मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखकाची लेखणीच त्याचे एक मन असते…. – भाग 1 ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक 

श्रीमती अनुराधा फाटक

☆ आत्मसंवाद – प्रत्येकाच्या मनात एक लेखक लपलेला असतो – भाग 1 ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक 

प्रत्येकाच्या मनात एक लेखक लपलेला असतो. योग्य वेळ येताच त्याची लेखणी त्याला स्वस्थ बसू देत नाही जणू लेखकाची लेखणीच त्याचे एक मन असते. माणसाचे सहावे इंद्रिय हे त्याचे मन असते अशी दोन मने लेखकाला लेखन प्रवृत्त करत असतात.

उगार या कर्नाटक महाराष्ट्र सीमेवरील गावी माझी नोकरी सुरु झाली आणि शाळेत मुलांना मराठी शिकवताना माझी ही दोन्ही मने सावध झाली.  कानडी भाषेचा प्रभाव येथील मराठीवर असल्याचे मुलांना मराठी समजावून सांगताना जाणवले तशी माझी दोन्ही मने मला गप्प बसू देईनात.

मी- भाषा सुधारेल असं मुलांसाठी काहीतरी करायला हवं.

लेखणी- अगं मी आहे ना तुझ्या हातात मग गप्प कां बसलीस

मी- तू मला थोडीच गप्प बसू देशील?

लेखणी- मग घे ना कागद..

मी- आणि खरोखरच मी शब्दांचे अनेक अर्थ, वाक्प्रचार यांचा वापर करून दैनंदिन जीवनातले शब्द लिहिले.’शब्द लहरी ‘ हे माझे पहिले पुस्तक तयार झाले.शिक्षक, विद्यार्थी, पालक सर्वासाठी ते उपयुक्त ठरलेल्या या पुस्तकाला भारतीय शिक्षण मंडळाचा पुरस्कार मिळाला.

कुणीतरी सुचवावं, मी विचार करावा आणि लेखणीने कागदावर उतरवावे अशी माझी साहित्य निर्मिती!

 एकदा शाळेत शिक्षकांची शेतकरी जीवनावर चर्चा झाली आणि माझ्या मनात शेतकरी आणि शिक्षक यांची तुलना सुरु झाली.

लेखणी- आज काय आहे डोक्यात?

मी- शेतकरी आणि शिक्षक यांची तुलना

लेखणी-  मी आहेच लिहायला

मी- तेच करणार आहे शिक्षक आणि शेतकरी यांच्यात साम्य दाखविणाऱ्या ‘जडणघडण’ पुस्तकाची निर्मिती झाली.त्यालाही भारतीय शिक्षण मंडळाचा पुरस्कार मिळाला. इतिहास शिकवताना रामायणाचा उल्लेख आला तेव्हा विष्णूच्या अवताराबद्दल मुलांना विचारले असताना त्याना काही माहिती नसल्याचे लक्षात आले मुलांसाठी ‘दशावतार’ लिहिले त्याला संत, साहित्याचा पुरस्कार मिळाला.त्यानंतर श्रीमती लीला दीक्षित यांच्या सांगण्यावरून बालमन आणि बालसाहित्य ‘असे लेखन केले. समर्थांच्या शिष्यपरंपरेबद्दल लिहा  असे काही जणांनी सुचविले तेव्हा ‘समर्थांची प्रभावळ’ पुस्तक लिहिले.

‘भारुडातून नाथदर्शन ‘ या पुस्तकातून भारुडांचा अर्थ उलगडण्याचा प्रयत्न केला. औषधाशिवाय आजीजवळ बरेच असते ते  ‘आजीचा बटवा’ मधून व्यक्त झाले. माझे प्राध्यापक श्री कुंदत सर यांच्या सांगण्यावरून लिहिलेले ‘महानुभाव साहित्यातील बालजीवन’ हे पुस्तक महानुभाव संप्रदायाचे संदर्भ ग्रंथ ठरले.आपण वर्षानुवर्षे हदग्याची गाणी म्हणतो पण अर्थ माहीत नसतो त्या गाण्यांचा अर्थ लावण्याचा प्रयत्न ‘ हदगा ते महाहदगा’ मध्ये केला.’विणतो कबीर शेले’ हे कबीरावर वेगळे लेखन केले. रावा प्रकाशकांच्या सांगण्यावरून ‘ दत्त संप्रदायातील त्रिमूर्ती आणि समर्थशिष्य कल्याण ही पुस्तके लिहिली. अशी माझी वैचारिक साहित्य सेवा!

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈




हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे ☆

 ☆ जीवन यात्रा – श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे ☆

(प्रसिद्ध साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे  ने  कल अपने सफल  27वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से इस सफल यात्रा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं। इस अवसर पर पुनर्पाठ  के अंतर्गत  30 सितम्बर 2019 (रजत जयंती वर्ष ) को संस्था के संस्थापक अध्यक्ष  श्री संजय भारद्वाज  जी से  सुश्री वीनु जमुआर जी की बातचीत)

वीनु जमुआर- सर्वप्रथम हिंदी आंदोलन परिवार के रजत जयंती वर्ष में कदम रखने के उपलक्ष्य में अशेष बधाइयाँ और अभिनंदन। अब तक की अनवरत यात्रा से  देश भर में चर्चित नाम बन चुका है हिंआप। हिंआप की स्थापना की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए। इसकी स्थापना का बीज कब और कैसे बोया गया?

संजय भारद्वाज- हिंआप का बीज इसकी स्थापना के लगभग सोलह वर्ष पूर्व 1979 के आसपास ही बोया गया था। हुआ यूँ कि मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था। बाल कटाने के लिए एक दुकान पर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा था। प्रतीक्षारत ग्राहकों के लिए कुछ पत्रिकाएँ रखी थीं जिनमें अँग्रेजी की पत्रिका, शायद ‘दी इलस्ट्रेटेड वीकली’ भी थी। अँग्रेजी थोड़ी बहुत समझ भर लेता था। पत्रिका में बिहार की जेलों में बरसों से बंद कच्चे महिला कैदियों की दशा पर एक लेख था। इस लेख में अदालती कार्रवाई पर एक महिला की टिप्पणी उद्वेलित कर गई। रोमन में लिखी इस टिप्पणी का लब्बोलुआब यह था कि ‘साहब, अदालत की कार्रवाई कुछ पता नहीं चलती क्योंकि अदालत में जिस भाषा में काम होता है, वह भाषा हमको नहीं आती।’ यह टिप्पणी किशोरावस्था में ही खंज़र की तरह भीतर उतर गई। लगा लोकतंत्र में लोक की भाषा में तंत्र संचालित न हो तो लोक का, लोक द्वारा, लोक के लिए जैसी परिभाषा बेईमानी है। इसी खंज़र का घाव, हिंआप का बीज बना।

(साक्षात्कार लेतीं सुश्री वीनू जमुआर )

वीनु जमुआर- किशोर अवस्था में पनपा यह बीज संस्थापक की युवावस्था में प्रस्फुटित हुआ। इस काल की मुख्य घटनाएँ कौनसी थीं जो इसके अंकुरण में सहायक बनीं?

संजय भारद्वाज- संस्थापक की किशोर अवस्था थी तो बीज भी गर्भावस्था में ही था। बचपन से ही हिंदी रंगमंच से जुड़ा। महाविद्यालयीन जीवन में प्रथम वर्ष में मैंने हिंदी मंडल की स्थापना की। बारहवीं के बाद पहला रेडियो रूपक लिखा और फिर चर्चित एकांकी, ‘दलदल’ का लेखन हुआ। आप कह सकती हैं कि बीज ने धरा के भीतर से सतह की यात्रा आरम्भ कर दी। स्नातक होने के बाद प्रारब्ध ने अकस्मात व्यापार में खड़ा कर दिया। नाटकों के मंचन के लिए समय देने के लिए स्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। 1995 में पीलिया हुआ। पारिवारिक डॉक्टर साहब ने आत्मीयता के चलते एक तरह से अस्पताल में नज़रबंद कर दिया। पुणे में दीपावली पर प्रकाशित होनेवाले साहित्यिक विशेषांकों की परंपरा है। बिस्तर पर पड़े-पड़े हिंदी में शहर के पहले साहित्यांक ‘अक्षर’ का विचार जन्मा और दो महीने बाद साकार भी हुआ। साहित्यकारों से परिचय तो था पर साहित्यांक के निमित्त वर्ष में केवल एक बार मिलना अटपटा लग रहा था। इस पीड़ा ने धीरे-धीरे  बेचैन करना शुरू किया, बीज धरा तक आ पहुँचा और जन्मा हिंदी आंदोलन परिवार।

वीनु जमुआर- युवावस्था में जब युवा अपने भविष्य की चिंता करता है, आपने भाषा एवं साहित्य के भविष्य की चिंता की। क्या आप रोजी-रोटी को लेकर भयभीत नहीं हुए?

संजय भारद्वाज- हिंदी मेरे लिए मेरी माँ है क्योंकि इसने मुझे अभिव्यक्ति दी। हिंदी मेरे लिए पिता भी है क्योंकि इसने मुझे स्वाभिमान से सिर उठाना सिखाया। अपने भविष्य की चिंता करनेवाले किसी युवा को क्या अपने माता-पिता की चिंता नहीं करनी चाहिए? रही बात आर्थिक भविष्य की तो विनम्रता से कहना चाहूँगा कि जीवन में कोई भी काम भागनेवाली या भयभीत होनेवाली मनोवृत्ति से नहीं किया। सदा डटने और मुकाबला करने का भाव रहा। रोजाना के लगभग चौदह घंटे व्यापार को देने के बाद हिंआप को एक से डेढ़ घंटा नियमित रूप से देना शुरू किया। यह नियम आज तक चल रहा है।

वीनु जमुआर- आपकी धर्मपत्नी सुधा जी और अन्य सदस्य साहित्य सेवा के आपके इस यज्ञ में हाथ बँटाने को कितना तैयार थे?

संजय भारद्वाज- पारिवारिक साथ के बिना कोई भी यात्रा मिशन में नहीं बदलती। परिवार में खुला वातावरण था। पिता जी, स्वयं साहित्य, दर्शन और विशेषकर ज्योतिषशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। परिवार में वे हरेक के इच्छित को मान देते थे। सो यात्रा में कोई अड़चन नहीं थी। जहाँ तक सुधा जी का प्रश्न है, वे सही मायने में सहयात्री सिद्ध हुईं। हिंआप को दिया जानेवाला समय, उनके हिस्से के समय से ही लिया गया था। उन्होंने इस पर प्रश्न तो उठाया ही नहीं बल्कि मेरा आनंद देखकर स्वयं भी सम्पूर्ण समर्पण से इसीमें जुट गईं। यही कारण है कि हिंआप को हमारी संतान-सा पोषण मिला।

(हिंदी साहित्य और भाषा के क्षेत्र में योगदान के लिए ‘विश्व वागीश्वरी पुरस्कार’ श्री-श्री रविशंकर जी की उपस्थिति में पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभादेवी पाटील द्वारा प्रदत्त)

वीनु जमुआर-  मराठी का ’माहेरघर’ (पीहर) कहे जानेवाले पुणे में हिंआप की स्थापना कितना कठिन काम थी?

संजय भारद्वाज- महाराष्ट्र में हिंदी के प्रति प्रेम और सम्मान की एक परंपरा रही है। अनेक संतों ने मराठी के साथ हिंदी में भी सृजन किया। हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा महाराष्ट्र से थेे। देश को आद्य हिंदी प्रचारक महाराष्ट्र विशेषकर पुणे ने दिये। संभाषण के स्तर पर धाराप्रवाह हिंदी न आनेे के बावजूद स्थानीय नागरिकों ने हिंआप को साथ दिया। हाँ संख्या में हम कम थे। किसी हिंदी प्रदेश में एक किलोमीटर चलने पर एक किलोमीटर की दूरी तय होती। यहाँ चूँकि प्राथमिक स्तर से सब करना था, अत: पाँच किलोमीटर चलने के बाद एक किलोमीटर अंकित हुआ। इसे मैं प्रारब्ध और चुनौती का भाग मानता हूँ। अनायास यह यात्रा होती तो इसमें चुनौती का संतोष कहाँ होता?

वीनु जमुआर- हिंआप की यात्रा में संस्था की अखंड मासिक  गोष्ठियों का बहुत बड़ा हाथ है। इन पर थोड़ा प्रकाश डालिए।

संजय भारद्वाज- बहुभाषी मासिक  साहित्यिक गोष्ठियाँ हिंआप की प्राणवायु हैं। संस्था के आरंभ से ही इन गोष्ठियों की निरंतरता बनी हुई है। हमने हिंदी की प्रधानता के साथ मराठी और उर्दू के साहित्यकारों को भी हिंआप की गोष्ठियों से जोड़ा। यों भी हिंदी अलग-थलग करने में नहीं में नहीं अपितु सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखती है। इन तीन भाषाओं के अतिरिक्त सिंधी के रचनाकार अच्छी तादाद में संस्था से जुड़े। राजस्थानी, गुजराती, कोंकणी, बंगाली, उड़िया और सामान्य रूप से समझ में आनेवाली विभिन्न भाषाओं/ बोलियों के रचनाकार भी हिंआप की गोष्ठी में आते रहे हैं। अनुवाद के साथ काश्मीरी और कन्नड़ की रचनाएँ भी पढ़ी गई हैं। एक सुखद पहलू है कि प्राय: हर गोष्ठी में एक नया रचनाकार जुड़ता है। साहित्य के साथ-साथ इन गोष्ठियों का सामाजिक पहलू भी है। महानगर में लोग महीने में एक बार मिल लेते हैं, यह भी बड़ी उपलब्धि है। हमारी मासिक गोष्ठियाँँ अनेक मायनों में जीवन की पाठशाला सिद्ध हुई हैं। संस्था के लिए गर्व की बात है कि गोष्ठियों की अखंड परंपरा के चलते हिंआप की अब तक 238 मासिक गोष्ठियाँ हो चुकी हैं।

वीनु जमुआर- किसी संस्था को जन्म देना तुलनात्मक रूप से सरल है पर उसे निरंतर चलाते रहने में अनेक अड़चनें आती हैं। हिंआप की यात्रा में आई अड़चनों का खुलासा कीजिए।

संजय भारद्वाज- संभावना की यात्रा में आशंका भी सहयात्री होती है। स्वाभाविक है कि आशंकाएँ हर बार निर्मूल सिद्ध नहीं हुईं। हमारे देश की साहित्यिक संस्थाओं की संगठनात्मक स्थिति कमज़ोर है। दो ही विकल्प हैं कि या तो आप इसे ढीले-ढाले तरीके से चलाते रहें अन्यथा इसे संगठनात्मक रूप दें। जैसे ही इसे संगठनात्मक रूप देंगे, अनुशासन आयेगा। एक अनुशासित संस्थान जिसमें कोई वित्तीय प्रलोभन न हो, चलाना हमेशा एक चुनौती होती है। अनेक बार अपितु अधिकांश बार अपने ही घात करते हैं। साथी कोई दस कदम साथ चला कोई बीस, कोई सौ, कोई चार सौ। यद्यपि उन साथियों से कोई शिकायत नहीं। उनकी सोच के केंद्र में उनका अपना आप था, हमारी सोच के केंद्र में हिंआप था।….व्यक्ति हो या संस्था दोनों को अलग समय अलग समस्याओं  से दो हाथ करने पड़ते हैं। आरम्भिक समय में यक्ष प्रश्न होता था कार्यक्रम के लिए जगह उपलब्ध करा सकने का। गोष्ठियों का व्यय भी एक समस्या हो सकता था, जिसे हम लोगों ने समस्या बनने नहीं दिया। विनम्र भाव से कहना चाहता हूँ कि कोई व्यसन के लिए घर फूँकता है, हमने ‘पैेशन’ के लिए फूँका। साथ ही यह भी सच है कि जब-जब हमने घर फूँका, ईश्वर ने नया घर खड़ा कर दिया। उसके बाद तो हाथ जुड़ते गये, साथी बढ़ते गये। आज संस्था के हर छोटे-बड़े आयोजन का सारा खर्च हिंआप के सदस्य-मित्र मिलकर उठाते हैं। …..समयबद्धता का अभाव भी बड़ी समस्या है। साहित्यिक कार्यक्रमों में समय पर न आना एक बड़ी समस्या है। चार बजे का समय दिया गया है तो पौने पाँच, पाँच तो निश्चित बजेगा। कल्पना कीजिए कि 130 करोड़ के देश में रोजाना पचास गोष्ठियाँ भी होती हों, औसत दस आदमी एक घंटा देर से पहुँचते हैं तो पाँच सौ लोगों के चलते 500 मैन ऑवर्स बर्बाद होते हैं। यह मात्रा महीने में पंद्रह हज़ार और एक वर्ष में एक लाख अस्सी हज़ार घंटे की बर्बादी का है। एक लाख अस्सी हज़ार घंटे की ऊर्जा का क्षय राष्ट्र का बड़ा क्षय है। इसे बचाना चाहिए। हिंआप में हमने इसे बहुत हद तक नियंत्रित किया है।

(श्रीमती सुधा संजय भारद्वाज) 

वीनु जमुआर- उन दिनों सोशल मीडिया नहीं था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी बहुत उन्नत नहीं था। ऐसे में लोगों को सूचनाएँ पहुँचाने का क्या माध्यम था?

संजय भारद्वाज- मासिक गोष्ठियों की सूचना देना उन दिनों अधिक समय लेनेवाला और अधिक श्रमसाध्य था। तब हर व्यक्ति के घर में फोन नहीं था। हमने लोगों के पते कीएक सूची बनाई। सुबह जल्दी घर छोड़ने के बाद रात को लौटने में देर होती थी। हम पति-पत्नी रात को बैठकर पोस्टकार्ड लिखते। सुबह व्यापार के लिए निकलते समय मैं उन्हें पोस्ट करता। अधिकांश समय ये पोस्टकार्ड लिखने की जिम्मेदारी सुधा जी ने उठाई। लोगों का पता बदलने पर सूची में संशोधन होता रहता। फिर अधिकांश सूचनाएँ लैंडलाइन पर दी जाने लगीं। इससे सूचना देने का समय तो बढ़ा, साथ ही फोन का बिल भी ज़बरदस्त आने लगा। मैं 1997-98 में लैंडलाइन का मासिक बिल औसत रुपये 1500/- भरता था। फिर मोबाइल आए। आरंभ में मोेबाइल लक्ज़री थे और इनकमिंग के लिए भी शुल्क लगता था। शनै:-शनै: मोबाइल का चलन बढ़ा। फिर लोगों को एस.एम.एस. द्वारा सूचनाएँ देने लगे। फिर चुनिंदा लोगों को ईमेल जाने लगे। वॉट्सएप क्राँति के बाद तो संस्था का पटल बन गया और एक क्लिक पर हर सूचना जाने लगी।

वीनु जमुआर- हिंआप की गोष्ठियों की एक विशेषता है कि महिलाएँ बहुतायत से उपस्थित रहती हैं। स्त्रियों की दृष्टि से देखें तो गोष्ठियों का वातावरण बेहद ऊर्जावान, सुंदर, पारिवारिक और उत्साहवर्धक होता है। अपनीे तरह की इस विशिष्ट उपलब्धि पर कैसा अनुभव करते हैं आप?

संजय भारद्वाज- महिलाएँ मनुष्य जीवन की धुरी हैं। स्त्री है तो सृष्टि है। स्त्री अपने आप में एक सृष्टि है। भारतीय परिवेश में पुरुष का करिअर, उसका व्यक्तित्व, विवाह के पहले जहाँ तक पहुँचा होता है, उसे अपने  विवाह के बाद वह वहीं से आगे बढ़ाता है। स्त्रियों के साथ उल्टा होता है। खानपान, पहरावे से लेकर हर क्षेत्र में उनके जीवन में आमूल परिवर्तन हो जाता है। अधिकांश को अपने व्यक्तित्व, अपनी रुचियों का कत्ल करना पड़ता है और परिवार की सारी ज़िम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं। हमारे साथ ऐसी महिलाएँ जुड़ीं जो विवाह से पहले लिखती-छपती थीं। विवाह के बाद उनकी प्रतिभा सामाजिक सोच के संदूक में घरेलू ज़िम्मेदारियों का ताला लगाकर बंद कर दी गई थीं। हिंआप से जुड़ने के बाद उन्हें मानसिक विरेचन का मंच मिला। मेलजोल, हँसी-मज़ाक, प्रतिभा प्रदर्शन और व्यक्तित्व विकास के अवसर मिले। हिंआप में उनकी प्रतिभा को प्रशंसा मिली और मिले परिजनों जैसे मित्र। कुल मिलाकर सारी महिला सदस्यों को मानो ‘मायका’ मिला। आपने स्वयं देखा और अनुभव किया होगा। वैसे भी स्त्री के लिए मायके से अधिक आनंददायी और क्या होगा! वे आनंदित हैं तो सृष्टि आनंदित है। हिंआप के बैनर तले सृष्टि को आनंदित देखकर हिंआप के प्रमुख के नाते सृष्टि के एक जीव याने मुझे तो हर्ष होगा ही न। अपने जैविक मायके से परे महिलाओं को एक आत्मिक मायका उपलब्ध करा पाना मैं हिंआप की बहुत बड़ी उपलब्धि मानता हूँ।

वीनु जमुआर- साहित्यिक क्षेत्र में हिंआप की  चर्चा प्राय: होती है। आपकी  गोष्ठियाँ अब पुणे से बाहर मुंबई और अन्य शहरों में भी होने लगी हैं। इस विस्तार को कैसे देखते हैं आप?

संजय भारद्वाज- मेरी मान्यता है कि सफलता का कोई छोटा रास्ता या शॉर्टकट नहीं होता। आप बिना रुके, बिना ठहरे, आलोचना-प्रशंसा के चक्रव्यूह में उलझे बिना निरंतर अपना काम करते रहिए। यात्रा तो चलने से ही होगी। ठहरा हुआ व्यक्ति चर्चाएँँ कितनी ही कर ले, यात्रा नहीं कर सकता। कहा भी गया है, ‘य: क्रियावान स: पंडित:।’ क्रियावान ही विद्वान है। हिंदी आंदोलन क्रियावान है। क्रियाशीलता की चर्चा समाज में होना प्राकृतिक प्रक्रिया है। जहाँ तक शहर से बाहर गोष्ठियों का प्रश्न है, यह हिंआप के प्रति साहित्यकार मित्रों के विश्वास और नेह का प्रतीक है। भविष्य में हम अन्य नगरों में भी हिंआप की गोष्ठियाँ आरंभ करने का प्रयास करेंगे। दुआ कीजिए कि अधिकाधिक शहरों में हिंआप पहुँचे।

वीनु जमुआर- अनुशासित साहित्यिक संस्था के रूप में हिंआप की विशिष्ट पहचान है। इस अनुशासन और प्रबंधन के लिए आप मज़बूत दूसरी और तीसरी पंक्ति की आवश्यकता पर सदा बल देते हैं। इस सोच को कृपया विस्तार से बताएँ।

संजय भारद्वाज- किसी भी संस्था का विकास और विस्तार उसके कार्यकर्ताओं की निष्ठा, उनके परिश्रम और लक्ष्यबेधी यात्रा से होता है। कार्यकर्ताओं की प्रतिभा को पहचान कर अवसर देने से बनता है संगठन। हिंआप में हमने प्रतिभाओं को निरंतर अवसर दिया। इससे हमारी दूसरी और तीसरी पंक्ति भी दृढ़ता से खड़ी हो गई। उदाहरण के लिए आरम्भ में मैं गोष्ठियों का संचालन करता रहा। कुछ स्थिर हो जाने के बाद संचालन के लिए गोष्ठियों में अनेक लोगों को अवसर दिया गया। हमने वार्षिक उत्सव का संचालन हर बार अलग व्यक्ति को दिया। संचालन महत्वपूर्ण कला है। आज हिंआप में आपको कई सधे हुए संचालक हैं। प्रक्रिया यहाँ ठहरी नहीं अपितु निरंतर है। वार्षिक उत्सव में संस्था का पक्ष, गतिविधियाँ और अन्य जानकारी अधिकांशत: कार्यकारिणी के सदस्य रखते हैं। इससे उनका वक्तृत्व कौशल विकसित हुआ। सक्रिय सदस्यता या दायित्व को 75 वर्ष तक सीमित रखने का काम आज सरकार और सत्तारूढ़ दल के स्तर पर किया जा रहा है। बहुत छोटा मुँह और बहुत बड़ी बात यह है कि किसी साहित्यिक या ऐच्छिक किस्म की गैर लाभदायक संस्था, स्थूल रूप से किसी भी गैरसरकारी संस्था के स्तर पर  देश में इस नियम को आरम्भ करने का  श्रेय हिंआप को है। हमने वर्ष 2012 से ही 75 की आयु में सेवा से निवृत्ति को हमारी नियमावली में स्थान दिया। नये लोग आयेंगे तो नये विचार आयेंगे। नई तकनीक आयेगी। यदि यह विचार नहीं होता तो आज तक हम पोस्टकार्ड ही लिख रहे होते। विभिन्न तरह के कार्यक्रम करते हुए अनेक बार अनेक तरह की स्थितियाँ आती हैं। इनकी बदौलत आप एक टीम की तरह काम करना सीखते हैं। टीम में काम करते हुए अनुभव समृद्ध होता है और आवश्यकता पड़ने पर कब दूसरी और तीसरी पंक्ति एक सोपान आगे आ जायेंगी, पता भी नहीं चलेगा। इससे संस्था के सामने शून्य कभी नहीं आयेगा।

वीनु जमुआर- हिंआप के सदस्य अभिवादन के लिए ‘उबूंटू’ का प्रयोग करते हैं। यह ‘उबूंटू’ क्या है?

संजय भारद्वाज- ‘उबूंटू’ को समझने के लिए एक घटना समझनी होगी। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भरकर पेड़ के नीचे रख दीं। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा सबसे दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरी के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह क्या है तो बच्चों ने उत्तर दिया, ‘उबूंटू।’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू का अर्थ है, ‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ। सामूहिकता का यह अनन्य दर्शन ही हिंआप का दर्शन है।

वीनु जमुआर- वाचन संस्कृति के ह्रास आज सबकी चिंता का विषय है। हिंआप की गोष्ठियों में वाचन को बढ़ावा देने के लिए आपने एक सूत्र दिया है। क्या है वह सूत्र?

संजय भारद्वाज- डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने कहा था, “सौ पृष्ठ पढ़ो, तब एक पंक्ति लिखो।” समस्या है कि हममें से अधिकांश का वाचन बहुत कम है। अत: एक सूत्र देने का विचार मन में उठा। विचार केवल उठा ही नहीं बल्कि उसने वाचन और सृजन के अंतर्सम्बंध को भी परिभाषित किया। सूत्र यों है-‘जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा।’ हम हमारी गोष्ठियों में रचनाकारों से कहते हैं कि आपने जो नया रचा, वह तो सुना जायेगा ही पर उससे पहले बतायें कि नया क्या पढ़ा?

वीनु जमुआर- ढाई दशक की लम्बी यात्रा में ‘क्या खोया, क्या पाया’ का आकलन कैसे करते हैं आप?

संजय भारद्वाज- पाने के स्तर पर कहूँ तो हिंआप से पाया ही पाया है। अनेक बार देश के विभिन्न हिस्सों में रहनेवाले अपरिचित लोगों से बात होती है। …“आप संजय भारद्वाज बोल रहे हैं? …हिंदी आंदोलन वाले संजय भारद्वाज.?”  इसके बाद आगे संवाद होता है। इससे अधिक क्या पाया जा सकता है कि व्यक्ति की पहचान संस्था के नाम से होती है। ‘उबूंटू’ का यह सजीव उदाहरण हैं। खोने के स्तर पर सोचूँ तो हिंआप ने दिया बहुत कुछ,  साथ ही हिंआप ने लिया सब कुछ। संग आने से संघ बनता है, संघ से संगठन। इकाई के तौर पर मेरे निजी सम्बंधों का अनेक लोगों के साथ विकास और विस्तार हुआ। इन निजी सम्बंधों को संगठन से जोड़ा। संगठन के विस्तार से कुछ लोगों की व्यक्तिगत आकांक्षाएँ बलवती हुईं। निर्णय लिए तो मित्र खोये। ये दुख सदा रहेगा पर संस्था व्यक्तिगत आकांक्षा के लिए नहीं अपितु सामूहिक महत्वाकांक्षा के लिए होती है। संस्था के विकास के लिए अध्यक्ष कोे समुचित निर्णय लेने होते हैं। अध्यक्ष होने के नाते  निर्णय लेना अनिवार्य होता है तो मित्र के नाते सम्बंधों की टूटन की वेदना भोगना भी अनिवार्य होता है। मैं दोनों भूमिकाओं का ईमानदारी से वहन करने का प्रयास करता हूँ।

(गांधी जी की सहयोगी रहीं डॉ. शोभना रानाडे और भारत को परम कंप्यूटर देने वाले डॉ विजय भटकर, साहित्यकार डॉ दामोदर खडसे द्वारा हिंदी आंदोलन परिवार के वार्षिक अंक ‘हम लोग’ का विमोचन. इस पत्रिका में प्रतिवर्ष १०० से अधिक रचनाकारों को स्थान दिया जाता है.)

वीनु जमुआर- नये प्रतिमान स्थापित करना हिंदी आदोलन परिवार की विशेषता है। यह विशेषता संस्था की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ और ‘हिंदीभूषण और हिंदीश्री सम्मान’ में भी उभरकर सामने आती है। इसकी भी थोड़ी जानकारी दीजिए।

संजय भारद्वाज- हिंआप की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ संभवत: पहली पत्रिका है जिसमें प्रतिवर्ष औसत 101 रचनाकारों को स्थान दिया जाता है। इसमें लब्ध प्रतिष्ठित और नवोदित दोनों रचनाकार होते हैं। इस वर्ष से पत्रिका का ई-संस्करण आने की संभावना है। जहाँ तक पुरस्कारों का प्रश्न है, विसंगति यह है कि हर योग्य पुरस्कृत नहीं होता और हर पुरस्कृत योग्य नहीं होता। हमने इसे सुसंगत करने का प्रयास किया। हिंआप द्वारा दिये जानेवाले सम्मानों के माध्यम से हमने योग्यता और पुरस्कार के बीच प्रत्यक्ष अनुपात का सम्बंध पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया है।

वीनु जमुआर- हिंआप ने सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र को भी साहित्य के अंग के रूप में स्वीकार किया है। इस पर रोशनी डालिए।

संजय भारद्वाज- मैं मानता हूँ कि साहित्य अर्थात ‘स’ हित। समाज का हित ही साहित्य है। सामाजिक-सांस्कृतिक प्रकल्पों द्वारा हम समाज के वंचित वर्ग के साथ जुड़ते हैं। अनुभव का विस्तार होता है। एक घटना साझा करता हूँ। हमने दिव्यांग बच्चों का एक कार्यक्रम रखा। इसमें दृष्टि, मति और वाचा दिव्यांग बच्चे थे। दृष्टि दिव्यांग (नेत्रहीन) बच्चे जब नृत्य प्रस्तुत कर रहे थे तो हमने लोगों से निरंतर तालियाँ बजाने को कहा क्योंकि वे तालियों की आवाज़ सुनकर ही उनको मिल रहे समर्थन का अनुमान लगा सकते हैं। जब वाचा दिव्यांग ( मूक-बधिर) बच्चे आए तो तालियों के बजाय दोनों हाथ ऊपर उठाकर समर्थन का आह्वान किया क्योंकि ये बच्चे देख सकते थे पर सुन नहीं सकते थे। कितना बड़ा अनुभव! हरेक के रोंगटे खड़े हो गये, हर आँख में पानी आ गया।…हिंआप के सदस्य रिमांड होम के बच्चों के बीच हों या वेश्याओं के बच्चों के साथ, फुटपाथ पर समय से पहले वयस्क होते मासूमों से मिलते हों या चोर का लेबल चस्पा कर दिये गये प्लेटफॉर्म पर रहनेवाले बच्चों से, महिलाश्रम में निवासियों से कुशल-मंगल पूछी हो या वृद्धाश्रम में बुजुर्गों को सिर नवाया हो, कैदियों को अभिव्यक्ति के लिए  मंच प्रदान कर रहे हों या भूकम्प पीड़ितों के लिए राहत कोष में यथासंभव सहयोग कर रहे हों, वसंत पंचमी पर पीतवस्त्रों में माँ सरस्वती का पूजन कर रहे हों या भारतमाता के संरक्षण के लिए दिन-रात सेवा देनेवाले सैनिकों के लिए आयोजन कर रहे हों, पैदल तीर्थयात्रा करनेवालों की सेवा में रत हों या श्रीरामचरितमानस के अखंड पाठ द्वारा वाचन संस्कृति के प्रसार में व्यस्त, हर बार एक नया अनुभव ग्रहण करते हैं, हर बार जीवन की संवेदना से रूबरू होते हैं। साहित्यकार धरती से जुड़ेगा तभी उसका लेखन हरा रहेगा।

वीनु जमुआर- हिंआप के भविष्य की योजनाओं पर प्रकाश डालिए।

संजय भारद्वाज- भविष्य की आँख से तत्कालीन वर्तमान देखने के लिए समकालीन वर्तमान दृढ़ करना होगा। वर्तमान में पश्चिमी शिक्षा के आयातित मॉडेल के चलते हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्य में रुचि रखनेवाले युवा तुलनात्मक रूप से कम हैं। हम हिंआप मेें युवाओं को विशेष प्रधानता देना चाहते हैं। हम वर्ष में एक आयोजन नवोदितों के लिए करते आये हैं। इसकी संख्या बढ़ाने और कुछ अन्य युवा उपयोगी साहित्यिक गतिविधियों का विचार है। गत पाँच वर्ष से हम हमारे पटल पर ई-गोष्ठी कर रहे हैं। अब तक 38 ई-गोष्ठियाँ हो चुकीं। हम स्काइप आधारित गोष्ठियों का भी विचार रखते हैं। पुस्तकालय और वाचनालय का प्रकल्प तो है ही। हम दानदाता की तलाश में हैं जो हिंदी पुस्तकों के पुस्तकालय और वाचनालय के लिए स्थान उपलब्ध करा दे।

वीनु जमुआर- अंत में एक व्यक्तिगत प्रश्न। हिंदी आंदोलन के संस्थापक-अध्यक्ष की पहचान  कवि, कहानीकार, लेखक, संपादक, समीक्षक, पत्रकार, सूत्र-संचालक, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक और समाजसेवी के रूप में भी है। इस बहुआयामी व्यक्तित्व के निर्वहन में आपको अपना कौनसा रूप सबसे प्रिय है?

संजय भारद्वाज- मैं सृजनधर्मी हूँ। उपरोक्त सभी विधाएँ या ललितकलाएँ  प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सृजन से जु़ड़ी हैं। ये सब अभिव्यक्ति के भिन्न-भिन्न आयाम हैं। मैं योजना बनाकर इनमें से किसी क्षेत्र में विशेषकर सृजन में प्रवेश नहीं कर सकता। अनुभूति अपनी विधा स्वयं चुनती है। वह जब जिस विधा में अभिव्यक्त होना चाहती है, हो लेती है और मेरी कलम उसका माध्यम बन जाती है। हाँ यह कह सकता हूँ कि मेरे लिए मेरा लेखन दंतकथाओं के उस तोते की तरह है जिसमें जादूगर के प्राण बसते थे। इसीलिए मेरा सीधा, सरल परिचय है, ‘लिखता हूँ, सो जीता हूँ।’

 

सम्पर्क- संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मो 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ शब्द और भाव सम्पदा के धनी – श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’ ☆ पंडित मनीष तिवारी

पंडित मनीष तिवारी

☆ शब्द और भाव सम्पदा के धनी – श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’ ☆

साहित्य से समाज तक, समाज से घर तक, घर से व्यक्ति तक – को जिनने अपने मधुर स्वभाव से जीता है, जिनकी पावन उपस्थिति साहित्य की सरिता और अनुशासन की गीता है। जो मंच संचालन में पूर्ण पारंगत हैं जिनकी नज़र में हर आगत श्रोता एक अनमोल नगीना है। जो सबको मान देते हैं, अवसर मिलने पर मंच और सम्मान देते हैं। ऐसे मिलनसार, हंसमुख और कर्मठ बड़े भाई राजेश पाठक प्रवीण जी का हमने 29 सितम्बर को 59 वां जन्मदिन मनाया है।

अतिशयोक्ति न होगी यदि मैं यह कहूँ कि राजेश भैया संस्कारधानी की साहित्यिक चेतना से संवाहक है, आयोजन उनका जुनून है, एक आयोजन का आभार प्रदर्शन हो नहीं पाता कि दूसरा उनके जेब में रखा रहता है। विशेषता यह है कि समर्पण सिर्फ कविताओं या कृतियों के प्रकाशन तक ही नहीं है वे हर उस आयोजन में सहभागी हैं जिससे मनुष्य की चेतना तरंगित होती है। चित्रकला, आर्केष्ट्रा, धार्मिक आयोजनों उनकी प्रभावी उपस्थिति से महिमा मण्डित होते हैं। राजेश भैया शब्द और भाव सम्पदा के धनी है उनका तात्कालिक शब्द चयन-शाब्दिक विन्यास उपस्थित श्रोताओं के अन्तस् में पैठ करते हुए मंच का आकर्षण बढ़ाता है।

पाथेय के माध्यम से सैकड़ों कृतियों का प्रकाशन और संपादन कर उनने नया कीर्तिमान गढ़ा है, नवांकुर से लेकर प्रतिष्ठित रचनाधर्मियों के प्रिय राजेश भैया के बहुमुखी व्यक्तित्व पर लिखना बहुत कुछ चाहता हूँ, आगे लिखूंगा भी फिलहाल बड़े भाई का जन्मदिन यश कीर्ति, सुख समृद्धि, उत्थान प्रगति, ऐश्वर्य योग से परिपूर्ण रहे।  वे महफ़िल सजाते रहें साथियों को आनन्द की गंगा में हिलोरें लेने प्रेरित करते रहें। सियाराम जी उन्हें स्वस्थ और सुदीर्घ जीवन प्रदान करें इन्हीं मंगलभाव के साथ आकाश भर शुभकामनाएं। साथ ही पूज्य भाभी श्रीमती रश्मि पाठक जी को नमन उन्हीं की उदारता के चलते साहित्यिक मेले लग पा रहे हैं।

बड़े भाई बधाई ????

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न 9424608040 / 9826188236




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ चिरेबंदी भूक ☆ श्री मुबारक उमराणी

श्री मुबारक उमराणी

? जीवनरंग ❤️

चिरेबंदी भूक ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

” साहेब, मेनू कार्ड.”.

“ठेव आणि बाळ, तोपर्यंत पापड प्लेट दे!”

मेनू कार्ड पहात, “आणि हे बघ, दोन मटन हंडी, चार विस्की,”

‘आणखी काय आणू साहेब ?”

“पाच इंग्लिश बॅण्ड! “

” आणि हे बघ, चपात्या दहा,  रस्सा पाच ,बिसलरी तीन!”

“हं करा सुरवात  ग्लास मध्ये घाला अर्धा अर्धा ,!

“सोडा  तर मला हवाचं गड्या, शिस्तीत!”

“चिअर्स ! व्वा! मस्त!   फर्स्टक्लास! “

“मला चढत नाही कधीच…. लावा शर्यत .!”

“शर्यत लावायला आपण काय घोडे आहोत काय ?”

” गप्प आस्वाद घ्या आता, उगाच ओरडू नका! “

“ए, आम्हाला काय तू हलका समजलास का काय ? अरे बॅरेल हाय बॅरेल .. अजून किती बी घेतली तरी काय होत नाय ! “

“आपण मापात असतो काय पण होऊ दे! “

” दुसरा राऊंड फुल्ल घाला,  भितोय काय? ” 

”   अरे ए, हंडीतलं घाला की प्लेटमध्ये ..”

” आज मस्त मजा आली ! कितीतरी दिवसांनी!”

” आपल्याला तर हंडी, रोट्यापेक्षा ही इंग्लिश लई भारी वाटते बुवा ! 

” अरे,  सगळंच दोन दोन दिसायला लागले..”

 “जास्त झाली वाटतं! उठा !”

 “साहेब बील! “

“किती झालं ?”

” चार हजार!”

” हे घे ! आणि तुला दोनशे  रूपयाची टिप, !”

 “साहेब, आपण कायच खाल्लं नाय सगळं तसचं पडलंय! “

” ए, जादा बोलू नकोस ?  गप्प बसं! तुझं काम काय आहे? वाढायचं. तेवढा कर आणि बील घे. “

सगळे उठून तरंगतच बाहेर जाऊ लागले. वेटर सर्व उरलेलं अन्न खरकटं भांड्यात भरू लागला.

हाँटेलच्या दाराबाहेर काही अंतरावर एक भिकारी तिष्टत बसून होता. भुकेल्या पोटाने अधूनमधून आतला कानोसा घेत होता. हे अन्न आता कचरा कुंडीत कधी पडतय याची तो वाट पहात होता. आपणास आता खायला मिळणार हा मनातला आनंद त्याच्या चेह-यावरुन स्पस्ट दिसत होता.

त्याच्या उपासमारीच्या  चिरेबंदी दुःखाला आता भागदाड पडणार होते.

 

© मुबारक उमराणी

 शामरावनगर, सांगली

मो.९७६६०८१०९७.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈




हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ #82 – शिक्षक दिवस एवं “स्मार्ट क्लास ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है।आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के  शिक्षक दिवस से सम्बंधित संस्मरण  शिक्षक दिवस एवं “स्मार्ट क्लास)

☆ जीवन यात्रा #82 – शिक्षक दिवस एवं “स्मार्ट क्लास” ☆ 

विगत 5 सितम्बर को ही में हम सब ने शिक्षक दिवस मनाया। भारत के यशस्वी राष्ट्रपति डा.सर्वपल्ली राधा कृषणन (5 सितम्बर 1888 – 17 अप्रैल 1975) का जन्म दिन था।  वे शिक्षाविद थे और महात्मा गांधी के कहने पर भारतीय राजनीति में आए। सर्वपल्ली राधाकृष्णन की यह प्रतिभा थी कि अखिल भारतीय कांग्रेसजन भी  यह चाहते थे कि उन्हे गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जायें। स्वतन्त्रता के बाद उन्हें  संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक के समय कई विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किये गये। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 – 15 अगस्त 1947 की रात्रि को उस समय किया जाये जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वे अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। क्योंकि उसके पश्चात ही नेहरू जी के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।  वे भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे । उन्होंने महात्मा गांधी पर दो विषद ग्रंथों  का सम्पादन किया गांधी अभिनंदन ग्रंथ (वर्ष 1939 ) और गांधी श्रद्धांजलि ग्रंथ (वर्ष 1955 )। उनके इन्हीं अनेक गुणों के कारण सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया था। पंडित नेहरू ने उनको मान  सम्मान दिया,  पहले उपराष्ट्रपति और फिर  राष्ट्रपति निर्वाचित करवाने में अपने पद का  या अंग्रेजी में कहें तो गुड आफिसेस का उपयोग किया। उन्हे श्रद्धापूर्वक नमन।

वर्ण व्यवस्था की माने तो हमारे परिवार का पेशा  होना चाहिए था अध्ययन अध्यापन, पठन पाठन। पर विगत दस-बारह  पीढ़ियों में हमारे परिवार का पेशा  शिक्षण कार्य तो नहीं रहा। हमारे पुरखे जो गुजरात से पन्ना आए वे पहले तो सामाजिक व्यवस्था में निर्यायक  या दंडनायक की भूमिका निभाते रहे और इसीलिए हमारा उपनाम डनायक  हुआ।  फिर तीन पीढ़ियों ने हीरा और अनाज विक्रय  आदि का व्यवसाय किया और अब भूत-वर्तमान चार पीढ़िया नौकरी कर जीवन यापन कर रही हैं। उनमें से कुछ शिक्षक भी हैं ।

मेरी, माँ स्व श्रीमती कमला डनायक, विवाह के पूर्व जैन प्राथमिक शाला दमोह में पढ़ाती थी, बाबूजी के दो चचेरे भाई स्व श्री भगवान शंकर डनायक उनकी भार्या स्व श्रीमती तारा  व श्री केशव राम एवं  उनकी अर्धागनी  श्रीमती उषा डनायक सेवानिवृति तक हमारे पैतृक नगर पन्ना में शिक्षक रहे।  बाबूजी के एक अन्य चचेरे भाई श्री श्याम शंकर डनायक, हमारे परिवार में प्रथम स्नातकोत्तर तक शिक्षित,  ने भी अपनी आजीविका  की शुरुआत एक शिक्षक के रूप में तो की  पर बाद को वे रेलवे में नौकरी करने लगे । लेकिन सेवानिवृति के बाद कुछ साल तक वे सतना में अर्थ-शास्त्र पढ़ाते रहे ।  मेरी, एक बहन रीता पण्ड्या,  केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका रही तो अनुज, अतुल कुमार डनायक भी उच्चतर माध्यमिक शाला में प्राचार्य बना और वर्तमान में राज्य शिक्षा केंद्र में संयुक्त निदेशक के रूप में शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में अपनी भूमिका निभा रहा है ।  मेरे एक चचेरे भी रवि शंकर केशव राम डनायक  भी शिक्षक हैं। मेरी पुत्र वधू श्रुति सेलट डनायक ने पहले मुंबई और फिर अमेरिका और कनाडा में शिक्षक के दायित्व को सफलतापूर्वक निभाया है।  मेरे चचेरी बहनें भावना मेहता (पुत्री श्री  केशव राम डनायक ) व सोनाली ठाकर  (आत्मजा स्व श्री  भगवान शंकर डनायक ) भी शिक्षक हैं और भौतिक विज्ञान व गणित  जैसे कठिन विषयों को पढ़ाने में पारंगत हैं। 

इन्ही भाइयों और काका–काकी की प्रेरणा से मैं भी सेवानिवृति के बाद स्कूली शिक्षा से  जुड़ा । और जन सहयोग, जिसका अधिकांश हिस्सा मेरे साथियों, स्टेट बैंक  से सेवानिवृत अधिकारियों व अन्य सेवनिवृत मित्रों  ने आर्थिक सहयोग के रूप में दिया था के द्वारा 27 विद्यालयों में स्मार्ट क्लास शुरू करवाने में सफलता पाई । कोरोना संक्रमण ने हमारे इस अभियान को अल्प विराम दिया है।  आशा की किरणे  धूमिल नहीं हुई हैं, कभी फिर यह सपना आकार लेगा। अमरकंटक के माँ सारदा  कन्या विद्या  पीठ की बैगा आदिवासी बालिकाओं को तो कभी कभार मैंने पढ़ाने का असफल प्रयत्न भी किया।  जब इन बच्चियों को मैं पढ़ाता हूँ तो मुझे मेरी माँ की याद आती है।  हम भाई बहनों ने अपने चरवाहे के पुत्र सबलू को शिक्षित करने की ठानी।  एक सप्ताह तक प्रयास करने पर भी हम उसे अ लिखना भी नहीं सिखा  सके।  और तब मेरी माँ ने स्लैट पेंसिल उठाई और दो दिनों में उस अबोध आदिवासी बालक को ‘सबलू ‘ लिखना सिखा दिया।

तो आज शिक्षक दिवस पर मेरी प्रथम गुरु हमारी मां  कमला डनायक , परमेश्वर रूपी गुरु पिता रेवाशांकर डनायक, परिवार के शिक्षक व्यवसाय से जुड़े काकाजी, काकी, को सादर नमन।  मेरे सभी शिक्षकों , परिवार के शिक्षक व्यवसाय से जुड़े, भाइयों और बहनों जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया है, 27 विद्यालयों के शिक्षकों जहां जन सहयोग से  स्मार्ट क्लास शुरू की गई, मेरे शिक्षक मित्र डाक्टर मनीष दुबे, स्मार्ट क्लास के प्रणेता दिव्य दम्पत्ति ( दिव्य प्रकाश और मीनाक्षी सिंह ) तथा इन शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों को शुभकामनाएं।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ सूरज पुनः उठेगा …. युवा कवि स्व. महीप प्रशांत ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज  श्री अजीत सिंह जी द्वारा प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के जीवन-यात्रा स्तम्भ के अंतर्गत  ‘’सूरज पुनः उठेगा …. युवा कवि स्व. महीप प्रशांत ’। हम आपकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय-समय पर साझा करते  रहेंगे।)

(कुरुक्षेत्र के युवा कवि स्व महीप प्रशांत)
☆ जीवन यात्रा ☆ सूरज पुनः उठेगा …. युवा कवि स्व. महीप प्रशांत ☆

(वानप्रस्थ में हिंदी पखवाड़ा – युवा कवि स्व महीप प्रशांत का स्मरण को याद किया)

कुरुक्षेत्र में पले बढ़े महीप प्रशांत मात्र 21 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कह गए पर अपने पीछे उच्च स्तर की साहित्यिक रचनाओं का जो अच्छा खासा खज़ाना छोड़ गए हैं, वह उन्हें अमर बनाए रखेगा।

हिंदी पखवाड़े के उपलक्ष्य में आयोजित एक वेबिनार में हिसार की वानप्रस्थ संस्था ने जहां एक ओर हिंदी भाषा के इतिहास, विकास, चुनौतियों और संभावनाओं पर विचार किया वहीं युवा कवि प्रशांत की जीवनी और उनकी साहित्यिक यात्रा पर भी गंभीर विचार किया।

पुणे से ऑनलाइन जुड़ी प्रशांत की छोटी बहन दीपशिखा पाठक ने श्रद्धांजलि स्वरूप उनके जीवन व रचनाओं पर प्रकाश डाला और उनकी कुछ कविताओं  का पाठ किया।

‘श्रृंखला की कड़ियां ‘ शीर्षक की कविता में वे कहते हैं:

‘अंधकार से संघर्ष में ऊबा हुआ

गहन निराशा में डूबा हुआ

क्षितिज पर सूरज अस्त हो रहा था।

उदीयमान क्षुद्र तारकों का सूर्य की पराजय पर उल्लास.

यही नहीं-

पर्वतों की ओट से झाँकता अंधकार;

अभी भी सूर्य के डर से काँपता अंधकार

भी छिपा हुआ कर रहा था गगनभेदी अट्टहास।

और मैं एक मूक दर्शक देखे जा रहा था-

विस्मृति का विलास

निवृत्ति का  उपहास!

हाँ! सूरज हार गया।

अंधकार को नष्ट करने का प्रण लिए

सदियों से उससे लड़ता हुआ

सूरज इस बार भी हार गया!

पर नहीं-

वह पुनः उठेगा

मन में प्रण व विश्वास लिए

जीवन का प्रकाश लिए

और अंधकार का नाश लिए।

संघर्ष पुनः शुरू हो जाएगा

सृष्टि के अंत तक चलता जायेगा…..

क्यूँकि … संघर्ष  ही जीवन है!!!

 

‘खिड़कियाँ’ शीर्षक की कविता सन 1983 में लिखी गई थी जब महीप प्रशांत केवल 20 वर्ष के थे। 

“इस शहर के फुटपाथों में छेद देखे,

भूख से हमने चेहरे सफ़ेद देखे,

मरा जो कोई लू में,

तो उन्हें खेद हुआ अख़बारों में-

छोटी सी बातों में

हमने बड़े भेद देखे,

और अपन चुप रहे,

देखा किए,

कुछ ना कहा,

एक खिड़की थी खुली,

उठे, उठ कर बंद कर ली।

 

खिड़कियाँ भी बहुत हैं

यहाँ ताले भी बहुत हैं

ज़िंदा रहने के यूँ तो

मसाले भी बहुत हैं।

पर साँस लेने को भी तो

कुछ हवा चाहिए

चारों तरफ़ यहाँ तो

जाले भी बहुत  हैं।

इन जालों के नीड़ में

जग को विचरते देखा है,

सड़क की धुंद में

आसमाँ को डरते देखा है,

देखा है इस खिड़की से अपना जनाज़ा रोज़ उठते हुए

… और .. अपन चुप हैं,

देखा किए हैं.. क़ुछ न कहा।

 

महीप प्रशांत की भावभीनी याद के इलावा हिंदी दिवस समारोह की चर्चा में  साहित्य से जुड़े और भी कई व्यक्ति शामिल हुए। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ दिनेश दधीचि ने कहा कि हिंदी में इसकी 49 लोकबोलियों के शब्द लिए जाने चाहिएं ।

आकाशवाणी के वरिष्ठ अधिकारी रहे पार्थसारथी थपलियाल का कहना था कि यूं तो हिंदी का इतिहास करीबन एक हज़ार साल का है पर इसका वर्तमान परिष्कृत स्वरूप लगभग 150 वर्ष पूर्व भारतेंदु हरिश्चंद्र ने तैयार किया ।

पूर्व बिजली निगम अधिकारी डी पी ढुल, पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी एस पी चौधरी, देविना ठकराल,  वीना अग्रवाल, प्रो राज गर्ग, प्रो जे के डांग व प्रो सतीश भाटिया ने भी अपने विचार रखे।

गोष्ठी का संचालन करते हुए दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने कहा कि असीम विविधता के देश भारत में कोई एक भाषा राष्ट्र भाषा नहीं हो सकती इसीलिए संविधान के 8वें अनुच्छेद में 22 क्षेत्रीय भाषाओं को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दी गई है। हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है। हिंदी अगर सभी प्रांतीय भाषाओं के शब्द अपना ले तो यह न केवल समृद्ध होगी बल्कि इससे राष्ट्रीय एकता को भी बढ़ावा मिलेगा।

वेबिनार में विभिन्न स्थानों से लगभग 30 व्यक्तियों ने भाग लिया।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

(लेखक हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे दूरदर्शन हिसार के समाचार निदेशक के रूप में कार्यरत रह चुके हैं। )

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ #81 – 3 – पन्ना के जुगल किशोर मुरलिया में हीरा जड़े ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है।आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के जीवन के श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से जुड़े अविस्मरणीय एवं प्रेरक संस्मरण/प्रसंग “पन्ना के जुगल किशोर मुरलिया में हीरा जड़े ”)

☆ जीवन यात्रा #81 – 3 – पन्ना के जुगल किशोर मुरलिया में हीरा जड़े ☆ 

(मेरी आगामी पुस्तक घुमक्कड़ के अध्याय पन्ना और हटा की सुनहरी यादें का एक अंश)

आज जन्माष्टमी है बाल गोपाल , कृष्ण कन्हैया , गिरधर नागर, नन्द किशोर यशोदानंदन, देवकीसुत का जन्मोत्सव का दिन I आगामी छह दिनों तक कभी घर- घर सजाई जाने वाली झाँकी और बालमुकुन्द का झूला तो अब कुछ घरों में  सिमट कर रह गया है I पर बृज भूमि अगर कृष्प भक्णि के लिए प्रसिद्द  है तो भैया हमाओ  बुंदेलखंड भी कछु कम नईया I आज से मैं आपको पन्ना  के जुगल किशोर के दर्शन आगामी छह दिनों तक रोज कराउंगा I यह अंश है मेरी आगामी पुस्तक  घुमक्कड़ के

पन्ना शहर के मध्य में स्थित  जुगल किशोर मंदिर आसपास के क्षेत्रों के लोगों  की धार्मिक आस्था व श्रद्धा का केंद्र है I यह प्रसिद्ध और ऐतिहासिक मंदिर उत्तर मध्य कालीन राजपुताना एवं बुन्देली वास्तुकला में निर्मित है I मंदिर के गर्भगृह  में राधा  कृष्ण की भव्य एवं मनोहारी  प्रतिमा स्थापित है जिसे ओरछा से महाराजा छत्रसाल पन्ना लाये थे I बाद में मंदिर का जीर्णोद्धार राजा हिन्दुपत ने सन 1756 में करवाया I राधा कृष्ण की जुगल जोड़ी का प्रतिदिन होने वाला श्रृंगार बुन्देली पहनावे एवं साज-सज्जा के अनुरूप होता है I गर्भगृह के आगे जगमोहन भोग मंडप और विशाल नट मंडप निर्मित है I नट मंडप में छत को सहारा देने के लिए दोनों तरफ गोल खम्भे हैं I  गर्भगृह के उपार भव्य गुम्बज शिखर और चारो कोनों पर चार छोटी छोटी मडिया मंदिर की शोभा में चार चाँद लगा देती हैं I मंदिर का प्रवेश द्वार विशाल है और उसके ऊपर राजपूताना शैली में तोरण द्वार बना हुआ है ।

श्री जुगल किशोर मंदिर के बाहर से ही श्री कृष्ण जी और राधा जी की सुंदर प्रतिमा के दर्शन  होते हैं । मंदिर परिसर में ही हनुमान एवं शिव  जी को समर्पित मंदिर बने हुए हैं । मंदिर के अंदर राधा कृष्ण की  सुंदर सजी हुई भव्य मूर्ति  अपने आकर्षक श्रंगार के कारण श्रद्धालुओं को सहज ही मोह लेती है I भगवान  कृष्ण के हाथ में मुरली है, उनकी मुरली के बारे में कहा जाता है, कि इस मुरली में हीरे जड़े हुए हैं। श्री कृष्ण जी की मूर्ति यहां पर श्याम रंग की है और राधा जी की मूर्ति गौर वर्ण की है। मंदिर में सजावट हेतु लगाए गए झूमर और सुंदर तैल चित्र सहज ही आकर्षित करते हैं I ऐसी ही बाल कृष्ण की लगभग सौ वर्ष पुरानी एक  पेंटिंग हमारे दादाजी की स्मृति में जुगल किशोर जी के मंदिर को फरवरी 1956 में हमारे परिवार ने समर्पित की थी । 

पन्ना शहर के मध्य में स्थित  जुगल किशोर मंदिर आसपास के क्षेत्रों के लोगों  की धार्मिक आस्था व श्रद्धा का केंद्र है I यह प्रसिद्ध और ऐतिहासिक मंदिर उत्तर मध्य कालीन राजपुताना एवं बुन्देली वास्तुकला में निर्मित है I मंदिर के गर्भगृह  में राधा  कृष्ण की भव्य एवं मनोहारी  प्रतिमा स्थापित है जिसे ओरछा से महाराजा छत्रसाल पन्ना लाये थे I बाद में मंदिर का जीर्णोद्धार राजा हिन्दुपत ने सन 1756 में करवाया I राधा कृष्ण की जुगल जोड़ी का प्रतिदिन होने वाला श्रृंगार बुन्देली पहनावे एवं साज-सज्जा के अनुरूप होता है I गर्भगृह के आगे जगमोहन भोग मंडप और विशाल नट मंडप निर्मित है I नट मंडप में छत को सहारा देने के लिए दोनों तरफ गोल खम्भे हैं I  गर्भगृह के उपार भव्य गुम्बज शिखर और चारो कोनों पर चार छोटी छोटी मडिया मंदिर की शोभा में चार चाँद लगा देती हैं I मंदिर का प्रवेश द्वार विशाल है और उसके ऊपर राजपूताना शैली में तोरण द्वार बना हुआ है ।

श्री जुगल किशोर मंदिर के बाहर से ही श्री कृष्ण जी और राधा जी की सुंदर प्रतिमा के दर्शन  होते हैं । मंदिर परिसर में ही हनुमान एवं शिव  जी को समर्पित मंदिर बने हुए हैं। मंदिर के अंदर राधा कृष्ण की  सुंदर सजी हुई भव्य मूर्ति  अपने आकर्षक श्रंगार के कारण श्रद्धालुओं को सहज ही मोह लेती है I भगवान  कृष्ण के हाथ में मुरली है, उनकी मुरली के बारे में कहा जाता है, कि इस मुरली में हीरे जड़े हुए हैं। श्री कृष्ण जी की मूर्ति यहां पर श्याम रंग की है और राधा जी की मूर्ति गौर वर्ण की है। मंदिर में सजावट हेतु लगाए गए झूमर और सुंदर तैल चित्र सहज ही आकर्षित करते हैं I ऐसी ही बाल कृष्ण की लगभग सौ वर्ष पुरानी एक  पेंटिंग हमारे दादाजी की स्मृति में जुगल किशोर जी के मंदिर को फरवरी 1956 में हमारे परिवार ने समर्पित की थी ।

मंदिर के पुजारी रोज सुबह 5 बजे जुगलकिशोर को जगाकर उनकी मंगल आरती करते हैं , फिर कनक कटोरा आरती का आयोजन होता है। इसके बाद पट बंद कर दिए जाते हैं। दोपहर 12 बजे फिर मंदिर के द्वार खोले जाते हैं । ढाई बजे जब पूरे शहर के लोग भोजन कर चुके होते हैं, तब भगवान को भोग लगाया जाता है। यह भोग बहुत ही सात्विक वातावरण में पकाया जाता है I मैंने भी एक बार 2010 में मुंबई से पन्ना आकर थाल भोग अर्पित किया था I मैंने मंदिर के पुजारी से इतने विलम्ब से भगवान को दोपहर का भोजन अर्पित करने का कारण पूछ लिया I पंडितजी के अनुसार आमतौर पर मंदिरों में पहले भगवान को भोग लगता है, फिर भक्तों को प्रसाद मिलता है, लेकिन पन्ना के जुगलकिशोर इतने भक्तवत्सल माने जाते हैं कि वे  पहले अपने भक्तों को पेट पूजा का मौका देते हैं, उसके बाद ही भोग ग्रहण करते हैं। यही वजह है कि यहां दोपहर के भोजन की आरती 2.30 बजे और रात्रि के भोजन की आरती रात 10.30 बजे होती है । मैं भी पुजारी के इस उत्तर को सुनकर भावविभोर हो गया I इस  अनूठी परंपरा और उससे जुड़ी भावना पन्ना वासियों की इस आस्था को और अधिक बल प्रदान करती है कि जुगल किशोरजी अपने राज्य में किसी को भी भूखा नहीं सोने देते । पन्ना के सभी मंदिरों के पट प्राय: रात्रि नौ बजे बंद हो जाते हैं किन्तु जुगल किशोर जू के पट बंद होने का समय साढे दस बजे रात्रि है I

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ #80 – 2 – पूज्य बाबूजी को उनके 93 वें जन्म दिन पर परिवार के श्रद्धा सुमन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के जीवन के श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से जुड़े अविस्मरणीय एवं प्रेरक संस्मरण/ प्रसंग     “ जीवन यात्रा  -पूज्य बाबूजी को उनके 93 वें जन्म दिन पर परिवार के श्रद्धा सुमन”)

☆ जीवन यात्रा #80 – 2 –पूज्य बाबूजी को उनके 93 वें जन्म दिन पर परिवार के श्रद्धा सुमन ☆ 

गतांक से आगे

जीएम की विशेष रेलगाडी, आउटर सिगनल को पार करने से पहले ही स्टेशन की ओर पीछे आ रही थी, मध्य रेल  के सर्वोच्च अधिकारी  का इस तरह वापस आना किसी आसन्न खतरे का सूचक ! बाबूजी ने, जिन्हें स्वयं को संतुलित करने में देर नहीं लगती थी, अपने माथे पर अचानक आ गई  पसीने की बूंदों को पोंछा, एक गिलास पानी पिया, और पूरी मुस्तैदी के साथ महाप्रबंधक का स्वागत करने प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े हो गए I महाप्रबंधक का कोच स्टेशन के मुख्य द्वार के सामने रूका और अधिकारियों का जत्था स्टेशन की ओर बढ़ा।  बाबूजी और उनके अधीनस्थों ने अभिवादन किया तभी महाप्रबंधक की कड़क आवाज गूंजी ‘Who is Master of this Station ?’ बाबूजी ने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ जवाब दिया ‘महोदय मैं’ । और इसके साथ ही स्टेशन के  सूक्ष्म निरीक्षण का कार्य प्रारम्भ हो गया । महाप्रबंधक  विभिन्न रिकार्ड मांगते और स्टेशन पोर्टर, अविलम्ब  उन्हें प्रस्तुत कर देते । महाप्रबंधक की  पैनी निगाहें रिकार्ड को देखती और किसी अन्य पुस्तक की  फरमाइश होते देर न लगती । उन्होंने इसी दौरान  स्टेशन पोर्टर से रेल संरक्षा के विषय में कुछ प्रश्न पूछे, उत्तर से वे संतुष्ट हुए  और अचानक  चमचमाती  हुई ब्रास मेटल की टिकिट खिड़की, उद्घोषणा करने वाले पीतल के  घंटे और स्वच्छ कक्ष   को देखकर सम्बंधित सफाई कर्मचारी को बुलाने का आदेश दिया । सामने खड़े मुन्ना लाल ने बाबूजी का इशारा समझा और महाप्रबंधक के चरणों में अपना शीश नवा दिया । महाप्रबंधक ने मुन्ना लाल से पूछा कि ‘रोज इतने समय तक नौकरी पर उपस्थित रहते हो ।’ मुन्ना लाल ने भी त्वरित जवाब दिया ‘नहीं साहब, आज आपका दौरा था तो बड़े बाबू ने हम सभी को स्टेशन में दिन भर रहने का आदेश दिया था ।’  ‘तो फिर तुम लोगों को ओव्हर टाइम का पैसा मिलेगा ?’ महाप्रबंधक ने जब यह प्रश्न दागा तो सामूहिक उत्तर मिला ‘हम लोग आपके स्वागत और दर्शन के लिए ड्यूटी पर हैं तो भला ओव्हर टाइम क्यों मांगेंगे ।’ यह सब वार्तालाप महाप्रबंधक को प्रसन्न व प्रभावित  करने पर्याप्त था और उन्होंने स्थल पर ही,  मुन्नालाल  व स्टेशन पोर्टर को पचास-पचास रुपये और बाबूजी व उनकी टीम को सात सौ रुपये नगद पुरस्कार की घोषणा तत्काल कर दी । शाम को अपनी ड्यूटी से निवृत होकर बाबूजी माँ और मैं, अनेक स्टेशन कर्मियों के साथ जागेश्वरनाथ के दर्शन करने गए । शास्त्रीजी ने इस यश को भोलेनाथ का आशीर्वाद एवं चमत्कार  बताते हुए बाबूजी के गले ईश्वर को अर्पित पुष्पमाला पहना दी। दूसरे दिन स्टेशन स्टाफ का भंडारा ‘बड़ी बाई’ की ओर से आयोजित हुआ और माँ ने सबको  भरपूर खीर-पूड़ी स्वयं परोसकर खिलाई ।

इसके बाद तो अक्टूबर 1986 तक मंडल रेल प्रबंधक कार्यालय से कोई न कोई अधिकारी बांदकपुर  स्टेशन निरीक्षण करने आता और और बाबूजी प्रसंशा पत्र या नगद पुरस्कार से सम्मानित होते रहे। बाबूजी की कर्तव्यपरायणता ने हम सब के लिए आदर्श प्रस्तुत किया । आज भी हम भाई-बहनों और उनके पुत्र-पुत्री जब हतोत्साहित होते हैं, कर्तव्यपथ से विचलित होते हैं तो चितहरा से बांदकपुर तक की उनकी 39 वर्ष की कर्म प्रधान यात्रा के किस्से सुनकर परिवार के लोग उत्साह से भर उठते हैं, कर्म पथ पर चलने की प्रेरणा पाते हैं ।

मेरी आगामी पुस्तक घुमक्कड़ के अध्याय पन्ना और हटा की सुनहरी यादें का एक अंश

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग तिसरा ☆ सुश्री सुमती जोशी

सुश्री सुमती जोशी

 ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग तिसरा ☆ सुश्री सुमती जोशी ☆

आई म्हणून घडत असताना आपली मुलं आपल्याला अनेक धडे देत असतात. आपण शिकत जातो, साच्यात बंदिस्त न होता स्वत:ला नव्यानं घडवू लागतो. वयानं लहान असली तरी कधीकधी ती आपल्याला नवीन काहीतरी सुचवत असतात. माझ्याही  बाबतीत तसंच काहीसं घडलं. माझा धाकटा मुलगा आँकॉलॉजी या विषयात सुपर स्पेशलायझेशन करायला तीन वर्षांसाठी अहमदाबादला जायला निघाला, सूनही तिच्या पी.एच.डी.च्या कामात व्यस्त होती. निघतांना तो मला म्हणाला, “आई, मी आता तीन वर्षे इथे येणार नाही. तुला काही करायचं असलं तर कर.” हे वाक्य माझ्या जीवनाला कलाटणी देणारं ठरलं. उत्क्रांती लिहून झाल्यावर आलेलं रिकामपण खायला उठत होतं. एखादी नवीन भाषा का शिकू नये? असं वाटल्यावर शोधाशोध सुरू झाली. गोरेगावला प्रतिमा गोस्वामी एका म्युनिसिपल शाळेत बंगालीचे वर्ग घेत असत. त्यांना फोन लावला, पण सप्टेंबर महिना उलटून गेला असल्यामुळे त्यांनी प्रवेश नाकारला. चिवटपमाणे परत फोन केला. जूनमध्ये वर्ग सुरू झालेले असल्यामुळे चार महिने बरंच काही शिकवून झालं होतं. ते मी पुन्हा शिकवणार नाही, या अटीवर मला एकदाचा प्रवेश मिळाला. पुस्तकं कोलकात्यावरून मागवावी लागत असल्यामुळे त्याही बाबतीत ‘आनंद’च होता. पण झेरॉक्सची सोय असल्यामुळे तोही अडथळा सहज पार करता आला. शाळा, धुळीने भरलेले वर्ग, छोटया मुलांना बसता येईल असे लहान लहान बेंचेस वगैरे अडचणींकडे दुर्लक्ष करायचं ठरवलं. बंग भाषा प्रचार समितीतर्फे चालवलेल्या या कोर्समध्ये प्रत्येक वर्षी एक याप्रमाणे तीन परीक्षा द्यायची सोय होती. माझ्यापाशी तीन वर्षांचाच कालावधी होता. अर्जुनाला दिसणाऱ्या पक्ष्यांच्या डोळ्याप्रमाणे माझी मानसिकता झाली होती. अक्षरं गिरवणं, जोडाक्षरं लिहिणं, अकारांत, आकारांत या क्रमाने शब्द, छोटी वाक्यं असं लेखन चालू होतं. पहिली परीक्षा पार पडली. दुसऱ्या परीक्षेचे वर्ग सुरू झाले. पण विद्यार्थ्यांची संख्या विसावरून तीनवर रोडावली. प्रतिमादीही वयोवृद्ध होत्या. शाळा उघडण्याचा व्याप त्यांनाही नकोसा वाटत असावा. त्यांच्या घरीच क्लास होऊ लागले. लहानशा गॅलरीतल्या बिछान्यावर दीदी स्थानापन्न होत आणि आम्ही भोवताली. दुसऱ्या परीक्षेच्या अभ्यासक्रमाची पुस्तकं इयत्ता आठवीला शोभतील अशी. साहजिकच दीदींना अभ्यासक्रम पूर्ण करायची घाई असे. बंगाली सोडून इतर भाषेतला एकही शब्द त्या उच्चारत नसत. प्राण गोळा करून कान देऊन ऐकायचा आम्ही प्रयत्न करत होतो. बोलायला फारसा वाव नसे. प्रश्नांची उत्तरं लिहिणं, निबंधलेखन, पत्रलेखन, सारांशलेखन असे अनेक विषय अभ्यासात होते. दिदींनी आम्हाला सर्वात चांगली सवय लावली. त्यांनी कधीही उत्तरं डिकटेट केली नाहीत. ‘तुम्हाला येईल तसं लिहा, मी तपासून देईन’ हे त्यांचं घोषवाक्य. त्यामुळेच आम्हाला स्वत: विचार करून लिहायची सवय लागली. दुपारी तीन ते पाच, आठवडयातून दोन वेळा क्लास होत. संसार सांभाळून जमेल तसा अभ्यास. तिसऱ्या परीक्षेचा अभ्यासक्रम मारुतीच्या उड्डाणासारखा. गीतांजली, कादंबरी, नावाजलेल्या लेखकांच्या कथा. प्रश्नोत्तरांबरोबर काव्याचा अर्थ, समीक्षा, कादंबरीतल्या व्यक्तिरेखांचं विवेचन, निबंध, कल्पनाविस्तार आणि व्याकरण याचाही समावेश होता. सायन्सची डिग्री घेतलेल्या माझ्यासारखीला हे फारच डोईजड होणारं होतं. अभ्यास करायची तयारी होती. माझ्या वयाच्या साठाव्या वर्षी मी लेखी आणि तोंडी दोन्ही परीक्षा दिल्या. सर्व विद्यार्थ्यांमधून पहिला क्रमांक मिळाल्याचा दीदींचा फोन आला. ते साल होतं २०१०. तीन वर्षे केलेला आटापिटा सुफळ संपूर्ण झाला. सहज म्हणून मी एका कथेचा अनुवाद केला. तो प्रकाशित झाला. तेव्हापासून अनुवाद करायचा नाद लागला. या एका दशकात मी अनुवाद केलेली सात पुस्तकं-बंगगंध, सुचित्रा भट्टाचार्य यांच्या निवडक कथा भाग १ आणि २, वसुधारा, तुटलेली तार, आकाशप्रदीप या कादंबऱ्या आणि ‘काही जमणार नाही तुला’, ही छोट्यांची कादंबरी उन्मेष प्रकाशनातर्फे प्रकाशित झाली. बुकगंगावर ती उपलब्ध आहेत. साठोत्तरीचा हा प्रवास म्हणजे आनंदयात्रा.

समाप्त

© सुश्री सुमती जोशी

मोबाईल ९८३३२२२१०६. ई-मेल आयडी [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈




मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग दुसरा ☆ सुश्री सुमती जोशी

सुश्री सुमती जोशी

 ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग दुसरा ☆ सुश्री सुमती जोशी ☆

जीवनात बरेचदा योगायोगानं घटना घडत असतात. आपण मात्र सगळ्याचं श्रेय घ्यायला टपलेले असतो. यात गैर काही नाही. तो मनुष्य स्वभाव आहे. नाना जोशी यांनी मला ‘उत्क्रांती’ या विषयावर लिहायला सांगितलं. उत्क्रांती हा विषय आकाशाला गवसणी घालण्यासारखा. ‘उत्क्रांतीचा डार्विनने मांडलेला सिद्धांत’ हा नानांना अभिप्रेत असलेला विषय होता. मी त्याला आधुनिक विज्ञानाची जोड द्यायचे  ठरवले. म्हणजेच जनुकीय शास्त्रानुसार डी.एन.ए. आर.एन.ए. या रेणूंची रचना कशी असते, जनुक म्हणजे काय, याचा सगळ्यांना समजेल असा अर्थ सांगायचा. संशोधनाचा उपयोग मानवजातीच्या कल्याणासाठी व्हावा असाच उद्देश असतो. या संशोधनाचा उपयोग माणसांचं जीवनमान उंचावायला, जीवन सुसह्य व्हायला झालाय का? हे मुद्दे विचारात घेऊन त्यांचा उहापोह करावा अशी माझ्यापुरती सीमारेषा मी आखून घेतली.

या विषयाकडे वळण्यापूर्वी एक महत्त्वाचा मुद्दा इथे सांगायला हवा. माझ्या घराजवळ असलेल्या एका शाळेत राष्ट्रीय शिष्यवृत्तीच्या परीक्षेची तयारी करून घेण्यासाठी वर्ग चालवले जात. इयत्ता आठवी आणि नववीचे विद्यार्थी त्यात सहभागी होत. सी.बी.एस.सी.च्या बारावीपर्यंतचा अभ्यासक्रम यात समाविष्ट केलेला असे. इतका विस्तृत अभ्यासक्रम आठवी आणि नववीच्या मुलांच्या गळी उतरवणं ही तारेवरची कसरत होती.  पश्चिम उपनगरातल्या विविध शाळातली हुशार मुलं इथे प्रवेश घेत. शिवाय नाममात्र पैसे मिळत असल्यामुळे खरी आवड असणारी माणसंच इथे शिकवायला येत. हे वर्ग दुपारी एक ते पाच या दरम्यान असल्यामुळे ही वेळ माझ्यासारख्या गृहिणीला सोयीची होती. शिवाय मायक्रोबायॉलॉजी आणि पॅथॉलॉजी या विषयातली पदवीधर असल्यामुळे मी शिकवू शकेन असा मला विश्वास वाटत होता. हे काम मी एकूण एकवीस वर्षे करत होते. साहजिकच डार्विनचा उत्क्रांतिवाद, जनुकांचा शोध, मूळ रेणूंची रचना याविषयी मला सखोल ज्ञान होतं. हे अवघड विषय आठवी, नववीच्या पातळीवर जाऊन सोपे करून कसे शिकवावेत याचं तंत्र मी माझ्यापुरतं विकसित केलं होतं. डार्विनच्या उत्क्रांतीच्या सिद्धांतावर पुस्तक लिहितांना मला याचा अतिशय उपयोग झाला.

या विषयावरची अनेक पुस्तकं एशियाटिक सोसायटीच्या वाचनालयात होती. त्यांचं अभ्यासपूर्ण वाचन मी सुरू केलं. माझ्या स्वत:च्या नोट्स काढू लागले. सुमारे वर्षभर अभ्यास करून पूर्वतयारी केल्यावर मी प्रत्यक्ष लिहायची सुरुवात केली. संगणक युगाचा प्रारंभ झाला होता. आमच्या घरी डेस्क टॉप घेतलेला होता. त्यावर मराठी फॉन्ट डाऊनलोड करून कसं लिहायचं ही साक्षरता व्हायला हवी होती. म्हणजे हा मुळारंभ आरंभ…होता. ते साध्य झाल्यावर मी लिहू लागले. काही नवीन पुस्तकं खरेदी केली. एकीकडे तेही वाचन चालू होतं. जुन्या लेखनात नव्याची भर पडत होती. संगणकावर लेखन करत असल्यामुळे कापा-चिकटवा-गाळा-पुसा या गोष्टी अनायासे करता येत होत्या. लिहिता लिहिता पृष्ठसंख्या तीनशेच्या वर गेली. अर्थात एडीटिंग करणं अत्त्यावश्यक ठरणार होतं. त्यासाठी मला माझ्या यजमानांची मोलाची मदत झाली. एकशे सत्तर पानांत हा सिद्धांत मांडण्याचा मी प्रयत्न केला आणि हे पुस्तक राजहंस प्रकाशनाकडे पाठवलं. ते दोन हजार आठ साल असावं. राजहंसचे डॉक्टर सदानंद बोरसे यांनी त्याला मान्यता दिली. दोन हजार दहा या साली डार्विनचा सिद्धांत प्रकाशित झाल्याला दीडशे वर्षे होत होती. डिसेंबर महिन्यात ‘उत्क्रांती’ हे मी लिहिलेलं पुस्तक प्रकाशित झालं. या विषयावर तोपर्यंत मराठीत काही लिहिलं गेलं नव्हतं. डार्विन म्हटला म्हणजे लोक त्याच्या बीगलच्या रोमांचकारी सफरीचा वृत्तांत लिहित, पण कोणीच त्याचा उत्क्रांतीचा सिद्धांत सोपा करून लिहिला नव्हता आणि जनुकीय विज्ञानाशी त्याची सांगडही घातली नव्हती. या पुस्तकाची दुसरी आवृत्तीही निघाली. राज्य शासनाच्या त्या वर्षीच्या विज्ञान पुरस्कारासाठी या पुस्तकाची निवड झाली. अनेक योगायोग जुळून आल्यामुळे हे लेखन करता आलं. अर्थात त्याला अभ्यासाची आणि अथक परिश्रमांची जोड द्यावी लागली होती.

क्रमश:….

© सुश्री सुमती जोशी

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≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈