हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #269 – कविता – ☆ जिंदगी भर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “जिंदगी भर…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #269 ☆

☆ जिंदगी भर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जिंदगी भर, हम रहे लड़ते स्वयम से

पर हुए ना मुक्त,अब तक भी अहम से।

*

यज्ञ जप तप दान धर्म सुकृत्य कितने

कभी मन से तो कभी अनमने मन से

जुड़ी इनके साथ तृष्णाएँ  कईं थी

श्रेष्ठ होने के सतत चलते जतन थे,

पठन पाठन भी चले आगम निगम के

पर हुए ना मुक्त,अब तक भी अहम से।

*

जटिल होती ही गई,  श्रम साधनाएँ

खो गई कमनीय, मन की सरलताएँ

हो तिराहे पर खड़े, अब दिग्भ्रमित से

सूझती राहें नहीं,  किस ओर जाएँ,

समझ आया आज, बचना था चरम से

पर हुए ना मुक्त, अब तक भी अहम से।

*

सहज रहते,संग खुशियाँ खिलखिलाती

दर्प, संशय, भय, पराजय से बचाती

 खोजते यदि, समन्वय कर श्वांस से तो

सुगमता से,  जिंदगी  फिर मुस्कुराती

वहम से हो मुक्त, मिल जाते परम् से

पर हुए ना मुक्त,अब तक भी अहम से।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 93 ☆ कौन है अपना? ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “कौन है अपना?” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 93 ☆ कौन है अपना? ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

चेहरे अब नहीं

पहचान में आते

किसको कह दें

कौन है अपना।

 

आँख मलते हाथ आई

वेदना केवल

सहमी-सहमी साँस पर

काटते हर पल

 

डालते नाकामियों पर

शर्म के परदे

किसके भरोसे

छोड़ दें डरना।

 

हर जगह कुरुक्षेत्र है

महाभारत का

बर्फ सी ठंडी है करुणा

आतंक आफत का

 

अब नहीं आकाश में

हैं मेघ छाते

फूटता संवेदना का

कोई भी झरना।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अस्तित्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अस्तित्व ? ?

पहाड़ की ऊँची चोटियों के बीच

अपने कद को बेहद छोटा पाया,

पलट कर देखा,

काफी नीचे सड़क पर

कुछ बिंदुओं को हिलते डुलते पाया,

ये वही राहगीर थे,

जिन्हें मैं पीछे छोड़ आया था,

ऊँचाई पर हूँ, ऊँचा हूँ,

सोचकर मन भरमाया,

एकाएक चोटियों से साक्षात्कार हुआ,

भीतर और बाहर एकाकार हुआ,

ऊँचाई पर पहुँच कर भी,

छोटापन नहीं छूटा

तो फिर क्या छूटा?

शिखर पर आकर भी

खुद को नहीं जीता

तो फिर क्या जीता?

पर्वतों के साये में,

आसमान के नीचे,

मन बौनापन अनुभव कर रहा था,

पर अब मेरा कद

चोटियों को छू रहा था..!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘“ऊँचाई ”’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Height…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ऊँचाई .  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

?~ Height… ~??

On lofty heights,

a home resides,

Atop a skyscraper,

where wind chides

*

In summer’s heat,

its roof blazes bright,

In winter’s pricking chill,

it shivers through the night

*

Life exacts a price

for every desire,

A cost that’s steep,

and often hard to acquire

*

For those who build their

dreams on lofty ground,

Effort and toil are the

heavy prices that hound…

*

No heights are ever reached

without a struggle and strife,

No triumph won without a

willingness to climb through life..!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

~ Pravin Raghuvanshi

24 February 2025

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – ऊँचाई ? ?

बहुमंजिला इमारत की

सबसे ऊँची मंज़िल पर

खड़ा रहता है एक घर,

गर्मियों में इस घर की छत

देर रात तक तपती है,

ठंड में सर्द पड़ी छत

दोपहर तक ठिठुरती है,

ज़िंदगी हर बात की कीमत

ज़रूरत से ज्यादा वसूलती है

छत बनने वालों को ऊँचाई

अनायास नहीं मिलती है..!

?

© संजय भारद्वाज  

♥ ♥ ♥ ♥

© संजय भारद्वाज  

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

रात्रि 3:29 बजे, 20 मई 2019

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 97 ☆ क़लम रुके जो नया सूझता नहीं मिसरा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “क़लम रुके जो नया सूझता नहीं मिसरा“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 97 ☆

✍ क़लम रुके जो नया सूझता नहीं मिसरा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मुसीबतों से वो मुझको निकाल देता है

निराश होते ही हिम्मत कमाल देता है

 *

पनाह जब न मिले कोई भी जहां से तब

कोई तो है जो मुझे अपनी ढाल देता है

 *

 क़लम रुके जो नया सूझता नहीं मिसरा 

उतर के ज़हन में तू ही ख़याल देता है

 *

जो मदरसे न सिखायें वो सीख दे जीवन

बगैर सीखे हुनर बा- कमाल देता है

 *

सपूत नाम बढ़ाता है पुरखों का अपने

कपूत बाप की पगड़ी उछाल देता है

 *

उतार ज़ीस्त में ले अपनी थोड़ा भी इंसां

जो दूसरों को हमेशा मिसाल देता है

 *

ठसक न इतनी दिखा हुस्न की न कुछ तेरा

हसीन होने ख़ुदाया ज़माल देता है

 *

अजीब वक़्त है करता नहीं मदद कोई

जबाब पूछो तो फ़ौरन सवाल देता है

हरेक बात पे चर्चा को वक़्त है उस पर

“अरुण “से प्यार है पूछो तो टाल देता है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गर बात बनी तो मुकम्मिल होगी… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – गर बात बनी तो मुकम्मिल होगी ।)

✍ गर बात बनी तो मुकम्मिल होगी… ☆ श्री हेमंत तारे  

आज शब लफ़्ज़ों को चाय पर बुलाया है

चन्द ख्व़ाब, चन्द यादों ने शोर मचाया है

*

गर बात बनी तो मुकम्मिल होगी ये ग़ज़ल

इस तसव्वुर-ऐ- जानां ने दिल महकाया है

 *

यूं ही उजड़ा – उजड़ा सा रहता है मन मेरा

तेरे आने की उम्मीद बनी, इसे सजाया है

 *

इस मुआशरे के हर बाशिंदे का तजुर्बा है

जो ताजदार बना उसी ने लूटा ओ सताया है

 *

हट गया तेरी दीदों से मगरूरी का चष्मा

मेरे इल्म -ओ – हुनर से तेरा ग़ुरूर शर्माया है

 *

इश्क़ आसां नही ये जमाने का दस्तूर सही

पर क़ामयाब हुये हैं हम, ये मिसाल  नुमाया है

 *

नये तौर- तरीके ‘हेमंत ‘ मुबारिक तुम को

मैं क़ाइम हूं रिवायत पे, जो मेरा सरमाया है

 

शब = रात,  मुकम्मिल = सम्पूर्ण, तसव्वुर-ऐ- जाना = मनपसंद कल्पना, मुआशरा = सभ्यता/ समाज,  क़ाइम = दृढ, रिवायत =  परम्परा,  सरमाया = पूंजी, धन – दौलत

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 10 ☆ लघुकथा – उसूल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “उसूल“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 10 ☆

✍ लघुकथा – उसूल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

माधव और रघु दोनों बचपन से मित्र हैं। दोनों अपने अपने काम में माहिर। दोनों साथ साथ पढे। माधव ने आईटीआई कर लिया और रघु ने प्लंबिंग का काम सीख लिया। दोनों की पारिवारिक परिस्थितियों ने उच्च शिक्षा ग्रहण न करने दी परंतु दोनों मेहनती थे और अपनी मेहनत की कमाई से खुश भी। दोनों का विवाह हो गया तो गांव से मुंबई आ गए।

माधव ने मेकेनिकल इंजीनियरिंग में आईटीआई किया था सो उसे काम मिलने में दिक्कत नहीं हुई। रघु को शुरू में काम तलाशने में थोड़ी परेशानी तो हुई लेकिन प्लम्बिंग में होशियार होने के कारण जहाँ काम करता वहाँ पसंद किया जाता और जिन-जिनके यहाँ काम करता वे लोग जरूरत पड़ने पर उसी को बुलाते और अपने मित्रो के यहाँ भी भेजते। इस प्रकार रघु की आमदनी भी ठीक ठाक थी। दोनों अपने अपने परिवार के साथ कल्याण में एक ही  बिल्डिंग में रहते थे ।

बच्चों की पढ़ाई और शादी ब्याह की जिम्मेदारी आने से आमदनी बढाने और आवास की अच्छी व्यवस्था पर विचार करने लगे। रघु को अपने एक मित्र के जरिए अंबरनाथ में कम दाम पर एक फ्लैट मिल गया और उसी के नीचे एक दूकान । दूकान किराए पर ले ली और हार्डवेयर की दूकान खोल ली। प्लंबिंग का काम तो चल ही रहा था। अब उसे बड़ी बिल्डिंग में प्लम्बिंग के ठेके भी मिलने लगे ।

माधव कल्याण में ही रह गए।  वे मुंबई में एक कंपनी में काम करते थे और कल्याण से मुंबई अप डाउन करते थे। उनकी तीन बेटी और एक बेटा था। एक बेटी का विवाह हो गया परन्तु छोटी बेटी और बेटा पढाई कर रहे थे। रघु के तीन बेटे थे और उनमें से दो हाईस्कूल करने के बाद उसके साथ ही काम करने लगे। इस तरह उसकी आमदनी अच्छी होने लगी। अंबरनाथ के बाहरी इलाके में खाली पड़ी जमीन पर प्लॉटिंग हो रही थी तो रघु को वहाँ एक प्लॉट मिल गया और फ्लैट बेचकर एक बंगला बना लिया।

रघु के बंगले के बाजू में एक प्लॉट था जो बिकाऊ था। उसने सोचा क्यों न माधव को दिलवा दिया जाए। माधव से बात की तो वह तैयार हो गया क्योंकि कल्याण वाला फ्लैट छोटा पड़ रहा था इसलिए उसने हाँ कर दिया। इधर रघु ने प्लॉटहोल्डर से बात की तो प्लॉटहोल्डर माधव को बेचने के लिए तैयार हो गया। रघु बहुत प्रसन्न हुआ और चेहरे पर अनोखे भाव लाते हुए प्लॉटहोल्डर से कहने लगा कि माधव उसके बचपन का दोस्त है और उससे वह कुछ कह नहीं सकता इसलिए मेरा भी ख्याल रखना। प्लॉटहोल्डर ने सहज भाव से उसका चेहरा देखते हुए कहा – दो पर्सेंट न! रघु ने धीरे से हाँ में सिर हिलाया।

प्लॉटहोल्डर ने हँसते हुए कहा कि अरे भाई वह तो आज का उसूल है, चिंता मत करो मिल जाएगा।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 614 ⇒ हरफनमौला ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हरफनमौला ।)

?अभी अभी # 614 ⇒  हरफनमौला ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिन्हें अरबी फारसी नहीं आती, वे हरफनमौला को उर्दू शब्द मानते हैं। जिन्हें उर्दू नहीं आती, वे इसे मुसलमानों का शब्द मानते हैं। एक बहुमुखी व्यक्ति, जो कई चीजों में विशेषज्ञ है, हरफनमौला कहलाता है। क्रिकेट की भाषा में इसे आल राउंडर कहते हैं। कपिल दा जवाब नहीं।

एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी को आप अंग्रेज़ी में multifaceted talent भी कह सकते हैं। बहुविज्ञता ही बहुमुखी प्रतिभा है। एक मुख वाली प्रतिभा के धनी तो हमने देखे है, बहुमुखी प्रतिभा के धनी की तो बात ही और है। अंग्रेज़ी में एक शब्द और है, jack of all! सभी विषयों की थोड़ी थोड़ी जानकारी रखना क्या बुरा है। लेकिन यह वाक्य अधूरा है। जब इसके आगे, master of none, लगता है, तब इसका अर्थ पूरी तरह बदल जाता है।।

जो किसी एक विषय के जानकार होते हैं, उनसे आप किसी अन्य विषय के बारे में बातचीत नहीं कर सकते। मैं मेरे कितने ही दोस्तों को जानता हूं, उनका जीवन सिर्फ शेयर मार्केट बनकर रह गया है। जिस तरह कुछ लोग दिन भर टीवी पर न्यूज़ लगाए बैठे रहते हैं, ये लोग हमेशा सेंसेक्स पर नजर गड़ाए बैठे रहते हैं। एक छोटे से उतार चढ़ाव में लाखों के बारे न्यारे हो जाते हैं। यही इनकी ज़िन्दगी है, खून पसीने की कमाई है।

लाला हरदयाल की एक पुस्तक है, Hints for Self-Culture. इसका प्रथम संस्करण सन् १९३४ में प्रकाशित हुआ था।

इस पुस्तक का अब हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है। इस पुस्तक में जीवन के हर पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। यहां केवल भारतीय संस्कारों का जिक्र नहीं है, स्वयं के व्यक्तित्व के विकास के लिए, किन किन विषयों की जानकारी आवश्यक है, उनका विस्तारपूर्वक विवेचन, हर विषय को लेकर किया गया है। व्यक्ति के बौद्धिक, और शारीरिक विकास के साथ कलात्मक विकास की भी चर्चा की गई है इस पुस्तक में। साहित्य से इतर जितनी भी ललित कलाएं हैं, उनकी चार अध्यायों में विस्तृत व्याख्या इस पुस्तक की मुख्य विशेषता है।।

जानना ही ज्ञान है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं ! सही समय पर ज्ञान का उपयोग, सदुपयोग है, अनावश्यक ज्ञान का प्रदर्शन व्यक्ति को दंभी और अहंकारी बनाता है। जो ज्ञानी कम बोलते हैं, उनसे और अधिक जानने की उत्सुकता रहती है। लेकिन जो अधूरे ज्ञान का ढोल पीटा करते हैं, उनके लिए ही शायद यह कहावत बनी हो। थोथा चना, बाजे घना।

व्यक्ति हो या व्यक्तित्व, गंभीरता और गहराई जीवन में परिपक्वता लाती है। आम का पेड़, जब फलों से लद जाता है, तो उसकी डालियां झुक जाती हैं। बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। बोलने में भी अगर मितव्ययिता हो, जहां बोलना ज़रूरी हो वहीं बोला जाए, मृदु भाषी भी अगर हों, तो सोने में सुहागा। गागर में सागर केवल शब्दों में ही संभव है। मीन तो बेचारी सागर में भी प्यासी ही रह जाती है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 61 – बंधन… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बंधन।)

☆ लघुकथा # 61 – बंधन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“तुम्हें पता है तुम्हारी मां ने क्या किया, मोहल्ले की सारी औरतें नीचे आई है अब चलो जवाब दो? बच्चों की तरह हरकतें करती हैं। मैं कुछ बोलती हूं तो तुम लोगों को लगता है कि मैं तुम्हारी मां की शिकायत करती रहती हूं।”

“क्या हुआ तुम माँ पर क्यों चिल्ला रही हो?”

“वह सुबह से गायब है बच्चों की तरह  नजर रखनी पड़ती है शांति जी ने कहा।”

रामप्रसाद जी ने गंभीरता से गहरी सांस ली और कहा “भाग्यवान नाम तो तुम्हारा शांति है पर क्यों अशांति मचा रखी हो? मां ने कहा है कि वह तुम्हारे और हमारे लिए कुछ सामान लेने जा रही हैं इसलिए आज मुझसे वह ₹10,000 लेकर गई हैं अभी आ रही होगी।”

“चलो ! देखो तुम्हारी मां ने क्या किया है?”

“क्या हुआ भाभी जी आप सब लोग आज यहां पर?”

“क्या बताएं भाई साहब, आपकी मां हमारी सभी की सास और बेटियों को लेकर कुंभ स्नान के लिए गई हैं। सब लोग बिना बताए ही घर से निकल गई है अब हमें बड़ी घबराहट हो रही है।”

“आप लोग घबराइए नहीं मैं ड्राइवर को फोन लगा कर पूछता हूं।”

उन्होंने फोन किया तब ड्राइवर ने कहा कि- “मां जी ने कहा कि आपने ही आदेश दिया है।”

माँ ने ड्राइवर से फोन ले लिया कहा –“चिंता मत करो हम लोग दो-तीन दिन में आराम से घर पहुंच जाएंगे। तुम सभी के लिए मैं प्रसाद भी ले आऊंगी और अब दोबारा फोन करके परेशान मत करना।”

“भाई साहब अगली बार से आप माताजी से कह दीजिएगा कि हम सभी की सास और बेटियों को लेकर न जाया करें अकेले उन्हें जहां जाना हो वहां जाये।”

सभी पड़ोस की औरतें चली गईं।

“श्रीमान जी कुछ कहती थी तो तुम्हें लगता था कि मैं उन पर शक करती हूं। बताओ अब किसी मुश्किल में खुद फंसेंगी और सबको फसाएंगे अब क्या होगा?”

“उनसे भी मेरा ममता का बंधन है वह भी तो मेरी मां है।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 261 ☆ तो दिवस… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 261 ?

☆ तो दिवस ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

एखाद्या दिवसाकडून,

आपण केलेल्या असतात,

वेगळ्याच अपेक्षा,

खूप काही बोलायचं असतं,

ऐकायचं असतं!

*

बनवायचं असतं काही चविष्ट—

ती फोनवर उगाचच ऐकवते,

हे नको…ते नको….

आणि फसतातच सारे बेत,

तिच्या दृष्टीने !

*

आणि खरंतर तीच असते नांदी —

काही अघटित घडण्याची!

असे ओढून ताणून,

नसतातच मिळवायचे,

आनंदाचे क्षण,

ते प्रारब्धातच असावे लागतात!

 सगळेच ठोकताळे..

चुकतात, हुकतात काही क्षण,

चुकवायला नकोच–

असतात असे,

तो दिवस असाच,

असतो—

ध्यानी मनी नसताना,

सोसावा लागतो!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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