हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “जागते रहो” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री मनोज धीमान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “जागते रहो” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री मनोज धीमान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : जागते रहो (लघुकथा संग्रह)

लेखक : मनोज धीमान

प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्ली।

पृष्ठ : 96

मूल्य : 225 रुपये

☆ मनोज धीमान का “जागते रहो” – समाज को जगाने झकझोरने वाली लघु कथायें – कमलेश भारतीय ☆

मनोज धीमान से कभी रूबरू होने का  मौका तो नहीं बना अभी तक लेकिन पाठक मंच और सिटी एयर न्यूज में हम रोज़ मिलते हैं। बस, मुलाकात होना बाकी है। वे भी मेरी तरह पत्रकार और साहित्यकार हैं। अभी अभी उन्हें गुरु नानक देव‌ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के साथ किसी महत्त्वपूर्ण तरीके से जोड़ा गया है। यह उनकी उपलब्धि कही जा सकती है। यह उनकी पहली किताब नहीं है। पर लघुकथा में महत्त्वपूर्ण संग्रह है -जागते रहो! न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने बहुत खूबसूरत ढंग से और पाॅकेट बुक साइज में प्रकाशित किया है।

अब आते हैं इसकी लघुकथाओं पर! जैसा संग्रह का नाम है, वैसी ही समाज को जगाने व सचेत करने वाली चुटीली लघुकथायें हैं इसमें! सबसे ज्यादा शीर्षक लघुकथा ही जगाने वाली है-जागते रहो, किससे? सरकार की चाल ही नहीं, उसके दुष्प्रचार से क्योंकि धर्म, जाति में बांटने के बाद नये नये न्यूज चैनल चला कर आमजन को गुमराह करने की चाल भी सत्तापक्ष चल रहा है, इसलिए जागते रहो। यह सर्वविदित है कि आज मीडिया किस गहरे गड्ढे में गिर चुका है। मीडिया को सत्तापक्ष ने पालतू बना रखा है, इससे जागते रहो। मदर्ज़ डे को हम मोबाइल पर ही सेलिब्रेट करते हैं जबकि मां दवाई मांग रही है और उसे अनसुना किये जा रहा है बेटा! दिखावा जरूरी, संवेदना गायब! मोबाइल पर, मोबाइल से हमारे जीवन में, रिश्तों में आ रहे बदलाव पर कुछ और लघुकथायें भी हैं। सबसे बड़ी है -झुनझुना! बच्चे जो अपनी खेलों में मस्त रहते थे, झुनझुने से भी खुश हो जाते थे, वही बच्चे अब झुनझुने से नही, मोबाइल से खेलते हैं और दादा का लाया झुनझुना फेंक देते हैं। दंगों में जो आग की लपटें उठती हैं, उनसे दूसरों के घर जलाने वालों के घर भी जल जाते हैं, आग से वे भी कहां बच पाते हैं? यही संदेश देने की कोशिश है! फलों की रेहड़ी लगाने वाला खुद फल खा नहीं पाता और डाॅक्टर सलाह देता है कि फल खाया करो, यह हमारे समाज की बड़ी विडंबना है। नारी के मेकअप का एक पल जब तक खत्म होता है तब तक पति का बाहर जाने का मूड ही नहीं रहता। ऐसी ही रचना लिपस्टिक भी है। महिला रचनाकार के भ्रम में एक पाठक सरोज नाम की लेखिका को मिलने जाता है तो पता चलता है, वे दीना नाथ सरोज हैं यानी सरोज उनका उपनाम है और यह जानकारी मिलते ही प्रशंसक उल्टे पांव भाग लेता है। मेरा खुद का नाम महिलाओं से मिलता होने के चलते ये मज़ेदार स्थितिया़ं अनेक बार आई हैं। ये लेखन के नहीं, महिलाओं के प्रशंसक हैं! भ्रष्टाचार और ईमानदारी की जंग निरंतर जारी है। दलबदल अब किसी गंगा स्नान से कम नहीं, सत्ताधारी दल में शामिल होना किसी गंगास्नान से कम नहीं रहा। लेखकों पर चोट है सोने की कलम! जब सत्ता सम्मान में सोने की कलम दे देती है तो लेखक सत्ता के खिलाफ कलम ही नहीं उठा पाता! काॅफी का स्वाद तब एकदम फीका और बेस्वाद हो जाता है, जब प्रेमिका अपनी शादी की खबर सुनाती है और तुम पहले जैसे नहीं रहे में काॅफी का स्वाद बढ़ जाता है जब पति बधा करवाता है और पति पत्नी एक दूसरे के लिए समय निकालते हैं। पुलिस ही डाॅन की भूमिका में हैं लेकिन टी शर्ट वाला बाबा जैसी लघुकथा इसमें अखरती है। गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो सुनील‌ ने लघुकथा पर भूमिका के रूप में गहरी टिप्पणी की है जो लघुकथा को समझने में काम आयेगी। काफी शोध के बाद लिखी लगती है भूमिका!

मुखपृष्ठ भी खूबसूरत है। बधाई मनोज‌। 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – उसका सूरज  — कवयित्री – भारती संजीव ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 10 ?

?उसका सूरज  — कवयित्री – भारती संजीव ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

? वो अपने घर का सूरज थी  श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक- उसका सूरज

विधा- कविता

कवयित्री- भारती संजीव

प्रकाशक- आर के पब्लिकेशन मुम्बई 

मूल्य- 195/- 

देहरी का नाम आते ही/उभरती है एक स्त्री/ जिसके पास न जीभ है /न कान, न आँख /न स्वयं के विचार / ना विरोध की दरकार / है तो सिर्फ कुछ मिले हुए संस्कार / थोपे हुए विचार / जो है समिधा की तरह /स्वाहा होने को तैयार..

‘उसका सूरज’ भारती संजीव का पहला कवितासंग्रह है। उपरोक्त पंक्तियाँ उनके पहले कवितासंग्रह की पहली कविता से हैं। पहली कविता से ही कवयित्री की  विधागत दृष्टि, दृष्टिगोचर होने लगती है। समिधा की आहुति से अग्नि जन्म लेती है। अग्नि विशुद्ध महाभूत होती है। आग पीकर, आग से होकर, आग होकर जन्मती है कविता। यही कारण है कि कविता अभिव्यक्ति की विशुद्व विधा है। भारती संजीव के ‘उसका सूरज’ में यह शुद्धता अन्यान्य पृष्ठों पर प्रखरता से अवलोकित होती है।

कविता की एक विशेषता कम शब्दों में मर्म तक पहुँचना और पहुँचाना भी है। इसके चलते कविता को गागर में सागर की उपमा दी गई है। भीड़ द्वारा डायन घोषित कर किसी स्त्री के साथ किया जानेवाला अघोरीपन पिघलता लोहा है। इस लोहे का कविता में ‘टर्निंग द टेबल’ का दृश्य देखिये-

भीड़ के मनोविकारों की शिकार/डायनें/  लगाती हैं प्रश्नचिह्न व्यवस्था पर /वे छोड़ देती हैं /पिघलता गर्म लोहा /संविधान पर..

विज्ञान बताता है कि एक्स और वाई गुणसूत्र के मिलन से लड़का अथवा लड़की जन्म लेती है। इसका कारक पुरुष होता है ना कि स्त्री। तब भी स्त्री पर लड़की जनने का दोषारोपण और आधुनिक समाज में भी लड़की को कम आंकने की मनोरुग्णता देखने को मिलती है। गुणसूत्र के विज्ञान से परे व्यवहारिक ज्ञान को साधन बनाकर कवयित्री यही बात समाज को समझाने का प्रयास करती हैं।

न ही ईंट-गारे-पत्थर से /बनाई जाती हैं /वे भी पैदा होती हैं/ उसी तरह/जिस तरह पैदा होता है/घर का चिराग..

स्त्री और पुरुष के लिए लिखने की सुविधा में गहरा अंतर है। पुरुष 8 घंटे के लिए काम पर होता है। स्त्री 24×7 गृहिणी होती है। लेखन जब प्रस्फुटित होता है, उसे उसी समय काग़ज़ पर उतारना होता है। उस क्षण चूक जाना, एक रचना से हाथ धो बैठना है। सुबह के अलार्म से उठने के साथ रात को बिस्तर को जाने तक स्त्री अपनी अनेक रचनाओं के गर्भ में ही दम तोड़ने का साक्षी बनती है।

इन अनकहे शब्दों की मृत्यु का/ कोई गवाह नहीं/ जो पन्नों पर उतर आते/  वही स्त्री रचित कहलाते हैं..

स्त्री अपार संभावनाओं का पर्यायवाची है। स्त्री को आधी दुनिया कहना स्त्रीत्व के प्रति असम्मान है। सत्य तो यह है शेष आधी दुनिया को स्त्री अपनी कोख में धारण किए हुए है। विसंगति यह कि ब्रह्मांड होते हुए भी स्त्री को सृष्टि में अपने इच्छा को, अपने भाव को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है, अपना स्थान बनाने के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। उसे बार-बार, लगातार अपनी क्षमता को सिद्ध करना पड़ता है। तथापि जिजीविषा की धनी स्त्री प्रतिदिन उगनेवाले सूरज की तरह हर सुबह अपना नया सूरज बनाती है। घर, परिवार को आलोकित एवं ऊर्जस्वित कर देती है।

वह आटे की थाली पर/ उकेरती है शब्द/ रंगोली में फुटबॉल, किताबें, नदियाँ /और पहाड़..

……

वह स्त्री है/ सूरज के आने से पहले/  उठती है/ हाथ में रंग कूची लिए/ अपना सूरज/स्वयं बनाती है..

…….

वो अपने घर का सूरज थी/  वो स्त्री थी..

संग्रह में स्त्री संवेदना मुख्य रूप से अभिव्यक्त हुई है। अलबत्ता ऐसा नहीं है कि सारा संग्रह इसी पर केंद्रित हो। संग्रह में श्रमिकों की समस्याओं पर ध्यानाकर्षण है, महामारी की वेदना है, किसानों की चर्चा है, व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ है। ढेर सारी विसंगतियों को कवयित्री बहुत कम शब्दों में पिरो देती हैं-

केंद्र से बहुत दूर/ सारी व्यवस्था के केंद्र में/ आम आदमी..

यह एक स्त्री की रचनाओं का संग्रह है। स्वाभाविक है इनमें करुणा, ममता, वात्सल्य और प्रेम है। घटनाओं, प्रबोधन, प्रवर्तन, युद्ध आदि के मुकाबले प्रेम की सर्वग्राह्यता और अमाप परिधि शब्दों में ढली है।

मैंने क्रांति नहीं की/ मैंने युद्ध भी नहीं किया/ मैंने तो बस प्रेम किया था/ क्रांति तो/ अपने आप हो गई..

स्त्रैण सृष्टि का स्थायी भाव है। वह कायम रहता है। इसी भाँति अक्षर का क्षरण नहीं होता,  अक्षर सदा कायम रहता है। कवयित्री भारती संजीव का यह कविता संग्रह उनके चिंतन और सृजन के प्रति आशा जगाता है। विश्वास किया जाना चाहिए कि आने वाले समय में कवयित्री  पाठकों की इस आशा को कायम रखेंगी।

कायम होना चाहती हूँ/ जैसे कायम होती है/ नमी, समुद्री किनारों पर/ रंग और खुशबू बहारों पर/ झिलमिलाहट सितारों पर/ स्वच्छंदता हवाओं पर..

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 167 ☆ “इत्ती सी बात” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक … श्री विजी श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री विजी श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित पुस्तक “इत्ती सी बात…” (व्यंग्य संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 167 ☆

“इत्ती सी बात” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक … श्री विजी श्रीवास्तव चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह … इत्ती सी बात

लेखक .. विजी श्रीवास्तव, भोपाल

प्रकाशक .. वनिका पब्लीकेशन, बिजनौर

पृष्ठ ..२२४, मूल्य ३५० रु

चर्चाकार …विवेक रंजन श्रीवास्तव

सतीश शुक्ल का उपन्यास “इत्ती सी बात” नाम से ही प्रकाशित हुआ था, जिसमें दो दोस्तों की कहानियां थी। १९८१ में एक फिल्म आई थी “इतनी सी बात” पारिवारिक ड्रामा था। कोरोना के बाद एक फिल्म आई ‘इत्तू सी बात’ जिस की कहानी इत्ती सी है कि अपनी प्रेमिका से आई लव यू सुनने के लिए एक युवा को आईफोन का जुगाड़ करना है। कहने का आशय यह कि “इत्ती सी बात” में ऐसी बड़ी बातें समाई होती हैं जो बार बार रचनाकारों को आकर्षित करती रहती हैं। व्यंजना के धनी विजी श्रीवास्तव का व्यंग्य संग्रह इत्ती सी बात २०१९ में आया। पिछले लंबे समय से मेरे तकिये के पास था, और मैं इसे मजे लेकर चबा चबा कर पढ़ता रहा। आज आजाद ख्याल विजी भाई का जनमदिन भी है और देश की आजादी की भी वर्षगांठ है, सोचा इत्ती सी बात पर कुछ चर्चा करके विजी जी को बधाई दे दूं। अस्तु।

व्यंग्य पुरोधा डा ज्ञान सर ने लिखा है कि विजी किसी महत्वाकांक्षा के बिना एक बड़े से व्यंग्य लेखक हैं। व्यंग्य यात्रा के सारथी डा प्रेम जनमेजय जी विजी को अपनी पसंद का लेखक बताते हैं। किताब में सम्मलित स्फुट रूप से लिखे गये विभिन्न विषयों के ७२ व्यंग्य लेखों पर व्यंग्य के प्रखर आलोचक सुभाष चंदर जी किताब को सार्थक व्यंग्य की बानगी बताते हैं, व्यंग्य के अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ आलोक पुराणिक ने विजी की व्यंग्य साधना को सहज निरुपित किया है। अनूप शुक्ल इन्हें बिना लाग लपेट के लिखे गये बताते हैं। और शांति लाल जैन जी ने इन व्यंग्य लेखों की भाषा में नटखट चुलबुलापान दूंढ़ निकाला है। समकाल के व्यंग्य परिदृश्य के इस प्रमाणीकरण के बाद लिखने को शेष कम बचता है। स्वयं विजी अपने बिगड़े बोल में किताब को कैक्टस का गुलदस्ता बताते हैं।

विजी चाहते तो इतने स्तरीय कलेवर से कम से कम दो किताबें प्रकाशित कर सकते थे। लंबे समय का विविध स्फुट लेखन किताब में संग्रहित है। कुछ विषय जिन्हें मैंने पढ़ते हुये रेखांकित किया, का उल्लेख करता हूं ” गुरु द्रोण तुम कहाँ हो” “सत्य जो ढूँढन मैं चला” “मुझे अवार्ड लौटाना है” “किसान की आत्मा धरने पर” “कट-कॉपी पेस्ट” “हिन्दी के आँसुओं का विश्लेषण” “विकास की चिंता और इकत्तीस मार्च ” “हिन्दुस्तानी चैनल की बहस” “मौत का मुआवज़ा” “इत्ती सी बात”

” सब कुछ प्रायोजित है” “पेन देंगे भाईसाहब ” …. प्रत्येक व्यंग्य दूसरे से कुछ बढ़कर लगा। पूरी किताब गुदगुदाती है, ऐसा लगता है कि ये मेरी अपनी अनुभुति है, बल्कि कई विषयों पर मैंने भी लिखा ही है, किसी दूसरी तरह किसी भिन्न शीर्षक से, पर यह तय है कि जिन मुद्दों पर संवेदनशील मन कचोटता है, उन पर विजी जी ने कलम चलाई है, बेबाकी से पूरी निष्ठुरता से बिना डरे, व्यंग्य के कौशल व्यंजना और लक्षणा के बोध के साथ संप्रेषण की योग्यता के साथ चलाई है। वे अपने लक्षित पाठकों तक कथ्य पहुंचाने में सफल पाये गये। सभी व्यंग्य छोटे हैं पर लक्ष्य बेधन में सफल हैं। शीर्षक व्यंग्य “इत्ती सी बात ” से उधृत है ” आजादी के इत्ते सालों बाद हमने विकास का जित्ता सफर तय किया है उत्ता तो हमने न जाने कब पीछे छोड़ दिया होता जो उत्ता लुटे न होते ” कित्ती कित्ती कुर्बानियों से बने देश में इत्ती इत्ती सी बात पर झगड़ने से हम कित्ता कित्ता खुद का नुकसान कर लेते हैं ” ऐसी सरल शैली में इत्ती वाजिब चिंता विजी के विजन और सोच बताती है।

“बड़े बाबू की पर्सनल डायरी” में विजी एक नये तरीके से डायरी के पन्नो को व्यंग्य बनाने की क्षमता प्रदर्शित करते हुये एक सर्वथा भिन्न शैली में लिखते हैं। इसी भांति ” तोड़ी नाखो, फोड़ी नाखो, भूको करी नाखो ” नाट्य संवाद शैली का व्यंग्य है। अमिताभ बच्चन और किसान चैनल में भी उन्होंने नवीनता का बोध करवाया है, सुप्रसिद्ध टी वी कार्यक्रम के बी सी की तर्ज पर कटाक्ष से भरपूर सवाल हैं जो किसान के परिदृश्य में करुणा, संवेदना और दर्द से पाठक को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकते। वे अपनी आजीविका में कृषि जगत से जुड़े हुये हैं और उन्होंने जो कुछ बहुत पास से देखा उसे पाठको को उसी भाव से संप्रेषित करने में सफलता अर्जित की है। “रेप से बेअसर रेपो” कटु सचाई है। दुखद है कि विजी ने जो मुद्दे व्यंग्य के लिये चुने वे समाज का शाश्वत नासूर बन रहे हैं। कहा जाता है कि व्यंग्य की उम्र अधिक नहीं होती वह अखबारी होता है, किंतु व्यंग्यकार की दृष्टि, और उसकी अभिव्यक्ति सशक्त हो तो व्यंग्य दीर्घ जीवी बन जाता है, क्योंकि मूल मानवीय और सामाजिक प्रवृतियां किंबहुना स्वरूप बदल बदल कर वही बनी हुई हैं। किताब चर्चा योग्य है, खरीदकर पढ़ना घाटे का सौदा बिल्कुल नहीं है। किताब का अंतिम पैरा पढ़वाता हूं ” अजीबो गरीब कहानियों की जलेबी, फेकम फाँक पगे घेवर, गठजोड़ का खत्टा चिरपरा मिक्चर, किसी को पच नहीं रहा। …. चूरण की जरूरत किसे है ? जनता को या उन्हें जिनकी न लीलने की सीमा न उगलने का शउर है। “न लीलने की सीमा न उगलने का शउर ” से।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – बात इतनी सी सै! — लेखक- डॉ. रमेश मिलन ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 9 ?

?बात इतनी सी सै!लेखक- डॉ. रमेश मिलन  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक- बात इतनी सी सै!

विधा- लघु नाट्य संग्रह

लेखक- डॉ. रमेश मिलन

प्रकाशन- आकाशगंगा पब्लिकेशन, दिल्ली

? धाराप्रवाह धारावाहिक  श्री संजय भारद्वाज ?

देखना, बोलना, सुनना मनुष्य जीवन में अनुभूति और अभिव्यक्ति के अभिन्न अंग हैं। यही कारण है कि मनुष्य देखा, बोला, सुना, प्राय: अपने संगी-साथियों के साथ साझा करता है। देखने, बोलने, सुनने का साझा रूप है नाटक। वस्तुत: जीवन के प्रसंगों और घटनाओं का रेपलिका है नाटक। मनुष्य की भावनाओं से व्यापक अंतरंगता ने भरतमुनि से हज़ारों वर्ष पूर्व नाट्यशास्त्र की रचना करवाई। पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव के साथ ही सृष्टि के रंगमंच पर पात्रों की आवाजाही त्रिकाल सत्य है। इस सत्य को व्यक्त करते हुए शेक्सपियर ने लिखा, ‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

रंगकर्म अथवा नाटक अपने आरंभिक समय में लोकनाट्य के रूप में उभरा। कालांतर में सभागारों तक पहुँचा। समय ने करवट ली और और दूरदर्शन के धारावाहिकों के रूप में विकसित हुआ नाटक।

डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ द्वारा लिखित  ‘बात इतनी सी सै’, विभिन्न विषयों पर दूरदर्शन के लिए लिखे अलग-अलग लघु नाट्यों का संग्रह है।

इन धारावाहिकों या एपिसोड का लेखन काल लगभग साढ़े तीन दशक पुराना है। स्वाभाविक है कि तत्कालीन समाज की भाषा, सोच, मूल्य, ऊहापोह जैसे अनेक बिंदु इनमें दृष्टिगोचर होते हैं। यही लेखन की कसौटी भी है जिस पर  लेखक खरा उतरता है।

सच्चा साहित्य वह है जो त्रिकाल तक अपने दृष्टि का विस्तार कर सके। उसकी आँखों में समकालीनता का प्रकाश हो, साथ ही अंतस में सार्वकालिकता का अखंड दीप भी प्रज्ज्वलित हो रहा हो। भूत, भविष्य और वर्तमान में प्रासंगिक बने रहना, लेखन की बड़ी उपादेयता है।

नाट्यलेखन के कुछ तत्व एवं सूत्र हैं। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, संवाद, देशकाल, शैली आदि का विस्तृत विवेचन लघु भूमिका में वांछित नहीं है। सारांश में कहना चाहूँगा कि नाटक की  प्रवहनीयता, उसकी सहजता और विश्वसनीयता भी होती है। नाटक नाटक तो हो पर नाटकीय न हो तो लेखन सफल है। इस आधार पर संग्रह के धारावाहिक सफल हैं।

इस सफलता की एक बानगी है, शादी, ब्याह से लौटने के बाद मिठाई और पकवान की विविधता और स्वाद पर बातें करना। इसी तरह बहू का सास के  पैर दबाना तत्कालीन जीवन मूल्यों की ओर संकेत करता है। “लड़की जैसे हीरा और तू हीरे की जौहरी..” जैसे संवाद अपने इर्द-गिर्द एवं परिवेश के लगते हैं। धारावाहिक के पात्र स्नेह, सम्मान, खीज, मतभेद सभी  जीते हैं। रिश्ते, सम्मानजनक सीमा का पालन करते हैं। इसके चलते संबंध आयातित नहीं लगते। वर्तमान में अनेक धारावाहिकों में सास-बहू एक दूसरे के विरुद्ध जानलेवा षड्यंत्र करते दीखती हैं। ऐसे में  एक साथ बैठकर धारावाहिक देखती सास और बहू दोनों के मन में यह प्रश्न उठता है कि ये कौनसी दुनिया के रिश्ते हैं? संबंध की नींव षड्यंत्र नहीं विश्वास होती है। ‘इतनी सी बात’ के पात्र इस विश्वास का निर्वाह करते हैं।

अलबत्ता नये रिश्ते जोड़ते समय आदमी के भीतर का लोभ, अपना लाभ तलाशता है। “एक हज़ार गज़ में दोमंजिला मकान,… पाँच सौ बीघा जमीन, एक लाख नगद दिलवा दूँगा,… घर भर देगा”,  जैसे संवाद इस लोभ को मुखर करते हैं। आदमी ऊपरी तौर पर आदर्शों की कितनी ही बात कर ले लेकिन निजी लाभ की स्थिति बनते ही सुविधा के गणित पर आ जाता है।  “क्या मैं दुनिया से न्यारी हूँ..” इस सुविधा का  प्रतिनिधि प्रस्तुतिकरण है। “..ब्याह शादी के कमीशन लेकर नहीं खाया करते../ अपना लोक-परलोक मत बिगाड़ना…” जैसे संवाद भारतीय दर्शन विशेषकर ग्रामीण और छोटे शहरों में भीतर तक पैठे सांस्कृतिक मूल्यों की सहज अभिव्यक्ति हैं।

ये धारावाहिक दूरदर्शन के लिए लिखे गए थे। अतः  इनके माध्यम से सरकारी नीतियों और योजनाओं का प्रचार-प्रसार होना स्वाभाविक है। “…पढ़ाई गाँव में इस्तेमाल करूँगा../ नए तौर-तरीके इस्तेमाल करूँगा..” जैसे संवाद इसके उदाहरण हैं।  “लड़का 21 बरस का, लड़की 18 बरस की न हो तो कानून में जुर्म है” यह वाक्य भी दहेज की मानसिकता के विरुद्ध जनजागरण के सरकार के प्रयासों और  कानून की जानकारी कथासूत्र में पिरोकर देता है।

इन धारावाहिकों का लेखन साँचाबद्ध एवं धाराप्रवाह है। यूँ भी धाराप्रवाह न हो तो धारावाहिक कैसा? कथासूत्र में ‘वॉट नेक्स्ट’ अर्थात ‘आगे क्या घटित होगा’ का भाव होना अनिवार्य तत्व है। इस संग्रह में यह भाव

पाठक की उत्कंठा को बनाए रखता है।

‘बात इतनी सी सै’ की बात दूर तक जाने में सक्षम है। आशा है जिज्ञासु पाठकों और इस क्षेत्र विशेषकर संहिता लेखन में काम कर रहे  नवोदितों के लिए यह संग्रह उपयोगी सिद्ध होगा।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “मैं एकलव्य नहीं” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री जगदीश कुलरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “मैं एकलव्य नहीं” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री जगदीश कुलरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : मैं एकलव्य नहीं (लघुकथा संग्रह)

लेखक : श्री जगदीश कुलरिया

प्रकाशक : के पब्लिकेशन, बरेटा (पंजाब)

मूल्य : 199 रुपये

☆ एक सोच और समर्पण के साथ लिखीं लघुकथायें – कमलेश भारतीय ☆

हिंदी व पंजाबी में एकसाथ सक्रिय जगदीश कुलरिया पंजाब से आते हैं और अनुवाद में तो अकादमी पुरस्कार भी पा चुके हैं । पंजाब के मिन्नी आंदोलन से जुड़े हैं और उनका ‘मैं एकलव्य नहीं’ लघुकथा संग्रह मिला तो लगभग दो ही दिनों में इसके पन्नों से गुजर गया और महसूस किया कि कुलरिया एक सोच और समर्पण के साथ लघुकथा आंदोलन से जुड़े हैं, कोई शौकिया या रविवारीय लेखन नहीं   करते है । अनेक पत्रिकाओं में इनकी रचनायें पढ़ने को मिलती हैं । शुरुआत के पन्नों में जगदीश कुलरिया ने अपने लघुकथा से जुड़ने और अब तक कि लघुकथा लेखन-यात्रा के अनुभवों का विस्तार से जिक्र करते लघुकथा के प्रति अपने समर्पण व दिशा और सोच के बारे में खूब लिखा है और अपनी कुछ लघुकथाओं का उल्लेख भी किया है उदाहरण भी दिये हैं । लघुकथायें समाज व आसपास से ही हुए अनुभवों पर आधारित हैं, जिनमें थर्ड जेंडर, रिश्वत, नेता का रोज़नामचा, ज़मीन के बटवारे के बीच अवैध संबंधों की पीड़ा और महिलाओं के सशक्तिकरण व एकलव्य की तरह अब अंगूठा न कटवाने जैसी घटनायें या कहिये अनुभव इनकी लघुकथाओं के आधार बने हैं और समाज को आइना दिखाते हैं । असल में आजकल मैं एक एक लघुकथा या रचना पर बात न कर, इनकी आधारभूमि को टटोलता हूँ और फिर लघुकथा के सृजन की पीड़ा को समझने का प्रयास करता हूँ। सौ पृष्ठों में फैली पुस्तक को अंतिम पन्ने तक पढ़ा है, जिसमें जगदीश कुलरिया का लघुकथा के प्रति समर्पण और लघुकथा के क्षेत्र में योगदान सब उभर कर सामने आया है । बधाई। लगे रहो कुलरिया भाई । हिंदी व पंजाबी लेखन के बीच एक शानदार पुल की भूमिका भी निभा रहे हो ।

लघुकथा संग्रह पेपरबैक में है और मुखपृष्ठ भी खूबसूरत है। बहुत बहुत बधाई । ऐसा लगता है यह लघुकथा संग्रह स्वयं कुलरिया ने ही प्रकाशित किया है, जो बहुत खूबसूरत आया है।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मैं सिमट रही हूँ — कवयित्री – रेखा सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 8 ?

?मैं सिमट रही हूँ — कवयित्री – रेखा सिंह  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- मैं सिमट रही हूँ

विधा- कविता

कवयित्री – रेखा सिंह

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? फल्गु की तरह अंतर्स्रावी कविताएँ  श्री संजय भारद्वाज ?

भूमिति के सिद्धांतों के अनुसार रेखा अनगिनत बिंदुओं से बनी है। इसमें अंतर्निहित हर बिंदु में एक केंद्र होने की संभावना छिपी होती है। ऐसे अनेक संभावित केंद्रों का समुच्चय हैं कवयित्री रेखा सिंह। परिचयात्मक कविता में वे अपनी क्षमताओं, संभावनाओं और आत्मविश्वास का स्पष्ट उद्घोष भी करती हैं-

मैं तो रेखा हूँ

मुझमें क्या कमी…!

प्रस्तुत कवितासंग्रह में कवयित्री ने अपने समय के अधिकांश विषयों को बारीकी से छूने का प्रयास किया है। नारी विमर्श, परिवार, आक्रोश, विवशता, गर्भ में पलता स्वप्न, लोकतांत्रिक चेतना, प्रकृति, विसंगतियाँ, धार्मिकता, अध्यात्म जैसे अनेक बिंदु इस रेखा में समाहित है। अपने परिप्रेक्ष्य से शिकायत का स्वर गूँजता है-

मैं गाती / यदि गाने का मौका दिया होता

मैं हँसाती / यदि हँसने का मौका दिया होता

ये शिकायत नारी की विशाल दृष्टि और परिवर्तन की अदम्य जिजीविषा में रुपांतरित होती है। कवयित्री इला के अंतराल में समानेवाली सीता नहीं बनना चाहती। दीपिका तो अवश्य जलेगी भले उजाले में ही क्यों न जलानी पड़े। मीमांसा तार्किक है, उद्देश्य स्पष्ट है-

अंधेरे में जलाऊँगी दीपिका,

क्योंकि उजाले में

दीपिका का अस्तित्व

तुम नहीं समझ सके !

अपराजेय नारीत्व चरम पर पहुँचता है, अभिव्यक्त होता है-

ओ सिकंदर,

तुम, विश्वविजेता बन सकते,

मुझे नहीं जीत सकते..!

पर सिकंदर का प्रेम पाते ही सारी कुंठाएँ विसर्जित हो जाती हैं। प्रेम के आगे सारे वाद बौने लगने लगते हैं। कवयित्री का स्त्रीत्व कलकल प्रवाहित होने लगता है-

आज कोई सिकंदर,

मेरे आगे झुका है,

आज फिर किसी नल ने

दमयंती से स्वयंवर रचाया है,

आ, अब लौट चलें अपनी दुनिया में,

बाकी पल गुज़ार लेंगे हँसते-हँसते..!

मानव के भीतर की आशंका से कवयित्री रू-ब-रू होती हैं, प्रश्न करती हैं-

क्या होती हैं विभ्रम की प्रवृत्तियाँ?

रस्सी को सर्प समझने की रीतियाँ?

रेखा सिंह ने समाज को समग्रता से देखने का प्रयास किया है। ‘सास-बहू’ के उलझे समीकरणों के तार सुलझाने की ईमानदार कोशिश है ‘काश’ नामक कविता। ‘धरातल’ राजनीतिक-सामाजिक विषमता के धरातल पर खड़े देश की सांप्रतिक पीड़ा का स्वर बनती है। ‘जोगी’ ‘स्नातक-भिक्षुक’ बनाती हमारी शिक्षानीति पर व्यंग्य करती है तो ‘जंगल की ओर’ सभ्यता की यात्रा की दिशा पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है। ‘आखिर क्यों’ और इस भाव की अन्य कविताएँ आतंकवाद की मीमांसा करने का प्रयास करती हैं।

शासनबद्धता का चोला ओढ़कर अन्याय को रोक पाने में असमर्थता व्यक्त करनेवाले भीष्म पितामह को आदर्श मानने से इंकार करना कवयित्री का सत्याग्रह है। ‘गंगापुत्र’ नामक इस कविता में दायित्व से बचने के बहाने तलाशनेवाली मानसिकता पर कठोर प्रहार है। संवेदना से लबरेज़ संग्रह की इन कविताओं में मनुष्य के सूक्ष्म मन को स्पर्श करने का सामर्थ्य है। ‘पुश्तैनी घर’ में ये संवेदना भारतीय प्रतीकों के संकेत से प्रखरता उभरी है। यथा-

तुलसी का चबूतरा

बन गया दीवार बंटवारे की..!

शहर द्वारा अपहृत होते गाँव ‘अनमोल’ कविता में सजीव हो उठते हैं-

सींचता बही जो बोता है,

उसके अंदर एक बच्चा रोता है..

झारखंड की हरित पृष्ठभूमि में रची गई इन कविताओं में प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है। अधिकांश कविताओं में ऋतुओं का वर्णन शृंगार रस में हुआ है। संग्रह में कई गीत भी शामिल किए गए हैं। इनमें गेयता और मिठास दोनों हैं। पूरे संग्रह में आँचलिकता मिश्री-सी घुली हुई है और उसकी माटी की सुगंध हर रचना में समाहित है। ‘चंबर’, ‘मोजराई गंध’, ‘तुदन’ जैसे शब्द पाठक को कविता की कोख तक ले जाते हैं। ‘शिवजी की बरात’, ‘कल्पगा की धार’ जैसे प्रतिमान लोकसंस्कृति के स्वर को शक्ति प्रदान करते हैं। पपीहा तो कवयित्री के मन से निकलकर कई बार कविता के अनेक पन्नों की सैर कर आता है। ‘मल्हार’ कविता में पंद्रह अगस्त को तीज-त्यौहार से जोड़ना बेहद प्रभावी और सार्थक बन पड़ा है।

कवयित्री ने नारी विमर्श को एकांगी न रखते हुए एक ही कविता से क्यों न हो, पुरुष के मन की भीतरी परतों को टटोलने का प्रयास भी किया है। रेखा सिंह की कुछ हास्य कविताएँ भी इस संग्रह में सम्मिलित हैं। हास्य रस पर कवयित्री की पकड़ साबित करती है कि वे बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं।

शीर्षक कविता ‘मैं सिमट रही हूँ में प्रयुक्त सिमटना को मैं सकारात्मक भाव से सृजन के लिए आवश्यक प्रक्रिया के तौर पर देखता हूँ। बाहर विस्तार के लिए भीतर सिमटना होता है। यह संग्रह इस बात का दस्तावेज़ है कि कवयित्री का रचना सामर्थ्य लोहे के दरवाज़ों की नींव हिलाने में समर्थ है। कितने ही दरवाज़े लग जाएँ, वह ताज़ा हवा का झोंका तलाश लेंगी।

मैं सिमट रही हूँ,

अपने आप में,

धुआँकश कारागार में,

मेरे इर्द-गिर्द लग गए

लोहे के दरवाज़े..!

कवयित्री ने एक रचना में धरती के भीतर प्रवाहित होती फल्गु नदी का संदर्भ दिया है। रेखा सिंह की ये कविताएँ भी फल्गु की तरह अंतर्स्रावी हैं। भीतर ही भीतर प्रवाहित होने के कारण ये अब तक वांछित प्रकाश से वंचित रही हैं। ये अच्छी बात है कि अंतर्स्राव धरती से बाहर निकल आया है। अब इसे सूरज की उष्मा मिलेगी, चंद्र की ज्योत्स्ना मिलेगी। सृष्टि के सारे घात-प्रतिघात, मोह-व्यामोह, प्रशंसा-उपेक्षा सभी मिलेंगे। इनके चलते परिष्कृत होने की प्रक्रिया भी निरंतर चलती रहेगी।

फल्गु अब संभावनाओं की विशाल जलराशि समेटे गंगोत्री-सी कलकल बहने को तैयार है। अपने भूत को झटक कर उसे भविष्य की यात्रा करनी है।

अतीत के पन्ने,

उलटो न बार-बार,

चलते चलो,

कश्ती कर जाएगी

मझधार पार।

शुभाशंसा।

(श्रीमती रेखा सिंह का पिछले दिनों देहांत हो गया। वर्ष 2009 में प्रकाशित उनके कवितासंग्रह ‘मैं सिमट रही हूँ’ की यह समीक्षा दिवंगत को श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं।)

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी” – सुश्री इन्दिरा किसलय ☆ चर्चाकार –  श्री अशोक शर्मा ☆

श्री अशोक शर्मा

 

☆ पुस्तक चर्चा  ☆ “बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी” – सुश्री इन्दिरा किसलय ☆ चर्चाकार –  श्री अशोक शर्मा ☆

पुस्तक – बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी

कृतिकार—इन्दिरा किसलय

समीक्षक—अशोक शर्मा चण्डीगढ़

प्रकाशक—अविशा प्रकाशन

मूल्य –150/-

पृष्ठ–100

मनोमंथन को विवश करती — “बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी” – श्री अशोक शर्मा ☆

“बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी “शीर्षकवाही कृति में लेखिका “इन्दिरा किसलय” के 40 आलेख संग्रहित हैं। उनकी दो दशक की साहित्यिक यात्रा के मनपसंद पड़ाव कह सकते हैं इन्हें। जो यथासमय विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।

इन्दिरा किसलय

उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि संग्रह के अधिकांश लेख स्त्री सशक्तिकरण पर केन्द्रित हैं।

उन्होंने एक ओर पराधीनता के दृश्य उकेरे दूसरी ओर आजादी के सम्यक प्रयोग से प्राप्त ऊँचाइयों को भी अंकित किया है।

लेखिका ने अन्य विषयों पर भी कलम की आजादी का भरपूर उपयोग किया है फिर वह राजनीति, धर्म अध्यात्म, गांधीवाद, पर्यावरण तथा युद्ध ही क्यों न हो, उनकी जाग्रत संचेतना से जुड़कर जानकारियों के साथ भावभीना स्पर्श भी दे जाते हैं। पौराणिक कथानकों की नवतम व्याख्या भी संलग्न है। कहने की जरूरत नहीं कि हर समसामयिक संदर्भ में शाश्वत प्रवाह की गूँज छिपी होती है।

“झरोखा कान्हा की यादों का” एवं “रिमझिम बरसे हरसिंगार ” जैसे संस्मरणात्मक ललित लेख एक मधुर गंध फिजां में घोल देते हैं। दुग्ध शर्करा योग की तरह।

पाठक, लेखिका की संवेदनशीलता के साथ हर दृश्य देखता है। यह अनुभूति आम सैलानी के लिये असंभव है। पढ़ते पढ़ते अर्थ कहीं गुम हो जाते हैं। कितने दृश्य आँखों के सामने से गुजर जाते हैं। कल्पना को यथार्थ के साथ पिरोना कोई इन्दिराजी से सीखे। सितारे ऊँचाई से थककर पेड़ों के पत्तों पर आकर बैठ जाते हैं।

आलेख पढ़ते पढ़ते कभी लगेगा कि आप कोई कविता पढ़ रहे हैं, कभी कोई पेंटिंग देख रहे हैं, या फिर लेखिका के साथ चर्चा कर रहे हैं। दिमाग कहीं खो जाता है, मन मस्तिष्क पर हावी होकर गुनगुनाने लगता है।

लेखकों का शुतुरमुर्गी आचरण हो या ज्वालाग्राही लेखन से डरती हुई सियासत या उत्सव, पर्यावरण ध्वंस या यूक्रेन-रूस, इज़राइल फिलीस्तीन युद्ध के रक्तरंजित दृश्य, लेखिका की नज़र से ओझल नहीं हो पाते।

मुखपृष्ठ पर अंकित चित्र संकेतित करता है कि प्रकृति के समग्र दर्शन का सौभाग्य मिलता है, अगर मन-मस्तिष्क के द्वार खुले हों।

भाषा तो भावना के संकेतों पर सिर झुकाए हुये चली आती है। पूरे मन से लिखे गये आलेख प्राणों के स्पंदन और शिल्प सौंदर्य की निरायास गवाही देते हैं। उन्होंने पंजाबी और अंग्रेजी शीर्षक देने से भी परहेज नहीं किया है। कठिन उतने ही रोजमर्रा की बोली के शब्द भी आसानी से मिल जाते हैं।

अविशा प्रकाशन की यह किताब पाठकों को मनोमंथन को विवश तो करेगी ही, सुमन विहग के पंखों का रंग ऊंगलियों पर लपेट देगी इसी विश्वास के साथ—

—–

समीक्षक – श्री अशोक शर्मा

चंडीगढ़

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘समय से संवाद’ – लेखिका : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ. दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘ ☆

डॉ. दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘

☆ ‘समय से संवाद’ – लेखिका : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘

 

पुस्तक का नाम – समय से संवाद

लेखिका         – डॉ० मुक्ता

प्रकाशक        – वर्ड्सविगल पब्लिकेशन

प्रकाशन वर्ष    – 2023

समीक्षक       — डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘

साहित्याकाश में डॉ० मुक्ता जी का नाम विशेष अग्रणी स्थान रखता है। राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित आप किसी पहचान की मोहताज़ नहीं हैं। डॉ० मुक्ता जी के सरल,सहज,सौम्य और मृदु स्वभाव ने सभी को अपना बना लिया है। बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी डॉ० मुक्ता जी का वृहद् रचना संसार उनके विस्तृत भावालोक व रचनाधर्मिता को दर्शाता है।लेखन कौशल ने पुस्तकों को पठनीय व संग्रहणीय बना दिया है। विलक्षण सूक्ष्म और व्यापक दृष्टि,समाज में घटित घटनाओं को बहुत ही सहजता से हुबहू उतार देती है।आपका शब्द भण्डार असीम को ससीम रखते हुए,कुछ इस तरह अभिव्यक्ति पाता है कि पाठक उन घटनाओं,परिस्थितियों को स्वयं जी रहा है,ऐसा अनुभव करता है। जो घटनाएँ दूर-दूर तक आपके जीवन में कभी पास शायद नहीं फटकीं होंगी,उनका भी सशक्त और सचोट वर्णन आपकी अभिव्यक्ति क्षमता व आपकी संवेदनशीलता का परिचायक है।

‘समय से संवाद‘ काव्य-संग्रह जीवन से संवाद है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ ही पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है।कोमल पन्ने व छपाई सभी कुछ प्रभावशाली है। प्रकाशक ने भी अपना उत्तरदायित्व बखूबी निभाया है। वे भी बधाई की पात्र हैं।

जीवन में घटित होती घटनाएँ मानव मन को जिस तरह प्रभावित करती हैं और मनुष्य जिस तरह उनके प्रति प्रतिक्रिया करता है, उन सभी का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए बड़ी ही ख़ूबसूरती से शब्दबद्ध कर जन-सामान्य तक पहुँचाने का प्रयास किया है डॉ० मुक्ता जी ने। नारी मन, नारी जीवन के प्रति विशेष संवेदनशील है।नारी को केन्द्र में रख कर अभिव्यक्ति पाती भावनाएँ हर नारी के मन को उद्वेलित कर जाती है।समाज में नारी का स्थान, नारी के कर्त्तव्य नारी की अहम् भूमिकाओं का सहज व यथार्थ चित्रण अभिभूत करता है। कठिन परिस्थितियों में जीवन निर्वाह करती नारी,आगे बढ़ने और परिवार का दायित्व-वहन के निमित्त कितना जूझती है,संघर्ष करती है कल्पनातीत व शब्दातीत है। सहनशक्ति की पराकाष्ठा स्वरूप धरती बन सब कुछ सहन करती नारी के कोमल मन के आहत आर्तनाद को मुखरित करती रचनाएँ मन को छूकर उद्वेलित कर जाती हैं। रिश्तों में गिरावट,बनावट और दिखावेपन की नाटकीयता जीवन के प्रति एक नई दृष्टि दे जाती है।

आज डिजिटल युग में अनजाने संबंधों की भीड़ तो है,किन्तु अपना कहने को कोई नहीं।“तन्हा ज़िन्दगी, तन्हा हर इंसान है”आभासी दुनिया तो बहुत बड़ी है, किन्तु अपना कहने के लिए कोई नहीं।सामीप्य,नैकट्य और साधिकार कुछ कह सकने की स्वतंत्रता और साहस से सम्पूर्ण वंचित आज का मानव अपने एकाकीपन से बेहद भयभीत रहता है।यही कारण है कि वह तनावग्रस्त रहता है और अंततः अवसाद में डूब जाता है। हर कोई उसे पराया और दुश्मन-सा प्रतीत होता है और चहुँओर उसे नकारात्मकता का ही बोलबाला नज़र आता है।दुविधा और शक़ के कारण वह अभागा किसी से आत्मीय संबंध नहीं बना पाता।

एकाकीपन बढ़ता जा रहा है। आपसी संवाद समाप्त हो रहे हैं। रिश्तों में दूरियाँ बढ़ रही हैं।औपचारिकता ने संबंधों की परिभाषा बदल डाली है।”हर इंसान ख़ुद से ख़ौफ़ खा गया।” शायद सब स्वयं से भी डरने लगे हैं।इतना ही नहीं ख़ुद से भी दूर भागने लगे हैं।

सामाजिक मूल्य व मान्यताएँ भी परिवर्तित हो  रही हैं।समाज विसंगतियों का आग़ार बनता जा रहा है। आरोप-प्रत्यारोप में उलझा मनुष्य संबंधों का निर्वाह करना भूलता जा रहा है। सभ्यता-संस्कृति व प्रचलित मान्यताएँ-परम्पराएँ दम तोड़ती-सी नज़र आती हैं।इन नज़्मों में  सामाजिक समस्याओं से रूबरू कराते हुए यथार्थ का चित्रण भी है और समस्याओं का समाधान भी।बड़े-छोटे का लिहाज़ जहाँ एक ओर कम हो रहा है वहीं उसे पुनः स्थापित करने की प्रेरणा भी मिल रही है।

“बदल जाते हैं जब इंसान के तेवर,बहुत तकलीफ़ होती है” और “सभी अपने नज़र आते बेग़ाने हैं”

हर चेहरे पर मुखौटा लगा है।सब एक-दूसरे को छलने के लिए आतुर हैं। छल-कपट व आत्म-प्रवंचना से सावधान करती रचना सावधानी बरतने व बच के रहने का संकेत प्रेषित करती है।

परिवार खण्डित हो रहे हैं।

“आजकल बच्चे आईना दिखाने लगे हैं “

“ बेवजह तमतमाने लगे हैं। “

“ सोच बदल गई है।केवल अपने बारे में ही सोचते हैं” उन्हें आज किसी का सुझाव,निर्देश कुछ भी नहीं सुहाता।सुनना नहीं; वे बस सुनाना  चाहते हैं।तभी मुक्ता जी कहती हैं कि “बच्चे जब  बड़े हो जाएँ तो उन्हें,उनके हाल पर छोड़ दें।

“नेह के सब नाते छूटते चले गए।मानो सुख सदा के लिए रूठ गए।”

अहम् भी कुछ ज़्यादा हावी हो रहा है। बार-बार एक संकेत कि “मन में पसरा सन्नाटा क्यों है?”

संदेशात्मक रचनाएँ आग़ाह भी करती हैं और सकारात्मकता का संचार भी करती हैं।साथ ही वे आश्वस्त भी करती हैं कि अब भी समय है, सब कुछ सँभल सकता है।थोड़े से प्रयास की ओर इस दिशा में हर किसी को सोचने की आवश्यकता है। सकारात्मकता की पराकाष्ठा देखिए–

“ निराशा में आशा के फूल खिलाता चल”

“ कल की चिंता मत कर बंदे, वर्तमान में जीना सीख ले” सही संदेश है।

ज़िन्दगी वरदान स्वरूप ईश्वर का उपहार है। ज़िन्दगी मिली है तो भरपूर जीने का आनंद उठाते हुए जीना चाहिए।ज़िन्दगी से शिक़ायतें नहीं,शुक्रिया का भाव रखना चाहिए।निराशा नहीं,कदम-कदम पर आशा संचरित करती मर्मस्पर्शी रचनाएँ जीवन के प्रति सकारात्मकता का संदेश देती हैं।

एक ओर आशा है,उम्मीद है, ख़ुशियाँ हैं, सुख हैं तो दूसरी ओर वर्तमान की दिल दहलाने वाली घटनाएँ मन में दावानल सुलगाती हैं।हर पल मन में एक आशंका व एक आतंक छाया रहता है। अनिश्चितता का डर तो सदा से ही है,लेकिन इसके अलावा भी अनेक परिस्थितियाँ भी ऐसी होती जा रही हैं कि जीने की जिजीविषा ही जैसे ख़त्म होती जा रही है।

हौसला और प्रयास दो ही मूलमंत्र स्वीकारे जा सकते हैं,जिसके बल पर हम सब सफलता प्राप्त कर सकते हैं;आकाश की बुलँदियों को छू सकते हैं और ज़माने को कदमों में झुका सकते हैं।आज व्यक्ति ख़ुद से भी बहुत दूर होता जा रहा है।उसे ख़ुद की तलाश रहती है और यह सिलसिला अनवरत जारी है।जबकि यह भी देखा गया है कि वह ख़ुद में ही मग्न रहता है और जब वह सजग होता है तो दूसरों की आलोचना में लिप्त हो जाता है।डॉ० मुक्ता सशक्त शब्दों में सार्थक संदेश देती हुई कहती हैं कि

“दूसरों में दोष देखना छोड़ दे बंदे!अंतर्मन में झाँकना सीख ले बंदे!” ऐसा हो जाए तो दुनिया रहने के लायक़ बन जाए।अपना ज़मीर भी बचाना बहुत ज़रूरी है,क्योंकि जिसका ज़मीर मर जाता है,वह मनुष्य ज़िन्दा लाश बन जाता है।

जब रिश्तों में दरारें पड़ जाती हैं तो दीवारें बन जाती हैं।आज की एक नई समस्या का बहुत स्पष्ट संकेत भी दिया है।

“लोग तो बेवजह इल्ज़ाम लगा देते हैं।” हक़ीक़त है और हम हैं।आज आपराधिक घटनाएँ बहुत घटित हो रही हैं।निरपराध को अपराधी बनाने का अपराध भी बहुत कर रहे हैं लोग।दूसरे शब्दों में ग़लत इल्ज़ाम लगा कर फँसाने की प्रवृत्ति बेतहाशा बढ़ रही है। “क्या वे दिन आएँगे ?” प्रश्न निराशाजनक है,क्योंकि हम सभी जानते हैं कि जो बदलाव आ गया है,वह अतीत की अच्छाइयों को विस्मृत कर नकारते हुए आगे निकल जाएगा।फिर भी एक आशा की किरण जगाती भावना का स्वागत् है कि जब हम सब फिर एक साथ मिल बैठेंगे।आपस में संवाद करेंगे। हँसेंगे, मुसकाएंगे,गुनगुनाएँगे।अमावस का अँधेरा छँट जाएगा और पूनम का चाँद जगमगाएगा। यह चाहत हर किसी की है। हर किसी की तमन्ना को ही व्यक्त किया है।

लेखिका ने वह भी कुछ इस तरह कि ऐसा हो तो कितना सुन्दर हो, लेकिन लगता नहीं कि यह सब होगा।ढाढ़स बँधाते हुए डॉ० मुक्ता यह भी कहती हैं कि घबरा मत, संघर्ष कर।

“जिसे ज़िन्दगी में काँटों पर चलना आ गया।वह ज़माने की हर दौलत पा गया।”सोलह आने सच, इस तथ्य को कोई झुठला नहीं सकता;अस्वीकार नहीं कर सकता।

वास्तव में हर हाल में ख़ुश रहना ही ज़िन्दगी है।

आशावादिता कूट-कूट कर भरी हुई है।जीने की इच्छा भी। तभी तो मुक्ता जी कहती हैं–

“जीना है मुझे मरना नहीं” वो न केवल स्वयं जीना चाहती हैं, वरन् सभी को यही निर्देश दे रही हैं कि कठिनाइयों से हारना नहीं,जूझना है और जीना है।

ज़िन्दगी को भरपूर जीने के बाद अध्यात्म की ओर मुड़ना स्वाभाविक है। मन के मनोविज्ञान को समझते-समझाते हुए अध्यात्म की ओर भी इशारा किया है कि “मेरी मंज़िल क्या है कोई बताए।मुझे मेरे मालिक से मिला दे कोई।”

अच्छी रचना है।आत्मा का परमात्मा से मिलन और विलय ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है।मिलन पर्व सुखद व आनंदप्रदायी होगा।आशा का संचार करते हुए डॉ० मुक्ता कहती हैं कि “ऐ मन, मत घबरा! दुःख के बादल छंट जाएँगे”

मन में आशा जगाती,विश्वास सृजित करती रचनाएँ मानव मन को आंदोलित करती हैं।

पुस्तक हाथ में आते ही उसे पूरा पढ़ने का मन कर जाता है। विविधता लिए हुए हर रचना हृदय को प्रभावित करती है।डॉ० मुक्ता जी की लेखनी यूँ ही सतत चलती रहे व सार्थक संदेश प्रसारित करती रहे – यही शुभकामना है।

अन्य पुस्तकों की भाँति यह पुस्तक “समय से संवाद” भी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय होगी, ऐसा मुझे विश्वास है तथा शुभेच्छा है।

बहुत-बहुत बधाई एवं हार्दिक मंगल कामनाएँ।

© डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘

कैलीफ़ॉर्नियां, अमेरिका

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मौन टूटता है – कवयित्री- डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 7 ?

? मौन टूटता है – कवयित्री- डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – मौन टूटता है

विधा- कविता

कवयित्री- डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? सदा जीवित रहने की जिजीविषा हैं ये कविताएँ  श्री संजय भारद्वाज ?

मनुष्य के भीतर संचित होता बूँद दर बूँद निरीक्षण और परत दर परत अनुभूति, जब  चरम पर आते हैं तो उफनकर छूते हैैं सतह और मौन टूटकर शब्दों में मुखर हो उठता है। मुखरित इसी मौन की अभिव्यक्ति का एक प्रकार है कविता। मर्मज्ञ कवि वर्ड्सवर्थ ने पोएट्री को ‘स्पाँटेनियस ओवरफ्लो ऑफ पावरफुल फीलिंग्स’ कहा है। ‘’पावरफुल फीलिंग्स’ की मुखरित अनुभूतियों का संग्रह है कवयित्री डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी रचित ‘मौन टूटता है।’

‘मौन टूटता है’ की कविताओं में अध्यात्म की अनुगूँज है। पर्यावरण की चिंता, प्रकृति से समरसता है। अच्छा मनुष्य बनना और अच्छा मनुष्य बनाना कवयित्री के चिंतन का केंद्र है। आत्मविश्लेषण से आरंभ इस चिंतन की ईमानदारी प्रभावित करती है। पाठक और रचयिता के लिए उनके मानदंड अलग-अलग नहीं हैं। अपने ही मुखौटों से विद्रोह कर सकने का भाव उनकी कविता को एक मोहक सुगंध से भर देता है-

मैं कभी-कभी ऐसा क्यों करती हूँ-

अपनी पहचान-स्वभाव भूलकर

क्यों कोई अलग चोला पहनती हूँ?

वर्तमान स्थितियों में सूर्योदय से सूर्यास्त तक समझौतों पर जीनेवाला आदमी शनैः-शनैः अपनी जीवनशैली और दैनिकता में ऐसा कैद हो गया है कि ‘साँस लेना’ और ‘साँस जीना’ में अंतर भूल गया है। यह विसंगति कवयित्री को मथती है। सामाजिक संदर्भ के प्रश्नों पर टिप्पणी करती उनकी पंक्तियाँ व्यवस्था में यथास्थितिवाद पर अपनी चिंता रखती हैं-

जब क़ैद होना आदत बन जाए

तब आज़ादी कैसे महसूस की जाए?

कांति जी की रचनाओेंं में दर्शन, आस्था, निष्ठा का अंतर्भाव है। एक ‘स्कूल ऑफ थॉट’ लेखन को व्यवस्था के विरोध की उपज मानता है। वस्तुतः लेखन को किसी सीमा में बाँधना उचित नहीं है। लेखन जीवन के सारे भावों की अभिव्यक्ति है। साहित्य में सर्वाधिक लेखन प्रेम विषयक हुआ है। प्रेम चाहे देश से हो, पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका का हो, संतान अथवा माता-पिता से हो, सदा सकारात्मकता से उपजता है। कवयित्री की सकारात्मकता तथा उसमें निहित विषयों की व्यापकता की कुछ बानगियाँ दृष्टव्य हैं-

1.माटी के खिलौने दुनिया के प्रति असीम तृष्णा के प्रति आगाह करती पंक्तियाँ-

रेशम का सुंदर जाल, बुनते रहते आस-पास

पाते जितनी अधिक, बढ़ती उतनी प्यास।

2.इस तृष्णा को संतोष-जल से तृप्त करने का अनुभव व्यक्त करती पंक्तियाँ-

और अधिक, और-और की चाह से बची रही

हे अनंत तुझसे, मुझको संतोष की ऐसी धार मिली।  

3.संतान के सान्निध्य में ‘अभाव’ भूलने का यह भाव दर्शाती पंक्तियाँ-

आज भी जब-जब तुझसे मिलते,

‘अभाव’ शब्द की व्याख्या भूल जाते।

4.मानव कल्याण और श्रेष्ठ मानव निर्माण की भावाभिव्यक्ति-

मुझे मानव अतिप्रिय है

प्रकृति का कण-कण प्रिय है।

……………………………….

हमें बनना है आज सही परिभाषा भूषित मानव

तभी होगा कल्याण जगत का और हमारा मानव।  

हम पथिक हैं। चलना हमारी नीति होनी चाहिए। नियति तो है ही। यात्रा को गंतव्य स्वीकार करने या न करने की ऊहापोह से बचने के लिए कवयित्री प्रश्न करती हैं-

हम क्या करें?

उत्तर खोजें या फिर

बस सुचिंतन, सत्कर्म,

सत्पथ के यात्री बन जाएँ।

सृजन कवयित्री का अतीत, वर्तमान, भविष्य सब है। अतः सृजनशील रहना भक्ति में रमने जैसा है। सृजनात्मकता एवं परमात्मा से निकटता में प्रत्यक्ष अनुपात का संबंध है। सृजनात्मकता जितनी ब़ढ़ेगी, परमेश्वर उतने ही निकट अनुभव होंगे। यही कारण है कि विनीत भाव से कवयित्री अपनी मनीषा व्यक्त करती हैं-

जब तक रीत नहीं जाती

शब्द बिछाती रहूँगी,

जब तक ऊब नहीं जाती,

मैं यूँ ही गाती रहूँगी।

जीवन का अनुभव अन्य क्षेत्रों की तरह लेखन को भी परिपक्व करता है। रचना में उतरी ये परिपक्वता पाठक को विचार करने के लिए विवश करती है। स्वाभाविक है कि कवयित्री की कलम स्त्री सुरक्षा और बुज़ुर्गों के प्रति चिंता को लेकर बहुतायत से चली है। बच्चियों की खिलखिलाहट को ‘नीच ट्रेजेडी’ में बदलने की आशंका से सहमी ये पंक्तियाँ देखिए-

मासूम कन्या को क्या मालूम है,

आकाश मार्ग से उड़कर

कोई चील, कोई गिद्ध आयेगा,

झपट्टा मारकर उसे

उड़ाकर साथ ले जायेगा!

बुज़ुर्गों के प्रति संवेदनहीनता, निर्बल पर वर्चस्व का कुत्सित भाव निरीक्षण से लेखन तक यात्रा करता है-

अनीति कर विजय का अहसास,

आज है यह आम बात,

अनादर, कटुवचन, अपमान ख़ास बात,

ज्येष्ठों के साथ है आम बात।

वे स्त्री को देवी या केवल भोग्या दोनों ध्रुवों से परे केवल मनुष्य मानने की हिमायती हैं। यह हिमायत यों शब्द पाती है-

उसे संभालो, उसे सँवारो,

पूजो मत, मित्र बनो,

साथी बन निहारो।

भावनाओं को दबाकर रखना, इच्छाओं को दफ़्न कर देना मनुष्य जीवन की अवहेलना है। मानसिक विरेचन के जरिए खुलना, खिलना, सहज होना मनुष्य होने की संभावनाएँ हैं।

मन झिझकता है, झिझकने दो,

भीरूता का ख़्वाब तो नहीं,

मन सिसकता है, सिसकने दो,

रोना कोई अभिशाप तो नहीं।

मनुष्य पंचमहाभूत की उत्पत्ति है। पंचमहाभूत प्रकृति के घटक हैं। प्रज्ञा चक्षु प्रकृति एवं मनुष्य में अद्वैत देख पाते हैं। जो प्रकृति में घट रहा है वही मनुष्य जीवन में बीत रहा है। दूसरे छोर से देखें तो जो मनुष्य जीवन में है, उसीका प्रतिबिम्ब प्रकृति में है। घटती आत्मीयता के संदर्भ में इस अद्वैत के दर्शन कवयित्री कुछ यों करती हैं-

आज रिश्ते बीत रहे,

छतनार वृक्ष रीत रहे।

कवयित्री में रची-बसी बुंदेलखंड की आंचलिकता कतिपय शब्दों और उपमानों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती है। संग्रह में बुंदेलखंडी के एक गीत का समावेश है। लम्बे समय से महाराष्ट्र में रहने के कारण मराठी की मिठास स्वाभाविक है। यथा- पर्वत ‘सर’ करना (जीतना/ रोहण)। अँग्रेजी का ‘रिदम’ कविता की धारा को रागात्मकता प्रदान करता है। हिंदी-उर्दू का मिला-जुला प्रयोग जैसे ‘यामिनी आँचल में सहर’ कविता का विस्तार करता है। विभिन्न भाषाओं से आए शब्दों का प्रयोग ‘नथिंग इज एबसोल्युट’ को प्रतिपादित भी करता है।

ये कविताएँ जीवन की समग्रता को बयान करती हैं। जीवन के अनेक पक्ष इनमें उभर कर आते हैं। पूर्वजों, निजी सम्बंधियों, आत्मजों से संवाद करती हैं ये कविताएँ। सृष्टि के सुर-ताल, राग-लय, आरोह-अवरोह से होकर आगे की यात्रा करती हैं ये कविताएँ। जीवन के प्रति आसक्ति और विषय भोग के प्रति विरक्ति का प्रतिबिंब हैं ये कविताएँ। मनुष्य और मनुष्यता के प्रति असीम विश्वास हैं ये कविताएँ। अध्यात्म, आस्था, प्रकृति, समानता, स्त्री, संस्कृति के प्रति चेतन बोध हैं ये कविताएँ। देह रहते और विदेह होने के बाद जीवित रहने की जिजीविषा हैं ये कविताएँ।

डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी का मौन बार-बार टूटे। कामना है कि उनके मुखरित शब्द अनेक पुस्तकों की शक्ल में अच्छी और सच्ची रचनाधर्मिता के पाठक को तृप्त करें।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 165 ☆“संभवामि युगे युगे” – लेखक … श्री कुमार सुरेश ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री कुमार सुरेश द्वारा लिखित पुस्तक “संभावामि युगे युगे” (जीवनी) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 165 ☆

“संभवामि युगे युगे” – लेखक … श्री कुमार सुरेश ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

संभवामि युगे युगे

आई एस बी एन ९७८.९३.८९४७१.५०.२

कुमार सुरेश

विद्या विहार नई दिल्ली

मूल्य ३०० रु

चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव

मो ७०००३७५७९८

श्रीमद्भगवत गीता के चौथे अध्याय के आठवें श्लोक “परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ “से श्री कुमार सुरेश ने किताब का शीर्षक लिया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुष्टों के विनाश के लिये मैं हर युग में हर युग में फिर फिर जन्म लेता हूं। विदेशी आक्रांताओ के विरुद्ध भारत की निरंतर संघर्ष गाथा का इससे बेहतर शीर्षक भला हो भी क्या सकता था। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन सारा जहाँ हमारा। प्रगति के लिये अस्तित्व का यह संघर्ष रूप बदल बदल कर फिर फिर हमारे समाज में खड़ा होता रहा है, आज भी जारी ही है। कुमार सुरेश मूलतः एक अध्येता और विचारक बहुविध लेखक हैं। कभी उनका व्यंग्यकार उनसे तंत्रकथा जैसा मारक व्यंग्य उपन्यास लिखवा डालता है, तो कभी वे व्यंग्यराग लिखते हैं जिसमें वे अपने स्फुट व्यंग्य संग्रहित कर साहित्य जगत को सौंपते हैं। कभी उनके अंदर का कवि “शब्द तुम कहो”, “भाषा सांस लेती है”, “आवाज एक पुल है ” जैसी कविताओ के महत्वपूर्ण संग्रह रच देता है। साहित्य जगत उन्हें गंभीरता से पढ़ता और रजा पुरस्कार या शरद जोशी जैसे सम्मानो से सम्मानित करता है। कुमार सुरेश के पास अनुभव है, उन्होंने प्रकाशन जगत में भी दस्तक दी थी, वे प्रशासनिक अधिकारी रह चुके हैं। उनके पास जन सामान्य पाठक तक पहुंचने वाली अभिव्यक्ति और भाषा सामर्थ्य है। वे मेरे अभिन्न सारस्वत मित्र हैं, और इस किताब की लेखन यात्रा में पाण्डुलिपि पढ़ने, शीर्षक तय करने तथा प्रकाशक कौन हो यह निर्णय लेने में पल पल अवगत रहने का गौरव मुझे रहा है।

अपने इतिहास को जानना समझना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार भी है और कर्तव्य भी। इतिहास के प्रति जिज्ञासा नैसर्गिक मनोवृत्ति होती है। घर परिवार कुटुम्ब में दादियों की ज्वैलरी के डिब्बे में सिजरे होते हैं जिनमें पीढ़ी दर पीढ़ी खानदान का हाल नाम पते मिल जाते हैं। जिनके घरों में यह नहीं उनकी पुश्तों का हिसाब प्रयाग संगम के पंडो के पास मिल ही जाता है। राजस्थान में वंशावली लेखन की परंपरा है। पुराने राजाओ ने अपने दरबार में इस कार्य के लिये लोगों को रखा था, जो बढ़ा चढ़ा कर राजाओ तथा उनके पूर्वजों और राज परिवार के सदस्यों की वीरता तथा महिलाओ की सुंदरता के किस्से लिखा करते थे। यह वंशावली लेखन की व्यवस्था आज भी राजस्थान में चल रही है। गौरव शाली इतिहास पर नई पीढ़ी गर्व करती है, पुरानी गलतियों से शिक्षा लेती है किंतु यह भी सही है कि इतिहास का ज्ञान वर्तमान में कटुता भी फैलाता है, आज देश में यही देखने में आ रहा है। राजनैतिक दल इसका लाभ लेने से बाज नहीं आ रहे। अस्तु।

संभवामि युगे युगे में कुमार सुरेश ने कालक्रम में प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर संदर्भ देते हुये सिकंदर के समय से औरंगजेब के काल तक भारतीय इतिहास को अपनी वांछित तीप के साथ संजोने में सफलता अर्जित की है। पुस्तक के अध्यायों का अवलोकन करें तो पुस्तक लेखन का मूल आशय समझ आ जाता है। वर्तमान में जो इतिहास पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा रहा है, उसमें अनेक विदेशी आक्रांताओ का महिमा मंडन पढ़ने मिलता है। संभवतः गंगा जमनी तहजीब की संस्कृति बताकर उन आक्रांताओ का पक्ष सशक्त होने के चलते सामाजिक समरसता बनाये रखने के लिये वामपंथी इतिहास कारों ने ऐसा किया। किन्तु कुमार सुरेश ने पूरी ढ़ृड़ता से ऐसे कई आक्रांताओ की क्रूरता और अत्याचार पर बेबाकी से लिखा है। उन्होंने यह धारणा भी खंडित की है कि समुचा भारतवर्ष पर मुगल साम्राज्य के अधीन था।

पहले अध्याय “भारत सदा से एक राष्ट्र है”, में लेखक ने आर्य संस्कृति को मूलतः भारतीय संस्कृति लिखते हुये हिन्दुओ के देश भर में फैले ज्योतिर्लिंग, देवी पीठों, कुंभ के आयोजनो जैसे तर्क रोचक तरीके से रखा है। पुस्तक में डी एन ए एनालिसिस के वैज्ञानिक आधार पर आर्य तथा द्रविड़ को मूलतः भारत का हिस्सा बताया गया है। उन्होंने उल्लेख किया है कि १९४६ में ही अंबेडकर जी ने सिद्ध कर दिया था कि आर्य बाहर से नहीं आये थे। दूसरा अध्याय “सोने की चिड़िया पर बुरी नजरें ” है। किंचित भारतीय भूगोल, भारत से जुड़ने वाले विदेशी मार्गों के सचित्र वर्णन के साथ अखण्ड भारत की तत्कालीन संपन्नता और इस वजह से विदेशियों की भारत में रुचि पर विशद वर्णन इस अध्याय में है। इस पुस्तक को लिखने के लिये लम्बे समय तक कुमार सुरेश ने गहन अध्ययन किया है, जिनमें दर्जन भर से अधिक अंग्रेजी की किताबें हैं जिन्हें अध्ययन कर उनके वांछित कथ्य अपने तर्क रखने के लिये लेखक ने किया है। यह तथ्य संदर्भांकित पुस्तकों की सूची ही नहीं हर अध्याय में उधृत एतिहासिक अंश स्पष्ट करते हैं। जब सिकंदर आता है कोई पोरुष खड़ा हो जाता है, प्रतिरोध की यह भारतीय मूल प्रवृति ही संभवामि युगे युगे है जिसके चलते आज भी भारत अपनी मूल संस्कृति के साथ यथावत दुनियां में विश्वगुरू बना खड़ा हुआ है। चौथा अध्याय ” सिंध पर अरबों का आक्रमण उनके लिये एक न भूलने वाली असफलता बन गया ” है। भारतीय योद्धाओं ने अधिकांशतः कभी स्वयं किसी पर आक्रमण भले न किया हो पर हमेशा आक्रांताओ के प्रतिरोध में सुनिश्चित हार के खतरे को भांपते हुए भी हमेशा आक्रांताओं का मुकाबला पूरी वीरता और साहस से किया। इतिहास के बड़े-बड़े कालखंड ऐसे थे, जिनमें विदेशी आक्रांताओं को पराजय मिली। ये कालखंड छोटे नहीं, तीन सौ सालों तक लंबे रहे हैं। भारत में अनेक हिस्से ऐसे हैं, जिनमें आक्रांता कभी प्रवेश नहीं कर पाए। आक्रमणकारियों को सदैव भारत पर आक्रमण की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। बीच में ऐसे काल भी आए, जब विदेशी आक्रांताओं को कुछ सफलता मिली। किंतु जैसे ही मौका मिला, कोई-न-कोई वीर उठकर खड़ा हो गया। किसी-न-किसी क्षेत्र के आम लोगों ने विदेशी शासन के खिलाफ संघर्ष किया और उसे पराजित किया या इतना नुकसान तो जरूर पहुँचाया कि आक्रांता को भारतीय इच्छाओं का आदर करना पड़ा। भारतीय संस्कृति को जीवित रखने की ऊर्जा हमारे जिन पूर्वजों के बलिदानों से प्राप्त हुई है, यह पुस्तक उन पूर्वजों के प्रति लेखक की कृतज्ञता व्यक्त करने का प्रयास है। आठवी सदी में इस्लाम के भौगोलिक विस्तार को नक्शों के जरिये बताया गया है। अगले अध्याय का नाम हिंदूशाही वंश का शौर्य है। जिसमें महमूद गजनी से राजस्थान के योद्धाओ की चर्चा है। मीर तकी मीर ने एक शेर लिखा था ” उसके फरोग हुस्न में झमके है सब में नूर ” जिसमें उन्होंने काबा और सोमनाथ को एक सृदश ही बताया था। महमूद गजनवी की सेना के लौटने से भारतीय समृद्धि की सूचनायें विदेशों तक पहुंची और इसके चलते भारत पर आक्रमण के तांते लग गये। छोटे छोटे अध्यायों में बिंदु रूप से बड़ी बातें कह देने में लेखक ने सफलता अर्जित की है। पृथ्वीराज चौहान की वीरता के किस्से भारतीय इतिहास का गौरव है, उसे एक पूरे चेप्टर ” सम्राट पृथ्वीराज चौहान जिन्हें केवल धोखे से हराया जा सका ” में लिखा गया है। पूर्वोत्तर से भी आक्रांताओ ने भारत पर हमले के प्रयास किये थे पर असम के वीरों ने बक्तियार खिलजी को ऐसी धूल चटाई कि हमेशा के लिये उस ओर से भारत पर विदेशी आक्रमण नियंत्रित बने रहे। भारतीय प्रतिरोध की खासियत पीढ़ी दर पीढ़ी आक्रांता सल्तनतों का विरोध रहा है। राजस्थान के वीरों की ही नहीं वहां की वीरांगनाओ द्वारा उठाये गये कदम अद्भुत रहे हैं। उन पर पूरा अध्याय लिखा गया है। जिस भारतीय संस्कृति की विशेषता ही यह है कि वह हमारी रगों में पल्लवित पोषित होती है। जहां भी भारतीय गये वहां उनके साथ भारतीयता भी गई। लेखक ने स्पष्ट किया है कि १४०० ई तक विदेशी आक्रांता समझ गये कि भारतीय संस्कृति को मिटाना असंभव है। बाबर के आक्रमण का प्रतिरोध, पानीपत की लड़ाई, हेमू का विस्मृत बलिदान, मुगलों को निरंतर चुनौती, औरंगजेब से जाट, मराठों और राजपूतों के संघर्ष, समुद्र के रास्ते पुर्तगाली, डच, डेनिश, फ्रेंच और ब्रिटिशर्स यूरोपियन्स के भारत प्रवेश, १८५७ के संग्राम से पहले भी अंग्रेजो को भारत से निकालने के प्रयास एक चेप्टर में प्रस्तुत किये गये हैं। अंतिम अध्याय है ” यह बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ” जिसमें लेखक ने अपने एतिहासिक अध्ययन का निचोड़ रख कर हमें गर्व का अवसर दिया है।

इतिहास की २०० से ज्यादा पृष्ठो पर फैली रोचक सामग्री को समेटना दुष्कर कार्य होता है। मैने पुस्तक की विषय वस्तु की बिन्दु रूप चर्चा कर किताब से पाठको को परिचित कराने का प्रयास किया है, किताब अमेजन सहित विभिन्न प्लेटफार्म पर उपलब्ध है, किताब बुलवाईये और पढ़िये तभी आप भारत के गौरवशाली इतिहास को लेखक के नजरिये से समझ सकेंगे। किताब पैसा वसूल तो है ही, संदर्भ के लिये संग्रहणीय है।

चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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