हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 143 ☆ आत्मसंवाद – दो दो बातें… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के अनुरोध पर दो दो बातें… शीर्षक से श्री विवेक जी का आत्मसंवाद के माध्यम से दो टूक बातें।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 143 ☆

? आत्मसंवाद – दो दो बातें…  ?

दो बातें जो एक  लेखक  की सृजनशीलता के लिए ज़रूरी हैं ?

‍‍‌‍‍‍‍‌‍‍‍‍‍..व्यापक सोच

और अभिव्यक्ति की क्षमता.

दो बातें जो एक सफल व्यंग्यकार में होनी चाहिये ?

..सूक्ष्म दृष्टि

और न्यूनतम शब्दों में चुटीला कहने का कौशल.

आपकी व्यंग्य लेखन यात्रा की दो सर्वाधिक  महत्वपूर्ण उपलब्धियां?

..पहली ही किताब “कौआ कान ले गया” को राष्ट्रीय दिव्य अलंकरण

और नई किताब “समस्या का पंजीकरण” पर पद्मश्री डा ज्ञान चतुर्वेदी की भूमिका , डा सूर्यबाला , डा प्रेम जनमेजय , डा आलोक पौराणिक , डा गिरीश पंकज , श्री बी एल आच्छा की सम्मतियां  व समकालीन व्यंग्यकारो की टिप्पणियां.

आपकी लिखी दो पुस्तकें  जिनसे आपको एक लेखक के रूप में नई पहचान मिली ?

..कविता संग्रह “आक्रोश”

तथा  नाटक संग्रह “हिंदोस्ता हमारा “.

दो चुनौतियां जो एक अभियंता के प्रोफेशनल कैरियर में हमेशा रहती हैं?

..परिस्थिति के अनुसार आन द स्पाट निर्णय लेने की योग्यता ,

व अपनी टीम को उत्साह जनक तरीके से साथ लेकर चलने की क्षमता.

एक अभियंता के रूप में आपके जीवन के दो गौरवमयी पल?

..परमाणु बिजली घर चुटका जिला मण्डला जो अब निर्माणाधीन है का स्थल चयन से सर्वे का सारा कार्य ,

और अटल ज्योति योजना के जरिये म. प्र. में फीडर विभक्तिकरण में महत्वपूर्ण कार्य.

दो संदेश जो आज के हाई टेक युवा अभियंताओं को देना चाहते हैं?

..जल्दबाजी से बचें

एवं  बड़े लक्ष्य बनाकर निरंतर सक्रियता से कार्य करें.

आपके संघर्ष के दिनों के दो साथी जिन्होंने हमेशा आपका साथ दिया? 

.. मेरी पत्नी कल्पना

तथा मेरी स्वयं की इच्छा शक्ति.

अपने जीवन के दो निर्णय जिन पर आपको गर्व है?

.. केवल अभियंता के रूप में सिमट कर रह जाने की जगह लेखन को समानांतर कैरियर बनाना

एवं बच्चों को उन्मुक्त वैश्विक शिक्षा के अवसर देना.

दो बातें जिनसे आप प्रभावित होते हैं ? 

.. विनम्र व्यवहार

तथा तार्किक ज्ञान.

दो जीवनमूल्य जो आपको अपने माता पिता से मिले हैं?

.. जो पावे संतोष धन सब धन धूरि समान ,

तथा परिस्थिति जन्य तात्कालिक श्रेष्ठ निर्णय लेना फिर उस पर पछतावा नहीं करना.  

अपनी जीवनसंगिनी के व्यक्तित्व की दो विशेषताएँ को उनको खास बनाती हैं?

.. कठिन परिस्थितियों में भी विचलित न होकर अधिकतम नुकसान के लिये मानसिक रूप से तैयार होकर धैर्य बनाये रखना ,

आर्थिक प्रलोभन या नुकसान से प्रभावित न होना एवं अपनो पर पूरा भरोसा करना.

दो बातें जो आपको नाराज़ करती हैं?

..चीटिंग से घृणा है

और झूठ से गुस्सा आता है.

दो शख्सियतें जिनसे आपको हमेशा  प्रेरणा मिलती है ?

..भगवान कृष्ण , मुश्किल परिस्थिति में सोचता हूं भगवान कृष्ण ऐसे समय क्या करते ?  

और मेरी माँ के प्रगतिशील जीवन से मुझे सदा प्रेरणा मिलती है.

दो बातें जिनमे आप विश्वास करते हैं ?

.. मेहनत कभी बेकार नही जाती ,

संबंध वे काम कर सकते हैं जो रुपये नही कर सकते.

दो बातें जो आपको हिंदी भाषा में सर्वश्रेष्ठ लगती हैं ? 

.. आत्मीयता बोध से भरी हुई सहज सरल है ,

कम से कम शब्दों में बडी बात कहने में सक्षम है.

दो बातें जो आप अपने आलोचकों से कहना चाहते हैं?

.. आलोचना करने से पहले मुझसे सीधी बात कीजीये आप जान जायेंगे कि मैं गलत नही ,

आलोचना करना सबसे सरल है, उन्हीं स्तिथियों में बेहतर कर पाना कठिन.

दो सीख जो अच्छे स्वास्थ्य के लिए कोरोना ने विश्व को दी हैं ?

.. धन से स्वास्थ्य सदा बड़ा होता है ,

हर पल का जीवन भरपूर जियें, जीवन क्षण भंगुर है.

जीवन में सफलता के दो मूल मंत्र ?

.. सचाई ,

तथा टैक्टफुलनेस.

दो अवार्ड जिन पर  आपको गर्व है ?

..सोशल राइटिंग के लिये राज्यपाल श्री भाई महावीर के हाथो मिला रेड एण्ड व्हाईट ब्रेवरी अवार्ड

और म प्र साहित्य अकादमी से मिला हरिकृष्ण प्रेमी सम्मान .

दो लक्ष्य जो आप जीवन में हासिल करना चाहते हैं ?

..कुछ शाश्वत लेखन

व निश्चिंत विश्व भ्रमण

मध्यप्रदेश के दो पर्यटन स्थल जो आपको आकर्षित करते हैं?

..नर्मदा का उद्गम अमरकंटक ,

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान  

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ शहीद दिवस – महात्मा को श्रद्धांजलि ☆ श्री सुरेश पटवा / श्री अरुण डनायक

?  शहीद दिवस – महात्मा को श्रद्धांजलि ?

☆ श्री सुरेश पटवा / श्री अरुण डनायक ☆ 

श्री सुरेश पटवा

गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने जिन्हे महात्मा की उपाधि से नवाजा था। जिन्हें चर्चिल “अधनंगा फकीर “कहता था। जिनके बारे मे महान वैज्ञानिक आईंसटीन ने कहा था कि –  “आने वाली नस्लें यह विश्वास नही करेंगी कि हाड़ मांस का ऐसा पुतला कभी जमीन पर चलता फिरता था।”

30 जनवरी 1948 को शाम की प्रार्थना के वक़्त द्वेषपूर्ण भावना से प्रेरित एक मानव ने महामानव के सीने मे तीन गोली नमस्कार की मुद्रा मे आकर उतार दीं।

हे राम! के शब्द के साथ क्षीण काया पोतियों आभा और केनू के कंधों से फिसलकर फर्श पर धराशाही हो गई।

महात्मा को श्रद्धांजलि

 – श्री सुरेश पटवा

☆ ☆ ☆ ☆ ☆ 

श्री अरुण कुमार डनायक

आज ही के दिन 30 जनवरी 1948 को एक महामानव, मानवता के अपने संकल्प को पूरा करने, सर्वधर्म सद्भाव बढ़ाने, हमें अहिंसक बने रहने, देश की एकता को बनाए रखने के  विचारों का समर्थक एक हत्यारे की तीन गोलियों का शिकार हो गया।  महात्मा का शरीर जब इस संसार से देवलोक गया तो सारे संसार में शोक की लहर छा गई । सभी ने उन्हें श्रद्धांजलियाँ दी :

मनुष्यों मे से एक देव उठ गया। यह कृशकाय छोटा सा व्यक्ति अपनी आत्मा की महानता के कारण मनुष्यों में देव था।

– राष्ट्रपति ट्रूमेन

हमारे सामने वे आज एक महान आत्मिक शक्ति के रूप में आने वाली संकटपूर्ण स्थिति के दिनों में हमारा और अपने लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए खड़े हैं।

– स्टेफर्ड क्रिप्स (ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता, क्रिप्स मिशन के संयोजक)

 वे इस शताब्दी के महानतम व्यक्ति हो सकते हैं। लोग कभी कभी लेनिन को उनके  बराबर रखते हैं, परन्तु  लेनिन का साम्राज्य इस दुनिया का था और हमें यह भी पता नहीं कि दुनिया आगे चलकर उसके साथ कैसा  व्यवहार करेगी। गांधीजी के साथ ऐसी बात नहीं थी। उनकी जड़ें देश काल से परे थी और यहीँ से उन्हें शक्ति प्राप्त होती थी।

– ई एम फास्टर ( अंग्रेज उपन्यासकार, लघु कथा लेखक, व उदारवादी)

हिन्दू धर्म गांधीजी को अपना मानने का दावा कर सकता है , परन्तु उनकी आत्मा उन सभी धर्मों की गहरी से गहरी भूमि से अवतरित हुई थी, जहाँ पर सब धर्मों का मेल होता है।

– एल डब्लू ग्रेनस्टेट ( अंग्रेज शिक्षाविद ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय मे प्रोफ़ेसर)

हालंकि चरखे के प्रति गांधीजी की आस्था पर हँसना बहुत आसान है, विशेषकर ऐसी अवस्था में जबकि एक ओर कांग्रेस अपने चंदे के लिए ज्यादातर धनी  हिन्दुस्तानी मिल मालिकों की उदारता पर निर्भर थी ,तो भी चरखे का उनके जीवन दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों में एक विशेष स्थान था, यह बात बिलकुल सत्य थी  और मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है।

– अर्ल आफ हेलिफेक्स (लार्ड इरविन) भारत के पूर्व वाइसराय

महात्मा जी के तीन आदर्शों का मुझ पर बहुत  प्रभाव पडा – पहला  ब्रह्मचर्य का आदर्श मानसिक पवित्रता से दैहिक पवित्रता पैदा कर उन्होंने अपनी वासना को बिलकुल  जीत लिया थाI दूसरा था निर्धनता का आदर्श—सर के ऊपर छत और धूप और सर्दी  से रक्षा कर सकें ऐसे अति साधारण कपड़ों के अलावा उनकी कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी।तीसरा अहिंसा का आदर्श—वे मानते थे कि हिंसा को अहिंसा से , घृणा को प्रेम से और अहंकार को विनम्रता से जीतना चाहिए।

– थाकिन नू ( बर्मा के बौद्ध विचारक)

ईसाइयत को और अधिक स्पष्ट रूप से देखने में , किसी विशेष चर्च या ईसाइयत की किसी शाखा की अपेक्षा उन्होंने मेरी अधिक मदद की और निश्चय ही यह बात  उनके व्यापक विचार की सूचक है।

– सिविल थार्नडायक (प्रसिद्द अंग्रेज फिल्म कलाकार)

वे एक ऐसे व्यक्ति थे जिसने यूरोप की पाश्विकता का सामना सामान्य मानवी यत्न के साथ किया और इस प्रकार वे सदा के लिए सबसे ऊंचे उठ गएI आने वाली पीढ़िया श्याद मुश्किल से ही यह विश्वास कर सकेंगी कि गांधीजी जैसा हाड़ मांस का पुतला कभी इस धरती पर हुआ था।

– अल्बर्ट आइन्स्टीन (प्रसिद्द वैज्ञानिक) 

शांति पुरुष और अहिंसा के दूत गांधीजी धर्मान्धता के विरूद्ध- जिसने भारत की नवार्जित स्वाधीनता के लिए ख़तरा पैदा कर दिया था -संघर्ष में हिंसा द्वारा शहीद की भांति मरे। वे इस बात को समझ चुके कि राष्ट्र निर्माण के महान कार्य को हाथ में लेने से पहले इस कोढ़ को मिटाना होगा।

– लार्ड माउंटबैटन (पूर्व वायसराय)

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ यादों के झरोखे से… दास्तां दो पंजाबी दोस्तों की … ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है अविस्मरणीय मित्रता की मिसाल  ‘यादों के झरोखे से… दास्तां दो पंजाबी दोस्तों की …’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ जीवन यात्रा ☆ यादों के झरोखे से… दास्तां दो पंजाबी दोस्तों की … ☆  

गुरमीत ने कश्मीर सिंह को मौत के मुंह से बचा लिया…….

गुरमीत चंद भारद्वाज और कश्मीर सिंह पंजाब के होशियारपुर जिले के अपने पैतृक गांव नंगल खिलाड़ियां में बचपन में ही दोस्त बन गए थे।  फुटबॉल के खेल ने उनकी दोस्ती को और मजबूत किया पर स्कूल की पढ़ाई के बाद उनके रास्ते अलग-अलग हो गए। 

कश्मीर सिंह पहले भारतीय सेना में भर्ती हुए और चार साल बाद नौकरी छोड़ पंजाब पुलिस में शामिल हो गए। और फिर 1973 में गायब हो गए ।

कई साल बाद, पता चला कि वह पाकिस्तान की जेल में बंद था और भारतीय जासूस होने के लिए दी गई अपनी मौत की सजा का इंतज़ार कर रहा था। 

गुरमीत भारद्वाज ने बी ए,एम ए करने के बाद यू पी एस सी की प्रतियोगिता पास की और वर्ष 1969 में भारतीय सूचना सेवा में आ गए । दिल्ली और शिमला में सूचना और प्रसारण मंत्रालय के विभिन्न विभागों में वरिष्ठ पदों पर काम करते हुए, वे 2006 में ऑल इंडिया रेडियो चंडीगढ़ में समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए । 

गुरमीत जब भी अपने गांव जाते तो वे अपने गुमशुदा दोस्त कश्मीर सिंह की पत्नी परमजीत कौर से भी मिलते।  वह कहती, अब तुम बड़े अफसर बन गए हो, कश्मीर सिंह की रिहाई के लिए भी कुछ करो। 

गुरमीत ने कश्मीर सिंह की रिहाई के लिए कई पत्र विदेश  मंत्रालय को लिखे लेकिन कुछ भी होते नहीं लग रहा था ।

(1 -2.  कश्मीर सिंह 50 वर्ष पहले और अब 3. गुरमीत चंद भारद्वाज)

और फिर, गुरमीत को सार्क शिखर सम्मेलन के लिए 2004 में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पाकिस्तान यात्रा को कवर करने के लिए ऑल इंडिया रेडियो द्वारा इस्लामाबाद भेजा गया।  वह पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की प्रेस कॉन्फ्रेंस को कवर कर रहे थे, जब उसने अपने दोस्त कश्मीर सिंह के लिए कुछ करने का एक मौका देखा ।  उन्होंने जनरल से पूछा कि पाकिस्तान उन भारतीय कैदियों को क्यों नहीं रिहा कर रहा है जिन्होंने अपने कारावास का कार्यकाल पूरा कर लिया था ।  जनरल ने ऐसे किसी भी कैदी के पाकिस्तानी जेल में होने से इनकार किया लेकिन गुरमीत कागज के एक टुकड़े पर विवरण के साथ तैयार थे। कश्मीर सिंह की पत्नी परमजीत कौर की तरफ से लिखी गई एक दरखास्त उन्होंने पाकिस्तान के विदेश मंत्री कसूरी को थमा दी। कसूरी ने वादा किया  कि इस मामले में वे शीघ्र उचित करवाई करेंगे।

इस बीच गुरमीत ने पाकिस्तान के एक और मंत्री अंसार बर्नी से दोस्ती भी कर ली जो मानव अधिकारों के मामलों में विशेष रुचि रखते थे। 

गुरमीत 2006 में रिटायर हो गए पर अपने दोस्त कश्मीर सिंह को पाकिस्तान से बाहर लाने के लिए लगातार प्रयास करते रहे ।  करीब 35 साल तक पाकिस्तान की नौ जेलों में रहे कश्मीर सिंह आखिरकार 2008 में रिहा हो कर भारत आ गए। यह कश्मीर सिंह के लिए एक नया जीवन था और उनके करीबी दोस्त गुरमीत चंद के लिए एक बड़ी संतुष्टि थी।

पंजाब सरकार और कुछ व्यक्तियों ने कश्मीर सिंह को कुछ वित्तीय मदद दी।  पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने  10 हज़ार रूपये महीना की पेंशन लगा दी। कश्मीर सिंह की पत्नी को महालपुर कस्बे में एक आवासीय प्लॉट दिया गया। उनके बेटे को शिक्षा विभाग में क्लर्क की नौकरी दी गई।

कश्मीर सिंह की उम्र 80 साल से अधिक है और वह अपने पैतृक गांव नंगल खिलाड़ियां में रहते हैं ।  गुरमीत चंडीगढ़ में बस गए हैं, लेकिन अक्सर अपने गांव जाते हैं ।  वे पिछले 41 वर्षों से जूनियर और सीनियर स्तर के फुटबॉल टूर्नामेंट का आयोजन कर रहे हैं। उन्होंने गांव के विदेशों में जा बसे अपने दोस्तों की आर्थिक मदद से गांव में फुटबॉल स्टेडियम बनवाया है ।

कश्मीर सिंह और गुरमीत भारद्वाज फुटबॉल के प्रति अपने पुराने जनून को अब गांव के युवा खिलाड़ियों में जगा रहे हैं।

 ©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ एक रचनाधर्मी यात्री – डॉ प्रेम जन्मेजय – ☆ एक परिचर्चा – श्री अजीत सिंह

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

?? आज श्री कमलेश भारतीय जी को उनके जन्मदिवस पर ‘ई-अभिव्यक्ति’ एवं ‘पाठक मंच’ परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं ??

 

डाॅ प्रेम जनमेजय, संपादक-व्यंग्य यात्रा 

☆  एक रचनाधर्मी यात्री ☆  डाॅ प्रेम जनमेजय ☆

(दिल्ली के हंस प्रकाशन से शीघ्र ही श्री कमलेश भारतीय जी का सातवां कथा संग्रह-‘नयी प्रेम कहानी’, आ रहा है। डाॅ प्रेम जनमेजय का द्वारा लिखित फ्लैप मैटर अपने आप में काफी कुछ कहता है।)

कमलेश भारतीय की रचनात्मक यात्रा का लगभग आधी सदी से साक्षी हूँ। एक रचनाधर्मी यात्री के रूप में सकारात्मक सोच और सामाजिक प्रतिबद्धता की उनकी यात्रा को विभिन्न विधाओं में मैंने देखा परखा है। उनके अंदर एक बेबाक पर संवेदनशील सजग पत्रकार है जो उन्हें निरन्तर विवश करता है कि वे ऐसे शब्द रचें जो मानव समाज की बेहतरी के लिए हुए हों। लघु कथा साहित्य में उनका एक मुकाम है। पर कथ्य की मांग पर वे कहानी भी रचते हैं।

कमलेश भारतीय का कहानी संकलन,”यह आम रास्ता नहीं है’ जो मुझे समर्पित भी है, मैंने पूरा पढा है और उनकी कहानी कला को बहुत समीप से जाना है। कमलेश भारतीय की कहानियों में जहां आधुनिकता है, वहीं गांव की पगडंडियों पर चलते हुए मां और मिट्टी जैसे संदेश भी । आज दुख इस बात का है कि बिना चिंतन मनन के लिखा जा रहा है इसलिए काफी उथला लेखन सामने आ रहा है। कमलेश भारतीय विसंगतियों को उजागर करने में भी सक्षम हैं । उनके पास व्यंग्य की प्रखर दृष्टि है जो हमारे समय की विसंगतियों को प्रत्यक्ष करती है। इस दृष्टि से ‘अपडेट ‘ !और ‘अगला शिकार’ कहानियां मेरी पसंदीदा कहानियां हैं।

मेरी शुभकामनाएं हैं कि कमलेश भारतीय की सक्रिय लेखनी निरन्तर उनके अनुभवों को शब्दबद्ध कर, हिंदी कहानी को समृद्ध करती रहे।

डाॅ प्रेम जनमेजय, संपादक-व्यंग्य यात्रा

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्री अजीत सिंह 

(श्री अजीत सिंह जी,  पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन द्वारा वानप्रस्थ सीनियर सिटीजन क्लब की वेब विचार गोष्ठी में “साहित्य और पत्रकारिता” विषय पर वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी से की गई परिचर्चा को ई -अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ हमने 31 अक्टूबर 2020 को साझा किया था। आज श्री कमलेश भारतीय जी के जन्म दिवस पर पुनर्पाठ में आपसे पुनः साझा करना प्रासंगिक है।)

☆ परिचर्चा ☆ आप मुझे प्रेमचंद की साहित्यिक सन्तान कह सकते हैं: श्री कमलेश भारतीय ☆ श्री अजीत सिंह ☆

जाने माने कथाकार व हरियाणा ग्रंथ अकादमी के पूर्व उपाध्यक्ष श्री कमलेश भारतीय का कहना है कि साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों व कहानियों में जिस तरह ग्रामीण जीवन व दलित वर्ग की पीड़ा का वर्णन किया गया है,  वह मुझे हूबहू अपने गांव का वर्णन लगता था ।

” इसी वर्णन ने मुझ पर एक अमिट छाप छोड़ी है और मेरी कहानियों व लघुकथाएं में भी प्रेमचंद के चरित्रों से मिलते जुलते दलित व वंचित लोगों का ज़िक्र बहुतायत से मिलता है”।

कमलेश भारतीय ने यह बात वानप्रस्थ सीनियर सिटीजन क्लब की वेब विचार गोष्ठी में “साहित्य और पत्रकारिता” विषय पर बोलते हुए कही।

“मेरे कमरे में मुंशी प्रेमचंद की फोटो देखकर कुछ लोग मुझसे पूछते थे, क्या यह आपके पिताजी की तस्वीर है?  मैं गर्वित हो कहता था आप मुझे प्रेमचंद की साहित्यिक सन्तान मान सकते हैं”।

एक रोचक किस्सा सुनाते हुए भारतीय ने कहा कि पढ़ाई में उनका मन नहीं लगता था।

“मैं स्कूल से अक्सर भाग जाता था । अध्यापकों व पिताजी से पिटाई होती थी। दादा जी कहते थे, पढ़ेगा नहीं तो भैंसें चराएगा।

आठवीं में हुआ तो दादी कहीं से ब्रह्मीबूटी लाई। सुबह सवेरे रोज़ पिलाती थी। बृहस्पतिवार को व्रत रखवाती थी। अब पता नहीं यह ब्रह्मीबूटी का कमाल था या बृहस्पतिवार के व्रत का या दादी की तपस्या और मन्नत का, कि मैं आठवीं में सेकंड डिविजन में पास हो गया। दादी ने लड्डू बांटे। मुझे भी कुछ हौसला सा मिला और मेरी पढ़ाई में रुचि बन गई। उसके बाद मैंने सभी परीक्षाएं फर्स्ट डिवीजन में पास की। अपने काॅलेज में तीनों वर्ष फर्स्ट और प्रभाकर परीक्षा में गोल्ड मेडल ।  यहीं से साहित्य में भी रुचि बनी।

कमलेश भारतीय पिछले 45 वर्षों से लिखते आ रहे हैं। उनके दस कथा संग्रह छप चुके हैं जिनमें चार लघु कथा संग्रह हैं। प्रमुख साहित्यकारों से उनके इंटरव्यू बड़े मकबूल हुए हैं। इन्हीं पर आधारित उनकी पुस्तक “यादों की धरोहर” पिछले साल अाई थी और अब उसका दूसरा संस्करण आकर भी समाप्त ।  इसी महीने उनकी नई पुस्तक “आम रास्ता नहीं है” अाई है ।

भारतीय ने चार भाषाओं इंग्लिश, हिंदी, पंजाबी व संस्कृत के साथ बी ए की और बी एड कर पंजाब के नवां शहर के  स्कूलों में 17 वर्ष अध्यापन किया। साथ में लेखन भी करते रहे और उनके लेख जालंधर के अखबारों में छपते रहे। सन् 1990 से उन्होंने स्कूल प्रिंसिपल की नौकरी छोड़ दैनिक ट्रिब्यून में पहले उपसंपादक और फिर हिसार में प्रिंसिपल संवाददाता के रूप में पत्रकारिता और साहित्य लेखन साथ साथ ही किया। उन्हे साहित्य लेखन के लिए अनेक पुरस्कार भी मिले जिनमें हरियाणा साहित्य अकादमी का देशबंधु गुप्त साहित्यिक पत्रकारिता का एक लाख रुपए का पुरस्कार तथा गैर – हिंदी राज्यों के हिंदी लेखकों के लिए केंद्र सरकार का 50 हज़ार रुपए का पुरस्कार उनकी पुस्तक “एक संवाददाता की डायरी” पर मिलना भी शामिल है।

वे तीन साल तक हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के पद पर रहते हुए लालबत्ती की गाड़ी में भी चले।

एक प्रश्न के उत्तर में भारतीय ने कहा कि बेशक घटिया संवादों के लिए सोशल मीडिया बदनाम है, पर इसमें साहित्य को लोकप्रिय बनाने की भी भरपूर संभावनाएं हैं। हर भाषा का पूरा साहित्य इंटरनेट पर मौजूद है। लेखकों, खास तौर पर बड़े लेखकों, को अपने साथ युवाओं को जोड़ कर उनमें साहित्यिक रुचि विकसित करनी चाहिए। अध्यापक और माता पिता भी बच्चों को स्कूल और कॉलेज के दौरान  अच्छे साहित्य से परिचित करा सकते हैं।

” सोशल मीडिया पर डाले गए मेरे लेख को कई हज़ार लाइक और फॉरवर्ड मिल जाते हैं। जितनी संख्या में पुस्तक बिकती है उससे कई गुणा पाठक नेट पर मिल जाते हैं। लगभग हर लेखक का साहित्य नेट पर फ्री उपलब्ध है। सोशल मीडिया का उपयोग साहित्य प्रसार के लिए अच्छी तरह हो रहा है तथा इसके विस्तार की और बड़ी संभावनाएं हैं”।

रोचक साहित्य का ज़िक्र करते हुए कमलेश भारतीय ने कहा कि वे भी शुरू में स्कूल टाइम में जासूसी नॉवेल पढ़ते थे।

“मेरे स्कूल टीचर सरदार प्रीतमसिंह ने मुझे मुंशी प्रेमचंद की ओर मोड़ दिया। कॉलेज में अंग्रेज़ी के टीचर एच एल जोशी ने “ओल्ड मैन एंड द सी” नॉवेल के साथ अंग्रेज़ी साहित्य से रूबरू कराया और बस साहित्य की लगन लग गई, पढ़ने से शुरू हुई और लेखन तक पहुंच गई”।

इंटरव्यू की विधा का ज़िक्र करते हुए भारतीय ने कहा कि

वैसे तो हर पत्रकार इंटरव्यूअर होता है, पर साहित्यकार के इंटरव्यू के लिए उसके साहित्य का ज्ञान भी होना चाहिए और लेखन की साहित्यिक शैली भी आनी चाहिए,  तभी बात में गहराई आएगी। अच्छे लेखन के लिए अच्छा साहित्य पढ़ना बहुत ज़रूरी है।

पत्रकारिता के वर्तमान स्वरूप से भारतीय बड़े निराश हैं, खास तौर पर टेलीविजन पत्रकारिता से। सिर्फ सनसनी और चिल्लाना पत्रकारिता नहीं है। ऐसा व्यावसायिक और राजनैतिक दबावों के चलते हो रहा है। प्रिंट मीडिया कुछ बचा हुआ है पर वहां भी साहित्य के परिशिष्ट समाप्त प्राय हैं। कादम्बिनी और नंदन जैसी पत्रिकाएं हाल ही में बंद हो गयीं । पाठक, श्रोता व दर्शक को विवेक से काम लेते हुए मीडिया का उपयोग करना चाहिए”।

एक तरह से यह गोष्ठी एक इंटरव्यूअर का इंटरव्यू भी रही।

– श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन, संपर्क: 9466647037

 

?? आज श्री कमलेश भारतीय जी को उनके जन्मदिवस पर ‘ई-अभिव्यक्ति’ एवं ‘पाठक मंच’ परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं ??

 

– श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ डा संजीव कुमार – जिन पर माँ लक्ष्मी व सरस्वती दोनो का ही वरदहस्त है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

डा संजीव कुमार

? जीवन यात्रा – डा संजीव कुमार – जिन पर माँ लक्ष्मी व सरस्वती दोनो का ही वरदहस्त है  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव  ?

एक ही व्यक्ति में लेखक, कवि, संपादक, आलोचक तो मिल जाते हैं, किन्तु जब वही व्यक्ति अंतरराष्ट्रीय स्तर का प्रकाशक, स्थापित प्रशासक, स्तरीय कानूनविद अधिवक्ता, समाज सेवी, भारतीय वांग्मय का गहन अध्येता, वैश्विक पर्यटक, बाल मनोविज्ञान की समझ रखने वाला,अनुवादक,  सरल व्यक्तित्व का भी हो तो वह डा संजीव कुमार ही हो सकते हैं. उन पर माँ लक्ष्मी व सरस्वती दोनो की ही बराबरी से कृपा है. किन्तु वे स्वभाव से निराभिमानी हैं.  सुस्थापित है कि ऐसे बिरले भव्य किन्तु सहज चरित्र का विकास तभी हो पाता है जब मन में सब ओर से निश्चिंतता व  शांति हो अतः मैं हिन्दी जगत की ओर से डा संजीव कुमार के परिवार विशेष रूप से उनकी श्रीमती जी को हार्दिक बधाई व धन्यवाद देना चहाता हूं. मैं डा लालित्य ललित जी का अनुग्रह मानता हूं कि उन्होने मेरा परिचय मेरे व्यंग्य संग्रह के प्रकाशन के सिलसिले में डा संजीव कुमार से करवाया. भोपाल में जब वे शांति गया सम्मान समारोह में विशिष्ट अतिथि के रुप में आये तो उनसे व श्रीमती कुमार से सहज भेंट का अवसर मिला, उनकी सरलता से मैं अंतरमन तक प्रभावित हुआ.

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 
प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं सेवानिवृत्त – मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी)

विभिन्न कानूनी विषयों पर डा संजीव कुमार की 36 से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. कोरोना के प्रतिकूल समय में जब ज्यादातर पत्रिकायें प्रिंट मीडिया से गायब होती जा रही हैं, डा संजीव कुमार ने विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका अनुस्वार के प्रकाशन प्रारंभ का बीड़ा उठाने का दुस्साहस किया, वे पत्रिका के मुख्य संपादक हैं, अनुस्वार के अंको का विमोचन भौतिक आयोजन के अतिरिक्त ई प्लेटफार्म पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपन्न हुआ, जिस मेगा कार्यक्रम का मैं साक्षी व सहभागी भी रहा हूं. अनुस्वार स्तरीय साहित्यिक पत्रिका सिद्ध हो रही है.

हिन्दी साहित्य में डा संजीव कुमार की 75 से अधिक पुस्तकें पूर्व प्रकाशित हैं. वे हिन्दी वांग्मय के गहन अध्येता ही नहीं हैं उसे समय के चश्में से  देख नये दृष्टिकोण से पुनर्प्रस्तुत करने का महति कार्य कर रहे हैं. हिन्दी व अंग्रेजी पर उनका पठन पाठन ही नही बराबरी से अभिव्यक्ति का आधार भी है. काविता उनकी सर्वाधिक प्रिय विधा है.  वासवदत्ता, उर्वशी, गुंजन, अंजिता, आकांक्षा, मेरे हिस्से की धूप, इंदुलेखा, ऋतुमयी, कोणार्क, तिष्यरक्षिता, यक्षकथा, माधवी, अश्मा,जैसे चर्चित प्रबंध काव्य उन्होने हिन्दी जगत को दिये हैं. जब कवि संजीव कुमार तिष्यरक्षिता का वकील बनकर उसके कामातुर व्यवहार का वर्णन करते हैं तो  उसमें इतिहास, मनोविज्ञान, साहित्यिक कल्पना सभी कुछ समाहित कर  प्रबंध काव्य को  पठनीय, विचारणीय, मनन करने योग्य बनाकर पाठक के सम्मुख कौतुहल जनित, नारी विमर्श के  प्रश्नचिन्ह खड़े कर पाने में सफल सिद्ध होते हैं. ऐसे समीचीन विषयों पर वे अपनी स्वयं की वैचारिक उहापोह को अभिव्यक्त करने के लिये  अकविता को विधा के रूप में चुनते हैं.तत्सम शब्दो का प्रवाहमान प्रयोग कर लम्बी भाव अकविताओ में मनोव्यथा की सारी कथा बड़ी कुशलता से कह लेते हैं.

ग्रामा, ऋतंभरा, ज्योत्स्ना, उच्छ्वास, नीहारिका, स्वप्नदीप, मधुलिका, मालविका,  किरणवीणा, प्राजक्त, अणिमा, स्वर्णकिरण, युगान्तर, परिक्रमा, अंतरा, अपराजिता, क्षितिज, टूटते सपने मरता शहर, मुक्तिबोध, समय की बात, शब्दिका, वणिका, मनपाखी, अंतरगिणी, यकीन नहीं होता, रुही, सरगोशियां, थोड़ा सा सूर्योदय, समंदर का सूर्य, कादम्बरी, टीके और गिद्ध, मौन का अनुवाद, कल्पना से परे, कहीं अंधरे कहीं उजाले, शहर शहर सैलाब, मैं भी ( मी टू ),  माँ,  खामोशी की चीखें, लवंगलता एवं मेरे ही शून्य में जैसे शीर्षक से उनके काव्य संग्रह प्रकाशित व पाठको के बीच लोकप्रिय तथाविभिन्न संस्थाओ से समय समय पर सम्मानित हैं. दरअसल यह उनकी तत्सम शब्दशैली, पौराणिक आख्यानो की नये संदर्भ में पाठक के मनोकूल विवेचना का सम्मान है.

कवि मन सदा गंभीर क्लिष्ट ही नही बना रहता वह “बच्चों के रंग बच्चों के संग” जैसी कृतियां भी खेलखेल में कर डालता है. राजस्थानी, अंग्रेजी तथा डोगरी, छत्तीसगढ़ी, बांग्ला, तमिल आदि भाषाओ में अनुवाद कार्य भी उनकी कृतियों पर संपन्न हुआ है.

डा संजीव कुमार न केवल स्वयं निरंतर मौलिक सृजन कर रहे हैं, वे अमेरिका सहित विदेशो में हिन्दी पुस्तको को व्यावसायिक रूप से पहुंचाने के महत्वपूर्ण कार्य भी कर रहे हैं. देश विदेश के सुदूर अंचलो से लेखको को प्रकाशित कर वे हिन्दी जगत को लगातार समृद्ध कर रहे हैं. मैं अंतरमन से उनकी सक्रिय समृद्ध साहित्यिक यात्रा के शाश्वत होने की शुभकामना करता हूं.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ खोजी पत्रकारिता खत्म होती जा रही है : सुभाष चंद्रा ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ जीवन यात्रा  ☆ खोजी पत्रकारिता खत्म होती जा रही है : सुभाष चंद्रा ☆ श्री कमलेश भारतीय

खोजी पत्रकारिता खत्म होती जा रही है और इसे करने वालों की क्षमता भी कम हो रही है। और कहीं कम तो कभी ज्यादा सोशल मीडिया शोषण भी करने लगा है। यह कहना है मीडिया मुगल कहे जाने वाले जी न्यूज के सर्वेसर्वा और राज्यसभा सांसद सुभाष चंद्रा का। उन्हें सुभाष गोयनका के नाम से भी जाना जाता है। प्रसिद्ध समाजसेवी नंद किशोर गोयनका के बड़े बेटे सुभाष चंद्रा ने मीडिया के क्षेत्र में देश में सबसे पहले चौबीस घंटे का चैनल जी न्यूज चला कर मीडिया मुगल कहलवाने का गौरव पाया। हालांकि उनका कहना है कि जब यह बात पत्रकारों के बीच रखी तो सबने कहा कि यह मुश्किल होगा लेकिन रजत शर्मा जैसे नये पत्रकारों को अपने खर्च से इंग्लैंड यह प्रशिक्षण पाने भेजा और फिर जी न्यूज का चौबीस घंटे प्रसारण शुरू किया। नववर्ष पर सुभाष चंद्रा हमेशा की तरह अपने गृहनगर हिसार आए तो उनके साथ छोटी सी मुलाकात की गयी। सिरसा से आईटीआई तक शिक्षित सुभाष चंद्रा ने जी न्यूज शुरू करने से पहले मुम्बई में एस एल वर्ल्ड भी चलाया और इसके प्रचार के लिए जी न्यूज की शुरूआत की। फिर राजनीति में आने का सपना देखा और राज्यसभा सांसद बने। अब उनका कार्यकाल इस वर्ष अगस्त में पूरा होने वाला है।

-हरियाणा के  वरिष्ठ नेता चौ वीरेंद्र सिंह ने एक बार कहा था कि राज्यसभा सदस्य बनने के लिए सौ करोड़ रुपये चाहिए तो आपने कितने लगाये थे ?

-मैंने कुछ नहीं लगाया। मेरी कम्पनी ने जरूर खर्च किये। वो भी बहुत कम रकम है।

-आपके बारे में चर्चा थी कि सक्रिय राजनीति यानी सीधे चुनाव लड़ेंगे लेकिन आप राज्यसभा में ही फिर जाना पसंद करेंगे या सीधे चुनाव लड़ेंगे ?

-जैसा समय और स्थितियां होंगीं।

-आपने अपनी सांसद निधि का पूरा सदुपयोग किया या सरकार के खाते में ही राशि छोड़ दी ?

-सिर्फ कोरोना काल में राशि का उपयोग नहीं हुआ बाकी तो कम से कम अठारह करोड़ निजी कोष से भी लगाये हैं।

-आपने जो पांच गांव गोद लिए थे उनकी क्या प्रगति है ?

-नि:संदेह वे अब काफी बदल चुके हैं। आपसे मिलने से पहले इन गांवों में जाकर आया हूं। आर्गेनिक खेती और किचन गार्डन को भी प्रोत्साहित किया  गया है। बीस युवा भी इन गांवों के राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच चुके हैं।

-आगे क्या आइडियाज हैं ?

-एक आइडिया सफल रहा एयरपोर्ट बनने का , रेलवे-स्टेशन पर वाशिंग गार्ड बनवाया और अब फूलों की खेती बढ़ाने का आइडिया है।

-आप मीडिया मुगल हैं आज की पत्रकारिता की स्थिति के बारे में क्या कहेंगे ?

-पहले तो पत्रकारों पर दबाब रहता है  समय सीमा का और फिर व्यावसायीकरण बढ़ता जा रहा है। इसके बावजूद बड़ी चिंताजनक स्थिति यह है कि खोजी पत्रकारिता खत्म होती जा रही है जिससे शोषण के मामले उजागर हुआ करते थे। ऊपर से सोशल मीडिया में शोषण के समाचार भी आ रहे हैं जो चिंता का विषय हैं।

– पहले जी न्यूज हरियाणवी फिल्मों को प्रोत्साहन देता था। हरियाणवी फिल्मों के बारे में क्या कहेंगे ?

-हरियाणवी फिल्म ज्यादा आगे नहीं बढ़ीं और न ही प्रतिभाएं आगे आईं। ऐसी स्थिति मराठी फिल्मों की भी थी। तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने हमारे ही जी न्यूज के कार्यक्रम में मराठी फिल्मों के लिए सहयोग मांगा और हमने भरसक सहयोग दिया। अब एक साल में पच्चीस तीस  मराठी फिल्में बनने लगी हैं। हरियाणा में अच्छी फिल्में बनें , सपोर्ट  की कोई कमी नहीं रहेगी।

हमारी शुभकामनाएं सुभाष चंद्रा को ?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग चार ☆ सौ राधिका भांडारकर

सौ राधिका भांडारकर

? आत्मसंवाद –भाग चार ☆ सौ राधिका भांडारकर ?

मी..वाचकांची अनेक पत्रे मी सांभाळून ठेवली आहेत.आता पत्रलेखन हा प्रकारच ऊरला नाही. फोनवर, ईमेलवर वाचकांशी संवाद होतो.

एकदा एकीने मला विचारले,”तुमची माझी काहीच ओळख नसताना, तुम्ही माझ्यावर इतकी जुळणारी कथा कशी काय लिहीलीत..?”

माझ्या मित्र परिवारातले लोकही गंमतीने म्हणतात,हिला काही सांगू नये.ही गोष्टच लिहील…आणि खरोखरच एकदा मी माझ्या मैत्रीणीच्या जीवनावरच कथा लिहीली होती.अर्थात् नावे बदलली होती.मैत्रीण म्हणाली,”कथा चांगली आहे ..पण तू हे लिहायला नको होतंस…”त्यानंतर कितीतरी दिवस तिने माझ्याशी अबोला धरला होता…असे काही अनुभव येतात ,पण म्हणून लिखाण थांबत नाही..

तो..तू नोकरी करत होतीस..नोकरी नसती तर तुझ्या हातून अधिक लेखन झालं असतं, असं नाही वाटत का?

मी…नाही.मी पस्तीस वर्ष बँकेत नोकरी केली.त्या निमीत्ताने मला अनेक माणसे भेटली.

मी विवीध मनोवृत्तीची माणसे पाहिली.त्यांच्याशी संवाद साधले…संवाद साधता साधता मी त्यांना टिपत गेले.माणसातला माणूस शोधण्याचा मला छंदच आहे.खरं म्हणजे मूळात वाईट कुणीच नसतं..

परिस्थिती माणसाला भाग पाडते… त्यातूनच माझ्या कथांमधली पात्रे घडत गेली…मी जेव्हां लिहीते तेव्हा ती पात्र मला दिसतात..त्यांना चेहरा असतो..ती माझ्याशी बोलतात…हे आभासी क्षण माझ्या लेखन प्रवासातले अत्यंत आनंदाचे क्षण.,.त्यावेळी मी आणि शब्द निराळे नसतात…एका अद्वैताचा अनुभव असतो तो..

तो…(मिस्कीलपणे) हो पण तरीही अजुन तू इतकी मोठी लेखिका नाही झालीस…

मी…बरोबर आहे तुझं..पण मी माझ्या आनंदासाठी लिहीते.मला काहीतरी सांगायचं असतं म्हणून लिहीते..पु.भा. भावे कथा स्पर्धेत माझ्या “रंग..” या कथेला पुरस्कार मिळाला होता..तसे अनेक छोटे मोठे पुरस्कार माझ्या कथांना मिळाले..कथाकथनांनाही बक्षीसे मिळाली..विश्वसाहित्य संमेलनातही माझे कथाकथन झाले…पण हे अलंकार मला मिरवावेसे नाही वाटत…माझे वडील नेहमी म्हणायचे,”यश नेहमी मागे ठेवायचं आणि पुढे जायचं..नवे संकल्प करायचे..आणि त्याच्या पूर्तीसाठी झटायचे…”

तो…तुझ्या लेखनाच्या माध्यमातूनच तू काय संदेश देशील..?

मी… बापरे!!संदेश देणारी मी कोण..?

मात्र एक सांगते..?माणसाला एक तरी छंद असावा..एक तरी आपल्या ठायी असलेली कला ओळखावी आणि जोपासावी..कीर्ती ,प्रसिद्धी,नाव ,पैसा यासाठी नव्हे..कलेत स्पर्धा ,ईर्षा नसावीच मुळी…ती मुक्त असावी…स्वानंदासाठी असावी..

।।साहित्य संगीत कला विहीन:

साक्षात् पशु पुच्छ विषाणहीन:।।

कला परांङमुख व्यक्ती ही शेपुट नसलेल्या पशुसारखीच असते..

कला म्हणजे भावनांची अभिव्यक्ती..आपल्या अंतरंगात उमटणार्‍या भाव ,भावना..,रेखा,रंग ,ध्वनी,शब्द यांतून जेव्हां व्यक्त होतात तेव्हा त्याला कलारुप प्राप्त होते..

अंतरंग जागृत होतं तेव्हां चैतन्याचा आनंद मिळतो…

हा आनंद हेच माझं  सर्वोच्च पारितोषिक…

अरे!! कुठे गेलास…?

तो..कुठे नाही .इथेच तुझ्या अंतरंगात आहे..

मी…तुलाच धन्यवाद देते..आज तुझ्यामुळेच मी  हा आत्मसंवाद साधू शकले.. पुन्हा भेटू..नव्या चौकटीत..नव्या कल्पना घेऊन…

समाप्त…!!

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग तीन ☆ सौ राधिका भांडारकर

सौ राधिका भांडारकर

? आत्मसंवाद –भाग दोन ☆ सौ राधिका भांडारकर ?

तो..तू तुझ्या साहित्यातील गुरुंसंबंधी सांगत होतीस..

मी .हो. अरविंद ताटके नावाचे माझ्या वडीलांचे विद्यार्थी होते.ते स्वत:साहित्यिक होते.त्यांची काही पुस्तकेही प्रकाशित झाली होती.एकदा असेच त्यांच्या एका कादंबरीवर मी त्यांना पत्र लिहून अभिप्राय कळवला. पत्र वाचल्यावर दुसर्‍याच दिवशी ते आमच्या घरी आले.आणि मला म्हणाले,”तू पत्र इतकं छान लिहीलं आहेस !!खरोखरच तुझ्यात लेखनगुण आहेत.. लिहीत जा..मेहनत कर. वाचन कर.” अर्थात त्यावेळी मी काही फारसं लिहीत नव्हते. पण ताटके आमच्याकडे नेहमी येत ,आणि प्रत्येक वेळी “लिहीती रहा..कादंबरीच लिही..”वगैरे सांगत..कळत नकळत माझी लेखनवाट नक्कीच आखली जात होती..

तो..एक विचारु का? तू अनेक कथा लिहील्यास..तुझी पुस्तकंही प्रकाशित झाली..

मी.. हो मावळलेले सूर्य,पाऊल,गॅप्स ,अंंतर्बोल हे चार कथासंग्रह आणि नुकताच लव्हाळी हा ललीतलेख संग्रह प्रसिद्ध झाला आहे…एक कवितासंग्रहही प्रकाशनाच्या वाटेवर आहे..ः

तो..मात्र तू कादंबरी हा साहित्यप्रकार हाताळला नाहीस..

मी.. अजुनपर्यंत नाही.मात्र आहे विचार.तुझ्याच रुपाने कीडा आहे डोक्यात.

तो..तुझ्यातले माझे अस्तित्व म्हणजे विवीध विषयच म्हणूया नाही का…नेमकं लिहीताना तुझी मानसिक अवस्था काय असते…

मी…खरोखरच मी खूप अस्वस्थ असते.आतून काहीतरी जाणवत असतं..धक्के देत असतं.. मात्र एक सांगते माझी कुठलीच कथा ही संपूर्ण काल्पनिक नसते.कुठेतरी त्याचं सूत्र सत्यात असतं…कुठल्यातरी संवादातलं एखादं वाक्यही एखाद्या खिळ्यासारखं ठोकलं जातं..आणि त्यातूनच एक सूत्रबद्ध कथा आकार घेते…कधी पेपरात वाचलेली बातमी,भेटलेली माणसं… ओळखीची ..ओळख नसलेली…कुठेतरी त्यांच्याशीही आत्मसंवाद घडतो…त्यांच्या जीवनाशी मी कनेक्ट होते..आणि तिथे माझी कल्पना शक्ती फुलायला लागते…

तो..तुझा आणि तुझ्या वाचकांचा संवाद होतो की नाही….

मी..हो ,नेहमीच होतो. त्याविषयी आपण पुढच्या भागात बोलूया…

क्रमश:..

 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग दोन ☆ सौ राधिका भांडारकर

सौ राधिका भांडारकर

? आत्मसंवाद –भाग दोन ☆ सौ राधिका भांडारकर ?

तो..तुझ्या लेखनप्रवासाविषयी अजुन काही सांग ना…

मी..एक नक्की की लिहीणं ही माझी पॅशन होत चालली..शाळेतले निबंध..मनातले काहीतरी म्हणून डायरी लिहीणे ..अगदी पत्रलेखन सुद्धा.. यातून एक प्रकारचा रियाज होत गेला..मुंबई आकाशवाणीवर ,वनिता मंडळ या कार्यक्रमात मी “स्मृतीसाठी..”हा आमच्या काळे सरांवरचा लेख प्रक्षेपित झाला होता…त्यानंतर सुप्रसिद्ध लेखिका लीलावती भागवत यांनी मला त्यांच्या कार्यक्रमात स्वरचित कथावाचनाची संधी दिली..भैरवी ही माझी कथा प्रचंड गाजली..

श्रोत्यांची असंख्य पत्रे आली. मुंबई आकाशवाणी ने ती पुन:प्रक्षेपितही केली. त्यानंतरही मी कितीतरी वर्ष सातत्याने मुंबई आकाश वाणीच्या वनिता मंडळ, गंमत जम्मत, युवावाणी वर कथावाचन केले…आकाशवाणीच्या एका कार्यक्रमात मी मान्यवर कवीयत्री शांता शेळके यांच्या सोबत होते.मला लीलावती भागवतांनी सदाफुली या विषयावर लिहायला सांगितले.

फक्त अर्धा तास वेळ होता..मी पूर्ण ब्लँक झाले.एकही शब्द सुचेना..तेव्हां शांताबाई मला म्हणाल्या,”डोळे मिटून घे..स्वत:त बघ.. सदाफुलीचं रुप तुझ्या मनानं बघ….”

माझ्यासाठी तो एक विलक्षण अनुभव होता.. माझं त्यादिवशी लाईव्ह ब्राॅडकास्टींग झालं.. आणि शांताबाईंसहित सर्वांनी खूप प्रशंसा केली….आजही मी जेव्हां पूर्ण रिकामी असते तेव्हां मला शांताबाईंचे हे  अनमोल शब्द साथ देतात….

तो..वा!!खरोखरच भाग्याचा क्षण..तुझं मराठी मासिकातही लेखन चालू होतं ना त्या वेळी…

मी..हो.माझी पहिली कथा मी अनुराधा मासिकात पाठवली होती.कथेचं नाव होतं सोबत..एका विधवेच्या जीवनावरची ती गोष्ट होती.त्यावेळी अनुराधा मासिकाच्या सुप्रसिद्ध लेखिका गिरिजा कीर या संपादिका होत्या.

त्यांनी माझ्या लेखन शैलीचे खूप कौतुक केले.

आणि तितकेच मार्गदर्शनही केले.त्यांनी माझ्या कथांना भरपूर प्रसिद्धी दिली.मी त्यांना सदैव माझ्या गुरुस्थानी मानलं.माझ्या लेखनप्रवासातला गिरिजा कीर आणि अनुराधा हा एक अत्यंत महत्वाचा टप्पा आहे.त्यांनी मला लेखिका म्हणून ओळख दिली…आजही अनुराधाची लेखिका ही माझी पहिली ओळख आहे..

तो..रत्नाकर मतकरी हे सुद्धा तुझ्या लेखनप्रवासातलं एक महान व्यक्तीमत्व ..हो ना?

मी ..हो!मी बँक आॅफ इंडीयात असताना त्यांचा माझा परिचय झाला. वाचक लेखक

या स्तरांवरआमची मैत्री झाली.त्यांच्या गूढकथा,बालनाट्ये ,व्यावसायिक नाटके यांची

मी प्रचंड चाहती होते..मी त्यांच्याही पुस्तकांवर ,

नाटकांवर समीक्षा (यथाशक्ती) लिहिल्या.पुस्तक

परिचयही लिहीले .तेही माझ्या लेखनाला नेहमी दाद देत…सुधारणाही सांगत.त्रुटी दाखवत..

विषयाचा विस्तार करताना कुठे आणि कशी कमी पडले हे समजावून सांगत…या त्यांच्या मार्गदर्शनाचा मला खूप फायदा झाला.माझं लेखन विकसित होत गेलं…थोडी परिपक्वता यायला लागली…त्यांनी मला अनेक पुस्तके

वाचायला लावली..त्यात आयर्विन वाॅलेस,जेफ्री आर्चर,राॅबीन कुक,एरीच सेगल असेअनेक लेखक होते…या वाचनाने लेखनावर संस्कार होत गेले…अगदी आजपर्यंत त्यांनी मला लेखनाविषयी सतत प्रेरणा दिली…त्यांच्याशी केलेल्या गप्पा ,चर्चा यांनी माझ्या या प्रवासात शिदोरीची भूमिका केली…

ऐकतोस ना? की कंटाळलास…

तो..नाही ग..सांग ..तुझी आणखी कोणती प्रेरणास्थानं…

मी.   आता पुढच्या भागात सांगते…

क्रमश:..

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग एक ☆ सौ राधिका भांडारकर

सौ राधिका भांडारकर

? आत्मसंवाद –भाग एक ☆ सौ राधिका भांडारकर ?

मी..कोण आहेस  तू?.सारखा वळवळत असतोस…

तो…मी कीडा आहे.तुझ्यातच वळवळत असतो ना मी.तू बेचैन होतेस ..तुझ्या मनात काही झरत असतं..कधी पटकन् कागद लेखणी घेतेस..

आणि मग शब्द टपटप गळतात आणि रचनात्मक अशी शब्दकृती तयार होते….

मी..खरंच..तुझं हे डोक्यात वळवळणं माझ्यासाठी एक विषयच असतो..कधी त्रासदायक पण कृतीशीलही..

तो..आज मात्र मी तुला काही प्रश्न विचारणार आहे ..देशील ना उत्तरं..?मुलाखतच समज की…

मी..मुलाखत..??अरे बापरे!!मी काही इतकी महत्वाची व्यक्ती नाहीय् .की माझं या क्षेत्रांत खूप मोठं योगदानही नाही…मुलाखत वगैरे काय??

तो..अग् !मग आत्मसंवाद समज .कारण मला तरी वेगळं अस्तित्व कुठे आहे?मी तुझ्याच संवेदनांशी ,अस्तित्वाशी जुडलेला आहे ना…

मी..बरं विचार. तुला काय विचारायचे ते..

तो..मला एक सांग  तुला मूळातच शब्दांशी दोस्ती का करावीशी वाटली..तू अगदी सर्वात प्रथम काय लिहीलस?

मी..सांगते .मी खूप लहान होते .चवथी पाचवीत असेन.माझ्यात थोडा न्युन गंड होता ..सावळ्या रंगाचा. सगळे गोरे आणि मी सावळी..आईचं माझ्यावर खूप प्रेम होतं..तिला मी छान दिसावं असं आतून वाटायचं..पण त्याच भरात एक दिवस, तिच्याचकडून मी नकळत दुखावले गेले…

आणि जगात आपलं कुणीच नाही अशी भावना निर्माण झाली..हातात खडु होता.समोर पाटी होती..आणि मला जेजे वाटत होतं ते सगळं लिहूनच काढलं…आणि तेव्हांच मला जाणवलं की हे खूपच छान आहे..आणि जशी मोठी होत गेले तशी या लेखणीशी माझी  घट्ट दोस्ती व्हायला लागली…तेव्हांपासून मी लिहीतच राहिले…

तो..म्हणजे अशा रितीने तुझा लेखन प्रवास सुरु झाला म्हणायचा की तुला “तू लिहू शकतेस ..”असा साक्षात्कार झाला….”

मी..ते तू काही म्हण…पण तसा मला लेखनाचा वारसा माझे परमप्रिय वडील. कै.ज. ना. ढगे यांच्याकडून मिळाला.ते एक प्रतिथयश लेखक आणि साहित्यिक होते…

तो..हो आणि ते थिअॉसॉफीस्टही होते ना..

स्वप्नसृष्टी,मृतांचे ऋणानुबंध अंतर्जीवन अशी त्यांची पुस्तकेही प्रसिद्ध आहेत..खूप गाजलेली आहेत ही पुस्तके..

मी..हो!शिवाय मेंदुला खुराक ,जरा डोके चालवा अशी गणितावरचीही त्यांची पुस्तके आहेत…

माझे वडील ही माझी पहिली प्रेरणा होती हे नक्कीच..आमच्या घरात कपाटे भरुन पुस्तके होती…कवी कालीदासांच्या महाकाव्यापासून, ते वर्ड्सवर्थ,शेले तेनेसन,शेक्सपीअर ,साॉमरसेट माॅम,हँन्स अँन्डरसन..चेकाव,बर्नाड शाॉ…आणि अशा अनेक इंग्रजी मराठी हिंदी दिग्गजांच्या साहित्याबरोबर माझी जडणघडण झाली…

तो..चांगले वाचन हा लेखनाचा पहिला संस्कार असतो..बरोबर ना?

मी..हो अगदी बरोबर.आधी भरपूर वाचावं मग लिहावं ..हे जाणीवपूर्वक माझ्यावर वडीलांनी बिंबवलं…

तो..तुझं पहिलं छापील साहित्य कुठलं..त्याविषयी सांग ना..तेव्हां तुला काय वाटले..?

मी..त्यावेळी अमृत नावाचं एक मराठी डायजेस्ट होतं…(रीडर्स डायजेस्ट सारखं..)त्यातल्या” याला जीवन ऐसे नाव” यात मी एक किस्सा लिहून पाठवला होता…आता मला तो नीट आठवत नाहीय् ..पण मथुरेच्या सहलीतला ,चहावाल्याकडून आलेला एक खरा अनुभव  होता तो…माझं पहिलं प्रसिद्ध झालेलं हे छोटसं लेखन…त्यावेळी बिंबा ढगे या माझ्या माहेरच्या नावाने प्रसिद्ध झालं होतं…आणि अर्थातच माझ्या आयुष्यातला तो अत्यंत आनंदाचा आणि आत्मविश्वास बळावणारा क्षण होता…

आता जरा ब्रेक घेउया का?

परत भेटूया काही नवीन प्रश्नोत्तरासह…

क्रमश:…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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