हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 118 – “आज की मधुशाला (काव्य संग्रह)” – डॉ संजीव कुमार ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 118 ☆

☆ “आज की मधुशाला (काव्य संग्रह)” – डॉ संजीव कुमार ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ संजीव कुमार जी के काव्य-संग्रह “आज की मधुशाला” की समीक्षा।

पुस्तक – आज की मधुशाला

लेखक  – डा संजीव कुमार

प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स, नोयडा

संस्करण –  २०२२,

मूल्य – ३५० रु

☆ एक सदी के अंतराल से मधुशाला का सार्थक रिमेक – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मनोभावना और सरोकारों को स्पर्श करता साहित्य अमर हो जाता है. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला ऐसी ही अद्भुत काव्य कृति है, जिसके लक्षणा और व्यंजना अर्थ अमिधा अर्थो से कहीं ज्यादा व्यापक और मर्मस्पर्शी हैं. वर्ष 1935 में प्रकाशित मधुशाला के अनगिनत संस्करण पुनर्प्रकाशित हो चुके हैं, अनेक भाषाओ में इसके अनुवाद और भावार्थ तथा आध्यात्मिक व्याख्यायें की गई हैं. उमर खैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित मधुशाला हिन्दी साहित्य की धरोहर है. मधु, मदिरा, हाला (शराब), साकी (शराब पड़ोसने वाली),  प्याला  (ग्लास), मधुशाला और मदिरालय की मदद से जीवन की जटिलताओं की सरल, गेय व्याख्या ने इसे रसिक स्वरूप में प्रतिष्ठित किया. बाद में नृत्य-नाटिका, आडियो व विभिन्न स्वरूपों में मधुशाला की अनेक प्रस्तुतियां होती रही हैं. रुबाईयों के सहज छंद बार बार अनेक कवियों के द्वारा अपनाये जाते रहे हैं. बच्चन जी के स्वर्गवास पर मैने “नीर नर्मदा का मधु है” लिखकर उन्हें श्रद्धांजली दी थी..

“कण कण शंकर बन आप्लावित ऐसी है माँ की मधुशाला,

माँ के दर्शन से पायें सुदर्शन को बन साकी पीने वाला”.

डा संजीव कुमार वर्तमान साहित्य जगत में वह नाम बन गया है, जो श्रेष्ठ विगत का अध्ययन कर, वर्तमान पर संधारित करके नितांत नया बनाकर आज के हिन्दी प्रेमी विश्व के लिये नूतन गढ़ रहे हैं. मुझे खुशी है कि मुझे डा संजीव कुमार रचित आज की मधुशाला के अध्ययन का सुअवसर मिला. मूल मधुशाला में १३५ हिंदी रुबाईयां हैं, उसी का अवलंब लेकर आज की मधुशाला में भी डा संजीव कुमार ने १३५ रुबाईयां ही लिखी हैं, वही शैली है बस दृश्य परिवर्तित हैं. बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशको में सूफी वाद का प्रतिनिधित्व करती मूल मधुशाला लिखी गई थी. डा संजीव कुमार की आज की मधुशाला को पढ़ते हुये  ऐसा लगता है कि एक सदी के अंतराल से पुनः स्टेज का गिरा हुआ पर्दा उठा है और मूल मधुशाला का सार्थक रिमेक हिन्दी प्रेमियों के लिये आया है.

उदाहरण देखिये, पहला ही पद है…

मधुशाला सौगात मानकार दिल ने सदा संभाली है,

हरि की इच्छा नेह समझकर हमने अब तक पाली है.

युग बदला है जीवन बदले बदल गई साकी बाला,

मौन ताकती रहती व्याकुल अब तो सबको मधुशाला.

या आत्म केंद्रित युग परिवर्तन पर यह देखिये…

प्यास तपाती थके पांव से

नाच नहीं पाता कोई

प्याला लेकर साकी बनकर

आज नहीं गाता कोई

४६ वीं रुबाई में हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखा था…

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,

ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,

कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।

आज की मधुशाला में वहीं पर डा संजीव कुमार लिखते हैं…

मंदिर मस्जिद के विवाद में बडी सियासत होती है

देख दिलों की आज दूरियां साकी घायल होती है

कहाँ शरण पीने वाले को कहां मार्ग का दर्शन है

भटक रहा हे प्याले के संग वह ढ़ूंढ़ रहा हे मधुशाला…  ४६

किसी रचना के इस तरह के महत्वपूर्ण कालांतरण कार्य हेतु मूल कवि के चोले में परकाया प्रवेश कर यथा स्वरूप रचना करने में डा संजीव कुमार की सफलता हेतु वे हिन्दी जगत की बधाई के सुपात्र हैं. यह आज की मधुशाला उसी तरह बारम्बार पढ़ी जायेगी जैसे मूल मधुशाला सदैव प्रासंगिक बनी हुई है. डा संजीव कुमार स्वयं इंडिया नेटबुक्स, नोयडा के निदेशक हैं, कहना न होगा कि पठनीय सामग्री के साथ साथ किताब का प्रकाशन, प्रस्तुति, कागज,  त्रुटि रहित मुद्रण आदि सब कुछ उत्कृष्ट कोटि का वैश्विक स्तर का है. मैं और उदाहरण देकर या रुबाईयों की व्याख्या करके आपके स्वयं पढ़ने के आनंद को कम नहीं करना चाहता, इसलिये बस यह लिखते हुये कि तुरंत आर्डर करें और इत्मिनान से मूल मधुशाला के संग संग आज की मधुशाला पढ़ें, और वैचारिक मधुर द्वंद का आनंद उठायें. एकदम पैसा वसूल, अवश्य पठनीय तथा संग्रहणीय किताब है.

अंत में एक सौ तैंतीसवा छंद देखिये..

पहले पंथ मतो का इतना उग्र रूप न दिखता था

अब तो घड़ी घडी लिखते हैं सब जैसे सेक्युलर बन के

पहले फिरते थे मधुशाला के पीछे याची बनकर

अब तो सबने छोड़ दिया है फिर फिर जाना मधुशाला

युग परिवर्तन को महसूस कीजिए.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Short Stories – ☆ Story of Sage Markandey ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of  ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present a very interesting Story of Sage Markandey. We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ Story of Sage Markandey ?

Pooja Archana…🙏🌷🌹

This is the famous temple situated at Kaithi the confluence of Ganga and Gomati rivers in Varanasi, India… where even the Death God Yamaraj had to go back empty-handed…

Story goes like this…

Sage Mrikandu and his wife Marudvati dedicated their life to the worship of the lord, and their only regret was that they had no child to pass on their piety to.

One day, Lord Shiva himself appeared before Mrikandu in response to his prayers, and said, “Mrikandu, I am very happy with you and your wife. I have decided to grant you your dearest wish – a child. However, you have a choice. Do you want a son who will be smart and intelligent, but will only live for 11 years, or do you want a long-lived, but foolish son?”

Mrikandu Rishi Chose the first Option and lord Shiva Granted their wish.

So Markendey Rishi was born and within 10 years of age he became highly educated knowing all the Vedas, Purana and Shastras.

As his eleventh birthday drew near, Sage Mrikandu and Marudvati started becoming apprehensive, remembering Shiva’s wordings and fearing that they would soon lose the son whom they loved so much.

Markandeya noticed his parents’ sadness and asked them the reason for their sadness. Sage Mrikandu explained to him the circumstances of his birth, the conditions laid down by Lord Shiva, and his approaching death.

Markandeya went to the river bank, and, making a Shivling with sand, started praying to it with all his heart and created Maha Mritunnjay mantra.

Om Trayambakam Yajamahe,

Sugandhim Pushtivardhanam,

Urva Rukamiva Bandhanan,

Mrityor Mokshiye Maamritat

Meaning :- We worship the three-eyed one who is fragrant, and who sustains all living beings. May he liberate us from death. May he lead us to immortality, just as the cucumber is released from its bondage.

Days passed, and Markandeya was immersed in his prayers, when Yamraj, the lord of Death, arrived to take his soul from his body. Seeing the fearful form of yamraj, Markandeya hugged the Shivling, tightly.

Yamaraj said “ Nothing and no one can save you now.” Saying this, he threw his noose over the boy, but he was so close to the Shivling that the noose encircled the Shivling along with Markandeya.

As soon as the noose touched the Shivling, Shiva was enraged, and burst out of the Shivling, and kicked Yamraj. “How dare you throw your noose on me!” he shouted . Caught off-guard, Yamraj tried to explain that it was his duty, but Shiva was furious . He said, “This boy has come to me for protection, and he shall have it. Yamraj, you can never touch him. He will be immortal.”

Yamraj was disappointed, but had no choice and thus chastised, left for his abode. Shiva blessed Markandeya not just with a long life, but also with immense knowledge.

Maha Mrituyunjay Mantra is recited to have a long life and to become fearless about death. This mantra  helps in escaping from very bad diseases.

Photos  courtesy: Facebook Page – Markandey Mahadev Temple Kaithi Varanasi – UP / Captain Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 123☆ गीत – वंदेमातरम गाओ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 123 ☆

☆ गीत – वंदेमातरम गाओ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

आजादी की नूतन बेला

फूलों – सा मुस्काओ।

घर – घर फहरे आज तिरंगा

पावन पर्व मनाओ।।

 

बलिदानों की गौरव गाथा

भारतवासी भूल न जाना

प्राण लुटाए हँसते – हँसते

वंदेमातरम बोल गाना

 

ऐक्य भाव से बढ़ती समृद्धि

मातृभूमि बलि जाओ।

आजादी की नूतन बेला

फूलों – सा मुस्काओ।।

   

जो भी अच्छा कर सकते हम

सदा देश हित जीवन जीएँ

याद भी करना भगत सिंह को

जीवन सत्य , प्रेम रस पीएँ

 

भोगवाद में डूब न जाना

निज कर्तव्य निभाओ।

आजादी की नूतन बेला

फूलों – सा मुस्काओ।।

 

जातिवाद और क्षेत्रवाद को

तूल नहीं देना है अच्छा।

भाषा तो सब ही हैं प्यारी

संस्कृति करे सभी की रक्षा।।

 

देश बढ़ेगा हिंदी से ही

निज भाषा अपनाओ।

आजादी की नूतन बेला

फूलों – सा मुस्काओ।।

 

राजनीति से उठकर देखो

हिंसा , दंगा मत फैलाओ।

मानवता के लिए जीएँ सब

कर्तव्यों को सभी निभाओ।।

 

मानव हैं तो अच्छा सोचें

सबको मित्र बनाओ।

आजादी की नूतन बेला

फूलों – सा मुस्काओ।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सामाजिक अव्यवस्था और अपराधों का प्रमुख कारण॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सामाजिक अव्यवस्था और अपराधों का प्रमुख कारण ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आजकल दैनिक समाचार पत्रों, रेडियो और टी.व्ही. चैनलों से जो खबरें प्रकाशित और प्रसारित होती हैं उनमें अनैतिक आचरणों की घटनाओं की प्रमुखता होती है। इन घटनाओं को घटित करने वाले विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं, उच्च पदस्थ शासकीय सेवकों से लेकर जनसाधारण में निम्न तबकों तक के लोग होते हैं। क्या पढ़े-लिखे-क्या अनपढ़, क्या धनी-क्या निर्धन, क्या विद्धान-क्या धार्मिक, क्या शहरी-क्या देहाती। समाज के सभी वर्गों की इनमें आसक्ति और लिप्तता उजागर होती है। सारे देश में ऐसी कुछ हवा बह चली है कि उसने सारे वातावरण को दूषित और विषाक्त सा कर दिया है। अनैतिकता का असंगत विस्तार होता जा रहा है। धार्मिक भावनायें, सरकारी कानून-कायदे और समस्त प्रशासनिक अंकुश दिखता है, बेअसर हो चले हैं। अपराधी आजाद हैं, निर्भय हैं और समझदार ईमानदार बंधन में हैं और भयभीत हैं। शासन-प्रशासन बात अपनी चुस्ती-दुरुस्ती की चाहे जितनी करें पर जो कुछ होता दिख रहा है वह इस तथ्य के कुछ विपरीत ही दिखाई दे रहा है। अनियमिता की बाढ़ सी आ गई है।

आश्चर्य की बात है कि धर्मप्राण भारत में जो अपने आध्यात्मिक चिंतन के कारण विश्व गुरु माना जाता रहा है, ऐसा अधोपतन क्यों बढ़ता जा रहा है? आज से पचास साल पहले तक लोगों में धार्मिकता थी, मानवीयता थी, सहानुभूति थी, संवेदनायें थी फिर वे सब कहां चली गई? एकाएक कमी क्यों हो गई? यह सच है कि अभी भी पूर्ण रूप से मानवीयता और नैतिकता समूल नष्ट नहीं हुई है। परन्तु मुद्दे की बात यह है कि यदि नैतिकता की भावना 20′ है तो अनैतिकता, स्वार्थ और दुराचरण की भावना 80′ हो गई है। इसका प्रमुख कारण क्या है समझा जाना चाहिये और उसी के अनुरूप सुधार के प्रयास शीघ्र किये जाने चाहिये।

सामाजिक राजनैतिक आर्थिक और वैचारिक आधार पर तो कारण अनेक गिनाये जा सकते हैं परन्तु सीधी-सच्ची बात तो एक ही है- संस्कारहीनता। समाज ने अपने संस्कार खो दिये हैं और दिनों-दिन खोता जा रहा है। संस्कारहीनता ने ही कुठाराघात किया है। अगर सुधार करना है तो नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाना पहली आवश्यकता है। वे कार्य जो हमारे आदर्शों और संस्कारों की जड़ें काट रहे हैं उनको रोकना होगा। सुसंस्कारित नागरिक आत्मसंयमी और अनुशासन प्रिय होते हैं। हमें अपने अतीत की ओर देखना होगा और सुसंस्कारों को पल्लवित करने के तात्कालिक प्रयत्न करने होंगे। केवल ऊपरी बातों से या कुछ नियम कायदों में सुधार करने से लाभ नहीं होगा।

व्यक्ति के सुसंस्कार बचपन में माता-पिता और बड़ों की देखरेख में आदर्शों की मान्यताओं के अनुसार दैनिक व्यवहारों में अभ्यास से उपजते हैं। बड़ों का समयोचित मार्गदर्शन दिया जाना आवश्यक होता है। स्कूल में निर्धारित पाठ्यक्रम के आत्मसात करने से और पढ़ाने वाले शिक्षकों की चारित्रिक उज्जवलता के अनुसरण से जागते हैं। पवित्र चेतना और सामाजिक सदाचरण के वातावरण में बढ़ते हैं तथा विभिन्न संस्थाओं के आयोजनों-अनुष्ठानों के अनुकरणीय तत्वों को समझने और अनुकरणीय व्यवहारों की बारम्बारता से पुष्ट होते हैं।

आज समाज और शासन को यह देखना सोचना और उचित कदम उठाने हैं। क्या घर-परिवार, समाज, स्कूल, धार्मिक संस्थायें और राजनेतागण अपने दायित्वों का निर्वाह ईमानदारी से कर रहे हैं? मुझे तो दिखता है कि पहले की तुलना में हर क्षेत्र में सदाशयता, कर्मनिष्ठा और ईमानदारी दायित्व के निर्वहण में कमी आई है, इसीलिये अव्यवस्था और अनैतिकता का बढ़ाव हो चला है। सभी को आत्मनिरीक्षण करने और आत्म सुधार कर अनुकरणीय व्यवहार करने की जरूरत है। छोटे हमेशा बड़ों से सीखते हैं। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ तथा ‘महाजनो येन गत: स पन्था:’  इन कहावतों की भावना को समझकर, समाज में और प्रशासनतंत्र में ऊंचे पद पर आसीनजनों को कार्य करना होगा तब सुधार संभव है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १८ ऑगस्ट – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई-अभिव्यक्ती – संवाद ☆ १८ ऑगस्ट – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

नारायण धारप:

नारायण धारप हे मराठीतील ख्यातनाम कथालेखक होते. त्यांच्या कथा या प्रामुख्याने भयकथा,गूढकथा  व विज्ञानकथा असत.’समर्थ’ हे त्यांचे काल्पनिक पात्र अत्यंत लोकप्रिय झाले होते.त्यांनी नाट्य लेखनही केले होते.

धारप यांचे काही साहित्य:

विज्ञानकथा: अशी रत्ने मिळवीन, अशी ही एक सावित्री, कांताचा मनोरा, चक्रधर, दुहेरी धार, नेणचिम, पारंब्यांचे जग, मृत्यूच्या सीमेवर इत्यादी

भगत कथा: काळी जोगीण, सैतान

समर्थ कथा: मृत्यूजाल, मृत्यूद्वार, विषारी वर्ष, शक्तीदेवी, समर्थ, समर्थांचा प्रहार, समर्थांचे पुनरागमन, समर्थांची शक्ती, समर्थाचिया सेवका इत्यादी

नाटक: चोवीस तास.

श्री.नारायण धारप यांचे 18/8/2008 रोजी निधन झाले.आज त्यांचा  स्मृतीदिन आहे.त्यांच्या स्मृतीस विनम्र अभिवादन. 🙏

☆☆☆☆☆

प्रभाकर लक्ष्मण मयेकर

प्र.ल.मयेकर हे प्रामुख्याने नाटककार म्हणून ओळखले जातात.मुंबईत बेस्ट मध्ये नोकरीत असल्यापासून व नंतर रत्नागिरीत स्थायिक झाल्यावरही त्यांनी नाट्यलेखन केले.सुरूवातीला सत्यकथेत आलेल्या मसीहा या कथेचे त्यांनी नाट्यरूपांतर केले.नंतर हौशी रंगभूमी व व्यावसायिक रंगभूमीसाठी त्यांनी नाट्यलेखन केले.मोहन वाघ यांच्या चंद्रलेखा व मच्छिंद्र कांबळी यांच्या भद्रकाली या संस्थांकडून त्यांची नाटके सादर झाली.मालवणी भाषेतील त्यांची नाटके भद्रकाली ने सादर केली. कौटुंबिक, सामाजिक, विनोदी, रहस्यमय, थरारक अशा सर्व प्रकाचे नाट्यलेखन त्यांनी केले आहे.तसेच एकांकिका, पटकथालेखन, मालिका लेखन व कथा लेखन ही केले आहे. त्यापैकी काही याप्रमाणे:

नाटके: अथ मानूस जगनं हं, आद्यंत इतिहास, अग्निपंख, रातराणी, रानभूल, रमले मी, दिशांतर, सवाल अंधाराचा, तक्षकयाग, डॅडी आय लव्ह यू, आसू आणि हासू ,दीपस्तंभ इत्यादी

एकांकिका: रक्तप्रपात, अनिकेत, होस्ट, अब्दशब्द, अतिथी, एक अधुरी गझल, भास हा माझा इ.

चित्रपटकथा : विधिलिखित, रंग प्रेमाचा, पुत्रवती, वहिनीची माया, जोडीदार, रेशीमगाठ

दूरदर्शन मालिका लेखन: रथचंदेरी, दुरावा, दुहेरी

कथासंग्रह: मसीहा, काचघर

पुरस्कार:

राज्य नाट्य स्पर्धेत अनेक पुरस्कार प्राप्त.

मामा वरेरकर पुरस्कार, नाट्यदर्पण पुरस्कार, रा.ग.गडकरी पुरस्कार, गो.ब.देवल पुरस्कार, वसंतसिंधु पुरस्कार

याशिवाय पटकथा लेखन पुरस्कारही त्यांना प्राप्त झाले आहेत. मुंबई मराठी पत्रकार संघातर्फे आचार्य अत्रे पुरस्कार त्यांना प्रदान करण्यात आला आहे.

18ऑगस्ट 2015 ला त्यांचे दुःखद निधन झाले.त्यांच्या स्मृतीस विनम्र अभिवादन! 🙏

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :विकिपीडिया.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साजरा श्रावण ☆ सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ साजरा श्रावण ☘️ सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) 

   आभाळाच्या मंडपात

   मेघ गातसे मल्हार

    थेंबा थेंबानी ओविले

     शुभ्र मौक्तिकांचे हार….💦💦

 

      हळदुल्या उन्हाच्या या

       पावसात येरझारा

        ऊनं पावसाचा खेळ

         असा श्रावण साजरा..🌦️

 

         ओल्या चिंब पावसाला

          येई प्राजक्ताचा गंध

         जाई -जुई -चमेलीही

         झुलतात मंद मंद…🌼

 

         सोनसळी किरणांनी. 

         इंद्रधनु रेखाटले

         नभं गळता गळता

         मनं माझे आभाळले…🌈

 

          आठवांच्या शिंपल्यात

           झुले माहेरचा झुला

            त्या आनंद क्षणांचा

            असे पाऊस आगळा…😢

©  शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

कोथरूड-पुणे.३८.

   मो.९५९५५५७९०८ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #122 – गेली कित्येक वर्षी… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 122 – गेली कित्येक वर्षी…… ☆

शहरात गेल्यापासून

तुम्ही पार विसरून गेलात मला..,

आज इतक्या वर्षानंतर

तुम्ही मला घर म्हणत असाल की नाही

ठाऊक नाही…

पण मी अजूनही सभांळून

ठेवलंय..,घराच घरपण

तुम्ही जस सोडून गेलात तसंच

गेल्या कित्येक वर्षीत

अनेक उन पावसाळ्यात

मी तग धरून उभा राहतोय

कसाबसा…. तुमच्या शिवाय…

रोज न चुकता तुमच्या सर्वांची

आठवण येते …

पण खर सांगू आता नाही

सहन होत हे ऊन वा-याचे घाव …

माझ्या छप्परांनी ही आता माझी साथ

सोडायचा निर्णय घेतलाय…

माझा दरवाजा तर तुमची वाट पाहून पाहून

कधीच माझा हात सोडून

निखळून पडलाय….

माझ्या समोरच अंगण तुळशीव्दावन

सगळच कसं दिसेनास झालंय आता…

माझ्या भिंतीनी माझा श्वास

मोकळा करून देण्या आधी

एकदा तरी फक्त एकदा तरी ….

मला भेटायला याल अशी आशा आहे…

तूमचं घर तुमची वाट पाहतय…

गेली कित्येक वर्षी…

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मूलाधार जगण्याचा..! ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

?विविधा ?

☆ मूलाधार जगण्याचा..! ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

कांही शब्द अगदी सहज जरी कानावर पडले तरी आपल्या मनाला होणाऱ्या त्यांच्या स्पर्शाने मनात भावनांचे तरंग उमटतात. पण एखादाच शब्द असा असतो की त्याच्या स्पर्शाने मनात उमटणारे असे भावतरंग विविधरंगी असतात. रस हा शब्द भावनांचे असे अनेक रंग स्वतःत सामावून घेतच आकाराला आलेला आहे आणि म्हणूनच तो अल्पाक्षरी असला तरी अनेक अर्थाने बहुरंगी, बहुपेडी शब्द आहे असे मला वाटते.

रस म्हणजे चव, रुचि, गोडी, आवड. रस म्हणजे औत्सुक्य, कुतूहल, जिज्ञासाही. रस म्हणजे द्रव या अर्थाने जलांश, चीक, स्त्राव,अर्क, पाक असंही बरंच कांही. एका दोन अक्षरी छोट्याशा शब्दातल्या सहज सुचणाऱ्या अर्थांच्या या विविध रंगछटा !

रसद हा ‘अन्नपदार्थ’ किंवा ‘साधन’ या अर्थाचा शब्द रस या शब्दावरुनच तयार झाला असावा असे मला वाटते ते रस या शब्दाच्या अनेक अन्न/खाद्यपदार्थांशी असलेल्या जवळीकीमुळे. रस या शब्दाचं अन्नपदार्थांशी असणारं थेट नातं ध्वनित करणारी ‘रसगुल्ला’, ‘आमरस’ ,’सुधारस’ या सारखी मिष्टान्ने आणि सामीष आहारामधला सर्वप्रिय असा कोल्हापूरी तांबडा-पांढरा ‘रस्सा’ ही कांही प्रातिनिधिक उदाहरणे ! यातील मिष्ट पदार्थ असोत वा सामिष त्यांच्याशी चव, रुचि, गोडी,आवड यासारख्या रस या शब्दाच्या अर्थांचे थेट नाते तर चटकन् जाणवणारेच.

रस या शब्दाचं मला जाणवलेलं वेगळेपण हे की त्याच्या चव ,रुचि, गोडी, आवड या अर्थांची रसनातृप्तीशी असणारी सांगड ही एक बाजू असली तरी चव, रुचि, गोडी, आवड या अर्थांचा संबंध फक्त रसनेशीच नाहीय.  एखादा छंद आवडीचा असेल तर तो जोपासण्यात ‘रस’ असतो म्हणजेच ‘गोडी’ वाटते,एखाद्या कामात ‘रुचि’ असेल तर ते काम करणे कटाळवाणे म्हणजेच ‘बेचव’ वाटत नाही.जगणं असं आनंदी, तृप्त करणारं होण्यासाठी जगण्यात  ‘चव’, ‘रुचि’, ‘गोडी’, ‘आवड’ या अर्थाने ‘रस’ हा असायलाच हवा. एरवी ते ‘निरस’च होईल. यामुळेच रस हा जसा जिव्हेचा विषय आहे तसाच किंबहुना त्यापेक्षाही जास्त तो जगण्याचा विषय आहे !

रस या शब्दाच्या अर्थांमधील अशा विविध छटांमुळे या शब्दातून निर्माण झालेली रसदार, रसरशीत, रसपूर्ण, रसभरित, रसहीन, निरस, रसाळ अशी अनेक विशेषणे भाषेचे सौंदर्य खुलवणारी आहेत.

गुणग्रहण, गुणदोष विवेचन, रसास्वाद, रसविमर्श, मूल्यमापन, परीक्षण, आलोचना, समीक्षा, टीका अशा विविध अर्थछटांनी युक्त असा ‘रसग्रहण’ हा शब्द, तसेच रसज्ञ (रसिक), रसपरिपोष किंवा रसवत्ता (कवित्व), रसज्ञता (अभिरुचि), रसवंती(वाणी), रसायन (सरमिसळ, औषध), रसभंग (विरस), रसोत्कर्ष (बहर) यासारखे विविधरंगी शब्दही रस या शब्दातूनच आकाराला आलेले आलेले आहेत. 

शृंगार, वीर, करुण, अद्भूत, हास्य, भयानक, बीभत्स, रौद्र, शांत  हे मनातल्या भावना व्यक्त करणारे नवरसच नाहीयेत फक्त तर जीवनाशी असं अतूट नातं असलेले जीवनरसच आहेत. ही अशी रसयुक्त विविधता नसती तर जगणं निरस, कंटाळवाणंच झालं असतं. या अर्थाने हे वैविध्यपूर्ण, अनेकरंगी रस हे आपल्या जगण्याचे मूलाधारच म्हणायला हवेत!

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ उंबराचे फुल- संस्कारमूर्ती श्री. एस.बी. पाटील सर भाग – 2 – लेखक – श्री सुभाष मंडले  ☆ प्रस्तुती – श्री मेघशाम सोनवणे ☆

? जीवनरंग ?

उंबराचे फुल- संस्कारमूर्ती श्री. एस.बी. पाटील सर भाग – 2 – लेखक – श्री सुभाष मंडले  ☆ प्रस्तुती – श्री मेघशाम सोनवणे 

(तितक्यात पुन्हा, ‘किरण दरवाजा उघड’, असा बाहेरून आवाज आला. ) इथून पुढे —–

तसं नाईलाजास्तव किरण पुढे झाला. ‘उघडू का नको, उघडू का नको’ करत दाराची कडी काढली अन् हळूहळू दरवाजा उघडला.

तसं समोर हातात काठी, अन् गंभीर चेहरा करून पाटील सर उभे…!!!

सरांना अशा अवतारात समोर पाहिलं आणि अंधारात चाचपडत चालत असताना अचानक आलेल्या लाईटच्या प्रखर उजेडाने डोळे दिपून जावेत, अन् पुढचं काही दिसायचंच बंद व्हावं, अशी माझी अवस्था झालेली.

महाभारतातील संजय हा आपल्या दिव्य दृष्टीने कुरूक्षेत्रावर घडत असलेल्या युद्धाचा ‘आँखो देखा हाल’ जसं आंधळ्या धृतराष्ट्रला सांगत होता, अगदी तसंच काहीसं त्यावेळी झालं असावं व वरच्या मजल्यावर असलेल्या सभागृहामध्ये आम्ही क्रिकेट खेळतोय, हे त्यांना समजलं असावं.

त्यांच्या हातातली काठी बघून काळजात धस्स् झालं. त्यांचा आम्ही सर्वच जण आदर करत होतो. त्यामुळे त्यांच्या नजरेला नजर द्यायचे आमच्यापैकी कुणाचेच धाडस होत नव्हते.

पाटील सर आत आले. त्यांनी आतून दरवाजा लाऊन घेतला आणि कडी लाऊन घेतली. आता मात्र ते एकेकाला फोडून काढल्याशिवाय राहणार नाहीत. भितीने हृदयाचे ठोके वाढायला लागलेले. माराची भिती होतीच, पण आम्ही त्यांच्या नजरेत गुणी विद्यार्थी होतो. त्यांनी आमच्यावर गुणवंतपणाची पांघरलेली झालर त्यांच्याकडूनच अशी उतरवली जाणार. याची मनाला बोचणी लागलेली. मनात नुस्ती कालवाकालव सुरू झालेली.

पाटील सर काही बोलायच्या आत किरण आतून घाबरून गेलेला, तरीही तोंडावर उसने हसु आणत बोलला, ” सॉरी सर, चुक झाली. पुन्हा असे नाही करणार. एवढ्या वेळी माफ करा.” त्याच्या सुरात सूर मिसळून आम्हीही तोंडावर उसने हसु आणत “सॉरी सर, सॉरी सर” म्हणू लागलो.

“हॉलमध्ये क्रिकेट खेळत होतात, तेही तुम्हाला अभ्यास करत बसायला सांगितलेल्या वेळेत.. अभ्यासाचे कुणालाच गांभीर्य नाही. ही तुम्हा सर्वांना चुक मान्य आहे. चुक केली आहे तर शिक्षा ही मिळायलाच पाहिजे.” एकेकाकडे पाहत, “काय संदिप? निलेश? महेश? उद्धव?…? सुभाष? (इतर वेळी प्रेमाने, गंमतशीरपणे ‘सुभाषलाला’ या नावाने संबोधणारे पाटील सर, आज यावेळी फक्त ‘सुभाष’ या एकेरी नावानेच बोलत होते. फक्त या एकेरी नामोल्लेखानेच मीच माझ्या नजरेत अक्षरशः संपून गेलो. पाण्यात ढेकळ विरघळावा तसा विरघळून गेलो.) काय किरण बरोबर ना? “

आम्ही सगळे अपराधीपणाच्या भावनेने माना खाली घालून निशब्दपणे उभे.

“घे. हात पुढे घे.”, असे म्हणत त्यांनी छडी मारायला वर उचलली.

सर्वांत पुढे किरण होता, त्यामुळे सहाजिकच त्याने घाबरत घाबरत हात समोर केला. छडी जोरात उगारलेली बघून त्याने खसकन हात मागे घेतला. पुन्हा एकदा घाबरत घाबरत हळूहळू हात पुढे केला आणि डोळे गच्च मिटून घेतले.

तो क्षण, ती अवस्था बघून आम्हीही फुलांच्या पाकळ्या चुरगळतात तशी बोटं तळ हातावर चुरगाळत, हातावर फुंकर मारत छडीचा मार घ्यायला सज्ज होत होतो. पण घडले वेगळेच.

अनपेक्षितपणे पाटील सर यांनी छडी मारताना हात मागे घेवू नये, यासाठी किरणच्या हाताची बोटे पकडून धरण्यासाठी स्वतःचा हात पुढे केल्यासारखे करून. किरणच्या हाताच्या वरच्या बाजूला हात केला व स्वतःच्याच तळ हातावर जोर जोराने छडी मारायला सुरुवात केली. 

आम्हाला समोर काय घडतंय हे कळायच्या आत सलग तीन चार छड्या मारून झाल्या होत्या. हाताला झिणझिण्या आल्याने त्यांनी हात खाली घेत दोन वेळ झिंजडला आणि पुन्हा हात वर घेऊन पुन्हा हातावर छडीचा मार घ्यायला सुरुवात केली. 

समोर उभा असलेल्या किरणचे खाडकन डोळे उघडले. किरण आणि अजून दोघा तिघांनी छडी अडवण्याचा प्रयत्न केला, पण त्यांचा हात धुडकावून लावत पुन्हा जोरजोराने हातावर छडीचा मार देऊ लागले. 

आमच्यातल्या एक-दोघांनी पुढे होऊन त्यांचा छडी लागलेला हात पकडला आणि भिजल्या डोळ्यांनी म्हणालो, ” सॉरी सर, सॉरी सर आमची चूक झाली, तुम्हाला असा त्रास करून घेऊ नका? आम्हाला शिक्षा करा.”

“शिक्षा ही व्हायलाच पाहिजे, तुम्हाला नव्हे, तर मला. तुम्ही तुमच्या बाजूने बरोबर असाल. तुमचं काहीच चुकलं नाही, माझीच चुक झाली. मीच माझ्या बाजूने तुम्हाला समजावण्यात कमी पडलोय. आम्ही तुम्हाला संस्कार द्यायला कमी पडलोय, त्यामुळे मला शिक्षा व्हायलाच पाहिजे.”

सरांची अशी भावनिक साद ऐकून काळजाला चिमटा बसला. मनात कालवाकालव झाली. कंठ दाटून आला. क्षणात आमच्या सर्वांचे डोळे पाण्याने डबडबले.

“सर दोन छड्यांच्या जागी चार मारा. आठ मारा. वाट्टेल तितके मारा. आम्हाला वाट्टेल ती शिक्षा करा, पण सर… आमच्यामुळे तुम्हाला असा त्रास करून घेऊ नकोसा. आम्ही आजपासून अजिबात क्रिकेट खेळणार नाही. फक्त अभ्यासच करणार. आमच्यामुळे तुम्हाला त्रास होईल, असे कधी आम्ही वागणार नाही.”, असे म्हणत आम्ही सर्वांनी सरांना हात जोडले आणि काळवंडलेल्या मनाने विनवण्या करत, ‘सॉरी सर, सॉरी सर’, म्हणू लागलो.

सरांनी ज्या हातावर छडीचा मार घेतला होता, त्या गोऱ्या हातावर काही क्षणातच छडीच्या माराने लाल निळसर रंगाचा जाड वळ उमटलेला. त्यावेळची ती दाहकता मनाला अजूनही सुन्न करणारी आहे.

आई आपल्या मुलाला शिक्षा करते व नंतर प्रेमाने आपल्या पोटाशी कवटाळून धरते. काहीसे असेच भाव त्यावेळी सरांच्या डोळ्यात तरळलेले पाणी पाहून मला वाटले. 

त्या दिवशी त्यांनी छडीचा त्यांच्या हातावर नव्हे, तर आमच्या भरकटणाऱ्या मनावर वार केला. विद्यार्थी भावनिकदृष्ट्या शिक्षकांशी जोडले गेलेले असतात, पण शिक्षक सुद्धा तितक्याच भावनिकतेने विद्यार्थ्यांशी जोडलेले असतात, हे त्या दिवशी प्रत्यक्ष अनुभवायला मिळाले.

आदरणीय एस. बी. पाटील सर यांच्या सोबतच्या अशा अनेक आठवणी आहेत, की ज्यामुळे त्यांना संस्कार मुर्ती, उंबराचे फुल (अतिशय दुर्मिळ व्यक्ती) म्हणावंसं वाटतं. ते माझ्यासह प्रत्येकाला माझेच वाटतात.

ज्युनिअर कॉलेजचे शिक्षण पूर्ण होऊन आज पंधरा-सोळा वर्षे झालीत, तरीही तेथे मिळालेल्या पुस्तकी शिक्षणाचा उपयोग पैशाच्या जगात किती होतोय, हे स्पष्टपणे सांगता येणार नाही, पण बिघडण्याच्या काळात आम्हाला घडवण्याचं काम मात्र पाटील सर आणि तेथील सर्व शिक्षकांनी केले; हे ठामपणे सांगता येईल.

आदरणीय रहमान एम. शिकलगार सर (physics), संजय बी. पाटील सर (Chemistry), शबनम मनेर मॅडम (English), अंजली शिंदे मॅडम( Biology), सुवर्णा पाटील मॅडम (Math’s), विजय सातपुते सर (मराठी), यांनी शिक्षणासोबतच शहाणपणाची, संस्कारांची जी भक्कम शिदोरी दिली आहे. ती अजून भरून उरली आहे, असं मला वाटतं.

— समाप्त —

लेखक : श्री सुभाष मंडले.

 (९९२३१२४२५१)

संग्राहक : श्री मेघशाम सोनवणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ बंध राखीचे… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

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☆ बंध राखीचे… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

रक्षाबंधन निमित्ताने विवेकची…माझ्या भावाची आठवण येते. सण साजरा होतो.

भावाला प्रेमाने नारळीभात, मिठाई खायला घालतो.त्याला ओवाळतो. भाऊही भेटवस्तू देऊन

बहिणीला खूश करतो.राखी पौर्णिमा साजरी होते !

पण मला आठवतो तो दिवस, जेव्हा विवेकने माझे खरोखरच रक्षण केले होते! त्याच्या विश्वासावर मी भरलेला ओढा पार करून गेले होते!

जवळपास ४०/४५ वर्षांपूर्वीची गोष्ट! मी तेव्हा हाॅस्टेलवर शिकायला होते.आणि माझा भाऊ नुकताच इंजिनिअर होऊन एस् टी मध्ये नोकरीला लागला होता.मी तेव्हा सांगलीत रहात होते आणि तो कोल्हापूरला होता.आई-वडील तेव्हा मराठवाड्यात नांदेड जवळील एका लहान गावात नोकरी निमित्ताने रहात होते.वडिलांची प्रमोशनवर बदली रत्नागिरीहून नांदेडला झाली आणि युनिव्हर्सिटी बदल नको म्हणून मी सांगलीलाच होते.दिवाळीच्या सुट्टीत घरी जायला मिळत असे.

त्या वर्षी नेहमी प्रमाणे मला सुट्टीसाठी नांदेडला पोचवायला विवेक येणार होता. तेव्हा एस् टी च्या गाड्याही फारशा नव्हत्या. संध्याकाळी कोल्हापूर -नांदेड अशी सात वाजता बस असे. ती दुसऱ्या दिवशी सकाळी

९-३०/१० पर्यंत नांदेडला जाई. अर्थात वाटेत काही प्राॅब्लेम नाही आला तर! त्यावर्षीचा तो प्रसंग मी कधीच विसरत नाही. दिवाळीच्या सुट्टीला जाण्यासाठी मी आणि माझा भाऊ सांगलीहून एस् टीत बसलो तेव्हा पाऊस होताच. कदाचित मिरजेच्या पुढे ओढ्याला पाणी असण्याची शक्यता होती. त्या मोठ्या ओढ्याचं नाव होतं हातीदचा ओढा! विवेक एसटीत असल्याने त्याला हे सर्व माहीत होते, पण नंतर वेळ नसल्यामुळे ‘आपण निघूया तरी’ असे त्याने ठरवले. मिरजेच्या स्टॅण्डवर त्याने ब्रेड, बिस्किटे,फरसाण असा काही खाऊ बरोबर घेतला होता. ठरल्याप्रमाणे आम्ही निघालो. शिरढोणच्या दरम्यान ओढा भरभरून वाहत होता. रात्रीचे नऊ वाजले होते. बाहेर धुवाधार पाऊस! रात्रभर आम्ही ओढ्याच्या एका तीरावर एस् टी मध्ये बसून होतो. पावसामुळे बाहेरचे वातावरण आणखीनच भयाण वाटत होते. कधी एकदा सकाळ होईल असं वाटत होतं!

एकदाची सकाळ झाली. गाडीतून खाली उतरून बाहेर पाहिले तर दोन्ही तीरावर भरपूर गाड्या अडकून पडल्या होत्या. कंडक्टरने सांगून टाकले की पाणी थोडं कमी झाले आहे, आपापल्या जबाबदारीवर पलीकडे जा आणि तिकडच्या एस टी.त  बसा! एक एक करत लोक ओढा पार करत होते. सामान डोक्यावर घेऊन चालले होते. माझे तर काही धाडसच होत नव्हते! भाऊ म्हणाला, ‘आपण जर असेच बसलो तर पलीकडे जाऊ नाही शकणार!’ आणि ओढा क्रॉस करण्याशिवाय दुसरा पर्याय नाहीये. शेवटी तो स्वतः एकदा ओढा पार करून  पाणी कितपत आहे ते पाहून आला. विवेक चांगला पोहणारा होता आणि मला तर अजिबात पोहता येत नव्हते. पाण्याची भीती वाटत होती, पण त्याने मला धीर दिला. मला म्हणाला, ‘ मी हात घट्ट पकडतो, पण तू चल .’ आणि खरंच, त्याने एका हातात सामान आणि दुसऱ्या हाताने माझा हात घट्ट धरून ओढ्यापलीकडे मला न्यायला सुरुवात केली. ओढ्यामध्ये काटेरी झुडपे, लव्हाळी यात पाय आणि साडी अडकत होते.. माझी उंची कमी असल्याने अधूनमधून पाण्यात पूर्णडोके खाली जाई, आणि गुदमरल्यासारखं होई. पण मला धीर देत आणि माझं मनगट घट्ट धरून विवेक मला नेत होता. कसेबसे आम्ही ओढ्यापलीकडे गेलो. नंतर बॅगमधील सुके कपडे आडोशाला बदलून दुसऱ्या गाडीत बसलो. आणि पुढचा प्रवास पार पडला! आयुष्याच्या प्रवासात असा एखादा आठवणींचा प्रवास माणसाला अंतर्मुख करतो. भावाचं नातं आणखीनच दृढ करतो… इतकी वर्षे झाली तरी मला तो दिवस तेवढाच आठवतो!

आणि भावाने बहिणीचे संरक्षण करायचं असतं ते कृतीने दाखवणारा माझा भाऊ डोळ्यासमोर उभा राहतो.. आता विवेक पंचाहत्तरीकडे वाटचाल करत आहे. पण अजूनही आमचे भाऊ बहिणीचे नाते तितकेच घट्ट आहे! ….

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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