हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सैडिस्ट ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सैडिस्ट ? ?

रास्ते का वह जिन्न,

भीड़ की राह रोकता

परेशानी का सबब बनता,

शिकार पैर पटकता,

बाल नोंचता,

जिन्न को सुकून मिलता,

जिन्न हँसता..,

पुराने लोग कहते हैं-

साया जिस पर पड़ता है

लम्बा असर छोड़ता है..,

 

रास्ता अब वीरान हो चुका,

इंतज़ार करते-करते

जिन्न बौरा चुका,

पगला चुका,

सुना है-

अपने बाल नोंचता है,

सर पटकता है,

अब भीड़ को सकून मिलता है..,

झुंड अब हँसता है,

पुराने लोग सच कहते थे-

साया जिस पर पड़ता है

लम्बा असर छोड़ता है..।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 24 – खजुराहो नृत्य उत्सव/KHAJURAHO DANCE FESTIVAL – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ खजुराहो नृत्य उत्सव/KHAJURAHO DANCE FESTIVAL।) 

☆  दस्तावेज़ # 24 – खजुराहो नृत्य उत्सव ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

कुछ स्मृतियाँ ओस की बूंदों की तरह होती हैं — चुपचाप मन के किसी कोने में झिलमिलाती रहती हैं, जब समय बहुत दूर निकल चुका होता है। वर्ष था 1986। मेरी पदस्थी पन्ना में थी — वह नगर जो अपने हीरों के लिए प्रसिद्ध है, जहां लोग पूरी ज़िंदगी बिता देते हैं धरती के नीचे कुछ चमकते कणों की तलाश में, पर जिनके हिस्से वह आता है, वे वाक़ई किस्मत वाले होते हैं। लेकिन उस वसंत ऋतु में, मेरी पत्नी और मैंने एक अलग ही किस्म का हीरा खोजा — जो न मिट्टी में था, न आकाश में, बल्कि खजुराहो की खुली हवा, मंदिरों की पृष्ठभूमि और नृत्य की थापों में दमक रहा था।

हम दोपहिया वाहन पर निकले थे — पन्ना से खजुराहो की ओर, हवा हमारे चेहरे को सहला रही थी और मन में एक अजीब सी उत्सुकता थी। रास्ते में मड़ला में — जो आज पन्ना नेशनल पार्क का प्रवेश द्वार है — एक ढाबे पर रुके। ढाबे के मालिक ने चाय परोसी और बड़ी नम्रता से बताया कि इलाके में एक बाघ घूम रहा है, और इस रास्ते पर दोपहिया वाहन से जाना सुरक्षित नहीं है। हम मुस्कुरा दिए — थोड़े चिंतित, पर ज्यादा रोमांचित। जैसे जंगल ने हमारी यात्रा को एक रहस्यमयी प्रस्तावना दे दी हो।

खजुराहो — मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले का वह नगर, जहां पत्थर भी कविताएं कहते हैं। हिंदू और जैन मंदिरों का यह समूह, जो अब विश्व धरोहर घोषित हो चुका है, उस वर्ष पहली बार यूनेस्को की सूची में शामिल हुआ था। और उसी वर्ष मार्च में, इन मंदिरों की गोद में आयोजित खजुराहो नृत्य महोत्सव का आंनद लेने हम पहुंचे। यह एक ऐसा उत्सव था जहां दुनिया भर के शास्त्रीय नृत्यकला के साधक इकट्ठा हुए थे।

यह मेरे सहकर्मी राम विलास कटारे की कृपा थी, जो उस समय खजुराहो में ही पदस्थ थे, कि हमें वहां तीन दिन रुकने और महोत्सव में भाग लेने का सौभाग्य मिला। राम विलास ने बाद में बैंक की नौकरी छोड़कर ग्वालियर में उद्योग की दुनिया में अपनी पहचान बनाई, लेकिन उन दिनों हम सब बस कला प्रेमी थे — मंच के सामने बैठे, मंत्रमुग्ध दर्शक।

महोत्सव की प्रथम संध्या में मंच पर थीं — संजुक्ता पाणिग्रही। ओडिसी नृत्य की यह नृत्यांगना अपने संगीतकार पति के साथ मंच पर आईं। उनकी प्रस्तुति जादुई थी — नृत्य और अभिनय का ऐसा संगम कि हर भाव, हर मुद्रा, हर अभिनय एक प्रार्थना लगने लगे। गीत गोविंद की भक्ति से लेकर सूरदास की पदावली, तुलसी के चौपाई, विद्यापति की सौंदर्यरस और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सूक्ष्मता — सब कुछ जैसे सजीव हो उठा। संजुक्ता जी की भंगिमा में कहीं लोकनाट्य ‘जात्रा’ की झलक थी, तो कहीं आत्मा की पुकार।

दूसरे दिन सुबह दूरदर्शन की टीम ने मंदिर परिसर में पिछली रात की प्रस्तुति का पुनः फिल्मांकन किया। संजुक्ता जी का साक्षात्कार लिया गया, जिसमें साधना श्रीवास्तव ने ओडिसी नृत्य के भाव और सौंदर्य को सुलझे हुए प्रश्नों से उद्घाटित किया। हम सौभाग्यशाली थे कि इतने निकट से इस अनुभव के साक्षी बन पाए।

दोपहर को होटल चंदेला में भोजन का आयोजन था। वहां परोसे गए व्यंजनों की सुगंध — मसालों की वह गंध — आज भी स्मृति में बसी हुई है। स्वाद, जो सिर्फ जीभ पर नहीं, मन में बस गया।

दूसरे दिन शाम को आधुनिक नृत्य की एक नई लहर देखने को मिली — प्रसिद्ध भरतनाट्यम नृत्यांगना चंद्रलेखा द्वारा निर्देशित ‘नवग्रह’। भरतनाट्यम, कलारिपयट्टु और योग की त्रिवेणी से रचा गया यह प्रदर्शन केवल दृश्य नहीं, विचार का भी अनुभव था। उन्होंने नृत्य की एक नई भाषा रची — ऐसी जो परंपरा में जड़ें रखते हुए भी समकालीनता की बात करती थी।

तीसरी संध्या — मलविका सरुक्कई का भरतनाट्यम प्रदर्शन। उन्होंने प्रस्तुत किया ‘रास’ — वह क्षण जब गोपियाँ कृष्ण की बांसुरी सुनकर अपने भीतर की खोज में निकलती हैं। यह यात्रा केवल भौगोलिक नहीं, आत्मिक थी। एक नई अनुभूति की तलाश। मलविका की प्रस्तुति में वह झलक थी — वह क्षणिक जादू — जिसे पकड़ना कठिन है, पर महसूस करना सरल।

इन तीन दिनों ने हमें केवल नृत्य नहीं, जीवन का दर्शन दिया। मंदिरों की छाया, चांदनी की आभा, नूपुरों की झंकार, और कलाकारों की साधना — सब कुछ मिलकर एक ऐसी ऊर्जा बना रहे थे जो मन को स्थिर और आत्मा को उद्दीप्त कर देती थी।

नौकरी की दुनिया में जब जीवन यांत्रिक हो उठता है, तब कला वह खिड़की बनती है जिससे रोशनी भीतर आती है। नृत्य, संगीत, साहित्य, रंगमंच — इन सबका सान्निध्य मेरे जीवन की निधि रहा है। वे क्षण जब कलाकार और दर्शक दोनों एक ऊर्जा में विलीन हो जाते हैं — वे पल जैसे आकाश में उगे तारे — दुर्लभ, दिव्य और अमर।

खजुराहो नृत्य महोत्सव उन्हीं दिव्य पलों का संधान है। एक संवाद — नर्तक और देवता के बीच। और आज भी, जब आँखें मूंदता हूँ, तो वह स्वर, वह छवि, वह रस — सब लौट आता है। वह अनुभव, जिसमें कलाकार अपने अस्तित्व से परे जाकर उन तारों की छाया में नृत्य करता है — और उसी में विलीन हो जाता है।

♥♥♥♥

☆ KHAJURAHO DANCE FESTIVAL ☆

Some memories, like dew on a lotus petal, glisten quietly in the heart long after time has moved on. The year was 1986. I was posted in Panna, a quiet town known for its diamond mines where people spend lifetimes in pursuit of something that gleams only for the chosen few. But that spring, my wife and I discovered a different kind of gem — one that shimmered not beneath the earth but under the open skies of Khajuraho, set against the sacred silhouettes of temples and the rhythm of anklets on stone.

We had set out one breezy afternoon, the wind brushing against our faces as our two-wheeler cruised through the ghat section between Panna and Khajuraho. Somewhere near Madla — now the gateway to the Panna National Park — we halted at a modest roadside dhaba. The dhaba owner, a wiry old man with kindness in his eyes, poured us steaming cups of tea and cautioned us in hushed tones: a tiger was said to be prowling nearby. We smiled nervously, half-amused, half-intrigued — the wilderness lending a thrilling prelude to what lay ahead.

Khajuraho, in the Chhatarpur district of Madhya Pradesh, is a town where stone whispers stories — of gods and mortals, of yearning and transcendence. In March that year, it became the stage for the Khajuraho Dance Festival, where artists from across India gathered to breathe life into ancient dance forms under the timeless gaze of sculpted deities. The festival coincided with a significant moment in history: the temples had just been inscribed on the UNESCO World Heritage list, a fitting honour for the marvels that would form the sacred backdrop to the celebration of classical Indian dance.

It was thanks to my affable colleague Ram Vilas Katare, then posted at Khajuraho, that we were able to attend. He arranged our stay and ensured we had the best seats for the opening performances. Ram Vilas would later go on to leave banking and find his fortune in industry, but that evening, we sat side by side as mere rasiks — lovers of art — in quiet reverence.

The festival began with a performance that remains etched in golden memory — Sanjukta Panigrahi, the reigning queen of Odissi, took the stage. With her was her musician husband, who carried the music like a prayer. Sanjukta’s dance was a revelation — a confluence of nritta and abhinaya, where each movement became an invocation, each expression a verse. From Jayadeva’s Gita Govinda to Surdas’s padavali, from the rustic poetry of Vidyapati to the soulfulness of Tagore, she traversed the spiritual spectrum with grace that was almost otherworldly. The effect was so powerful that even the intricate carvings behind her seemed to pause and listen.

Doordarshan was there too, recording the performances. The next morning, we found ourselves privileged spectators at the temple complex where the shoot continued. The gracious Sadhna Shrivastava interviewed Sanjukta Panigrahi, her questions drawing out the essence of Odissi, while we watched the unfolding of art at close quarters. It felt less like an interview and more like a satsang — a sacred communion.

The afternoons were gentle, the sun warm, the heart warmer. We lunched at Hotel Chandela, where the grilled delicacies teased the senses. Even today, the memory of those spices — smoky, tangy, aromatic — is enough to make the mouth water.

Day two brought with it the bold strokes of modernity — a performance by the inimitable Chandralekha. Her Navagraha was unlike anything we had seen. Using Bharatanatyam, Kalaripayattu and Yoga, she gave us a new vocabulary of movement. It was not merely a dance; it was an introspective journey, a cosmic choreography that expanded the definition of tradition.

The final evening of our stay introduced us to Malavika Sarukkai and her sublime Bharatanatyam recital. Her piece, Raas, was a poetic meditation — the gopis enchanted by Krishna’s flute, venturing into the unknown woods and, in the process, awakening to their own divine selves. There was a certain hush in the air as she danced, a silence not of absence but of awe. In that moment, it felt as though time itself had stepped aside to watch.

These three days in Khajuraho gave us not just performances, but moments of transcendence. As the temple stones glowed in the evening light and the air reverberated with the taal and the thumri, it became clear — this was no ordinary festival. It was sadhana in motion, a spiritual offering wrapped in rhythm, gesture and song.

Over the years, I have been fortunate to meet and witness the brilliance of many great artists — from literature to theatre, from painting to sculpture. In the humdrum of a job, it is these windows into beauty that give breath to the soul. The arts, for me, have been more than pastimes. They are life’s quiet conversations with the sublime, a nourishment of the spirit.

The Khajuraho Dance Festival was, and remains, one such conversation — a dialogue between the eternal and the ephemeral, between the dancer and the divine. And sometimes, when I close my eyes, I can still hear the tinkle of anklets, still see the moonlight casting shadows on the sandstone, still feel that inexplicable joy of watching an artist step into the starlight — and become one with it.

♥♥♥♥

© Jagat Singh Bisht 

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ पत्थर पर बुवाई – लेखक – श्री विजय सिंह चौहान ☆ समीक्षक – सुश्री शशि पुरवार ☆

सुश्री शशि पुरवार

(सुश्री शशि पुरवार जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। आप 100 Women Achievers of India की सूची में शामिल हैं। आप स्वतंत्र लेखन, स्तंभकार, व्यंग्यकार, कहानीकार, गीतकार एवं संपादन कार्य संपादित कर रहीं हैं। साथ ही दिल्ली प्रेस पत्रिका के लिए लेखन कार्य भी कर रहीं हैं। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री विजय सिंह चौहान जी के लघु कथा संग्रह ‘पत्थर पर बुवाई’ की समीक्षा।)

? पुस्तक चर्चा –  पत्थर पर बुवाई – लेखक – श्री विजय सिंह चौहान  ? समीक्षक – सुश्री शशि पुरवार ?

पुस्तक  – पत्थर पर बुवाई

लेखक – श्री विजय सिंह चौहान

प्रकाशक –  शिवना प्रकाशन 

पृष्ठ १३२   

मूल्य १७५  रु

समीक्षक – सुश्री शशि पुरवार

विजय सिंह चौहान का लघुकथा संग्रह  पत्थर पर बुवाई शीर्षक से ही आकर्षित करता है। पत्थरों की बुवाई करके समाज की कई संवेदनाओं और कुरीतियों  पर उन्होंने अपनी क़लम चलाने का बेहतरीन प्रयास किया है।

लघुकथा कम शब्दों में तीव्र प्रहार कर अपनी बात पाठकों तक पहुँचाने में सक्षम होती है। विजय सिंह की लघु कथाएँ उनके मानक मैं फ़िट बैठती है। फिर भी कहीं कहीं लघु कथाएं परिमार्जन चाहती है ।

कुछ लघु कथाओं में स्त्री विमर्श के तीव्र स्वर भी नज़र आते हैं।  वर्तमान परिपेक्ष में लिव इन संबंधों से जन्मी वेदना अनगिनत प्रश्न पीछे छोड़ देती है। स्त्री  पुरुष समागम से उत्पन्न परिस्थिति में सिर्फ़ इस स्त्री को ही मानसिक भावनात्मक और ज़िम्मेदारियों से जूझना पड़ता है यह समाज की कुरीति  पर एक  करारा तमाचा है। आख़िर स्त्री की क्यों छली जाती है।  पुरुष आत्मसंतुष्टि के बाद हर बंधन से आज़ाद हो जाता है और पीछे छूट जाती है उसके द्वारा दी गई जिम्मेदारियां।  कृत्य करने में स्वीकृति पुरुष की भी होती हैं लेकिन उसका फल अकेली स्त्री ही ढोती है। स्त्री स्वाभिमान , स्त्री अस्मिता के स्वर वेदना को पाठकों तक पहुँचाने में वे सक्षम रहे हैं।

बड़ी रोटी के माध्यम से संयुक्त परिवार के महत्व को बताया गया है। उसकी यादें ताजा हो जाती है  जो वर्तमान परिपेक्ष में अस्तित्वहीन हो  गया है। कई लघु कथाएं टूटी पगडंडी, तपता बदन, कटी बाज़ू ,गृहस्वामिनी, ब्लू टिक , निर्जला, बाँझ , शकुन , मौन प्रश्न, अनगिनत संवेदनाओं को व्यक्त करने में सफल रहे हैं। कथ्य अपने पीछे प्रश्न छोड़ ते है। मुहर में सार्थक संदेश है आज के समय में हो रही बर्बादी के लिए चेतना की आवश्यकता है।

मेरे ख्याल से लघुकथा और वन लाइनर दोनों अलग है उसे इस विधा में शामिल नहीं करना चाहिए हालाँकि विजय जी अपने नपे तुले शब्दों में समाज की वास्तविकता को उकेरने में सक्षम है। लेकिन कभी कभी पंक्तियां अपनी पूर्णता चाहती है। गद्य हो  या पद्य उसकी रवानगी पाठकों को जोड़ती है शब्दों का अकारण आना बिम्बो को उकेरना कभी कभी कथ्य में स्पीड ब्रेकर का काम करता है।

मुहावरों का प्रयोग करने का अच्छा प्रयास है लेकिन कहीं कहीं वे अनावश्यक प्रतीत हुए।

कुछ लघुकथाओं में शब्दों व शीर्षक का दुहराव हुआ है ।  इस तरह के शब्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

निर्जला, सुगंधित पुष्प दोनों ही एक ही तथ्य हैं लेकिन अलग शीर्षक के नाम से लिखी गई है हालाँकि इसकी संवेदना  सकारात्मक संदेश देती है। कई लघु कथाओं में व्यंग्य का तड़का भी है जो आज के राजनीतिक माहौल की पोल खोलता है।

तपता बदन  वर्तमान परिपेक्ष में विवशता का आइना है।उसी तरह मालकिन और स्वामी दोनों के कथ्य समान है किन्तु आवरण अलग। सहभागिता मित्रों के रिश्ते में पड़ी अवांछित सच्चई को बयां करती है।  लघुकथा का सुन्दर संग्रह है।

इस बात को इंगित करना चाहूंगी कि बिम्बो में कहना अच्छी बात है  लेकिन कई बार अकारण जन्मे बिम्ब या शब्द किरकिरी का काम भी करते है। कई बार ऐसे वास्तविक परिपेक्ष से भिन्न नजर आते हैं। इस तरह की शब्द की रवानगी में अकारण  बाधा उत्पन्न करते हैं। भाषा का सौंदर्य और उसके अलंकार  ही  किसी भी प्रस्तुति में चार चाँद लगाते हैं लेकिन भाषा की अशुद्धियां उसके सौंदर्य को कम करती  हैं।

कुछ शब्दों का कई लघु कथाओं में कई बार प्रयोग हुआ है जैसे खारापन, यह दोहराव कहीं कहीं पैबंद सा प्रतीत हुआ है।  उसकी आवश्यकता नहीं थी।इसी तरह  बात का हल लहलहाने लगा , भूख से लथपथपत्र की सिलवटें, सिलवटों का समंदर ,  इसमें विरोधाभास है इस तरह के शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए क्योंकि सिलवटों का समुन्दर नहीं होता है। भाषा अलंकार की त्रुटियों से  पठनीय गेयता में बिखराव नज़र आता है।  लेखक को टंकण त्रुटि  और उसके प्रस्तुतिकरण पर ध्यान देना चाहिए।

पत्थर पर बुवाई लघुकथा संग्रह वाक़ई में समाज की कुरीतियों पर जड़ से उखाड़ने में बुवाई का काम करेगा।सभी लघुकथाएं अपना संदेश देने में सफल रही है।विजय जी अधिवक्ता भी है।  उसकी छाप उनके लेखन में भी नजर आती है। यह संग्रह पाठको को जरूर पसंद आएगा। विजय सिंह चौहान को पत्थर पर बुवाई के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं।  आपकी कलम यूँ ही अनवरत चलती रहे।   नए संग्रह के लिए बहुत बहुत बधाई।

शुभकामनाओं सहित

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© सुश्री शशि पुरवार

ईमेल – [email protected] मो 9420519803

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #45 – नवगीत – कहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’  ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम नवगीतकहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ

? रचना संसार # 45 ☆

नवगीत – कहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 

उदासीन मन मूक हैं सब दिशाएँ।

कहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ।।

 *

धुआं चिमनियों से निकलने लगा है।

लपट आग की है हृदय में दगा है।।

बिके खेत सारे न चुकता उधारी।

हुए बंधुआ पर न भरती तगारी।।

कटी शाख बरगद तड़पती लताएँ।

 *

बुने जाल मकड़ी समाधान कैसा।

शपथ भूलते सत्य भगवान पैसा।।

हिरण काँपते अब सजी हैं मचानें।

मुनादी हुई बंद हैं सब दुकानें।।

हुए आज लाचार हैं आपदाएँ।

 *

समाधान कैसा करे काँव कागा।

विदेशी चलन है स्वदेशी न जागा।।

बिना पंख उड़ने चली देख मैना।

क्षितिज से गिरी रो रहे खूब नैना।।

परीक्षा घड़ी मौन हैं सब शिलाएँ

 *

न गंगा बची है न यमुना नदी भी।

बहे मैल नित मौन नव ये सदी भी।।

शरद रश्मियों के छिपे हैं उजाले।

बहुत भूख हैं पर न मिलते निवाले।।

चले चूर मद देख पछुआ हवाएँ।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #272 ☆ भावना के दोहे – ग्रीष्म-वर्षा ऋतु ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – ग्रीष्म-वर्षा ऋतु)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 272 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – ग्रीष्म-वर्षा ऋतु ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

पंछी मन -मन डोलता, आ जाओ प्रिय पास।

चैन नहीं है रात दिन, बीत रहा  मधुमास।।

*

तेवर देखो ग्रीष्म के, जीवों से संग्राम।

बढ़ते उसके पाँव है, मिले नहीं आराम।।

*

कहे चिरैया सुन अभी, मेरे मन की बात।

जगह – जगह पर बाज है, रहें कहाँ दिन रात।।

*

कहते जिसको भारत ये, गौरैया का देश।

गौरैया दिखती नहीं, नहीं बचा अवशेष।।

*

 देखे पोखर राह तो, आए बारिश शाम।

प्रभु! अब बरखा कीजिए, दुष्कर जल बिन काम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #254 ☆ बुंदेली पूर्णिका – सच्चाई को तुम झुठला रये का हुई है… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है बुंदेली पूर्णिका – सच्चाई को तुम झुठला रये का हुई है आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 254 ☆

☆ बुंदेली पूर्णिका – सच्चाई को तुम झुठला रये का हुई है☆ श्री संतोष नेमा ☆

बात जरा सी समझ ने पा रये का हुई है

सच्चाई  को  तुम  झुठला  रये का हुई है

*

आपहिं आप  खूब फेंक  रये  झूठी  सच्ची

झूठ  बोल  खें आँख  दिखा  रये का हुई है

*

कभू   कोउ   की  मदद  करी  ने तुमने भैया

बेमतलब   एहसान   जता   रये  का हुई है

*

कर्जा   बनिया  को   मूढ़े   धरत  फ़िरत  हो

कै  कै  थक  गए  कहां  पटा  रए  का  हुई है

*

सीधी गैल कभू  ने चल ख़ें तुम हो आए

अब  काहे  खो  तुम  चिल्ला  रए का हुई है

*

पी  लओ  खूब   घाट- घाट  को  तुमने पानी

खुद  को  घाट  खुदई  बिसरा  रए का हुई है

*

खुद  पै   कभू   लगाम  धरी   ने  तुमने बबुआ

देख  सूरतिया  जी  ललचा  रए  का हुई है

*

बात  सयानों  की  “संतोष” कभू ने तुमने मानी

हाथ  धर   खे  अब   पछता   रए  का हुई है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 658 ⇒ लिखने की दुकान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिखने की दुकान।)

?अभी अभी # 658 ⇒ लिखने की दुकान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो ईश्वर ने हर इंसान को जन्म से ही तीन-तीन दुकानों का मालिक बनाकर भेजा है, मनसा, वाचा और कर्मणा ! यानी मन, वचन और कर्म की दुकान से ही उसका और उसके परिवार का कामकाज चल जाता है, रोजी रोटी का सुगमता से बंदोबस्त हो जाता है लेकिन संसार का प्रपंच उसे और कई अन्य दुकानों से भी जोड़ देता है।

दुकान वह स्थान है जहाँ कुछ लेने के बदले कुछ दिया जाता है। लेन-देन ही व्यवहार है, दुकानदारी है। दाल रोटी और नून तेल खरीदने के लिए भी किसी दुकानदार का मुँह देखना पड़ता है। कई दुकानें प्रकृति ने भी खोल रखी हैं, जहाँ कोई ताला नहीं, कोई मालिक नहीं, बस भंडार ही भंडार है। कोई चौकीदार नहीं, कोई रोकटोक नहीं, राम की चिड़िया, राम का खेत ! सुबह प्रकृति की दुकान खुलती है, भरपूर ताज़गी, धूप ही धूप, हरियाली ही हरियाली। प्राकृतिक जल स्रोतों का भंडार, हर पल आपके द्वार।।

अक्षर ब्रह्म है ! श्रुति, स्मृति से चलकर आए पुराण को गीताप्रेस ने आज धरोहर बना दिया है। गीता प्रेस की दुकान ने बहुत कुछ लिखा हुआ प्रकाशित कर जन-मानस की सेवा ही की है। आज कितने ही लेखक, प्रकाशक, समाचार पत्र-पत्रिकाएं लेखनी के महत्व को चरितार्थ कर रहे हैं। आज मैं भी फेसबुक के ज़रिए इसी लेखनी की दुकान का एक हिस्सा हूँ।।

माँग और आपूर्ति के इस युग में भोजन के अलावा भी कई क़िस्म की भूख जिजीविषा को जाग्रत करती रहती है। उपभोक्ता संस्कृति की यह विशेषता है कि आज आपके पसंद की वस्तु आसानी से हर दुकान पर उपलब्ध है। ऐमज़ॉन ने तो इंटरनेट पर ही अपनी दुकान खोल ली है। जो चाहो सो पाओ। एक भूख पढ़ने की भी है जिसने लिखने की कई दुकानों को स्थापित कर दिया है। एक पाठक के लिए लेखक को दुकान सजानी ही पड़ती है। उसकी पसंद का सामान प्रदाय करना ही पड़ता है।

लिखने की दुकान में सिर्फ़ लेखक, एक कलम और कोरा कागज़ होता है और बाहर भीड़ लगी रहती है विचारों की, कल्पना, किस्से, कथा और संस्मरणों की। विचार एक कतार में नहीं आते। उन्हें बड़ी ज़ल्दी होती है लेखनी में समा जाने की। कुछ विचार तो भीड़ देखकर ही लौट जाते हैं। फिर कभी नहीं आते। कुछ को लेखक समझा-बुझाकर वापस ले आता है और एक रचना का सृजन होता है।।

लेखक और लेखनी का तालमेल ही लेखन है। लेखनी लेखक से क्या लिखवा ले, कुछ नहीं कह सकते। वेदव्यास और श्रीगणेश के संयुक्त प्रयास से ही एक महाकाव्य की रचना सम्भव हुई। लेखनी की दुकान में किस्से, कहानियाँ, निबंध, उपन्यास, कविता, शोध-ग्रंथ, आत्म कथा, संस्मरण सभी उपलब्ध होते हैं।

लेखनी कालांतर में गौण हो जाती है और लेखक स्थापित हो जाता है। नाम, पैसा, प्रसिद्धि, पुरस्कार, सब लेखक के हवाले। एक दो पैसे की लेखनी की क्या औकात ! लेखक बता देते अपनी जात/औकात। सरस्वती के सच्चे पुजारी ही जानते हैं एक लेखनी का कमाल, लेखक का कमाल, और शास्वत, सार्थक लेखन का कमाल।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 246 – आरसा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 246 – विजय साहित्य ?

☆ आरसा…!

माया ममता जिव्हाळा,

एकमेका लावी लळा.

वाटे सहवास ओढ.

आठवांनी दाटे गळा…! १

*

स्नेह,सौहार्द ओलावा,

आपुलकी अनुबंध.

नाते जपता कळती,

जिव्हाळ्याचे रंगढंग ..! २

*

रक्ताहून बळकट,

नाते जिव्हाळ्याचे थोर.

प्रेम मैत्री विश्वासात,

हवा जिव्हाळ्याचा दोर..! ३

*

सम विचारांची मोट,

आहे जिव्हाळ्याचा मळा.

माणसात शोधी देव,

उरी ज्याच्या कळवळा…! ४

*

पैसा फक्त व्यवहार,

करीतसे देणे घेणे.

हृदी जपतो जिव्हाळा,

भाव भावनांचे लेणे….!५

*

नसे जिव्हाळा आसक्ती,

नसे मागणे लालसा.

माणसाच्या मानव्याचा,

असे जिव्हाळा आरसा…!६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ उंबरा… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ. सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

🍃 उंबरा 🍃 डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

पाहिले मी जेव्हा त्याला

पापण्या नकळत झुकल्या

ढगाआड लपला सूर्य

पाकळ्या अलगद मिटल्या

*

व्याकूळ नजरेने मी

शोधत होते शब्द

बोलणे सुचले तरी,

विचार मनात स्तब्ध

*

तो मुक्त विवेकी होता

मज दडपण गहिरे होते

तो स्वच्छंद माणूस मोठा

मी उंबरा सोडत नव्हते.

*

ओठावर शब्द फुटेना

नजरा बोलत होत्या

अमाप साठून देखील

अबोल संवाद होता..

*

मानवी मनाला कसे

कोड्यात कुणी टाकले

निर्धोक भाव मनीचा

काळाने विपरीत लुटले

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “तुळस…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सुश्री नीता कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “तुळस…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

  

तुळशीचं बीजं लावलं मातीत

उगवून आली ती माझ्या अंगणात…

*

माझी हिरवी तुळस भराभरा वाढली

गळ्यात विठूच्या शोभाया लागली…

*

नैवेद्याचं ताट वाढून तयार केलं

तुळशीचं पान अलगद भातावर ठेवलं….

*

तुळस पाहिली की कृष्ण सखा आठवतो

एका पानाचं मोलं सांगून जातो…

*

तुळशीची माळ वारकरी घालतो

अभिमान संस्कृतीचा मनी जाणतो

*

झालं झाड मोठं आल्या तुळस मंजिरी…

हळुचं बीजं काढा पुढच्या झाडाची तयारी…

*

वाळलेल्या काड्या नीट जपून ठेवू

त्याचीच काडवात देवा पुढे लावू….

*

अशी ही तुळस घरोघरी असू दे ग बाई

जपा वारसा संस्कृतीचा ती शिकवून जाई….

© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

मो 9763631255

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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