ई-अभिव्यक्ति: संवाद-18 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–18      

कल चाहकर भी आपसे संवाद न कर सका।  उम्र के साथ कई बार समय तो कई बार शरीर भी साथ नहीं दे पाता। किन्तु आपके व्हाट्सएप्प एवं फोन पर व्यक्तिगत संदेश मुझे  संबल प्रदान करते रहते हैं। कुछ और नवीन रचनाएँ साझा करने हेतु प्रोत्साहित करते रहते हैं।

किसी भी दिन के लिए रचनाएँ चुन कर आपको प्रस्तुत करना किसी जादुई बक्से में से विभिन्न विधाओं और जीवन के विभिन्न रंगो से भरी रचनाएँ प्रस्तुत करने जैसा होता है।

इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता “मकबूल फिदा हुसैन – हाशिये में” की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं:

मै दुनिया को देखता हूँ

एक मासूम बच्चे की आँखों से।

मेरे लिये

प्रत्येक दिन आता है

एक जादू के बक्से में बन्द

अद्भुत

नजारो और रंगों से भरपूर

रंगों के प्रयोगों से भरपूर।”

और वास्तव में स्थायी स्तम्भ श्रीमद्भगवत गीता एवं श्री जगत सिंह बिष्ट जी की योग साधना के साथ ही आज की रचनाएँ किसी जादू के बक्से में बंद रचनाओं से कम नहीं है।

श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर जी की मराठी कविता “असीम बलिदान ‘पोलीस’” हमें सोचने के लिए मजबूर करती है कि पुलिस अथवा सेना में कार्यरत जवानों का हृदय भी हमारी तरह ही धड़कता है।  वे भी हमारी तरह सोच रखते हैं। वे भी हमारी तरह जीवन के गीत गाते हैं साहित्य रचते  हैं। सैनिक यदि राष्ट्र की सीमाओं पर हमारे राष्ट्र की रक्षा करते हैं तो पुलिस राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा कर समाज एवं राष्ट्र की रक्षा करते हैं जिसके कारण आप और हम चैन की नींद सोते हैं।  एक भूतपूर्व सैनिक होने के कारण मैं पुलिस/सैन्य जीवन के इस तथ्य की महत्ता को सशक्त रूप से आपके समक्ष रख सकता हूँ।

सुश्री ऋतु गुप्ता जी की लघु कथा हमें अपने व्यवसाय/कर्मभूमि के अतिरिक्त परिवार एवं समाज के प्रति फर्ज़ (कर्तव्य) का पाठ सिखाती है। डॉ प्रदीप शशांक जी की लघुकथा “सर्जिकल स्ट्राइक” धर्म सम्प्रदाय की कट्टरपंथी सोच पर तमाचा है। शशांक जी की लघुकथा हमें यह सोचने पर मजबूर करटी है कि क्या सर्जिकल स्ट्राइक जैसे शब्दों का प्रयोग सामाजिक परिवेश के सुधार/उत्थान के लिए भी किया जा सकता है?

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

4 अप्रैल 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-16 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–16    

मैं अक्सर आपसे अपनी एक प्रिय नज्म की पंक्तियाँ टुकड़ों में साझा करता रहता हूँ।

यदि आप गौर करेंगे तो पाएंगे यह मेरी ही नहीं तकरीबन मेरे हर एक समवयस्क मित्रों की भी अभिव्यक्ति है।

आज मैं अपनी वही नज़्म आपसे संवाद स्वरूप साझा करना चाहता हूँ।

एहसास 
जब कभी  गुजरता हूँ  तेरी  गली  से  तो क्यूँ ये एहसास होता है 
जरूर   तुम्हारी निगाहें भी कहीं न कहीं खोजती होंगी मुझको।
बाग के दरख्त जो कभी गवाह रहे हैं हमारे उन हसीन लम्हों के  
जरूर उस वक्त वो भी जवां रहे होंगे इसका एहसास है मुझको। 
बाग के फूल पौधों से छुपकर लरज़ती उंगलियों पर पहला बोसा 
उस पर वो  झुकी निगाहें सुर्ख गाल लरज़ते लब याद हैं मुझको।  
कितना  डर  था हमें उस जमाने में सारी दुनिया की नज़रों का 
अब बदली फिजा में बस अपनी नज़रें घुमाना पड़ता है मुझको। 
वो  छुप छुप कर मिलना वो चोरी  छुपे  भाग कर फिल्में देखना 
जरूर समाज के बंधनों को तोड़ने का जज्बा याद होगा तुमको।  
सुरीली धुन और खूबसूरत नगमों  के हर लफ्ज के मायने होते थे
आज क्यूँ नई धुन में नगमों के लफ्ज  तक  छू  नहीं पाते मुझको।   
  
वो शानोशौकत की निशानी साइकिल के पुर्जे भी जाने कहाँ होंगे 
यादों की मानिंद कहीं दफन हो गए हैं इसका एहसास है मुझको।  
इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी 
खो गये कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा  न  मिले मुझको। 
दुनिया के शहरों से रूबरू हुआ जिन्हें पढ़ा था  कभी किताबों में 
उनकी खूबसूरती के पीछे छिपी तारीख ने दहला दिया मुझको।  
अब ना किताबघर  रहे  ना किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई
सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट  रहे हैं मुझको।  
अब तक का सफर तय किया एक तयशुदा राहगीर की मानिंद 
आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें  है  न  मुझको।  
आज बस इतना ही

हेमन्त बावनकर

1 अप्रैल 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-15 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–15   

मैं ईश्वर का अत्यंत आभारी हूँ जिन्होने मुझे e-abhivyakti के माध्यम कई वरिष्ठ, समवयस्क एवं नवोदित साहित्यकार मित्रों से जोड़ दिया है। कई मित्रों से व्यक्तिगत तौर से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अधिकतर  मित्रों से फोन पर बात हुई और कई मित्रों से ईमेल पर।

जीवन भी अजीब पहेली है, अजीब खेल खेलता है। वह हमें जीवन में कई मित्रों से मिलाता है। कई मित्र जिनके नाम से हम परिचित होते हैं किन्तु कभी मिल नहीं पाते। कई मित्र जीवन के किसी भी मोड पर मिल जाते हैं। कई तो अंजाने ही मिल जाते हैं जिसकी हमने कभी कल्पना ही नहीं की थी।  कई मित्र तो हमारे जीवन से इतने जुड़ जाते हैं कि हम यह जान ही नहीं पाते कि वे कब मित्र से परिवार के सदस्य बन गए। कई मित्र तो किसी गलतफहमी का शिकार होकर रूठ भी जाते हैं। कई बहकावे में भी आ जाते हैं। फिर शक का तो कोई इलाज ही नहीं होता।कुछ मित्र चालाकी से अपना काम निकाल कर अपनी राह चल देते हैं। कई मित्र तो ऐसे भी होते हैं जिनसे हम जीवन में कभी भी नहीं मिले किन्तु, वे मित्र धर्म निभाना नहीं भूलते। कई मित्रों की संवेदना देखते ही बनती है। फिर संवेदनशील मित्र ही मित्र की भावना को परख लेता है। अधिकतर साहित्यकार मित्र संवेदनशील हैं अन्यथा वे अपनी कविता, कहानी, आलेखों में अनदेखे स्वप्नों को साहित्यिक स्वरूप नहीं दे पाते।

आज कविराज विजय यशवंत सातपुते जी की मराठी कविता *उन्हाळी सुट्टी* ने तो अनायास ही बचपन के कई मित्रों की याद दिला दी जिनके साथ गर्मियों छुट्टियों बिताया करते थे।

उनकी निम्न पंक्तियाँ अनायास ही हमारा गुजरा बचपन याद दिला देता है ।

आला उन्हाळा, घरी बसा रे , दटावती सारे
बैठे खेळ ते बुद्धीबळाचे ,देऊ गेमला सुट्टी.
अशी ऊन्हाळी सुट्टी आमच्या होती बालपणात
सोडून गेले  शाळू सोबती, आता नाही बट्टी. . . !

इस संदर्भ में मुझे अपनी कविता की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

 

इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी

खो गए कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा ना मिले मुझको। 

आज बस इतना ही

हेमन्त बावनकर

31 मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-14 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–14  

साहित्य में नित नए प्रयोग करने के लिए हम कृतसंकल्प हैं।

विगत जबलपुर प्रवास के दौरान संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार मित्र श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी से चर्चा के दौरान पता चला कि उन्होने  साहित्य में  एक  प्रयोग करने का प्रयास किया जो कि वास्तव में सफल सिद्ध हुआ।

हमें सम्पूर्ण राष्ट्र से विभिन्न वरिष्ठ लेखकों से साहित्य के विभिन्न स्वरूपों एवं विभिन्न विधाओं में 30 से अधिक उत्तर प्राप्त हुए हैं जो अपने आप में मिसाल हैं। जिन्हें हम क्रमानुसार आपसे साझा कर रहे हैं।

इस संदर्भ में आप ई-अभिव्यक्ति संवाद-2 का अवलोकन करें। 

हम लोग बड़े सौभाग्यशाली हैं की हमारी पीढ़ी के कई साहित्यकारों का  हरीशंकर परसाईं जी से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सरोकार रहा है। उनमें मेरे एक वरिष्ठ साहित्यकार मित्र  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी भी हैं।  हाल ही में मुझे उनका एक संदेश मिला जो निश्चित ही मेरे मित्रों को भी मिला होगा यह संदेश मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ ताकि आप भी उस खेल में सहभागी बन सकें।

इस खेल में आप अपना उत्तर हिन्दी, मराठी या अङ्ग्रेज़ी में प्रेषित कर सकते हैं।  

महोदय जी,

कृपया इस सवाल का जवाब कम से कम 100 शब्दों में और अधिक से अधिक 800 शब्दों में देने का कष्ट करें 

प्रश्न –  आज के संदर्भ में लेखक क्या समाज के घोड़े की आँख है या लगाम?

उत्तर –  (उत्तर के साथ अपना चित्र भी भेजें) 

 

 (उत्तर आप  [email protected] पर प्रेषित कर सकते हैं।)

फिर देर किस बात की उठाइये अपनी कलम और दौड़ा दीजिये दिमाग के घोड़े, समाज के घोड़े के लिए।

 

आज बस इतना ही

 

हेमन्त बावनकर

30 मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-13 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–13   

कल ई-अभिव्यक्ति-संवाद में हमने मुख्यतया दो विषयों पर चर्चा की थी उस आधार पर एक व्हाट्सएप्प ग्रुप www.e-abhivyakti.com बनाया गया है जिसके माध्यम से आपको प्रतिदिन प्रकाशित रचनाओं की जानकारी मिल सकेगी। हाँ, आप इस ग्रुप में कुछ पोस्ट नहीं कर पाएंगे। इसके लिए आपको अपनी रचनाएँ एवं संवाद मेरे व्यक्तिगत व्हाट्सएप्प नंबर पर ही पोस्ट करना होगा अन्यथा आपकी पोस्ट तो लोग व्हाट्सएप्प पर ही पढ़ लेंगे और प्रकाशित रचनाओं का आनंद लेने से सभी वंचित रह जाएंगे। और मुझे प्रत्येक सम्माननीय लेखकों को उनकी प्रकाशित रचनाओं की सूचना अलग से देने की आवश्यकता नहीं होगी। मुझे खुशी है कि कई लेखकगण मेरी बात से सहमत हो गए हैं। मुझे पूर्ण आशा है कि आप भी मुझसे सहमत होंगे।

इसके अतिरिक्त हमने स्व-प्रकाशन (Self-Publication) के बारे में चर्चा की थी। इस प्रक्रिया से आज अधिकतर लेखक मित्र अवगत हैं। इस प्रक्रिया के कारण प्रिंट ऑन डिमांड (POD) की मांग अचानक ही बढ़ गई है। लेखक अपने पसीने की कमाई और अपने कठोर परिश्रम से पुस्तकें तो प्रकाशित कर लेते हैं किन्तु, वे अपनी पुस्तकों का बाजार नहीं बना पाते हैं। साहित्य की रचना करना एक बात है और उसका विक्रय करना दूसरी बात है।

मेरे अधिकतर मित्र मुद्रित संस्करणों के बारे में जानते हैं। यदि नवीन पीढ़ी की बात छोड़ दी जाए तो मेरी समवयस्क एवं वरिष्ठ पीढ़ी ई-बुक्स की तकनीकी जानकारी से अनभिज्ञ हैं। ई-बुक्स में अमेज़न, फ्लिपकार्ट, बुकबेबी जैसी ऑनलाइन प्रणालियाँ  ई-बुक्स के व्यापार में क्रांतिकारी साबित हुए हैं। हम ई-बुक्स को अपने मोबाइल, टेबलेट, लेपटोप, डेस्कटॉप आदि में डाउनलोड कर आसानी पुस्तक जैसे पढ़ सकते हैं।

लेखक गण अपनी पुस्तकों को आसानी से ई-बुक्स में परिवर्तित कर ऑनलाइन स्टोर्स में अपलोड कर बेच सकते हैं। अमेज़न की किंडल डाइरेक्ट पब्लिशिंग प्रक्रिया एक आसान प्रणाली है। संभवतः हमारे युवा लेखक इस प्रक्रिया को जानते हैं। यदि आप इस बारे में और ज्यादा जानकारी चाहते हैं तो प्रथम लिंक पर लॉग-इन कर विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। द्वितीय लिंक के माध्यम से आप विस्तार से ई-बुक प्रकाशन की तकनीक सीख सकते हैं।

https://kdp.amazon.com/en_US/

https://kdp.amazon.com/en_US/help/topic/G200635650

मैं आशा करता हूँ कि मित्र लेखकों के लिए उपरोक्त जानकारी उपयोगी साबित होगी। इसके माध्यम से आप अङ्ग्रेज़ी के अतिरिक्त कई भारतीय भाषाओं में ई-बुक्स तैयार कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त भारत में भी नोशन प्रेस , पोथी डॉट कॉम आदि कई अन्य कंपनियाँ भी ई-बुक्स तैयार करने में मदद करते हैं। जिसके बारे में आप उनकी साइट पर जाकर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

आज बस इतना ही ।

हेमन्त बावनकर

29 मार्च 2019

(ई-बुक्स से संबन्धित उपरोक्त जानकारी  उपलब्ध कराने का उद्देश्य मात्र आपको इस प्रक्रिया से अवगत करना है एवं किसी भी प्रकार की मार्केटिंग कतिपय नहीं है। )

 

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-12 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–12  

e-abhivyakti  में  नित नए लेखकों एवं पाठकों के जुड़ने  से मुझे  इस साइट पर और अधिक परिश्रम कर इसे तकनीकी एवं साहित्यिक दृष्टि से पठनीय बनाने के लिए असीम ऊर्जा प्रदान करते हैं। मैंने प्रारम्भ से ही साहित्य के स्तर पर किसी भी प्रकार का समझौता स्वीकार नहीं किया। इस साइट के माध्यम से और नए प्रयोग करने की संभावनाएं प्रबल हैं और उन्हें समय-समय पर आप सबके सहयोग से करने के लिए मैं कृतसंकल्प हूँ।

पहला प्रयोग हिन्दी, मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी साहित्य को एक मंच पर लाने का सफल प्रयोग किया।  संभवतः यह प्रथम वेबसाइट है जिसके माध्यम से इन तीनों भाषाओं के उन्नत साहित्य को आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं।

एक व्हाट्सएप्प ग्रुप www.e-abhivyakti.com भी बना रहा हूँ जिसके माध्यम से आपको प्रतिदिन प्रकाशित रचनाओं की जानकारी मिल सकेगी। हाँ, आप इस ग्रुप में कुछ पोस्ट नहीं कर पाएंगे। इसके लिए आपको अपनी रचनाएँ एवं संवाद मेरे व्यक्तिगत व्हाट्सएप्प नंबर पर ही पोस्ट करना होगा अन्यथा आपकी पोस्ट तो लोग व्हाट्सएप्प पर ही पढ़ लेंगे और प्रकाशित रचनाओं का आनंद लेने से सभी वंचित रह जाएंगे। और मुझे प्रत्येक लेखक को प्रकाशित रचनाओं की अलग से सूचित करने की आवश्यकता नहीं होगी। आशा है आप मेरी बात से सहमत होंगे।

निश्चित ही स्वस्थ लेखन एवं पठनीयता अभी  भी जीवित है और यह वेबसाइट इसका जीता जागता प्रमाण है। इस स्नेह के लिए मैं आप सबका हृदय से आभारी हूँ।

यह सत्य है कि प्रकाशित पुस्तकें अवश्य तकनीकी दृष्टि से उत्कृष्ट होती जा रही हैं किन्तु, उसको पढ़ने वाले ढूंढते नहीं मिल रहे हैं। प्रिंट ऑन डिमांड (POD) प्रक्रिया ने इस दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाए हैं। साथ ही मुद्रित संस्करणों की जगह ई-बुक्स ने ले लिया है। यह निश्चित ही नवीनतम तकनीकों में एक अग्रणी कदम है किन्तु, मेरी समवयस्क पीढ़ी एवं वरिष्ठतम पीढ़ी के कई सदस्य इस विधा से अनभिज्ञ हैं। इन सबके बाद सोशल मीडिया ने कई कट-पेस्ट साहित्यकारों को जन्म दे दिया है। कई बार तो उनकी प्रतिभा एवं ज्ञान के असीम भंडार को देखकर दाँतो तले उँगलियाँ दबानी पड़ती है।

इस संदर्भ में मुझे मेरी गजल की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

अब ना किताबघर रहे, ना किताबें,ना ही उनको पढ़ने वाला कोई

सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट रहे हैं मुझको । 

आज बस इतना ही ।

हेमन्त बावनकर

28 मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-11 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–11 

भारतवर्ष के प्रत्येक प्रदेश एवं उस प्रदेश की प्रत्येक भाषा के साहित्य का एक अपना गौरवान्वित इतिहास रहा है। यह भी सत्य है कि प्रत्येक साहित्यकार जो अपना इतिहास रच कर चले गए हैं उनकी बराबरी की परिकल्पना करना भी उनके साहित्य के साथ अन्याय है। किन्तु, यह भी शाश्वत सत्य है कि समकालीन साहित्य एवं विचारधारा को भी किसी दृष्टि से कम नहीं आँका जा सकता।

इतिहास गवाह है कई साहित्यकार एवं कलाकार अपनी प्रतिभा के दम पर मील के पत्थर साबित हुए हैं । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं स्वतंत्र विचारधारा के कारण उनके  साहित्य एवं कला ने उन्हें उनके देश से निष्काषित भी किया है। इनमें से कुछ नाम है जोसेफ ब्रोद्स्की, नज़िम हिक्मेत, तसलीमा नसरीन, मकबूल फिदा हुसैन और एक लंबा सिलसिला।

इस संदर्भ में मुझे अपनी एक कविता “साहित्यकार-पुरुसकार-टिप्पणी” याद आ रही है। प्रस्तुत है उस कविता के कुछ अंश :

 

यदि ‘‘अकवि’’

कोई संज्ञा है, तो वह

निरर्थक कविता करने पर

तुला हुआ है।

 

स्वान्तःसुखाय

एवं

साहित्य को समर्पित

वृद्ध साहित्यकार

किंकर्तव्यमूढ़ खड़ा है।

 

इतिहास साक्षी है

‘‘साहित्यकार’’

जिसका जीवन

जीवन स्तर से निम्न रहा है

प्रकाशक

उसके साहित्य पर पल रहा है।

ट्रस्ट उसके नाम से

धनवान प्रतिभावान साहित्यकार को

पुरुस्कृत कर रहा है।

नवोदित साहित्यकारों को

चमत्कृत कर रहा है।

 

वह वृद्ध हताश

देख रहा है तमाशा

चकनाचूर है

साहित्य सेवा की अभिलाषा

कल तक वह

शब्द महल गढ़ता था

आज वे ही शब्द उसे

छलते हैं।

 

वह समाचार पढ़ता है

अमुक साहित्यकार को

अमुक मंत्री ने

चिकित्सा हेतु

सहायता कोष से दान दिया।

उसे तसल्ली होती है

कि – चलो

एक और मुक्त्बिोध

कुछ दिन और जी लेगा।

 

वह आगे पढ़ता है

निर्वासित जोसेफ ब्रोद्स्की को

नोबल पुरुस्कार मिला।

वह काफी चेष्टा करता है

किन्तु,

हृदय कोई भी

टिप्पणी करने से

इन्कार कर देता है।

 

वह बाध्य करता है

अपने पाठकों को,

रुस में जन्में

अमरीका में शरण पाये

साम्यवाद और पूंजीवाद

के साये में पले

निर्वासित बोद्स्की पर

टिप्पणी करने

निर्वासित या स्वनिर्वासित

नज़िम हिक्मेत,

मकबूल फिदा हुसैन,

तसलीमा नसरीन …. पर

टिप्पणी करने ।

 

वह अनुभव करता है कि –

यदि,

टिप्पणी वह स्वयं करता है

तो निरर्थक होगी

यदि,

टिप्पणी पाठक करता है

तो

निःसन्देह सार्थक ही होगी।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

27 मार्च 2019

 

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-10 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–10

मेरे जैसे फ्रीलान्स लेखक के लिए अपने ब्लॉग के लेखकों / पाठकों की संख्या का निरंतर बढ़ना मेरे गौरवान्वित होने का नहीं अपितु,  मित्र लेखकों / पाठकों के गौरवान्वित होने का सूचक है। यह सब आप सबके प्रोत्साहन एवं सहयोग का सूचक है। साथ ही यह इस बात का भी सूचक है कि इस चकाचौंध मीडिया और दम तोड़ती  स्वस्थ साहित्यिक पत्रिकाओं के दौर में भी लेखकों / पाठकों की स्वस्थ साहित्य की लालसा अब भी जीवित है। लेखकों /पाठकों का एक सम्मानित वर्ग अब भी स्वस्थ साहित्य/पत्रकारिता लेखन/पठन में तीव्र रुचि रखता है।

अन्यथा इस संवाद के लिखते तक मुझे निरंतर बढ़ते आंकड़े साझा करने का अवसर प्राप्त होना असंभव था। अत्यंत प्रसन्नता  का विषय है कि 15 अक्तूबर 2018 से आज तक 5 माह  9 दिनों में कुल 542 रचनाएँ प्रकाशित की गईं। उन रचनाओं पर 360 कमेंट्स प्राप्त हुए और  10,000 से अधिक सम्माननीय लेखक/पाठक विजिट कर चुके हैं।

प्रतिदिन इस यात्रा में नवलेखकों से लेकर वरिष्ठतम लेखकों और पाठकों का जुड़ना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।

सबसेअधिक सौभाग्य के क्षण मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ।

इस जबलपुर प्रवास के दौरान मुझे  अपने जीवन के दो महत्वपूर्ण एवं स्मरणीय क्षणों को सँजो कर रखने का अवसर प्राप्त हुआ।

प्रथम डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी से आशीर्वचन स्वरूप उनकी साहित्यिक यात्रा के विभिन्न पड़ावों से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ।  

दूसरा संयोग बड़ा ही अद्भुत एवं आलौकिक था।  इस संदर्भ में बेहतर होगा कि मैं उस वाकये को सचित्र आपसे साझा करूँ जो कि सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी की फेसबुक वाल से साभार उद्धृत करना चाहूँगा। 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव, सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार >>>>
शिक्षकीय सुख यह होता है, कल घर आये Hemant Bawankar जी वे और डॉ विजय तिवारी किसलय जी, पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी के केंद्रीय विद्यालय जबलपुर क्रमांक 1 जिसके संस्थापक प्राचार्य हैं पिताजी, में उनके विद्यार्थी थे । साथ मे थे डॉ विजय तिवारी किसलय ।
पिताजी का  जन्मदिन था कल , बधाई , मिठाई ,होली मिलन  आशीर्वाद सब ।

ऐसे व्यक्तिगत एवं आत्मीय क्षणों में मेरी प्रतिकृया मात्र यह थी  >>>

अपने प्रथम प्राचार्य का लगभग 53 वर्ष पश्चात अपनी सेवानिवृत्ति के उपरान्त आशीर्वाद पाना किसी भी प्रकार से ईश्वर के प्रसाद से कम नहीं है। 
इस संयोग के लिए मैं उनका एवम उनके चिरंजीव बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री विवेक रंजन जी एवम अनुज डॉ विजय तिवारी जी का हृदय से आभारी हूँ।

इन दोनों ही क्षणों में अनुज डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी के साथ ने ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस अवसर को अविस्मरणीय बना दिया।

जीवन में ऐसे सुखद क्षणों की हम मात्र कल्पना ही कर पाते हैं। किन्तु, जब कभी ऐसे क्षण ईश्वर हमें देते हैं तो उन्हें अंजुरी में समेटना बड़ा कठिन लगता है । ऐसा लगता है कि ये कि ये क्षण सदैव के लिए हृदय के कैमरे में अंकित हो जाएँ। और वे हो गए।

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

24 मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-9 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 9 

यह एक शाश्वत सत्य  है कि जीवन एक पहेली है।  आम तौर पर एक व्यक्ति जीवन में कम से कम तीन पीढ़ियाँ अवश्य देखता है। यदि सौभाग्यशाली रहा और ईश्वर ने चाहा तो चार या पाँच पीढ़ी भी ब्याज स्वरूप देख सकता है।

आज मैं आपसे संवाद स्वरूप यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ । पढ़ कर प्रतिकृया देंगे तो मुझे बेहद अच्छा लगेगा।

 

जिंदगी का गणित 

वैसे भी
मेरे लिए
गणित हमेशा से
पहेली रही है।

बड़ा ही कमजोर था
बचपन से
जिंदगी के गणित में।
शायद,
जिंदगी गणित की
सहेली रही है ।

फिर,
ब्याज के कई प्रश्न तो
आज तक अनसुलझे हैं।

मस्तिष्क के किसी कोने में
बड़ा ही कठिन प्रश्न-वाक्य है
“मूलधन से ब्याज बड़ा प्यारा होता है!”
इस
‘मूलधन’ और ‘ब्याज’ के सवाल में
‘दर’ कहीं नजर नहीं आता है।
शायद,
इन सबका ‘समय’ ही सहारा होता है।

दिखाई देने लगता है
खेत की मेढ़ पर
खेलता – एक छोटा बच्चा
कहीं काम करते – कुछ पुरुष
पृष्ठभूमि में
काम करती – कुछ स्त्रियाँ
और
एक झुर्रीदार चेहरा
सिर पर फेंटा बांधे
तीखी सर्दी, गर्मी और बारिश में
चलाते हुये हल।

शायद,
उसने भी की होगी कोशिश
फिर भी नहीं सुलझा पाया होगा
इस प्रश्न का हल।

आज तक
समझ नहीं पाया
कि
कब मूलधन से ब्याज हो गया हूँ ?
कब मूलधन से ब्याज हो गया है ?

यह प्रश्न
साधारण ब्याज का है?
या
चक्रवृद्धि ब्याज का है?

मूलधन किस पीढ़ी का है ?
और
उसे ब्याज समेत चुकाएगा कौन?
और
यदि चुकाएगा भी
तो किस दर पर
और
किसके दर पर ?

 

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

23  मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-8 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 8 

टाइम्स ऑफ इंडिया (जबलपुर संस्कारण) के 19 मार्च 2019 के अंक में समाचार चैनलों की बेवजह/बेमानी बहसों के बीच एक सकारात्मक समाचार पढ़ कर लगा कि भाग दौड़ भरी इस दुनियाँ में अब भी इंसानियत जीवित है। क्यों ऐसे समाचार समुचित स्थान नहीं  पाते जो इंसान को इंसान से जोड़ते हों। संक्षिप्त में समाचार कुछ इस प्रकार है :

संयोगवश विश्व किडनी दिवस (14 मार्च 2019) के दिन मुंबई के एक अस्पताल में दो परिवारों के मध्य एक अनुकरणीय किडनी प्रत्यारोपण ऑपरेशन किया गया। ठाणे के एक मुस्लिम परिवार एवं बिहार के एक हिन्दू परिवार में उनके पतियों को किडनी की आवश्यकता थी। उन्होने सर्वप्रथम अपने अपने परिवारों में प्रयास किया किन्तु ब्लड ग्रुप मैच न होने के कारण यह संभव नहीं हो पाया।  संयोगवश दोनों परिवार की पत्नियों का ब्लड ग्रुप एवं किडनियाँ एक दूसरे के पतियों से मैच हो रही थी। अतः  दोनों परिवार की पत्नियों ने एक दूसरे के पतियों को अपनी किडनियाँ दान देकर न केवल इंसानियत की मिसाल पेश की अपितु एक दूसरे परिवार से आजीवन रक्त संबंध भी बना लिए।

इस अनुकरणीय उदाहरण को आप किस दृष्टि से देखेंगे। हो सकता है कोई साहित्यकार इस पर लघुकथा भी लिख दे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आखिर हम अपने आस पास से अपनी रचनाओं के लिए ऐसे चरित्रों/पात्रों को ही तो तलाशते रहते हैं।

इस संदर्भ में मुझे अपने एक कलाम “जख्मी कलम की वसीयत” की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो आपसे साझा करना चाहूँगा:

 

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,

इसलिए यह अमन का पैगाम लिख रहा हूँ।

इंसानियत तो है ही नहीं मज़हबी सियासत

ये कलाम इंसानियत के नाम लिख रहा हूँ।

ये सियासती गिले शिकवे यहीं पर रह जाएंगे,

बेहद हसीन दुनियाँ तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

22 मार्च 2019

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