(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “राजकुमार…“।)
अभी अभी # 657 ⇒ राजकुमार श्री प्रदीप शर्मा
जो अंतर आज एक मुंबई के भाई और हमारे भाई में है, वही अंतर हमारे कॉलेज के एक दादा और घर के दादा अथवा दादाजी में तब होता था। जिस तब का अब जिक्र होने जा रहा है, वह आज से ५५ वर्ष पुराना है।
कॉलेज के दिन थे। रैगिंग की शुरुआत ही समझिए। हम आर्ट्स के लोग, मेडिकल कॉलेज, और इंजीनियरिग कॉलेज की रैगिंग के किस्से सुन सुनकर ही काम चला लेते थे।
कॉलेज में कुछ लोग पढ़ने आते थे, कुछ दादागिरी करने। कथित पढ़ाकू लड़के आगे की बेंच पर बैठते थे और वरिष्ठ छात्र लॉर्ड ऑफ़ द लास्ट बेंच कहलाते थे।
हमारे आज के पात्र राजकुमार भी एक ऐसे ही दादा थे।।
बद अच्छा, बदनाम बुरा !
लेकिन जिसकी जैसी इमेज एक बार बन जाती है, उसमें से बाहर निकलना उसके लिए बड़ा मुश्किल हो जाता है। राजकुमार को हम आगे से सुविधा के किए राज कहेंगे। मेरा उससे कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था। उसके पिताजी एक ठेकेदार थे।
हम साइकिल पर चलने वाले, वह जीप में बैठकर कॉलेज आने वाला। उसका हमारा क्या मेल।
जिस प्रकार रजिया गुंडों में फंसती है, यह राज हमारे बीच फंस गया था। जी हां, उसने गलती से एक विषय अंग्रेजी साहित्य ले लिया था, जिसके कारण वह एक ही क्लास में कई सालों से अटका हुआ था। मुझे इस बात की जानकारी नहीं भी होती, अगर कॉलेज में यह घटना नहीं होती।।
इंग्लिश लिटरेचर नाम से ही लोग प्रभावित हो जाते थे, क्योंकि लोहिया के अंग्रेजी विरोधी आंदोलन के बाद अंग्रेजी का ऐसा ही बहिष्कार शुरू हो गया था, जैसा आजकल चीनी उत्पादों का हुआ है। आज का स्वदेशी नारा, और कल का अंग्रेजी विरोधी नारा, यानी विदेशी संस्कृति से किनारा। लेकिन फिर भी तब, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला था।
मैंने हमारी लिटरेचर की क्लास में एक पिकनिक का सुझाव क्या दे दिया, पिकनिक की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही आन पड़ी। हर छात्र, प्रोफेसर से पांच पांच रुपए, हां जी सिर्फ पांच पांच रुपए जमा किए गए। हमारे वरिष्ठ प्रोफेसर चंदेल साहब के प्रभाव से सांघी बेवरेजेस का एक ट्रक आ गया, जिसमें गद्दे तकिए लगाकर शान से हमारी ट्रिप इंदौर के पास ही एक स्थान पर सानंद संपन्न हुई। लिटरेचर की सभी लड़कियां, पूरा टीचिंग स्टाफ एवं सभी छात्र शामिल लेकिन कुछ लोगों के सुझाव पर सिर्फ राज उर्फ राजकुमार को इस पिकनिक में शामिल नहीं किया गया।।
गाज तो मुझ पर ही गिरनी थी ! हम एक दिन अकेले में घेर लिए गए। आशा के विपरीत राज साहब बड़े अदब से पेश आए लेकिन उनका लहजा निहायत शिकायत भरा था। वे आहत थे, कि उनकी छवि इतनी खराब है कि उनका पिकनिक से बहिष्कार किया गया। मेरे पास कोई जवाब नहीं था, कोई सफाई नहीं थी। मैं सिर्फ शर्मिंदा था।
धीरे धीरे राज साहब का राज खुलने लगा। वे मेरे करीब आने लगे। एक दिन बोले, चार साल से इस अंग्रेजी के कारण आगे नहीं बढ़ पा रहा हूं आप एक दिन मुझे पूरा मैकबेथ हिंदी में समझा दो। तब इन विषयों की गाइड अथवा कुंजी उपलब्ध नहीं होती थी। मुझे लगा, मुझे प्रायश्चित के लिए अवसर मिल रहा है। कॉफी हाउस की कुछ बैठकों में उन्हें शेक्सपीयर से अवगत करा दिया गया तथा कुछ समय रात में वे मेरे पास पढ़ने भी आए। उसके बाद उनकी गाड़ी ऐसी सरपट दौड़ी कि उन्होंने एम. ए. ही नहीं, एल एल. बी. भी कर लिया और एक सफल अधिवक्ता भी बन गए।।
अपनी बहन की खातिर उन्होंने आखरी समय तक विवाह नहीं किया। कॉलेज के भी वे असफल प्रेमी रहे जिसके कारण अवसादग्रस्त ही रहे। कभी कभी नजर आ जाते हैं। ज़िन्दगी से थके हारे से, टूटे हुए से। दिन बुरे होते हैं, हालात बुरे होते हैं, आदमी तो बुरा नहीं होता।।
श्री आलोक मिश्रा जी मूलतः रायबरेली, उत्तर प्रदेश के निवासी हैं और अब सिंगापुर के स्थाई निवासी हैं। आलोक जी सिंगापुर की एक शिपिंग कंपनी में टेक्निकल मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं | आलोक जी के दो साझा काव्य संग्रह, एक साझा ग़ज़ल संग्रह और एक साझा हिंदी हाइकु कोश प्रकाशित हो चुके हैं |
☆ आलेख ☆ महिलाओं की सुरक्षा – ज़िम्मेदार कौन? ☆ श्री आलोक मिश्रा जी ☆
मैं जो बात कहने जा रहा हूँ, मैं समझता हूँ कि इससे सभी लोग सहमत नहीं होंगे, एकमत नहीं होंगे | उसकी आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि पूरे देश में अरब से भी अधिक की आबादी में सभी लोगों का किसी एक बात पर एकमत होना असंभव नहीं तो मुश्किल और असाध्य काम अवश्य लगता है | तो चलो उस पर ध्यान देने के बजाय मैं अपने विचार आप के सामने रखता हूँ |
आज जो कुछ हमारे आस-पास घटित हो रहा है उस को ध्यान में रखते हुए चुप रहना भी ठीक नहीं है | अगर कुछ सकारात्मक बात कहने के लिए है तो मैं समझता हूँ कि वह कही जानी चाहिए, उसे लोगों के संज्ञान में लाना चाहिए | यह अलग बात है कि अगर लोगों को लगता है कि इस बात में कोई दम नहीं है, उसको बेझिझक नकार दें, अस्वीकार कर दें | इसमें कोई दुविधा वाली बात नहीं है | तो ये बात चल रही थी कि आजकल समाचार पत्रों, न्यूज़ चैनेल्स और सोशल मीडिया से पता चलता है कि महिलाओं के साथ दुष्कर्म या दुराचार की निंदनीय हरकतें बढ़ गयी हैं | इन घटनाओं पर रोक लगनी चाहिए जिससे देश में महिलाएँ अपने आप को सुरक्षित महसूस कर सकें | लेकिन महवपूर्ण प्रश्न है कि यह संभव हो तो कैसे?
पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश ने आर्थिक रूप से नई उपलब्धियाँ हासिल की हैं और साल दर साल नए आयाम प्राप्त किए हैं | रोज़गार के कई नए अवसर खुल रहे हैं हमारे युवाओं के लिए | आज युवा वर्ग निजी व्यवसाय में भी आगे आ रहे हैं | देश की आर्थिक उन्नति में महिलाओं का भी बहुमूल्य योगदान रहा है | अब महिलाएँ घर की चारदीवारी के भीतर और बाहर दोनों जगह अपनी ज़िम्मेदारियाँ भली–भाँति निभा रही हैं | सेना में, फैक्ट्री में, दफ्तरों में या अन्य व्यवसाय में आज महिलाएँ उत्तम काम कर रहीं हैं | संभव है कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से उन्हें घर लौटने में देर हो जाती है | इससे महिलाओं के लिए अपनी सुरक्षा की चुनौती खड़ी हो गयी है |
अक्सर महिलाएँ दलील देती हैं कि पुरुषों को अपने मन पर काबू रखना चाहिए, महिलाओं के प्रति उन्हें अपनी नीयत साफ़ और विचार स्वच्छ रखने चाहिए | बात तो ठीक है, लेकिन यह भी सच है कि किसी और को बदलने की बजाय स्वयं को बदलना आसान है | ऐसी भी दलीलें सुनाई पड़ती हैं कि “अगर पुरुष कभी भी कहीं भी आ-जा सकता है, तो महिलाओं पर रोक लगाने का क्या औचित्य है?” मैं समझता हूँ ऐसी दलीलों का कोई अंत नहीं है और ना ही इनके कुछ सकारात्मक निष्कर्ष निकलने वाले हैं | यह तो सोचिए कि आख़िर नुक्सान किसका है?
मैं समझता हूँ कि अपने बचाव में महिलाओं को आगे आना होगा | उन्हें बहुत ज़िम्मेदारी भरे क़दम उठाने होंगे अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए | आप शायद कहना चाह रहे होंगे “क्या उनके परिधान में अंग प्रदर्शन अधिक हो रहा है या उनकी भावभंगिमा ऐसी है जिसके कारण पुरुष अनुमान लगा लेते हैं कि अमुक महिला शारीरिक सम्बन्ध के लिए इच्छुक है |” जी नहीं, मैं ना तो ऐसा कोई प्रस्ताव रख रहा हूँ और मैं इस बात से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ |
हाँ, कुछ बातें हैं जिस पर महिलाएँ अगर ध्यान दें तो स्वयं को अधिक सुरक्षित रख सकती हैं | अभी हाल ही में एक समाचार सुनने में आया कि पुणे में बस अड्डे पर खड़ी एक महिला बस का इंतज़ार कर रही थी | तभी एक लड़के ने उस के पास आकर उसको बहन कह कर संबोधित किया और पूछा ‘बहन, कहाँ जा रही हो?’ लड़की ने उसे अपने गंतव्य की जानकारी दी | उस पर लड़के ने कहा कि ‘वहाँ की बस तो दूसरी जगह से जाती है | चलिए मैं आपको वहाँ ले चलता हूँ |’ वह लड़की बिना सोचे समझे एक अज्ञान व्यक्ति के साथ चल दी | उस लड़के पर सिर्फ़ इसलिए विश्वास कर लिया कि उसने लड़की को बहन कह कर संबोधित किया था | आज हर घर में लड़कियों को सिखाया जाता है कि अपने आप को संभाल कर रखो | बचपन में जब हम रेलगाड़ी से यात्रा करते थे तो माँ हमेशा कहती थीं कि रात को सोते समय अपना बैग पैरों के बीच में फंसा लेना | इस तरह के छोटे-छोटे आवश्यक निर्देश अपनी और अपने सामान की सुरक्षा की दृष्टि से माँ हमें बताती थीं और हम उनका अक्षरशः पालन भी करते थे |
दूसरे बस स्टैंड के पास पहुँच कर लड़के ने एक बस की तरफ़ इशारा कर के कहा कि यह बस तुम्हारे गाँव जायेगी | लड़की ने कहा ‘इस बस में तो अंधेरा है |’ इस पर लड़का बोला “दीदी, यात्री बस में बैठे हुए हैं | अभी थोड़ा समय है बस चलने में इसलिए ड्राईवर अभी नहीं आया | आप बैठो इस बस में | जैसे ही ड्राईवर आएगा, वह बिजली का स्विच आन कर देगा और बस में रोशनी आ जाएगी |’ सोचने वाली बात है कि अगर बस में कुछ लोग बैठे होते तो क्या वह सब साँस रोक कर चुप बैठे रहते | उसमें कुछ लोग तो निश्चित बातें करते | आज के युग में तो सबके पास मोबाईल फ़ोन हैं | अंधेरा होगा तो लोग फ़ोन की लाईट से ही बस में उजाला कर लेंगे | खाली बैठने पर लोग सोशल मीडिया में कुछ पढ़ या लिख रहे होते हैं | बहरहाल, पता नहीं वह लड़की कैसे उस लडके की बातों में आ गयी और उस अँधेरी बस में सवार हो गयी | लड़की के पीछे -पीछे वह लड़का भी बस में चढ़ गया और उस लड़की के साथ अपना मुंह काला किया |
महिलाओं को अपनी समझ बूझ का परिचय देते हुए किसी पर बिना सोचे समझे विश्वास नहीं करना चाहिए | रेलगाड़ी या बस में सफ़र करते समय यात्री अमूमन खान-पान साझा करते हैं जो समाज में आपसी भाईचारे की बेहद ख़ूबसूरत मिसाल है | लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कुछ धोखाधड़ी के मामले संज्ञान में आए हैं कि अमुक यात्री ने खाने की चीज़ में कुछ नशीले पदार्थ मिलाकर सहयात्रियों को खिला दिया और उनका सामान लेकर चंपत हो गए | महिलाओं को किसी अनजान व्यक्ति से कुछ खाद्य पदार्थ नहीं लेना चाहिए | ‘भूख नहीं है’ कहकर साफ़ मना कर देने में कुछ बुराई नहीं है |
अब एक और बात ध्यान देने योग्य है | आज कल हर छोटे-बड़े शहरों में ड्रिंक्स बार हैं जहाँ पर शराब मिलती है और नाच-गाने की व्यवस्था होती है | आज के युवा लड़के-लड़कियाँ पूरे दिन ख़ूब मेहनत से काम करने के बाद सुकून के लिए अक्सर इन ड्रिंक्स बार में दोस्तों के साथ कुछ समय बिताते हैं | अगर कोई पुरुष महिला को ड्रिंक्स ऑफर कर रहा है तो महिला को चाहिए कि ड्रिंक्स लेने से साफ़ मना कर दे | महिला को अगर ड्रिंक्स लेनी है तो ख़ुद बार काउंटर पर जाकर अपनी ड्रिंक्स ले और उसका भुक्तान भी स्वयं करे | महिला अगर शराब नहीं पीती है, तो उसे दोस्तों के बहकावे में आकर या अपनी शान दिखाने के लिए शराब नहीं पीनी चाहिए | पुरुष दोस्त या सहकर्मी के साथ कहीं जा रही हैं तो कोशिश करें कि अकेले ना जाएँ और सुनसान जगह पर कदापि ना जाएँ | होटलों में महिलाओं के अश्लील वीडियो बनाने की ख़बरें आए दिन अख़बारों में छपती रहती हैं | आप कहेंगे ‘महिलाओं की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी पुलिस प्रशासन पर है |” जी बिलकुल, मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ | जो भी कारन हों, सच्चाई यही है कि महलाओं के प्रति आत्याचार और दुराचार की घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रहीं हैं |
आजकल कई महिलाएँ नौकरी करती हैं | अगर महिला का ऑफ़िस उसके घर से दूर है और रास्ता सुनसान जगह से गुज़रता है, तब कोशिश करनी चाहिए कि वह ऑफ़िस से निर्धारित समय पर निकल जाए या फिर घर से किसी को बुला ले रास्ते में साथ रहने के लिए | अगर टैक्सी ले रही हैं, तो टैक्सी का नंबर अपने घर वालों, ऑफ़िस और मित्रों को ज़रूर व्हाट्सएप्प से भेज दें जिससे कि वह टैक्सी का मार्ग ट्रैक कर सकते हैं | कुछ ऐसी भी नौकरियाँ हैं जहाँ शिफ्ट में काम होता है जैसे आई.टी. सेक्टर के कॉल सेंटर इत्यादि | अगर ऐसे काम आवश्यकतावश करने पड़ें, तो पहली कोशिश यही होनी चाहिए की रात की शिफ्ट में काम ना करें | अगर किन्हीं अपरिहार्य कारणों से ऐसा करना संभव ना हो, तो कंपनी के प्रबंधक के सामने अपनी चुनैतियों को रखें जिससे रात में कार्यस्थल के पास ही ठहरने की सुरक्षित व्यवस्थ कंपनी के प्रबंधक करें | यह भी ध्यान रखें कि रात की ड्यूटी पर आप अकेली महिला कर्मचारी ना हों |
मैं समझता हूँ ऊपर बताई गयी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रख कर महिलाएँ अपने आप को सुरक्षित रख सकती हैं |
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय और ज्ञानवर्धक कहानी- – “लेजर का रहस्य”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 208 ☆
☆ बाल कथा – लेजर का रहस्य☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
एक दिन छोटा सा लड़का अरुण अपनी किताबों में खोया हुआ था। अचानक उसकी नजर लेजर बीम पर पड़ी। उसने पढ़ा कि यह प्रकाश की गति, यानी 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकंड, से चलती है!
अरुण के मन में एक सवाल कौंधा—क्या यह किसी खतरे को रोकने के लिए इस्तेमाल हो सकती है?
उत्सुकता में वह अपने पिता, डॉ. विजय, के पास गया, जो एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। “पापा, क्या लेजर से कोई हथियार बनाया जा सकता है?” अरुण ने पूछा।
डॉ. विजय ने मुस्कुराकर कहा, “शायद, बेटा। यह सोचने वाली बात है।”
फिर वे चले गए, और अरुण का मन और भी जिज्ञासु हो गया।
दिन बीतते गए, और अरुण ने इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा। लेकिन एक सुबह, डॉ. विजय अचानक अरुण के पास आए। उनके चेहरे पर गर्व और उत्साह था।
“शाबाश, बेटा! तुम्हारी वजह से आज मैंने एक बेहतरीन काम किया है!” उन्होंने कहा।
अरुण की आंखें चमक उठीं। “पापा, वह काम क्या है?” उसने उत्सुकता से पूछा।
डॉ. विजय ने मुस्कान के साथ एक कमरे की ओर इशारा किया। “आओ, मैं तुम्हें दिखाता हूं।”
वे एक प्रयोगशाला में गए, जहां एक चमकदार मशीन रखी थी। डॉ. विजय ने कहा, “यह एक लेजर बीम हथियार है! यह प्रकाश की गति से चलती है और किसी भी उड़ने वाले यान या खतरे को चंद सेकंड में नष्ट कर सकती है।”
अरुण का मुंह खुला का खुला रह गया। “लेकिन पापा, यह कैसे हुआ?” उसने पूछा।
डॉ. विजय ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा, “एक दिन तुमने मुझसे पूछा था कि क्या लेजर से हथियार बनाया जा सकता है। उस सवाल ने मुझे प्रेरित किया। मैंने दिन-रात मेहनत की, इलेक्ट्रो-ऑप्टिक सिस्टम और लेजर तकनीक पर काम किया, और यह चमत्कार बन गया। तो शाबाशी के असली हकदार तुम हो, बेटा!”
अरुण हैरान रह गया। क्या उसका एक साधारण सवाल इतना बड़ा आविष्कार बन सकता है?
उस दिन से अरुण की जिज्ञासा और बढ़ गई। वह सोचता रहा कि उसका अगला सवाल क्या होगा, जो शायद दुनिया बदल दे। डॉ. विजय ने हथियार को देश की रक्षा के लिए तैयार किया, लेकिन अरुण के मन में एक रहस्य बना रहा—क्या और भी चमत्कार उसकी जिज्ञासा से पैदा होंगे?
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र-ताईच्या संसारात आता खऱ्या अर्थाने स्वास्थ आणि विसावा सुरू होईल असं वाटत असतानाच नेमक्या त्या क्षणी साऱ्या सुखाच्या स्वागतालाच आलेलं असावं तसं ताईचं हे कॅन्सरचं दुर्मुखलेलं आजारपण समोर उभं राहिलं होतं!
“तुला आणखी एक सांगायचंय” मला विचारांत पडलेलं पाहून माझी मोठी बहीण मला म्हणाली.
पण…. आहे त्या परिस्थितीत ती जे सांगेल ते फारसं उत्साहवर्धक नसणाराय असं एकीकडे वाटत होतं आणि ती जे सांगणार होती ते ऐकायला मी उतावीळही झालो होतो.)
“तुला सांगू? ऐकशील?” ती म्हणाली. मी होकारार्थी मान हलवली. “तू खरंच काळजी करू नकोस. मी तुझ्या लाडक्या ताईशीही बोललीय. “
” होय? काय सांगितलंस तिला? आणि ती काय म्हणाली?” मी उत्सुकतेनं विचारलं.
” ‘तू फक्त लवकरात लवकर बरी हो. बाकी कसलीही काळजी करू नकोस. आम्ही आहोत तुझ्यासोबत. ‘ असं मी म्हटलं तेव्हा ती समाधानानं हसली होती. आणि ‘काळजी कसली गं? तुम्ही एवढी मायेची सगळी माझ्यासोबत असताना काळजी कसली?’ असंही म्हणाली. ”
मोठी बहिण बोलली ते ऐकून खूप बरं वाटलं खरं पण ते समाधान तात्पुरतंच ठरणार होतं.
तसं पाहिलं तर ताईनं खरंच सगळं शांतपणे स्वीकारलं होतं. पण मीच तिच्यात एवढा गुंतून गेलो होतो कीं मनाला स्वस्थता कशी ती नव्हतीच. अस्वस्थतेचं हे मनावरचं ओझं कांही झालं तरी मला उतरवायचं होतं. अनायसे दिवाळी जवळ आली होती. भाऊबीजेला नेहमीप्रमाणे तिच्याकडे जायचं हे तर ठरलेलंच होतं. पण यावेळी मी गेलो, ते हे मनावरचं ओझं उतरवूनच परत यायचं असं स्वतःशी ठरवूनच.
मी गेलो तेव्हा मला वाटलं ताई झोपलेली असेल. म्हणून मग आईलाच हांक मारत मी स्वयंपाकघरात डोकावलो. पाहिलं तर ताई देवासमोर बसलेली. खूप थकल्यासारखी दिसत होती. तिच्या चेहऱ्यावरचं सगळं तेज नाहीसंच झालं होतं जसंकांही. तिला पाहून मला कसंतरीच झालं. कांही न बोलता मी हातपाय धुवून आलो. आई मला ‘बैस’ म्हणाली पण माझं लक्ष मात्र ताईकडेच. तिने श्रद्धेने हातातली पोथी मिटून कपाळाला लावली आणि आपल्या थरथरत्या हाताने ती देवघरांत ठेवून दिली.
“हे काय गं ताई? तुला इतका वेळ एका जागी ताटकळत बसवतं तरी का गं आता? कशाला उगीच ओढ करतेयस?”
“इतका वेळ कुठे रे? विचार हवं तर आईला. रोज मी नेहमीसारखा संपूर्ण अध्याय नाही वाचू शकत. म्हणून मग थोड्याच ओव्या कशाबशा वाचते. बसवेनासं झालं कीं थांबते. होय कीं नाही गं आई?”
हे बोलत असतानाच तिने आईकडे पाहिलं. तिचा आधार घेण्यासाठी आपला थरथरता हात पुढे केला. आई तत्परतेने तिच्याजवळ गेली. तिला आधार देत उठवू लागली. ताई तोल सावरत कशीबशी उभी रहाताच माझ्याकडे पहात म्हणाली, “इथं आई आल्यापासून घरचं सगळं तीच बघते. एकाही कामाला मला हात लावून देत नाही. सारखं आपलं ‘तू झोप, ‘ ‘तू आराम कर’ म्हणत असते. कंटाळा येतो रे सारखं पडून पडून.. ” तिचं हे शेवटचं वाक्य इतकं केविलवाणं होतं कीं मला पुढं काय बोलावं सुचेचना. मी लगबगीने उठून पुढे झालो.
“आई.. , थांब. मी नेतो तिला.. ” म्हणत ताईला आधार देत मी हळूहळू तिला तिच्या काॅटपर्यंत घेऊन आलो. तिथं अलगद झोपवलं तशी माझ्याकडे पाहून म्लानसं हसली.
“बैस.. ” काॅटच्या काठावर हात ठेवत ती म्हणाली. मी तिथेच तिच्याजवळ टेकलो. तिच्या कपाळावरून अलगद हात फिरवत राहिलो. तिने अतीव समाधानाने शांतपणे डोळे मिटून घेतले. तिला थोडं थोपटून, ती झोपलीय असं वाटताच मी माझा हात हळूच बाजूला घेतला आणि उठलो.
“का रे ? बैस ना.. ” तिला माझी चाहूल लागलीच. ” जायची गडबड नाहीय ना रे? रहा आजचा दिवस तरी… ” ती आग्रहाने म्हणाली.
माझाही पाय निघणार नव्हताच. पण जाणं आवश्यक होतंच.
“मी नेहमीसारखं जेवल्या जेवल्या निघणार नाहीय, पण संध्याकाळी उशीरा तरी निघायलाच हवं गं. परत येईन ना मी… खरंच येईन. “
“कधी? एकदम पुढच्या भाऊबीजेलाच ना?” उदास हसत तिनं विचारलं.
“कां म्हणून? मुद्दाम रजा घेऊन येत राहीन. बघच तू. मी थोडावेळ आईशी बोलतो. चालेल?”
तिने होकारार्थी मान हलवली. आई न् मी स्वैपाकघरांत बोलत बसलो. तेवढ्यांत केशवराव, अजित, सुजित सगळे आपापली कामं आवरून घरी आले. दिवाळीचा उत्साह असा कुणाला नव्हताच, पण ताईनंच आग्रह केलान् म्हणून आईनं नेवैद्यापुरतं गोडधोड केलं होतं. जेवणं झाली. इकडच्या तिकडच्या गप्पा सुरू झाल्या, पण विषय मात्र सारखा ताईभोवतीच घुटमळत राहिला.
दुपार उलटली तसं आईनं चहाचं आधण स्टोव्हवर चढवलं. ते पाहून मी बॅग भरायला घेतली. ताईकडे भाऊबीजेला मुद्दाम येऊनही तिच्याकडून ओवाळून न घेता परत जायची अशी पहिलीच वेळ हे जाणवलं आणि मन कातर झालं. तेवढ्यांत..
“अहोs.. आत या बघू जरा.. ” ताईनं आतून आपल्या खोल गेलेल्या आवाजात केशवरावांना हांक मारली. ते लगबगीने उठले तसा तिचा पुन्हा तोच क्षीण रडवेला आवाज… “आईलाही घेऊन याs.. “
आईही केशवरावांच्या पाठोपाठ घाईघाईने आंत गेली. या अनपेक्षित कलाटणीने मी चरकलो. थोड्या वेळाने केशवराव बाहेर आले.
“क.. काय झालंय?.. ” मी घाबरून विचारलं.
” नाही अरे… कांही नाही.. काय झालंय ते तूच बघ आता.. ” केशवराव कसनुसं हसत म्हणाले.
तेवढ्यांत ताईला आधार देत आई तिला बाहेर घेऊन आली. भिंतीला हात टेकवत ताई जवळच्या खुर्चीवर कशीबशी टेकली. तेवढ्या श्रमानेही ती दमली होती. तिने आवर्जून नेसलेल्या जरीच्या साडीकडे लक्ष जाताच मी थक्क होऊन पहातच राहिलो. तिचा विस्कटलेला चेहरा, विरळ होत चाललेले केस आणि अशा अवस्थेत कशीबशी नेसलेली ही जरीची साडी.. !
“काय ग हे.. ?”
मी न समजून विचारलं. तिने न बोलता हळूच आईकडे पाहिलं.
“मी सांगते. ” आई म्हणाली, “मघाशी हिनं अजितच्या बाबांना आंत बोलावलं होतं ना ते मुद्दाम काॅट खालची ट्रंक बाहेर ओढायला. त्यातली ही साडी मागून घेतलीन्. आणि मला बोलावून माझ्याकडून नेसवून घेतलीयन. ” आई कोतुकाने म्हणाली.
” काय गं हे ताई? कशाला अशी ओढ करायची.. ?”
“कशाला काय? आज ओवाळायला हवं ना तुला, म्हणून रे. ” तिचं हे उसनं अवसान पाहून मलाच भरून आलं. घशाशी आलेला आवंढा मी कसाबसा गिळला आणि घट्ट मनानं सगळं हसून साजरं करायचं ठरवलं.
“वा वा.. चला.. मीही तयार होतो… ” म्हणत पटकन् उठलो. कपडे बदलून आलो. तोवर घाईघाईने ओवाळणीची तयारी करुन आई पाटाभोवती रांगोळीची रेघ ओढत होती.
इथे येताना मी जे मनात ठरवून आलो होतो ते हातून असंच निसटून जाणार असं वाटत असतानाच ताईनेच आवर्जून माझा तो हरवू पहाणारा आनंद असा जपलेला होता! मी हसतमुखाने पाटावर बसलो. निरांजनाच्या प्रकाशात ताईचा सुकलेला चेहराही मला उमलल्यासारखा वाटू लागला. अजित-सुजितनी तिला दोन्ही बाजूंनी आधार देत उभं केलं. आईने ताम्हण तिच्या हातात दिलं. दोन्ही मुलांच्या आधाराने कसंबसं ताम्हण धरून ती मला ओवाळू लागली. मी आवर्जून आणलेलं नव्या कोऱ्या नोटांचं मोठं पॅकेट व्यवस्थित ठेवलेलं एन्व्हलप पॅंटच्या खिशातून बाहेर काढलं… आणि.. ते पाहून ताई गंभीर झाली. ओवाळणारे तिचे थरथरते हात थबकले. ओवाळताना थोडी वाकलेली ती महत्प्रयासाने ताठ उभी राहिली.
” ए.. काय आहे हे? इतकी मोठी ओवाळणी मी घेणार नाही हं.. “
“आई, ऐकतेयस ना ही काय म्हणतेय ते? मी ओवाळणी काय घालायची हे ही कोण ठरवणार? ते भावानंच ठरवायचं असतं आणि घातलेली ओवाळणी बहिणीनं गोड मानून घ्यायची असते, हो कीं नाही गं?” आईला कानकोंडं होऊन गेलं आणि ताईने नकारार्थी मान हलवली.
“तू दरवर्षी घालतोस तेवढीच ओवाळणी घाल. ऐक माझं. मी तेवढीच घेईन. “
“कां पण?”
” हेच मी तुला विचारतेय. याच वर्षी एवढी मोठी भाऊबीज कां? कशासाठी?”
“अगं पण… एवढं तरी ऐक ना गं माझं… “
मी अजीजीने म्हणालो.
“मला सांग, आज सकाळी कोल्हापूरहून पुष्पाताईकडची भाऊबीज आवरून आलायस ना?”
“हो. “
“तिलाही एवढीच ओवाळणी घातलीयस कां?.. ” मी गप्प.
“मग? दोघींनाही नेहमीप्रमाणे सारखीच ओवाळणी घालायची. मी जास्त घेणार नाही. तू लहान आहेस माझ्यापेक्षा आणि माझं ऐकायचंयस.. “
मला यावर काय बोलावं तेच समजेना. सगळं बोलणंच खुंटलं होतं. मी गप्प बसलेलं पाहून तिलाच रहावेना…
“मला खूप ताटकळत उभं रहावत नाहीये रे… “
ती काकुळतीने म्हणाली. मी नाईलाजाने माझा हात मागं घेतला. माझा हट्ट संपला. मी ते एन्व्हलप बाजूला पाटावर ठेवलं. खिशातून दुसऱ्या नोटा काढून नेहमीएवढी ओवाळणी तिला घातली.
तिने अखेर तिचंच म्हणणं असं खरं केलं होतं. मी निघण्यापूर्वी कुणाचं लक्ष नाहीय असं बघून आईला बाजूला बोलावून घेतलं.
“आई, हे एन्व्हलप इथं तुझ्याजवळ ठेव. यात अकरा हजार रूपये आहेत. हे पैसे इथे या घरी लागतील तसे तिला न सांगता तू खर्च कर. “
ऐकलं आणि आईने डोळ्याला पदर लावलान्.
“अरे दोन महिने होऊन गेलेत मी इथे येऊन. माझे सगळे
पेन्शनचे पैसेही तस्सेच पडून आहेत माझ्याजवळ. देवदर्शनाला बाहेर गेल्यानंतर संपत आलेलं किरकोळ जरी माझ्या पैशातून कांही आणलं सवरलं तरी केशवरावांकडून हिशेबाने ते पैसे ती मला द्यायला लावते. एकदा मी तिला समजावलंसुध्दा.
‘अगं मी तर इथंच रहाते, जेवते, मग हक्काने थोडे पैसे खर्च केले तर बिघडलं कुठं? ‘ म्हटलं तर म्हणाली, ‘तुझे कष्ट आणि प्रेम हक्कानं घेतेच आहे ना गं आई मी? मग पुन्हा पैसे कशाला?’
मी एक दिवस हटूनच बसले, तेव्हा म्हणाली, ‘आई, मला माहिती आहे, तू माझ्या भावांकडे रहातेस तेव्हा ते कुणीच तुझे पेन्शनचे पैसे घरांत खर्चाला घेत नाहीत. अगं मग ते इथेच कशासाठी? इथे मला कुठं काय कमी आहे?’ याच्यापुढे काय बोलू मी? कसं समजावू तिला? हे बघ, नेहमीची गोष्ट वेगळी. आता तिला दुखवून नाही चालणार. तिच्या मनाप्रमाणे, ती म्हणेल तसंच वागायला हवं ना? हे पैसे तू परत घेऊन जा. वाईट वाटून घेऊ नको. तिच्या कलानं मी बोलीन, समजावीन तिला, तेव्हा दे हवंतर. ” आई म्हणाली.
मी नाईलाजाने ते पैसे खिशात ठेवले. पूर्वीपेक्षाही त्या पैशांचं ओझं मला आता जास्त जाणवू लागलं. हे ओझं हलकं केल्याशिवाय मला चैन पडणार नव्हती. मी सर्वांचा निरोप घेतला. जाताना केशवरावांना म्हणालो, “माझ्याबरोबर कोपऱ्यावरच्या रिक्षा स्टॉपपर्यंत चला ना प्लीज… ” ते लगेच तयार झाले. मी मनाशी ठाम निश्चय केला. मनातली गदगद आता थेट त्यांच्यापुढंच मोकळी करायची. अगदी मनाच्या तळातलं जे जे ते सगळं त्यांच्याशी बोलायचं असं ठरवूनच बाहेर पडलो खरा, पण ते सगळं बोलणंच नंतर पुढचं सगळं अतर्क्य घडायला निमित्त ठरणार होतं हे तेव्हा मला कुठं माहित होतं… ?
☆ एक नंबर शिवणार… भाग-२ – लेखक – श्री राजेंद्र परांजपे ☆ सौ.प्रभा हर्षे ☆
(तिथून जेवून परत घरी येताना, हॉल स्टेशनजवळ होता, म्हणून जेवण जिरवायला चालत स्टेशनकडे निघालो. नेमकं त्याचवेळी माझ्या बुटाच्या सोलने मला दगा दिला. बुटाला सोडून सोल लोंबकळू लागला.) इथून पुढे —
मात्र माझ्या नशिबाने तिथून पन्नास फुटावरच मला एक चांभाराचं दुकान दिसलं. कसातरी खुरडत मी त्या दुकानापर्यंत पोचलो. तिथला चांभार खालमानेने काहीतरी शिवत होता. मी त्याच्या पुढ्यात माझा सोल सुटलेला बूट टाकला.
“सोल सुटलाय का, आत्ता शिवतो बघा. ” तो म्हणाला.
“दादा, जरा चांगला शिवा हं. मला लांब जायचंय. ” मी म्हणालो.
“साहेब, अगदी एक नंबर शिवणार बघा. काळजीच नको. ” त्याच्या तोंडचे हे शब्द ऐकून मी चमकलो. हा राजाराम तर नव्हे?
“राजाराम?” मी सरळ हाकच मारली.
हाकेसरशी त्याने वर बघितलं. तो राजारामच होता. माझ्याकडे त्याने दोन मिनिटं बघितलं आणि म्हणाला, “साहेब, तुम्ही ते अंधेरीचे इतिहास संशोधनवाले ना?”
मी हो म्हणालो. पठ्ठ्याच्या लक्षात होतं तर. मला बरं वाटलं.
एकमेकांना ओळखल्यावर साहजिकच आम्ही गप्पा मारु लागलो. बोलता बोलता तो म्हणाला, “आता मी कामासाठी पूर्वीसारखा फिरत नाही. हे खोपटं भाड्याने घेतलय. रोज इथे मी आणि मुलगा येतो, आणि काम करतो. माझ्या फिरण्यामुळे आणि चोख कामामुळे बरेचजण मला ओळखतात. ते फाटकी पुस्तकं, वह्या वगैरे इथे घेऊन येतात. माझा मुलगा ते शिवतो आणि मी चपला, बूट वगैरे शिवतो.”
मुलगा? मी चमकलो. माझ्या आठवणीप्रमाणे राजारामला मूलबाळ नव्हतं, मग हा मुलगा कुठून आला? माझ्या चेहऱ्यावरील प्रश्न ओळखून राजारामच पुढे म्हणाला,
“साहेब, माझा सख्खा मुलगा नाही. त्याचं काय झालं, सात आठ वर्षांपूर्वी एक दिवशी मी ठाण्याला स्टेशनवर उतरलो, तेव्हा पुलाखाली मला एक लहान पांगळा मुलगा दिसला. कुठल्या तरी भिकाऱ्याचा असावा. चेहऱ्यावरून उपाशी दिसत होता. मला त्याची दया आली म्हणून मी एक बिस्कीटचा पुडा घेऊन त्याला द्यायला गेलो, तेव्हा तो गुंगीत आहे असं लक्षात आलं. मी त्याच्या अंगाला हात लावून बघितलं, तर अंग चांगलंच गरम लागलं. सणकून ताप भरला होता. मग मी तसाच त्याला उचलला आणि स्टेशनजवळच्या एका ओळखीच्या डॉक्टरांकडे घेऊन गेलो. डॉक्टरांनी तपासून त्याला औषध दिलं. तोपर्यंत हे सगळं ठीक होतं. त्यानंतर आता ह्या मुलाचं काय करायचं हा विचार माझ्या मनात आला. पण मी धाडस करुन आणि काय होईल ते बघू असं ठरवून त्याला थेट माझ्या घरीच घेऊन गेलो. बायकोने आणि आईने त्या मुलाला बघून बरेच प्रश्न विचारले. मी त्यांना काय घडलं ते सविस्तर सांगितलं. आधी त्यांनी दुसऱ्याच्या अनोळखी मुलाला घरात घ्यायला काचकूच केलं. पण नंतर त्याची अवस्था बघून त्या तयार झाल्या. थोड्या दिवसांनी औषधांनी आणि चांगल्या खाण्यापिण्याने तो मुलगा बरा झाला. म्हणून मी त्याला, ‘परत होता तिथे सोडून येतो’ म्हणालो, पण तोपर्यंत त्या दोघींना त्याचा लळा लागला. त्यांनी नेऊ दिलं नाही. तसंही आम्हाला मूलबाळ नव्हतं आणि इतक्या दिवसात त्याची चौकशी करायला कुणीही आलं नव्हतं. हा अपंग मुलगा कुणाला तरी जड झाला असेल, म्हणून दिला असेल सोडून. दुसरं काय? राहू दे राहील तितके दिवस. माझ्या आईने त्याचं नाव किसन ठेवलं. आधी आम्हाला तो नुसता पांगळाच वाटला, पण नंतर त्याची जीभही जड आहे, हे लक्षात आलं. तो तोतरा बोलतो. पण ह्या दोन गोष्टी सोडल्या तर अगदी हुशार आहे. घरी मी पुस्तकं शिवायचं काम करायचो, तेव्हा माझ्या बाजूला बसून माझं काम तो लक्षपूर्वक बघायचा. तीन चार वर्षातच त्याने माझं काम आत्मसात केलं. आता तो लिहा वाचायला पण शिकतोय.
साहेब, आमचं हातावर पोट आहे. त्याला घरी ठेवला तर माझ्या बायकोला किंवा आईला त्याच्यासाठी घरी थांबायला लागतं, त्यांचा कामावर खाडा होतो. त्यात त्याच्या तोतरेपणामुळे आजूबाजूची मुलं त्याला चिडवून बेजार करतात, म्हणून मी त्याला पाठुंगळीला मारुन रोज इथे माझ्या मदतीला घेऊन येतो. ” एका दमात राजारामने सगळं कथन केलं.
“अरे पण आहे कुठे तो? मला तर दिसत नाही. ” सगळं ऐकून आणि आश्चर्यचकित होऊन मी म्हणालो.
“या, दाखवतो, ” असं म्हणून राजाराम मला त्याच्या दुकानाच्या मागच्या बाजूला घेऊन गेला.
तिथे कंपाऊंडची भिंत आणि राजारामचं दुकान याच्या मधल्या, प्लॅस्टिकचं छप्पर असलेल्या छोट्याश्या जागेत एक पांगळा मुलगा अगदी तन्मयतेने एक जुनं पुस्तक शिवत बसला होता. राजारामने उजेडासाठी तिथे एका बल्बची सोय केली होती. त्या मुलाच्या आजबाजूला काही फाटकी आणि काही शिवलेली वह्या, पुस्तकं होती. कामातली त्याची सफाई अगदी राजारामसारखीच वाटत होती. राजारामने त्याची आणि माझी ओळख करुन दिली. माझ्याकडे बघून त्याने हात जोडले व तो छान हसला. मला राजारामचं आणि त्या मुलाचं खूप कौतुक वाटलं. त्याचबरोबर मला त्या मुलाची दयाही आली, म्हणून मी राजारामला विचारले,
“राजाराम, तू ह्याला मागे का बसवतोस? पुढे तुझ्या बाजूला बसव. तिथे उजेड चांगला आहे आणि जागाही मोठी आहे. ”
“साहेब, आधी त्याला मी पुढेच बसवायचो. पण नंतर लक्षात आलं, की लोकं एकाच ठिकाणी चपला आणि पुस्तकं शिवायला द्यायला बिचकतात. त्यातूनही काहींनी काम दिलं तर ते पैसे किसनच्या कामाकडे न बघता त्याच्या पांगळेपणाकडे बघून द्यायचे. ते मला आवडत नव्हतं. म्हणून मग मी त्याला मागे बसवायला लागलो. त्या अरुंद जागेची त्याला आता सवय झालीय. आता तो कुणाला दिसत नाही. त्यामुळे सगळेच प्रश्न सुटले. साहेब, तो त्याच्या पांगळ्या पायांवर कधीच उभा नाही राहिला तरी चालेल. पण आपल्या हिमतीवर उभा राहीला पाहिजे. कुणाच्या दयेवर नको. ” राजारामने स्पष्टीकरण दिलं.
राजारामच्या ह्या विचारांनी मी थक्क झालो. अश्या विचारांची माणसं आजच्या जगात खरंच दुर्मिळ आहेत.
राजारामचं आणि किसनचं पुन्हा एकदा कौतुक करुन, त्यांचा निरोप घेऊन मी निघणार, इतक्यात राजाराम म्हणाला,
“साहेब आणखी एक सांगू? आजवर आम्ही तिघांनी चपला, वह्या, पुस्तकं, गोधड्या, पिशव्या ह्या निर्जीव वस्तू खूप शिवल्या, त्यावर आमचं पोट भरलं. पण आता आम्ही ह्या पांगळ्या मुलाचं फाटलेलं आयुष्य शिवणार आणि अगदी एक नंबर शिवणार बघा. हे देवाने दिलेलं काम आहे, ते करायलाच पाहिजे. “
राजारामचं ते वाक्य माझ्या मनावर कायमचं कोरलं गेलं, आणि माझ्या मनातली त्याची प्रतिमा शतपटीने उंचावली.
– समाप्त –
लेखक : श्री राजेंद्र परांजपे
प्रस्तुती : सुश्री प्रभा हर्षे
९८६०००६५९५
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ “गुजराण ते समृद्धी…” ☆ श्री मयुरेश उमाकांत डंके ☆
“तुला काय हवंय -गुजराण, उपजीविका, चरितार्थ, सुखवस्तूपण, संपन्नता, वैभव की समृद्धी?“
— गेली १२ वर्षं हा प्रश्न मी विद्यार्थ्यांना विचारत आलो आहे. मी हा प्रश्न विचारला की, मुलंच काय पण पालकांचीही दांडी गुल होते.
१) अमुक व्यक्तीची कशीबशी गुजराण चालायची.
२) अमक्या व्यक्तीचा पडेल ते काम हाच काय तो उपजीविकेचा मार्ग होता.
३) दिवसभर काम करून जे काही पैसे मिळत त्यावरच त्याचा चरितार्थ चालायचा.
४) नोकरी चांगली असल्यामुळे खाऊन-पिऊन सुखी आहे.
५) घसघशीत पगारामुळे अमक्याच्या घरी संपन्नता आहे.
६) उत्तम करिअर झाल्यामुळे अमुक अमुक माणूस वैभवात राहतोय.
७)योग्य शिक्षण आणि कष्ट यांच्यामुळेच अमक्याच्या घरी समृद्धी नांदतेय.
ही वाक्यं आपण अनेकदा ऐकली असतील आणि वापरलीही असतील. पण या वाक्यांच्या मधून जो अर्थ ध्वनित होतो, त्याच्या खोलात जाण्याचे कष्ट आपण सहसा घेत नाही.
आपली मराठी भाषा तर इतकी समृद्ध आहे की, ‘आर्थिक परिस्थिती चांगली नाही’ या करितासुद्धा अठरा विश्वे दारिद्र्य, विपन्नावस्था, दरिद्रीनारायण, बेताची परिस्थिती, हातातोंडाची गाठ, कोंड्याचा मांडा करून खाणे, खिसा कायम फाटकाच, दोनवेळची चटणीभाकरी खाऊन राहणे असे अनेक शब्दप्रयोग वापरले जातात. पण शिक्षण, जीवन जगण्याचा मार्ग आणि हे शब्दप्रयोग यांचा फार घनिष्ठ संबंध आहे, असं माझं मत आहे.
“इंजिनिअर, डाॅक्टर, चार्टर्ड अकाऊंटंट, आर्किटेक्ट हेच पर्याय करिअर म्हणून का हवे आहेत?” असा बाॅल टाकला की, बहुतेकांचा कल हा आर्थिक परिस्थितीच्याच गणितांकडे झुकलेला दिसतो. पालक आणि मुलं दोघांनाही ‘पॅकेज’ या शब्दाची मोहिनी पडलेली आहे, हे स्पष्ट जाणवतं. पॅकेजचं हे मोहिनीअस्त्र फार फसवं आणि घातक असतं.
‘सायन्सला न जाणं म्हणजे महापापच आहे’ ह्या विचारसरणीची मुळं किती खोलवर गेली आहेत, हे जवळपास रोजच दिसत राहतं. काॅमर्स ला जाऊन सीए किंवा सीएस झाला नाही म्हणजे तो माणूस आयुष्यातच अपयशी आहे, असं माणसं अगदी सहजपणे बोलतात. शाळेतल्या मराठीच्या पाठ्यपुस्तकातली संतवाणी सरळसरळ ऑप्शनला टाकून द्यायची आणि आर्ट्सच्या विषयांना काडीचाही स्कोप नाही, असं गावभर सांगत फिरायचं, असाही उद्योग अनेकजण करतात.
दहावी-बारावीच्या मुलांचं करिअर आणि त्यांच्या पालकांची मतं यांचा धांडोळा घेतला की, मला हत्ती आणि सात अंधांची गोष्ट आठवते. गोष्टीतले सातही जण पूर्ण अंध असतात. पण करिअरची निवड करण्याच्या बाबतीत फरक फक्त इतकाच आहे की, मुलं आणि त्यांचे पालक दोघंही विनाकारणच स्वत:च्या डोळ्यांवर पट्टी बांधून घेऊन हत्तीचा अंदाज घेण्याचा प्रयत्न करतायत. वास्तविक पाहता, ह्या पट्ट्या डोळ्यांवर बांधून घेण्याची गरजच नाही. पण तरीही हे घडतंच. आपल्याला दृष्टी असूनही अंध करणाऱ्या ह्या पट्ट्या कुठल्या?
पहिली पट्टी म्हणजे अज्ञान..
काहीही माहिती नसतानासुद्धा केवळ कल्पनेच्या आधारावरच स्वत:ची पोकळ, भ्रामक मतं तयार करणारी आणि निर्णय घेणारी मुलं-पालक या वर्गात मोडतात. अज्ञानामुळे यांचे निर्णय चुकतात आणि करिअरमध्ये अपयश येतं.
दुसरी पट्टी म्हणजे अर्धवट माहिती..
ह्या प्रकारची मुलं-पालक माहिती घेण्याचा प्रयत्न करतात. पण, सविस्तर आणि खरी माहिती घेत नाहीत. त्यामुळे, खरं जग त्यांना दिसतंच नाही.
तिसरी पट्टी म्हणजे धनाढ्यतेचा अतिलोभ.. पैसा आणि त्यातून मिळणारी सुबत्ता एवढाच काय तो विचार करून कोर्स निवडणारे मुलं-पालक ह्या वर्गातले. ह्यांच्या लेखी ‘सब से बडा रूपैय्या’ हेच एकमेव सत्य असतं. त्यामुळेच, ह्यांना जगात केवळ श्रीमंत माणसंच दिसतात आणि श्रीमंत माणसांचं राहणीमानच दिसतं. पण त्या मागचे कष्ट, मेहनत जाणून घेण्याचा प्रयत्नसुद्धा न करण्यामुळे करिअरविषयक निर्णय सपशेल फसतात आणि ह्यांचं नुकसान होतं.
चौथी पट्टी म्हणजे अंधानुकरण..
‘अमुक एकानं असं केलं आणि तो मोठा झाला म्हणून मीही तसंच करणार’ ही विचारसरणी केवळ धोकादायकच नाही तर मूर्खपणाची आहे. करिअरचा निर्णय घेताना अनुकरण आणि अंधानुकरण यांतला फरक न कळण्याएवढं कुणीच अपरिपक्व नसतं. पण तरीही स्पर्धेचं आणि स्टेटसचं भूत डोक्यात शिरलं की, विवेकबुद्धीचा पराजय होतोच.
पाचवी पट्टी म्हणजे स्वत:विषयीचे आणि जगाविषयीचे गैरसमज..
गैरसमज हे गैरच असले आणि अवास्तव असले तरीही ते निर्माण होणं थांबलेलं नाही. आपल्या लेखी एखादं क्षेत्र कमी महत्वाचं असू शकतं, पण याचा अर्थ ते खरोखरच तसंच आहे, असं नसतं. पुरणाच्या पोळ्या करून विकणं हे आपल्या लेखी लो प्रोफाईल असेल, पण वर्षाकाठी ५०₹ नग यानुसार दोन-दोन लाख पुरणपोळ्यांची विक्री करणाऱ्या उद्योजकांना लो प्रोफाईल कसं आणि कोणत्या आधारावर म्हणायचं? आपले गैरसमज आपलं प्रचंड नुकसान करत असतात, हे लोकांच्या लक्षातच येत नाही.
सहावी पट्टी म्हणजे दुराग्रह..
‘माझंच खरं’ ही धारणा यशस्वी करिअरच्या वाटेतला फार मोठा अडसर आहे. ‘सत्य काहीही असलं तरी मी मात्र बैलाचं दूध काढणारच’ या हट्टापायी चुकीचे निर्णय खरे करून दाखवण्याच्या नादात वेळ, पैसा, उमेद, कष्ट या सगळ्याच गोष्टी पणाला लावल्या जातात. हरल्यानंतर जो वनवास भोगावा लागतो त्याला अंत नसतो. योग्य व्यक्तीचं मार्गदर्शन आणि व्यक्तीनं केलेलं योग्य मार्गदर्शन या दोन्ही गोष्टी निरनिराळ्या असल्या तरी सारख्याच महत्त्वाच्या असतात.
गुजराण ते समृद्धी…
आधीचा घेतलेला निर्णय फसला किंवा चुकीचा ठरला हे कितीतरी आधी लक्षात येऊनसुद्धा जो वेळकाढूपणा होतो, तो अक्षम्य असतो. निर्णय घाईने घेणं जसं चूक तसंच त्यात नको तितका वेळ काढणंही चूकच.. !
अशा सात-सात पट्ट्या एकावर एक चढवून वावरायला लागल्यानंतर अपयशाशिवाय काय पदरात पडणार? अज्ञान, अर्धवट माहिती, धनाढ्यतेचा अतिलोभ, अंधानुकरण, स्वत:विषयीचे आणि जगाविषयीचे गैरसमज, दुराग्रह आणि आळस या सात पट्ट्या एक-एक करून उतरवायला सुरूवात केलीत की फरक दिसायला लागेल.
गुजराण, उपजीविका, चरितार्थ, सुखवस्तूपण, संपन्नता, वैभव आणि समृद्धी या सात अवस्थांमधला फरक करिअरची निवड करण्याआधीच समजून घेतला पाहिजे. डोळ्यांवरच्या सात पट्ट्या तशाच ठेवल्यात तर वरच्या चार अवस्था केवळ स्वप्नं पाहण्यापुरत्याच राहतील. आणि गुजराण, उपजीविका किंवा चरितार्थ एवढ्यापुरताच आपल्या आयुष्याचा आवाका मर्यादित राहील.
स्वत:करिता योग्य अभ्यासक्रम निवडला म्हणजे उत्तम करिअर झालंच, असं होत नाही. स्वत:मध्ये बदलही करावे लागतात. आतापासूनच स्वत:मधले दोष ओळखून त्यात सुधारणा करण्याचे प्रयत्न सुरू करा. जसजशा तुम्ही डोळ्यांवरच्या पट्ट्या उतरवत जाल तसतसा तुमचा ‘गुजराण ते समृद्धी’ हा प्रवास अधिक वेगवान आणि सुखकर होत जाईल.