हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 112 – ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ेगी ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #112 🌻  ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ेगी 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा बहुत ही महत्वाकांक्षी था और उसे महल बनाने की बड़ी महत्वाकांक्षा रहती थी उसने अनेक महलों का निर्माण करवाया!

रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित रहती थी की पता नहीं क्या करेंगे इतने महल बनवाकर!

एक दिन राजा नदी के उस पार एक महात्मा जी के आश्रम के पास से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधि थी और सैनिकों से राजा को सूचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सूचना उन्होंने किसी को न दी पर अंतिम समय में उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ ज़मीन में गड़वा दिया और कहा की जिसे भी वह खजाना चाहिये उसे अपने स्वयं के हाथों से अकेले ही इस समाधि से चौरासी हाथ नीचे सूचना पड़ी है निकाल ले और अनमोल सूचना प्राप्त कर लें और ध्यान रखे कि उसे बिना कुछ खाये पीये खोदना है और बिना किसी की सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी !

राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वह शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई!

उस पर लिखा था हे राहगीर संसार के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही है तुम कितने भी महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हें इसी मिट्टी मे मिलना है!

सावधान राहगीर, जब तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना की जैसे ये चौरासी हाथ का कुआं तुमने अकेले खोदा है बस वैसे ही आगे की चौरासी लाख योनियों में तुम्हें अकेले ही भटकना है और हे राहगीर! ये कभी न भूलना कि “मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग-अलग है।”

फिर राजा जैसे-तैसे कर के उस कुएँ से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर कर रख दिया और सारे महल जनता को दे दिये और “अंतिम घर” की तैयारियों मे जुट गया!

हमें एक बात हमेशा याद रखना चाहिए कि इस मिट्टी ने जब रावण जैसे सत्ताधारियों को नहीं बख्शा तो फिर साधारण मानव क्या चीज है? इसलिये ये हमेशा याद रखना कि मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी में मिलना है क्योंकि ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ने वाली है!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ज्योतिष साहित्य ☆ साप्ताहिक राशिफल (31 अक्टूबर से 6 नवंबर 2022) ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

विज्ञान की अन्य विधाओं में भारतीय ज्योतिष शास्त्र का अपना विशेष स्थान है। हम अक्सर शुभ कार्यों के लिए शुभ मुहूर्त, शुभ विवाह के लिए सर्वोत्तम कुंडली मिलान आदि करते हैं। साथ ही हम इसकी स्वीकार्यता सुहृदय पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं। हमें प्रसन्नता है कि ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के विशेष अनुरोध पर साप्ताहिक राशिफल प्रत्येक शनिवार को साझा करना स्वीकार किया है। इसके लिए हम सभी आपके हृदयतल से आभारी हैं। साथ ही हम अपने पाठकों से भी जानना चाहेंगे कि इस स्तम्भ के बारे में उनकी क्या राय है ? 

☆ ज्योतिष साहित्य ☆ साप्ताहिक राशिफल (31 अक्टूबर से 6 नवंबर 2022) ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

हम अपनी असफलता का ठीकरा समय पर या भाग्य पर फोड़ देते हैं । कहा भी गया है

कंधों पर उम्मीदों का एक बोझ है साहब,

हार जाता हूं हर बार, पर जीतना एक रोज है.।

साप्ताहिक राशिफल आपको इसी समय के बारे में बताता है कि इस सप्ताह आपका भाग्य आपकी कितनी मदद करेगा । पंडित अनिल पांडे का आप सभी को नमस्कार । मैं अब आपके सामने 31 अक्टूबर से 6 नवंबर 2022 अर्थात विक्रम संवत 2079 शक संवत 1944 की कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तक के सप्ताह की साप्ताहिक राशिफल के बारे में आपको बताऊंगा।

इस सप्ताह चंद्रमा प्रारंभ में धनु राशि में रहेगा । इसके उपरांत मकर कुंभ मीन से होता हुआ 6 नवंबर को रात के 12:30 से मेष राशि में प्रवेश करेगा । पूरे सप्ताह सूर्य वृश्चिक राशि में ,मंगल मिथुन राशि में वक्री, बुध तुला राशि में ,गुरु मीन राशि में वक्री, शनि मकर राशि में ,शुक्र तुला राशि में,और राहु मेष राशि में रहेंगे। आइए अब हम राशिफल की चर्चा करते हैं।

मेष राशि

आप का स्वास्थ्य इस सप्ताह उत्तम रहेगा । अगर आप अविवाहित हैं तो विवाह के अच्छे प्रस्ताव आएंगे । आप दूरदेशी यात्रा पर जा सकते हैं । आपका व्यापार उत्तम चलेगा धन की प्राप्ति होगी कार्यालय में आपके प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी भाइयों से संबंध खराब हो सकते हैं । भाग्य आपका साथ देगा । आपके परिश्रम से आपके शत्रु पराजित हो सकते हैं ।

इस सप्ताह आपके लिए 1 और 2 नवंबर लाभप्रद है 5 और 6 नवंबर को आपको कोई भी कार्य बड़ी सावधानी से करना चाहिए इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप काले कुत्ते को रोटी खिलाएं । सप्ताह का शुभ दिन मंगलवार है।

वृष राशि

इस सप्ताह मुकदमे में आपकी जीत होगी । अगर आप रोगी हैं तो रोग से मुक्ति भी मिल सकती है ।शत्रुओं से संधि होगी । भाग्य आपका अच्छा साथ देगा । आपके संतान को कष्ट हो सकता है । इस सप्ताह आपके लिए 3 और 4 नवंबर सफलता दायक है । 31 अक्टूबर को आप कुछ कार्यों में असफल हो सकते हैं । इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप विष्णु सहस्त्रनाम का पूरे सप्ताह जाप करें । सप्ताह का शुभ दिन शुक्रवार है।

मिथुन राशि

इस सप्ताह आपका स्वास्थ्य उत्तम रहेगा । गलत रास्ते से धन आने का अच्छा योग है । ठीक रास्ते से भी धन प्राप्त होगा । आपके संतान की उन्नति हो सकती है । संतान से आपको मदद मिलेगी। छोटी मोटी दुर्घटना हो सकती है । इस सप्ताह आपके लिए 31 अक्टूबर तथा 5 और 6 नवंबर लाभदायक है। । 1 और 2 नवंबर को आपके कई कार्य असफल होंगे । आपको चाहिए कि आप इस सप्ताह शनिवार को दक्षिण मुखी हनुमान जी के मंदिर में जाकर कम से कम 3 बार हनुमान चालीसा का जाप करें । सप्ताह का शुभ दिन शनिवार है।

कर्क राशि

इस सप्ताह आपके शत्रुओं का नाश होगा परंतु इसके लिए आपको प्रयास करना पड़ेगा। आपके पेट और गर्दन में पीड़ा हो सकती है । स्वास्थ्य थोड़ा नरम गरम रहेगा । आप द्वारा सुख की प्राप्ति होगी । कोई बड़ा सामान खरीदा जा सकता है । आपकी आपके कार्यालय में प्रतिष्ठा बढ़ेगी। इस सप्ताह आपका भाग्य आपका बहुत ज्यादा साथ नहीं देगा । इस सप्ताह आपके लिए एक और दो नवंबर उत्तम फलदायक हैं । 31 अक्टूबर तथा 3 और 4 नवंबर को आप कई कार्यों में असफल हो सकते हैं । आपको चाहिए कि आप इस सप्ताह गुरुवार का व्रत करें । गुरुवार को रामचंद्र जी के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें तथा पूरे सप्ताह राम रक्षा स्त्रोत का जाप करें । सप्ताह का शुभ दिन बुधवार है।

सिंह राशि

इस सप्ताह आपका स्वास्थ्य सामान्य रहेगा । आपके जीवन साथी का स्वास्थ्य ठीक रहेगा । आपके क्रोध में वृद्धि होगी । भाग्य कम साथ दे सकता है। भाइयों और बहनों के साथ अच्छे बुरे संबंध रहेंगे । संतान से आपको कोई विशेष लाभ नहीं प्राप्त होगा । इस सप्ताह आपके लिए 3 और 4 नवंबर उत्तम और लाभकारी है । 1 और 2 नवंबर तथा 5 और 6 नवंबर को आपको सतर्क होकर कार्य करना चाहिए । इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप भगवान शिव का अभिषेक करें । सप्ताह का शुभ दिन बृहस्पतिवार है।

कन्या राशि

इस सप्ताह आपको धन प्राप्ति होने का बहुत उत्तम योग है । दुर्घटना से बचने का प्रयास करें । आपको अपने पुत्रयों से बहुत अच्छा सहयोग मिलेगा । कार्यालय में आपकी प्रतिष्ठा अच्छी रहेगी । अधिकारियों का आपको सहयोग प्राप्त होगा । आपका स्वास्थ्य ठीक रहेगा । आपके सुख में कमी आएगी । इस सप्ताह आपके लिए 31 अक्टूबर के दोपहर तक तथा 5 और 6 नवंबर लाभप्रद है । 3 और 4 नवंबर को आप शेयर इत्यादि मैं पैसा ना लगाएं । आपको चाहिए कि आप इस सप्ताह प्रतिदिन गाय को हरा चारा खिलाएं । सप्ताह का शुभ दिन रविवार है।

तुला राशि

आपका और आपके जीवन साथी का स्वास्थ्य ठीक रहेगा । भाग्य के स्थान पर परिश्रम पर ज्यादा भरोसा करें । भाग्य भी आपका ठीक-ठाक साथ देगा । आपके सुख में वृद्धि होगी । बड़ी गाड़ी , मकान या ऐसी ही कोई सुख वर्धक वस्तु आप खरीद सकते हैं।
मुकदमे में विजय मिलेगी । भाइयों से तकरार होगी ।पेट में पीड़ा हो सकती है । 1 और 2 नवंबर आपके लिए हितवर्धक हैं । 5 और 6 नवंबर को आपके कुछ कार्य ही सफल होंगे । आपको चाहिए कि आप इस सप्ताह शनिवार को दक्षिण मुखी हनुमान जी के मंदिर में जाकर हनुमान चालीसा का कम से कम 3 बार पाठ करें । सप्ताह का शुभ दिन बुधवार है।

वृश्चिक राशि

आपको कचहरी के कार्यों में सफलता मिलेगी । मुकदमे में विजय प्राप्ति होगी । शत्रुओं पर विजय प्राप्ति होगी । आपका और आपके जीवन साथी का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा । भाग्य सामान्य है । आपके साथ कोई दुर्घटना हो सकती है । आपकी संतान को कष्ट हो सकता है। इस सप्ताह आपके लिए 3 और 4 नवंबर फलदायक है । इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप पूरे सप्ताह विष्णु सहस्रनाम का प्रतिदिन जाप करें । सप्ताह का शुभ दिन बृहस्पतिवार है।

वृश्चिक राशि

आपका स्वास्थ्य ठीक रहेगा । जीवनसाथी को कष्ट हो सकता है । आपके पास धन आने का बड़ा सुंदर योग है। संतान से सुख मिलेगा । भाइयों के कष्ट समाप्त होंगे । सन्तान के साथ संबंधों में सुधार होगा । कार्यालय में आपको प्रतिष्ठा प्राप्त होगी । आपके सुख में कमी आएगी । इस सप्ताह आपके लिए 31 अक्टूबर , तथा 5 और 6 नवंबर लाभदायक है । आपको चाहिए कि आप इस सप्ताह गणेश अथर्वशीर्ष का प्रतिदिन पाठ करें । सप्ताह का शुभ दिन रविवार है।

मकर राशि

आपका स्वास्थ्य उत्तम रहेगा । जीवन साथी के स्वास्थ्य में थोड़ी खराबी आ सकती है । कार्यालय में आपकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी । अगर प्रमोशन का समय है तो प्रमोशन हो सकता है । आप सुख संबंधी कोई सामग्री क्रय कर सकते हैं। व्यापार में उन्नति होगी । शत्रुओं की पराजय होगी । भाग्य साथ देगा । भाइयों से संबंध खराब हो सकते हैं । इस सप्ताह आपके लिए 1 और 2 नवंबर श्रेष्ठ हैं । 31 अक्टूबर के दोपहर तक का समय आपके लिए कम ठीक है । इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप शुक्रवार को मंदिर में जाकर चावल का दान दें । सप्ताह का शुभ दिन बुधवार है।

कुंभ राशि

इस सप्ताह आपका था आपके जीवन साथी का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा । शत्रुओं की संख्या में वृद्धि होगी । आपके भाग्य में वृद्धि होगी । आपका क्रोध भी बढ़ेगा । आपके भाइयों का भला होगा । बहन के साथ आपका संबंध खराब हो सकता है । संतान से सहयोग प्राप्त होगा । इस सप्ताह आपके लिए 3 और 4 नवंबर उत्तम है । 31 अक्टूबर के दोपहर के बाद से और 1 और 2 नवंबर को आपको कम कार्यों में सफलता मिलेगी । आपको चाहिए कि आप इस सप्ताह मंगलवार का व्रत रहें और हनुमान जी के मंदिर में जाकर पूजा पाठ करें । सप्ताह का शुभ दिन शुक्रवार है।

मीन राशि

आपके पेट में पीड़ा हो सकती है । संतान को कष्ट हो सकता है । भाग्य साथ नहीं देगा । आप दुर्घटना से बचेंगे । आपके पास धन आने का योग है। आपके सुख में वृद्धि होगी । कार्यालय में आपको परेशानी आ सकती है । इस सप्ताह आपके लिए 31 अक्टूबर के दोपहर तक का समय तथा 5 और 6 नवंबर उत्तम है । 3 और 4 नवंबर को आप कोई भी कार्य करने में सावधानी बरतें । इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ करें । सप्ताह का शुभ दिन रविवार है।

आपसे अनुरोध है कि इस पोस्ट का उपयोग करें और हमें इसके प्रभाव के बारे में बताएं ।

मां शारदा से प्रार्थना है या आप सदैव स्वस्थ सुखी और संपन्न रहें। जय मां शारदा।

राशि चिन्ह साभार – List Of Zodiac Signs In Marathi | बारा राशी नावे व चिन्हे (lovequotesking.com)

निवेदक:-

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विडंबन काव्य… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

विडंबन गीत… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

(मूळ गीत:घरात हसरे तारे असता, मी पाहू कशाला नभाकडे)

विडंबन:

घरात असले खाणे असता

मी जाऊ कशाला उडप्याकडे

मी जाऊ कशाला उडप्याकडे

 

चकल्यांचे ते मला खुणवणे

चिवड्याचे कधी मारू बकणे

शेवेमध्ये जीव गुरफटे हात जातसे पुढे पुढे

मी जाऊ कशाला उडप्याकडे

 

गोल गोल ते लाडू पळती

काजू कतली वरची चांदी

कोर जशी ती करंजी बघता ढगाआड ग चंद्र दडे

मी जाऊ कशाला उडप्याकडे

 

खारी बुंदी न् माहीम हलवा

चवीपुरता ग तो ही फिरवा

डब्यातले ते ताटी पडता तृप्तीचे मग पडती सडे

मी जाऊ कशाला उडप्याकडे

 

संमेलन हे खाद्यपुरीचे

प्रयोग सगळे पाककलेचे

दीपावलीच्या आनंदाला याचमुळे ग भरती चढे

मी जाऊ कशाला उडप्याकडे

 

घरात असले खाणे असता

मी जाऊ कशाला उडप्याकडे?

 

सुहास रघुनाथ पंडित. सांगली.

9421225491

 

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 126 – माय माझी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 126 – माय माझी ☆

माय माझी बाई। अनाथांची आई।

सर्वा सौख्यदाई। सर्वकाळ।

 

घरे चंद्रमौळी। शोभे मांदियाळी।

प्रेमाची रांगोळी। अंगणी या।

 

पूजते तुळस। मनी ना आळस।

घराचा कळस। माझी माय।

 

पै पाहुणचार। करीत अपार।

देतसे आधार। निराधारा।

 

संस्काराची खाण। कर्तव्याची जाण।

आम्हा जीवप्राण । माय माझी।

 

गेलीस सोडूनी। प्रेम वाढवूनी।

जीव वेडावूनी। माझी माय।

 

लागे मनी आस। जीव कासावीस।

सय सोबतीस। सर्वकाळ।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ भूमिका…एक जगणे ! ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ भूमिका…एक जगणे ! ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

भूमिका हा शब्द आणि विविध कलाकारांनी साकार केलेल्या,जिवंत केलेल्या असंख्य नाटके आणि चित्रपटांमधील  सकस भूमिका यांचं अतूट असं नातं आहे. या वाक्यात आलेले ‘साकार’, ‘विविध’ आणि ‘जिवंत’ या शब्दांचे अर्थरंग पूर्णतः समजून घेतल्याशिवाय ‘भूमिका’ या शब्दाचा सखोल वेध घेताच येणार नाही.

‘भूमिका’ या संदर्भात विचार करायचा तर भूमिका ‘साकार’ करण्यात त्या व्यक्तिरेखेला योग्य ‘आकार’ देणेच अपेक्षित आहे.’विविध’ हा शब्द इथे एखाद्या कलाकाराने भूमिकांद्वारे साकार केलेल्या व्यक्तिरेखांना उद्देशून आलेला असला तरी या ‘विविध’ शब्दात अंगभूत असणारे एखाद्या भूमिकेच्या संदर्भातले ‘वैविध्य’ही  कलाकाराने त्या व्यक्तिरेखेचा सखोल अभ्यास करून समजून घेणे आवश्यक असते. विशिष्ट भूमिका साकारत असताना त्या व्यक्तिरेखेची पूर्ण पार्श्वभूमी म्हणजे तिचे स्वरूप, स्वभावरंग, त्याच्या भोवतालची परिस्थिती, त्याचे वय, आर्थिक स्थिती, त्याची विचार करण्याची पद्धत आणि असं बरंच कांही असा त्या व्यक्तिरेखेचा सर्वांगाने केलेला अभ्यास ही त्या भूमिकेची अत्यावश्यक अशी पूर्वतयारी!नाटककाराने नाट्यसंहितेत केलेली व्यक्तिरेखेची बांधणी ही विशिष्ट ठिपक्यांच्या रांगोळीतील रेखाकृतीसारखी असते. दिग्दर्शक आणि तंत्रज्ञांच्या सहाय्याने त्या व्यक्तिरेखेच्या रेखाकृती रांगोळीत रंग भरण्याचे काम नटाला करायचे असते. हे रंगभरण म्हणजेच अभिनयाद्वारे भूमिका ‘जिवंत’ करणे! नाट्यसंहितेत त्या भूमिकेचा आलेख विविध घटना, प्रसंग,संवादातून सूचित केलेला असतोच. ते सूचन आणि स्वतःचा अभ्यास याद्वारे दिग्दर्शकाच्या मार्गदर्शनाखाली अभिनयाची अथपासून इतीपर्यंतची एक सलगरेषा नटाने आपल्या मनात ठळकपणे आखून ठेवायची असते. त्या सलगरेषेनुरुप रंगभूमीवर होणारी त्या भूमिकेची वाटचालच ती ‘भूमिका’ जिवंत करीत असते!

हे सगळं रंगभूमी किंवा चित्रपटातील भूमिकांबद्दलचे विवेचन आहे असेच वाटले ना?पण ते ‘फक्त’ तेवढेच नाहीय. कारण नाटक काय किंवा चित्रपट काय वास्तवाचा आभासच. त्यामुळेच त्या ‘आभासा’इतकंच हे विवेचन ज्या वास्तवाचा तो आभास त्या वास्तवालाही पूर्णतः लागू पडणारे आहेच!

रंगभूमीवरील वास्तवाचा आभास हा खरंतर जगण्याचाच आभास! तो आभास जितका परिपूर्ण तितक्या त्यातील भूमिका म्हणजेच संपूर्ण सादरीकरण जिवंत! भूमिका अशा जिवंत म्हणजेच वास्तव भासण्यासाठी जशी कलाकारांना आपापली भूमिका तिच्यातले बारकावे, खाचाखोचा, कंगोरे समजून घेऊन वठवावी लागते तसेच प्रत्यक्षात वेगवेगळ्या भूमिकांतून वावरताना आपल्यालासुध्दा त्या त्या वेळच्या भूमिकांच्या बाबतीत हे करावे लागतेच.

रंगभूमीवर क्वचित कांही अपवाद वगळता एका कलाकाराला एकच भूमिका पार पाडायची असते. पण ते करतानाही त्याच्या भूमिकेचे इतर भूमिकांशी असणारे संबंध, धागेदोरे,भावबंध,देणेघेणे,कर्तव्ये, जबाबदाऱ्या हे सगळं समजून घेऊनच त्याला आपली भूमिका साकार करायची असते. आपल्या आयुष्यात मात्र आपल्याला एकाच वेळी अनेक भूमिका वठवाव्या लागतात आणि त्या त्या वेळी इतरांच्या आपल्या भूमिकांशी असणारे संबंध, धागेदोरे,भावबंध, देणेघेणे, कर्तव्ये,जबाबदाऱ्या हे सगळं आपल्यालाही विचारात घ्यावे लागतेच.आपल्या या सगळ्याच भूमिका चांगल्या वठल्या तरच आपले जगणे कृतार्थ म्हणजेच खऱ्या अर्थाने जिवंत आणि त्या योग्य पद्धतीने नाही पार पाडता आल्या तर मात्र जगणं कंटाळवाणं, निरस आणि असमाधानी!

वास्तव जगण्यात आपल्या भूमिकांचे संवाद लिहायला कुणी लेखक नसतो. हालचाली बसवायलाही कुणी दिग्दर्शक नसतोच. नाटकातील घटना प्रसंग नाटककाराने नियत केलेले असतात आणि आपल्या आयुष्यातले घटना-प्रसंग नियतीने! तिथे नाटककाराने आपले संवाद चोख लिहिलेले असतात. आपल्या आयुष्यात मात्र काय बोलायचे हे आणि कसे बोलायचे हेही आपणच आपल्या बुद्धी आणि कुवतीनुसार ठरवायचे असते. तिथे दिग्दर्शक मार्गदर्शन करत असतो आणि इथे आपलेच अनुभव,आपण जोडलेली माणसे आणि त्या त्या वेळची परिस्थिती हे सगळे दिग्दर्शकासारखेच आपल्याला मार्ग दाखवत असतात. तिथे प्रेक्षकांच्या उत्स्फूर्त टाळ्यांच्या रुपातल्या प्रतिक्रिया नटाच्या भूमिकेला दात देत असतात आणि इथे आपल्याला मिळणारे कर्तव्यपूर्तीचे समाधानच आपल्याला पुढील वाटचालीसाठी आवश्यक ती उमेद,उत्साह देत रहाते.

वास्तव आणि आभासातलं हे साम्य वरवरचं नाहीय. खरंतर भूमिका वास्तव जगण्यातल्या असोत वा आभासी जगातल्या त्या ‘भूमिका’ या शब्दाच्या मूळ अर्थांची प्रतिबिंबेच असतात.हे कसे हे ‘भूमिका’ या शब्दाचे मूळ अर्थच सांगतील.  

‘भूमिका’  म्हणजे जसा अभिनय, तसंच भूमिका म्हणजे पीठिका,पवित्रा,आणि अवस्थाही.  भूमिका म्हणजे पृथ्वी.भूमिका म्हणजे जमीन,भूमीही.आपल्या वास्तव आयुष्यातल्या भूमिका या जमिनीवर,भूमीवर  घट्ट पाय रोवूनच वठवत गेलो तरच त्या जिवंत वाटतात नाहीतर मग निर्जीव. आभासी जगातल्या भूमिका वठवताना ‘रंग’ही गरजेचे आणि भूमीसुध्दा!म्हणूनच त्या जिथे साकार करायच्या त्या भूमीला ‘रंगभूमी’ म्हणत असावेत!

भूमिका कोणतीही,कुठेही वठवायची असो ती मनापासून वठवायला हवी हे मात्र खरे!कारण ‘भूमिका’ म्हणजे असे एक जगणेच जर, तर ते अगदी मनापासूनच जगायला हवे ना?

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ क्षणभंगूर…डॉ संजय मंगेश सावंत ☆ प्रस्तुती – श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

? मनमंजुषेतून ?

☆ क्षणभंगूर…डॉ संजय मंगेश सावंत ☆ प्रस्तुती – श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

पाच वर्षांपूर्वीची गोष्ट आहे. दुपारी साडेतीन चारची वेळ होती. ओपीडी  संपवून नुकताच जेवणासाठी वर निघालो होतो. कॉरिडॉरमध्ये खुर्चीवर एक पंच्याहत्तरीच्या आसपासच्या आजी बसल्या होत्या. त्यांची  रक्त लघवी चेक केली होती व रिपोर्टची वाट बघत त्या बसल्या होत्या. आजी नेहमी दवाखान्यात यायच्या. शांत स्वभाव, चेहऱ्यावर सात्विक भाव, स्वभाव इतका गोड की त्यांच्या सुनादेखील त्यांचं कौतुक करायच्या. आजीदेखील  सुनांचं कौतुक करायच्या. सून आणि सासू एकमेकींचे कौतुक करतात ही बहुतेक क्वचितच आढळणारी गोष्ट, पण या आजींच्या बाबतीत ते खरं होतं,,,

जिना चढताना मी एक क्षण थबकलो. वाटलं आजी बराच वेळ बसून कंटाळून गेल्या असतील, त्यांना चहाला वर घेऊन जावं. पण  नंतर विचार केला आता वेळ खूप जाईल, जेवण उरकून मावडीच्या ओपीडीला जायचं होतं , चहासाठी आजीना वर  घेऊन गेलं तर पुन्हा दहा-पंधरा मिनिट वेळ जाईल आणि सगळे शेड्युल बिघडून जाईल.  म्हटलं बघू उद्या किंवा पुन्हा कधीतरी ,,, जेवण करून  मग खाली आलो त्यावेळी आजी निघून गेल्या होत्या.  कम्पाउंडरला रिपोर्ट दाखवला होता व तो नॉर्मल असल्याने त्या थांबल्या नव्हत्या. उशीर झालाय, उद्या येईन पुन्हा दाखवायला असे त्यांनी त्याच्याकडे सांगितलं ,,

दुसऱ्या दिवशी जेव्हा नाश्ता करून खाली साडेनऊ वाजता ओपीडीत गेलो तर खुर्चीवर बसल्याबसल्या कंपाउंडरने सांगितलं की काल लॅबसाठी आलेल्या आजी रात्री हार्ट अटॅकने गेल्या…. मी निस्तब्ध !! क्षणभर काहीच सुचेना ! चालता-फिरता माणूस गेला की धक्का  बसतो. मृत्यू अटळ आहे. तो असा शांतपणे योग्य वेळी आला तर कधीही चांगलीच गोष्ट. परंतु मला खंत या गोष्टीची वाटत होती की काल आजीना चहासाठी घेऊन गेलो असतो तर किती बरं झालं असतं ! मी खूप व्यथित झालो. या घटनेला इतकी वर्ष झाली पण अजूनही ही गोष्ट कायम मला खटकते !         

आपल्याला नेहमी वाटत असतं की आपलं आयुष्य खूप मोठं आहे. एखादी  गोष्ट करायची असेल तर आपण म्हणतो बघू भविष्यात करू,उद्या करू. पण बरेचदा ती वेळ व संधी हातातून निसटून जाते व उरतो तो केवळ पश्चाताप, एक गिल्टी फिलिंग !! देऊ नंतर , करू नंतर , बघू नंतर , जाऊ नंतर, याला काही अर्थ नसतो. कारण तुम्ही आत्ता जो क्षण उपभोगीत असता तोच खरा असतो, दुसऱ्या क्षणावर देखील तुमचा अधिकार नसतो !!

मध्यंतरी ऑगस्टमध्ये माझा थोरला भाऊ covid- ने गेला. उमदा, निरोगी,चालता-फिरता,थोरला असूनही आमच्यापेक्षा ॲक्टिव्ह. हॉस्पिटलमध्ये घेऊन जातानाही एकदम उत्साही. त्याला सगळं टापटीप लागायचं. गाडीत बसण्यापूर्वी मला म्हणाला, “ दाढी वाढली आहे  दाढी करून घेतो “.  मी म्हटलं “ कशाला आता वेळ दवडतोस– हॉस्पिटलमध्ये तर जायचंय !!”   पण शेवटी हॉस्पिटलमधून तो घरी परत आलाच नाही. दोन मिनिटात त्याची दाढी झाली  असती, मी त्याला उगाच अडवलं असं अजूनही मला वाटतं ,, आम्ही चौघं भाऊ– मी धाकटा आमच्यामध्ये.  अजून कधीही वादविवाद भांडणतंटा झाला नाही , इतकंच काय पण आम्ही एकमेकांशी मोठ्या आवाजात देखील कधी बोललो नाही. परंतु तो गेल्यानंतर अजूनही मला सतत वाटत राहते की अजूनही आपण त्याच्याशी चांगलं वागलं बोललं पाहिजे  होतं, जास्त संवाद साधला पाहिजे होता. तो दिवाळीच्या सुट्टीत, उन्हाळ्यात किंवा काही फंक्शन असेल तर मूर्टीला  यायचा. स्वभावाने अबोल , कधी कधी भरपूर वेळ असायचा पण मोबाईल मध्ये डोकं खुपसून बसण्यापेक्षा त्याच्याशी अजून जास्त गप्पा मारल्या असत्या तर खूप बरं झालं असतं असं आता वाटतं. पण आता वाटून काही उपयोग नसतो. गेलेला क्षण, गेलेली वेळ ही कधीही परत येत नसते !! कटू प्रसंग तर प्रत्येकाच्याच आयुष्यात येत असतात. परंतु त्याला बगल देऊन पुढे गेलं पाहिजे. नाहीतर नंतर वाटत राहतं की आपण आपल्या आयुष्यातील बरेच क्षण , वर्ष , दिवस हे विनाकारण वाया घालवले आहेत !!! कारण जर-तर ला आयुष्यात काहीही महत्त्व नसते !

बऱ्याच वर्षापासून आम्हाला आमच्या दहावीच्या बॅचचं गेट-टुगेदर घ्यायचं होतं. अनेक वेळा चर्चा व्हायच्या, तारखा ठरायच्या , कॅन्सल व्हायचं. आम्हाला ज्या सरांनी घडवलं, मार्गदर्शन केलं, कुटुंबातील एक सदस्य असल्यासारख सांभाळलं ,आई वडिलांनंतर त्यांचे स्थान होतं- अशा त्या जे बी  गाडेकर सरांच्या मार्गदर्शनाखाली है  गेट-टुगेदर व्हावं अशी माझी खूप इच्छा होती. मी वैयक्तिक या विषयावर त्यांच्याशी अनेकदा  बोललो होतो , पण  आमचं निश्चित होत नव्हतं …  आणि  एक दिवस सर अचानक अकाली मोठा धक्का देऊन आमच्यातून निघून गेले.  खरेतर या गेट-टुगेदर चे उत्सव मूर्ती हे आमचे सरच  होते. परंतु बघू, नंतर करू, असं म्हणत आम्ही ती संधी गमावली ,, नंतर 1 वर्षापूर्वी आम्ही हे गेट-टुगेदर घेतलं.  सर्व शिक्षकांना बोलवलं , सगळे विद्यार्थी आले होते.  पण गाडेकर सरांची अनुपस्थिती म्हणजे आमच्यासाठी देव नसलेल्या देव्हाऱ्यासारखी स्थिती होती !!!

आपण साधुसंत बनू शकत नाही कारण आपण सामान्य संसारी माणस आहोत , म्हणून माणसासारखंच वागलं पाहिजे. जास्त मित्र नाही जमवता आले तरी चालेल, पण किमान शत्रूंची संख्या तरी कमी करू शकतो– ते आपल्या हातात असतं ,,, आपण बरेचदा एखाद्याला विनाकारण अपशब्द बोलतो, त्याचा अपमान करतो किंवा त्याच्याशी तुटकपणे वागतो. खरंतर या गोष्टींची काही गरज नसते. आपल्या असल्या वागण्याचा पश्चाताप आपल्याला नंतर होतो, पण त्यावेळी त्याचा काही उपयोग नसतो कारण वेळ निघून गेलेली असते. आणि शब्दांनी झालेल्या जखमा या भरून येणार्‍या नसतात व त्याचा परिणाम म्हणजे आपण अनेक मित्र , स्नेही , नातेवाईक गमावतो.  इतकंच काय पण आपल्याकडे काम करणाऱ्या कर्मचाऱ्यांना देखील आपण बरेचदा विनाकारण बोलत असतो , कळत नकळत अपमान करीत असतो. या गोष्टींमुळे आपण आपले आयुष्य तर कमी करत असतोच पण त्यांच्या कामाचा परफॉर्मन्स देखील खराब करीत असतो. प्रत्येक वाईट कृतीमागे, रागावून चिडून बोललेल्या प्रत्येक वाक्यामागे आपण आपलं आयुष्य  काही क्षणांनी , मिनिटांनी  कमी करीत असतो.  

म्हणून मित्रांनो, मिनिमाईज दि एनिमी , मिनिमाईज बॅड वर्ड्स , मिनिमाईज अँगर , डिपॉझिट फ्रेंड्स अँड डिपॉझिट रिलेटिव्हस !! कारण गेलेला क्षण व वेळ परत येत नाही !!!! 

लेखक : डॉ संजय मंगेश सावंत, मुर्टी , बारामती

प्रस्तुती : श्यामसुंदर धोपटे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ वाट… सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? वाचताना वेचलेले ?

☆ वाट… सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे☆

 ‘वाटेवर काटे वेचित चाललो

वाटले जसा फुलाफुलात चाललो’

रेडिओवर हे गाणे लागले होते. ऐकताना ती तल्लीन झाली होती आणि तिच्या डोळ्यापुढून तिची वादळवाट गेली. होय अगदी खडतर वाट, बिकट वाट अशी तिच्या आयुष्याची वाट.

हिला जन्म देताच तिची आई देवाघरी गेली आणि तेथूनच दु:ख वाटेत आडवे आले . तिची ही पाऊलवाट खाचखळग्याची वाट झाली.

जणू दु:ख तिच्या वाटेत पडले होते. ते वाटेत अडथळे निर्माण करत होते. शेवटी तिनेच दु:खाशी वाटाघाटी केल्या. त्या अनवट वाटेवरची वाटसरू होऊन वाट भरकटू नये म्हणून ती वाटाड्या शोधत होती.

आता कोणती वाट धरायची हे ठरवायला तिला चारी वाटा मोकळ्या होत्या. थोडा विचार करून तिने एक वाट निवडली.  पण हाय रे दुर्दैव! तेथेही दु:ख वाट वाकडी करून तिच्यापर्यंत आलेच. जणू त्या वाटेवर तिला वाटचकवा लागला होता. पुन्हा पुन्हा ती दु:खापाशी येत होती.

आता तिला वाटेत येणार्‍या दु:खाला वाटेला लावायचे होते. त्याचीच वाट लावून न परतीच्या वाटेवर त्याला सोडायचे होते. दु:खाच्या मागे आनंद सुखे वाटेवर पायघड्या घालून उभे आहेत हे तिला जाणवत होते.

पण आनंद सुखाच्या वाटेला जाणे वाटतं तितकं सोपं नव्हतं. त्यासाठी तिला वाट फुटेल तिकडे जाऊन उपयोगी नव्हत. जवळची वाट, लांबची वाट असा विचार न करता सुसाट वाट तरीही भन्नाट वाट तिला निवडायची होती.

एक दीर्घ श्वास घेताच आत्मविश्वास तिच्याच वाटेत उभा असलेला दिसला. तिला वाट दिसत नव्हती म्हणून तिची वाट तिनेच निर्माण करण्याचे ठरवले. दु:खांची वाट चुकवून त्यांची लागलेली वाट पाहून सुखाच्या वाटेकडे ती डोळे लावून बसली होती.

प्रयत्नांचा असलेला वाटेवरचा दगड तिला खुणावत होता. जिद्द, चिकाटी तिचे यशाचे वाटेकरी झाले होते. ही डोंगराची वाट, वाकडी तिकडी वाट, वळणावळणाची वाट असली तरी आता जणू नवी वाट फुटली होती. सगळ्या य़शस्वी लोकांची धोपट वाट त्यांच्या दुर्दम्य इच्छाशक्तीत असते हे तिला कळले होते. म्हणून हीच निसरडी वाट तिला तिच्या यश फुलांची वाट करायची होती.

म्हणूनच दुसर्‍या कोणाचेही न ऐकता मनाची साद ऐकून दुसरी वाट न स्विकारता दुर्मुखतेची वाट सोडून चोर वाटा , पळवाटा यांना काट देऊन रानवाटेलाच वहिवाट करून मेहनतीने तिने दगडी वाट तयार केली.

आता कोणी तिच्या यशाची, सुखाची वाटमारी करत नव्हते. उलट तिला आपला आदर्श मानून तिच्या वाट दाखवण्या कडे, तिची यशोगाथा तिच्याच मुखाने ऐकण्यासाठी डोळ्यात प्राण आणून तिची वाट बघू लागले.

ती सगळ्यांचा अभिमान बनून, एक चांगला आदर्श बनून, उजळमाथ्याने तिची यशोगाथा सगळ्यांना सांगत होती••••

“दु:खाने कितीही वाट अडवली ,आपली वाट मळलेली वाट झाली असली तरी वाईट विचारांच्या आडवाटेने न जाता आपल्या मेहनतीने जिद्द चिकाटीची वाट हीच सरळसोट वाट आहे मानून आत्मविश्वासाला सहवाटसरू करून आपलीच वाट आपल्या पायाखालची वाट केली तर यश किर्ती केवळ तुमची आणि तुमचीच आहे,” या वाक्याने संपलेल्या तिच्या स्फूर्तीकथेने टाळ्यांचा कडकडाट झाला आणि  आनंदाश्रूंना तिने वाट मोकळी करुन दिली . साश्रू भरल्या नयनाने ती म्हणाली, ” याच खर्‍या प्रकाशवाटा असतात.”

लेखिका : सुश्री वर्षा बालगोपाल

संग्राहिका: सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ दुसरं वादळ… श्री शरद पोंक्षे – परिचय सुश्री शेफाली वैद्य ☆ प्रस्तुती- सुश्री सुनीता डबीर ☆

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ दुसरं वादळ… श्री शरद पोंक्षे – परिचय – सुश्री शेफाली वैद्य ☆ प्रस्तुती- सुश्री सुनीता डबीर ☆

एखादा दुर्धर रोग अचानक उद्भवल्यानंतर, जीवनाची आता काही शाश्वती नाही हे दाहक सत्य अगदी एका क्षणात अंगावर आल्यानंतरची माणसांची प्रतिक्रिया ही त्या त्या व्यक्तीच्या मनःशक्तीवर अवलंबून असते. धक्का सगळ्यांनाच बसतो, पण काही माणसे त्या धक्क्यामुळे कोलमडून जातात तर काही व्यक्ती जिद्दीने जमिनीत पाय गाडून उभे राहतात आणि त्या रोगावर मात करून दाखवतात. प्रसिद्ध अभिनेते, सावरकर भक्त आणि विचारांनी प्रखर  हिंदुत्ववादी असलेले शरद माधव पोंक्षे शरद माधव पोंक्षे हे ह्यांपैकी दुसऱ्या गटात मोडणारे.

Hodgkins Lymphoma हा कर्करोगाचा एक प्रकार समजला जाणारा दुर्धर रोग शरद पोंक्षेंना झाला आणि एकाच दिवसात त्यांचं आणि त्यांच्या कुटुंबाचंही आयुष्य बदलून गेलं. एक वर्ष सर्व कामधंदा सोडुन पोंक्षेंना घरी बसावं लागलं, १२ किमो साईकल्स आणि त्यांचे शरीरावर होणारे भयानक दुष्परिणाम, वर्षभर काम बंद असल्यामुळे येणारी आर्थिक असुरक्षिता आणि त्यामुळे भेडसावणारी अनिश्चितता, कुटुंबाला सतावणारी भीती आणि जीवघेणी वेदना ह्या सर्वांवर मात करून शरद पोंक्षे यशस्वीपणे या वादळातून बाहेर पडले. त्या अनुभवाची गोष्ट म्हणजेच ‘दुसरे वादळ.’ साध्या, सोप्या, ‘बोलले तसे लिहिले’ ह्या भाषेत लिहिलेले पुस्तक मी काल एका बैठकीत वाचून संपवले आणि शरद पोंक्षे ह्यांच्याबद्दल असलेला माझा आदर अजूनच वाढला.

कर्करोग, किडनी विकार किंवा हृदयविकार ह्यासारख्या दुर्धर रोगांशी लढा दिलेल्या लोकांची आत्मकथने ह्यापूर्वीही मराठीत पुस्तकरूपाने आलेली आहेत. अभय बंग ह्यांचे ’माझा साक्षात्कारी हृदयरोग’, पद्मजा फाटक यांचे ‘हसरी किडनी’ ह्यांसारखी पुस्तके तर व्यावसायिक दृष्ट्याही यशस्वी झालेली आहेत, मग ह्या पुस्तकात नवीन काय आहे? ह्या पुस्तकात नवीन आहे ती शरद पोंक्षेंची रोगाकडे बघायची दृष्टी, आणि त्यांची सावरकर विचारांवर असलेली अपार डोळस श्रद्धा, ज्या श्रद्धेने त्यांना ह्या रोगाकडे झगडण्याचे बळ दिले.

ह्याबद्दल लिहिताना पोंक्षे म्हणतात, ‘मानसिक धैर्य सुदृढ कसं करायचं हा प्रश्न पडला. त्यावर एकच उपाय. सावरकर. विचार मनात येताक्षणी कपाट उघडलं आणि माझी जन्मठेप चौथ्यांदा वाचायला सुरवात केली. ११ वर्षे ७ बाय ११ च्या खोलीत कसे राहिले असतील तात्याराव? गळ्यात, पायात साखळदंड, अतिशय निकृष्ट दर्जाचं अन्न, तात्याराव कसे राहिला असाल तुम्ही? ते देशासाठी ११ वर्षे राहू शकतात, मला अकराच महिने काढायचे आहेत, तेही स्वतःसाठी! हा विचार मनात आला आणि सगळी मरगळ निघून गेली’.

पोंक्षेनी ह्या पुस्तकात अतिशय प्रांजळपणे आपल्याला आलेले अनुभव मांडलेले आहेत. त्यांना ज्या ज्या लोकांनी मदत केली, मग ते शिवसेनेचे आदेश बांदेकर असोत, उद्धव ठाकरे असोत किंवा आताचे महाराष्ट्राचे मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे असोत, त्या लोकांचा त्यांनी कृतज्ञतापूर्वक उल्लेख केलेला आहे. त्यांच्यासाठी म्हणून जे लोक कामासाठी थांबले त्यांचाही उल्लेख योग्य रीतीने पुस्तकात झालेला आहे. त्यांना काही डॉक्टरांचे आलेले वाईट अनुभवही पोंक्षेनी तितक्याच स्पष्टपणे लिहिलेले आहेत तसेच आयुर्वेद, होमियोपथी आदी उपचार पद्धतींचाही त्यांना चांगला फायदा कसा झाला हेही त्यांनी लिहिलेले आहे.

पुस्तक खरोखरच वाचनीय आहे. सर्व वयाच्या लोकांना सहजपणे वाचता यावे म्हणून अक्षरे जाणून बुजून मोठी ठेवलेली आहेत. एखाद्या दुर्धर रोगाशी लढणाऱ्या कुणालाही बळ देईल असेच हे पुस्तक आहे. नथुरामची व्यक्तिरेखा साकारताना पोंक्षेना सोसावा लागलेला विरोध हे शरद पोंक्षेंच्या आयुष्यातले पहिले वादळ आणि कर्करोगाशी दिलेला लढा हे दुसरे वादळ. मला विशेष आवडले ते हे की ह्या दोन्ही वादळांशी लढताना शरद पोंक्षेनी आपल्या तत्वांशी कसलीच तडजोड कुठेही केलेली नाही.

एक अभिनेते म्हणून शरद पोंक्षे मोठे आहेतच पण एक माणूस म्हणून ते किती जेन्यूईन आहेत हे ह्या पुस्तकाच्या पानापानातून जाणवतं. अभिनयासारख्या बेभरवश्याच्या क्षेत्रात वावरताना व्यावसायिक हितसंबंध जपायचे म्हणून माणसं क्वचितच रोखठोक, प्रांजळ व्यक्त होतात. पण शरद पोंक्षे ह्याला अपवाद आहेत. एका सच्च्या माणसाने लिहिलेले हे एक सच्चे पुस्तक आहे. अवघड परिस्थितीशी झगडावे कसे हे ह्या पुस्तकातून शिकण्यासारखे आहे. पार्थ बावस्करच्या शब्दामृत प्रकाशनाने हे पुस्तक प्रसिद्ध केले आहे. Parth Bawaskar – पार्थ बावस्कर

– श्री शरद पोंक्षे

परिचय – सुश्री शेफाली वैद्य

प्रस्तुती- सुश्री सुनीता डबीर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #156 ☆ शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 156 ☆

☆ शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा ☆

‘शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा कर देते हैं वह काम/ हो जाता है जिससे इंसान का जग में नाम/ और ज़िंदगी हो जाती आसान।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– शिकायत स्वयं से हो या दूसरों से; दोनों का परिणाम विनाशकारी होता है। यदि आप दूसरों से शिकायत करते हैं, तो उनका नाराज़ होना लाज़िमी है और यदि शिकायत आपको ख़ुद से है, तो उसके अनापेक्षित प्रतिक्रिया व परिणाम कल्पनातीत घातक हैं। अक्सर ऐसा व्यक्ति तुरंत प्रतिक्रिया देकर अपने मन की भड़ास निकाल लेता है, जिससे आपके हृदय को ठेस ही नहीं लगती; आत्मसम्मान भी आहत होता है। कई बार अकारण राई का पहाड़ बन जाता है। तलवारें तक खिंच जाती हैं और दोनों एक-दूसरे की जान तक लेने को उतारू हो जाते हैं। यदि हम विपरीत स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो आपको शिकायत स्वयं रहती है और आप अकारण स्वयं को ही दोषी समझना प्रारंभ कर देते हैं उस कर्म या अपराध के लिए, जो आपने सायास या अनायास किया ही नहीं होता। परंतु आप वह सब सोचते रहते हैं और उसी उधेड़बुन में मग्न रहते हैं।

परंतु जिस व्यक्ति को शिक़ायतें कम होती हैं से तात्पर्य है कि वह आत्मकेंद्रित व आत्मसंतोषी प्राणी है तथा अपने इतर किसी के बारे में सोचता ही नहीं; आत्मलीन रहता है। ऐसा व्यक्ति हर बात का श्रेय दूसरों को देता है तथा विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँधता है। सो! उसके सब कार्य संपन्न हो जाते हैं और जग में उसके नाम का ही डंका बजता है। सब लोग उसके पीछे भी उसकी तारीफ़ करते हैं। वास्तव में प्रशंसा वही होती है, जो मानव की अनुपस्थिति में भी की जाए और वह सब आपके मित्र, स्नेही, सुहृद व दोस्त ही कर सकते हैं, क्योंकि वे आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं। ऐसे लोग बहुत कठिनाई से मिलते हैं और उन्हें तलाशना पड़ता है। इतना ही नहीं, उन्हें सहेजना पड़ता है तथा उन पर ख़ुद से बढ़कर विश्वास करना पड़ता है, क्योंकि दोस्ती में शक़, संदेह, संशय व शंका का स्थान नहीं होता।

‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार का यह कथन संतुलित मानव की वैयक्तिक विशेषताओं पर प्रकाश डालता है कि परिस्थितियाँ ही मन:स्थितियों को निर्मित करती हैं। हालात ही मानव को सुनना व सहना सिखाते हैं, परंतु ऐसा विपरीत परिस्थितियों में होता है। यदि समय अनुकूल है, तो दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं, अन्यथा अपने भी अकारण पराए बनकर दुश्मनी निभाते हैं। अक्सर अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, क्योंकि वे उनके हर रहस्य से अवगत होते हैं और उनके क्रियाकलापों से परिचित होते हैं।

इसलिए हमें दूसरों से नहीं, अपनों से भयभीत रहना चाहिए। अपने ही, अपनों को सबसे अधिक हानि पहुंचाते हैं, क्योंकि दूसरों से आपसे कुछ भी लेना-देना नहीं होता। सो! मानव को शिकायतें नहीं, शुक्रिया अदा करना चाहिए। ऐसे लोग विनम्र व संवेदनशील होते हैं। वे स्व-पर से ऊपर होते हैं; सबको समान दृष्टि से देखते हैं और उनके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं, क्योंकि सबकी डोर सृष्टि-नियंता के हाथ में होती है। हम सब तो उसके हाथों की कठपुतलियाँ हैं। ‘वही करता है, वही कराता है/ मूर्ख इंसान तो व्यर्थ ही स्वयं पर इतराता है।’ उस सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा के बिना तो पत्ता तक भी नहीं हिल सकता। सो! मानव को उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नतमस्तक होना पड़ता है, क्योंकि शिकायत करने व दूसरों पर दोषारोपण करने का कोई लाभ व औचित्य नहीं होता; वह निष्प्रयोजन होता है।

‘मोहे तो एक भरोसो राम’ और ‘क्यों देर लगा दी कान्हा, कब से राह निहारूँ’ अर्थात् जो व्यक्ति उस परम सत्ता में विश्वास कर निष्काम कर्म करता है, उसके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं। आस्था, विश्वास व निष्ठा मानव का सर्वोत्कृष्ट गुण है। ‘तुलसी साथी विपद के, विद्या, विनय, विवेक’ अर्थात् जो व्यक्ति विपत्ति में विवेक से काम करता है; संतुलन बनाए रखता है; विनम्रता को धारण किए रखता है; निर्णय लेने से पहले उसके पक्ष-विपक्ष, उपयोगिता-अनुपयोगिता व लाभ-हानि के बारे में सोच-विचार करता है, उसे कभी भी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति अपने अहम् का त्याग कर देता है, वही व्यक्ति संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है व संसार में उसका नाम हो जाता है। सो! मानव को अहम् अर्थात् मैं, मैं और सिर्फ़ मैं के व्यूह से बाहर निकलना अपेक्षित है, क्योंकि व्यक्ति का अहम् ही सभी दु:खों का मूल कारण है। सुख की स्थिति में वह उसे सबसे अलग-थलग और कर देता है और दु:ख में कोई भी उसके निकट नहीं आना चाहता। इसलिए यह दोनों स्थितियाँ बहुत भयावह व घातक हैं।

चाणक्य के मतानुसार ‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। इसलिए अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ।’ युधिष्ठर जीवन में काम, क्रोध व लोभ छोड़ने पर बल देते हुए कहते हैं कि ‘अहंकार का त्याग कर देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने से  शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है।’ परंतु यदि हम आसन्न तूफ़ानों के प्रति सचेत रहते हैं, तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। सो! मानव को अपना व्यवहार सागर की भांति नहीं रखना चाहिए, क्योंकि सागर में भले ही अथाह जल का भंडार होता है, परंतु उसका खारा जल किसी के काम नहीं आता। उसका व्यक्तित्व व व्यवहार नदी के शीतल जल की भांति होना चाहिए, जो दूसरों के काम आता है तथा नदी में अहम् नहीं होता; वह निरंतर बहती रहती है और अंत में सागर में विलीन हो जाती है। मानव को अहंनिष्ठ नहीं होना चाहिए, ताकि वह विषम परिस्थितियों का सामना कर सके और सबके साथ मिलजुल कर रह सके।

‘आओ! मिल जाएं हम सुगंध और सुमन की तरह,’ मेरे गीत की पंक्तियाँ इस भाव को अभिव्यक्त करती हैं कि मानव का व्यवहार भी कोमल, विनम्र, मधुर व हर दिल अज़ीज़ होना चाहिए। वह जब तक वहाँ रहे, लोग उससे प्रेम करें और उसके जाने के पश्चात् उसका स्मरण करें। आप ऐसा क़िरदार प्रस्तुत करें कि आपके जाने के पश्चात् भी मंच पर तालियाँ बजती रहें अर्थात् आप जहाँ भी हैं–अपनी महक से सारे वातावरण को सुवासित करते रहें। सो! जीवन में विवाद नहीं; संवाद में विश्वास रखिए– सब आपके प्रिय बने रहेंगे। मानव को जीवन में सामंजस्यता की राह को अपनाना चाहिए; समन्वय रखना चाहिए। ज्ञान व क्रिया में समन्वय होने पर ही इच्छाओं की पूर्ति संभव है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा। जहां स्नेह, त्याग व समर्पण ‘होता है, वहां समभाव अर्थात् रामायण होती है और जहां इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, संघर्ष व महाभारत होता है।

मानव के लिए बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है, ताकि जीवन में आत्मसंतोष बना रहे, क्योंकि उससे जीवन में आत्म-नियंत्रण होगा। फलत: आत्म-संतोष स्वत: आ जाएगा और जीवन में न संघर्ष न होगा; न ही ऊहापोह की स्थिति होगी। मानव अपेक्षा और उपेक्षा के न रहने पर स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठ जाएगा। यही है जीने की सही राह व सर्वोत्तम कला। सो! मानव को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए; सुख-दु:ख में सम रहना चाहिए क्योंकि इनका चोली दामन का साथ है। मानव को हर परिस्थिति में सम रहना चाहिए। समय सदैव एक-सा नहीं रहता। प्रकृति भी पल-पल रंग बदलती है। जो इस संसार में आया है; उसका अंत अवश्यंभावी है। इंसान आया भी अकेला है और उसे अकेले ही जाना है। इसलिए ग़िले-शिक़वे व शिकायतों का अंबार लगाने से बेहतर है– जो मिला है मालिक का शुक्रिया अदा कीजिए तथा जीवन में सब के प्रति आभार व्यक्त कीजिए; ज़िंदगी खुशी से कटेगी, अन्यथा आप जीवन-भर दु:खी रहेंगे। कोई आपके सान्निध्य में रहना भी पसंद नहीं करेगा। इसलिए ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धांत का अनुसरण कीजिए, ज़िंदगी उत्सव बन जाएगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – नए ज़माने की दुआ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – नए ज़माने की दुआ।)

☆ लघुकथा – नए ज़माने की दुआ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

“इस घर में कुलदीपक पैदा हुआ है, इस साधु को भी कुछ बधाई दो बच्चा!” गेरुए वस्त्र धारण किए एक बाबा ने घर के भीतर प्रवेश करते हुए कहा। नवजात शिशु के पिता ने पूछा, “आपको कैसे पता चला बाबा कि लड़का हुआ है?”

“तुम्हारे घर के दरवाज़े पर नीम के पत्ते और खिलौने टँगे हैं। बाबा का भी मुँह मीठा कराओ।”

नवजात का पिता भीतर से मिठाई ले आया, साथ ही दो सौ का एक नोट भी बाबा की हथेली पर रख दिया। बाबा ने ख़ुश होकर दुआ दी, “ईश्वर बच्चे और उसके माँ-बाप की उम्र लम्बी करे। मेरी दुआ और आशीर्वाद है कि बच्चा बड़ा होकर बाहर के देश में जाए।”

“यह कैसी दुआ है बाबा, वह बाहर क्यों जाए भला?” बच्चे के बाप ने जैसे नाराज़ होते हुए कहा।

“तुम्हें बुरा लगा हो तो क्षमा करना बच्चा, पर आजकल तो हर युवा बाहर मुल्क में जाने की जीतोड़ कोशिश कर रहा है। कितने युवा हैं जो बाहर जाने में सक्षम होने के बावजूद इस देश में रहना चाहते हैं?”

बाबा चला गया था पर बच्चे का पिता समय के साथ आकार लेने वाली भविष्य की कई दुआओं के बारे में एक साथ सोच गया- बच्चा नशे और माफ़ियाओं से बचा रहे, बच्चा धर्मांध भीड़ का हिस्सा होने से बचा रहे, उसके बड़े होने तक रोज़गार बचे रहें, पीने के लिए पानी बचा रहे… और… और… सर्दी का मौसम था और बच्चे का पिता पसीने से भीग गया था।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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