पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य – ग़ुलामी की कहानी – श्री सुरेश पटवा 

आत्मकथ्य – ग़ुलामी की कहानी – श्री सुरेश पटवा 

(‘गुलामी की कहानी’  श्री सुरेश पटवा की प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। आपका जन्म देनवा नदी के किनारे उनके नाना के गाँव ढाना, मटक़ुली में हुआ था। उनका बचपन सतपुड़ा की गोद में बसे सोहागपुर में बीता। प्रकृति से विशेष लगाव के कारण जल, जंगल और ज़मीन से उनका नज़दीकी रिश्ता रहा है। पंचमढ़ी की खोज के प्रयास स्वरूप जो किताबी और वास्तविक अनुभव हुआ उसे आपके साथ बाँटना एक सुखद अनुभूति है। 

श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं। आप अभी अपनी नई पुस्तक ‘पलक गाथा’ पर काम कर रहे हैं। प्रस्तुत है उनकी पुस्तक गुलामी की कहानी पर उनका आत्मकथ्य।)


यह किताब  भारत के उन संघर्षशील सौ सालों का दस्तावेज़ है जिसमें दर्ज हैं मुग़लों, मराठों, सिक्खों, अंग्रेज़ों और असंख्य हिंदुस्तानियों की बहादुरी, कूटनीति, धोखाधड़ी, कपट, सन्धियाँ और रोमांचक बहादुरी व रोमांस की अनेकों कहानियाँ। यह किताब उपन्यास के अन्दाज़ में इतिहास की प्रस्तुति है इसमें इतिहास का बोझिलपन और तारीख़ों का रूखापन नहीं है। गहन अध्ययन और खोजबीन के  बाद  हिंदी में उनके लिए रोचक अन्दाज़ में लिखी गई है जो कौतुहल वश हमारी ग़ुलामी की दास्तान को एक किताब में पढ़ना चाहते हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी माध्यम से आधुनिक इतिहास लेकर शामिल होना चाहते हैं।

आदिम युग से मध्ययुग तक ग़ुलामी पूरी पृथ्वी पर एक सशक्त संस्था के रूप में विकसित हुई है वह किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद है। जिज्ञासुओं के लिए इसमें इस प्रश्न के उत्तर का ख़ुलासा होगा कि आख़िर हमारा भारत ग़ुलाम क्यों हुआ? ताकि इतिहास की ग़लतियों को दुहराने की फिर ग़लती न करें। कहावत है कि जो इतिहास नहीं जानते वे उसकी ग़लतियों को दोहराने को अभिसप्त होते हैं।

भारत की ग़ुलामी को दो  भाग में बाँटा जा सकता है। 1757-1857 के एक सौ एक साल जिनमे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हमें ग़ुलाम बनाया और 1858-1947 के नब्बे साल ब्रिटिश सरकार ने हमारे ऊपर राज्य किया।

ग़ुलामी मानवता के प्रति  सबसे बड़ा अभिशाप है। ग़ुलामी लादने और ग़ुलामी ओढ़ने वाले दोनों ही खलनायक हैं। ऐसे ही खलनायकों की दास्तान है यह किताब।

ग़ुलामी की कहानी से…….

आम भारतीय आज़ादी के बारे में बहुत कुछ जानता है कि कैसे भारत में राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ? हिंसक और अहिंसक कार्यवाही और आंदोलन हुए? कांग्रेस का गठन, फिर गरम-दल, नरम-दल, साईमन कमीशन,  जालियाँवाला बाग़ में बर्बरता, स्वदेशी आंदोलन, नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन और अंत में आज़ादी। इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी, क्योंकि 1858 से 1947 तक हम  90 साल  अंग्रेज़ी हुकूमत के शासन में पूरी तरह ग़ुलाम रहे  थे। जिसकी प्रक्रिया 1757 में  एक सौ एक साल पहले शुरू हो चुकी थी। उसके बारे में हम कितना जानते हैं?

इतिहासकारों और विद्वानों को छोड़ दें तो भारत का आम आदमी यह नहीं जानता कि अंग्रेज़ों ने भारत को किस प्रक्रिया से और कैसे ग़ुलाम बनाया था? वे सब चीज़ें इतिहास की बड़ी-बड़ी किताबों में बिखरी हुई मिलती हैं। बहुत ढूँढने पर भी न तो अंग्रेज़ी में और न ही हिंदी में या अन्य किसी भारतीय भाषा में एक जगह ग़ुलामी की कहानी पढ़ने को नहीं मिलती है।

1757 से 1857 के एक सौ एक साल भारत के इतिहास का वह कालखंड हैं जिसमें भारत दुनिया के दूसरे देशों से दो सौ साल पिछड़ गया था। जबकि छलाँग लगा के सौ साल आगे निकल सकता था।  अंग्रेज़ों का कहना है कि उन्होंने हमें प्रशासन, सेना, संचार, शिक्षा और संस्थाएँ दीं ये ठीक वैसा ही है कि पेट की भूख तो बढ़ा दी और भोजन छीन लिया। उन्होंने हमारा भयानक शोषण किया और शोषण का ढाँचा खड़ा करने में स्वमेव कुछ विकसित हुआ, उसे वे देना कहते हैं। हमें अपने हाल पर रहने देते जैसे उनके बग़ैर जापान और चीन रास्ते तलाश कर विज्ञान टेक्नॉलोजी विकसित करके आगे निकल  विकसित देशों की क़तार में खड़े हैं।

ब्रिटेन के ही आर्थिक इतिहासकार ऐंगस मैडिसॉन ने गहन अध्ययन से दुनिया के सामने एक चौंकाने वाली बात रखी है कि जब 1757 में भारत में ग़ुलामी की शुरुआत हो रही थी। उस समय अकेले भारत का दुनिया के सकल उत्पाद में हिस्सा 27% था,  जो कि यूरोप के कुल उत्पाद के बराबर था। जबकि इंग्लैंड का दुनिया के सकल उत्पाद में 3% हिस्सा था। 1947 में जब अंग्रेज़ भारत को  छोड़कर गए उस समय भारत का दुनिया के सकल उत्पाद में 3%  अंशदान बचा था और इंग्लैंड का बढ़कर 23% हो गया था। इसका सीधा अर्थ निकलता है कि भारत को निचोड़कर इंग्लैंड धनाढ़्य हुआ था। यह ग़ुलामी का परिणाम था।

एक और मापदंड है भारत में ग़ुलामी की भयावहता को मापने का। अंग्रेज़ों के आने के बाद 1770 से 1943 तक भारत में आर्थिक शोषण की नीतियों के कारण 17 अकाल पड़े जिनमें कुल 3 करोड़ 50 लाख लोग काल-कवलित हुए थे। जबकि उसी समयावधि में दुनिया के युद्धों में कुल 50 लाख लोग ही मारे गए थे। इसको तानाशाही से मारे गए मानवों से तुलना करें तो पाते हैं कि रूस में स्टालिन की तानाशाही से 2 करोड़ 50 लाख, चीन में माओ के अत्याचार से 4 करोड़ 50 लाख और द्वितीय विश्वयुद्ध में 5 करोड़ 50 लाख लोग मारे गए थे।  भारत में अंग्रेज़ों के शोषण  दुश्चक्र के ये प्रमाण ख़ुद अंग्रेज़ विद्वानों ने दुनिया के सामने रखे हैं। भयावहता इससे कहीं भयानक थी। उसके लिए आपको बिना खाए-पिए चार दिन भूखा प्यासा रहना होगा तब समझ आएगी भूख से तड़पती मौतें कैसी हुई होंगी। उस समय भारत की जनसंख्या 20 करोड़ थी 3.50 करोड़ लोगों का भूख से तड़फ कर मर  जाना याने 17.50% जनसंख्या का सफ़ाया।

सहज ही इस विषय को अध्ययन का केंद्रबिंदु बनाकर पढ़ना शुरू किया तो लिखने की इच्छा हुई और नतीजा आपके सामने है। अक्सर कहानी में नायक और खलनायक होते हैं लेकिन इस कहानी की विशेषता है कि इसमें नायक कोई नहीं, सब खलनायक हैं, जो ग़ुलाम बना रहे हैं वो भी और जो ग़ुलाम बन रहें हैं वो भी क्योंकि दोनो मानवता का ख़ून कर रहे हैं। जो ग़ुलाम बना रहे हैं वो भलाई के नाम पर इंसानियत का ख़ून कर रहे हैं और जो ग़ुलाम बन रहे हैं वो आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने के उपक्रम में ख़ुद अपनी बर्बादी के दोषी हैं। इसमें मुख्य नायिका “सत्ता की देवी” है। जो एक अदृश्य पात्र है। जिसका आहार मनुष्य का ख़ून है। उसके अस्त्र काम, क्रोध, लोभ और मोह हैं। उसके मुकुट में अहंकार और द्वेष के माणिक लगे हैं जिनकी चकाचौंध में वह रिश्तों का ख़ून करने से नहीं चूकती है। वह नृशंसता में किसी सीमा को नहीं मानती। सत्ता की देवी के पुजारी राजा-महाराजा या शाह-बादशाह हैं।  वह उनके माध्यम से ही बलि का प्रसाद ग्रहण करती है। मध्ययुग में मनुष्यता उसके पैरों के नीचे दबी कराह रही थी। ऐसी है हमारी ग़ुलामी की कहानी।

© सुरेश पटवा

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल–Meditation: Calming the Body – Learning Video 3-Shri Jagat Singh Bisht

MEDITATION: CALMING THE BODY

Learning Video #3

This is the third video in a series of videos – astep-by-step tutorial – to learn and practice meditationby yourself by listening to and following the instructions given in the video.

It gives simple and straight instructions to meditate in pure form. Just follow the instructions and meditate.

You may start your journey of meditation right from here but we would advise you to begin with the first video of the series on this channel and then come here after some days of practice.

Practice meditation on a daily basis listening to the video.

We will be happy to have your feedback and would answer any questions that you may have. Questions may be sent to us at [email protected].

Instructions:

Please sit down – legs folded crosswise, back straight and eyes closed.

Always be mindful of your breath as you breathe in; mindful, as you breathe out. Focus your attention on the nostrils as you breathe in and as you breathe out.

If you breathe in long, know: I am breathing in long. If you breathe out long, know: I breathe out long.

If you breathe in short, know: I am breathing in short. If you breathe out short, know: I breathe out short.

Keeping a watch on your breath in the background, look inwards to the major parts of your body: head, shoulders, hands, palms, chest, stomach, upper back, lower back, legs and the feet.

Sensitive to the whole body, breathe in. Sensitive to the whole body, breathe out.

As you continue to explore your body, while keeping a watch on your breathing, relax your limbs one-by-one: head, shoulders, hands, palms, chest, stomach, upper back, lower back, legs and the feet.

Calming the whole body, breathe in. Calming the whole body breathe out.

Open your eyes gently and come out of meditation.

Jagat Singh Bisht – Founder: LifeSkills

 

 

 

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल–Meditation: Awareness of Body-Learning Video#2-Shri Jagat Singh Bisht

MEDITATION: AWARENESS OF BODY

LEARNING VIDEO #2

This is the second video in a series of videos to learn and practice meditation by yourself by listening to and following the video.

It gives simple and straight instructions to meditate in pure form. Just follow the instructions and meditate.

You may start your journey of meditation from here but we would advise you to begin with the first video of the series on this channel and then come here after some days of practice.

Practice meditation on a daily basis listening to the video. When you feel confident that you are comfortable and ready, you may go to the next video in the series.

We will be happy to have your feedback and would answer any questions that you may have. Questions may be sent to us at [email protected].

Instructions:

Please sit down for meditation: legs folded crosswise, back straight and eyes closed.

Always be mindful of your breath as you breathe in and as you breathe out. Focus your attention on the nostrils as you breathe in and as you breathe out.

If you breathe in long, know: I am breathing in long. If you breathe out long, know: I breathe out long.

If you breathe in short, know: I am breathing in short. If you breathe out short, know: I breathe out short.

Keeping a watch on your breath in the background, look inwards to the major parts of your body: head, shoulders, hands, palms, chest, stomach, upper back, lower back, legs and the feet.

Sensitive to the whole body, breathe in. Sensitive to the whole body, breathe out.

Open your eyes gently and come out of meditation.

Jagat Singh Bisht – Founder: LifeSkills

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल–Meditation: Mindfulness of Breathing-Learning Video#1-Shri Jagat Singh Bisht

MEDITATION: MINDFULNESS OF BREATHING

LEARNING VIDEO #1

This is the first video in a series of videos to learn and practice meditation by yourself by listening to and following the video.

It gives simple and straight instructions to meditate in pure form. Just follow the instructions and meditate.

Practice meditation on a daily basis listening to the video. When you feel confident that you are comfortable and ready, you may go to the next video in the series.

We will be happy to have your feedback and would answer any questions that you may have. Questions may be sent to us at [email protected].

Voice in the video:

Jagat Singh Bisht, Founder: LifeSkills

MEDITATION:

Meditation is a practice that makes it possible to cultivate and develop certain basic positive human qualities in the same way as other forms of training make it possible to play a musical instrument or acquire any other skill.

The object of meditation is the mind. For the moment, it is simultaneously confused, agitated, rebellious and subject to innumerable conditioned and automatic patterns. The goal of meditation is not to shut down the mind or anaesthetise it, but rather to make it free, lucid and balanced.

Experienced meditators have demonstrated qualities of focused attention that are not found among beginners. For example, they are able to maintain more or less perfect concentration on a particular task for forty-five minutes, whereas most people cannot go beyond five or ten minutes before they begin making an increasing number of mistakes.

The primary goal of meditation is to transform our experience of the world but it has also been shown that meditation has beneficial effects on our health. Scientific experiments have shown that twenty minutes of daily practice of meditation can contribute significantly to the reduction of stress, whose harmful effects on health are well established.

It also reduces anxiety, the tendency towards anger and the risk of relapse for people who have previously undergone depression. Eight weeks of meditation for thirty minutes a day significantly strengthens the immune system, reinforces positive emotions, and reduces arterial pressure in those suffering from high blood pressure.

If we consider that the possible benefit of meditation is to have a new experience of the world each moment in our lives, then it doesn’t seem excessive to spend at least twenty minutes a day getting to know our mind better and training it towards this kind of purpose.

The fruition of meditation could be described as an optimal way of being, or again, as genuine happiness. This true and lasting happiness is a profound sense of having realized to the utmost the potential we have within us for wisdom and accomplishment. Working towards this kind of fulfilment is an adventure worth embarking upon.

THE ART OF MEDITATION by MATTHIEU RICARD

Jagat Singh Bisht, Founder: LifeSkills

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – Surya Namaskara: Salutations to the Sun – Mrs. Radhika Bisht

SURYA NAMASKARA: SALUTATIONS TO THE SUN

(For Video please click on following picture)

Surya namaskara is a well-known and vital technique within the yogic repertoire. It is a practice which has been handed down from the sages of vedic times. Surya means ‘sun’ and namaskara means ‘salutation’.

It is a technique of solar vitalization, a series of exercises which recharge us like a battery, enabling us to live more fully and joyfully with dynamism and skill in action.

Surya namaskara is a series of twelve physical postures. These alternate backward and forward bending asanas flex and stretch the spinal column and limbs through their maximum range. The series gives such a profound stretch to the whole body that few other forms of exercise can be compared with it.

It is almost a complete sadhana in itself, containing asana, pranayama and meditational techniques within the main structure of the practice. It also has the depth and completeness of a spiritual practice.

Surya namaskara can be easily integrated into our daily lives as it requires only five to fifteen minutes’ practice daily to obtain beneficial results remarkably quickly.

Surya namaskara demo by: Radhika Bisht, Founder: LifeSkills

Reference book:   Surya Namaskara – A Technique of Solar Vitalization by Swami Satyananda Saraswati

(This is only a demonstration to facilitate practice of the asanas. It must be supplemented by a thorough study of each of the asanas. Careful attention must be paid to the contra indications in respect of each one of the asanas. It is advisable to practice under the guidance of a yoga teacher.)

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हिन्दी साहित्य – कविता – जब मैं छोटा बच्चा था – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जब मैं छोटा बच्चा था

 

जब मैं छोटा बच्चा था

तब सब कुछ अच्छा था

दादाजी कहते हैं, मेरे

तब मैं सच्चा था ।

 

तब न खिलोने थे ऐसे

मंहंगे रिमोट वाले

नहीं कभी बचपन ने

ऊंच नीच के भ्रम पाले

टी.वी.फ्रिज, कम्प्यूटर

ए. सी.नहीं जानते थे

आदर करना, एक-दूजे का

सभी मानते थे।

तब न स्कूटर कार कहीं थे

घर भी कच्चा था………

 

चाचा,मामा, मौसी,दादा

रिश्ते खुशबू के

अंकल,आंटी, माम् डेड,ब्रा

नाम न थे, रूखे

गिल्ली-डंडे, कौड़ी-कंचे

खेल, कबड्डी कुश्ती

खूब तैरना, नदी-बावड़ी

तन-मन रहती चुस्ती।

बड़े बुजुर्ग, मान रखते

बच्चों की इच्छा का……….

 

दहीं-महीं और दूध-मलाई

जी भर खाते थे

शक्तिवर्धक देशी व्यंजन

सब को भाते थे

सेन्डविच,पिज्जा-बर्गर का

नाम निशान न था

रोगों को न्योता दे

ऐसा खान-पान नहीं था।

बुड्ढी के वे बाल

शकर का मीठा लच्छा था………

 

हमें बताते, दादाजी

तब की  सारी  बातें

सुन कर खुश तो होते

पर, संशय में पड़ जाते

अचरज तो होता, सुनकर

जो भी वे, बतलाते

सहज,सरल शिक्षा

नीति की ज्ञान भरी बातें।

पर जब भी, जो कहा

उन्होंने बिल्कुल सच्चा था…..

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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योग-साधना LIFESKILLS/जीवन कौशल – Grooming Facilitator Master Teachers

Groom yourself as Facilitator Master Teacher (Yoga, Meditation & Laughter Yoga

During the next year (2019), RadhikaJagat Bisht and Jagat Singh Bisht, Founders: LifeSkills, will conduct training to groom facilitators/ master teachers. This will enable them to learn, understand, practise, and propagate life skills for health, happiness and tranquillity. It includes practical sessions on the art of Meditation, the basics of Yoga and the fundamentals of Laughter Yoga. Also included are inputs on the elements of Happiness and Well-being and the quintessence of Spirituality.

If you are interested, please send us an email at [email protected].

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हिन्दी साहित्य – कविता – वे अद्भुत क्षण! – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

वे अद्भुत क्षण!

याद करें

वे अद्भुत क्षण?

जिन्हें आपने बरसों सँजो रखे हैं

सबसे छुपाकर

बचपन के जादुई बक्से में,

डायरी के किसी पन्ने में,

मन के किसी कोने में,

एक बंद तिजोरी में।

 

जब कभी

याद आते हैं,

वे अद्भुत क्षण?

 

तब कहीं खो जाता है।

वो बचपन का जादुई बक्सा,

वो डायरी का पन्ना,

वो बंद तिजोरी की चाबी

होने लगती है बेताबी।

 

साथ ही

खोने लगता है

वो मासूम बचपना

वो अल्हड़ जवानी

और लगने लगती है

सारी दुनिया सयानी।

 

भीग जाता है

वो मन का कोना

वो आँखों का कोना।

 

बरबस ही

याद आ जाते हैं

वे अद्भुत क्षण!

 

जब थी रची

सबसे प्रिय कृति

कविता, संस्मरण,

व्यंग्य, लेख, कहानी

और

खो गई है उनकी प्रति।

 

जब था उकेरा

साफ सुथरे केनवास पर,

विविध रंगों से सराबोर,

मनोभावों का बसेरा।

 

जब था रखा

मंच/रंगमंच पर प्रथम कदम

और

साथ कोई भी नहीं था सखा।

तालियाँ सभी ने थी बजायीं

किन्तु,

स्वयं को स्वयं ने ही था परखा।

 

यह मेरी प्रथम

अन्योन्यक्रियात्मक (Interactive) कविता है

जो

आपसे सीधा संवाद करती है।

मनोभावों की शब्द सरिता है

किन्तु,

आपसे बहुत कुछ कहती है।

 

ई-अभिव्यक्ति के मंच पर

आपसे उपहार स्वरूप

आपकी सबसे प्रिय कृति लानी है।

जो मुझे

आपकी जुबानी

सारी दुनिया को सुनानी है।

 

© हेमन्त बावनकर

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संस्थाएं – वर्तिका (संस्कारधानी जबलपुर की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था) – डॉ विजय तिवारी “किसलय”

वर्तिका (संस्कारधानी जबलपुर की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था) – डॉ विजय तिवारी “किसलय”
(वर्तिका की जानकारी आपसे साझा कराते हुए मुझे अत्यन्त गर्व का अनुभव हो रहा है। यह एक संयोग है की 1981-82 में मैंने वाहन निर्माणी प्रबंधन के सहयोग तथा स्व. साज जबलपुरी जी एवं मित्रों के साथ साहित्य परिषद, वाहन निर्माणी, जबलपुर की नींव रखी थी। 1983 के अंत में जब साज भाई के मन में वर्तिका की नींव रखने के विचार प्रस्फुटित हो रहे थे, उस दौरान मैंने भारतीय स्टेट बैंक ज्वाइन कर लिया। नौकरी के सिलसिले में जबलपुर के साथ साज भाई का साथ भी छूट गया। 34 वर्षों बाद जब डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी और वर्तिका के माध्यम से  पुनः मिलने का वक्त मिला तब तक काफी देर हो चुकी थी। नम नेत्रों से उनकी निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं –
मैंने मुँह को कफन में छुपा लिया, तब उन्हें मुझसे मिलने की फुर्सत मिली ….
हाल-ए-दिल पूछने जब वो घर से चले, रास्ते में उन्हें मेरी मैयत मिली ….
साज भाई, श्री एस के वर्मा, श्री सुशील श्रीवास्तव, श्री इन्द्र बहादुर श्रीवास्तव और मित्रों के साथ ‘प्रेरणा’ पत्रिका के प्रकाशन एवं वाहन निर्माणी इस्टेट सामाजिक सभागृह में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के आयोजन के लिए दिन-रात की भाग-दौड़ के पल आज मुझे स्वप्न से लगते हैं और वर्तिका की वर्तमान जानकारी साझा करना मेरा व्यक्तिगत दायित्व लगता है।) 

जबलपुर की वाहन निर्माणी में वर्ष 1984 में साज जबलपुरी, नरेंद्र शर्मा, सुशील श्रीवास्तव, इंद्र बहादुर श्रीवास्तव और उनके अन्य साथियों ने इस सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था वर्तिका का गठन किया था।  निर्माणी के अंदर सीमित दायरे में ही वर्तिका ने अपनी नींव मजबूत कर ली थी और उसने आज अपना बरगदी स्वरुप धारण कर लिया है।
संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं प्रादेशिक सीमा को लाँघकर देश के दूरांचलों में भी इसकी गतिविधियाँ पढ़ी और सुनी जा सकती हैं। वर्तिका के लंबे इतिहास के अनेक प्रसंग और यादगार पल आज भी सबके जेहन में बसे हैं। अनूठे और भव्य आयोजनों से वर्तिका की आज अलग पहचान बन चुकी है ।
साल भर वर्तिका की मासिक गोष्ठियों एवं काव्य पटल अनावरण कार्यक्रमों ने अपना एक नवीन इतिहास रचा है। हम मासिक गोष्ठियों में विभिन्न विषयों में दक्ष विशेषजों को आमंत्रित कर उनसे जीवनोपयोगी और ज्ञानवर्धक व्याख्यान सुनते हैं। कानून, शिक्षा, साहित्य, संगीत, चित्रकला, व्याकरण, चिकित्सा जैसे विषयों का समावेश निश्चित रुप से वर्तिका परिवार के लिए सोने में सुहागा जैसा हैं। साल भर लगातार स्थानीय एवं देश के ख्यातिलब्ध साहित्यकारों का वर्तिका के कार्यक्रमों में शरीक होना हमें गौरवान्वित करता है । वर्तिका के बैनर तले कृतियों का विमोचन तथा मासिक गोष्ठियों के अतिरिक्त अनेक कार्यक्रमों का होते रहना वर्तिका की सफलता नहीं तो और क्या है ? वर्तिका द्वारा अन्य संस्थाओं में सहभागिता करना एवं नगर की संस्थाओं द्वारा वर्तिका को सहभागी बनाना भी एक अहम उपलब्धि है । वर्तमान समय में जब मानव निजी स्वार्थ और औपचारिकताओं तक ही सीमित होता जा रहा हो । उसे समाज, साहित्य और देश के प्रति सोचने की फुरसत कहाँ है। वर्तमान सूचना तकनीक ने सभी पुराने मानदंडों को गौण बना दिया है । ऐसे में हमारी नई सोच और नई चेतना ही कुछ कर सकती है । भावनाओं और नैतिक मूल्यों के ह्रास को रोकने के लिए भी अब संस्थाओं के माध्यम से प्रयास जरूरी हो गए हैं । हमारी वर्तिका भी सदैव ऐसे प्रयासों में सहभागिता प्रदान करती हैं।
विगत 34 वर्षों से वर्तिका ने अपनी सक्रियता एवं कार्यशैली से जो साहित्य सेवा की है और जो साहित्यकार दिए हैं, वे स्वयं ही उदाहरण स्वरूप हमारे सामने हैं। वर्तिका आज किसी पहचान की मोहताज नहीं है। जबलपुर एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में इसकी गहरी पैठ है। आज वर्तिका से जुड़कर लोग स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। संस्थापक स्व. साज जबलपुरी जी से लेकर वर्तमान की पूरी इकाई वर्तिका को नित नवीनता प्रदान करती आ आई है। वर्तिका एक साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था है। साहित्य के अतिरिक्त भी समाज में वर्तिका अपना सहयोग प्रदान करती है। वैसे तो वर्तिका प्राम्भ से ही अपने वार्षिक आयोजनों के दौरान  स्मारिकाएँ एवं काव्य संग्रह प्रकाशित करती आई है। इस बार भी वार्षिक आयोजन में उत्कृष्ट स्मारिका वर्तिकायन- 2018 प्रकाशित की गई है, जिसमें साज जबलपुरी जी पर केन्द्रित विषयों को प्रमुखता से स्थान दिया गया है। वार्षिक कार्यक्रम में वर्तिका राष्ट्रीय अलकरणों हेतु इस बार भी देश के विभिन्न प्रांतों की प्रतिभाएँ सम्मानित हुईं।
विजय तिवारी “किसलय”
अध्यक्ष (वर्तिका)
14 नवंबर 2018
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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – बाजार……. – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

बाजार…….

हरिनिवास पंडित शहर के मध्य में जूते-चप्पलों का एक भव्य शो रुम चला रहे हैं।

सामने ही इस्माइल मियां पूजन सामग्री की दुकान खोले बैठे हैं।

ठाकुर बलदेव सिंग की किराना दुकान पुरे क्षेत्र में प्रसिद्द है, समीप ही संपत राय महाजन ने फल-फूल तथा सब्जियों की भरी दुकान सजा रखी है।

इधर दलित दयाराम की सोने-चांदी की दुकान अलग ही चमचमा रही है।

रामकृष्ण सर्राफ बिस्किट, बेकरी आयटम व चिप्स /कुरकुरे थोक में बेच रहे है,  थोड़े आगे ही नुक्कड़ पर हरी प्रसाद हरिजन की हॉटल/ भोजनालय में खाने वालों की दिनभर भीड़ लगी रहती है।

इस बार निगम के चुनाव में भारी बहुमत से विजयी, सत्संगी- शारदा देवी नगर के महापौर पद को सुशोभित कर रही है और  कृषि उपज मंडी के मुख्य आढ़तिया पद को सरदार प्रीतम सिंग जी।

उधर गांव  के अधिकांश खेतों को शहरी लोग संभालने लग गए हैं, तो ग्रामीण युवक शहरों में इधर-उधर दुकानों में काम कर रहे हैं।

स्थिति यह है कि, शहर गांव की तरफ और गांव शहर की तरफ दौड़ लगा रहे हैं।

बाजार के ये सारे सुखद दृश्य देख कर रामदीन को ये लगता है कि, हमारा देश सामाजिक समरसता की ओर तेजी से बढ़ रहा है।

किन्तु समाज के मौजूदा हालात देखकर रामदीन को यह भी लगता है कि,

इस नव विकसित बाजारू परिदृश्य के बावज़ूद जातीय, सामाजिक एवं सांप्रदायिक सद्भाव कहीं पीछे छूटता जा रहा है,   जिसके बारे में सोचने का किसी के पास समय नहीं है।

बदलते परिवेश में एक ओर रामदीन प्रसन्न है तो दूसरी ओर खिन्न भी।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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