English Literature – Weekly Column ☆ Witful Warmth # 29 – The Truth of the Dig… ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Dr. Suresh Kumar Mishra, known for his wit and wisdom, is a prolific writer, renowned satirist, children’s literature author, and poet. He has undertaken the monumental task of writing, editing, and coordinating a total of 55 books for the Telangana government at the primary school, college, and university levels. His editorial endeavors also include online editions of works by Acharya Ramchandra Shukla.

As a celebrated satirist, Dr. Suresh Kumar Mishra has carved a niche for himself, with over eight million viewers, readers, and listeners tuning in to his literary musings on the demise of a teacher on the Sahitya AajTak channel. His contributions have earned him prestigious accolades such as the Telangana Hindi Academy’s Shreshtha Navyuva Rachnakaar Samman in 2021, presented by the honorable Chief Minister of Telangana, Mr. Chandrashekhar Rao. He has also been honored with the Vyangya Yatra Ravindranath Tyagi Stairway Award and the Sahitya Srijan Samman, alongside recognition from Prime Minister Narendra Modi and various other esteemed institutions.

Dr. Suresh Kumar Mishra’s journey is not merely one of literary accomplishments but also a testament to his unwavering dedication, creativity, and profound impact on society. His story inspires us to strive for excellence, to use our talents for the betterment of others, and to leave an indelible mark on the world. Today we present his Satire The Truth of the Dig...

☆ Witful Warmth # 29 ☆

☆ Satire ☆ The Truth of the Dig…  ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Once upon a time, in an old neighborhood of Hyderabad, an unusual silence fell after a grand procession. The streets, usually bustling with life, were eerily deserted. Shattered glass scattered in every corner and old carvings on the walls gave the place an air of melancholy, as if the past itself had been engulfed in silence. The marks on the shards seemed to whisper stories of an era long gone, yearning to be heard. 

Years later, a new generation arrived and saw the neighborhood as a historical site. They thought, “Something remarkable might be hidden here,” and began to excavate the alley. At first, they found nothing significant—just broken glass and faded carvings. Disappointed, they continued digging deeper. Then, they unearthed something extraordinary—a vintage clock! 

A sense of wonder spread across everyone’s faces. This was no ordinary clock. It appeared to symbolize a profound understanding of time and history. As they gazed at it, no one could comprehend who the clock belonged to or who might have used it. 

Ramu Bhai, an old art researcher, smiled faintly and said, “Whose clock could this be? If it’s this old, it might have belonged to someone significant who valued time immensely.” 

Upon closer inspection, they discovered that the clock was not merely made of metal and glass but adorned with exquisite gems and rare wood. 

Ali Bhai, a researcher in ancient arts, exclaimed in astonishment, “What’s this? Whose clock could it be? Look at it—it seems brand new, as if just crafted. And the most peculiar thing is the use of gems and wood in its construction.” 

Nasima Bee, who studied the histories of old families, smiled and remarked, “What does the ancient world want to show us with this? If this clock is so unique, it must symbolize someone’s thoughts and decisions. But who could it be?” 

Everyone gathered around the clock, trying to unravel its mysteries. Once, a clock was merely a device to tell time. But this clock seemed to reveal the truth about thought and understanding alongside time. 

Shahid Bhai, a young thinker, addressed the group, saying, “This clock conveys a new message! If it’s this extraordinary, it signifies more than just time—it’s a symbol of understanding and mental strength.” 

The realization dawned upon everyone. The clock was teaching them that real strength doesn’t come from time itself but from the ability to use time wisely, with thought and understanding. 

Mahesh Bhai, a researcher in ancient education, added, “This clock tells us that the proper use of time isn’t driven by mere physical strength but by the power of thought and decision-making.” 

Gradually, people understood that the clock was not just a relic of a bygone era but a representation of all those who grasped the significance of time. It showed that everything has a purpose, and this clock was a unique part of that purpose. 

As people stared at the clock, a new perspective began to unfold before their eyes. This clock was not merely a marker of time but a symbol of the strength to make the right decisions at the right moment.

*

© Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Contact : Mo. +91 73 8657 8657, Email : [email protected]

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 228 – “बैठे ठाले – एक ठो व्यंग्य – ‘ऐसा भी होता है’” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है पितृपक्ष में एक विचारणीय व्यंग्य  – “बैठे ठाले – ‘एक ठो व्यंग्य – ‘ऐसा भी होता है”।)

☆ व्यंग्य जैसा # 228 – “बैठे ठाले – ‘एक ठो व्यंग्य – ‘ऐसा भी होता है☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

एक ही शहर के तीन विधायक बैठे हैं एमएल रेस्ट हाऊस के एक बंद कमरे में। चखने के साथ कुछ पी रहे हैं, ठेकेदार दे गया है ऊंची क्वालिटी की। पीते पीते एक नेता बोला – ये अपने शहर से ये जो नया लड़का धोखे से इस बार जीत क्या गया है, बहुत नाटक कर रहा है, लोग जीतने के बाद अपनी कार के सामने बड़े से बोर्ड में लाल रंग से ‘विधायक’ लिखवाते हैं इस विधायक ने अपनी कार में ‘सेवक’ लिखा कर रखा है, अपना इम्प्रेशन जमाने के लिए हम सबकी छबि खराब कर रहा है, ठीक है कि चुनाव के समय हम सब लोग भी वोट की खातिर हाथ जोड़कर जनता के सामने कभी ‘सेवक’ कभी ‘चौकीदार’ कहते फिरते हैं पर जीतने के बाद तो हम उस क्षेत्र के शेर कहलाते हैं और रोज नये नये शिकार की तलाश में रहते हैं, रही विकास की बात तो विकास तो नेचरल प्रोसेस है होता ही रहता है, उसकी क्या बात करना, विकास के लिए जो पैसा आता है उसके बारे में सोचना पड़ता है।

दूसरे विधायक ने तैश में आकर पूरी ग्लास एक ही बार में गटक ली और बोला –  तुम बोलो तो…उसको अकेले में बुलाकर अच्छी दम दे देते हैं, जीतने के बाद ज्यादा जनसेवा का भूत सवार है उसको, हम लोग पुराने लोग हैं हम लोग जनता को अच्छे से समझते हैं जनता की कितनी भी सेवा करो वो कभी खुश नहीं होती। अरे धोखे से जीत गए हो तो चुपचाप पांच साल ऐश कर लो, कुछ खा पी लो, कुछ आगे बढ़ाकर अगले चुनाव की टिकट का जुगाड़ कर लो। मुझे देखो मैं चार साल पहले उस पार्टी से इस पार्टी में आया, मालामाल हो गया, बीस पच्चीस तरह के गंभीर केस चल रहे थे, यहां की वाशिंग मशीन में सब साफ स्वच्छ हो गए, वो पार्टी छोड़कर आया था तो यहां आकर मंत्री बनने का शौक भी पूरा हो गया, इतना कमा लिया है कि सात आठ पीढ़ी बैठे बैठे ऐश करती रहेगी, जनता से हाथ जोड़कर मुस्कुरा कर मिलता हूं, चुनाव के समय कपड़ा -लत्ता सोमरस और बहुत कुछ जनता को सप्रेम भेंट कर देता हूं, जनता जनार्दन भी खुश, अपन भी गिल्ल…. और क्या चाहिए। ये नये लड़के कुछ समझते नहीं हैं, राजनीति कुत्ती चीज है, ऊपर वाला नेता कब आपको उठाकर पटक दे कोई भरोसा नहीं रहता, कितनी भी चमचागिरी करो ऐन वक्त पर ये सीढ़ी काटकर नीचे गिरा देते हैं। अभी छोकरा नया नया है  हम लोग सात आठ बार के विधायक हैं हम लोग अनुभवी लोग हैं खूब राजनीति जानते हैं, लगता है एकाद दिन अकेले में कान उमेठ कर छोकरे को राजनीति और कूटनीति समझाना पड़ेगा।

तीसरा मूंछें ऐंठते हुए बोला – यंग छोकरा है  ज्यादा होशियार बनने की कोशिश कर रहा है अपन वरिष्ठों की इज्जत नहीं कर रहा है सबकी इच्छा हो तो विरोधी पार्टी की यंग नेत्री (जो अपनी खासमखास है) को भिजवा देते हैं एकाद दिन… पीछे से कोई वीडियो बना ही लेगा, फिर देखना मजा आ जायेगा। पहला वाला बोला – होश में आओ अपनी ही पार्टी से जीता है, गठबंधन सरकार में एक एक विधायक का बहुत महत्व होता है। अकेले में समझा देना नहीं तो नाराज़ होकर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर लेगा, सुना है आजकल एक विधायक की कीमत पचीस से चालीस करोड़ की चल रही है। नया खून है, जल्दी गरम हो जाता है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 538 ⇒ यह घर मेरा नहीं ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “यह घर मेरा नहीं।)

?अभी अभी # 538 ⇒ यह घर मेरा नहीं ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं यहां हरि ओम शरण की बात नहीं कर रहा, जो कह गए हैं, ना ये तेरा, ना ये मेरा, मंदिर है भगवान का। मै जिक्र कर रहा हूं, राग दरबारी वाले श्रीलाल शुक्ल का, जिनकी एक कृति है, यह घर मेरा नहीं। जिस इंसान ने पहले मकान जैसे उपन्यास की रचना कर दी हो, वह अगर कहे कि यह घर मेरा नहीं, तो बात कुछ गले नहीं उतरती।

घर बनाए ही जाते हैं, रहने के लिए, और किराए से उठाने के लिए ! जो किराए के मकान में रहता है, वह भी अक्सर यही कहता है, यह घर मेरा है। लेकिन जब पहली तारीख को किराया देना पड़ता है, तब वह भी सोचता है, काश मेरा भी खुद का घर होता।।

कुछ लोग घर बनाते हैं, कुछ खरीदते हैं, और कुछ बांधते हैं ! जो खरीदते हैं, उन्हें सिर्फ पैसे का या लोन का इंतजाम करना पड़ता है, लेकिन जो बनाते हैं, वे ही जानते हैं, मकान बनाना, लड़की की शादी निपटाने जैसा काम है। आज जैसी सुविधाएं पहले नहीं थी। न मकान बनाने में, न लड़की की शादी करने में।

एक ज़माना था, खुद के मकान को तो छोड़िए, पड़ोसी और दोस्तों, रिश्तेदारों के मकानों की भी तरी करनी पड़ती थी। कहीं की ईंट, कहीं का पत्थर, पैसा पैसा बचाकर मकान बनाया जाता था। तब न मल्टी बनती थी, न बिल्डर होते थे। किसी पहचान के ठेकेदार को लिया, और मकान शुरू।।

कुछ लोग घर बांधते थे। कैसे बांधते थे, मैं कभी समझ नहीं पाया। फिर किसी ने समझाया, कुछ नहीं, जिस बैंक से लोन लेते हैं, वह इसे बंधक रख लेता है, जब तक आखरी किस्त अदा नहीं हो जाती।

घर को ही मकान कहते हैं ! मकान दो तरह के होते हैं, एक किराए का मकान, और एक घर का मकान। धर्मवीर भारती ने जिस बंद गली के आखरी मकान का जिक्र किया है, मैं उसमें 35 वर्ष रह चुका हूं। लेकिन वह मेरा घर नहीं था, किराए का मकान था।।

इंसान चाहे झोपड़ी में रह ले, वह उसका घर होता है ! जिस घर में चैन है, और चैन की नींद है, वही घर है। ईंट पत्थरों के भी कहीं घर होते हैं। बच्चा स्कूल से घर आता है, आदमी दफ्तर, दुकान से शाम को घर आता है। जब भी हम घर से दूर होते हैं, घर बहुत याद आता है।

घर- परिवार को आप अलग नहीं कर सकते। पहले इंसान घर बनाता है, फिर घर चलाता है। महिलाएं घर गृहस्थी साथ लेकर चलती हैं। लड़कियां बचपन से ही घर घर खेलती हैं। हर लड़की के दो घर होते हैं, एक पीहर, एक ससुराल। आदमी की तो बस, पूछिए ही मत ! कभी घर का, तो कभी घाट का।।

महल हो या झोपड़ी, घर घर होता है। कहीं महल में कैकई होती है, क्लेश होता है, तो कहीं किसी कुटिया मे महात्मा विदुर का स्थान होता है, जहां वासुदेव कृष्ण और साग होता है। घर में मां, बहन, बेटी, बहू हो, चैन हो, सुकून हो ! ईश्वर करे, ऐसा कभी ना हो, कि किसी को कहना पड़े, यह घर मेरा नहीं।

कहने को तो शैलेन्द्र भी कह गए हैं, तुम्हारे महल चौवारे, यहीं रह जाएंगे प्यारे ! कुंदनलाल भी कहते कहते थक गए, बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए। साहिर भी तो कहते हैं, ये दुनिया मेरे बाबुल का घर, वो दुनिया ससुराल। क्या फर्क पड़ता है, दोनों ही घर अपने है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जीत की मशाल… ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

☆ कविता – जीत की मशाल…  ☆  डॉ प्रेरणा उबाळे 

जीत की मशाल हूँ मैं

जीत की मशाल हूँ

*

तप्त ज्वाला जगा दें

अभिशप्त को मार दें

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

चमका दो शिखर तरू

काट दे जहर को तू

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

मृदंग-सा ताल पकड़

सृजन का आगाज कर

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

ठिठकना तू छोड़ दें

लय, गति तेज कर दें

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

स्वर्ण कडा पहन तू

बंद मुट्ठी खोल तू

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

हाथ उठा आसमान तक

खींच ला सूरज भी अब

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

तिलक लगेगा माथे पर

सुनहरी होगी तेरी राह

जला ले पुनः मशाल अब

जीत की मशाल हूँ मैं

जीत की मशाल हूँ l

■□■□■

© डॉ प्रेरणा उबाळे

रचनाकाल  : 24 नवंबर 2024

मराठी से हिंदी अनुवाद – डॉ. प्रेरणा उबाळे : 16.11.2024 

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 200 ☆ # “मेरा आत्मसम्मान चाहिए…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मेरा आत्मसम्मान चाहिए…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 200 ☆

☆ # “मेरा आत्मसम्मान चाहिए…” # ☆

इस पल पल बदलती दुनिया में

मुझे आत्म गौरव, मान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए

 

कब तक जिएगा कोई

बैसाखियों के सहारे

वो हर बार ही जीते

हम हर बार ही हारे

चौसठ खानों की बिसात पर

शतरंज तुम्हारी, मोहरे भी तुम्हारे

इस शह और मात की बाजी में

सच्चाई और इमान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए

 

कितने उद्दंड है

बहते हुए धारे

डुबोने बेचैन है

कश्ती को हमारे

कश्ती भले ही जीर्ण हो

हममें जुनून है

पहुंचा ही देंगे

हम कश्ती को किनारे

दरिया के पानी में

बस एक तूफान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए

 

यह कैसा पाखंड है

हम बट रहे खंड खंड है

यह किस गुनाह का

मिल रहा दंड है

वहशी हवाओं में

वेग प्रचंड है

इस प्रलय को रोक सके

ऐसा एक इन्सान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए /

 

कविता

 

” जीवन चक्र  “

 

जीने के लिए हम

क्या क्या नहीं करते हैं

रोज जीते हैं

रोज मरते हैं

दो जून की रोटी के लिए

क्या क्या नहीं करते हैं

चाहे दिन हो या रात

ठंड हो, गर्मी हो

या हो बरसात

किसी भी मौसम में

खुद की परवाह नहीं करते हैं

सुबह घर से निकलते हैं

दौड़ लगाते हैं

भीड़ का हिस्सा

बन जाते हैं

परिश्रम करते हैं

पसीना बहाते हैं

तब –

दो रोटी का

परिवार के लिए

इंतजाम हो पाता है

कुछ पल के लिए

आदमी सो पाता है

रोज अपने परिवार

की जरूरते

जो अनंत हैं

पर जरूरी हैं

उसे पूरा करना

हर शख्स की

मजबूरी है

 

यह ऐसी जंग है

जिसका अलग ही रंग है

इससे हर कोई लड़ता है

एक एक कदम

आगे बढ़ता है

किसी के भाग्य का

सितारा चमकता है

तो वो नया इतिहास

गढ़ता है

और कोई

हर रोज संघर्ष करता है

पर निराश है

बेकारी, भूख , गरीबी

उसके पास है

झूठे वादे

अंधविश्वास ही

उसको रास है

वो जीवित तो है पर

एक जिंदा लाश है

 

जो तूफानों से टकराता है

आंधियों से नहीं घबराता है

वो भवसागर पार

कर जाता है

और

जो डरता है

हिम्मत हारता है

वो टूटकर

बिखर जाता है

जीवन चक्र में

अनजाना सा

मर जाता है

यही जीवन का

 अकाट्य सत्य है/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – बूंद की कथा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता बूंद की कथा…।)

☆ कविता – बूंद की कथा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

********

एक नन्ही सी बूंद जल की,

आशा की किरण लिए मन में,

कितने अरमान संजोये थे,

जब छुपी मेघ के अंचल में,

नन्हे दिल में बड़े प्रेम से,

साहस का अंकुर बोया,

कीर्ति रहे इस जग में,

यह अरमान संजोया,

आखिर वह दिन भी आया,

  स्वजनों से जब किया किनारा,

रोया दिल भीगे नैनों से,

बहने लगी अश्रु की धारा,

यादें धूमिल हो गई,

सामने भविष्य था

आस निराशा के घेरे में,

अनंत का रहस्य था,

वायु के उज्जवल रथ पर,

अश्व जुते जिसमें सपनों के,

पल पल थी वह सोच रही,

क्यों दामन छूटे अपनों के,

सोचा किसी सीप में गिर,

मैं मोती बन जाऊंगी,

किसी हार में लगा कर फिर,

  दुल्हन के गले लग जाऊंगी,

रूप सौंदर्य की वृद्धि करके,

जीवन सफल बनाऊंगी,

प्यार करूंगी हर पल से,

हर पल को सुखद बनाऊंगी,         

  किसी नवेली दुल्हन की,

 मांग में जा छुप जाऊंगी,

कृतार्थ करूंगी अपने को,

मांग का मान बढ़ाऊंगी,

दुखद बिदा की बेला में,

नैनो के आंसू बन जाऊंगी,

स्वजनों की आंखों में भरकर,       

 डोली का मान बढ़ाऊंगी,

या फिर मंदिर में जाकर,

ईश को शीश झुकाऊंगी,

ईश के चरणों में गिरकर,

चरणामृत कहलाऊंगी,

भक्त जनों की अंजलि में जा,

प्रेम की प्यास बुझाऊंगी,

शांति मिले मन को ऐसी,

भक्ति भाव बढ़ाऊंगी,

फिर सोचा कि जब मजदूर,

कार्य से बोझिल थक कर चूर,

अपने घर जब वापस आता,

जल पीने को जी ललचाता,

इतने में गृह लक्ष्मी भी,

जल लुटिया ले बाहर आती,

बूंद सोच में पड़ी कि वह भी,        

 लुटिया के जल में मिल जाती,     

  प्यासे श्रमिक की प्यास बुझा,   

  यह जीवन सफल बना जाती,    

  फिर बदला नन्हा सा दिल,

सुन,पपीहे की पुकार उदास,

गिर जाऊं इसके मुंह में तो,

बुझ जाए इसकी भी प्यास,

क्रूर काल का खेल ये कैसा,

हाय विधाता की माया,

नन्हा सा दिल टूट गया,

स्वप्न न पूरा हो पाया,

कालचक्र फिर जर्जर सा,

मंद गति से चला

रोम रोम भी कांप उठा,

आशंका से दिल दहला,

आस ना पूरी हो पाई,

राज,आ गई कैसी घड़ी,

अंतिम सांसें ले रही,

बूंद कीचड़ में पड़ी,

कली पुष्प ना बन पाई,

निशि की छाया आ गई,

जीवन भी ना मिल पाया,

मृत्यु कहीं से आ गई… 

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ समाधीस्थ ज्ञानदेव… ☆ सुश्री उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

☆ समाधीस्थ ज्ञानदेव… ☆ सुश्री उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

आळंदी सोडून चालली ती,

चार सान गोजिरी मुले !

काट्याकुट्यांच्या मार्गामध्ये,

अडखळत होती त्यांची पाऊले!…. १

*

 आळंदीकरांनी हिणविले तयांना,

‘संन्याशाची मुले’ म्हणूनी!

 व्याकुळलेली मने घेऊनी,

 चालली लेकरे हतबल होऊनी!.. २

*

निवृत्तीचा स्वभाव संयत,

ज्ञानाची त्या होती साथ!

सोपान मुक्ता पाठी त्यांच्या,

 चालू लागले अवघड वाट!… ३

*

 पैठण क्षेत्री गेली भावंडे,

 मिळेल काही न्याय म्हणूनी!

 मोठे पण त्यांचे नाही आले,

 शास्त्री पंडित यांच्याही ध्यानी!.. ३

*

दुःखी होऊनी परत निघाली,

घेऊन आली शुद्धिपत्रास !

आता तरी मिळेल का हो,

 करण्या आम्हा आळंदीत वास!.. ४

*

पैठण, नेवासे वाट चालता,

 केले काही चमत्कार जनी!

कळून येता त्यांची महती,

 अवाक् झाली सारीच मनी!… ५

*

आळंदीला परतून येता,

 ज्ञाना म्हणे कार्य ते झाले!

गुरु निवृत्तीची आज्ञा होता,

 समाधी घेण्या सिद्ध जाहले!.. ६

*

तिथे पाहिली जागा सत्वर,

 खोल विवर शोधिले त्यांनी!

ज्ञानदेव त्या विवरी शिरता,

 शिळा ठेवली निवृत्तीनाथांनी!… ७

*

योगेश्वर रूप ते ज्ञानदेव,

आळंदीस समाधीस्थ झाले!

अजून त्याची साक्ष देत हा,

 सोन्याचा पिंपळ त्यावरी झुले !… ८

© सुश्री उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आयुष्याच्या होकाराला… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आयुष्याच्या होकाराला… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

आयुष्याच्या होकाराला, कौल जरासा लाविन म्हणतो

वाट संपली वाटचाल पण, अजुन जराशी करीन म्हणतो

*

जागविल्या मी कितीक राती, नभांगणीचे मोजत तारे

जपमाळेमधि स्वप्नांच्या ह्या, नवीन तारे ओविन म्हणतो

*

अंतर्यामी कुसुमांच्या मी, शिरता वाटे कवी जाहलो

ह्रदयकवाडे काट्यांचीही, जरा किलकिली करीन म्हणतो

*

नकार होता ह्या मातीचा, बीज उधळले वाऱ्यावर मी

सुदूर कोठे असेल रुजले, शोध तयाचा घेइन म्हणतो

*

कालपरत्वे गहाळ झाली, काळजातली काही गावे

प्राणप्रतिष्ठा पुन्हा तयांची, नकाशात मी करीन म्हणतो

*

द्यावी बुडवुन भोगशिदोरी, तळ नसलेल्या अथांग डोही

पुन्हा लिहाया नवी कहाणी, कागद कोरा होइन म्हणतो

*

विलया न्यावी कशी सागरा, मलीन अजुनी इतुकी गंगा

कुठे अजूनी स्वर्ण कसाला, अजुन जळत मी राहिन म्हणतो !

(वनहरिणी )

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सांगा बाई कधी रिकामी असते का? ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सांगा बाई कधी रिकामी असते का ? ☆ सौ. वृंदा गंभीर

सांगा बाई कधी रिकामी असते का?

कुठेतरी ठेवलेली पोटली

सापडतेच ना?

डाळींच्या डब्यात गव्हाच्या पोत्यात

कुठे न कुठे पैसे सापडतात ना?

बाई ची नजर आणि भविष्याचा विचार खराच असतो ना?

सांगा बाई कधी रिकामी असते का?

*

डबा जरी रिकामा असला तरी वळचणीला सापडतच ना,

पोत्याची थप्पी नसली तरी उतरंडीत धान्य असतंच ना,

भाजी नसेलतर आमटी शिजतेच ना.

सांगा बाई कधी रिकामी असते का?

*

घर सांभाळून काम करतेच ना,

बरोबरीने काम करून शेरडं, करडं सांभाळतेच ना,

ठेवती जपून पैसापाणी वेळेनुसार देतेच ना,

जेव्हा कुणाचा आधार मिळत नाही तेंव्हा मदत करतेच ना

सांगा बाई कधी रिकामी असते का?

*

का होते पुरुषांचेच कौतुक नेहमी?

 बाई कौतुकाची अधिकारी असतेच ना,

संकटाना तोंड देऊन तीही संसार सावरतेच ना,

गोड बोलून नाती जपून एकोप्याने राहतेच ना,

तरीही बाईच दोषी असं म्हणतात च का?

सांगा बाई कधी रिकामी असते का?

© सौ. वृंदा पंकज गंभीर (दत्तकन्या)

न-हे, पुणे. – मो न. 8799843148

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 196 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 196 ? 

अभंग…☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

बालपण गेले, निघूनिया माझे

झाले पहा ओझे, तारुण्याचे.!!

*

बालपणा सवे, खूप काही गेले

मनात स्मरले, सर्व कोष.!!

*

खोड्या आठवल्या, काड्या आठवल्या

जागा आठवल्या, रमलेल्या.!!

*

काळा फळा सुद्धा, स्मृतीत राहिला

अधांतरी झाला, आता फळा.!!

*

काळा होता फळा, हिरवा जाहला

खडू बदलला, रंगा-सवे.!!

*

पाटी नि लेखणी, आणि उजळणी

घरी शिकवणी, होतं नाही.!!

*

दफ्तर फाटले, वह्याही फाटल्या

शाळेच्याही खोल्या, मृत-झाल्या.!!

*

असंख्य चित्रण, मनात बंदिस्त

जवळचे दोस्त, फितूरले.!!

*

कविराज म्हणे, लिहितांना शब्द

मनं हे निःशब्द, होते आहे.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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