ई-अभिव्यक्ति: संवाद-12 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–12  

e-abhivyakti  में  नित नए लेखकों एवं पाठकों के जुड़ने  से मुझे  इस साइट पर और अधिक परिश्रम कर इसे तकनीकी एवं साहित्यिक दृष्टि से पठनीय बनाने के लिए असीम ऊर्जा प्रदान करते हैं। मैंने प्रारम्भ से ही साहित्य के स्तर पर किसी भी प्रकार का समझौता स्वीकार नहीं किया। इस साइट के माध्यम से और नए प्रयोग करने की संभावनाएं प्रबल हैं और उन्हें समय-समय पर आप सबके सहयोग से करने के लिए मैं कृतसंकल्प हूँ।

पहला प्रयोग हिन्दी, मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी साहित्य को एक मंच पर लाने का सफल प्रयोग किया।  संभवतः यह प्रथम वेबसाइट है जिसके माध्यम से इन तीनों भाषाओं के उन्नत साहित्य को आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं।

एक व्हाट्सएप्प ग्रुप www.e-abhivyakti.com भी बना रहा हूँ जिसके माध्यम से आपको प्रतिदिन प्रकाशित रचनाओं की जानकारी मिल सकेगी। हाँ, आप इस ग्रुप में कुछ पोस्ट नहीं कर पाएंगे। इसके लिए आपको अपनी रचनाएँ एवं संवाद मेरे व्यक्तिगत व्हाट्सएप्प नंबर पर ही पोस्ट करना होगा अन्यथा आपकी पोस्ट तो लोग व्हाट्सएप्प पर ही पढ़ लेंगे और प्रकाशित रचनाओं का आनंद लेने से सभी वंचित रह जाएंगे। और मुझे प्रत्येक लेखक को प्रकाशित रचनाओं की अलग से सूचित करने की आवश्यकता नहीं होगी। आशा है आप मेरी बात से सहमत होंगे।

निश्चित ही स्वस्थ लेखन एवं पठनीयता अभी  भी जीवित है और यह वेबसाइट इसका जीता जागता प्रमाण है। इस स्नेह के लिए मैं आप सबका हृदय से आभारी हूँ।

यह सत्य है कि प्रकाशित पुस्तकें अवश्य तकनीकी दृष्टि से उत्कृष्ट होती जा रही हैं किन्तु, उसको पढ़ने वाले ढूंढते नहीं मिल रहे हैं। प्रिंट ऑन डिमांड (POD) प्रक्रिया ने इस दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाए हैं। साथ ही मुद्रित संस्करणों की जगह ई-बुक्स ने ले लिया है। यह निश्चित ही नवीनतम तकनीकों में एक अग्रणी कदम है किन्तु, मेरी समवयस्क पीढ़ी एवं वरिष्ठतम पीढ़ी के कई सदस्य इस विधा से अनभिज्ञ हैं। इन सबके बाद सोशल मीडिया ने कई कट-पेस्ट साहित्यकारों को जन्म दे दिया है। कई बार तो उनकी प्रतिभा एवं ज्ञान के असीम भंडार को देखकर दाँतो तले उँगलियाँ दबानी पड़ती है।

इस संदर्भ में मुझे मेरी गजल की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

अब ना किताबघर रहे, ना किताबें,ना ही उनको पढ़ने वाला कोई

सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट रहे हैं मुझको । 

आज बस इतना ही ।

हेमन्त बावनकर

28 मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-11 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–11 

भारतवर्ष के प्रत्येक प्रदेश एवं उस प्रदेश की प्रत्येक भाषा के साहित्य का एक अपना गौरवान्वित इतिहास रहा है। यह भी सत्य है कि प्रत्येक साहित्यकार जो अपना इतिहास रच कर चले गए हैं उनकी बराबरी की परिकल्पना करना भी उनके साहित्य के साथ अन्याय है। किन्तु, यह भी शाश्वत सत्य है कि समकालीन साहित्य एवं विचारधारा को भी किसी दृष्टि से कम नहीं आँका जा सकता।

इतिहास गवाह है कई साहित्यकार एवं कलाकार अपनी प्रतिभा के दम पर मील के पत्थर साबित हुए हैं । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं स्वतंत्र विचारधारा के कारण उनके  साहित्य एवं कला ने उन्हें उनके देश से निष्काषित भी किया है। इनमें से कुछ नाम है जोसेफ ब्रोद्स्की, नज़िम हिक्मेत, तसलीमा नसरीन, मकबूल फिदा हुसैन और एक लंबा सिलसिला।

इस संदर्भ में मुझे अपनी एक कविता “साहित्यकार-पुरुसकार-टिप्पणी” याद आ रही है। प्रस्तुत है उस कविता के कुछ अंश :

 

यदि ‘‘अकवि’’

कोई संज्ञा है, तो वह

निरर्थक कविता करने पर

तुला हुआ है।

 

स्वान्तःसुखाय

एवं

साहित्य को समर्पित

वृद्ध साहित्यकार

किंकर्तव्यमूढ़ खड़ा है।

 

इतिहास साक्षी है

‘‘साहित्यकार’’

जिसका जीवन

जीवन स्तर से निम्न रहा है

प्रकाशक

उसके साहित्य पर पल रहा है।

ट्रस्ट उसके नाम से

धनवान प्रतिभावान साहित्यकार को

पुरुस्कृत कर रहा है।

नवोदित साहित्यकारों को

चमत्कृत कर रहा है।

 

वह वृद्ध हताश

देख रहा है तमाशा

चकनाचूर है

साहित्य सेवा की अभिलाषा

कल तक वह

शब्द महल गढ़ता था

आज वे ही शब्द उसे

छलते हैं।

 

वह समाचार पढ़ता है

अमुक साहित्यकार को

अमुक मंत्री ने

चिकित्सा हेतु

सहायता कोष से दान दिया।

उसे तसल्ली होती है

कि – चलो

एक और मुक्त्बिोध

कुछ दिन और जी लेगा।

 

वह आगे पढ़ता है

निर्वासित जोसेफ ब्रोद्स्की को

नोबल पुरुस्कार मिला।

वह काफी चेष्टा करता है

किन्तु,

हृदय कोई भी

टिप्पणी करने से

इन्कार कर देता है।

 

वह बाध्य करता है

अपने पाठकों को,

रुस में जन्में

अमरीका में शरण पाये

साम्यवाद और पूंजीवाद

के साये में पले

निर्वासित बोद्स्की पर

टिप्पणी करने

निर्वासित या स्वनिर्वासित

नज़िम हिक्मेत,

मकबूल फिदा हुसैन,

तसलीमा नसरीन …. पर

टिप्पणी करने ।

 

वह अनुभव करता है कि –

यदि,

टिप्पणी वह स्वयं करता है

तो निरर्थक होगी

यदि,

टिप्पणी पाठक करता है

तो

निःसन्देह सार्थक ही होगी।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

27 मार्च 2019

 

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-10 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–10

मेरे जैसे फ्रीलान्स लेखक के लिए अपने ब्लॉग के लेखकों / पाठकों की संख्या का निरंतर बढ़ना मेरे गौरवान्वित होने का नहीं अपितु,  मित्र लेखकों / पाठकों के गौरवान्वित होने का सूचक है। यह सब आप सबके प्रोत्साहन एवं सहयोग का सूचक है। साथ ही यह इस बात का भी सूचक है कि इस चकाचौंध मीडिया और दम तोड़ती  स्वस्थ साहित्यिक पत्रिकाओं के दौर में भी लेखकों / पाठकों की स्वस्थ साहित्य की लालसा अब भी जीवित है। लेखकों /पाठकों का एक सम्मानित वर्ग अब भी स्वस्थ साहित्य/पत्रकारिता लेखन/पठन में तीव्र रुचि रखता है।

अन्यथा इस संवाद के लिखते तक मुझे निरंतर बढ़ते आंकड़े साझा करने का अवसर प्राप्त होना असंभव था। अत्यंत प्रसन्नता  का विषय है कि 15 अक्तूबर 2018 से आज तक 5 माह  9 दिनों में कुल 542 रचनाएँ प्रकाशित की गईं। उन रचनाओं पर 360 कमेंट्स प्राप्त हुए और  10,000 से अधिक सम्माननीय लेखक/पाठक विजिट कर चुके हैं।

प्रतिदिन इस यात्रा में नवलेखकों से लेकर वरिष्ठतम लेखकों और पाठकों का जुड़ना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।

सबसेअधिक सौभाग्य के क्षण मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ।

इस जबलपुर प्रवास के दौरान मुझे  अपने जीवन के दो महत्वपूर्ण एवं स्मरणीय क्षणों को सँजो कर रखने का अवसर प्राप्त हुआ।

प्रथम डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी से आशीर्वचन स्वरूप उनकी साहित्यिक यात्रा के विभिन्न पड़ावों से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ।  

दूसरा संयोग बड़ा ही अद्भुत एवं आलौकिक था।  इस संदर्भ में बेहतर होगा कि मैं उस वाकये को सचित्र आपसे साझा करूँ जो कि सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी की फेसबुक वाल से साभार उद्धृत करना चाहूँगा। 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव, सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार >>>>
शिक्षकीय सुख यह होता है, कल घर आये Hemant Bawankar जी वे और डॉ विजय तिवारी किसलय जी, पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी के केंद्रीय विद्यालय जबलपुर क्रमांक 1 जिसके संस्थापक प्राचार्य हैं पिताजी, में उनके विद्यार्थी थे । साथ मे थे डॉ विजय तिवारी किसलय ।
पिताजी का  जन्मदिन था कल , बधाई , मिठाई ,होली मिलन  आशीर्वाद सब ।

ऐसे व्यक्तिगत एवं आत्मीय क्षणों में मेरी प्रतिकृया मात्र यह थी  >>>

अपने प्रथम प्राचार्य का लगभग 53 वर्ष पश्चात अपनी सेवानिवृत्ति के उपरान्त आशीर्वाद पाना किसी भी प्रकार से ईश्वर के प्रसाद से कम नहीं है। 
इस संयोग के लिए मैं उनका एवम उनके चिरंजीव बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री विवेक रंजन जी एवम अनुज डॉ विजय तिवारी जी का हृदय से आभारी हूँ।

इन दोनों ही क्षणों में अनुज डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी के साथ ने ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस अवसर को अविस्मरणीय बना दिया।

जीवन में ऐसे सुखद क्षणों की हम मात्र कल्पना ही कर पाते हैं। किन्तु, जब कभी ऐसे क्षण ईश्वर हमें देते हैं तो उन्हें अंजुरी में समेटना बड़ा कठिन लगता है । ऐसा लगता है कि ये कि ये क्षण सदैव के लिए हृदय के कैमरे में अंकित हो जाएँ। और वे हो गए।

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

24 मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-9 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 9 

यह एक शाश्वत सत्य  है कि जीवन एक पहेली है।  आम तौर पर एक व्यक्ति जीवन में कम से कम तीन पीढ़ियाँ अवश्य देखता है। यदि सौभाग्यशाली रहा और ईश्वर ने चाहा तो चार या पाँच पीढ़ी भी ब्याज स्वरूप देख सकता है।

आज मैं आपसे संवाद स्वरूप यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ । पढ़ कर प्रतिकृया देंगे तो मुझे बेहद अच्छा लगेगा।

 

जिंदगी का गणित 

वैसे भी
मेरे लिए
गणित हमेशा से
पहेली रही है।

बड़ा ही कमजोर था
बचपन से
जिंदगी के गणित में।
शायद,
जिंदगी गणित की
सहेली रही है ।

फिर,
ब्याज के कई प्रश्न तो
आज तक अनसुलझे हैं।

मस्तिष्क के किसी कोने में
बड़ा ही कठिन प्रश्न-वाक्य है
“मूलधन से ब्याज बड़ा प्यारा होता है!”
इस
‘मूलधन’ और ‘ब्याज’ के सवाल में
‘दर’ कहीं नजर नहीं आता है।
शायद,
इन सबका ‘समय’ ही सहारा होता है।

दिखाई देने लगता है
खेत की मेढ़ पर
खेलता – एक छोटा बच्चा
कहीं काम करते – कुछ पुरुष
पृष्ठभूमि में
काम करती – कुछ स्त्रियाँ
और
एक झुर्रीदार चेहरा
सिर पर फेंटा बांधे
तीखी सर्दी, गर्मी और बारिश में
चलाते हुये हल।

शायद,
उसने भी की होगी कोशिश
फिर भी नहीं सुलझा पाया होगा
इस प्रश्न का हल।

आज तक
समझ नहीं पाया
कि
कब मूलधन से ब्याज हो गया हूँ ?
कब मूलधन से ब्याज हो गया है ?

यह प्रश्न
साधारण ब्याज का है?
या
चक्रवृद्धि ब्याज का है?

मूलधन किस पीढ़ी का है ?
और
उसे ब्याज समेत चुकाएगा कौन?
और
यदि चुकाएगा भी
तो किस दर पर
और
किसके दर पर ?

 

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

23  मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-8 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 8 

टाइम्स ऑफ इंडिया (जबलपुर संस्कारण) के 19 मार्च 2019 के अंक में समाचार चैनलों की बेवजह/बेमानी बहसों के बीच एक सकारात्मक समाचार पढ़ कर लगा कि भाग दौड़ भरी इस दुनियाँ में अब भी इंसानियत जीवित है। क्यों ऐसे समाचार समुचित स्थान नहीं  पाते जो इंसान को इंसान से जोड़ते हों। संक्षिप्त में समाचार कुछ इस प्रकार है :

संयोगवश विश्व किडनी दिवस (14 मार्च 2019) के दिन मुंबई के एक अस्पताल में दो परिवारों के मध्य एक अनुकरणीय किडनी प्रत्यारोपण ऑपरेशन किया गया। ठाणे के एक मुस्लिम परिवार एवं बिहार के एक हिन्दू परिवार में उनके पतियों को किडनी की आवश्यकता थी। उन्होने सर्वप्रथम अपने अपने परिवारों में प्रयास किया किन्तु ब्लड ग्रुप मैच न होने के कारण यह संभव नहीं हो पाया।  संयोगवश दोनों परिवार की पत्नियों का ब्लड ग्रुप एवं किडनियाँ एक दूसरे के पतियों से मैच हो रही थी। अतः  दोनों परिवार की पत्नियों ने एक दूसरे के पतियों को अपनी किडनियाँ दान देकर न केवल इंसानियत की मिसाल पेश की अपितु एक दूसरे परिवार से आजीवन रक्त संबंध भी बना लिए।

इस अनुकरणीय उदाहरण को आप किस दृष्टि से देखेंगे। हो सकता है कोई साहित्यकार इस पर लघुकथा भी लिख दे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आखिर हम अपने आस पास से अपनी रचनाओं के लिए ऐसे चरित्रों/पात्रों को ही तो तलाशते रहते हैं।

इस संदर्भ में मुझे अपने एक कलाम “जख्मी कलम की वसीयत” की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो आपसे साझा करना चाहूँगा:

 

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,

इसलिए यह अमन का पैगाम लिख रहा हूँ।

इंसानियत तो है ही नहीं मज़हबी सियासत

ये कलाम इंसानियत के नाम लिख रहा हूँ।

ये सियासती गिले शिकवे यहीं पर रह जाएंगे,

बेहद हसीन दुनियाँ तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

22 मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-7 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 7 

आशा करता हूँ आपको e-abhivyakti के होली विशेषांक की रचनाएँ पसन्द आई होंगी जिन्हें मित्र एवं वरिष्ठ रचनाकारों ने बड़ी मेहनत से तैयार की थीं।

वास्तव में 21 मार्च को मात्र होली पर्व ही नहीं था अपितु और भी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय दिवस भी थे। इनमें दो का उल्लेख करना चाहूँगा।पहला National Single Parent Day  – 21st March और दूसरा विश्व कविता दिवस – 21 मार्च। National Single Parent Day  – 21st March के उपलक्ष में सुश्री स्वपना अमृतकर की भावप्रवण मराठी रचना “माऊली” प्राप्त हुई। शेष रचनाएँ “विश्व कविता दिवस” से संबन्धित हैं।

जब कभी कविता की चर्चा होती है और मैं अपना आकलन करने की चेष्टा करता हूँ तो उन हस्तियों में हिन्दी के कुछ चर्चित नाम हैं डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”,  डॉ. विजय तिवारी “किसलय”, डॉ. सुरेश कुशवाहा “तन्मय” एवं सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा।

अभी हाल ही में मेरा परिचय मराठी के समकालीन वरिष्ठ कवि कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  से हुआ। इनके काव्य एवं साहित्य के प्रति समर्पण की भावना से मैं हतप्रभ हूँ। इसी संदर्भ में मराठी के सशक्त हस्ताक्षरों से परिचय हुआ। इनमें कुछ चर्चित नाम हैं  जैसे सुश्री प्रभा सोनवणे, सुश्री रंजना लसणे,  सुश्री स्वप्ना अमृतकर, सुश्री आरूशी दाते, श्री दीपक करंदीकर, श्री टीकम शेखावत, श्री सुजित कदम आदि। संयोगवश मैं इनमें से श्री दीपक जी के अतिरिक्त किसी से भी व्यक्तिगत नहीं मिल सका किन्तु, इनका साहित्य पढ़ते-पढ़ते इनकी छवि अवश्य कहीं न कहीं मस्तिष्क में अंकित हो गई है।

इन सबके काव्य संयोजन में एक बात जो मुझे इनसे जोड़ती है वह है इन सबका संवेदनशील हृदय, शब्दों का चयन, मनोभावनाओं का उत्कृष्ट शाब्दिक चित्रण और भाषा पर नियंत्रण।

इस संदर्भ में मैं अपनी कविता “Words ….. and Poetry” की निम्न पंक्तियाँ आपसे साझा करना चाहता हूँ।

My words

never sleep.

When you are sleeping

then

and

even when I sleep

then too.

 

These words are

my existence

my identity.

 

When the world sleeps

in their own sleep,

then these words

awake me

and

make me feel that

some words are innocent

unknown to each other

I try to associate them

in my vocabulary

in my brain

and

try to tell them –

It is only their identity.

These words

sometimes

correlate with each other

and

sometimes

slip from the hand

slip from the heart

and

slip away

far away …

None can

bind them,

one’s brain even

and

even boundaries of

the nations too.

 

Whenever,

I feel lonely

alone

in silence,

these words

try to tell me

songs of lakes

and

songs of springs.

 

Breeze over

green fields

and

green meadows.

 

Fearful stories

of hills

dark forests

and

history buried

in and under

the historical forts.

 

These words have

their own identity

in my heart

in my vocabulary.

 

My all words are

superb

extremely superb

to me.

 

Sometimes,

I get

some insensitive words

in the journey of life

they disturb me.

I had to keep them away

then only

I could create such poetry

from the remaining words.

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

21 मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-6 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 6 

होली पर्व पर आप सबको e-abhivyakti की ओर से हार्दिक शुभकामनायें। होली पर्व के अवसर पर इतनी रचनाएँ पाकर अभिभूत हूँ। आपके स्नेह से मैं कह सकता हूँ कि आज का अंक होली विशेषांक ही है।

उत्तराखंड के एक युवा लेखक हैं श्री आशीष कुमार। “Indian Authors” व्हाट्सएप्प ग्रुप पर साझा की गई उनकी निम्न पंक्तियों ने जैसे थोड़ी देर के लिए बचपन लौटा दिया हो।  जरा आप भी पढ़ कर लुत्फ लीजिये।

“अगर आप कहीं रास्ते में हैं….और अचानक से कोई सनसनाता हुआ पानी या रंग का गुब्बारा आप पर आकर छपता है…..तो गुस्सा न हों, न उन बच्चों को डांटे…
उनको कोसने के बजाए खुद को भाग्यशाली समझें… कि आपको उन नादान हाथों ने चुना है जो हमारी परम्परा को, संस्कृति को जिन्दा रखे हुए हैं… जो उत्सवधर्मी हिन्दोस्तान को और हिंदुस्तान में उत्सव को जिन्दा रखे हुए हैं… ऐसे कम ही नासमझ मिलेंगे.. वैसे भी बाकी सारे समझदार वीडियोगेम , डोरेमोन, और एंड्रॉइड या आईओएस के अंदर घुसे होंगे ।
तो कृपया इन्हें हतोत्साहित न करें…बल्कि यदि आप उन्हें छुपा देख लें तो जानबूझ कर वहीं से निकलें..आपकी Rs.400 की शर्ट जरूर खराब हो सकती पर जब उनकी इस शरारत का जबाब आप मुस्कुराहट से देंगे न.. तो उनकी ख़ुशी,आपको Rs.4000 की ख़ुशी रिटर्न करेगी…
और होली जिन्दा रहेगी, रंग जिन्दा रहेंगे, हिंदुस्तान में उत्सव जिन्दा रहेगा और हिंदुस्तान जिन्दा रहेगा।”  *?होली है?* “
– साभार श्री आशीष कुमार

यह तो पर्व का एक पक्ष हुआ। यदि इस पर्व के दूसरे पक्ष के लिए अपना पक्ष नहीं रखूँगा तो यह मेरी भावनाओं के साथ अन्याय होगा। मुझे अक्सर लगता है कि हमारा जीवन टी वी के समाचार चैनलों के ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह हो गया है। ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह हमारा जीवन भी उतार चढ़ाव से भरा हुआ है। क्या आपको नहीं लगता कि ये ब्रेकिंग न्यूज़ के विषय हमारी संवेदनाओं को कभी भी जागृत या सुप्तावस्था में ले जाते हैं? ब्रेकिंग न्यूज़ ही बाध्य करते हैं कि किस पर्व की क्या दिशा हो? और न्यूज़ चैनलों की बहसों के ऊपर बहस  करने का जिम्मा आप पर छोड़ता हूँ।

इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता “तिरंगा अटल है, अमर है” की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं:

समय अच्छे-अच्छे घाव भर देता है

जीवन वैसे ही चल देता है

ब्रेकिंग न्यूज़ बदल जाती है

सोशल मीडिया के विषय बदल जाते हैं

शांति मार्च दूर गलियों में गुम जाते हैं

कविताओं के विषय बदल जाते हैं

तिरंगा अटल रहता है

रणनीति और राजनीति

सफ़ेद वस्त्र बदलते रहते हैं

गंगा-जमुनी तहजीब कहीं खो जाती है

रोटी, कपड़ा और मकान का प्रश्न बना रहता है

जिजीविषा का प्रश्न बना रहता है….

 

आज बस इतना ही।

पुनः होली की शुभकामनाओं के साथ।

 

हेमन्त बावनकर

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-5 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 5 

कल देर रात डॉ सुरेश कान्त के नवीनतम व्यंग्य उपन्यास “जॉब बची सो ……” की श्री एम एम चन्द्र जी द्वारा की गई पुस्तक समीक्षा को e-abhivyakti  में प्रकाशित करने के पूर्व पढ़ते-पढ़ते उसमें इतना खो गया कि समय का पता ही नहीं चला और आपसे संवाद करने से भी चूक गया। इस संदर्भ में संस्कारधानी जबलपुर के साहित्यकार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का आभारी हूँ, जिन्होने बैंक के पुराने दिनों की याद ताजा कर दी।

डॉ सुरेश कान्त एवं श्री एम एम चंद्रा दोनों ही हस्तियाँ व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। अभी हाल ही में मैंने श्री चंद्रा जी के उपन्यास “यह गाँव बिकाऊ है” की समीक्षा इसी वेबसाइट पर प्रकाशित की थी। श्री चंद्रा जी प्रसिद्ध सम्पादक, आलोचक, व्यंग्यकार एवं उपन्यासकार हैं।  डॉ  सुरेश कान्त जी के बारे में अमेज़न की साइट पर उपलब्ध निम्नलिखित जानकारी  आपको उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से रूबरू कराने के लिए काफी है।

“अपने एक नियमित कॉलम के शीर्षक की तरह अग्रणी व्यंग्यकार सुरेश कांत अन्य व्यंग्यकारों से  कुछ अलग’ हैं। व्यंग्य उनके हाथ में ऐसा अस्त्र है, जो लगातार इस्तेमाल किए जाने से भोथरा नहीं होता, बल्कि और पैना होता जाता है। तभी तो उनके व्यंग्य इतने प्रखर और बेधक होते हैं। वे पाठक के मन को भाते भी हैं और उसे यह सोचने के लिए बाध्य भी करते हैं कि अरे, हमारा जीवन इतना विसंगति भरा है? इतना दूषित और विषमतापूर्ण है? यह तो बहुत गलत है! तो फिर किस तरह हम इसे ठीक करें? और इस प्रक्रिया में वह स्वयं से भी साक्षात्कार करता है, कि कहीं मैं ही, या फिर मैं भी, तो जिम्मेदार नहीं इसके लिए? जिन विसंगतियों की तरफ व्यंग्य में इशारा किया गया है, कहीं वे मुझमें भी तो नहीं? अगर हैं, तो सबसे पहले तो मुझे अपने को ही दुरुस्त करना चाहिए। और अगर नहीं हैं, तो भले ही मैंने खुद कोई गलत काम न किया हो, पर औरों को गलत काम करते देख चुप रह जाना भी तो गलत काम ही है! इससे उसकी चेतना में हलचल होती है, उसकी चेतना जागती है, सच्चे अर्थों में चेतना बनती है। क्योंकि चेतना अगर सोई हो, तो चेतना कैसी? परिणामत: विसंगतियाँ उसे कचोटने लगती हैं, गलत आचरण उससे बरदाश्त नहीं होता, वह खुद को गलत के विरोध में खड़ा पता है और उससे लड़ने लगता है। इस तरह उनके व्यंग्य जीवन में बदलाव की नींव रखते हैं। इसीलिए तो हैं वे दूसरों से ‘कुछ अलग’। 

किसी भी लेखक के पात्र/चरित्र उसके आसपास ही होते हैं। कई बार तो वह स्वयं भी पात्र बन जाता है और किसी भी शैली में लिखने लगता है। कई बार किसी का वार्तालाप या कोई घटित घटना भी उसे लिखने के लिए प्रेरित कर देती है। बस एक बार सूत्र मिल जाए लेखक सूत्रधार बन शब्दों का ताना बाना बुन कर पात्र रच लेता है, चरित्र गढ़ लेता है।

इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता “मैं मंच का नहीं मन का कवि हूँ” की निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

 

तब जैसे

मन से बहने लगते हैं शब्द

व्याकुल होने लगती हैं उँगलियाँ

ढूँढने लगती हैं कलम

और फिर

बहने लगती है शब्द सरिता

रचने लगती है रचना

कथा, कहानी या कविता।

शायद इसीलिए

कभी भी नहीं रच पाता हूँ

मन के विपरीत

शायरी, गजल या गीत।

नहीं बांध पाता हूँ शब्दों को

काफिये मिलाने से

मात्राओं के बंधों से

दोहे, चौपाइयों और छंदों से।

 

शायद वे प्रतिभाएं भी

जन्मजात होती होंगी।

जिसकी लिखी प्रत्येक पंक्तियाँ

आत्मसात होती होंगी।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-4 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 4 

इस बात को कतई झुठलाया नहीं जा सकता कि सोशल मीडिया ने वास्तव में साहित्यिक जगत में क्रान्ति ला दी है।  हाँ, यह बात अलग है कि इस क्रान्ति नें तकनीकी बदलावों की वजह से साहित्यकारों की तीन पीढ़ियाँ तैयार कर दी हैं। एक वरिष्ठतम पीढ़ी जो अपने आप को समय के साथ तकनीकी रूप से स्वयं को अपडेट नहीं कर पाये और कलम कागज तक सीमित रह गए। दूसरी समवयस्क एवं युवा पीढ़ी ने कागज और कलम दराज में रख कर लेपटॉप, टबलेट  और मोबाइल में हाथ आजमा कर सीधे साहित्य सृजन करना शुरू कर दिया। और कुछ साहित्यकारों नें तो वेबसाइट्स, सोशल मीडिया और ब्लॉग साइट में भी हाथ आजमा लिया।

इन सबके मध्य एक ऐसी भी हमारी एवं वरिष्ठ पीढ़ी के साहित्यकार हैं जो अपने पुत्र, पुत्रवधुओं एवं नाती पोतों पर निर्भर होकर इस क्षेत्र  में सजग हैं। यह तो इस क्रान्ति का एक पक्ष है।

दूसरा पक्ष यह है कि हमारे कई गाँव, कस्बों और शहरों में सामयिक काव्य एवं साहित्यिक गोष्ठियाँ बरकरार हैं। इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में महानगरों में बड़ी पुस्तकों और चाय/कॉफी की दुकानों (कैफे) में ऐसे सप्ताहांत में  होने वाले कार्यक्रमों के लिए निःशुल्क अथवा साधारण शुल्क पर स्थान उपलब्ध करा दिया जाता है। ताकि श्रोता और वक्ता शेल्फ की पुस्तकों के साथ चाय / कॉफी/ नाश्ते  का लुत्फ उठा  सकें। मैं ऐसे ही अंजुमन नाम की संस्था द्वारा माह के प्रथम सप्ताहांत में अट्टागलट्टा बुक शॉप, बेंगुलुरु  में आयोजित  कार्यक्रमों में भाग ले चुका हूँ। वहाँ परआइ टी कंपनियों के युवा रचनाकारों की प्रतिभा और साहित्य के प्रति रुझान देखकर मैं हतप्रभ रह गया। वैसे ही पृथा फ़ाउंडेशन, पुणे द्वारा सभी भाषाओं के साहित्य का स्वागत किया जाता है। ऐसी अनेकों संस्थाएं हैं जो प्रत्येक पीढ़ी के संवेदनशील साहित्यकारों को स्वस्थ साहित्य की ऊर्जा प्रदान कर रही हैं। इस दौर की इन संस्थाओं और कार्यकर्ताओं को नमन।

अब तीसरा पक्ष भी देखिये। एक ऐसी भी पीढ़ी तैयार हो रही है जो किसी की भी रचना को बिना लेखक की अनुमति के नाम का उल्लेख किए बिना अन्य साहित्यकारों की रचनाएँ स्वयं के नाम से प्रकाशित/प्रसारित कर देते हैं। इस सन्दर्भ में एक विचित्र अनुभव हुआ। मेरे मित्र  और एक वरिष्ठ व्यंग्य  विधा के सशक्त हस्ताक्षर आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी की व्यंग्य रचना जिनगी का यो यो बीप टेईस्ट कुछ समय पूर्व सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रही थी । सम्पूर्ण व्यंग्य मात्र एक पोस्ट की तरह जिसमें  कहीं भी उनके नाम का उल्लेख नहीं था। जब यह व्यंग्य उन्होने मुझे भेजा और मैंने इस सच्चाई से उन्हें अवगत कराया तो बड़ा ही निश्छल एवं निष्कपट उत्तर मिला – “मैंने इन चीजों पर कभी ध्यान नहीं दिया। लिखा, कहीं छप गया तो ठीक, फिर अगले काम में लग गए।” उनके इस उत्तर पर मैं निःशब्द हूँ, किन्तु ,मेरा मानना है की हम सबको ,सबके कार्य और नाम को यथेष्ट सम्मान देना चाहिए। 

एक विडम्बना यह भी कि आज कोई भी पुस्तक/पत्रिकाएँ खरीद कर नहीं पढ्ना चाहता। लेखकों की एक पीढ़ी सिर्फ लिखना चाहती है, यह पीढ़ी पढ़ना नहीं चाहती।   किन्तु ,वह यह अवश्य चाहती है कि उसकी पुस्तकें लोग खरीद कर अवश्य पढ़ें । अब आप ही तय करें, यह दौर हमें कहाँ ले जा रहा है।

इस टुकड़ा टुकड़ा संवाद में मैं अपनी निम्न पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा।

 

अब ना किताबघर रहे न किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई 

सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट रहे हैं मुझको।

 

अब तक का सफर तय किया एक तयशुदा राहगीर की मानिंद

आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको।  

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-3 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–3  

एक अजीब सा खयाल आया। अक्सर लोग सारी जिंदगी दौलत कमाने के लिए अपना सुख चैन खो देते हैं। फिर आखिर में लगता है, जो कुछ भी कमाया वो तो यहीं छूट जाएगा और यदि कुछ रहेगा तो सिर्फ और सिर्फ  लोगों के जेहन में हमारी चन्द यादें। इसके बावजूद वो सब वसीयत में लिख जाते हैं जो उनका था ही नहीं।

ऐसे में मुझे मेरा एक कलाम याद आ रहा है जो आपसे साझा करना चाहूँगा।

 

जख्मी कलम की वसीयत

जख्मी कलम से इक कलाम लिख रहा हूँ,

बेहद हसीन दुनिया को सलाम लिख रहा हूँ।

ये कमाई दौलत जो मेरी कभी थी ही नहीं,

वो सारी दौलत तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

तुम भी तो जानते हो हर रोटी की कीमत,

वो ख़्वाहिशमंद तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

पूरी तो करो किसी ख़्वाहिशमंद की ख़्वाहिश,

ख़्वाहिशमंद की ओर से सलाम लिख रहा हूँ।

सोचा न था हैवानियत दिखाएगा ये मंज़र,

आबरू का जिम्मा तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना,

इसलिए यह अमन का पैगाम लिख रहा हूँ।

इंसानियत तो है ही नहीं मज़हबी सियासत,

ये कलाम इंसानियत के नाम लिख रहा हूँ।

ये सियासती गिले शिकवे यहीं पर रह जाएंगे,

बेहद हसीन दुनियाँ तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

कुछ भी तो नहीं बचा वसीयत में तुम्हें देने,

अमन के अलफाज तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

जाने क्या किया था इस बदनसीब कागज ने,

जो इसे घायल कर अपना नाम लिख रहा हूँ।

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

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