मराठी साहित्य – कविता ☆ ‘डर’ श्री संजय भरद्वाज (मूल हिन्दी रचना) – ‘भीती’ (भावानुवाद) ☆ सुश्री आसावरी काकडे ☆

सुश्री आसावरी काकडे
आज प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की हिंदी कविता “डर” का मराठी की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री आसावरी काकडे जी द्वारा मराठी अनुवाद।)
श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि –  डर ??

मनुष्य जाति में

होता है

एकल प्रसव,

कभी-कभार जुड़वाँ,

और दुर्लभ से दुर्लभतम

तीन या चार,

डरता हूँ,

ये निरंतर

प्रसूत होती लेखनी

और जन्मती रचनाएँ,

मुझे, जाति बहिष्कृत

न करा दें….!

© संजय भारद्वाज 

(शुक्र. 4 दिस. 2015 रात्रि 9:56 बजे)

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

सुश्री आसावरी काकडे जी द्वारा मराठी भावानुवाद   

? भीती ??

मनुष्य प्रजातीत

एक प्रसूती एक जन्म…

कधी कधी जुळं जन्माला येतं

तीन-चार तर दुर्लभच …

भीती वाटतेय

निरंतर प्रसूत होणारी ही लेखणी,

तिचे अविरत सृजन

मला जातीबाहेर तर नाही करणार…?

© सुश्री आसावरी काकडे

संपर्क –  ‘सेतू’ , डी-१/३, स्टेट बँक नगर, कर्वेनगर, पुणे – ४११ ०५२. मोबाईल : +९१- ९७६२२०९०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ बाल दिवस विशेष – लघुकथा – “टिप” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है बाल दिवस पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “टिप”)

☆ कथा-कहानी ☆ बाल दिवस विशेष – लघुकथा – “टिप” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

(14 नवंबर को “बाल दिवस” था। इन जैसे “छोकरों” को भी बधाई।)

उन तीनों की होटल आज खूब चली। मालिकों को अच्छी कमाई हुई। देर रात तक होटल में काम करने वाले तीन छोकरे होटल से बाहर अपने घर की ओर निकले। आज की अतिरिक्त थकान को  दिल की खुशी सहला रही थी। और दिल इसलिए खुश था, कि मालिकों का मूड आज अच्छा होने से इन्हें  कुछ टिप् भी मिली।

पहला- “आज सेठ मूड में था, उसने  दस रुपये मुझे  टिप् के दिए।”

दूसरा- “मुझे रुपये तो नहीं, पर सेठ मूड में था, बोला- बचा हुआ खाना घर को ले जा।”

तीसरा- “मेरा सेठ भी आज मूड में था, जैसे  ही गिलास मेरे हाथ से फूटा,  वैसे ही उसने रोज की तरह चाँटा मारा।  मगर आज जरा धोरे से।”

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 57 – कोविड और जीवनप्रकाश ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा  “कोविड और जीवनप्रकाश …“।)   

☆ कथा कहानी  # 57 – कोविड और जीवनप्रकाश ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

“जीवनप्रकाश” नाम था उनका घर में और स्कूल में ,पर उन्हें जीवन कहकर ही बुलाया जाता था. “जीवन” उन दिनों के प्रसिद्ध खलनायक थे तो उन्हें जीवन कहकर संबोधित किया जाना पसंद नहीं था पर उस उम्र में विरोध के कोई मायने नहीं होते. पर जब कॉलेज में गये तो अपने नाम का शार्ट फार्म “जेपी” पॉपुलर करने के लिये बहुत मेहनत की और ये हो भी गया. नौकरी बैंक में मिली तो यहां पर भी लोगों द्वारा पहले जेपी और बाद में जेपी सर कहकर संबोधित किये जाते रहे.जेपी अपनी कुछ अच्छी आदतों और सच्चे दोस्तों के मामले में बहुत धनी थे. जब भी कहीं जाना हो तो बाकायदा बोलकर और बैंक में तो अधिकतर लीव स्वीकृत होने पर ही जाते थे. यही नहीं बल्कि काम खत्म करने के बाद शाखा प्रबंधक को गुडनाईट सर कहकर जाने का अटूट सिलसिला उनके रिटायरमेंट तक अनवरत जारी रहा. जब कभी ब्रांचमेनेजर की कुर्सी खाली होती, तब भी खाली कक्ष को भी गुडनाईट सर कहकर ही जाने की उनकी आदत थी. लोग हंसते तो कहा करते थे कि व्यक्ति कोई भी हो, बैठे या न बैठे पर मेरी गुडनाईट बैंक को संबोधित रहती है. उनकी काम के प्रति लगन, कस्टमर्स को मदद करने की आदत और मधुर व्यवहार उन्हें नगर में लोकप्रिय बनाता गया. ब्रांचमेनेजर भी उन्हें पसंद करने लगे. जब कभी शाम को जाते वक्त जेपी, चैंबर के समीप आते तो शाखाप्रबंधक खुद ही पहल करके बोल देते “गुडनाईट जेपी”. जब उनके बॉस उनका अच्छा काम और कस्टमर्स के प्रति मधुर व्यवहार से प्रभावित होकर प्रमोशन के लिये प्रेरित करने की कोशिश करते तो उनका विनम्र जवाब यही होता “सर मैं अपने तीन दोस्तों के साथ शाम की चाय नहीं छोड़ सकता”. दरअसल बैंक से निकल कर घर पहुंचने से पहले अपने बचपन के मित्रों “हंसमुख, खुशवंत और इस्माइल ” के साथ शाम 6:30 की चाय पीना रोज का कार्यक्रम था, छुट्टियों के दिनों को को छोड़कर क्योंकि वे दिन तो पूरे या तो उन्हीं के साथ गुजरते थे या फिर परिवार के साथ.इनके अलावा उनकी दोस्ती तो किसी से नहीं थी पर पहचान सभी से थी , उनकी मदद करने की आदत और मधुर व्यवहार के कारण़.

एक ईश्वरीय चमत्कार इन चारों दोस्तों के साथ यह भी था कि इनके ब्लड ग्रुप एक ही थे AB Negative. बहुत दुर्लभ था तो जरूरत पड़ने पर रक्तदान के लिये ये लोग हमेशा तैयार रहते और जब एक रक्तदान करता तो बाकी दोस्त मज़ाक करते “अरे हमारे लिये भी बचाकर रख, हम किसको ढूंढ़ेगे “

जब कोरोना का संक्रमण काल और लॉकडाऊन शुरु हुआ तब भी बचते बचाते शाम की चाय ये किसी भी एक के यहां उसके घर पर ही पीते, कभी कभी पुलिसवाले इन्हें बाहर निकलते देखकर चमका भी देते और मज़ाक में  कहते भी कि अंकल घर पर रहो वरना इस उम्र में पुलिस के डंडे बर्दाश्त नहीं कर पाओगे.

ये अक्सर आपस में भी मजाकिया लहजे में कहते रहते कि हम पॉज़िटिव नहीं हो सकते, नेगेटिविटी तो हमारे खून में ही है. हमें तो अपने दोस्तों के कंधे पर अंतिम यात्रा करनी है और जरूरत पड़ने पर इनका ब्लड और इनके कंधे ही हमारे काम आने वाले हैं. पर विधाता की मर्जी कुछ और ही थी, जीवनप्रकाश जी कोरोना से संक्रमित होकर हॉस्पिटलाईज हुये और बहुत चाहकर भी ये लोग मिलने जा नहीं सके क्योंकि मिलना पूरी तरह प्रतिबंधित था. एडमिट होने की दूसरी सुबह ही जेपी सर ने कोविड हॉस्पिटल में अंतिम सांस ली, इम्यूनिटी और दोस्तों का अटूट प्रेम भी उन्हें यारों से जुदा होने से नहीं रोक पाया. अंतिम संस्कार भी कोविड गाइडलाईन के अनुसार हुआ और नियमानुसार सिर्फ दो परिवार के सदस्य ही उपस्थित रहने के लिये अनुमत किये गये.

हंसमुख, इस्माइल और खुशवंत स्तब्ध थे, खामोश थे आंखे सूनी सूनी पर ऑंसुओं से खाली थीं. लोग इन्हें देखते और ये तीनों नज़रें झुकाकर चुपचाप आगे बढ़ जाते. लोग आश्चर्य चकित होकर रह जाते पर बोलते कुछ नहीं. अंतिम संस्कार के दूसरे दिन शाम को ठीक 6 बजे इस्माइल, खुशवंत और हंसमुख तीनों उस गार्डन की बैंच के पास पहुंचे जहां ये कभी कभी सुबह वॉक के बाद बैठकर गपशप किया करते थे, हल्का अंधेरा हो चुका था और कोरोना की दहशत के कारण पार्क खाली था. ये तीनों बैंच के सामने नीचे जमीन पर बैठ गये, इस्माइल ने बैग से फ्रेम की हुई चारों की ग्रुप फोटो निकाली, खुशवंत ने मोमबत्ती निकाल कर जलाई, हवा भी शायद संक्रमण की गंभीरता से डर कर शांत और स्थिर थी, पत्ते तक नहीं हिल पा रहे थे.हंसमुख ने अपने बैग से थर्मस और चार डिस्पोज़ेबल कप निकाले और चाय भरकर बैंच पर ऱख दी. इस्माइल ने धीमी आवाज़ में कहा “जीवन,लो चाय पी लो।”

खुशवंत :उसे जीवन नहीं जेपी कहो, ये नाम उसे कभी पसंद नहीं था.

अचानक न जाने कहां से हवा का तेज झोंका आया, कैंडल बुझ गई और चाय के कप लुड़क गये. तीनों ने मिलकर जेपी की फोटो गिरने से पहले ही उठा ली, तीनों को लगा जैसे हवा के झोंके के साथ जेपी ने भी अपने दिल की बात उनतक पहुंचा दी जिसे सिर्फ वही सुन और समझ सकते थे.

“माफ करना दोस्तों, तुमसे बिना कहे बिना मिले जाना पड़ा, हसरत तो थी कि तुम्हारे कंधों पर जाता पर मुमकिन नहीं हो सका. भगवान को भी पता चल गया था कि मुझे “जीवन” शब्द पसंद नहीं है तो बस छीन लिया. अब सिर्फ प्रकाश है जो प्रकाश पुंज से मिलने की यात्रा पर अकेले ही जा रहा है,अलविदा !!!

हंसमुख, इस्माइल और खुशवंत के रुके हुये आँसू सैलाब बनकर निकल पड़े और वो तीनों अनवरत फूटफूटकर रोने लगे. जेपी अपने साथ इस्माइल की Smile, खुशवंत की खुशी और हंसमुख की हंसी, दोस्तों की सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में ले गये. शाम की चाय अनिश्चित काल के लिये बंद हो गई.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुखी माणसाचा सदरा… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुखी माणसाचा सदरा… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

सुखी माणसाचा चोरावा सदरा

कुणी असे सुखी, जगी सांगा जरा.

 

धन-दौलत आहे चिंता खातसे

ज्ञानी परंतु समाजाची ती कारा.

 

राजा प्रजेचा शत्रु सिंहासनार्थी

बंधू-भाव छळती कौरवी नारा.

 

रित प्रत्येकाची स्वार्थ प्रमाणात

शोध आत्मानंदी व्यर्थ चंद्र-तारा.

 

सुखी माणसाचा चोरावा चेहरा

डोळ्यात आसवे माया शिरजोरा.

 

फासूनीया रंग भुमिका साधतो

विदुषक जीवनात दैव दोरा.

 

सुखी माणसाचे चोरावे काळीज

विकारदुषित मौज नशा भारा.

 

© श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 158 ☆ सुरैय्या ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 158 ?

☆ सुरैय्या ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

मी खूप वर्षांनी पाहिलं तुला,

फेसबुक वर!

तू माझ्याच वयाची—

एकेकाळची मैत्रीण!

तू स्विकारलीस माझी रिक्वेस्ट,

पण साधला नाहीस संवाद!

तू उच्च शिक्षित,

उच्चपदस्थ  !

 

 जेव्हा जमलं आपलं मैत्र,

तेव्हा होतो आपण,

एकाच नावेतल्या प्रवासी!

खरंतर गृहिणीच…आईसुद्धा!

पण शिकत होतो,

आपापल्या वकुबानुसार!

 

बराच मोठा असतो गं,

पस्तीस चाळीस वर्षाचा कालखंड…

आणि आयुष्यात झालेली उलथापालथही!

तरीही ओळखलं आपण एकमेकींना!

जिथे भेटलो होतो कधी,

ते बालगंधर्व….

बकुळीचे वळेसर…

विस्मरणात गेले होते खरेतर..

पण परवा बालगंधर्वमधले,

फोटो तू लाईक केलेस….

तेव्हा आठवला बकुळीचा गंध..

आणि तू !

 

तेव्हा मी तुला

 “सुरैय्या” सारखी दिसतेस म्हटलं होतं..

आणि तू म्हणालीस….

लग्न झाल्यापासून माझा नवरा

मला कधीच म्हणाला नाही…

“तू सुंदर दिसतेस”

 

बस्स इतकंच आठवतंय!

आणि नाही जाणून घ्यावसं वाटत

पुढचं काहीच….

 

फेसबुकच्या पानावर,

तू आजही भासतेस सुरैय्याच…

अधिक ग्रेसफुल!

सा-या प्रगल्भ जाणिवा सांभाळत!

 

मी पुसून टाकते,

मनातले असंख्य प्रश्न….

आणि नाही जाणू इच्छित….

तीन अंकी नाटकातले…

पुढचे दोन !

© प्रभा सोनवणे

३ नोव्हेंबर २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेच्या उत्सव ☆ बालदिन… ☆ सौ. जयश्री पाटील ☆

सौ. जयश्री पाटील

? कवितेच्या उत्सव ?

☆ बालदिन … ☆ सौ. जयश्री पाटील ☆

पहिले पंतप्रधान स्वतंत्र भारताचे

प्रभावी वक्ते आणि दूत होते शांतीचे

 

हसरा टपोरा गुलाब शोभे त्यांच्या कोटावर

खूप खूप प्रेम करत ते लहान मुलांवर

 

मुलांना पण होता फारच लळा त्यांचा

लाडाने हाक मारत त्यांना नेहरू चाचा

 

रात्रंदिवस स्वप्न पाहायचे ते शांतीचे

न भांडता भविष्य उज्वल बनविण्याचे

 

त्यांचे स्वप्न आपल्याला खरं खरं करायचंय

म्हणून तर अभ्यास नी योग्य ते करायचंय

 

वाढदिवस त्यांचा करतो आपण साजरा

बालदिन म्हणूनच आवडतो मुलांना खरा

 

© सौ. जयश्री पाटील

विजयनगर.सांगली.

मो.नं.:-8275592044

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ संस्कृत साहित्यातील स्त्रिया…5 – वसंतसेना ☆ डॉ मेधा फणसळकर ☆

डॉ मेधा फणसळकर

? विविधा ?

☆ संस्कृत साहित्यातील स्त्रिया…5 – वसंतसेना ☆ डॉ मेधा फणसळकर ☆ 

हल्लीच काही दिवसांपूर्वी “गंगुबाई काठियावाडी” चित्रपट प्रदर्शित झाला. त्यात गंगुबाईच्या तोंडी एक वाक्य आहे. ती म्हणते, “ वेश्यांशिवाय स्वर्गसुद्धा अधुरा आहे.” शाश्वत सत्यच तिच्या तोंडून सांगितले आहे असे मला वाटते. कारण वास्तविक ज्या वेश्यासमाजाला आपल्या संस्कृतीत एका वेगळ्या दृष्टीने पाहिले जाते त्या समाजमुळेच पांढरपेशा समाज सुदृढ आहे. त्यामुळे तो चित्रपट पाहताना मला ‛शुद्रक’ या संस्कृत नाटककाराने लिहिलेल्या ‛मृच्छकटिक’ या नाटकाची आठवण झाली.

या मृच्छकटिक नाटकाची नायिका ‛वसंतसेना’ हीसुद्धा एक गणिका असते आणि थोड्याफार फरकाने समाजाचा अशा स्त्रियांकडे बघण्याचा दृष्टीकोनही तोच आहे. फक्त त्या काळी गणिका आणि वेश्या यांच्यात किंचित फरक असा होता की गणिका केवळ नृत्य- संगीत या माध्यमातून पुरुषांचे मनोरंजन करत असत. आणि वेश्या शरीरविक्रय करत असत.

संतसेना आणि चारुदत्त यांच्या प्रेमाची ही कहाणी आहे. याशिवाय अनेक सामाजिक- राजकीय संदर्भ या नाटकात आहेतच. चारुदत्त हा एक अतिशय श्रीमंत ब्राह्मण असतो. पण आपल्या अति परोपकारी स्वभावाने आपली सर्व संपत्ती गमावून बसतो. याउलट वसंतसेना गणिका असूनही अतिशय श्रीमंत असते आणि सुखासीन आयुष्य जगत असते. चारुदत्ताच्या निर्व्याज स्वभावामुळे ती त्याच्याकडे आकर्षित होते आणि चारुदत्तही तिच्या प्रेमात पडतो. वास्तविक चारुदत्ताचे लग्नही झालेले असते आणि त्याला एक लहान मुलगाही असतो. परंतु त्या काळात पुरुषांनी असे गणिकांशी संबंध ठेवणे अयोग्य मानले जात नसावे. त्यामुळे चारुदत्ताची पत्नीही वसंतसेनेशी मित्रत्वाच्या नात्याने वागत असते.

एकदा काही गुंड मागे लागल्याने अचानक वसंतसेना चारुदत्ताच्या घरी येऊन लपते. तिला ते चारुदत्ताचे घर आहे हे माहीत नसते. पण त्याचवेळी अंगणात खेळणारा चारुदत्ताचा मुलगा आपल्या दासीकडे खेळण्यासाठी सोन्याची गाडी दे म्हणून हट्ट करत असतो. त्याच्या मित्राची तशी गाडी असते. म्हणून त्याला हवी असते. पण विपन्नावस्था प्राप्त झालेल्या चारुदत्ताकडे मुलाला द्यायला सोनेच नसते. त्यामुळे ती दासी त्या बालकाची समजूत काढत त्याला मातीची गाडी खेळायला देते. हा सर्व प्रसंग पाहणारी लपलेली वसंतसेना त्यावेळी लगेच बाहेर येते व आपले सर्व दागिने काढून त्या खेळण्याच्या गाडीत ठेवते.  ते बघून तो बालक अतिशय खुश होतो. वसंतसेनेमध्ये असलेली सहृदयता यात दिसून येतेच. पण धनाविषयी असणारी तिची अनासक्तीही यातून दिसून येते. धनापेक्षाही एखाद्याच्या भावना श्रेष्ठ आहेत असे मानणारी वसंतसेना म्हणूनच अधिक भावून जाते. 

वसंतसेना जरी गणिका असली तरी तिलाही स्त्रीसुलभ भावना होत्याच. कलेच्या माध्यमातून पुरुषांचे मनोरंजन करणे  हा तिचा व्यवसाय असला तरी मनाने ती चारुदत्तावर प्रेम करत असते. आणि आपले हे प्रेम चारुदत्ताकडे व्यक्त करण्याचे धाडसही ती दाखवते. शिवाय एकदा ती आणि चारुदत्त भेटण्याचे ठरलेले असते. पण प्रचंड वादळ होत असतानाही केवळ चारुदत्तावरील प्रेमापोटी ती त्या वादळातही त्याला भेटायला बाहेर पडते. यातून तिची साहसी वृत्ती दिसून येते.

वसंतसेनेशी आई थोडी लोभी असते. त्यामुळे काही धनाच्या बदल्यात ती राजाच्या मेहुण्याला आपली मुलगी द्यायला तयार होते. हे वसंतसेनेला कळल्यावर ती त्यासाठी स्पष्ट नकार देते व आईला सांगते की “जर तू मला जिवंत पाहू इच्छित असशील तर पुन्हा कधीही असे काम करणार नाही.” यातून वसंतसेनेचा निग्रही स्वभाव दिसून येतो. त्याचबरोबर अन्यायाविरुद्ध लढण्याची वृत्तीही दिसून येते.

तिला नाईलाजाने हा व्यवसाय निवडावा लागलेला असतो. वास्तविक आपले घर, संसार, मुले यामध्ये रममाण होऊन सामान्य स्त्रियांप्रमाणे संसार करण्याची तिची इच्छा असते. तिची ही इच्छा कितपत पूर्ण होईल हे तिला माहीत नसते. पण जेव्हा तिची दासी एका तरुणावर प्रेम करते हे तिला समजते तेव्हा ती तात्काळ तिला दास्यत्वातून मुक्त करते आणि तिला आनंदाने सुखाचा संसार करण्यास मदत करते. आपल्याला असे सुख मिळेल की नाही याची शाश्वती नसतानाही दुसऱ्याच्या सुखात आपले सुख शोधणारी वसंतसेना त्यामुळे अधिक श्रेष्ठ ठरते.

अशाप्रकारे समाजातील एका वेगळ्या स्तरातील स्त्रीचे चित्रण शुद्रकाने या नाटकात केले आहे. अतिशय वेगळ्या संस्कारात वाढलेली असूनही तितकीच सुसंस्कृत, उत्तम नर्तिका, उत्तम गायिका आणि सौंदर्यवती असणारी वसंतसेना म्हणूनच नारीशक्तीचे एक वेगळेच रूप आहे.

© डॉ. मेधा फणसळकर

सिंधुदुर्ग.

मो 9423019961

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ती साडी… – भाग-१ ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे

? जीवनरंग ❤️

 ☆ ती साडी… – भाग-१ ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆ 

आर्ट कॉलेजची मुलं, मुली नामवंत चित्रकार रेणूजी यांच्या घरातून रागारागानंच बाहेर पडली. त्या आपल्या गावात सेटल झाल्यात याचं त्यांना खरं तर मोठं कौतुक होतं. त्यांना भेटावं… आपली पेंटिंग्ज दाखवावीत… त्यांच्या मार्गदर्शनाचा लाभ घ्यावा ,म्हणून मोठ्या उत्साहाने त्यांनी त्यांची अपॉइंटमेंट घेऊन त्यांच्या बंगल्यात पाऊल टाकलं होतं.

पण एका तुसड्या, घमेंडी, माणूसघाण्या महिलेशी आपली गाठ पडेल असे त्यांना वाटलेच नव्हते.

” काय त्यांची अरेरावी… आपल्या पेंटिंग्जकडे बघून शंभर चुका काढणे…. त्याला टाकाऊ म्हणणे….छीऽऽ ती बाई माझ्या डोक्यात गेलीय यार.” एक जण म्हणाली. “कलाकार लहरी असतात असा एक समज आहे, आपण पण नवोदित कलाकारच आहोत .आपल्या रेषा पण बोलक्या आहेत. इतके टाकाऊ तर आपण निश्चितच नाही आहोत.”दुसरा एकजण पोट तिडकीने म्हणत होता. “आपण आहोत का असे लहरी ,बेछूट?” आणखी एक जण म्हणाली. तिच्यावर वेगवेगळ्या कॉमेंट पास करत सगळे युवा आपला राग व्यक्त करत तिच्या बंगल्यातून बाहेर पडले.

त्या विद्यार्थ्यांचे म्हणणे खरेच होते. खरेच रेणुने आजवर कधीच कोणाची पर्वा केली नव्हती. आपण किती महान आहोत हे दाखवायचा नेहमीच तिचा प्रयत्न असायचा.” ओ शिट्,” माझा किती टाइम वेस्ट केला या नवशिक्यांनी!” बडबडत ती आपल्या वरच्या मजल्यावरच्या स्टुडिओत गेली… आणि आपल्या कामात बुडून गेली.’थोड्या पेंटिंग्जवर काम करणं बाकी आहे. ते झालं की मुंबईत एक्झिबिशनला पेंटिंग्ज पाठवायला आपण मोकळ्या.’काम झाल्यावर  आळोखे पिळोखे देत रेणू विचार करत होती. ‘चला आता उद्या तयार झालेले कॅनव्हास खाली.. ड्रॉईंगरूममध्ये आशा मावशीं कडून ठेवून घ्यावेत’ आपल्या कलाकृती न्याहाळत न्याहाळत ती खाली आली.

संध्याकाळची वेळ….हातात ड्रिंकचा ग्लास घेऊन… मनपसंत म्युझिक लावून त्याच्या तालावर ती थिरकू लागली.

फोन वाजला…चंदनचा तर सकाळीच येऊन गेला… ‘आता कोण?’मनात म्हणत तिने फोन उचलला.’ ओऽह,चंदनची आई!’….कपाळावर आठ्यांचं जाळं झालं, “हॉं ऑन्टी बोला…” सासूला उद्देशून ती म्हणाली. बोलणं संपलं तशी तिने फोन सोफ्यावर भिरकावून दिला. विचार चक्र चालूच होतं ‘ट्रेनमध्ये बसल्यावर फोन केलाय म्हातारीने ….उद्या सकाळी  इथे येऊन धडकेल ती. चंदन इथं नाही हे माहीत असून सुद्धा येतेय. लग्न केलं तेव्हाच आपण हे सगळ्यांना सांगून टाकलतं की चंदन व्यतिरिक्त त्याच्या इतर कोणत्याही नातेवाईकांशी आपले कोणतेही नातं नसणार आहे…. तरीही येतेय… स्टुपिड!’ “छट्, माझा सगळा मूडच घालवून टाकला हिनं”पुटपुटत ती टीव्ही समोर बसून राहिली. बराच वेळ…. सकाळी सासूबाई समोर दिसल्या तशी त्यांच्याकडे दुर्लक्ष करून रेणू वरच्या मजल्यावर निघून गेली… त्या क्षणीच सासूबाईंचा चेहरा पडला. त्यांचा  खूप विरस झाला होता. पण समोरूनच, सगळं घर पुढाकार घेऊन सांभाळणाऱ्या मेड्-आशा मावशींना- लगबगीने येताना पाहून त्या जरा सावरल्या. आशा मावशींनी त्यांच्या हातातली बॅग घेऊन, गेस्ट् रूमध्ये ठेवून, त्यांच्या चहा नाश्त्या बद्दल विचारणा केली.  “नको, खरं तर आता एकदम जेवेनच. “सासूबाई म्हणाल्या.

आज जरा लवकरच त्या जेवायला बसल्या. रेणू रोजच्या वेळी खाली उतरली.अन् टेबलावर सज्ज असलेलं आपलं डाएट फूड खाऊ लागली. जशी ती पुन्हा वरच्या मजल्यावर जायला वळली तशी सासूबाई म्हणाल्या,” थांब रेणू, पुढच्या आठवड्यात मी युएस ला नंदूकडे जातेय.मुलाची मुंज  करतोय ना तो तिकडे. तुला चंदनने सांगितलंच असेल. तो पण… त्या दिवसात ….तिकडेच असणारेय.तू पण आलीस तर सगळ्यांना छानच वाटेल. ह्या बघ तुम्हा दोघी जावांसाठी एक सारख्या साड्या घेतल्यात.त्यातली तुला कोणती आवडलीय ते सांग,अन् काढून घे . आठ आठ हजाराची एक साडी. बघ टेक्श्चरआणि कलर कॉम्बिनेशन चांगलंआहे ना. तुझी कलाकारची नजर.”… त्या आपलेपणानं बोलत त्याची किंमत पण सांगून गेल्या.

रेणूच्या कपाळावरील आठ्यांचं जाळं त्यांना दिसलंच नाही .तिने एक साडी उचलली तशी त्या खुश झाल्या. तोवर तिचे पुढचे शब्द त्यांच्या कानावर पडले,” मी साडी कुठे नेसते?… हॉं , कधीकधी खास प्रसंगी नेसते….ती पण पंचवीस तीस हजारांच्या खालची नसते. ही चिप साडी….ओऽह नो!..”

सासुबाईंना खूप अपमानित झाल्यासारखं वाटलं…. त्यांचे डोळे भरून आले. पण तोवर एकदम अंगात कसला तरी झटका आल्यागत रेणू मागे फिरली. स्वत: खाली फेकलेली साडी तिने उचलली. घडी मोडून त्याच्या नि-या करून तिने हाक मारली, “आशा मावशीऽ”त्यांना समोर बघून ती साडी तिनं त्यांच्या खांद्यावर टाकली,”ही घ्या आजीच्या नातवाच्या मुंजीची  साडी”एवढे दात कटकट करत  बोलून ती तेथून निघून गेली.

क्रमशः …

© सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ कालबाह्यतेचा सापळा.. लेखक – अज्ञात ☆ संग्राहक – सुश्री कालिंदी नवाथे ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ कालबाह्यतेचा सापळा.. ☆ संग्राहक – सुश्री कालिंदी नवाथे ☆

जानेवारी १९२५…

स्वित्झर्लॅंडच्या जिनिव्हा या शहरामध्ये एक खास उद्योगसमूहाने एक गुप्त सभा आयोजित केली गेली होती.

विजेवर चालणारे प्रकाशदिवे (बल्ब) बनवणारे सर्व आघाडीचे उत्पादक त्या मिटींगमध्ये सहभागी झाले होते.

बल्बचा शोध लागून एव्हाना नव्वद वर्ष झाली होती. सुरुवातीच्या काळातले बल्ब अत्यंत निकृष्ट दर्जाचे आणि अल्पायुषी होते पण त्यात प्रचंड सुधारणा होत गेल्या. १९२० पर्यंत तब्बल अडीच हजार तासांचे आयुष्य असणारे दर्जेदार आणि दिर्घायुषी बल्ब बाजारात उपलब्ध व्हायला लागले होते. जनता बल्बवर खूश होती.  पण कोणालातरी बल्बचे इतके दीर्घजीवी असणे खटकत होते.

ते कोण होते?—-

साक्षात बल्ब उत्पादक…

कारण त्यांना वाटत होते की प्रत्येक आवृतीनंतर बल्बचे आयुष्य वाढत जाणे हे त्यांच्या धंद्याच्या दृष्टीने धोक्याचे आहे.

जिनिव्हाच्या त्या मिटींगमध्ये इंटरनॅशनल जनरल इलेक्ट्रिक,ओसराम, फिलिप, टंगस्राम, असोसिएटेड इलेक्ट्रिकल इंडस्ट्रीज, या सर्व जागतिक आघाडीच्या बल्बनिर्मात्यांनी एक गुप्त करार केला.—- ‘ आपल्या दीर्घकालीन हितासाठी आणि येणाऱ्या काळात भरघोस नफा मिळवण्यासाठी ते सर्वजण मिळून निकृष्ट दर्जाच्या अल्पायुषी बल्बचीच निर्मिती करतील.’ —–

त्या सर्वांनी या कराराचे इमानेइतबारे पालनही केले. पूर्वी अडीच हजार तास चालणारे बल्ब बाजारातून नामशेष झाले.

१९२५ नंतर बाजारात येणारे बल्ब फक्त एक हजार तास चालू लागले. आयुष्य घटले आणि साहजिकच बल्बची मागणी वाढली. खप वाढला. निकृष्ट दर्जाचे बल्ब आधीच्या किंमतीत विकून कंपन्यांनी ग्राहकांना मनसोक्त लूटले होतेच. आता आयुष्यमान कमी झाल्यामुळे विक्रीही दुप्पट तिप्पट झाली. बल्ब विक्रेत्यांची चांदीच चांदी झाली.

उत्पादनाचा दर्जा घसरवूनही पैसे कमवता येतात हे नवेच गुपित उद्योगजगताला माहीत झाले. बल्ब कंपन्यांच्या त्या एकत्र येऊन सापळा रचणाऱ्या कंपन्यांना ‘ फिबस कार्टेल ‘  या नावाने ओळखले जाऊ लागले. वस्तूंचा दर्जा घसरवून पैसे कमवण्याच्या त्यांच्या क्लूप्तीला म्हणतात— “ प्लॅन्ड ओबसोलेसेंस.’ 

खरंतर हा सापळा आहे. मराठीत याला ‘ नियोजित अप्रचलन ‘ असे म्हणता येईल.— सोप्या शब्दात एखादी वस्तू लवकर कालबाह्य करुन ग्राहकाला पुन्हा एक नवी खरेदी करायला भाग पाडणे असे याचे वर्णन करता येईल.

दहा पंधरा वर्षापूर्वीचे मोबाईल फोन चांगले पाच पाच वर्ष चालायचे. हल्ली मात्र कितीही भारीचा घेतला तरी एक स्मार्टफोन दोन तीन वर्षापेक्षा जास्त टिकूच शकत नाही—- कारण तेच—– नियोजित अप्रचलन.

जाणून बुजून फोनची रचनाच अशी केली जाते की तीन चार वर्षात फोन निकामी व्हावा. जुने उत्पादन टिकाऊ असेल तर कंपनीने निर्माण केलेले नवे उत्पादन कोण घेईल?— लाखो कोटी रुपयांचा बिजनेस हवा असेल तर पूर्वीच्याच ग्राहकांना पुन्हा खरेदी करायला भाग पाडले पाहिजे.

आजची बहूतांश उत्पादने याच धर्तीवर बनवली जातात. पूर्वीचे टीव्ही वीस वीस वर्ष चांगले चालायचे. आताच्या एल ई डी मधे पाच सात वर्षात पट्ट्यापट्ट्या दिसायला लागतात.

१००० वेळा पुन्हा पुन्हा दाढी करता येईल आणि स्वच्छ करुन पुन्हा पुन्हा वापरता येतील अशा टिकाऊ ब्लेड बनवण्याचे तंत्रज्ञान आज उपलब्ध आहे. पण कोणतीही नामांकित कंपनी तशा प्रकारच्या ब्लेड बनवण्यात पुढाकार घेत नाही.—- कारण मग सोन्याची अंडी देणारा बिजनेस कायमचा बसेल.

लहानपणी पेनमधील शाई संपली की नवी रिफील घ्यायची प्रथा होती. आता पेन कचऱ्यात फेकून नवीन पेन घ्यायची प्रथा रुजली आहे. आजही जेव्हा पेनच्या रिफीलचा शोध घेतो तर बहुतांश पेनच्या रिफीलच मिळत नाहीत.—- 

कारण तेच—- मग दुप्पट किंमतीला विकले जाणारे नवे पेन कोण विकत घेईल?

या नियोजित अप्रचलन नावाच्या विकृत व्यापार फंड्यामुळेच “ वापरा आणि फेका “ नावाचा भस्मासुर जन्माला आला.

सुंदर निसर्गाचे एका विशाल कचराकुंडीत रुपांतर व्हायला लागले—-

—कपडे विटले, फेकून द्या— शुज उसवले, फेकून द्या— लॅपटॉप खराब झाला, दुरुस्तीऐवजी नवाच घ्या— इस्त्री चालेना झाली, नवीन घ्या— मिक्सर बिघडला, नवीन घ्या — वॉशिंग मशीन खराब झाली, नवे मॉडेल घ्या.

—पंधरावीस वर्षांखालच्या गाड्यांचे स्पेअरपार्ट मिळत नाहीत, आणि उपभोक्ता कंटाळून गाडी कवडीमोल भावात विकून नवी गाडी घेण्याच्या तयारीला लागतो.

—एकदा माऊस कीबोर्ड खराब झाला की फेकून द्यावा लागतो.

—लाईटच्या माळा, चार्जर, हेडफोन इत्यादी  इलेक्ट्रीक उपकरणांना दुरुस्त करणे ही संकल्पनाच आता मोडकळीला आलेली आहे.

फुटबॉल किंवा क्रिकेटमध्ये प्रत्येक वर्षी प्रत्येक संघामध्ये नव्या प्रकारच्या जर्सीची ब्रॅंड न्यू  डिझाईन लॉंच केली जाते.

—संघ तोच — खेळाडू तेच — प्रत्येक मौसमात अवतार मात्र नवा असतो.— कारण प्रेक्षकांना शर्टपॅंटचे नवे जोड विकायचे आहेत— चाहत्यांना सामन्याला जाताना मागच्या वेळीचा शर्ट घालताना लाज वाटते — सर्वजण त्यांच्याकडे गरीब आहे असा दृष्टिकोन टाकतील म्हणून तो आपल्या आवडत्या संघासाठी नवी जर्सी आनंदाने खरेदी करतो.

भारतात कमी असले तरी विदेशांमध्ये ही क्रेझ मोठ्या प्रमाणात दिसते.

नियोजित अप्रचलनाचा आणखी एक छोटा भाऊ आहे. —- तो म्हणजे ‘ समंजस अप्रचलन ‘ (पर्सिव्हड ऑबसोलेसेंस).—–

—–यामध्ये तुमची कार आता जुनी झाली आहे, पर्यायाने तुम्ही आऊटडेटेड झाले आहात, असे तुमच्या मनावर बिंबवण्यात येते.

—-जाणूनबुजून आणि प्रयत्नपूर्वक तुमच्या वापरात असलेल्या जुन्या वस्तूंविषयी तुमच्या मनात उदासीनता आणि न्यूनगंड निर्माण केला जातो.

—–एखादी वस्तू विकत घेतली नाही तर तुमचे व्यक्तिमत्व अधुरे अपूर्ण आहे असे जाहिरातींच्या माध्यमातून सुप्त मनावर पुन्हा पुन्हा ठसवले जाते.

—-साधे भोळे लोक खोट्या प्रतिष्ठेपायी या चतुर लोकांनी रचलेल्या जाळ्यात अलगद अडकतात.

—-स्वतःला उच्चशिक्षित मानणारा सुजाण श्रीमंत वर्ग या कंपन्यांच्या तावडीत सापडतो आणि आवश्यकता नसताना कधी मजबुरीने नवी खरेदी करतो.

—-त्यांना वारंवार सांगितल्या गेलेल्या उत्पादनांची ते आज्ञा पाळल्यासारखी निमूटपणे खरेदी करतात.

—- कधी दिखावा करण्यासाठी, कधी छाप पाडण्याच्या नावाखाली, कधी स्वतःचा अहं पोसण्यासाठी, कधी स्टेटस मेंटेन करण्याच्या नावाखाली अव्याहत खरेदी सुरूच असते. कोणतीही नवी खरेदी करण्याआधी ‘ मला या वस्तूची खरंच तीव्र गरज आहे का ‘  याचा समग्र विचार करण्याची त्यांची आकलनशक्तीच त्यांनी हळूहळू गमावलेली असते.

लठ्ठ पगार कधीही एकटा येत नाही. येताना तो चंगळवादालाही सोबत घेऊन येतो. नवश्रीमंतांच्या बाबतीत तर हे हमखास घडते—- महागड्या ठिकाणी पार्ट्यांना जाणे.— आधी भरपूर वाढून घेणे आणि नंतर जात नाही म्हणून ताटात तसेच अन्न टाकून देणे ही याचीच लक्षणे असतात.

——आर्थिक सुबत्ता असूनही ज्याने संयम गमवला नाही आणि जो सत्व पाळू शकला तोच खरा भाग्यवान. 

——वस्तूंना रुपयां-पैशात तोलणारी माणसं खरी कर्मदरिद्री. ती बनवण्यासाठी लागणारी साधनसंपत्ती, त्याच्या निर्मितीसाठी घेतले गेलेले कष्ट या सर्वांचे मोल ज्याला समजले तो खरा सुजाण…

बिजनेस माईंडच्या चतुर पण मुठभर लोकांनी पर्यावरणाचा बट्ट्याबोळ केला आहे. स्वतःच्या तुंबड्या भरण्यासाठी उभ्या जनतेला आणि त्यासोबत निसर्गाला त्यांनी स्वतःच्या दावणीला बांधले आहे. श्रीमंत लोकांच बरं आहे.

ते फक्त पैसे देऊन किंमत चुकवतात.—– पण गरीब लोक आपलं आयुष्य देऊन अप्रचलनात बळी जातात.

जल-प्रदूषण, भू-प्रदूषण आणि हवा-प्रदूषणाचे सर्वात गंभीर परिणाम त्या देशातील दारिद्र्यरेषेवर झगडणाऱ्या नाजूक नाशवंत लोकसंख्या घटकावरच होतो.

हे बदलायला हवे.—-

—तुम्ही तयार आहात का? प्रत्येक खरेदी सजगपणे करा— वापरा आणि फेकाच्या गोंडस सापळ्यात अडकू नका.

अप्रचनलाचे नवे बळी बनू नका…!!

लेखक :  अज्ञात 

संग्राहिका : सुश्री कालिंदी नवाथे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ तक्रारपेटी… प्रा.विजय पोहनेरकर ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ तक्रारपेटी… प्रा.विजय पोहनेरकर ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

( सुखी व्हायचे असेल तर ! )

समोरच्या व्यक्तीच्या वागण्यावर जर तुमचा आनंद अवलंबून असेल तर तुम्ही कधीच आनंदी होऊ शकणार नाही

आपलं सुख , आपला आनंद समोरचा व्यक्ती कसा वागतो यावर depend असणं हेच माणसाच्या दुःखाचं मूळ कारण असतं

त्यामुळे आपला आनंद दुसऱ्याच्या हातात देऊ नका !

आपल्या आनंदाची , सुखाची , समाधानाची सांगड ज्यांना स्वतःच्या कृतीशी निगडित ठेवता येते तीच माणसं थोड्या फार प्रमाणात खुश राहू शकतात !

 

किती दिवस झाले मला त्यांनी फोनच केला नाही , अरे मग तू फोन कर !

मी त्यांच्याकडे गेलो तर मला ते बोललेच नाहीत , अरे मग तू बोल !

त्यांनी मला फोटो काढतांना बोलावलंच नाही ,  मग तू त्यांना बोलव !

खरं सांगू का अशा तक्रार करण्याच्या स्वभावातून तात्काळ बाहेर पडा !

 

आयुष्य म्हणजे तक्रारपेटी नाही !

नियतीने आपल्याला जीवन हे जगण्यासाठी दिलेले आहे , तक्रार करत सुटण्यासाठी नाही !

हा माणूस किंवा ही बाई नेहमी कुणाची न कुणाची तक्रार करत राहते असा शिक्का जर तुमच्यावर बसला तर तुम्हाला कोणीही जवळ करणार नाही !

म्हणून सुखी व्हायचं असेल , आनंदी रहायचं असेल तर Complain box होऊ नका !

आपले विचार दुसऱ्यावर लादायचे नाहीत आणि दुसऱ्याचे विचार लादून घेऊन आपल्या मनाविरुद्ध वागायचं नाही हे साधं सूत्र ज्याला अंमलात आणता येतं तोच व्यक्ती आनंदी , हसतमुख राहू शकतो !

आनंद किंवा सुख ही काही वस्तू नाही , त्यामुळे आपण त्याची खरेदी करू शकत नाही !

जी गोष्ट बाजारात उपलब्धच नाही , त्या गोष्टीचा खरेदीविक्रीशी काही संबंधच नसतो !

 

याचाच अर्थ आनंद , सुख , समाधान , शांती या गोष्टींचा आणि आपण गरीब श्रीमंत असण्याचा काहीही संबंध नाही !

 

दैनंदिन जीवनातील छोट्या मोठ्या गोष्टीने disturb होऊन दुःखी होऊ नका !

 

एखाद्या वेळेस ऑफिस मधली तुमच्या हाताखालची माणसं तुमचं ऐकतील , कारण तुम्ही त्यांचे ” साहेब ” असता !

ऐकणाऱ्याचं भलं किंवा नुकसान करण्याची क्षमता तुमच्या हुद्याने तुम्हाला दिलेली असते , हे ही एक कारण असू शकते !

Where as घरातली माणसं तुमचं ऐकतीलच असं नाही , कारण घरी आपण एकमेकांचे नातेवाईक असतो , साहेब किंवा चपराशी नाही !

त्यामुळे घराचे ऑफिस आणि ऑफिसचे घर करण्याचा प्रयत्न करू नका !

जीवन खूप सोप्प आहे , जगणं खूप सुंदर आहे 

फक्त दुःखाचा पाढा वाचायचा नाही आणि सुखाचा पेढा नेहमी अपेक्षित करायचा नाही , एवढंच  !

 

लेखक : प्रा.विजय पोहनेरकर, औरंगाबाद

9420929389

संग्राहक – अमोल केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈
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