हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 29 ☆ काव्य संग्रह – गीत गुंजन – श्री ओम अग्रवाल बबुआ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  कवि ओम अग्रवाल बबुआ जी  के  काव्य  संग्रह  “गीत गुंजन” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 29 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा –काव्य   संग्रह   – गीत गुंजन

पुस्तक –  ( काव्य – संग्रह ) गीत गुंजन

लेखक – कवि ओम अग्रवाल बबुआ

प्रकाशक –प्रभा श्री पब्लिकेशन , वाराणसी

 मूल्य – २५० रु, पृष्ठ ११६, हार्ड बाउंड
 ☆ काव्य   संग्रह   – गीत गुंजन  – श्री  ओम अग्रवाल बबुआ –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

गीत , कविता मनोभावी अभिव्यक्ति की विधा है, जो स्वयं रचनाकार को तथा पाठक व श्रोता को हार्दिक आनन्द प्रदान करती है.

सामान्यतः फेसबुक, व्हाट्सअप को गंभीर साहित्य का विरोधी माना जाता है, किन्तु स्वयं कवि ओम अग्रवाल बबुआ ने अपनी बात में उल्लेख किया है कि उन्हें इन नवाचारी संसाधनो से कवितायें लिखने में गति मिली व उसकी परिणिति ही उनकी यह प्रथम कृति है.

किताब में धार्मिक भावना की रचनायें जैसे गणेश वंदना, सरस्वती वन्दना, कृष्ण स्तुतियां, दोहे, हास्य रचना मेरी औकात, तो स्त्री विमर्श की कवितायें नारी, बेटियां, प्यार हो तुम, प्रेम गीत, आदि भी हैं.

पहली किताब का अल्हड़ उत्साह, रचनाओ में परिलक्षित हो रहा है, जैसे यह पुस्तक उनकी डायरी का प्रकाशित रूपांतरण हो.

अगली पुस्तको में कवि ओम अग्रवाल बबुआ जी से और भी गंभीर साहित्य अपेक्षित है.

पुस्तक से चार पंक्तियां पढ़िये ..

आशाओ के दर्पण में

पावन पुण्य समर्पण में

जब दूर कहीं वे अपने हों

जब आंखों में सपने हों

तब नींद भाग सी जाती है

जब याद तुम्हारी आती है.

रचनायें आनन्द लेने योग्य हैं.

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #10 – स्त्रियां घर लौटती हैं’ …#अर्चित ओझा की दृष्टि में ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की दसवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री अर्चित ओझा जी  (अंग्रेजी भाषा में ख्यात बुक रिव्युअर)  की अंग्रेजी भाषा में  समीक्षा का श्री संजय उपाध्याय जी द्वारा  हिंदी अनुवाद  “स्त्रियां घर लौटती हैं’ …#अर्चित ओझा की दृष्टि में” ।)

आप श्री अर्चित ओझा जी की ई- अभिव्यक्ति में प्रकाशित अंग्रेजी समीक्षा निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं।

☆ पुस्तक विमर्श #9 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “There exists books like this that make you halt and observe” – Shri Archit Ojha  ☆

 

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

☆ पुस्तक विमर्श #10 – स्त्रियां घर लौटती हैं’ …#अर्चित ओझा की दृष्टि में ☆

#अर्चित ओझा – अंग्रेजी भाषा में ख्यात बुक रिव्युअर

अंग्रेजी  पुस्तकों के देश में #प्रथम वरीयता प्राप्त और अमेज़न के आंकड़ों के अनुसार #’गुडरीड्स’ में सबसे अधिक #लोकप्रिय बुक रिव्युअर… पहली बार कर रहे हैं किसी हिन्दी पुस्तक पर बात..

आज स्मृति में लौटते हुए मैं अपने स्कूल के दिनों में वापस जाता हूं तो मुझे याद आता है बुधवार की सुबह का इंतजार, क्योंकि उस दिन हिन्दी के अखबार में कविताएं पढ़ने मिलती थीं और मैं अखबार लेकर देर तक बैठा रहता था, उन कविताओं में शब्दों का जो संयोजन होता था वह कैसा अनूठा आनंद देता था, और मुझे इस बात पर हैरत होती थी कि कैसे बस शब्दों का खेल किसी चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकता है और वे शब्द अपने आप में कितने सशक्त और लुभावने हो जाते हैं उनके लिये जो साहित्य के रास्ते शांति और आनंद की खोज करने में समर्थ हैं।

जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ वैसे-वैसे वह सब पीछे छूटता गया, आज जब हम जीवन में आगे बढ़ने के लिये लगातार लगभग दौड़ रहे हैं तब उसमें वह शांति के अंतराल कम होते जा रहे हैं और होता यह है कि हम रोज हमारे आस पास घटने वाली ऐसी बहुत सी बातों को छोड़ देते हैं जो हमारे चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकती थीं और फिर शायद हम बूढ़े होने लगते हैं फिर कभी हमें महसूस होता है कि काश हम उन अंतरालों में रुके होते।

‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ जैसी पुस्तकें आपको एक विराम देती हैं जिसमें आप बहुत कुछ वह देख पाते हैं जो अनदेखा रह गया है। इस पुस्तक की कविताओं को पढ़ने के मानी हैं एक ऐसी दुनिया में पहुंच जाना जहां आपको सूरजमुखी, आम, जामुन, तुलसी और बरसात के बाद की मिट्टी की सुगंध अनुभव होती है। अब आप भीतर से वह बच्चे हो जाते हैं जो उल्लास से भरे हुए स्कूल से घर लौटते हैं और उन सब त्यौहारों को मनाते हैं जिन्हें मनाना उम्र के इस पड़ाव में भूला जा चुका है। गुनगुनी धूप में सुस्ताते हैं, पतंग उड़ाते हैं, दोस्तों के साथ ऐसे दौड़ लगा सकते हैं कि धरती भी तेज चलने लगती है, वो एक समय होता है जिसमें मौसम आते हैं और उनका आना महसूस होता है, बरसात आती है, गर्मी आती है, ठण्ड आती है और ठण्ड के साथ लिपटा हुआ एक कम्बल का अहसास भी आता है।

इन कविताओं में पिता के आंसू का नमक छरछराता है जब उसकी बेटियां बिदा हो रही हैं, मां से बात होती है जो दिन रात खटकर अपना घर संजोती है वो समय खनखनाता है जिसमें पड़ोसियों से खूब बात होती थी, यहां घूमते हुए मेला घूमते हैं और घूमते घूमते इतने छोटे से बच्चे हो जाते हैं कि उन खिलौनों के लिये जिद करें जो कि हाथ तो आएंगे पर बस अभी टूटकर बिखर जाएंगे। दोस्तों के साथ बात-बेबात हंसते हैं, बिना टिकट लगाए खत भेज देते हैं, आधी रात को उठकर चांद देखते हैं और ये भी देखते हैं कि कोई हमें देखता तो नहीं। गली में पैदा हुए कुत्तों से राग लगा लेते हैं और वे कहीं चले जाते हैं तो फूट-फूटकर रोते हैं।

‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ की कविताएं पढ़ना एक तरह से उस क्वारेपन को उस बचपन को फिर से जीना है जहां कुछ भी छूट जाने की पीड़ा या व्यथा नहीं है, इन कविताओं में कई ऐसी जगहें हैं जो अपनी सरलता और सहजता से हाथ पकड़कर खींच लेती हैं।

इस संग्रह में छप्पन कविताएं हैं और कहना नहीं होगा कि सबका अपना-अपना एक अलहदा किस्म का कलेवर है, इनमें से किसी को रखना और किसी को छोड़ना ये बेहद मुश्किल भरा है पर फिर भी कुछ कविताएं और उनके हिस्से एक गूंज की तरह मेरे साथ रह गए हैं।

पुस्तक की शीर्षक कविता के नाम के साथ कुछ कविताओं के अंशों का मैं अंग्रेजी अनुवाद कर रहा हूं ताकि बहुत समय से मुझे अंग्रेजी में पढ़ने वाले इस विलक्षण कवि के अद्भुत सृजन लोक की भव्यता को निहार सकें। मुझे ये भरोसा है कि ये कविताएं मेरे अनुवाद के बावजूद अपनी अर्थवत्ता को नहीं खोएंगी।

स्त्रियां घर लौटती हैं

…घर भी एक बच्चा है स्त्री के लिये

जो रोज थोड़ा और बड़ा होता है

Women Return their Homes: A home too, is a child for a woman, that grows a little more, every day.

पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां

फेंकी गई खीज या ऊब से

मेज या सोच से गिराई गई,

गिरकर भी बची रही उनकी नोंक

पर भीतर भरोसे का सीसा टूट गया

उन्हें उठाकर फिर से चलाया गया

The domestic women have been treated like pencils: Thrown with anger and boredom, dropped down from the desk and mentality, a bit of nib got saved, but the lead inside is broken, still they were picked up and employed for selfish purposes again and again.

कहां हो तुम

कमरों में कैद बच्चे

कीचड़ में लोटकर खेलने लगे हैं

दरकने लगा है आंगन का कांक्रीट

उसमें कैद माटी से अंकुए फूटने लगे हैं,

कहां हो तुम

Where are you: The kids who were locked inside their homes are now playing in the mud, rolling and laughing, a tuft of grass has started growing through a crack in the concrete, where are you?

टाइपिस्ट

मैंने कहा हिम्मत, और उसने एक बार लिखा हिम्मत

फिर एक बार हिम्मत और

सारा पेज उसकी हिम्मत से भर गया

Typist:

I said “Courage”, and she wrote it once, I said “courage” again, and the whole page got filled with that one word!

पिता

कितने कितने बर्फीले तूफान तुम्हारे देह को छूकर गुजरे पर हमको छू न सके, तुम हिमालय थे पिता

Dad: All your life, many icy storms went through you, and you did not let any of them touch us. Dad, you were Himalayan.

मुझे यह गहरा विश्वास हो चला है कि विश्व साहित्य में हिन्दी कविता ही एक ऐसी विधा है जिसका पूरा भाव हम श्रोता या पाठक के स्तर पर ग्रहण नहीं कर सकते हिन्दी कविता कुछ ऐसा गाती है जो भिन्न भिन्न पाठकों पर वैसा भिन्न भिन्न काम करती है जैसा उन्होंने जीवन जिया है या देखा है। मैने एक रूसी कवियित्री की कविता पढ़ी थी जिसमें वो कहती हैं कि वे हिन्दी से कितना प्यार करती हैं और स्त्रियां घर लौटती हैं पढ़ते हुए मैं समझ पाया हूं कि वो हिन्दी को क्यों इतना प्यार करती होंगी।

मैं इस पुस्तक ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ की प्रकृति और सामर्थ्य की  इसीलिये सराहना करता हूं कि ये कविताएं हृदय को स्पंदन और ऊष्मा देकर रोमांचित करती हैं और इससे भी अधिक ये कि मैं इन कविताओं के प्रति गहरी कृतज्ञता अनुभव करता हूं कि इसने मेरे भीतर के दृष्टा को फिर से जागृत कर दिया।

शीर्षक कविता ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ कवि के गहरे और आंतरिक अवलोकन के लिये लगभग स्तब्ध कर देती हैं, इन कविताओं में सब है, धरती बचाने की जिद, मौसम की खुशनुमा आहटें, मित्रता, प्रेम, घर, मातृत्व की गरिमा, स्त्री की सबलता का स्वर इन्हें पढ़ता हूं और फिर फिर पढ़ता हूं और नये नये अर्थ और व्यंजनाएं ध्वनित होते हैं, काश मैं अच्छा अनुवादक होता तो इनका अंग्रेजी अनुवाद करता ताकि अंग्रेजी के पाठक भी उस आनंद का अनुभव कर पाते जो इन कविताओं में निहित है।

यदि आप मेरी तरह हिन्दी कविता के इर्द गिर्द न रह सके हों, तो ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ आपको अपनी जड़ों की ओर लौटा ले जाएगी, और यदि आप हिन्दी में पढ़ ही रहे हैं तो यह संग्रह आपके इस विश्वास को सबल करेगा कि हिन्दी साहित्य का भविष्य समर्थ हाथों में है।

                                                         – अर्चित ओझा

(मूल अंग्रेजी भाष्य का  श्री संजय उपाध्याय जी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 28 ☆ व्यंग्य संग्रह – निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे – श्री अजीत श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री श्रवण कुमार उर्मलिया के  व्यंग्य  संग्रह  “निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 28☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह  –  निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे

पुस्तक –  (व्यंग्य  संग्रह )निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे

लेखक – श्री श्रवण कुमार उर्मलिया

प्रकाशक –भारतीश्री प्रकाशन , दिल्ली ३२

मूल्य – २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड

 ☆ व्यंग्य संग्रह   – निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे – श्री श्रवण कुमार उर्मलिया–  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

इस सप्ताह मुझे इंजीनियर श्रवण कुमार उर्मलिया जी की बढ़िया व्यंग्य कृति ‘निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पढ़ने का सुअवसर सुलभ हुआ.

बहुत परिपक्व, अनुभव पूर्ण रचनायें इस संग्रह का हिस्सा हैं. व्यंग्य के कटाक्षो से लबरेज कथानको का सहज प्रवाहमान व्यंग्य शैली में वर्णन करना लेखक की विशेषता है.पाठक इन लेखो को पढ़ते हुये  घटना क्रम का साक्षी बनता चलता  है. अपनी रचना प्रक्रिया की विशद व्याख्या स्वयं व्यंग्यकार ने प्रारंभिक पृष्ठो में की है. वे अपने लेखन को आत्मा की व्यापकता का विस्तार बतलाते हैं. वे व्यंग्य के कटाक्ष से विसंगतियो को बदलना चाहते हैं और इसके लिये संभावित खतरे उठाने को तत्पर हैं.

पुस्तक में ५२ व्यंग्य और २ व्यंग्य नाटक हैं. ५२ के ५२ व्यंग्य, ताश के पत्ते हैं, कभी ट्रेल में, तो कभी कलर में, लेखों में कभी पपलू की मार है, तो कभी जोकर की. अनुभव की पंजीरी से लेकर निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पीटने के लिये ईमानदारी की बेईमानी, भ्रष्टाचार का शिष्टाचार व्यंग्यकार के शोध प्रबंध में सब जायज है. हर व्यंग्य पर अलग समीक्षात्मक आलेख लिखा जा सकता है, अतः बेहतर है कि पुस्तक चर्चा में मैं आपकी उत्सुकता जगा कर छोड़ दूं कि पुस्तक पठनीय, बारम्बार पठनीय है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव,

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #9 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “स्त्रियों  को लेकर बहुत  ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है” – श्री नरेंद्र पुण्डरीक ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री  नरेंद्र पुण्डरीक के विचार “स्त्रियों  को लेकर बहुत  ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है ” ।)

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

☆ पुस्तक विमर्श #9 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “स्त्रियों  को लेकर बहुत  ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है ” – श्री नरेन्द्र पुण्डरीक ☆

 

स्त्रियां घर लौटती हैं’ के लिए वरिष्ठ कवि एवं सम्पादक ‘माटी’ आदरणीय श्री नरेन्द्र पुण्डरीक जी की टिप्पणी…

विवेक चतुर्वेदी कविता संकलन “स्त्रियां घर लौटती हैं ” काफी दिन पहले मिला था । तब से पाठकों द्वारा इतना समादृत किया गया कि कविता के प्रति बढते लगाव को देख कर लगा कि  अच्छी कविता के प्रति पाठकों की भूख लगातार बनी हुई है।

जो लोग  कहते है कि कवितायेँ कौन पढता हैं उन्हें विवेक की यह कविताएं जरुर एक बार पढ़नी चाहिये।

जिन लोगों को कविता में भाव और भाषा का प्रीतिभोज अच्छा लगता है इन कविताओं में उन्हें प्रीतिभोज का उल्लास और तृप्ति दोनों मिलेगी।

इनमें मेरी अपनी भाषा का वह गौरव दिखाई दिया  जिन्हें पढ़ कर मैं भीतर तक भीग गया । बुन्देली शब्दों के गोथ की लम्बी यात्रा दिखाई दी।

स्त्रियों  को लेकर बहुत  ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है। स्त्रियां  जो दिन भर सूरज के साथ उठ कर सूरज के साथ घर लौटती हैं।

विवेक की कविता समकालीन हिन्दी कविता की  गहरी आश्वस्ति है।

 

                                                    – नरेन्द्र पुण्डरीक

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

ई-अभिव्यक्ति  की ओर से  युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी को इस प्रतिसाद के लिए हार्दिक शुभकामनायें  एवं बधाई।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “एक अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है” – श्री आलोक मिश्रा ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री आलोक कुमार मिश्र के विचार “एक अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है ” ।)

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “एक अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है ” – श्री आलोक कुमार मिश्र  ☆

‘आंगन में बंधी डोरी पर

सूख रहे हैं कपड़े

पुरुष की कमीज़ और पतलून

फैलाई गई है पूरी चौड़ाई में

सलवटों में सिमटकर

टंगी है औरत की साड़ी

लड़की के कुर्ते को

किनारे कर

चढ़ गयी है लड़के की जींस

झुक गई है जिससे पूरी डोरी

उस बाँस पर

जिससे बाँधी गई है डोरी

लहरा रहे हैं पुरुष अन्तःवस्त्र

पर दिखाई नहीं देते महिला अन्तःवस्त्र

वो जरूर छुपाये गये होंगे तौलियों में ।।’

‘डोरी पर घर’ नाम की यह कविता सूखने को डाले गये कपड़ों के बहाने घर-परिवार-समाज में स्त्री की स्थिति की थाह ही नहीं लेती बल्कि पितृसत्ता के महीन धागों को उघाड़ती भी है। यह कविता हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुए काव्य संग्रह ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’  में शामिल ऐसी ही कई स्त्री चेतना और पूर्ण समानुभूति से लैस कविताओं में से एक है। इस संग्रह के रचयिता हैं हमारे समय के चर्चित कवि विवेक चतुर्वेदी जी।

पहली ही कविता ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ से यह संग्रह पाठक को सम्मोहित कर लेता है। रोजमर्रा की पारिवारिक घटना जब इस उदात्त संवेदना के साथ सामने आती है तो अपने ही घर की महिलाएँ हमारे जेहन में अपनी सशक्त उपस्थिति के साथ आ धमकती हैं और हमें खुद में झाँकने का संदेश देने लगती हैं। पंक्तियां देखिए-

‘स्त्रियों का घर लौटना

पुरुषों का घर लौटना नहीं है

पुरुष लौटते हैं बैठक में ,फिर गुसलखाने में

फिर नींद के कमरे में

स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है

वो एक साथ, आँगन से

चौके तक लौट आती है।’

सच में हम पुरुषों को कितने ही स्त्रैण गुणों को सीखने की जरूरत है, वह यह कविता स्पष्ट करती है।

‘माँ’ पर न जाने कितनी कविताएँ लिखी गईं पर इस संग्रह में शामिल ‘माँ’ कविता उसे पूरी दुनिया के बच्चों की नेमत घोषित करती है न कि अपनी माँ को खुद से ही जोड़ती है। दूर होने के बाद भी वह नेमतों संग दिखती है।

‘माँ चाँद के आँगन में बैठी है

अब वो दुनिया भर के

बच्चों के लिए

आम की फाँक काट रही है।।’

कविता ‘औरत की बात’ में औरत होने को सृजन और उत्पादकता से जोड़ कर विवेक चतुर्वेदी जिस तरह पेश करते हैं वह लाजवाब है। उनके चलने, देखने, करने से प्रकृति सहयोजित होकर चलती है। एक पिता का अपनी नन्हीं बच्ची के साथ होने से पैदा हो रही भावुकता कविता ‘भोर…होने को है’ में एक नहीं सैकड़ो ऐसी पृथ्वियों की कल्पना से एकाकार हो जाती है जो अपनी पूरी प्रकृति में सभी दोषों से विमुक्त हो। कविता ‘टाइपिस्ट’ एक छोड़ी हुई औरत की हिम्मत और जिजीविषा को पूरी गरिमा के साथ उपस्थित करती है।

तमाम मंचीय स्त्री विमर्श के खोखलेपन को उजागर करते हुए कवि ने नेपथ्य में चलने वाली पुरुषों की कामुक लोलुपता के संवादों को कविता ‘स्त्री विमर्श’ में उघाड़ कर रख दिया है। वे लिखते हैं-

‘उस रात विमर्श में

स्त्री बस नग्न लेटी रही

न उसने धान कूटा

न पिघलाया बच्चे को दूध

न वो ट्राम पकड़ने दौड़ी

न उसने देखी परखनली

न सेंकी रोटी

रात तीसरे पहर उन सबने

अलगनी पर टंगे

अपने मुखौटे पहने

और चल दिए

वहाँ छूट गई

स्त्री सुबह तक

अपनी इयत्ता ढूंढती रही।।’

‘शो रूम में काम करने वाली लड़की’ नामक लंबी कविता में कवि कुछ इस तरह परकाया प्रवेश कर जाता है कि लगता है जैसे ऐसी कोई कामगार लड़की ही हमसे आँखों में आंख डाल बात कर रही हो और पूछ रही हो- ‘सुनो! इस सदी में स्त्री को/ जबरिया काम पर भेजने वाले/ स्त्री के मुक्तिकामी विमर्शकारों/ अपना कोलाहल बंद करो/ ये लड़की क्यों घर जाना चाहती है।।’ वे स्त्री के प्रति घनीभूत संवेदना के कवि होते हुए भी एकल पहचान के दायरे को तोड़ वर्गीय विभाजन की दहलीज में भी बार-बार पैर रखते हैं। जिसे इस कविता में तो महसूस किया ही जा सकता है लेकिन ‘वर्गवादी’ कविता में तो खुले रूप से देखा जा सकता है जब वे सुबह-सुबह नौकर द्वारा दरवाजा खटखटाने के बाद हो सकने वाली प्रतिक्रियाओं को औरों के मुकाबले तौलते हैं। ‘हरी मिर्च और नमक’ में तो न केवल वो रोते हैं अपितु पाठक को भी रुला देते हैं। सचमुच विवेक चतुर्वेदी जी दमित पहचानों के पक्षधर कवि बनकर उभरे हैं इन कविताओं में।

इस संग्रह में रिश्ते-नातों की पोटली भी अपने पूरे सुगंध के साथ खुलती हुई दिखती है। यहाँ माँ, बाबूजी जहाँ स्मृतियों से होते हुए वर्तमान की हर संवेदना से एकाकार दिखाई देते हैं वहीं नन्हीं बिटिया, प्रेमिका, पत्नी भी अपनी पूर्ण उपस्थिति लिए साथ कदमताल करती हैं। कविता ‘माँ’, ‘प्रार्थना की साँझ’, ‘माँ को खत’ जहाँ माँ को याद करते हुये और अधिक मासूम हो जाने की कविताएँ हैं वहीं कविता ‘पिता’, ‘बाबू’, ‘तुम आए बाबा’, ‘सुनो बाबू’, ‘उनकी प्रार्थना में’, ‘पिता की याद’ पिता की बात-बात करते-करते जीवन के रूखे मौसमों में प्रेम और सम्मान की नमी को संजोये रखने और जिजीविषा बनाए रखने के संदेश से लैस हैं। वो पिता जो कभी अम्मा के लिए कनफूल न ला पाए पर जब कभी वो उसके पसंद के फूल क्यारी में अंकुआते हैं तब एक पुत्र प्रेम के मायने और जीवन का पाठ पढ़ता है।

कविता ‘चुप’, ‘तुम यहीं तो मिले हो’, ‘किसी दिन…कोई बरस’, ‘कहाँ हो तुम’, ‘तेरे बिराग से’, ‘तुम्हारे साथ जो भी काता मैंने’ जैसी कविताएँ प्रेम से पगी कोमल भावनाओं की कविता हैं जो अंतस तक उतर जाती हैं। संग्रह में कुछ कविताएँ अन्य तरह की सामाजिक व्यवस्थाओं से भी जुड़ी हुई हैं व सवाल उठाती हैं।

एक कविता मुझे एक शिक्षक के रूप में बहुत अंदर तक कुरेद गई। वह है बचपन के अपने स्कूल को याद करते हुए उसकी तुलना जेल और कैद से करती हुई कविता ‘मेरे बचपन की जेल’। कवि अपनी संवेदना और अनुभूति को इस कविता में बहुत गहन तरीके से उतारते हुए हमें हमारे स्कूली दिनों में पहुंचा देता है। स्कूल की एक-एक गतिविधि को कुरेदते याद करते वह मानवीयता के उन स्याह कोनों की थाह ले आते हैं जो हर एक के बस की नहीं। वे आज भी इन स्कूलों को शंका से देखते हुए इस लंबी कविता के अंत में आते-आते कहते हैं कि- ‘आज बरसों के बाद/ मैं उस जेल के सामने/ फिर आकर खड़ा हूँ इसके/ देखता हूँ/ जेल की इमारत कुछ और/ रंगीन हो गई है/ जैसे कि कभी जहर रंगीन होता है।’ यहाँ वास्तविकता की गहरी पड़ताल होते हुए भी विनम्रता पूर्वक कवि से असहमत होते हुए मैं उन्हें वर्तमान स्कूलों, उसे संचालित करने वाले शिक्षा दर्शन व दस्तावेजों का और गहरा अवलोकन करने की सलाह दूँगा क्योंकि स्थिति अब इतनी भयावह नहीं। बहुत से सकारात्मक बदलावों ने अपनी जगह बना ली है।

कुल मिलाकर यह कहना चाहूँगा कि सन् 2019 बीतते-बीतते और नये वर्ष में यह एक ऐसा अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है जो पाठकों की अपेक्षाओं पर पूरा खरा उतरेगा। इसे पढ़ते हुए नई और बेहतर दुनिया का सपना और अधिक संभव होने के करीब महसूस होगा। कवि विवेक चतुर्वेदी को उनके इस सुंदर संग्रह की बधाई देते हुए मेरी कामना है कि वे इसी तरह भविष्य में अपने रचना कर्म से हमें चकित करते रहें

-आलोक कुमार मिश्र

 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “विवेक अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं” – श्री लीलाधर जगूडी ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं  श्री गणेश गनीके विचार “विवेक अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं ” ।)

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “विवेक अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं ” – श्री लीलाधर जगूडी ☆

 

कविता संग्रह ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ पर हिन्दी के वरिष्ठ कवि व्यास सम्मान से सम्मानित  श्री लीलाधर जगूडी जी की टिप्पणी…

विवेक चतुर्वेदी की कविता में सबसे अच्छी बात जो मुझे लगी वह यह कि वे  भाषा का प्रयोग सहसा  अपनी अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं और उस भाषा के लिए वे निरंतर अपनी संवेदना को तराशते प्रतीत होते हैं वे अकथ के लिए कोई  कथनीय सौंदर्य गढ़ना चाहते हैं तभी तो ‘रात के रफूगर’ और ‘धूप की खीर’ जैसी उक्ति उनकी कविता में पैदा हो सकी है

‘पिता’ कविता में घर के भीतर खंटता- बंटता पिता का प्रेम अनायास उठता है और मुंडेर पर पीपल की तरह फैल जाता है जैसे पिता का छतनार होना ही मुक्ति का उद्घोष हो लेकिन विडम्बना का बिम्ब देखिए जो पिता अम्मा के लिए कनफूल नहीं ला सका वो चुपके से क्यारी में अम्मा की पसंद के फूल खिलाता रहा है

‘मेरे बचपन की जेल’ कविता के पात्र जेल में अच्छा नागरिक नहीं जेलर की नजर में अच्छा कैदी बनने में लगे हैं इस कविता में आए बिम्ब लगभग थर्रा देते हैं यह पृथकता उनकी हर कविता में दिखती है

अभी उनकी कविताओं में कहानी जैसे कथानक ज्यादा हैं और वे कविता की निज भाषा खोजने- संवारने में जुटे लगते हैं मेरी शुभकामनाएं हैं कि वे  कविता में काव्य तत्व की और दायित्वपूर्ण सरल भाषा की खोज कर सकें।

                                                    – लीलाधर जगूडी

 

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

ई-अभिव्यक्ति  की ओर से  युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी को इस प्रतिसाद के लिए हार्दिक शुभकामनायें  एवं बधाई।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 27 ☆ व्यंग्य संग्रह – मुर्गे की आत्मकथा – श्री अजीत श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री अजीत श्रीवास्तव जी  के  व्यंग्य  संग्रह  “ मुर्गे की आत्मकथा  ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 27☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह  –  मुर्गे की आत्मकथा 

पुस्तक – मुर्गे की आत्मकथा (व्यंग्य  संग्रह)

लेखक – श्री अजीत श्रीवास्तव

प्रकाशक –अयन प्रकाशन , नई दिल्ली

मूल्य २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड

☆ व्यंग्य संग्रह   – मुर्गे की आत्मकथा  – श्री अजीत श्रीवास्तव –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

किताबें छप तो बहुत रही हैं, किन्तु पढ़ी बहुत कम जा रही हैं. मेरा प्रयास है कि कम से कम पुस्तकों के कंटेंट की कुछ चर्चा होती रहे,  जिस पाठक को रुचि हो वह जानकारी के आधार पर पुस्तक ढ़ूंढ़कर पढ़ सके. आप सब के फीड बैक से इस प्रयास के सुपरिणाम परिलक्षित होते दिखते हैं तो नई ऊर्जा मिलती है. अनेक लेखक व प्रकाशक अपनी पुस्तकें इस हेतु भेज रहे हैं, कई कई पाठको की प्रतिक्रियायें मिल रही हैं .

इसी क्रम में मुर्गे की आत्मकथा व्यंग्य उपन्यासिका मिली. दरअसल पुस्तक में एक नही दो लघु व्यंग्य उपन्यासिकायें हैं. पहली राजनीति के योगासन है. राजनीति प्रत्येक व्यंग्यकार का सर्वाि प्रिय कच्चामाल है. अजीत श्रीवास्तव जी ने राजनीति के योगासन में  र आसन राशन, भ आसन भाषण, अश्व आसन आश्वासन, करजोड़ासन, पदासन, शासन, निष्कासन, पुनरागमनआसन, चमचासन, कुर्सियासन, सिंहासन, वगैरह वगैरह शब्दों की विशद विवेचना करते हुये हास्य, व्यंग्य के संपुट के साथ नवाचार किया है. यह रोचक शैली पठनीय है.

इसी क्रम में एक मुर्गे की आत्मकथा, में मुर्गे को प्रतीक बना कर बिल्कुल नई शैली मे समाज की विद्रूपताओ पर मजेदार कटाक्ष किये गये हैं. समाज में हर कोई दूसरे को मुर्गा बनाने में जुटा हुआ है, ऐसे समय में यह उपन्यासिका वैचारिक पृष्ठभूमि निर्मित करती है. अजीत जी पुरस्कृत, वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं, पेशे से एड्वोकेट हैं,  उनका कार्यक्षेत्र बड़ा है, लेखन दृष्टि परिपक्व है, अभिव्यक्ति की सशक्त नवाचारी क्षमता रखते हैं, किताब पढ़कर ही सही मजे ले पायेंगे . आपकी उत्सुकता जगाना ही इस चर्चा का उद्देश्य है.

चर्चाकार … विवेक रंजन श्रीवास्तव  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #6 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है” – श्रीमती अर्चना पांडेय ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं  श्री गणेश गनीके विचार “इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है ” ।)

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

☆ पुस्तक विमर्श #6 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है ” – श्रीमती अर्चना पांडेय ☆

स्त्रियां घर लौटती हैं

कुछ कविताएं न केवल मर्म को छू जाती हैं बल्कि उन्हें पढ़कर हमारे भीतर की वो संवेदना जग जाती है जो कि दुनिया की चीख-पुकार में कहीं  खो गई थी विवेक के वाणी प्रकाशन से प्रकाशित कविता संग्रह ‘स्त्रियां घर लौटती हैं ‘ में शामिल कविताएं ऐसी ही कविताएं हैं प्रेम पर ऐसी सघन, ऐसी बारीक बुनावट वाली कविता ‘मीठी नीम’ देखिए

मीठी नीम

एक गन्ध ऐसी होती है

जो अंतस को छू लेती है

चन्दन सी नहीं

गुलाब सी नहीं

मीठी नीम सी होती है

तुम ऐसी ही एक गन्ध हो।।

एक कविता है ‘पिता की याद’, इसे पढ़कर मैं हैरत में पड़ गई क्या पिता के प्रेम की व्यंजना को ऐसे भी अनुभव किया जा सकता है? जबकि प्राय: साहित्य में पुरुष सत्ता की आलोचना ही बिखरी पड़ी है

‘भोर होने को है’ में यह देखना विस्मयकारी है कि एक पुरुष कवि कैसे ऐसी स्त्रीमूलक कविता रच पाता है इन कविताओं को पढ़कर बार बार ये अनुभव होता है कि कवि अपनी रचना के भीतर अपना व्यक्तित्व छोड़ कर पैठ गया है

और ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ तो शायद इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है इतनी समग्र कविता कम देखने मिलती है इस कविता का आखिरी अंश देखिए

…स्त्रियों का घर लौटना

महज स्त्री का घर लौटना नहीं है

धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।।

लगता है कि विवेक अपनी कविताओं का सूक्ष्म ट्रीटमेंट करने में सक्षम कवि हैं कुछ भी छूटता नहीं है कविता एक पूरा जगत समेटकर चलती है

इस संग्रह का किसी पाठक के पास होना सच में  एक उपलब्धि है।।

– अर्चना पांडेय 

 

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

ई-अभिव्यक्ति  की ओर से  युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी को इस प्रतिसाद के लिए हार्दिक शुभकामनायें  एवं बधाई।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #4- स्त्रियां घर लौटती हैं – “अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे!” – श्री गणेश गनी ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं  श्री गणेश गनीके विचार “अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे!” ।)

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

 

☆ पुस्तक विमर्श #4 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे!” – श्री गणेश गनी ☆

कुछ बड़े कहलाए जाने वाले कवियों ने आगे ऐसी परम्परा स्थापित करने की कोशिश की या नहीं की, पर एक रास्ता जरूर बन गया, जिसपर चलने वाले चन्द युवा भी हैं। ये लोग स्त्रियों पर ऐसी शर्मसार करने वाली कविताएं लिख रहे हैं कि जिन्हें आप अश्लीलता की श्रेणी में ही रख सकते हैं। हद तो तब होती है जब ऐसी फूहड़ कविताओं को पुरस्कार दिए जाते हैं। कुछ आलोचक इनका भरपूर समर्थन भी करते हैं।
हालांकि कुछ ऐसे कवि भी हैं जिन्होंने अपनी भाषा और शिल्प से दैहिक कविता को भी कुछ यूं बांधा है कि पढ़ते हुए शर्म नहीं बल्कि स्त्री के प्रति सम्मान बढ़ता ही है। शताब्दी राय की ए लड़की कविता और दोपदी सिंघार की पेटीकोट कविता कुछ ऐसी ही कविताएं हैं। ऐसे समय में स्त्री और देह पर लिखने वाले कुछ शानदार कवि भी हैं, जिनसे आश्वस्त हुआ जा सकता है। विवेक चतुर्वेदी की यह कविता देखें-

लड़की दौड़ती है तो
थोड़ी तेज हो जाती है
धरती की चाल
औरत टाँक रही है
बच्चे के अँगरखे पर
सुनहरा गोट…
और गर्म हो चली है
सूरज की आग
बुढ़िया ढार रही है
तुलसी के बिरवे पर जल
तो और हरे हो चले हैं
सारे जंगल…
पेट में बच्चा लिए
प्राग इतिहास की
गुफा में बैठी औरत
बस ..बाहर देख रही है
और खेत के खेत सुनहरे
गेहूँ के ढेर में बदलते जा रहे हैं…।।

ऐसा नहीं है कि अच्छी कविताओं का अकाल पड़ा है। अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे। खराब व्यक्ति तो सब कुछ खराब कर देता है, फिर कविता क्या है उसके लिए। कवि कह रहा है, सुनो-

अंधेरी रात के कुफ्र में
जब रौशन नमाज़ से गूंजा चाँद
दुआओं सा मैं तुझे याद करता हूँ।

प्रेम पर हर कवि लिखता है। ख़ासकर नया नया कवि तो प्रेम कविताएं ही लिखता है। भले ही प्रेम पर उसकी समझ सिफ़र ही क्यों न हो। विवेक की यह प्रेम कविता बंधन जैसा एहसास नहीं करवाती, न ही कोई शर्त लगाती है । प्रेम तो आपसी समझ की वो ऊंचाई है, जिससे आगे केवल आज़ादी है। यह केवल वफ़ादारी और कुर्बानी ही नहीं है बल्कि विश्वास की पराकाष्ठा भी है-

तुमने लगाया था
जो मेरे साथ
एक आम का पेड़
तुम्हारा होना उस पेड़ में
आम की मिठास बनके
बौरा गया है

आज आसाढ़ की पहली बारिश में भीगकर
ये आम का पेड़ लहालोट हो गया है

एक कोयल ने अभी अभी
कहा है अलविदा
अब वो बसेरा करेगी
जब पीले फागुन सी
बौर आएगी अगले बरस

हम अपनी जड़ों के जूते
मिट्टी में सनाए
खड़े रहेंगे बरसों बरस
मैं अपने छाल होने के खुरदरेपन से तुम्हारी थकी देह सहलाता रहूँगा
पर सो न जाना तुम

कभी रस हो जाएंगे फल

ठिठुरती ठंड में सुलगकर आँच हो जाएंगी टहनियां
छाँव हो जाएंगी हरी
पत्तियाँ

कभी सूखकर ये
पतझड़ की आंधियों में उड़ेंगी
उनके साथ हम भी तो
मीलों दूर जाएंगे
गोधूलि… तक हम कितनी दूर जाएंगे
तुमने लगाया था जो मेरे साथ एक आम का पेड़..।

विवेक की एक और प्रेम कविता यहां देखी जा सकती है। एक संवेदनशील कवि अपनी स्मृतियों में जीता है, जीना भी चाहिए, क्या बुराई है। नॉस्टेल्जिया तब तक कविता में अच्छा लगता है, जब तक उसके साथ एक ऐसा रिश्ता बना रहे कि जिसमें बेचारपन न हो-

तुम्हारे साथ जो भी काता मैंने
खूँटी पर टाँग रखा है
तुम चाहो उतारो उसे या
वहीं रहे टँगा… छिन जाए
जब भी देखता हूँ
चाहता हूँ उसे उतार दूँ
पर टूटने लगता है अरझ कर
एक एक सूत
दर्द भरी टीस के साथ
और नहीं तोड़ सकता
मैं एक भी सूत
जो साथ हमने काता है
तुम्हारे साथ…।।

चुप रहना कितना मुश्किल है, यह साधना जैसा है, जिसे हर कोई नहीं साध सकता। चुप्पी खूबसूरत होती है, शांत होती है, अहिंसक होती है। हमें दोस्तों की चुप्पी हमेशा याद रहती है। कई बार इसे तोड़ना भी पड़ता है, ज़रूरी है चीखना कई जगह, कई बार चुप नहीं रहा जाता, परन्तु चुप का अपना स्वाद है-

किसी रोज़
नदी के निर्जन घाट पर
चुप…बैठे रहेंगे साथी

उस शाम
तुम नहीं कहोगी
…शांत है ये जल
मैं नहीं कहूँगा
…अच्छा है इस शाम यहाँ होना

नदी की धार को
पैरों से छूता
एक पंछी
हू तू तू…बोलता
उड़ जाएगा
हम.. कुछ भी न कहेंगे

बहुत सा जो खूबसूरत
मिट रहा है
इस दुनिया से

चुप…उनमें से एक है साथी ।।

कवि कभी कभी कविता के माध्यम से अपना दृष्टिकोण भी बता डालता है। यह आवश्यक भी है कि वास्तव में एक कवि की सोच क्या है-

नहीं जाता अब सुबह
मन्नतों से ऊबे
अहम से ऐंठे
पथरीले देवों के घर
उठता हूँ आँगन बुहारता हूँ
नेह की खुरपी से
कुछ बच्चों के लिए
इक भोर उगाता हूँ।।

विवेक छोटी छोटी कविताओं के माध्यम से अधिक खुलते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि लम्बी कविता ही लिखी जाए। लम्बी कविता यदि एक कुशल कवि लिखे तो बात ज़्यादा बन सकती है। छोटी कविता भी बहुत मुश्किल है बनाना। एक अर्थपूर्ण छोटी कविता लिखने के लिए भी कुशलता ही चाहिए-

आज रात
चाँद के पीछे भागता
एक छोटा सा तारा
नहीं है शुक्र
झूलाघर से मचला
बच्चा है
कामकाजी औरत है
चाँद
जिसे दफ्तर पहुंचना है
दफ्तर खेत है
औरत जहाँ दो रोटी
उगाती है।।

सबसे कठिन काम है बच्चों के मनोविज्ञान पर लिखना। इधर बहुत चूक होने की संभावना रहती है। विवेक ने अपने बचपन को याद रख कर कुछ कड़ियों को जोड़ा है जो सीधे बचपन के आंगन ले जाती हैं। बच्चा वो सब सोचता है, जिसे सोचना बड़ों की औकात ही नहीं है-

बच्चा सोचता है…
फूली हुई रोटी से हों दिन
या फिर दिन हों नर्म भात से
सेमल की रूई से हों हल्के
रसीले हों संतरे की गोली से
क्यों न हों लड्डू से गोल
दिन हों नई बुश्शर्ट से रंगीन
बच्चा सोचता है
आएंगे ये दिन…
जब परदेस से बाबू आएंगे
पर क्या… बाबू आएंगे?

विवेक की एक और कविता देखें बचपन की पड़ताल करती हुई-

बरस गया है
आसाढ़ का पहला बादल
हरी पत्तियाँ जो पेड़ में ही
गुम हो गई थीं
फिर निकल आई हैं
कमरों में कैद बच्चे
कीचड़ में लोट कर
खेलने लगे हैं
दरकने लगा है
आँगन का कांक्रीट
उसमें कैद माटी से
अँकुए फूटने लगे हैं
कहाँ हो तुम …।

विवेक की कविताओं में प्रेम, लोकधर्मिता, प्रतिबद्धता आदि विविधताएं हैं। कविताएं ताज़गी से भरपूर और असरदार हैं। बिम्बों और रूपकों का प्रयोग कविताओं को बेहतर बनाता है-

सबके जीवन में उगता है
धार्मिकता का क्षण
एक बच्चे के लिए
चुराते हुए गुड़ …. खेलते सितोलिया
होते हुए बारिश में लहालोट
कहें कि पूरा बचपन ही
रुका हुआ क्षण है धार्मिकता का
एक युवा सांड़ के लिए है सम्भोग में
एक अँकुए के लिए फोड़ते हुए मिट्टी
एक पिता के लिए आता है
धार्मिकता का क्षण
जब बड़े हो रहे बेटे को
थमा देता है अपना स्कूटर
एक लड़के के लिए
जब सुलगाता है वो पहली सिगरेट
लड़की के लिए, छत पर
सहसा उतर आई एक
रंगीन पतंग के साथ…
माँ के लिए आज भी राह देखने
और गर्म रोटी में बचा है
धार्मिकता का क्षण।

विवेक चतुर्वेदी की कविताएं साधारण भाषा और शिल्प में लिखी अच्छी कविताएं हैं, जिन्हें पढ़कर एक तसल्ली मिलती है मन को को। कवि अपने आसपास की चीज़ों से संबंध बनाते हुए जीवन की आशाओं को यहीं खोजता है। वो आशावादी है, बच्चों, फूलों, धरती आदि को प्रेम करने वाला कवि है।

– गणेश गनी

 

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

ई-अभिव्यक्ति  की ओर से  युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी को इस प्रतिसाद के लिए हार्दिक शुभकामनायें  एवं बधाई।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #3- स्त्रियां घर लौटती हैं – “जल्द ही ये कविताएं पंछियों की तरह सरहदों के पार भी उड़ जाएंगी” – सुश्री संध्या श्रीवास्तव☆

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की तीसरी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं  सुश्री संध्या श्रीवास्तव के विचार  “जल्द ही ये कविताएं पंछियों की तरह सरहदों के पार भी उड़ जाएंगी“।)

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

 

☆ पुस्तक विमर्श #1 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “जल्द ही ये कविताएं पंछियों की तरह सरहदों के पार भी उड़ जाएंगी” – सुश्री सन्ध्या श्रीवास्तव ☆

(चण्डीगढ़ में रह रहीं… प्रतिभाशाली…प्रयोगधर्मी चित्रकार सुश्री सन्ध्या श्रीवास्तव ने ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ पढ़कर भेजा…एक पाठक का रचनात्मक संतोष… जो निःसंदेह एक कवि को रचनात्मक साहस देता है ।  आत्मिक आभार सन्ध्या!  – विवेक चतुर्वेदी।

 

अमेज़न से आज तुम्हारा कविता संग्रह मिला।

वरिष्ठ साहित्यकार जयप्रकाश मानस ने कहीं कहा है – “कविता की पहली सामर्थ्य है उसकी यात्रा-शक्ति ।

यात्रा-शक्ति यानी पाँव-पाँव चलने का हौसला । यात्रा-शक्ति अर्थात् स्मृति के पर्वत,  खाई,  जंगल,  घाटी,  बीहड, गाँव,  शहर,  बस्ती और गली फिर घर – कहीं भी जा पहुँचने की शक्ति । पाठक या श्रोता यानी भावबोध तक सारे थकानों, सारी उदासियों, सारे अड़चनों के बाद भी उपस्थिति की आत्मीय जिद  !

जिस कविता में यह सामर्थ्य होगी, वह मनुष्य या मन की सारी विस्मृतियों के बाद भी वनफूल की तरह महमहा उठेगी।”

आज तुम्हारे संग्रह से शीर्षक कविता ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ पढ़ रही थी कि Family WhatsApp group में हजारों मील दूर से यही कविता पोस्ट होकर पास ही रखे मोबाइल पर सामने आ खड़ी हुई तो लगा कि मानस जी की टिप्पणी कितनी सार्थक है,

पुस्तक की और भी कविताएं भी कितनी सुन्दर,कितनी गहरी हैं और इनमें स्त्री मन की समझ बेहद हैरान करती है

मुझे लगता है जल्द ही ये कविताएं पंछियों की तरह सरहदों के पार भी उड़ जाएंगी

मेरी शुभकामनाएं साथ हैं।

–  सन्ध्या श्रीवास्तव

 

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

 

ई-अभिव्यक्ति  की ओर से  युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी को इस प्रतिसाद के लिए हार्दिक शुभकामनायें  एवं बधाई।

Please share your Post !

Shares
image_print