के दम से शुरुवात हुई है, भविष्य में  चुनावो के लिये मांगें करने तोड़ फोड़ करने के स्कोप भी तो बाकी रहने
चाहिये.
इसलिये बिना सवाल किये खुश होने का समय है, आज हम सब आरक्षित हैं. रिजर्वेशन के मजे लूटिये हर भारत वासी के माथे पर गर्व के वे भाव आ जाने चाहिये जो रिजर्व सीट पर बैठते हुये आते हैं , जब वेटर आपके लिये कुर्सी खींचकर आपको उस पर पदासीन करता है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – कथा/लघुकथा – योग्यता – श्री सदानंद आंबेकर 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

योग्यता

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास

हम श्री सदानंद आंबेकर जी  के आभारी हैं इस मराठी  लघुकथा – “योग्यता ” के लिए)

शहरातील नामवंत ई एन टी तज्ञ डाॅ किशोर देशपांडे यांचा मोबाइल वाजत होता। आपल्या घरीच असलेल्या दवाखाण्यातून निघून बैठकीत पोहोचे पर्यंत सतत वाजत असलेल्या घंटी ने वैताग आणला, डाॅ साहेबांनी जसांच फोन कनेक्ट केला, दुसरी कडून गावी असलेली त्यांची आई म्हणाली- अरे किशोर, किती वेळानी फोन घेतो रे तू ? घरी कोणी नाही कां रे ?

किंचित वैतागानी डाॅ उत्तरले- अगं आई, या वेळी आम्हीं दोघेहि पेशंट सोबत असतो ना, म्हणून गं वेळ लागला। हं, बोला , कसा काय फोन केला दुपारी ?

आईने जुजबी विचारपूस केली नि पुढे म्हणाली- कां रे किशोर , तुझा आवाज इतका बसलेला कां बरं आहे?

यावर डाॅ साहेबांनी उत्तर दिलं कि काही नाही, मागल्या आठवड्या पासून खोकला व गळा बसला आहे, काही विशेष नसून सीजनल आजार आहे नि मी हवे ते एंटिबायोटिक्स घेतलेत;

हे ऐकून आई म्हणाली – अरे ते असू देत, पण ऐक, थोडी शी जेष्ठमधाची पूड, काळे मिरे आणि लवंग भाजून त्यांना मिळवून मधा सोबत घे बघू दोन तीन दिवस, पहा, लगेच आराम होईल।

आपल्या आईचा हा प्रेमळ सल्ला ऐकून डाॅ किशोर त्यांना म्हणे- अगं आई, मी याचाच डाॅ आहे, माला ह्याचा इलाज महिताय, मी औषध घेतलंय। नंतर आईला वाईट वाटू नये म्हणून म्हणे बरं, मी हे आजंच घेईन। घरची मोघम विचारपूस करून आईने फोन बंद केला।

आज डाॅ किशोर रिटायर होऊन सत्तरा पलीकडे झालेत, मुलगा-सून दोघेहि डाॅक्टर असून परदेशात असतात। डॉ साहेबांना मागल्या काही दिवसांपासून गळयांत पुन्हां इंफेक्शन झाल्या मुळे बोलायला खूप त्रास होऊन राहिला होता। साधारण औषध घेत असतांना त्यांची पत्नी आज त्यांना म्हणाली – ऐकंतलत का हो, तुम्हाला अजिबात आराम वाटत नाही आहे, माझं ऐकाल तर थोडी शी जेष्ठमधाची पूड, काळे मिरे आणि लवंग भाजून त्यांना मिळवून मधा सोबत घ्या बघू दोन तीन दिवस, पहा लगेच आराम होईल।

अनेक वर्षां पूर्वी आपल्या आई नी म्हंटलेले शब्द आज पुन्हां तसेच ऐकून त्यांना वाटले, आपुलकीच्या या उच्च भावने पुढे माझी चिकित्सकीय योग्यता ठेंगणीच। प्रेमाची ही भाषा पीढीगत अशीच चालत राहणार।

©  सदानंद आंबेकर

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – भविष्य से खिलवाड़ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

भविष्य से खिलवाड़

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की  एक विचारणीय लघुकथा। आपके लेख ,कहानी व कविताएँ विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।दैनिक ट्रिब्यून में जनसंसद में आपको लेख लिखने के लिए कई बार प्रथम पुरस्कार मिला है। आपका एक काव्य संग्रह ‘आईना’ प्रकाशित हो चुका है। )

टॉल टैक्स पर जैसे ही ट्रेफिक रूका अनगिनत बच्चे कोई  टिश्यू पेपरस,कोई गाड़ी विंडोज के लिए ब्लेक जालियां, कुछ गुलाब के फूल बेचने वाले आ खड़े हुए ,उनमें कुछ बच्चे ऐसे ही भीख मांग रहे थे ;लेकिन इक बच्चा ऐसा भी था जो मिट्टी के तवे बेच रहा था। चुपचाप हर गाड़ी के पास जाकर तवे लेकर चुपचाप खड़े हो जाता। कुछ लोग उन सबको भगा रहे थे।कछ भाव ही नहीं दे रहे थे।

ज्यादातर बच्चे जिद करके समान बेचने की कोशिश कर रहे थे। भीख मांगने वाले बच्चों ने तो परेशान करके रख दिया था।लेकिन तवा बेचने वाला बच्चा चुपचाप हर गाड़ी के पास एक क्षण तवा खरीदने को कहता ,नहीं अपेक्षित जवाब मिलने पर आगे बढ जाता। तभी गाडिय़ों की कतार में खड़ी गाड़ी में से किसी नौजवान ने शीशा उतार इशारे से उसे अपने पास बुलाया। और बगैर तवा खरीदे उसे दस का नोट थमा दिया।

उसने कई बच्चों को ऐसे ही दस के नोट पकड़ा दिये। आज के जमाने में उसकी दयालुता देख एकबारगी खुशी हुई, लेकिन तुरंत उन मासूम बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगी। लगने लगा कि वास्तव में इनकी इतनी मजबूरी है या फिर इनके माँ-बाप को आदत हो गई है। कटोरा लेकर ऐसे खड़ा कर देते हैं ,इनको काम करने की आदत कैसे पड़ेगी। हममे से कई दयालु लोग उनको भीख देकर उनका भविष्य और अधिक असुरक्षित कर रहें है। अगर हम सब मन को थोड़ा कठोर कर उन्हें भीख की बजाए उन्हें पढ़ाने की ठान ले,अच्छे विचारों से उनका मनोबल उंचा करे ताकि वे अपने पैरों पर खड़ा होना सीखें।हम पैसों से नहीं वरन् सही मार्गदर्शक बन उनकी मदद करें।जो विकलांग हैं उनकी उनके हिसाब से अपेक्षित मदद करे।

अभी सोच विचार में ही थी कि तवा बेचने वाला बच्चा मेरी गाड़ी के पास आकर बोलने लगा,”दीदी तवा खरीद लो,मेरी मदद हो जायेगी।”एक बार मेरा मन भी किया और  पर कठोरता बरत बोला कि नहीं मुझे जरूरत नहीं है।कुछ और बोल पाती उससे पहले टॉल टैक्स पर मेरा नंबर आगया था।
ऋतु गुप्ता
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हिन्दी साहित्य – कविता – सरस्वती वन्दना– प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सरस्वती वन्दना

(यह संयोग ही नहीं मेरा सौभाग्य ही है कि – ईश्वर ने वर्षों पश्चात मुझे अपने पूर्व प्राचार्य  श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी (केंद्रीय विद्यालय क्रमांक -1), जबलपुर से सरस्वती वंदना  के रूप में माँ वीणा वादिनी का आशीर्वाद प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो रहा है। अपने गुरुवर द्वारा लिखित ‘सरस्वती वंदना’ आप सबसे साझा कर गौरवान्वित एवं कृतार्थ अनुभव कर रहा हूँ।) 

 

शुभवस्त्रे हंस वाहिनी वीण वादिनी शारदे ,

डूबते संसार को अवलंब दे आधार दे !

 

हो रही घर घर निरंतर आज धन की साधना ,

स्वार्थ के चंदन अगरु से अर्चना आराधना

आत्म वंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है,

चेतना जग की जगा मां वीण की झंकार दे !

 

सुविकसित विज्ञान ने तो की सुखों की सर्जना

बंद हो पाई न अब भी पर बमों की गर्जना

रक्त रंजित धरा पर फैला धुआं और और ध्वंस है

बचा मृग मारिचिका से , मनुज को माँ प्यार दे

 

ज्ञान तो बिखरा बहुत पर, समझ ओछी हो गई

बुद्धि के जंजाल में दब प्रीति मन की खो गई

उठा है तूफान भारी, तर्क पारावार में

भाव की माँ हंसग्रीवी, नाव को पतवार दे

 

चाहता हर आदमी अब पहुंचना उस गाँव में

जी सके जीवन जहाँ, ठंडी हवा की छांव में

थक गया चल विश्व, झुलसाती तपन की धूप में

हृदय को माँ ! पूर्णिमा का मधु भरा संसार दे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – मेरे घर विश्व हिन्दी सम्मेलन  – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

मेरे घर विश्व हिन्दी सम्मेलन 

(विश्व हिन्दी दिवस 2018 पर विशेष)

(श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है श्री विवेक जी का विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे आयोजनों  पर एक सार्थक व्यंग्य।)

इन दिनो मेरा घर ग्लोबल विलेज की इकाई है. बड़े बेटी दामाद दुबई से आये हुये हैं , छोटी बेटी लंदन से और बेटा न्यूयार्क से. मेरे पिताजी अपने आजादी से पहले और बाद के अनुभवो के तथा अपनी लिखी २७ किताबो के साथ हैं . मेरी सुगढ़ पत्नी जिसने हिन्दी माध्यम की सरस्वती शाला के पक्ष में  मेरे तमाम तर्को को दरकिनार कर बच्चो की शिक्षा कांवेंट स्कूलों से करवाई  है, बच्चो की सफलता पर गर्वित रहती है. पत्नी का उसके पिता और मेरे श्वसुर जी के महाकाव्य की स्मृतियो को नमन करते हुये अपने हिन्दी अतीत और अंग्रेजी के बूते दुनियां में सफल अपने बच्चो के वर्तमान पर घमण्ड अस्वाभाविक नही है.  मैं अपने बब्बा जी के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सेदारी की गौरव गाथायें लिये उसके सम्मुख हर भारतीय पति की तरह नतमस्तक रहता हूँ. हमारे लिये गर्व का विषय यह है कि तमाम अंग्रेजी दां होने के बाद भी मेरी बेटियो की हिन्दी में साहित्यिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं  और उल्लेखनीय है कि भले ही मुझे अपनी  दस बारह पुस्तकें प्रकाशित करवाने हेतु  भागमभाग, और कुछ के लिये  प्रकाशन व्यय तक देना पड़ा रहा हो पर बेटियो की पुस्तके बाकायदा रायल्टी के अनुबंध पत्र के साथ प्रकाशक ने स्वयं ही छापी हैं. ये और बात है कि अब तक कभी रायल्टी के चैक के हमें दर्शन लाभ नही हो पाये हैं. तो इस भावभूमि के संग जब हम सब मारीशस में विश्व हिन्दी सम्मेलन के पूर्व घर पर इकट्ठे हुये तो स्वाभाविक था कि  हिन्दी साहित्य प्रेमी हमारे परिवार का विश्व हिन्दी सम्मेलन घर पर ही मारीशस के सम्मेलन के उद्घाटन से पहले ही शुरु हो गया.

मेरे घर पर आयोजित इस विश्व हिन्दी सम्मेलन का पहला ही  महत्वपूर्ण सत्र खाने की मेज पर इस गरमागरम बहस पर परिचर्चा का रहा कि चार पीढ़ीयो से साहित्य सेवा करने वाले हमारे परिवार में से किसी को भी मारीशस का बुलावा क्यो नही मिला? पत्नी ने सत्र की अध्यक्षता करते हुये स्पष्ट कनक्लूजन प्रस्तुत किया कि मुझमें जुगाड़ की प्रवृत्ति न होने के चलते ही ऐसा होता है. मैने अपना सतर्क तर्क दिया कि बुलावा आता भी तो हम जाते ही नही हम लोगो को तो यहाँ मिलना था और फिर विगत दसवें सम्मेलन में मैने व पिताजी दोनो ने ही भोपाल में प्रतिनिधित्व किया तो था! तो छूटते ही पत्नी को मेरी बातो में अंगूर खट्टे होने का आभास हो चुका था उसने बमबारी की,  भोपाल के उस प्रतिनिधित्व से क्या मिला? बात में वजन था, मैं भी आत्म मंथन करने पर विवश हो गया कि सचमुच भोपाल में मेरी भागीदारी या मारीशस में न होने से न तो मुझे कोई अंतर पड़ा और न ही हिन्दी को. फिर मुझे भोपाल सम्मेलन की अपनी उपलब्धि याद आई वह सेल्फी जो मैने दसवें भोपाल विश्व हिन्दी सम्मेलन के गेट पर ली थी और जो कई दिनो तक मेरे फेसबुक पेज की प्रोफाईल पिक्चर बनी रही थी.

घर के वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर पत्नी ने  प्रदर्शनी का सफल आयोजन किया था.  दामाद जी के सम्मुख उसने उसके पिताजी के महान कालजयी पुरस्कृत महाकाव्य देवयानी की सुरक्षित प्रति दिखला, मेरे बेटे ने उसके ग्रेट ग्रैंड पा यानी मेरे बब्बा जी की हस्तलिखित डायरी, आजादी के तराने वाली पाकेट बुक साइज की पीले पड़ रहे अखबारी पन्नो पर मुद्रित पतली पतली पुस्तिकायें जिन पर मूल्य आधा पैसा अंकित है ,  ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में उन्हें पालीथिन के भीतर संरक्षित स्वरूप में दिखाया. उन्हें देखकर पिताजी की स्मृतियां ताजा हो आईं और हम बड़ी देर तक हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत की बातें करते रहे. यह सत्र भाषाई सौहाद्र तथा  विशेष प्रदर्शन का सत्र रहा.

अगले कुछ सत्र मौज मस्ती और डिनर के रहे. सारे डेलीगेट्स सामूहिक रूप से आयोजन स्थल अर्थात घर के  आस पास भ्रमण पर निकल गये. कुछ शापिंग वगैरह भी हुई. डिनर के लिये शहर के बड़े होटलो में हम टेबिल बुक करके सुस्वादु भोजन का एनजाय करते रहे. मारीशस वाले सम्मेलन की तुलना में खाने के मीनू में तो शायद ही कमी रही हो पर हाँ पीने वाले मीनू में जरूर हम कमजोर रह गये होंगे. वैसे हम वहाँ  जाते भी तो भी हमारा हाल यथावत ही होता . हम लोगो ने हिन्दी के लिये बड़ी चिंता व्यक्त की. पिताजी ने उनके भगवत गीता के हिन्दी काव्य अनुवाद में हिन्दी अर्थ के साथ ही अंग्रेजी अर्थ भी जोड़कर पुनर्प्रकाशन का प्रस्ताव रखा जिससे अंग्रेजी माध्यम वाले बच्चे भी गीता समझ सकें. प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हो गया. मैंने विशेष रूप से अपने बेटे से आग्रह किया कि वह भी परिवार की रचनात्मक परिपाटी को आगे बढ़ाने के लिये हिन्दी में न सही अंग्रेजी में ही साहित्यिक न सही उसकी रुचि के वैज्ञानिक विृयो पर ही कोई किताब लिखे. जिस पर मुझे उसकी ओर से  विचार करने का आश्वासन मिला . बच्चो ने मुझे व अपने बब्बा जी को कविता की जगह गद्य लिखने की सलाह दी. बच्चो के अनुसार कविता सेलेबल नही होती. इस तरह गहन वैचारिक विमर्शो से ओतप्रोत घर का विश्व हिन्दी सम्मेलन परिपूर्ण हुआ. हम सब न केवल हिन्दी को अपने दिलो में संजोये अपने अपने कार्यो के लिये अपनी अपनी जगह वापस हो लिये वरन हिन्दी के मातृभाषी  सास्कृतिक मूल्यों ने पुनः हम सब को दुनियां भर में बिखरे होने के बाद भी भावनात्मक रूप से कुछ और करीब कर दिया.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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English Literature – Poetry – The Guest – Ms Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

The Guest

(The English version of Ms. Neelam Saxena Chandra’s   poem revealing the truth of life  पाहुणा )

 

I am myself on this earth

Like a guest,

I don’t have the right

To call the house as mine,

To call the things as mine,

To call the jewellery as mine!

 

Relationship is also not mine,

Relatives are also not mine,

You are also not mine,

I am also not yours,

Everything is but an illusion!

 

There is only one truth-

We have come to this earth only for a little while

And if we can spend it with love,

It will be the best!

© Ms Neelam Saxena Chandra

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – पाहुणा – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

पाहुणा

(जीवन के कटु सत्य को उजागर करती सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की  मराठी कविता।)

मी स्वत: आली आहे या जगात

एखाद्या पाहुण्या सारखी,

मला कुठे हक्क आहे

घराला आपलं म्हणण्याचा,

सामानाला आपलं म्हणण्याचा,

दागिन्यांना आपलं म्हणण्याचा?

 

संबंध पण माझे नाहीत,

नातेवाईक पण माझे नाहीत,

तू पण माझा नाही,

मी पण तुझी नाही;

फक्त एक भ्रामक कल्पना आहे!

 

सत्य एकच आहे,

थोड्या वेळा साठी आपण आलो आहोत जगात,

आणि त्यात जर असेल,

फक्त प्रेम व स्मित हास्य,

की मग मी भरून पावले!

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – मन तो सब का होता है – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

मन तो सब का होता है

 

मन तो सब का होता है

बस, एक पहल की जरूरत है।

 

निष्प्रही, भाव – भंगिमा

चित्त में,मायावी संसार बसे

कैसे फेंके यह जाल, मछलियां

खुश हो कर, स्वयमेव  फंसे,

ताने-बाने यूं चले, निरन्तर

शंकित  मन  प्रयास  रत है

बस एक पहल की जरूरत है।

 

ये, सोचे, पहले  वे  बोले

दूजा सोचे, मुंह ये, खोले

जिह्वा से दोनों मौन, मुखर

-भीतर एक-दूजे को तोले

रसना कब निष्क्रिय होती है

उपवास, साधना या व्रत है

बस एक पहल की जरूरत है।

 

रूकती साँसे किसको भाये

स्वादिष्ट लालसा, रोगी को

रस, रूप, गंध-सौंदर्य, करे

-मोहित,विरक्त-जन, जोगी को

ये अलग बात,नहीं करे प्रकट

वे अपने मन के, अभिमत हैं

बस एक पहल की जरूरत है।

 

आशाएं,  तृष्णाएं  अनन्त

मन में जो बसी, कामनायें

रख इन्हें, लिफाफा बन्द किया

किसको भेजें, न समझ आये

नही टिकिट, लिखा नहीं पता

कहाँ पहुंचे यह ,बेनामी खत है

बस एक पहल की जरूरत है।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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