अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (57) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18

( भक्ति सहित कर्मयोग का विषय )

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥

भाव समर्पित कर्म कर, मुझमें लगा कर ध्यान

बुद्धियोग आश्रित हो , नित रख मन मेरा भाव ।।57।।

 

भावार्थ :  सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में जिसकी विधि कही है) तथा समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो॥57॥

Mentally renouncing all actions in Me, having Me as the highest goal, resorting to the Yoga of discrimination do thou ever fix thy mind on Me.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’  

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (56) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18

( भक्ति सहित कर्मयोग का विषय )

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्‌॥

 

सभी कर्म कर सदा जो , अर्पण करते भाव

वह पाते हैं ब्रहम पद, कहीं न कोई अभाव ।।56।।

 

भावार्थ :  मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है॥56॥

Doing all actions always, taking refuge in Me, by My Grace he obtains the eternal, indestructible state or abode.

 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (55) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(ज्ञाननिष्ठा का विषय )

 

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌॥

जो भक्ति से समझता, मेरा वास्तविक रूप

वही मुझे पाता तथा , हो जाता तद्रूप ।।55।।

 

भावार्थ :  उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है॥55॥

By devotion he knows Me in truth, what and who I am; and knowing Me in truth, he forthwith enters into the Supreme.

 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (54) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(ज्ञाननिष्ठा का विषय )

 

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌॥

 

मन प्रसन्न रख, शोक औ” इच्छाओं को त्याग

समदृष्टि से भक्ति मम , कर मुझमें अनुराग।।54।।

 

भावार्थ :  फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए) योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है॥54॥

Becoming Brahman, serene in the Self, he neither grieves nor desires; the same to all beings, he attains supreme devotion unto me.

 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (51-53) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(ज्ञाननिष्ठा का विषय )

 

बुद्ध्‌या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।

शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।51।।

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।52।।

अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌।

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।53।।

 

शुद्ध बुद्धि रख, संयमित, राग-द्वेष को त्याग

शब्द आदि सब विषय तज एकनिष्ठ कर ध्यान ।।51।।

मन वाणी औ” कर्म पर रख अपना अधिकार

कम भोजन, वैराग्ययुत कर एकांत में ध्यान ।।52।।

अहंकार, बल, दर्प, तज, काम, क्रोध से दूर

निमर्म, शांतिस्वरूप हो, ब्रह्म ध्यान मे डूब ।।53।।

भावार्थ :  विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के (इसी अध्याय के श्लोक 33 में जिसका विस्तार है) द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है॥51-53॥

Endowed with a pure intellect, controlling the self by firmness, relinquishing sound and other objects and abandoning both hatred and attraction,।।51।।

Dwelling in solitude, eating but little, with speech, body and mind subdued, always engaged in concentration and meditation, taking refuge in dispassion,।।52।।

Having abandoned egoism, strength, arrogance, anger, desire, and covetousness, free from the notion of “mine” and peaceful,-he is fit for becoming Brahman.।।53।।

 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (50) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(ज्ञाननिष्ठा का विषय )

 

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥

 

सिद्धि प्राप्त कर व्यक्ति ज्यों , करता ब्रह्म की प्राप्ति

सुन यह सच्चा ज्ञान औ”,  यह ही सच्ची रीति ।।50।।

 

भावार्थ :  जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ॥50॥

Learn from  Me  in  brief,  O  Arjuna,  how  he  who  has  attained  perfection  reaches Brahman, that supreme state of knowledge.

 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (49) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(ज्ञाननिष्ठा का विषय )

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति॥

 

जो निस्पृह रह जितेन्द्रिय, नित, रखे बुद्धि निर्लिप्त

वह सन्यास प्रवृति से, पाता नैष्कर्मक सिद्धि ।।49।।

 

भावार्थ :  सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है॥49॥

He whose intellect is unattached everywhere, who has subdued his self, from whom desire has fled,-he by renunciation attains the supreme state of freedom from action.

 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (48) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(सन्यास   योग)

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥

 

अपना कर्म सदोष भी ,कभी नहीं है त्याज्य

अग्नि-धूम्र सम, कर्म सब , हैं दोषो से व्याप्त ।।48।।

 

भावार्थ :  अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं॥48॥

One should not abandon, O Arjuna, the duty to which one is born, though faulty; for, all undertakings are enveloped by evil, as fire by smoke!

 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (47) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(सन्यास   योग)

(फल सहित वर्ण धर्म का विषय)

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌॥

हो स्वधर्म परधर्म से ,  छोटा भले महान

नियत कर्म ही कीर्तिप्रद,  सुख पाता इंसान।।47।।

 

भावार्थ :  अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता॥47॥

Better is one’s own duty (though) destitute of merits, than the duty of another well performed. He who does the duty ordained by his own nature incurs no sin.

 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (46) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

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अध्याय 18  

(सन्यास   योग)

(फल सहित वर्ण धर्म का विषय)

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥

जिससे जग परिव्याप्त है, जिससे सहज प्रवृति

उसकी पूजा स्वकर्म से, मिलती है समृद्धि।।46।।

 

भावार्थ :  जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त है), उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके (जैसे पतिव्रता स्त्री पति को सर्वस्व समझकर पति का चिंतन करती हुई पति के आज्ञानुसार पति के ही लिए मन, वाणी, शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वर को ही सर्वस्व समझकर परमेश्वर का चिंतन करते हुए परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेश्वर के ही लिए स्वाभाविक कर्तव्य कर्म का आचरण करना ‘कर्म द्वारा परमेश्वर को पूजना’ है) मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है॥46॥

He from  whom  all  the  beings  have  evolved  and  by  whom  all  this  is  pervaded, worshipping Him with his own duty, man attains perfection.

 

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