ई-अभिव्यक्ति: संवाद–16
मैं अक्सर आपसे अपनी एक प्रिय नज्म की पंक्तियाँ टुकड़ों में साझा करता रहता हूँ।
यदि आप गौर करेंगे तो पाएंगे यह मेरी ही नहीं तकरीबन मेरे हर एक समवयस्क मित्रों की भी अभिव्यक्ति है।
आज मैं अपनी वही नज़्म आपसे संवाद स्वरूप साझा करना चाहता हूँ।
एहसास
जब कभी गुजरता हूँ तेरी गली से तो क्यूँ ये एहसास होता है
जरूर तुम्हारी निगाहें भी कहीं न कहीं खोजती होंगी मुझको।
बाग के दरख्त जो कभी गवाह रहे हैं हमारे उन हसीन लम्हों के
जरूर उस वक्त वो भी जवां रहे होंगे इसका एहसास है मुझको।
बाग के फूल पौधों से छुपकर लरज़ती उंगलियों पर पहला बोसा
उस पर वो झुकी निगाहें सुर्ख गाल लरज़ते लब याद हैं मुझको।
कितना डर था हमें उस जमाने में सारी दुनिया की नज़रों का
अब बदली फिजा में बस अपनी नज़रें घुमाना पड़ता है मुझको।
वो छुप छुप कर मिलना वो चोरी छुपे भाग कर फिल्में देखना
जरूर समाज के बंधनों को तोड़ने का जज्बा याद होगा तुमको।
सुरीली धुन और खूबसूरत नगमों के हर लफ्ज के मायने होते थे
आज क्यूँ नई धुन में नगमों के लफ्ज तक छू नहीं पाते मुझको।
वो शानोशौकत की निशानी साइकिल के पुर्जे भी जाने कहाँ होंगे
यादों की मानिंद कहीं दफन हो गए हैं इसका एहसास है मुझको।
इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी
खो गये कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा न मिले मुझको।
दुनिया के शहरों से रूबरू हुआ जिन्हें पढ़ा था कभी किताबों में
उनकी खूबसूरती के पीछे छिपी तारीख ने दहला दिया मुझको।
अब ना किताबघर रहे ना किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई
सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट रहे हैं मुझको।
अब तक का सफर तय किया एक तयशुदा राहगीर की मानिंद
आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको।
आज बस इतना ही
हेमन्त बावनकर
1 अप्रैल 2019