हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “सूर्यांश का प्रयाण”… – श्री महेश श्रीवास्तव ☆ श्री प्रियदर्शी खैरा ☆

श्री प्रियदर्शी खैरा

पुस्तक चर्चा ☆ “सूर्यांश का प्रयाण”… – श्री महेश श्रीवास्तव ☆ श्री प्रियदर्शी खैरा ☆

पुस्तक – सूर्यांश का प्रयाण

रचनाकार – श्री महेश श्रीवास्तव

प्रकाशक – इंदिरा पब्लिशिंग हाउस, भोपाल

मूल्य – ₹165

☆ गागर में सागर – सूर्यांश का प्रयाण ☆ श्री प्रियदर्शी खैरा  ☆

पत्रकारिता के पुरोधा, मध्य प्रदेश गान के रचयिता श्री महेश श्रीवास्तव के नव प्रकाशित प्रबंध काव्य “सूर्यांश का प्रयाण” को आत्मसात करने के लिए आपको उसी भाव भूमि पर उतरना होगा, जिसमें खोकर कवि ने सृजन किया है। साहित्यकारों एवं कलाकारों को कर्ण का चरित्र सदा से ही आकर्षित करता रहा है। किंतु,कवि ने उसे यहां नई दृष्टि से देखा है। मृत्यु शैया पर लेटे कर्ण के मस्तिष्क में उठ रहे विचारों को व्यक्त करना अपने आप में विलक्षण कार्य है। शास्त्रों में कहा गया है कि मृत्यु के समय बीता हुआ जीवन चलचित्र की भांति समक्ष में दिखाई देने लगता है। इस स्तर पर रचना करने के लिए आपका विशद अध्ययन एवं अनुभव आवश्यक है और उसे काव्य में अभिव्यक्त करना और भी दुश्कर कार्य है। इस प्रबंध काव्य में कवि का अध्ययन,अनुभव, चिंतन,मनन एवं विषय पर पकड़ स्पष्ट झलकती है।

कवि ने “सूर्यांश का प्रयाण” को पांच खंडो में विभाजित किया है, यथा कुंती, द्रोपदी, युद्ध, दान और विदा, संक्षेप में कहें तो जन्म से मृत्यु।

कुंती ने जन्म दिया, द्रोपदी,युद्ध और दान के बीच जिया और अंत में कवि ने उसके जीवन को चार पंक्तियों में समेटे हुए विदा दी-

     विदा-कुंवारी मां के प्रायश्चित की पीड़ा

     विदा-त्याज्य को पुत्र बनाने वाली माता  

     विदा- लालसा भरे, नीति रीते दुर्योधन

     विदा- अस्मिता की रक्षा की अग्नि शलाका।

यदि पांच सर्गों का दार्शनिक विश्लेषण करें तो पंचतत्व की भांति कुंती सर्ग पृथ्वी है, द्रोपदी जल, तो युद्ध अग्नि, दान  वायु और विदा आकाश। इन सभी में गूढार्थ छिपे हैं,जिन का विस्तृत विश्लेषण किया जा सकता है। कवि का दार्शनिक अध्ययन भी कई स्थानों पर दृष्टिगत होता है-

   दुख मत कर मां

   सभी को कब मिला सब

   सुख पक्षी हैं उड़ेंगे घोंसलों से।

   बांधती जो डोर सुख की पोटली को

   वह स्वयं बनती दुखों की ही बटों से।

एक और उदाहरण देखिए-

    किसी के हाथ में है सूत्र

    हम तो मात्र अभिनेता, नियंत्रित पात्र

    बंधन में बंधे कर्तव्य के

    अभिनय निभाना है

    स्वयं की भावना इच्छा

    किसी आकांक्षा का मूल्य क्या

    बहती नदी में पात

    हमको डूबते, तिरते

    कभी मझधार में बहते

    कभी तट से लिपटते

    उस विराट समुद्र तक

    चुपचाप जाना है।

देखिए इन चार पंक्तियों में कैसा दर्शन छिपा है-

    क्षमा,दंड, प्रशस्ति, लाभ अलाभ हो

    अंत सबका मृत्यु के ही हाथ में

    और जीव ही केवल न मरता मृत्यु में

    मृत्यु की भी मृत्यु होती साथ में।

इस प्रकार के कितने ही प्रसंग इस पुस्तक में आए हैं। कर्ण, कृष्ण से प्रभावित है। हर सर्ग में कृष्ण किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं। कृष्ण की तरह कर्ण का जन्म कुंती की  कोख से हुआ तो पालन पोषण राधे मां ने किया। कर्ण की यह व्यथा कुंती सर्ग में परलक्षित होती है।

कर्ण पर  तीन महिलाओं का विशेष प्रभाव रहा है, जननी कुंती, ममत्व और अपनत्व देने वाली राधे मां और चिर प्रतिक्षित द्रोपदी । द्रोपदी सर्ग में प्रश्न और उनके समाधान को प्राप्त करता हुआ कर्ण, अपनी पूर्ण प्रखरता के साथ प्रस्तुत हुआ है। इस खंड में महाभारत काल में महिला अधिकारों की बात कवि ने की है जो आज भी प्रासंगिक है –

    स्वयंवर में वस्तु वधू होती नहीं

    स्वयं का चुनने भविष्य स्वतंत्र

    खूंटे से बंधी निरीह

    बलि पशु सी विवश होती नहीं।

           अथवा

     हां किये स्वीकार मैंने पांच पति

     देह मन मेरे मुझे अधिकार है

     धर्म सत्ता सब पुरुष के पक्षधर

     स्त्री द्रोही नियम अस्वीकार है

युद्ध खंड में कवि और भी मुखर हुआ है। उसने धर्म युद्ध पर भी प्रश्न उठाया है-

     प्राण लेना लूटना है युद्ध तो

     मृत्यु तब बलिदान कैसे हो गई

     युद्ध सत्ता के लिए जाता लड़ा

     क्रूर हत्या धर्म कैसे हो गई।

दान खंड की इन पंक्तियों में कृष्ण और द्रोपदी

 के प्रति कर्ण के विचार प्रकट हुए हैं-

    —तुम्हारे प्रति गुप्त श्रद्धा

    द्रोपदी के प्रति असीमित प्रेम के हित

   स्वयं के हाथों स्वयं बलदान अपना कर दिया है।

विदा खंड में कर्ण कृष्ण को पहचान गया है-

    जब भी देखा लगा स्वयं तुम चमत्कार हो

    सम्मोहन का मंत्र,मुक्ति के सिंहद्वार हो

    तुम अनंत के छंद, देह होकर विदेह हो

    मुक्त चेतना में जैसे तुम आर पार हो।

यह काव्य मुक्त छंद में लिखा गया है। पर कविता में लय है,गति है, माधुर्य है। कविता नदी की तरह कलकल बहती हुई बढ़ती है, आनंद देती है और सोचने को विवश करती है। कवि  महाभारत में आए कर्ण से संबंधित  प्रसंगो को स्पर्श करते हुए आगे बढ़ता है।कवि ने गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया है।यही कवि की सफलता है। यह पुस्तक हिंदी साहित्य जगत में मील का पत्थर साबित होगी।

चर्चाकार… श्री प्रियदर्शी खैरा

ईमेल – [email protected]

मो. – 9406925564

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 140 – “मौन के अनुनाद से भरा मैं”. . .” – श्री अजय श्रीवास्तव “अजेय” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री अजय श्रीवास्तव “अजेय” जी की संपादित पुस्तक  मौन के अनुनाद से भरा मैंपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 140 ☆

☆“मौन के अनुनाद से भरा मैं”. . .” – श्री अजय श्रीवास्तव “अजेय” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

मौन के अनुनाद से भरा मैं

अजय श्रीवास्तव “अजेय”

हिन्द युग्म ब्लू , दिल्ली 

संस्करण २०१९

सजिल्द , पृष्ठ १२८, मूल्य २००रु

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल 

अजय बने हुये कवि नहीं हैं. वे जन्मना संवेदना से भरे, भावनात्मक रचनाकार हैं ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

किताब के बहाने थोडी चर्चा प्रकाशक की भी. वर्ष २००७..२००८ के आस पास की बात होगी. हिन्दी ब्लागिंग नई नई थी. इंजी शैलेष भारतवासी और साथियों ने हिन्द युग्म ई प्लेटफार्म को विकसित करना शुरू किया था. काव्य पल्लवन नाम से दिये गये विषय पर पाक्षिक काव्य प्रतियोगिता आयोजित की जाती थी. इंटरनेट के जरिये बिना परस्पर मिले भी अपने साहित्यिक कार्यों से युवा एक दूसरे से जुड़ रहे थे. काव्य पल्लवन के लिये कई विषयों का चयन मेरे सुझाव पर भी किया गया. फिर दिल्ली पुस्तक मेले में हिन्द युग्म ने भागीदारी की. वहां मैं मण्डला से पहुंचा था, जिन नामों से कम्प्यूटर पर मिला करता था उनसे प्रत्यक्ष भेंट हुई. हिन्द युग्म साहित्यिक स्टार्टअप के रूप में स्थापित होता चला गया. आज की तरह लेखक के व्यय पर किताबें छापने का प्रचलन तब तक ढ़ंका मुंदा ही था, पर हिन्द युग्म ने सत्य का स्पष्ट प्रस्तुतिकरण किया. स्तरीय सामग्री के चयन के चलते प्रकाशन बढ़ चला. और आज हिन्दयुग्म स्थापित प्रकाशन गृह है, जो रायल्टी भी देता है और पारदर्शिता से लेखकों को मंच दे रहा है. नई वाली हिन्दी स्लोगन के साथ अब तक वेअनेक लेखको की ढ़ेर किताबें प्रायः सभी विधाओ में छाप चुके हैं. अस्तु पेशे से इंजीनियर पर मन से सौ फीसदी कवि अजय श्रीवास्तव “अजेय” की यह कृति “मौन के अनुनाद से भरा मैं ” भी हिन्द युग्म से बढ़िया गेटअप में प्रकाशित है.

डा विष्णु सक्सेना ने किताब की सारी कविताओ को बारीकी से पढ़कर विस्तृत समालोचना की है जो किताब के प्रारंभिक पन्नो में शामिल है. इसे पढ़कर आप कविताओ का आनंद लेने से पहले कवि को समझ सकते हैं. पुस्तक में ५१ दमदार मुक्त छंद शैली में कही गई प्रवाहमान नई कवितायें शामिल हैं. मुझे इनमें से कई कविताओ को अजय जी के मुंह से उनकी बेहद प्रभावी प्रस्तुति में सुनने समझने तथा आंखे बन्द कर कविता से बनते चित्रमय आनंद लेने का सुअवसर मिला है. यह श्रीवास्तव जी का तीसरा कविता संग्रह है. स्पष्ट है कि वे अपनी विधा का जिम्मेदारी से निर्वाह कर रहे हैं. भूमिका में अजय लिखते हैं कि ” मेरी कवितायें आंगन के रिश्तों की बुनियाद पर कच्ची दीवारों सी हैं जिन पर कठिन शब्दों का मुलम्मा नहीं है. वे बताते हैं कि हर कविता के रचे जाने का एक संयोग होता है, हर कविता की एक यात्रा होती है.”

सचमुच अपने सामर्थ्य के अनुसार अनुभवों और परिवेश को कम से कम शब्दों में उतारकर श्रोता या पाठक के सम्मुख शब्द चित्र संप्रेषित कर देने की अद्भुत कला के मर्मज्ञ हैं अजय जी. कविताये पढ़ते हुये कई बार लगा कि अजय कवि बड़े हैं या व्यंग्यकार ? वे समाजशास्त्री हैं या मनोविज्ञानी ?

पीठ पर बंधा

नाक बहाता

चिल्लाता नंगा बच्चा

या

आत्म शुद्धि करता हूं

दिल दिमाग का

और आत्म शुद्धि करता हूं

दिल और दिमाग का

मन के गटर में सड़ांध मारते

गहरे तले में बैठे

बुराइयों को ईर्ष्या को डाह को साफ करता हूं.

अपनी कविताओ से वे सीधे पाठक के अंतस तक उतरना जानते हैं. विष्णु सक्सेना लिखते हैं कि इन कविताओ के भाव पक्ष इतने प्रबल हैं कि पढ़ते हुये आंखे नम हो जाती हैं. यह नमी ही रचनाकार और रचना की सबसे बड़ी सफलता है.

शीर्षक कविता से अंश पढ़िये…

मौन उस काले जूते का, उस चश्में का

उस छाते का

जिसे बाउजी चुपचाप छोड़ गये.

उनकी रचनाओ में सर्वथा नयी उपमायें,नये प्रतिमान सहज पढ़ने मिलते हैं….

पानी में तैरते

दीपों के अक्स

प्रतिबिंबित होते हैं

आसमान पर

छिटक छिटक कर

या

घूमती रहती हे पृ्थ्वी

मंथर गति से

सांस की तरह

और मैं

एक ठोस,

इकट्ठे सूरज की तलाश में

उलझ जाता हूं.

मैं कह सकता हूं कि अजय बने हुये कवि नहीं हैं. वे जन्मना संवेदना से भरे, भावनात्मक रचनाकार हैं. यह संग्रह खरीद कर पढ़िये आपको कई स्वयं के देखे किन्तु संवेदना के उस स्तर की कमी के चलते ओझल दृश्य पुनः शब्द चित्रों के माध्यम से देखने मिलेंगे. अजय से हिन्दी नई कविता को बेहिसाब उम्मीदें हैं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 141 ☆ काव्य समीक्षा – शब्द अब नहीं रहे शब्द – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा डॉ राजकुमार तिवारी ”सुमित्र’ जी की कृति “आदमी तोता नहीं” की काव्य समीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 141 ☆ 

☆ काव्य समीक्षा – शब्द अब नहीं रहे शब्द – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

काव्य समीक्षा

शब्द अब नहीं रहे शब्द(काव्य संग्रह)

डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

प्रथम संस्करण २०२२

पृष्ठ -१०४

मूल्य २५०/-

आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१८-९

पाथेय प्रकाशन जबलपुर

शब्द अब नहीं रहे शब्द :  अर्थ खो हुए निशब्द – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

*

[, काव्य संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’, प्रथम संस्करण २०२२, पृष्ठ १०४, मूल्य २५०/-, आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१८-९, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]

*

 कविता क्या है?

 

कविता है

आत्मानुभूत सत्य की

सौ टंच खरी शब्दाभिव्यक्ति।

 

कविता है

मन-दर्पण में

देश और समाज को 

गत और आगत को

सत और असत को

निरख-परखकर

कवि-दृष्टि से

मूल्यांकित कार

सत-शिव-सुंदर को तलाशना।

 

कविता है

कल और कल के

दो किनारों के बीच

बहते वर्तमान की

सलिल-धार का 

आलोड़न-विलोड़न।

 

कविता है

‘स्व’ में ‘सर्व’ की अनुभूति

‘खंड’ से ‘अखंड’ की प्रतीति

‘क्षर’ से ‘अक्षर’ आराधना

शब्द की शब्द से

निशब्द साधना।

*

कवि है

अपनी रचना सृष्टि का

स्वयंभू परम ब्रह्म

‘कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू’।

 

कवि चाहे तो

जले को जिला दे।

पल भर में  

शुभ को अमृत

अशुभ को गरल पिला दे।

किंतु

बलिहारी इस समय की

अनय को अभय की

लालिमा पर

कालिमा की जय की।

 

कवि की ठिठकी कलम

जानती ही नहीं

मानती भी है कि

‘शब्द अब नहीं रहे शब्द।’

 

शब्द हो गए हैं

सत्ता का अहंकार

पद का प्रतिकार    

अनधिकारी का अधिकार

घृणा और द्वेष का प्रचार

सबल का अनाचार

निर्बल का हाहाकार।

 

समय आ गया है

कवि को देश-समाज-विश्व का

भविष्य उज्जवल गढ़ने के लिए

कहना ही होगा शब्द से 

‘उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत’

उठो, जागो, बोध पाओ और दो

तुम महज शब्द ही नहीं हो

यूं ही ‘शब्द को ब्रह्म नहीं कहा गया है।’३  

*

‘बचाव कैसे?’४

किसका-किससे?

क्या किसी के पास है

इस कालिया के काटे का मंत्र?

आखिर कब तक चलेगा 

यह ‘अधिनायकवादी प्रजातन्त्र?’१५

‘जहाँ प्रतिष्ठा हो गई है अंडरगारमेंट

किसी के लिए उतरी हुई कमीज।‘१६

‘जिंदगी कतार हो गई’ १७

‘मूर्तियाँ चुप हैं’ १८

लेकिन ‘पूछता है यक्ष’१९ प्रश्न

मौन और भौंचक है

‘खंडित मूर्तियों का देश।’१९

*

हम आदमी नहीं हैं

हम हैं ‘ग्रेनाइट की चट्टानें’२०

‘देखती है संतान

फिर कैसे हो संस्कारवान?’२१

मुझ कवि को

‘अपने बुद्धिजीवी होने पर

घिन आती है।‘२३

‘कैसे हो गए हैं लोग?

बनकर रह गए हैं

अर्थहीन संख्याएँ।२४

*

रिश्ता

मेरा और तुम्हारा

गूंगे के गुड़ की तरह।२६

‘मैं भी सन्ना सकता हूँ पत्थर२८

तुम भी भुना सकते हो अवसर,

लेकिन दोस्त!

कोई उम्मीद मत करो

नाउम्मीद करने-होने के लिए। २९ 

तुमने 

शब्दों को आकार दे दिया  

और मैं

शब्दों को चबाता रहा। ३०

किस्से कहता-

‘मैं भी जमीन तोड़ता हूँ,

मैं कलम चलाता हूँ।३१

*

मैं

शब्दों को नहीं करता व्यर्थ।

उनमें भरता हूँ नित्य नए अर्थ।

मैं कवि हूँ

जानता हूँ

‘जब रेखा खिंचती है३२

देश और दिलों के बीच

कोई नहीं रहता नगीच।

रेखा विस्तार है बिंदु का

रेखा संसार है सिंधु का

बिंदु का स्वामी है कलाकार।‘३३ 

चाहो तो पूछ लो

‘ये कौन चित्रकार है ये कौन चित्रकार?’

 समयसाक्षी कवि जानता है

‘भ्रष्टाचार विरोधी जुलूस में

वे खड़े हैं सबसे आगे

जो थामे हैं भ्रष्टाचार की वल्गा।

वे लगा रहे हैं सत्य के पोस्टर

जो झूठ के कर्मकांडी हैं।३६

*

लड़कियाँ चला रही हैं

मोटर, गाड़ी, ट्रक, एंजिन

और हवाई जहाज।

वे कर रही हैं अंतरिक्ष की यात्रा,

चढ़ रही हैं राजनीति की पायदान

कर रही हैं व्यापार-व्यवसाय

और पुरुष?

आश्वस्त हैं अपने उदारवाद पर।३७

क्या उन्हें मालूम है कि

वे बनते जा रहे हैं स्टेपनी?

उनकी शख्सियत

होती जा रही है नामाकूल फनी। 

मैं कवि हूँ,

मेरी कविता कल्पना नहीं

जमीनी सचाई है।  

प्रमाण?

पेश हैं कुछ शब्द चित्र

देखिए-समझिए मित्र!

ये मेरी ही नहीं

हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे और

ख़ास-उल-खास की

जिंदगी के सफे हैं। 

 

‘जी में आया 

उसे गाली देकर

धक्के मारकर निकाल दूँ

मगर मैंने कहा- आइए! बैठिए।४४  

 

वे कौन थे

वे कहाँ गए

वे जो

धरती को माँ

और आकाश को पिता कहते थे

 

दिल्ली में

राष्ट्रपति भवन है,

मेरे शहर में

गुरंदी बाजार है।४७ 

 

कलम चलते-चलते सोचती है

काश! मैं

अख्तियार कर सकती

बंदूक की शक्ल।

 

मेरे शब्द

हो गए हैं व्यर्थ।

तुम नहीं समझ पाए

उनका अर्थ। ५२

 

आज का सपना

कल हकीकत में तब्दील होगा

जरूर होगा।५३

 

हे दलों के दलदल से घिरे देश!

तुम्हारी जय हो। 

ओ अतीत के देश

ओ भविष्य के देश

तुम्हारी जय हो।

*

ये कविताएँ

सिर्फ कविताएँ नहीं हैं,

ये जिंदगी के

जीवंत दस्तावेज हैं। 

ये आम आदमी की

जद्दोजहद के साक्षी हैं।

इनमें रची-बसी हैं

साँसें और सपने

पराए और अपने

इनके शब्द शब्द से

झाँकता है आदमी। 

ये ख़बरदार करती हैं कि

होते जा रहे हैं

अर्थ खोकर निशब्द,

शब्द अब नहीं रहे शब्द।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२६-५-२०२३, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 140 ☆ काव्य समीक्षा – आदमी तोता नहीं – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा डॉ राजकुमार तिवारी ”सुमित्र’ जी की कृति “आदमी तोता नहीं” की काव्य समीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 140 ☆ 

☆ काव्य समीक्षा – आदमी तोता नहीं – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

काव्य समीक्षा

आदमी तोता नहीं (काव्य संग्रह)

डॉ। राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

प्रथम संस्करण २०२२

पृष्ठ -७२

मूल्य १५०/-

आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१२-७

पाथेय प्रकाशन जबलपुर

☆ आदमी तोता नहीं : खोकर भी खोता नहीं – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

*

महाकवि नीरज कहते हैं-

‘मानव होना भाग्य है

कवि होना सौभाग्य।

 

कवि कौन?

वह जो करता है कविता।

 

कविता क्या है?

काव्य ‘रमणीय अर्थ प्रतिपादक’।

‘ध्वनि आत्मा’, कविता की वाहक।

‘वाक्य रसात्मक’ ही कविता है।

‘ग्राह्य कल्पना’ भी कविता है।

‘भाव प्रवाह’ काव्य अनुशीलन।

‘रस उद्रेक’ काव्य अवगाहन।

कविता है अनुभूति सत्य की ।

कविता है यथार्थ का वर्णन।

कविता है रेवा कल्याणी।

कविता है सुमित्र की वाणी।

*

कवि सुमित्र की कविता ‘लड़की’

पाए नहीं मगर खत लिखती।

कविता होती विगत ‘डोरिया’

दादा जिसे बुन करते थे,

जिस पर कवि सोता आया है

दादा जी को नमन-याद कर।

अब के बेटे-पोते वंचित

निधि से जो कल की थी संचित

कल को कैसे दे पाएँगे?

कल की कल  कैसे पाएँगे?

*

कवि की भाषा नदी सरीखी

करे धवलता की पहुनाई।

‘शब्द दीप’ जाते उस तट तक

जहाँ उदासी तम सन्नाटा। 

अधरांगन बुहारकर खिलता

कवि मन कमल निष्कलुष खाँटा।

‘त्याज्य न सब परंपरा’ कवि मत

व्यर्थ न कोसो, शोध सुधारो’

‘खोज’ देश की गाँधीमय जो  

‘काश!’ बने ऊसर उपजाऊ।

‘रिश्ते’ रिसने लगे घाव सम

है आहत विश्वास कहो क्यों?

समझ भंगिमा पाषाणों की

बच सकता है ‘गुमा आदमी’।

है सरकार समुद जल खारा

कैसे मिटे प्यास जनगण की?

*

कवि चिंता- रो रहे, रुला क्यों?

जाति-धर्म लेबिल चस्पा कर।

कवि भावों का शब्द कोश है।

शब्द सनातन, निज न पराए।

‘संस्कार’ कवि को प्रिय बेहद

नहिं स्वच्छंद आचरण भाए।

‘कवि मंचीय श्रमिक बंधुआ जो 

चाट रहे चिपचिपी चाशनी

समझौतों की स्वाभिमान तज।

कह सुमित्र कवि-धर्म निभाते।

कभी निराला ने नेहरू को

कवि-पाती लिखकर थी भेजी।

बहिन इंदिरा ने सुमित्र को

कवि-पाती लिख सहज सहेजी। 

*

‘मनु स्मृति’ विवाद बेमानी

कहता है सुमित्र का चिंतक।

‘युद्ध’ नहीं होते दीनों-हित

हित साधें व्यापारी साधक।

रुदन न तिया निधन पर हो क्यों?

 ‘प्रथा’ निकष पर खरी नहीं यह।

‘हद है’ नेक न सांसद मंत्री

‘अद्वितीय वह; समझे खुद को।

मंशाराम! बताओ मंशा

क्या संपादक की थी जिसने

लिखा नहीं संपादकीय था

आपातकाल हुआ जब घोषित?

*

युगद्रष्टा होता है कवि ही

कहती हर कविता सुमित्र की।

शब्द कैमरे देख सके छवि

विषयवस्तु जो थी न चित्र की।

भूखा सोता लकड़ीवाला

ढोता बोझ बुभुक्षा का जो

भारी अधिक वही लकड़ी से

सार कहे कविता सुमित्र की।

तोड़ रहा जंजीर शब्द हर

गोड़ जमीन कड़ी सत्यों की

कोई न जाने कितना लावा

है सुमित्र के अंतर्मन में?

चलें कुल्हाड़ी, गिरें डालियाँ

‘क्या बदला है?’ समय बताए।

पेड़ न तोता अंतरिक्ष में

ध्वनि न रंग न रस तरंग ही।

*

ये कविताएँ शब्द दूत हैं ।

भाषा सरल, सटीक शब्द हैं।

सिंधु बिन्दु में सहज न भरना

किन्तु सहज है यह सुमित्र को।

बिम्ब प्रतीक अर्थगर्भित हैं।

नवचिंतन मन को झकझोरे।

पाठक मनन करे तो पाता

समय साक्षी है सुमित्र कवि।

बात बेहिचक कहता निर्भय

रूठे कौन?, प्रसन्न कौन हो?

कब चिंता करते हैं चिंतक?

पत्रकार हँस आँख मिलाते।

शब्द-शब्द में जिजीविषा है,

परिवर्तन हित आकुलता है।

सार्थक काव्य संकलन पढ़ना

युग-सच पाठक पा सकता है।

तब तक तोता नहीं आदमी

जब तक खोता नहीं आदमी।

सपने बोता रहे आदमी

 कविता कहता रहे आदमी।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२९-५-२०२३, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 66 ☆ पुस्तक चर्चा – “भज-नात” (सर्वधर्मिक) – आत्मकथ्य – “भावाभिव्यक्ति” ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी सद्य प्रकाशित पुस्तक “भज-नात” (सर्वधर्मिक) पर आपका आत्मकथ्य – “भावाभिव्यक्ति”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 66 ✒️

?  पुस्तक चर्चा – “भज-नात” (सर्वधर्मिक)- आत्मकथ्य – भावाभिव्यक्ति ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

सभी जानते हैं कि मेरी परवरिश गंगा-जमुनी तहजीब में हुयी । परिवार (मैका व ससुराल) में धर्म भी था और कर्म भी । घर में धर्म के साथ-साथ कर्मों पर विशेष बल दिया जाता था । क़दम उठाने से पहले यह सोचा जाता था कि कही गुनाह तो नहीं हो रहा ।

मेरी खुशकिस्मती थी कि ससुराल भी इन्हीं विचारों की मिली । मेरे पिता नेक दिल इन्सान

थे । हमको सुबह को नमाज के लिये उठा देते थे । रोज़े भी रखने पड़ते थे । वो कहते थे कि “मन्नते मानों तो रोजे, नमाज की मानो, ताकि जिस्म पर जोर पड़े । पैसे से तो सभी जन्नत खरीद सकते है। पास के मन्दिर में हम बच्चे भजन सुनने पहुँच जाते थे। हिन्दु, मुस्लिम का फर्क, बस दीवाली व ईद में चलता था । बाकी सब दिन बराबर । हमारे यहाँ सभी धर्मो का आदर किया जाता था। और आज भी है ।

विद्वानों ने संगीत को 3 भागों में विभाजित किया है- . शास्त्रीय संगीत 2. सुगम संगीत 3. लोक संगीत।

भजन को सुगम संगीत की श्रेणी में रखा गया है। हम इसे शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत की श्रेणी में रख सकते हैं। लेकिन भजन मूल रूप से देवी-देवताओं की प्रसंशा में गाया जाने वाला गीत है, जिसे ईश्वर की आराधना, उपासना की शैली में भी रखते हैं।

सभी भारतीय पद्धतियों में इसका उपयोग भक्ति-भाव के रूप में किया जाता है।

भजन मन्दिरों में भी गाये जाते है भजन को आमतौर पर हिन्दू अपने सर्वशक्तिमान को याद करके इबारत के रूप में गाते हैं।

हिन्दू धर्म को मानने वाले लोग भजन, कीर्तन पूजा के द्वारा, अपने ईश्वर की प्राप्ति के लिये इनका रास्ता अपनाते हैं। प्रार्थना करते हैं और अज्ञात शक्ति उसे पूरा करती है। भजन व कीर्तन के द्वारा की गयी प्रार्थना बहुत जल्द पूरी होती है। व्यक्ति ज्ञान, कर्म, और भक्ति के मार्गो से ईश्वर को पाने का प्रयास करता है। भजन, ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल सर्वश्रेष्ठ मार्ग है ।

भजन व कीर्तन में थोड़ा फ़र्क होता है । भजन एक गीत है और कीर्तन किसी मंत्र विशेष का उच्चारण है। जो कुछ भी है, सब ईश्वर को पाने के लिये है ।

नात का अर्थ होता है – नाता, नातेदार, सम्बन्ध। नात उर्दू साहित्य में एक इस्लामी पद्य रूप है। जिसमें पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब की तारीफ़ करते हुए लिखी जाती है। नात को बड़े अदब वे एहतिराम से गाया जाता है। अक्सर नात ए शरीफ लिखने वाले आम शायर को नात गो शायर कहते हैं, और गाने वाले को नात ख़्वां कहते हैं। नात भी एक तरह से दिल को सुकून और खुद को पैगम्बर साहब के क़रीब होने का अहसास दिलाती है। सूफ़ी सन्त इसे इबादत का जरिया मानते हैं। दूसरा जरिया कव्वाली है।

उर्दू में हम्द व सना लिखी जाती है। हम्दो सना ख़ुदा की तारीफ में लिखी जाती है। इस्लाम धर्म को मानने वाले मुस्लिम लोग इसे तरन्नुम में गाते हैं।

क्रिश्चियन लोग कारोल के माध्यम से प्रभु की प्रशंसा करते हैं। ऐसे ही सिक्ख धर्मावलम्बी संगत के द्वारा वाहे गुरू की गाकर प्रसंशा करते है। अरदास (प्रार्थना) करते हैं ।

हम कह सकते है कि भारत एक ऐसा गुलदस्ता या चमन है, जिसमें तरह-तरह के रंग-बिरंगे, खुशबू के जाति धर्म के फूल खिले हैं। मगर सभी की जमीन एक है। फिर हम अलग-अलग कैसे हो सकते हैं। हम हिन्दुस्तान के चमन के फूल हैं। अलग-अलग भाषा, प्रान्त, जाति, संस्कृति, धर्म हैं। मगर हमारी जड़े एक ही जमीन जिसका नाम हिन्दोस्तान है, से जुड़ी हुई है। जिस दिन मुस्लिम भजन और हिन्दू, नात का आदर करते हुये स्वयं को एक-दूसरे की संस्कृति, धर्म को सम्मान सहित अपनायेंगे । उस इबादत को हम भजन + नात – भजनात कहेंगे । मेरा सपना है कि हम भारतीयों में यह गंगा-जमुनी तहजीब का ईजाद हो। हम प्यार मुहब्बत से रहे। नफ़रतों की फ़सल काटें, मुहब्बत के बीज बोयें।  शायद यही एक सच्चे देशभक्त का, साहित्यकार का मजहब है। गुरुनानक देव ने कहा है।

अवल अल्लाह नूर उपाइया, क़ुदरत के सब बन्दे ।

एक नूर से सब जग उपजया, को भले को मंदे ।।

मेरा सपना है, एक दिन ऐसा आये, जब हमारा धर्म से ज्यादा कर्म पर जोर हो। तब शायद हम ना होंगे । परन्तु इसका सुख हमारी भावी नस्‍लें उठायेंगी ।

मैं अपने परिवार- बेटे-बहू, बेटी-दामाद, नाती-नातिनों, पोता-पोती को इस मार्ग पर चलते देखना चाहती हूं। सभी साहित्यकार को, भाई-बहिनों को, मेरे सरपरस्त वरिष्ठ जनों को, मित्रों -सहेलियों , पड़ोसियों को धन्यवाद देती हूँ । जिनके प्यार से मुझे ताकत मिली और मैं भज-नात पुस्तक की रचना करने में सफ़ल हुई ।

सभी वरिष्ठ जनों का मुझपर आशीष बना रहे ।

धन्यवाद

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 139 – “सकारात्मकता से संकल्प विजय का”. . .” – सम्पादन – सुश्री मंजु प्रभा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री मंजु प्रभा जी की संपादित पुस्तक  सकारात्मकता से संकल्प विजय कापर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 139 ☆

☆“सकारात्मकता से संकल्प विजय का”. . .” – सम्पादन – सुश्री मंजु प्रभा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

सकारात्मकता से संकल्प विजय का

संपादन मंजु प्रभा

दधीची देहदान समिति

प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली

मूल्य चार सौ रुपये, पृष्ठ १८०, प्रकाशन वर्ष २०२२

चर्चा. . . विवेक रंजन श्रीवास्तव

☆ स्वास्थ्य विमर्श पर साहित्य की यह किताब अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

वर्ष २०२० के पहले त्रैमास में ही सदी में होने वाली महामारी कोरोना का आतंक दुनिया पर हावी होता चला गया. दुनिया घरो में लाक डाउन हो गई. कोरोना काल सदी की त्रासदी है. वर्तमान पीढ़ी के लिये यह न भूतो न भविष्यति वाली विचित्र स्थिति थी. आवागमन बाधित दुनियां में संपर्क के लिये इंटरनेट बड़ा सहारा बना. दूसरी कोरोना लहर के कठिन समय में मोबाइल की घंटी से भी किसी अप्रिय सूचना का भय सताने लगा था. अंततोगत्वा शासन और आम आदमी के समवेत प्रयासो की, जीवंतता की, सकारात्मकता का संघर्ष विजयी हुआ. रचनात्मकता नही रुकी. मानवीयता मुखरित हुई. कोरोना काल साहित्य के लिये भी एक सक्रिय रचनाकाल के रूप में जाना जायेगा. इस कालावधि में एकाकीपन से निपटने लेखन के जरिये लोगों ने अपनी भावाभिव्यक्ति की. इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक, गूगल मीट, जूम जैसे संसाधनो के प्रयोग करते हुये ढ़ेर सारे आयोजन हुये. यू ट्यूब इन सबसे भरा हुआ है.

विगत पच्चीस बरसों से दिल्ली एन सी आर में सक्रिय समाजसेवी संस्था दधीची देहदान समिति ने भी स्वस्फूर्त कोरोना से लड़ने का बीड़ा उठाकर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये. जब आम आदमी विवशता में मन से टूट रहा था, सकारात्मकता के विस्तार की आवश्यकता को समझ कर एक आनलाइन व्याख्यानमाला आयोजित की गई. हमेशा से वैचारिक पृष्ठभुमि ही जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है. सकारात्मक विचार ही जीवन संबल बनते हैं. दस दिनो तक कोरोना की विषमता से निपटने के लिये जन सामान्य में मानसिक ऊर्जा का नव संचार मनीषियों के चिंतन पूर्ण वैचारिक संप्रेषण से संभव हुआ. आन लाइन व्याख्यान की तात्कालिक पहुंच भले ही दूर दूर तक होती है, किन्तु वे शाश्वत संबोधन भी तब तक चिर जीवी संदर्भ नहीं बन पाते जब तक उन व्याख्यानो को पुस्तक का स्थाई स्वरूप न मिले. मंजु प्रभा जी ने यह जिम्मेदारी कुशलता पूर्वक उठाकर यह कृति “सकारात्मकता से संकल्प विजय का “ प्रस्तुत की है. इस द्विभाषी पुस्तक में हिन्दी और अंग्रेजी में स्थाई महत्व की सामग्री चार खण्डो में संग्रहित है. पहले खण्ड में तत्कालीन उप राष्ट्रपति एम वैंकैया नायडू का देहदानियों के सम्मान उत्सव के अवसर पर संबोधन संपादित स्वरूप में शामिल है, उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि- अंगदान से न केवल आप दूसरे के शरीर में जीवित बने रहते हैं बल्कि मानवता को भी जीवित रखते हैं. शंकराचार्य विजयेंद्र सरस्वती जी ने अपने व्याख्यान में अशोक वाटिका में सीता जी के हतोत्साहित मन में सकारात्मकता के नव संचार करने वाले हनुमान जी के सीता जी से संवाद वाले प्रसंग की व्याख्या की है. मोहन भागवत जी ने अपने लेख में ” सक्सेज इज नाट फाइनल, फेल्युअर इज नाट फेटल, द करेज टु कंटीन्यू इज द आनली थिंग दैट मैटर्स “ की विशद व्याख्या की है. उन्होंने चर्चिल को उधृत किया है “वी आर नाट इंटरेस्टेड इन पासिबिलिटीज आफ डिफीट, दे डू नाट एक्जिस्ट “. अजीज प्रेम जी ने आव्हान किया है ” कम टुगेदर एन्ड दू एवरी थिंग वी कैन “. उन्होने कहा कि ” दि कंट्री मस्ट कम टुगेदर एज वन. “ सदगुरु जग्गी वासुदेव जी ने विवेचना करते हुये बताया कि ” दि प्राबलेम इज दैट वी आर मोर डेडीकेटेड टु आवर लाइफ स्टाइल देन अवर लाइफ इटसेल्फ “. उन्होनें समझाया कि ” हाउ वी कैन बी पार्ट आफ द सोल्यूशन “. श्री श्री रविशंकर जी ने कहा कि इस वक्त हमें करनी होगी वही बात कि निर्बल के बल राम. ईश्वर पर विश्वास ही हमको मानसिक तनाव से दूर रखता है. उन्होंने बताया कि योग, प्राणायाम, ध्यान और समुचित आहार ही जीवन का सही रास्ता है.

साध्वी ॠतंभरा के कथन का सार था कि “शुभ कर्मो के बिना कभी भी हुआ नहीं निस्तारा, जीत लिया जिसने मन उसने जीत लिया जग सारा, ५ स दुनियां का सार एक है नित्य अबाध रवानी, अपनी राह बना लेता है, खुद ही बहता पानी “

महंत संत ज्ञानदेव सिंह जी ने अपने व्यक्त्व्य में संदेश दिया “उठो जागो और अपने स्वरूप को पहचानो “. मुनि प्रमाण सागर जी ने मन को प्रबल बनाये रखने कासंदेश दिया उन्होने कहा कि तन की बीमारी को कभी भी मन पर हावी न होने दें. प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंग ने कला को संबल बताया, हमारी हाबी ही हमें मानसिक शारीरिक व्याधियों से बचाकर निकाल लाती है. उन्होंने पाजीटिविटी, ग्रेच्युटी, और प्रेयर का महत्व प्रतिपादित किया. निवेदिता भिड़े जी ने कहा कि जो विष धारण करने की क्षमता विकसित कर लेता है, अंततोगत्वा वही जीतता है और अमृत पीता है. उन्होंने स्वामी विवेकानंद की पुस्तक पावर्स आफ द माइंड का उल्लेख किया. श्री रामरक्षा स्तोत्र  तथा विष्णु सहस्त्र नाम का भी उन्होने महात्म्य समझाया.

समाज के विभिन्न क्षेत्रो की आइकानिक हस्तियों को एक मंच पर इकट्ठा करके एक विषय पर केंद्रित आलेखों का उनका यह संग्रह एक संदर्भ कृति बन गया है. आलोक कुमार जी का आलेख कोरोना और युगधर्म पठनीय है. पुस्तक के दूसरे खण्ड “वे लड़े कोरोना से” में उन कुछ व्यक्तियों की चर्चा है जिन्होंने इस लड़ाई में अपना योगदान दिया है, यद्यपि कहना होगा कि यह खण्ड ही अत्यंत वृहत हो सकता है, क्योंकि हर शहर ऐसे विलक्षण समर्पित जोशीले लोगों से भरा हुआ था तब तो हम कोरोना को हरा सके हैं, किन्तु जो भी सात आठ प्रासंगिक उल्लेख पुस्तक में समावेशित हो सका वह एक प्रतिनिधी चित्र तो अंकित करता ही है. तीसरा खण्ड कथाएं अनुपम त्याग की में समिति के मूल उद्देश्य अंग दान को लेकर महत्वपूर्ण सामग्री है. प्रायः हमें अखबारों में भागते वाहनो में अंग प्रत्यारोपण के लिये ग्रीन कारीडोर की कबरें पढ़ने मिलती हैं. हमारा देश दधीचि का देश है, राजा शिवि का देश है. अंगदान को प्रोत्साहन देता यह खण्ड चिंतन मनन के लिये विवश करता है. चौथे खण्ड में दधीची देहदान समिति के कार्यों का वर्णन है. बीच बीच में समिति के क्रिया कलापों, आयोजनो आदि के चित्र व टेस्टीमोनियल्स भी लगाये गये हैं. एक समीक्षक की दृष्टि से मेरा सुझाव है कि बेहतर होता यदि ये चारों ही खण्ड प्रत्येक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो पाता. इसी तरह हिन्दी तथा अंग्रेजी के आलेख एक साथ रखने की अपेक्षा उनके अनुवादित तथा संपादित आलेख तैयार करके दोनो भाषाओ की दो अलग अलग पुस्तकें बनाई जातीं. यद्यपि यह खिचड़ी प्रयोग भी नवाचारी है. अस्तु मैं दधीची देहदान समिति के इस स्तुत्य साहित्यिक प्रयास की मन से अभ्यर्थना करता हूं. स्वास्थ्य विमर्श पर साहित्य की यह किताब अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ प्रस्तुत करने के लिये मंजु प्रभा जी को हार्दिक बधाई और पुस्तक प्रकाशन हेतु वित्त सुलभ करवाने हेतु लाला दीवान चंद ट्रस्ट तथा प्रकाशन के लिये प्रभात प्रकाशन का भी आभार. यह किताब कोरोना संकट के मानसिक तनाव से उबरने का दस्तावेज बन पड़ी है, पठनीय और संदर्भो के लिये संग्रहणीय है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 138 – “नासै रोग हरे सब पीरा. . .” – पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है पं अनिल कुमार पाण्डेय जी की पुस्तक  “नासै रोग हरे सब पीरा” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 138 ☆

☆ “नासै रोग हरे सब पीरा. . .” – पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

नासै रोग हरे सब पीरा. . .

श्री हनुमान चालीसा की विस्तृत विवेचना

लेखक – पं अनिल कुमार पाण्डेय

आसरा ज्योतिष केंद्र, साकेत धाम कालोनी, मकरोनिया, सागर

मूल्य २५० रुपये, पृष्ठ १८४, प्रकाशन वर्ष २०२३

☆ श्री हनुमान चालीसा की यह विस्तृत विवेचना अपूर्व है. पठनीय है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

गोस्वामी तुलसीदास सोलहवीं शती के एक हिंदू कवि-संत और दार्शनिक थे. उन्होंने भगवान राम के प्रति अपनी अगाध भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं. तत्कालीन आक्रांताओ से पीड़ित भारतीय सामाजिक स्थितियों में उन्होंनें समकालीन भक्ति धारा में रामचरित मानस जैसे वैश्विक ग्रंथ की रचना कर लोक भाषा में की. उनकी लेखनी के प्रभाव से हिन्दू धर्मावलंबी राम नाम का आसरा लेकर तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी जीवंत बने रहे. यही नही जब गिरमिटिया देशो में भारतीयो को मजदूरों को रूप में ले जाया गया तो मानस जैसे ग्रंथों के कारण ही परदेश में भी भारतीय संस्कृति और राम कथा का विस्तार हुआ. आज भी यह इन सूत्र भारत को इन राष्ट्रों से जोड़े हुये है.

इस कृति में पंडित अनिल पांडेय जी तर्क सम्मत तथ्य रखते हैं की हनुमान चालीसा की रचना तुलसीदास जी ने गुरु सानिध्य में की थी यद्यपि किवदंति है कि एक बार अकबर ने गोस्वामी जी का प्रताप सुनकर उन्हें अपनी राज सभा में बुलाया और उनसे कहा कि मुझे भगवान श्रीराम से मिलवाओ. तुलसीदास जी ने उत्तर दिया कि भगवान श्री राम केवल अपने भक्तों को ही दर्शन देते हैं. यह सुनते ही अकबर ने गोस्वामी तुलसीदास जी को कारागार में बंद करवा दिया.

कारावास में ही गोस्वामी जी ने अवधी भाषा में हनुमान चालीसा की रचना की. जैसे ही हनुमान चालीसा लिखने का कार्य पूर्ण हुआ वैसे ही पूरी फतेहपुर सीकरी को बन्दरों ने घेरकर धावा बोल दिया. अकबर की सेना बन्दरों का आतंक रोकने में असफल रही. तब अकबर ने किसी मन्त्री के परामर्श को मानकर तुलसीदास जी को कारागार से मुक्त कर दिया. जैसे ही तुलसीदास जी को कारागार से मुक्त किया गया, बन्दर सारा क्षेत्र छोड़कर वापस जंगलो में चले गये. इस अद्भुत घटना के बाद, गोस्वामी तुलसीदास जी की महिमा दूर-दूर तक फैल गई और वे एक महान संत और कवि के रूप में जाने जाने लगे.

श्री हनुमान चालीसा अवधी में लिखी एक लघुतम काव्यात्मक कृति है. इसमें प्रभु श्री राम के महान भक्त एवं सदा हमारे साथ जीवंत स्वरूप में विद्यमान श्री हनुमान जी के गुणों एवं कार्यों का मात्र चालीस चौपाइयों में विशद वर्णन है. इस लघु रचना में पवनपुत्र श्री हनुमान जी की सुन्दर विनय स्तुति व भावपूर्ण वन्दना की गई है. हनुमान चालीसा में प्रभु श्रीराम का व्यक्तित्व भी सरल शब्दों में वर्णित है. अजर-अमर भगवान हनुमान जी वीरता, भक्ति और साहस की प्रतिमूर्ति हैं. शिव जी के रुद्रावतार माने जाने वाले हनुमान जी को बजरंगबली, पवनपुत्र, मारुतीनन्दन, केसरी नन्दन, महावीर आदि नामों से भी जाना जाता है. हनुमान जी का प्रतिदिन ध्यान करने और उनके मन्त्र जाप करने से मनुष्य के सभी भय दूर होते हैं. श्री हनुमान चालीसा अवधी भाषा में लिखे गये सिद्ध मंत्र ही हैं. जिनका पाठ समझ कर, या श्रद्धापूर्वक बिना गूढ़ार्थ समझे भी जो भक्त करते हैं उन्हें निश्चित ही मनोवांछित फल प्राप्त होते देखा जाता है.

ऐसी सर्वसुलभ सहज सूक्ष्म चालीसा की बहुत टीकायें नही हुई हैं. गीत संगीत नृत्य चित्र आदि विविध विधाओ में श्री हनुमान चालीसा को भक्ति भाव से समय समय पर विविध तरह से अवश्य प्रस्तुत किया गया है. विद्वान कथा वाचकों ने जीवन मंत्रों के रूप में अपने प्रवचनो में हनुमान चालीसा के पदों की व्याख्यायें अपनी अपनी समझ के अनुरूप की हैं. श्री बागेश्वर धाम के पं धीरेंद्र शास्त्री जी तो श्री बालाजी हनुमान जी की ही महिमा प्रचारित कर रहे हैं. मैंने कुछ विद्वानो को मैनेजमेंट की शिक्षा के सूत्रों के साथ श्री हनुमान चालीसा के पदों से तादात्म्य बनाकर व्याख्या करते भी सुना है. सच है जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी. स्वयं मैंने विश्व में जहां भी मैं गया श्री हनुमान चालीसा के जाप मात्र से सकारात्मक प्रभाव अनुभव किया है.

पं अनिल कुमार पाण्डेय सचमुच हनुमत चरण सेवक हैं. वे आजीवन मानस, वाल्मीकी रामायण, यथार्थ गीता, भगवत गीता, पुराणो, ज्योतिष के ग्रंथो, गुरु ग्रंथ साहब आदि आदि महान ग्रंथो के अध्येता रहे हैं. “नासै रोग हरे सब पीरा. . . ” नाम से उन्होंने श्री हनुमान चालीसा के प्रत्येक पद, प्रत्येक शब्द की सविस्तार व्याख्या करते हुये इन सभी ग्रंथों से प्रासंगिक उद्धवरण देते हुये विवेचना की है. अनेक कवियों ने जिनमें मेरे पिताजी पूज्य प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी ने भी हनुमत स्तुतियां रची हैं. भगवान हनुमान जी पर मैंने श्री अमरेंद्र नारायण जी, श्री सुशील उपाध्याय जी, की किताबें पढ़ी हैं. मैं दावे से कह सकता हूं कि पं अनिल कुमार पाण्डेय जी द्वारा की गई श्री हनुमान चालीसा की यह विस्तृत विवेचना अपूर्व है. पठनीय है. मनन करने को प्रेरित करती है. पाठक को चिंतन की गहराई में उतारती है. प्रायः हिन्दू परिवारों में स्नान के उपरांत प्रतिदिन लोग श्री हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं. बहुतों को यह कंठस्थ है. नये इलेक्ट्रानिक संसाधनो यू ट्यूब आदि के माध्यम से मंदिरों में श्री हनुमान चालीसा गाई बजाई जाती है. धार्मिक मूढ़ता और राजनैतिक उन्माद में श्री हनुमान चालीसा को अस्त्र के रूप में प्रयोग करने से भी लोग बाज नहीं आ रहे. मेरा सदाशयी आग्रह है कि एक बार इस पुस्तक का गहन अध्ययन कीजीये, स्वतः ही जब आप गूढ़ार्थ समझ जायेंगे तो विवेक जागृत हो जायेगा और आप श्री हनुमान चालीसा जैसे सिद्ध मंत्र का श्रद्धा भक्ति और भावना से सकारात्मक सदुपयोग करेंगें तथा श्री हनुमान चालीसा के अवगाहन का सच्चा गहन आनंद प्राप्त कर सकेंगे. 

खरीदिए और पढ़िये किताब अमेजन पर सुलभ है. aasra. jyotish@gmail. com पर आप लेखक से सीधा संपर्क भी कर सकते हैं. जय जय श्री हनुमान.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘शुन:शेप’ – श्री वसंत आबाजी डहाके  ☆ भावानुवाद – डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार वसंत आबाजी डहाके जी के 1996 में प्रकाशित मराठी काव्य संग्रह ‘शुन:शेप’ का सद्य प्रकाशित एवं लोकार्पित काव्य संग्रह ‘शुन:शेप’ का हिन्दी भावानुवाद डॉ प्रेरणा उबाळे जी द्वारा किया गया है। इस भावानुवाद को साहित्य जगत में भरपूर स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त हो रहा है। आज प्रस्तुत है  ‘शुन:शेप’ डॉ प्रेरणा उबाळे जी का आत्मकथ्य।) 

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘शुन:शेप’ – श्री वसंत आबाजी डहाके  ☆ भावानुवाद – डॉ प्रेरणा उबाळे 

कविता : एक व्यास – ‘शुन:शेप’ के अनुवाद संदर्भ में – डॉ प्रेरणा उबाळे 

विगत पचास वर्षों से मराठी साहित्य जगत संपूर्णत: ‘डहाकेमय’ दिखाई देता है l मराठी कविता, आलोचना, संपादन, आदि साहित्य क्षेत्रों में सहज विचरण करते हुए वसंत आबाजी डहाके जी ने अपना बेजोड़ स्थान बनाया है l जनप्रिय साहित्यकार, भाषाविद, कोशकार, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वसंत आबाजी डहाके जी की कविताओं का अनुवाद करने का सुअवसर मुझे ‘शुन:शेप’ कविता-संग्रह के माध्यम से मिला।

वस्तुत: उनके जन्मदिन पर अर्थात 30 मार्च 2020 को मैंने उनकी कुछ मराठी कविताओं का हिंदी अनुवाद कर उन्हें भेंट स्वरुप प्रदान किया था l उस समय उन्होंने अपनी कुछ अन्य कविताएँ भी भेजी और मैंने जब उनका अनुवाद किया तब पहली कविताओं के अनुवाद के समान ये भी अनुवाद उन्हें पसंद आया l संयोग से ही मनोज पाठक, वर्णमुद्रा पब्लिशर्स, महाराष्ट्र की ओर से वसंत आबाजी डहाके जी के ‘शुन:शेप’ कवितासंग्रह के अनुवाद का प्रस्ताव आया और मैंने तुरंत उसे स्वीकार किया।

वसंत आबाजी डहाके जी की कविताओं को पढ़ने के बाद उनका भाव मन-मस्तिष्क में गूंजता रहता है। वस्तुत: ‘शुन:शेप’ मराठी कविता-संग्रह का प्रकाशन सन 1996 में हुआ है लेकिन कविताएँ पढ़ने पर मैंने यह अत्यंत तीव्रता से अनुभव किया कि सभी कविताएँ वर्तमान समय की परिस्थितियां, जीवन की समस्याएँ, विचार, भावनाएँ, मन की कोमलताएं, अनुभवों आदि को अभिव्यक्त करती हैं। आसपास की सामाजिक परिस्थितियाँ, उनका मनुष्य के मन- मस्तिष्क पर होनेवाला परिणाम, विचारों का जबरदस्त संघर्ष और द्वंद्वात्मकता को उद्घाटित करनेवाला यह कवितासंग्रह है। उदाहरण के लिए, ‘काला राजकुमार’ कविता की ये पंक्तियाँ-

“काले राजकुमार, तुम्हें सुकून नहीं है …शांति नहीं है

जख्मी कौवे के समान चोंच में ही तुम कराहना

मात्र

अश्र

उग्र

काला स्याह रंग”

‘शुन:शेप’ की कविताओं का अनुवाद करते समय डहाके जी की दार्शनिकता, चिंतनपरकता, काव्य-संवेदना, शैली को मैंने समझने का पूरा प्रयत्न किया है। मनुष्य में एक सहज प्रवृत्ति निहित होती है – मानवीय लोभ, बेईमानी, असत्य तथा नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूर करते हुए नर से नारायण बनने की। दूसरे शब्दों में, मनुष्य स्वाभाविक रूप में बुराइयों पर जीत, बर्बरता से ऊपर उठना चाहता है। डहाके जी की ये कविताएँ इसी सकारात्मकता के रास्ते की खोज करने के लिए हमें नई दृष्टि प्रदान करती है। अनुवाद में भी इस सोच को लाना मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा। जैसे –

“मैं प्रार्थना करता हूँ आकाश से गिर पड़नेवाली मुसलियों के लिए

घर-घर में छिपा भय

रास्तों के अकस्मात धोखे,

निगल लेनेवाले संदेह की गुफाएँ

मैं प्रार्थना करता हूँ सहनशीलता के निर्माण के लिए

शांति से रह पाए इसलिए ….”

कवि, आलोचक वसंत आबाजी डहाके जी के व्यक्तित्व में समाज के प्रति सहानुभूति और उसके साथ तादात्म्य, प्रबुद्धता, न्यायपरकता का अद्भुत संगम हुआ है जो उनकी काव्यात्मकता को अधिक प्रखर और धारदार बना देता है और कविताओं में प्रस्तुत सामाजिक विश्लेषण अधिक गहन, विशिष्ट अनुभवजन्य, व्यापक और सत्य तक ले जानेवाला सिद्ध होता है। परिवर्तन की अटूट आकांक्षा भी इस संग्रह की अनेक कविताओं में रेखांकित होती है। ‘चरैवेति चरैवेति’ के संदेश को प्रवाहित करनेवाली ये कविताएँ विभिन्न वर्तमान संदर्भों के साथ प्रस्तुत हुई हैं।

सत्ता, मौकापरस्ती, तानाशाही, सत्ताधारी पक्षों के द्वारा लिए गए निर्णय आदि के प्रति व्यंग्य रूप में क्षोभ अभिव्यक्त हुआ है, वह सटीक रूप में अनूदित करने की मेरी कोशिश रही है। राजनीतिक आशय की कविताओं में सच को टटोलने का प्रयास कवि ने किया है अत: अनुवादक के रूप में उतनी ही समतुल्यता लाना मेरी प्रतिबद्धता बन गई। जैसे – ‘कौए’ कविता। यह कविता विभिन्न कोणों से राजनीतिक निर्णय और उनसे निर्मित स्थितियों को प्रतीकात्मक रूप में अंकित करती है। इसके अनुवाद की कुछ पंक्तियाँ –

“लोग बोलते रहते हैं अविरत और एक भी शब्द अपना नहीं होता

गुलाम भूमि के लोग बोलते समय भी हमेशा दुविधा में रहते हैं। ….

 ……..

हम सबको इस कालकोठरी जैसी इमारत के अहाते में

क्यों बिठा लिया है उसे मालूम नहीं।

इस संग्रह में कुछ कविताएँ प्रेम तथा मनुष्य की कोमलताओं से संबंधित भी हैं। इन कविताओं के अनुवाद में उन कोमलताओं को उद्घाटित करने का प्रयास मैंने किया है। शब्दों के चयन में कुछ सतर्कता बरतते हुए अर्थ के निकट पहुँचने की भी मेरी कोशिश रही है।

अनुवाद पुन:सृजन की प्रक्रिया है और ‘शुन:शेप’ का अनुवाद करना मेरे लिए नवनिर्माण का आनंद प्रदान करनेवाला रहा, मानो लेखन का एक उत्सव।

मानवीय संवेदना, एहसासों को अभिव्यक्त करनेवाला विशाल परिधियुक्त यह संग्रह हिंदी और मराठी के पाठकों को निश्चय ही आकर्षित करेगा। ‘शुन:शेप’ के अनुवाद से पाठकों को निश्चय ही यह अनुभव होगा कि मूल कविता हो अथवा कविता का अनुवाद; उसका समय और व्यास कभी समाप्त नहीं होता; सच्चाई की प्रखरता और सगुणता उसे कालातीत बना देती है।

© डॉ प्रेरणा उबाळे

अनुवादक, पुणे 

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 137 – “उस सफर की धूप छांव” – डा पूजा खरे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा पूजा खरे जी के कथा संग्रह “उस सफर की धूप छांव” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 137 ☆

☆ “उस सफर की धूप छांव” – डा पूजा खरे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति : उस सफर की धूप छांव

लेखिका : डा पूजा खरे

प्रकाशक: ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल

मूल्य: १५० रुपये

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

☆ सेरेंडिपीटी अर्थात मूल्यवान संयोगो की मंगलकामनायें ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

लाकडाउन अप्रत्याशित अभूतपूर्व घटना थी, सब हतप्रभ थे, किंकर्त्व्यविमूढ़ थे, कहते हैं यदि हिम्मत न हारें तो जब एक खिड़की बंद होती है तो कई दरवाजे खुल जाते हैं, लाकडाउन से जहां एक ओर रचनाकारो को समय मिला, वैचारिक स्फूर्ति मिली वहीं उसे अभिव्यक्त करने के लिये नये संसाधनो प्रकाशन सुविधाओ, इंटरनेट के सहारे सारी दुनियां का विशाल कैनवास मिला, मल्टी मीडिया के इस युग में भी किताबों का महत्व यथावत बना हुआ है, नैसर्गिक या दुर्घटना जनित त्रासदियां संवेदना में उबाल लाती हैं, भोपाल तो गैस त्रासदी का गवाह रहा है, कोरोना में राजधानी होने के नाते न केवल भोपाल वरन प्रदेश की घटनाओ की अनुगूंज यहां मुखरता से सुनाई देती रही है, तब की किंकर्त्व्य विमूढ़ता के समय में कला साहित्य ने मनुष्य में पुनः प्राण फूंकने का महत्वपूर्ण कार्य किया, किताब की लम्बी भूमिका में आनंद कृष्ण जी ने त्रासदियों के इतिहास और मानव जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला है, पुस्तक की लेखिका डा पूजा खरे मूलतः भले ही डेंटिस्ट हैं किन्तु उनके संवेदनशील मन में एक नैसर्गिक कहानीकार सदा से जीवंत रहा है, जब कोई ऐसा जन्मजात अनियत कालीन रचनाकार शौक से कुछ अभिव्यक्त करता है तो वह स्थापित पुरोधाओ के क्लिष्ट शब्दजाल से उन्मुक्त अपनी सरलता से पाठक को जीत लेता है, डा पूजा की कहानियां भी ऐसी ही हैं, छोटी, मार्मिक और प्रभावी,

मेरे पिता वरिष्ठ कवि प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” जी की पंक्तियां हैं

“सुख दुखो की आकस्मिक रवानी जिंदगी

हार जीतो की बड़ी उलझी कहानी जिंदगी

भाव कई अनुभूतियां कई, सोच कई व्यवहार कई

पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी “

इस संग्रह “उस सफर की धूप छांव ” में कुल दस हमारे आस पास बिखरी घटनाओ पर गढ़ी गई कहानियां संजोई गई हैं, सुख दुख, हार जीत, जीवन की अनुभूतियों और व्यवहार, इन्हीं  भावों की कहानियां बड़ी कसावट और शिल्प सौंदर्य से बुनी गई हैं, ये सारी ही कहानियां पाठक के सम्मुख अपने वर्णन से पाठक के सम्मुख दृश्य उपस्थित करती हैं, संग्रह की अंतिम कहानी ” मन के जीते जीत ” को ही लें,..

यह कहानी संभवतः वर्ष २०४५ में मूर्त हो सकेगी, क्योंकि कोरोना काल में पैदा हुआ रोहित मां की मेहनत और अपने श्रम से तपकर उससे पहले तो आई ए एस की परीक्षा में प्रथम नही आ सकता, अस्तु यह भविष्य की कल्पना के जीवंत दृश्य बुन सकने की क्षमता लेखिका को विशिष्ट बनाती है, सरल संवाद की भाषा कोई बनावटीपन नहीं अच्छी लगी,

कोरोना काल का इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, राजनीति सब कुछ मिलता है इन कहानियों में, सचमुच साहित्य समाज का दर्पण है, निशान, जागा हुआ सपना, कब तक, घंटी, कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें, चातक की प्यास, प्राण वायु, एक्स फैक्टर, लत और मन के जीते जीत ये कुल दस कहानियां हैं,

जागा हुआ सपना कहानी से ही उधृत करता हूं,..” १४ दिन मुझे अस्पताल के कोरोना वार्ड में ही गुजारने थे,,.. न कोई घर का व्यक्ति न दोस्त, हर तरफ सिर्फ मेरी तरह मरीज, चिकित्सक, नर्स और सफाई कर्मचारी ही दिखते थे,..उस हमउम्र नर्स को मैंने किसी पर खीजते नहीं देखा,. पी पी ई किट के भीतर से आती उसकी दबी दबी सी आवाज से ही उसे पहचानता था… जिस तरह मैंने सिंद्रेला, रँपन्जेल, स्नो व्हाईट, स्लीपिंग ब्यूटी को कभी नहीं देखा उसी तरह उसे भी कभी नही देखा,.. किंचित कवित्व और नाटकीयता भी इस कहानी की अभिव्यक्ति में मिली, यह भी पता चलता है कि लेखिका विश्व साहित्य की पाठिका है, अस्तु मैं ये छोटी छोटी कहानियां एक एक सिटिंग में मजे से पढ़ गया, आपको भी खरीद कर पढ़ने की सलाह दे रहा हूं, इधर ज्ञान मुद्रा प्रकाशन ने भोपाल में सद साहित्य को सामने लाने का जो महत्वपूर्ण बीड़ा उठाया है, उसके लिये उन्हें भी बधाई बनती है, डा पूजा खरे से हिन्दी कहानी जगत को और उम्मीदें हैं, उन्हें उनके ही शब्दों में सेरेंडिपीटी अर्थात मूल्यवान संयोगो की मंगलकामनायें,

एक कमी का उल्लेख जरूरी लगता है किताब में लेखकीय फीड बैक के लिये क से कम एक मेल आईडी दी जानी चाहिये थी, डा पूजा जैसी लेखिका एक किताब लिखकर गुम होने के लिये नहीं हैं,

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 136 – “मेरी तेरी सबकी” – डा अलका अग्रवाल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा अलका अग्रवाल जी के उपन्यास “मेरी तेरी सबकी” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 136 ☆

☆ “मेरी तेरी सबकी” – डा अलका अग्रवाल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति : मेरी तेरी सबकी

लेखिका : डा अलका अग्रवाल

प्रकाशक: ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल

मूल्य: २५० रुपये

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

सार्वजनिक विसंगतियों पर प्रायोगिक प्रहार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

डा अलका अग्रवाल का पहला व्यंग्य संग्रह “मेरी तेरी सबकी” पढ़ा. ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल से बढ़िया गेटअप में आये इस संग्रह पर मेरी प्रथम आपत्ति तो लेखिका के नाम के साथ डा की उपाधि न लगाये जान को लेकर है. उल्लेखनीय है कि श्रीमती अलका अग्रवाल को हाल ही मुम्बई विश्वविद्यालय ने व्यंग्य पुरोधा हरिशंकर परसाई जी पर उनके शोध कार्य के लिये पी एच डी की उपाधि प्रदान की है. अतः इस व्यंग्य के ही संग्रह के आवरण पृष्ठ पर डा अलका अग्रवाल लिखा जाना तर्क संगत है. निश्चित ही किताबें लेखक के नाम और अपने चित्ताकर्षक आवरण से प्रथम दृष्ट्या पाठको को आकर्षित करती ही हैं.

जब हम मेरी तेरी सबकी हाथ में उठाते हैं, अलटते पलटते हैं तो हमें समकालीन सुस्थापित व्यंग्य के हस्ताक्षर श्री हरीश नवल, अलका अग्रवाल के लेखन को युग धर्म के अनूकूल निरूपित करते हैं. तरसेम गुजराल ने लिखा है कि ये व्यंग्य सरोकार से जुड़े हुये हैं. प्रसिद्ध व्यंग्य समालोचक सुभाष चंदर लिखते हैं कि यह संग्रह परसाई परंपरा का लेखन है. सूर्यबाला जी ने लिखा है कि विषय के अनूकूल भाषाई बुनाव अलका जी की लेखनी में है. सुधा अरोड़ा ने संग्रह को असरकारक बताया है तो स्नेहलता पाठक ने अलका के लेखन को आम जनता के जीवन का संघर्ष बताया है. विवेक अग्रवाल ने किताब के शीर्षक लेख से पांच बंदरो के सबक की चर्चा की है. इन सात संतुतियों के बाद स्वयं अलका अग्रवाल ने अपनी बात में लिखा है कि ” व्यंग्य का मतलब केवल विरोध हरगिज़ नहीं होता, बल्कि रचनात्मक विध्वंस होता है। मैं कब व्यंग्य लिखती हूं? जब भी कोई विसंगति सालने लगती है। बेशक राजनीति हम सबके जीवन में अहम स्थान रखती है। राजनीति का अर्थ केवल वोट, कुर्सी, शासन ही नहीं होता। रिश्तों में, दोस्ती में, न जाने कहां-कहां राजनीति ने अपने पैर पसारे हुए हैं। माप- तौल कर ही रिश्ते बनाए जाते हैं। यह सबसे बड़ी विसंगति है। इतना हमेशा चाहती हूं कि नेताओं की राजनीति को देखने की क्षीर-नीर दृष्टि मिलती रहे।”. उनकी यह दृष्टि ही संग्रह को महत्वपूर्ण बना रही है.

मैंने अलका अग्रवाल को बहुत पहले से पढ़ा है उनके लेखन परिवेश, तथा भाव विस्तार से सुपरिचित हूं और उनके व्यंग्य संग्रह पर बहुत कुछ लिख सकता हूं. इन मूर्धन्य रचनाकारों की विस्तृत समीक्षाओ के बाद मेरा काम बड़ा सरल हो गया है. १४० पृष्ठीय इस संग्रह में कुल २५ व्यंग्य लेख समाहित हैं. अलका जी का लेखन परसाई जी से प्रभावित है. संग्रह के व्यंग्य साधो ये जग क्यों बौराना, साध़ो, सोच फटी क्यों रे ? जैसे शीर्षक ही इसकी बानगी देते हैं. व्यंग्य की तीक्ष्णता के साथ विषय में किंचित हास्य का समावेश करना और लेखन के प्रवाह में विषय से न भटकना एक बड़ी कला होती है. लेखन के निर्वाह की यह कला इस किताब में पढ़ने मिलती है.

वे बेचारे, इच्छा मृत्यु ले लो, ये कौन सा पसीना?, भगवान इनकी झोली…, नज़र बदलो नज़रिया बदलो, कैसे उठाऊँ गांडीव ?, बोध ज्ञान आदि वे व्यंग्य हैं जिनमें पौराणिक प्रचलित प्रतीकों का अवलंबन लेकर उत्तम तरीके से अपनी बात कही गई है. कोरोना काल की रचना तलब-लगी जमात में लेखिका ने लाकडाउन जनित स्थितियों का मनोरंजक कटाक्ष पूर्ण वर्णन किया है, अपने कहन में बीच बीच में काव्य उद्वरण का सहारा भी लिया है. नोट, नोटा और लोटा, ड्रैगनफ्लाय, ये तो फेसबुकिया गई हैं, चमकेश वॉरियर्स, बिन डेटा सब सून, व्हॉट्सऐप बाबा की जय, समकालीन नये विषयों की रचनायें हैं, जिनका निर्वाह, विसंगतियों को पकड़ कर पाठक के मन तक पहुंचने में लेखिका कामयाब हुई हैं. पुस्तक का शीर्षक व्यंग्य तेरी मेरी सबकी एक अच्छा व्यंग्य है. इसमें अलका लिखती हैं..

” दिमाग की बत्ती थी कि जल ही नहीं रही थी, इतने में छोटी सी एक बत्ती कहीं जली और उन्हें कुछ खुसुर-पुसुरसुनाई देने लगी‌। दरवाज़े की झिरी से देखा तो आंखें फटी की फटी रह गईं। देखते क्या हैं कि गांधीजी के बंदर अब मिट्टी के माधो नहीं बल्कि चल-फिर रहे हैं, बात भी कर रहे हैं। पर यह क्या, बंदर तीन की जगह पांच कैसे हो गए!!? क्या तीन-पांच चल रही है?

बंदरों को पता नहीं था कि अवसरवादी नेताजी वहां घात लगाए बैठे हैं। उनमें से एक बोला, “यारों ये अवसरवादी कितना धूर्त है! एक तरफ गांधीजी के हत्यारे की जयंती मनाता है, और गांधी जयंती पर कल राजघाट पर फूल चढ़ाने आया था।”

अलका जी की विशेषता है कि वे अपने व्यंग्य लेखन में कभी स्वप्न में परसाई जी से मिलकर बतियाती हैं, तो कभी गांधी जी के बंदरो को जीवित करके उनसे संवाद करती हैं, कभी भगवान और भक्त की मुलाकातें करवा देती हैं.

घोटाला महोत्सव मनाओ सब मिल!, ब से बड़े आदमी, अथ श्री पति-पत्नी कथा, पुल उतारेंगे भव सागर के पार, खोजीं हो तो तुरत ही मिलिहों…, हम होंगे कामयाब! पर…, कविवर महोदय की टंगाटोली, ईससुरी जीएसटी जैसे

मजेदार लेखों का संग्रह है मेरी तेरी सबकी, जिसमें सार्वजनिक विसंगतियों पर प्रायोगिक प्रहार किया गया है. मेरी लेखिका को उनके इस पहले संग्रह पर हार्दिक बधाई. व्यंग्य जगत को अलका अग्रवाल से और बहुत कुछ की अपेक्षायें हैं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

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