(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 महादेव साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जाएगी।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – “पुस्तक मेले में चिलमची लेखक…”।)
☆ व्यंग्य # 176 ☆ चिन्तन – “पुस्तक मेले में चिलमची लेखक…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
भैया जी चिलम प्रेमी हैं, ‘संगत गुनन अनेक फल….’ सो गंगू चिलम भरना एवं चिलम खींचना भैया जी से सीख रहा है। भैया जी चिलम खींचकर अंट-संट बकने लगते हैं और पेन कागज हाथ लग जाए तो कालजयी रचनाएं भी लिख देते हैं। सुट्टा खींचने के बाद गंगू भी साहित्यकार बनने की जुगत में रहता, पड़ोसियों के किस्से कहानी बता बताकर हंसता हंसाता।
भैया जी की घर में नहीं बनती और गंगू की भी घरवाली से नहीं पटती। दोनों साथ-साथ सुट्टा खींचते और हमेशा घर से भागने केे चक्कर में रहते। भैया जी हर बार पुस्तक मेला जाते हैं पर इस बार जाने का जुगाड़ नहीं बन रहा इसलिए दुखी हैं चिलम खींचकर भावुक होकर गाने लगे…….
“चलो चलिए
यमुना जी के पार
जहां पे मेला लगो”
गंगू सुनके नाचने लगा। गंगू को क्या मालुम कि यमुना किनारे बसी दिल्ली में मेला भी लगता है… हामी भर दी, कहन लगे चलो… अभी ही चलो… नहीं तो कल चलो। झूला भी झूल लेंगे और बरेली के बाजार वाली का नाच भी देख लेंगे। बरेली के बाजार वाली का झुमका गिरा तो ढूंढ के ला भी देंगे। भैया जी नशे में और गंगू भी नशे में… हर बात पर हामी भरते।
भैया जी बड़े नामी-गिरामी लेखक हैं। बड़ी बड़ी पत्रिकाओं में फोटो सहित छपते रहे हैं, घर में इज्ज़त नहीं है क्योंकि घर का कोई काम – धाम नहीं करते। बात बात में पत्नी से झगड़ते जरूर हैं। सुबह सुबह चाय नहीं मिलने पर पत्नी से उलझ गए। जब हार गए तो चड्डी बनियान और कुर्ता पेजामा थैले में धर के घर से निकल गये और गंगू के साथ दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी में बैठ गए।
दिल्ली पहुंचे तो पेट कुलबुला के कूं – कूं करने लगा… गर्मागर्म छोले भटूरे देखे तो लार टपक गई। तुंरत दोनों ने पेट भर छोले भटूरे पेल कर खाये। नहा – धोकर मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो से उतरकर मेले की गेट के तरफ बढ़ने लगे तो रास्ते में मस्त सुंदर गोरी महिला ने रोक लिया और दोनों की शर्ट में तिरंगा झंडा चिपका दिया बोली – इससे आपके अंदर देशभक्ति पैदा होगी। आगे बढ़ने लगे तो रंगदारी से रास्ता रोककर वसूली पर उतर आईं कहने लगी – पैसा नहीं दोगे तो अभी मीटू में फंसा दूंगी नहीं तो झंडा चोरी के इल्जाम में अंदर करा दूंगी। बेचारे भैया जी और गंगू डर के मारे कांपने लगे। थोड़ा दे-ले के आगे बढ़े तो टिकिट की लाइन में फटे जीन्स वाली लड़की ने ठग लिया कहने लगी – अंकल आप लाइन में काहे को लगते हो पैसे दे दो और उधर चैन से बैठो हम टिकिट लाकर वहीं दे देंगे। पैसा भी ले गई और लौटी भी नहीं…
क्या करते फिर लाइन में लगे, टिकिट ली, जब तक गंगू बोर हो चुका था बार बार चिलम चढ़ाने की मांग करता रहा फिर झुंझलाते हुए बोला – भैया जी आप हमें झटका मार के मेला घुमाने के चक्कर में घसीट लाए, इधर झूला – ऊला कुछ दिख नहीं रहा है।
धक्का – मुक्की के साथ आगे बढ़े तो गंगू को जोर से पेशाब लग गई। प्रोस्टेट ग्रन्थि का पुराना मरीज था। गंगू पेजामे की जेब में हाथ डालकर कूंदा – फांदी करने लगा। एक प्रकाशक से पूछा – पेशाब कहां करें तो झट उसने इशारे से सामने तरफ ऊंगली दिखा दी। वहां व्ही आई पी लिखा था घुसने लगे तो गार्ड ने रोक लिया कहने लगा – यहाँ सिर्फ व्ही आई पी ही पेशाब कर सकते हैं। भैया जी को डर लग रहा था कि कहीं गंगू पैजामा न गीला कर दे। गंगू बोला – जे व्ही आई पी क्या होता है, व्ही आई पी क्या अलग तरह से व्ही आई पी पेशाब करता है और क्या उसकी पेशाब से सोना बनाया जाता है। गार्ड को धक्का मारकर गंगू अंदर घुस गया। गार्ड ने पुलिस बुला ली। पुलिस गंगू को पकड़ कर ले गई, भैया जी देखते रह गए।
उसी समय एक लेखक भैया जी का हाथ पकड़ कर घसीटने लगा कहने लगा – आप जरूर बड़े लेखक होंगे फलां पत्रिका में आपकी रचना छपी थी, इसलिए हमारी पुस्तक का फिरी में विमोचन करिये। पुस्तक का विमोचन नहीं करोगे तो हाथ पैर तुड़वा दिये जाएंगे, लठैत भी साथ आये हैं, और सरेआम बेइज्जत कर देंगे। सबके सामने बोल देंगे कि विमोचन करने के नाम पर दो हजार पहले से ले लिए और अब विमोचन में आनाकानी कर रहे हैं।
परेशानी बता के नहीं आती और जब आती है तो एक साथ बारात लेकर आती है। भीड़ की धक्का मुक्की, चारों तरफ चल रहे विमोचन की बाढ़ तथा लगातार मिल रही धमकियों से गला सूख रहा था, प्यास बढ़ गई थी, पानी का कहीं जुगाड़ नहीं दिख रहा था और गंगू की चिंता खाये जा रही थी।
अचानक मोबाइल बजा… उधर से पत्नी चिल्ला रही थी ‘किचिन से हमारा पैसा चुरा कर कहां घूम रहे हो ?
भैया जी बोले – दिल्ली के मेले में विमोचन महोत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया है तो आ गये। दिल्ली का नाम सुनकर लाड़ भरी आवाज में पत्नी बोली – मेरे लिए दिल्ली से क्या ला रहे हो?
भैया जी बोले – पुस्तक मेले में सिर्फ पुस्तकें मिलतीं हैं और पुस्तकों से तुम्हें चिढ़ है। इसलिए कनाटप्लेस से शुद्ध चमड़े का जूता ला रहा हूँ, पहनने के काम आयेगा और वक्त जरूरत में ओवरटाइम भी कर सकता है। तुम्हारा मुंह भी तो खूब चलता है।
पत्नी बौखला गई बोली – तुम नहीं सुधरोगे, फोन पर भी बदतमीजी करते हो, अपने आप को बड़ा लेखक कहते हो, नारी सशक्तीकरण पर लेख लिखते हो। हां, तो सुनो आज रद्दी पेपर वाला आया था कह रहा था कि कई दिनों से कहीं से रद्दी नहीं मिली। घर में खाने को एक दाना नहीं है ,दो दिन से भूखा हूँ तो मुझे उस पर दया आ गई, इसलिए तुम्हारी सभी अलमारियों की साहित्य की पूरी किताबें सस्ते में रद्दी वाले को तौलकर बेच दीं हैं और उन पैसों से ठंड में कुकरते टाॅमी के लिए कपड़े ले लिए हैं।
भैया जी का मोबाइल नीचे गिर गया, काटो तो खून नहीं… फफक फफक कर रोने लगे और चक्कर खाकर गिर गए। लोग इकठ्ठे हो गए, किसी ने पानी का छींटा मारा, किसी ने जूते सुघांये… होश नहीं आया तो कई लोगों ने शराबी समझकर लातें मारी। पुलिस आयी और स्ट्रेचर में उठा कर ले गई।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# परीक्षा की यह कठिन घड़ी है … #”)
साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत
(विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)
युवा अपनी ऊर्जा देश को नई दिशा, नई गति देने में लगाए
नेहरू युवा केन्द्र द्वारा युवा संसद आयोजित की गई। युवाओं ने समसामयिक विषयों के साथ G-20 तथा Y-20 पर भी विचार व्यक्त किये। मुख्य अतिथि थे समाजसेवी तथा भोपाल विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष लिली अग्रवाल। प्रतिभागी पुरू शर्मा, देवेश शर्मा, अंकित सिंह ने अपने विचार व्यक्त किये। राज्य निदेशक डॉ. सुरेन्द्र शुक्ला ने कहा कि आज पूरी दुनिया भारतीय युवाओ की ओर उम्मीद से देख रही है।
कर्मयोगी यशस्वी पत्रकार पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर का जन अभिनंदन
कर्मयोगी यशस्वी पत्रकार पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर का जन अभिनंदन हिन्दी भवन में किया गया। माधवराव सप्रे संग्रहालय के संस्थापक पद्मश्री विजयदत्त के सम्मान समारोह में उद्गार संबोधन श्री विजय मोहन तिवारी ने किया। उन्होंने कहा – भोपाल गैस त्रासदी जैसी भीषण त्रासदी का दस्तावेज केवल सप्रे संग्रहालय में ही है और कहीं नहीं। प्रतिनिधि वक्तव्य सुखदेव प्रसाद दुबे, अध्यक्ष हिन्दी भवन न्यास ने दिया। श्रीधर जी का सम्मान हिन्दी भवन, मानस भवन, गांधी भवन, लेखक संघ, लेखिका संघ, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश उर्दु अकादमी द्वारा किया गया।
दो दिवसीय वनमाला कथा का वार्षिक समारोह सम्पन्न
रविन्द्र भवन में वनमाली सृजन पीठ, आईसेक्ट पब्लिकेशन और रविन्द्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में दो दिवसीय वनमाला कथा का वार्षिक समारोह सम्पन्न हुआ। प्रथम दिवस पर अमित मलिक एवं नितिन मंगरोले द्वारा सांगीतिक प्रस्तुति के पश्चात वनमाली कथा के नवीन अंक तथा नवलेखन अंक के दूसरे संस्करण का लोकार्पण हुआ। प्रथम सत्र में अनुराग अनन्त, मुदित श्रीवास्तव, कैफी हाशमी सबाहत आफरीन ने कहानी पाठ किया।
समारोह के दूसरे दिन पुस्तक एवं चित्र प्रदर्शनी के पश्चात शिवमूर्ति, मुकेश वर्मा, अल्पना मिश्र द्वारा कहानी पाठ हुआ। शाम को रवीन्द्र भवन में हिंमाशु जोशी द्वारा दास्तान गोई का आयोजन हुआ।
समारोह में ममता कालिया, दिव्यप्रकाश, अल्पना मिश्र, मुकेश वर्मा एवं सिद्धार्थ चतुर्वेदी की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।
दो दिवसीय राजभाषा कार्यशाला संपन्न
राजभाषा हिन्दी विषय पर एयर पोर्ट एथारिटी आफ इंडिया द्वारा दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। जिसमें वरिष्ठ अधीक्षक महिमा सोनी ने राजभाषा नीति नियम विषय पर प्रकाश डाला।
बरकतउल्लाह विश्व विद्यालय के कुलपति एस के जैन ने अपनी वेशभूषा, खानपान के साथ अपनी मातृभाषा केंद्रीकरण पर जोर दिया।
गुजराती समाज ने नई पीढ़ी की मातृभाषा के प्रयोग के प्रति रूचि कम होने से चिंतित होकर निःशुल्क गुजराती भाषा सिखाने का निर्णय लिया।
प्रो. राजाराम की स्मृति में समारोह आयोजित
सुप्रसिद्ध साहित्यकार विनय राजाराम के पति कलाकार गुरू और कला आलोचक प्रो. राजाराम की स्मृति में आयोजित समारोह में कुलाधिपति प्रकाश बरतुनियाअम्बेडकर विश्वविद्यालय ने कहा – कला और साहित्य अभिव्यक्ति के माध्यम हैं, इनके भाव एक हैं।
साभार – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश)
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ विचार–पुष्प – भाग 58 – ग्रीनएकर ची रिलीजस कॉन्फरन्स ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
नव्या सूर्याच्या चैतन्याने विवेकानंद पुन्हा ताजेतवाने झाले. उदात्त जीवनाकडे घेऊन जाणारे विचार व्याख्यानातून ते मांडतच होते. परिचित व्यक्तींच्या आग्रहाखातर त्यांचे वेगवेगळ्या व्यक्तींकडे वास्तव्य होत होते. शिकागोहून ते आता ग्युएर्न्सी यांच्याकडे न्यूयॉर्कला आले. एव्हढ्या या विचारांच्या लढाईत विवेकानंद यांना आपल्या हिंदू धर्माबद्दल कुणी काहीही चांगले लिहिलेले कुठे दिसले, तर ते अत्यंत आनंदी होत असत. त्यांच्या वाचनात एक ख्रिस्त धर्मीय व्यासंगी, संस्कृत भाषेचा अभ्यास असलेले डॉ.मोनियर विल्यम्स यांना हिंदू धर्म कसा दिसतो ते वाचायला मिळाले. ते त्यांनी पत्रातून मिसेस हेल यांना कळविले आहे. त्यात आहे, “हिंदूधर्माचा विशेष असा आहे की त्याला कोणाही परधर्मीयाला आपल्या धर्मात आणण्याची गरज वाटत नाही आणि तसा कोणताही प्रयत्न तो करीत नाही, हिंदू धर्म सर्वांचा स्वीकार करणारा, सर्वांना जवळ घेणारा आणि सर्व आपल्या ठायी सामावून घेण्याइतका व्यापक आहे. सर्व प्रकारच्या मन:प्रवृत्तीच्या माणसांना मानवेल असे काहीतरी देण्यासारखे या हिंदू धर्माजवळ आहे. मानवी मन, त्याचे स्वरूप आणि प्रवृत्ती यामध्ये जी अमर्याद विविधता आढळते तिच्याशी जुळवून घेण्याची तेव्हढीच अमर्याद अशी जी क्षमता आहे ते त्याचे खरे खुरे सामर्थ्य आहे”. विल्यम पुढे म्हणतात, “नेमके बोलायचे झाले तर, स्पिनोझाचा (डच फिलॉसॉफर,जन्म १६३२ मृत्यू १६७७) जन्म होण्याआधी दोन हजार वर्षे हे हिंदू, स्पिनोझाच्या विचारांचे पुरस्कर्ते होते. डार्विनच्या(जन्म १८०९ मृत्यू १८८२, इव्होल्यूशन सिद्धांत मांडला) जन्माआधी अनेक शतके त्याच्या सिद्धांताचा स्वीकार करणारे होते आणि आताच्या आपल्या काळातील हक्सले (बायोलोजिस्ट -जन्म-१८२५ मृत्यू-१८९५) यांचे विचार मान्य करणार्यांच्या शेकडो वर्षे आधी हे हिंदू, उत्क्रांतीवादी होऊन गेले होते किंवा त्यांनी तसे केले त्यावेळी उत्क्रांती या शब्दातील अर्थ व्यक्त करणारा शब्द देखील जगातील कोणत्याही भाषेत नव्हता”. असे सगळे वर्णन वाचून विवेकानंद यांना डॉ. मोनियर विल्यम्स यांच्या सूक्ष्म निरीक्षण शक्तीचे कौतुक वाटले. कारण एका प्रज्ञावंताचे ते निरीक्षण होते. हा आनंद झाला म्हणूनच त्यांनी हेल यांना हे पत्र लिहून कळवलं.
आता विवेकानंद न्यू यॉर्क जवळच्याच फिशिकल येथील हडसन नदीच्या काठावर असलेल्या ग्युएर्न्सी यांच्या निवासस्थानी राहायला आले होते. इथे त्यांना मन:शान्ती मिळाली होती. याच काळात एक दखल घेण्यासारखी घटना घडली. आपले गाव सोडून आपण परक्या शहरात किंवा गावात गेलो असू आणि तिथे कुणी आपल्या गावचे भेटले तर आपल्याला जो आनंद होतो तो अवर्णनीय असतो. त्याच्या बद्दल आपल्याला आपुलकी आणि जिव्हाळा वाटतो. सर्वधर्म परिषदेत विवेकानंद यांना एक नरसिंहाचारी म्हणून भारतीय तरुण भेटला होता. तिथे तो वाईट संगतीत राहून भरकटला होता. अधून मधून तो विवेकानंद यांना भेटत असे आणि काही मदत मागत असे. पण हे सर्व बघून विवेकानंद फार दुखी झाले. त्याला आपल्या देशात- भारतात- परत पाठवणे योग्य आहे असा विचार स्वामीजींनी केला. मग त्यांनी अलसिंगा यांना पत्र लिहून कळवले आणि त्याच्या कुटुंबाची चौकशी करायला सांगितली. त्यांच्याशी संपर्क साधला आणि त्याची घरी जाण्याची व्यवस्था केली. तो भारतात सुखरूप पोहोचला, हे सर्व श्रेय विवेकानंद यांचेच. एक भारतीय तरुण परदेशात भुकेला आणि अनाथ राहू नये असे विवेकानंद यांना वाटले होते.
विवेकानंद यांची पुढची भेट इंग्लंडला व्हावी असे एकाने सुचविले होते पण जगन्मातेचा आदेश आल्याशिवाय स्वामीजी थोडेच जाणार? पण सर्वत्र व्याख्याने दौरे, संभाषणे चर्चा मुलाखती असे भरपूर होत होते. आता विवेकानंद यांना वाटत होतं की, प्रत्यक्ष काहीतरी काम इथे सुरू व्हायला हवे. न्यूयॉर्क संस्थानात मिस फिलिप्स यांची कुठेतरी रम्य अशी जागा आहे, असे त्यांना कळले होते आणि तिथे आपण हिमालय उभा करू आणि आश्रमाची स्थापना करू असा विचारही त्यांच्या मनात आला होता. मनात असा विषय येणं ही सकारात्मकता निर्माण झाली होती ती मनस्थिती ठीक झाल्यामुळेच .
याच दरम्यान ग्रीनएकर इथले एक आमंत्रण मिळाले. एक वेगळ्या प्रकारचा मेळावा आयोजित केला गेला होता. २७ जुलैला विवेकानंद ग्रीनएकर इथे मेळाव्यासाठी पोहोचले. दोन दिवस आधी मनात जी आश्रमाची कल्पना आली होती तसाच रम्य परिसर इथे योगायोगाने होता. फार्मर यांच्या मालकीची ग्रीन एकर मेन संस्थानात इलीयटजवळ खूप मोठी जमीन होती.
इथे असे नव्या नव्या कल्पना त्यांना पाहायला आणि अनुभवायला मिळत होत्या. सर्व धर्म परिषद असो, कोलंबियन औद्योगिक प्रदर्शन कल्पना असो, आता हा ग्रीनएकरचा मेळावा सुद्धा एक वेगळीच संकल्पना होती. एखादी कल्पना मनात आली की ती प्रत्यक्षात यशस्वी करण्यासाठी आवश्यक कष्ट घेऊन नियोजन करणे हे पाश्चात्यांचं वैशिष्ट्य स्वामीजींना फार फार भावल होतं. सर्वधर्म परिषदेच्या धर्तीवर वर्षभरातच हा मेळावा आयोजित केला होता. ही कल्पना होती मिस सारा जे.फार्मर यांची. सर्व धर्म परिषद ही औपचारिक होती. तिथे व्याख्याने देऊन सर्व जण आपापल्या स्थानी परत गेले होते. पण आता तसे नव्हते. धर्माची निरनिराळी मते असणार्या सर्व व्यक्तींनी पंधरा दिवस एकत्र राहावे, कुठलीही कार्यक्रमाची चौकट असू नये. मुक्त संवाद व्हावा, मोकळेपणाने संभाषण व्हावे आणि सर्वांना मुक्त प्रवेश. सारा फार्मर यांची अशी अभिनव कल्पना स्वामीजींना आवडलीच.
फार्मर यांच्या मालकीची मोठी जागा होती तिथे हिरवेगार शेत, जवळच वाहणारी नदी, सुसज्ज विश्रामगृह, छोटी छोटी स्वतंत्र निवासस्थाने, बाजूलाच पाईन वृक्षाचे जंगल असा शांत आणि निसर्गरम्य परिसर . शिवाय परिसरात तंबू, त्याला नाव होते हॉल ऑफ पीस /शांतिमंदिरउभे केलेले. कोणी कुठेही रहा, इथे कुठलीही मूर्तिपूजा नव्हती फक्त वैचारिक कार्यक्रम होणार होता. परस्परांना समजून घ्यावे, एकमेकांशी बोलावे, सामूहिक चर्चा करावी, गप्पा गोष्टी माराव्यात, इच्छा असेल तर शांत व निवांत बसावे, असा एकूण विषय होता. सतत औपचारिक व्याख्याने देऊन स्वामी विवेकानंद कंटाळले असताना अशी निसर्गात शांत राहण्याची संधी मिळाली म्हणून ते प्रसन्न झाले होते. इथे ग्रीनएकर मध्ये ख्रिस्त धर्मातील विविध पंथाचे प्रतिनिधी, बुद्धिमंत व विचारवंत सहभागी झाले होते.
डॉ. एडवर्ड एव्हरेट हेल, मिस जोसेफाईन लॉक, अर्नेस्ट एफ.फेनोलेसा, फ्रॅंकलिन बी. सॅनबोर्न, मिसेस आर्थर स्मिथ, मिसेस ओली बुल, गायिका मिस एम्मा थर्स्बी, हे उपस्थित होते. रोज सकाळचे प्रमुख भाषण झाले की जो तो आपल्याला हव्या त्या विषयाकडे वळे, वक्ता आणि श्रोता यांच्यात अनौपचारिक नाते असे. पाईन वृक्षाखाली व्याख्याने चालत. विवेकानंद याच्या भोवती खूप जण गोळा होत आणि त्यांचे आध्यात्मिक विचार तन्मयतेने ऐकत असत. इथे श्रोत्यांना वेदान्त विचारांचा लाभ होत असे. सर्व धर्म सामावून घेणारा धर्मनिरपेक्ष हिंदू धर्म ते सांगत असत. त्यासाठी ते उपनिषद, भगवतगीता, अवधूतगीता, भतृहरी, संत मीराबाई, शंकराचार्यांचे निर्वाणषटक यातील दाखले देत असत. सर्व श्रोते एकरूप होऊन जात आणि विवेकानंद त्यांच्याकडून ‘चिदानंदरूप: शिवोहम! शिवोहम! हे चरण आळवून घेत, हे म्हणत म्हणतच श्रोते आपल्या स्थानी परतत असत. जिथे बसून पाईन वृक्षाखाली विवेकानंद यांनी व्याख्यान दिले होते तो पाईन वृक्ष पुढे विवेकानंद यांच्या नावाने ओळखला जाऊ लागला. हा ग्रीन एकरचा उपक्रम पुढे काही वर्ष चालू होता. नंतर याच वृक्षाखाली बसून सारदानंद आणि अभेदानंद यांनी तिथे प्रवचन दिले होते.
‘हॉल ऑफ पीस’ मध्ये म्हणजे तंबू मध्ये विवेकानंद यांचे स्वतंत्र व्याख्यान झाले होते. त्याला मिसेस बुल उपस्थित होत्या. विवेकानंद यांनी मुख्य धडा दिला की, “सर्व धर्माच्या प्रेषितांचा आपण मान ठेवला पाहिजे. त्यांच्या शिकवणुकीचा आदरपूर्वक अभ्यास केला पाहिजे, त्या त्या धर्माच्या अनुयायांनी हे जपले पाहिजे की, आपल्या वर्तनामुळे,आपल्या महापुरुषांनी दाखवून दिलेल्या ईश्वर प्राप्तीच्या मार्गात कोणतेही किल्मिष मिसळले जाऊ नये. प्रत्येक धर्मातील दोष उणिवा आणि काही ठिकाणी भयानक असलेले भाग आपल्याला आढळतील ते भाग बाजूला ठेवावेत आणि मानवाच्या आत्मिक विकासासाठी पोषक असणारे असे एक ईश्वर, आत्म्याचे अमरत्व, सारे प्रेषित आदरार्ह आणि सारे धर्म विचारात घेण्यासारखे आहेत. या गोष्टींवर भर द्यावा. जसे एखाद्या कुटुंबात प्रत्येकाला कामे वाटून दिलेली असतात, तसेच मानव जातीच्या या कुटुंबात प्रत्येक धर्माकडे काही कामगिरी सोपविली आहे. सर्व मानवांना देण्यासारखा सत्याचा काही अंश प्रत्येक धर्माजवळ आहे त्याचा स्वीकार करा आणि तशी दृष्टी धारण करा. हीच सर्वधर्म समन्वयाची दिशा ठरेल. तिचा खरा उपयोग आहे”. अशी स्पष्ट आणि रेखीव मांडणी विवेकानंद यांनी केली असल्याचा बुल यांनी म्हटलं आहे.
ग्रीनएकरला स्वामी विवेकानंद सात-सात, आठ-आठ तास बोलत असत. असे नवे नवे आयाम विवेकानंद यांना कळत जात होते तस तसे त्यांना अमेरिकेतल्या पुढच्या कार्याची दिशा ठरवायला मदत होत होती. अशा प्रकारे ग्रीनएकरचा कार्यक्रम छान पार पडला. आता विवेकानंद १३ ऑगस्टला ग्रीनएकरहून प्लायमाउथ आले, तिथे फ्री रिलीजस असोसिएशनच्या वार्षिक कार्यक्रमासाठी कर्नल थॉमस वेंटवर्थ हिगिन्सन यांनी निमंत्रण दिले होते. केव्हढी मानाची गोष्ट होती की, अशा वार्षिक कार्यक्रमांना प्रमुख अतिथि म्हणून स्वामीजींना बोलवले जात होते. एव्हढा लौकिक त्यांना मिळाला होता. रामकृष्ण परमहंस यांनी महासामद्धी घेऊन आता आठ वर्षांचा काळ लोटला होता. त्यांनी सांगितलेल्या कामाच्या शोधात स्वामीजी भारतात फिरल्या नंतर आता ते अमेरिकेत आले होते. त्यांनी इथवरच्या प्रवासात अनेक अनुभव घेतले, अनेक घटना घडल्या, पण त्यांचे अंतर्मन नव्या दिशेचा शोध घेतच होते. ग्रीनएकरचा त्यांचा अनुभव खूप चांगला होता. याचवेळी त्यांना, आपण आपल्या धर्माबद्दल काही लिहावे असे वाटले होते. त्यासाठी शांतता हवी आणि वेळ सुद्धा. असे त्यांनी अलसिंगा यांना पत्रात म्हटले आहे की, “ ज्या दिवसात व्याख्याने नसतात तेंव्हा हातात लेखणी घ्यावी असे मनात आहे”. हेच त्यांनी मिसेस स्मिथ यांनाही पत्रात कळवले आणि ते सारा बुल यांच्या कानावर गेले आणि त्यांनी विवेकानंद यांना लगेच आपल्या घरी केंब्रिजला बोलावले. त्याप्रमाणे ते ऑक्टोबर मध्ये सारा बुल यांच्याकडे गेले. सारा बुल यांचे घर असलेले केंब्रिज अतिशय शांत, गर्दी नाही असे होते. तिथे त्यांनी विवेकानंद यांना स्वस्थपणे राहता येईल अशी व्यवस्था केली. सारा चॅपमन बुल. कोण होत्या त्या?…
सूर्य बुडाला. अंधार अस्वलाच्या पावलांनी आला आणि कारखान्या शेजारच्या फडकऱ्यांच्या खोपटास्नी मिठी मारून बसला. सांजवारा सुटला. वाऱ्यानं खोपटांवरचा चघाळा घोंगड्याच्या दशा हलाव्यात तसा हलू लागला.
गाड्या फडातनं भाईर काढून बाया कधीच्या परतल्या. धारापाणी, सैपाक करून, जेवनखाण आवरून झोपायच्या तयारीला लागल्या. खोपटाच्या अंगणात बसून सुली लहानग्या भावाला थोपटत होती. थोपटता-थोपटता तिचं विचारचक्र सुरू झालं… अजून कसं आपलं अण्णा आलं नाहीत? गाड्या लवकर खाली झाल्या नसत्याली? का कारखान्याची मिलच बंद पडली आसन्? एवढा कसा उशीर?
सोळा-सतरा वर्षाची सुली. फडकऱ्याच्या घरात शोभत नव्हतं असलं सौंदर्य. उकीरड्यावर वावरी उगवलेल्या आंब्याच्या सोनेरी रोपागत. तरतरीत, तजेलदार अंग. सोन्याहून पिवळं. मुळचाच सुबक रेखीव बांधा. गुलाबाची लहानशी कळी उमलून रूप यावं. हिरव्या पानांत, काट्याकुट्यांत उठून दिसावं, असं देखणं रूप. हे रूप बघून नकळत आजूबाजूच्या सगळ्या नजरा तिच्यावर रोखल्या जायच्या. ताठ मान आणि चालताना नकळत घडणाऱ्या डुचमळत्या हालचाली. सारंच देखणं. आगळंवेगळं. कारखान्यासमोरल्या त्या कुबट, गलिच्छ तळावरच्या वातावरणापेक्षा कितीतरी पटीनं वेगळं. चिखलाच्या राडीत सुंदर, देखणं कमळ उमलावं तशी सुली.
आज्जी आजारी असल्यामुळं सुलीच्या आईला अचानक माहेरी जावं लागलं. नकळत सगळी जबाबदारी सुलीवर येऊन पडली. न्हायतर ती आशीच अर्दालिंबू म्हणून फिरत रहायची. कधी आईबरोबर ऊसाच्या मोळ्या बांधत, वाडं गोळा करत. तर कधी अण्णांचा धारदार कोयता हाती घेऊन ती कनाकन् ऊस खापलायची. एका घावात दोन कंडकं करायची. पण, आई गावाला गेल्यामुळं आता सगळंच थांबलं होतं. एका खेळकर पोरीवर घराची सारी जबाबदारी येऊन पडलेली.
सुलीला सैपाक येत होता. कालवण कसं करावं, भाकरी कशा थापाव्या, भाताला मिठ-पाणी किती घालावं, हे तिला आईनं शिकवलेलं. आणि बाकी सारं ती आईचं बघूबघून शिकलेली होती. बाईच्या जातीची उपजत जाण तिच्या ठायी होती. घरचं काम वढता वढता चार वर्षाच्या धाकट्या भावाला सांभाळणं, हे तर तिचं रोजचंच काम.
रानामाळात, मोकळ्या वातावरणात वाढलेली सुली. दिसायला किरकोळ. पण, कामाला काटक. घरकामात लव्हाळ्यागत लवून हलणारी. सैपाकपाणी, जनावरांची उसाबर आणि घर संभाळण्याची जबाबदारी ती पेलू शकत होती. म्हणूनच तिची आई सगळ्या घराची जबाबदारी आपल्या लेकीवर टाकून माहेराला गेली होती. तिच्या आईच्या उसाबरीसाठी.
म्हातारीनं महीना झालं हातरूण धरलेलं. लेकीचा जोसरा काढलेला. कधी कोरभर भाकरी खायाची. तर कधी नुसतीच भाताची पेजवणी. घडाघडा बोलायची. वाटायचं, आता बरं वाटंल म्हातारीला. उठंल ती ह्या आजारातनं. आता काय होत न्हाय म्हातारीला. तोवर सांजकरून आणखी जास्ती व्हायचं. एकसारखी धाप लागून राह्यलेली. खोकून-खोकून छातीचा भाता झालेला. सुपात घेऊन पाकडल्यावानी वरला जीव वर नि खालचा खाली. भिरमिटल्यागत बडबडायची… ‘पावलांचा आवाज येतोय, कोणतरी मला न्ह्याला आलंय!’ असं म्हणायची. मग म्हातारी भोवतीनं लेकी, सुना, नातवंडं कोंडाळं करून बसायची. आत्ता जीव जातोय का मग जातोय… म्हणूनच सुलीची आई असा ऊसतोडणीचा सिझन मधीच सोडून माहेरी गेलेली.
सकाळी लवकर उठून अण्णाला फडावर जावं लागतं. मग सुली, घर-अंगण स्वच्छ झाडून, लोटून काढते. घर कसलं, पालापाचोळ्याची खोपच ती. पण, अण्णांनी त्यासाठी चांगलं कष्ट घेतलेलं. खोपीसाठी काठ्या-चिवाट्या आणि पटकुरांचा कौशल्यानं वापर केलेला. मोठाले येळू चिरून कामठ्या बनवलेल्या. दोन कामठ्यामधे ऊसाचा पाला भरून कुडासाठी छानशा झापी तयार केलेल्या. सुलीच्या आईनं, शेणामातीच्या काल्यानं भिंती लिंपून गुळगुळीत केलेल्या. अण्णानं खोपीत पाणी गळू नये, म्हणून खतांची मोकळी पोती टाकलेली. त्यावरनं निवडणुकीच्या डिजिटलची ताडपद्रीसारखी पट्टी टाकलेली. चारी बाजूनं गच्च आवळून बांधलेली. वाऱ्यानं उडून जाऊ नये म्हणून त्यावर छोटे-छोटे दगड ठेवलेले. तारेचे कट घातलेले. एक माणूस कसातरी वाकून आत जाईल, असं एक लहानसं दार ठेवलेलं. त्याला लावायलाही एक सुंदर छोटी झापडी. आत उजेड येण्यासाठी चौकोनी भसका पाडलेली एक खिडकी ठेवलेली. पावसाचं शितूडं आत येऊ नये, म्हणून तिला बाहेरून एक जाड प्लॅस्टिकचा कागद लावलेला. या खिडकीमुळं खोपीच्या आतलं सगळं बाहेरच्या उजेडासारखं लखलखीत दिसे. चुलीजवळ स्वयंपाक करता-करता जरा वाकून त्या खिडकीतून बाहेर बघता येई. कुणी आल्या-गेल्याची चाहूल घेता येई. दूरवरचंही दिसे. अगदी कारखान्याच्या गेटसमोरल्या मोठ्या रस्त्यावरची वर्दळसुद्धा दिसे. त्या खिडकीतून पुन्हा पुन्हा डोकावून बघणे, हा सुलीचा छंदच झाला होता.
झाडलोट झाल्यावर सुली, बैलं बांधलेल्या जागचं शेण गोळा करायची. त्याचा शेणकाला करून घर-अंगण सारवून काढायची. उरलेल्या शेणाच्या गोवऱ्या थापायची. अण्णानं रानातनं आणलेलं जळाणकाटूक आणि या गोवऱ्यावर त्यांचा स्वयंपाक आरामशीर होई.
अलीकडं या सुंदर घरात माणसांची वर्दळ जरा जास्तच वाढलीय. टोळीचा मुकादम हटकून घराकडं येतो. तो तरुण आहे. त्याचं लग्न झालं असलं तरी त्याची बायको त्याच्याजवळ रहात नाही. त्याची नजर चांगली नाही. निदान सुलीला तरी तशी वाटते. त्याच्याकडं बुलटगाडी आहे. तिच्यावरनं तो ऐटीत फिरत असतो. बाकीच्यांपेक्षा त्याचे कपडे स्वच्छ असतात. तो आला म्हणजे अण्णांबरोबर अंगणात तासन् तास गप्पा मारीत बसतो. आतबाहेर करणार्या सुलीवर डोळा ठेवून राहतो. तिच्या नाजूक हालचाली टिपत राहतो. अण्णा त्याला काही बोलत नाहीत. त्यांना हे कळत नाही का? की त्याच्यालेखी आपण एक अजाण पोर. तो एक करता-सवरता बापय. त्यात मुकादमाकडून अण्णांनी बरीच उचल घेतलेली आहे. हिशोबा-ठिशोबाच्या कामाचं निमित्त त्याला पुरेसं असतं. कधीमधी तो खिशातला मोबाईल काढून त्यावर जोरजोरात बोलत रहातो. दहा हजार… वीस हजार… लाख… असे मोठमोठाले आकडे तो ऐकवीत असतो.
तो घरात आला की सुलीच्या हालचालींवर मर्यादा येतात. काहीवेळा तर तो सकाळी उठल्या-उठल्याच येतो. मग अण्णा त्याच्यासाठी सुलीला चहा करायला सांगतात. चहा करून दिल्यावरही तो हलत नाही. बिडी फुकत उगी हिकडच्या-तिकडच्या गप्पा हाणीत रहातो. तो आत्ता जाईल, मग जाईल सुली वाट पहात रहाते.
तो जास्त वेळ थांबलाच, तर मग सुलीला आंघोळपाणी करणंही अवघड होऊन बसतं. कधीकधी ती बिन आंघोळीचीच रहाते. तर कधी भीत-घाबरत कुडाच्या झापडी पलीकडे अर्धेमुर्दे अंग ओले करून घेते. पहाटे परसाकडला जातानाही तिच्या मनावर प्रचंड ओझं असतं. भोवतालच्या अंधारात काळी अस्वलं आपल्यावर झडप घालण्यासाठी टपलीत, असं तिला सारखं वाटत रहातं. कारखान्यावर एवढ्या दाट वस्तीत दिवसाउजेडी बाई माणसानं परसाकडं जाणं अवघडच. जरी पोटात कळ आलीच, तरी अंधार होईपर्यंत ती तिला तसीच दाबून ठेवते.