आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (7) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।7।।

 

जो योगी रखता स्वयं इंद्रियों पर अधिकार

सब कुछ करते हुये भी कोई न उस पर भार।।7।।

      

भावार्थ :  जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता।।7।।

 

He who is devoted to the path of action, whose mind is quite pure, who has conquered the self, who has subdued his senses and who has realised his Self as the Self in all beings, though acting, he is not tainted. ।।7।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (6) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।।6।।

 

कर्मयोग बिन पर सदा है सन्यास असाध्य

कर्म योगी मुनि को सहज ब्रम्ह सुलभ औ” साध्य।।6।।

 

भावार्थ :  परन्तु हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात्‌मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।।6।।

 

But renunciation,  O  mighty-armed  Arjuna,  is  hard  to  attain  without  Yoga;  the Yoga-harmonised sage proceeds quickly to Brahman!  ।।6।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (5) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।

एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।5।।

 

ज्ञानी कहते साँख्य औ” कर्म हैं एक समान

जिसमें जिसकी रूचि वही उसको है आसान।।5।।

      

भावार्थ :  ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है  ।।5।।

 

That place which is reached by the Sankhyas or the gyanis is reached by the (Karma) Yogis. He sees who sees knowledge and the performance of action (Karma Yoga) as one. ।।5।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (4) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

साङ्‍ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌।।4।।

 

अज्ञानी ही मानते इन्हें पृथक दो मार्ग

दोनों देते फल वही दोनो ही संमार्ग।।4।।

 

भावार्थ :  उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक्‌ पृथक् फल देने वाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक्‌प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है।।4।।

 

Children, not the wise, speak of knowledge and the Yoga of action or the performance of action as though they are distinct and different; he who is truly established in one obtains the fruits of both. ।।4।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (3) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।3।।

 

राग-द्वेष से रहित जो वह सन्यासी तात

द्वंद रहित जीवन सदा सुख संयम की बात।।3।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।।3।।

 

He should be known as a perpetual Sannyasin who neither hates nor desires; for, free from the pairs of opposites, O mighty-armed Arjuna, he is easily set free from bondage! ।।3।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (2) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

श्रीभगवानुवाच

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।

तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।।2।।

भगवान ने कहा-

 

कर्म योग सन्यास द्वय करते हैं कल्याण

किंतु कर्म सन्यास से कर्म योग ही प्रधान।।2।।

 

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- कर्म संन्यास और कर्मयोग- ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में भी कर्म संन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।।2।।

 

Renunciation and the Yoga of action both lead to the highest bliss; but of the two, the Yoga of action is superior to the renunciation of action. ।।2।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (1) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

अर्जुन उवाच

सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌ ।।1।।

 

अर्जुन ने कहा

कभी कर्म संयास की कभी योग की बात

इनमें हित कर जो मुझे,कहें सुनिश्चित नाथ।।1।।

 

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इसलिए इन दोनों में से जो एक मेरे लिए भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिए।।1।।

 

Renunciation of actions, O Krishna, Thou praisest, and again Yoga! Tell me conclusively which is the better of the two. ।।1।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (42) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।

छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।।42।।

 

अतःपार्थ!अपने संशय को ज्ञान शस्त्र से छिन्न करो

कर्म योग का करो आचरण उठकर आगे युद्ध करो।।42।।

 

भावार्थ :  इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा।।42।।

 

Therefore, with the sword of knowledge (of the Self) cut asunder the doubt of the self born of ignorance, residing in thy heart, and take refuge in Yoga; arise, O Arjuna! ।।42।।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (41) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।।41।।

 

योग लाभ से,कर्मों से संयास यहां हो पाता है

ज्ञान और बल से शंसय तज,बंधु मुक्त हो जाता है।।41।।

 

भावार्थ :  हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते।।41।।

 

He who has renounced actions by Yoga, whose doubts are rent asunder by knowledge, and who is self-possessed,-actions do not bind him, O Arjuna! ।।41।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (40) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।40।।

ज्ञान रहित,श्रद्धाविहीन,संशयी नष्ट हो जाता है

इस जग में,न अन्य लोक में शांति और सुख पाता है।।40।।

 

भावार्थ :  विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है ।।40।।

 

The ignorant, the faithless, the doubting self proceeds to destruction; there is neither this world nor the other nor happiness for the doubting. ।।40।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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