हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 121 – “व्यंग्य यात्रा” – संपादक… प्रेम जनमेजय ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 121 ☆

☆ “व्यंग्य यात्रा  त्रैमासिकी” – संपादक… प्रेम जनमेजय ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री प्रेम जनमेजय जी द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका  “व्यंग्य यात्रा ” पर चर्चा ।

☆ चर्चा पत्रिका की – “व्यंग्य यात्रा ”  संपादक – श्री प्रेम जनमेजय – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

व्यंग्य यात्रा  त्रैमासिकी

वर्ष १८ अंक ७१..७२ अप्रैल सितम्बर २०२२

संपादक… प्रेम जनमेजय

मूल्य मात्र २० रु

ई मेल.. [email protected]

२० रु में १५० पृष्ठो की स्थाई महत्व की विषय विशेष पर सार गर्भित सामग्री,  शार्ट में पत्रिका के रूप में किताब ही है व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी. यदि पत्रिका में प्रकाशित महत्वपूर्ण सामग्री में से  प्रेम जनमेजय जी के बरसों के संबंध, उनकी निरंतर व्यंग्य साधना हटा ली जाये तो किसी खास मुद्दे पर समर्थ रचनाकारो की इतनी सशक्त रचनायें तक, पत्रिका के अंतराल के तीन महीनों के सीमित टाइम फ्रेम में एकत्रित नहीं की  जा सकतीं. व्यंग्ययात्रा तो इस सीमित समय में छप भी जाती है और सुधी पाठको तक पहुंच भी जाती है. इसलिये १८ बरसों से निरंतरता बनाये हुये ऐसी गुरुतर पत्रिका की चर्चा करना आवश्यक है. मुझे तो लगता है कि व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी के हर अंक का समारोह पूर्वक विमोचन होना चाहिये, पर नहीं जो शांत काम करते हैं वे ढ़ोल तमाशे से दूर दूर ही रहते हैं.

यह अंक व्यंग्य उपन्यासों पर विशिष्ट सामग्री संजोये हुये है, तय है कि जब कोई शोधार्थी भविष्य में व्यंग्य उपन्यासो पर कोई गम्भीर काम करेगा तो इस अंक का उल्लेख किये बिना उसका लक्ष्य पूरा नही हो सकेगा.

इस अंक में मारीशस में हिन्दी व्यंग्य पर सामग्री है, पाथेय के अंतर्गत पुनर्पठनीय रांगेय राघव, बेढ़ब बनारसी, मनोहर श्याम जोशी, नरेंद्र कोहली, रवीन्द्र नाथ त्यागी, नागार्जुन, परसाई, श्रीलाल शुक्ल उपस्थित हैं. त्रिकोणीय में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर अरविंद तिवारी के उपन्यास ‘लिफाफे में कविता’ पर गोपाल चतुर्वेदी, प्रेन जनमेजय, अनूप शुक्ल, एवं नीरज दइया को पढ़ा जा सकता है. समकालीन व्यंग्यकारों की गद्य और पद्य व्यंग्य की रचनायें पठनीय हैं. प्रकाशन हेतु पारखी चयन दृष्टि के चलते ही व्यंग्य यात्रा में छपना प्रत्येक व्यंग्यकार के लिये प्रतिष्ठा कारक होता है. अनंत श्रीमाली जो हमें अनायास छोड़ गये हैं उन्हें श्रद्धा सुमन स्वरूप उनकी रचना ‘लीकेज की अलौकिक लीला’, बीना शर्मा,  प्रियदर्शी खैरा, राजशेखर चौबे, मुकेश राठौर, प्रभात गोस्वामी सहित निरंतर व्यंग्य सृजन में लगे अनेक नामचीन लेखको को इस अंक में पढ़ सकते हैं. पद्य व्यंग्य में दीपक गोस्वामी, डा संजीव कुमार, वरुण प्रभात, सुमित दहिया, नरेंद्र दीपक शामिल नामों में हैं. जिन व्यंग्य उपन्यासों में चर्चा लेख प्रकाशित हैं उनमें नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘अल्फा बीटा गामा’ पर प्रेम जनमेजय, यशवंत व्तयास के ‘चिंताघर’, ‘आदमी स्वर्ग में..’ विषणु नागर, ‘उच्च शिक्षा का अंडरवर्ल्ड,’ ‘इंफो काप का करिश्मा’, हरीश नवल के बहुचर्चित उपन्यास ‘बोगी नंबर २००३’, सुभाष चंदर के ‘अक्कड़ बक्कड़’, गंगा राम राजी के ‘गुरु घंटाल’, अर्चना चतुर्वेदी के ‘गली तमाशे वाली’, मीना अरोड़ा के ‘पुत्तल का पुष्प वटुक’, अजय अनुरागी के ‘जयपुर तमाशा’ पर गंभीर आलेख पठनीय तथा संदर्भ लेने योग्य हैं. इन नये उपन्यासों के टाइटिल देखें तो हम व्यंग्य के बदलते लक्ष्य, नये युग के सायबर कारपोरेट जगत के प्रभाव की प्रतिछाया देख सकते हैं. संपादकीय में प्रेम जी ने अंक के कलेवर की  व्याख्या और विवेचना गंभीरता से की है. बिना पूरा पढ़े अभी बस इतना ही. 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ सुरमयी लता – भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की सुर साधिका – श्री सुरेश पटवा ☆ डॉ.वन्दना मिश्रा ☆

डॉ.वन्दना मिश्रा

(शिक्षाविद, कवि, लेखक, समीक्षक)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ सुरमयी लता – भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की सुर साधिका – श्री सुरेश पटवा ☆ डॉ.वन्दना मिश्रा 

(संयोगवश श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक“सुरमयी लता” की समीक्षा श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ द्वारा भी प्राप्त  हुई थी जिसे निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता है। )

☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 119 – “सुरमयी लता” – श्री सुरेश पटवा ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

SURMAYI LATA (HINDI)

पुस्तक : सुरमयी लता

भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की सुर साधिका

लेखक : सुरेश पटवा

प्रकाशक : मंजुल प्रकाशन

मूल्य : 195.00 रुपए

समीक्षक : डॉ.वन्दना मिश्र

सुरमयी लता चरित्र प्रधान कृति अत्यंत मार्मिक और प्रेरक है। इस कृति में लता जी के जीवन के सुरमय गेय पक्ष के वर्णित प्रसंग बहुत प्रभावित करते हैं। लता जी द्वारा गाई गयी लोरियाँ सुनकर बढ़ती हुई पीढ़ी किशोरावस्था में उन्हीं के मधुर कंठ से प्रणय गीतों का आस्वादन कर बड़ी हुई है। उनका भारतीय पारिवारिक मूल्यों, संयमित जीवन शैली का आचरण करोड़ों लोगों की प्रेरणा बना। श्री पटवा भी लता जी के मधुर गायन से आरंभ से अभी तक प्रभावित हैं इसी प्रभाव की परिणति सच्ची श्रद्धांजलि यह कृति सुरमयी लता है। गद्य -पद्य दोनों में अभिव्यक्ति का माध्यम बन सुरेश पटवा अपनी वाग़मयी प्रज्ञा का परिचय भी देते हैं।

(गम्भीर संयत साहित्यकार डॉक्टर वंदना मिश्रा जी ने मेरी पुस्तक की समीक्षा लिखी है। उनको साधुवाद सहित आज आपके समक्ष प्रस्तुत है। – श्री सुरेश पटवा)

सुरमयी लता शीर्षक से अभिव्यक्त यह कृति लता जी के जीवन संघर्ष की गाथा के साथ उनकी मधुर यादें,स्मरणीय तथ्य,विवाद ,रोचक किस्से और उनके प्रसिद्ध गीतों को आत्मीयता के साथ पटवा जी ने पिरोया है। छह अध्याय में विभक्त इस कृति में सुर भी है साज भी है लय भी है, ताल भी है,गीत तैर रहे हैं …गजल भी उदास है”
(चिड़िया फुर्र..पृष्ठ15) यह पंक्तियाँ सब कुछ कह जाती हैं।

चित्रपट संगीत का पर्याय बन चुकी लता जी के पवित्र मन की निर्मलता उनके गीतों में झलकती उनका विलक्षण गायन श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है…स्पष्ट उच्चारित शब्द कानों में अमृत- सा उँडे़ल देते…नाद ब्रह्म है…सच है लता जी की आवाज़ ब्रह्मांड में गूँज रही है…”हिमालय से हिन्द महासागर तक ,नेपाल से श्रीलंका तक,बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक अटक से कटक तक..(.पृष्ठ 23)”जिस दिन लता जी नहीं रही…आवाज गूँज रही थी…

“रहे न रहे हम,महका करेंगें..
चलते चलते वहीं पे कहीं हम तुमसे मिलेंगे ,
बन के कली..”
और.वे रोता छोड़ गईं
“महका करेंगे
बन के सबा बाग़ -ए-वफा़ में हम” (पृष्ठ 23-26)

लता जी की जीवन शैली और विराट व्यक्तित्व भारतीय सिनेमा ही नहीं अपितु हमारी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान है,जो कि अनुकरणीय है।पटवा जी कहते हैं कि यह एक ऐसी आवाज है जो सदियों में कभी एक बार ही गूँजती है..ऐसी आवाज जो मंदिर की घंटियों गिरिजाघर की खामोशी, गुरूद्वारे की तान,और मस्जिद की अजान- सी पाकीजगी देती है।

अपनी शालीन नाजुक गहरी और रूहानी आवाज से लता जी ने सात दशकों तक भारतीय जीवन की साँसों में खुशियों, उमगों,शरारतों,उदासियों, दु:ख-सुख, हताशा, अकेलेपन व उत्सवों में भागीदारी की है।उन्होंने प्रणय को सुर,व्यथा को कंधा और आँसुओं को तकिया देकर तीस से ज्यादा भाषाओं में तीस हजार से अधिक गीत गाकर मानवीय भावनाओं के सुर को पकड़ा और अन्तर्गत को सहलाया और दिलों पर राज किया है। लता जी के गायन में अभिनय का अद्भुत मिश्रण देकर कला को सहज ऊँचाई दी।

पटवा जी लिखते हैं-” जीवन भर गीता के कुछ पदों का पाठ करने वाली- गालिब, मीर, मोमिन, ज़ौक़ और दाग को सही-सही उच्चारण में पढ़ने वाली महान गायिका अपने संगीत के विस्तार से गीत गजलों की आत्मा की गहराइयों तक शताब्दियों के आर-पार जाने वाला उजाला फैलाना शुरूकर चुकी थीं (पृष्ठ35)”

गीत संगीत की लंबी पारी खेलने वाली महान कलाकार का जीवन भी आम आदमियों की संघर्ष गाथा भी है और कुछ हद तक विवादित भी पर उससे अहम उनका उजला पक्ष है जो उन्हें सराहना के सर्वोच्च शिखर तक ले जाता है। गायन की यह अलंघ्य ऊँचाई हर मन तक बात पहुँचाती है..उनकी आवाज सुनकर हर दिल गा उठता है…भौतिक रुप से ढेरों पुरस्कार पाने वाली लता जी हर दिल से सम्मानित हैं।

पार्श्वगायन इतिहास का रोचक दस्तावेज इस कृति के रुप में तेजी से रचनाकर्म से चमत्कृत करने वाले साहित्यकार सुरेश पटवा के लेखन का सफल आयाम है।

डॉ. वन्दना मिश्रा

शिक्षाविद, कवि, लेखक, समीक्षक

भोपाल,  मध्यप्रदेश।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 120 – “टांग खींचने की कला” – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 120 ☆

☆ “टांग खींचने की कला” – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री रामस्वरुप दीक्षित जी की पुस्तक  “टांग खींचने की कला” पर चर्चा ।

व्यंग्य सँग्रह : टाँग खींचने की कला

लेखक : रामस्वरूप दीक्षित

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

मूल्य : 200₹

प्रकाशन वर्ष : 2022

समीक्षक : विवेकरंजन श्रीवास्तव

समीक्षक सम्पर्क [email protected]

☆ टांग खींचने की कला : एक पठनीय व्यंग्य संग्रह – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

समसामयिक घटनाओं पर हिन्दी व्यंग्य पिछली सदी के अंतिम दशकों से लिखे जाते रहे हैं. अब ये अधिकांश पत्र पत्रिकाओं के लोकप्रिय स्तंभ बन चुके हैं.तानाशाही व कम्युनिस्ट सरकारों के राज में जहां खबरों पर प्रशासन का पहरा होता है, खबरों की वास्तविक तह का अंदाजा लगाने के लिये भी लोग व्यंग्यकारों को रुचि से पढ़ते हैं. पाठक संपादकीय पन्नों  पर रुचि पूर्वक पिछले दिनो हुई घटनाओं को व्यंग्यकारों के नजरिये से पढ़कर मुस्कराता है, अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप रचनाकार का इशारा समझता है, कुछ मनन भी करता है.इनके माध्यम से पाठक को बौद्धिक सामग्री मिलती है. ये व्यंग्यलेख पाठक के मानस पटल पर त्वरित रूप से गहरा प्रभाव छोड़ते हैं. और इस तरह व्यंग्यकार क्रांतिकारी भूमिका में होते हैं. तारीखों के बदलते ही अखबार अवश्य ही रद्दी में तब्दील हो जाता है पर अखबारों में प्रकाशित ऐसे व्यंग्य लेखों का साहित्यिक महत्व बना रहता है. मैने अनुभव किया है कि किंचित बदलाव के साथ घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है, और पुराने पढ़े हुये व्यंग्य पुनः सामयिक लगने लगते हैं. यह व्यंग्यकार का कौशल ही होता है कि जब वह किसी घटना का अपनी शैली में लोक व्यापीकरण कर उसे अभिव्यक्त करता है तो वह व्यंग्य, साहित्य बन जाता है. अखबार अल्पजीवी होता है, पर साहित्य का महत्व हमेशा बना रहता है. इसीलिये अखबारों में छपे ऐसे व्यंग्य लेखों के पुस्तकाकार प्रकाशन की जिम्मेदारी लेखक पर आ जाती है. इन व्यंग्य संग्रहों से कोई शोधार्थी कभी सामाजिक घटनाओं के साहित्यिक प्रभाव का पुनर्मूल्यांकन करेगा. बदलती पीढ़ीयों के पाठक जब जब इन संग्रहों के व्यंग्य लेखों के कथ्य को पढ़ेंगे, समझेंगे, उनके परिवेश तथा अनुभनुवों के साथ बदलते समय के नये बिम्ब बनाएंगे. स्मित मुस्कान, किंचित करुणा, विवशता, युग  की व्यथा, हर बार पाठक को गुदगुदायेगी, हंसायेगी, रुलायेगी, सोचने पर मजबूर करेगी.

जब मैं भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से हाल ही प्रकाशित श्री रामस्वरूप दीक्षित की कृति ” टांग खींचने की कला ” पढ़ रहा था तो मुझे स्मरण हुआ कि मिलते जुलते टाइटिल “टांग अड़ाने के मजे” का संपादन मैंने किया था. वह किताब व्यंग्यकार मित्र  राकेश सोह्म का पहला  व्यंग्य संग्रह था.  श्री रामस्वरूप दीक्षित वरिष्ठ कवि, तथा सुस्थापित व्यंग्यकार हैं. वे समकालीन व्यंग्य नामक एक वैश्विक स्तर के साहित्यिक समूह के संस्थापक भी हैं, जिसके माध्यम से उन्होंने विशद साहित्यिक गोष्ठियां तथा व्यंग्य के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक चर्चायें भी की हैं. टांग खींचने का भाषाई अर्थ प्रयोग के अनुरूप व्यापक होता है, जहाँ घोड़े या टट्टू भौतिक रूप से टांग खींचने पर दुलत्ती झाड़ते हैं, वहीं मनोविज्ञान के अनुसार जो पति पत्नी बातों बातों में  एक दूसरे की प्यार भरी टांग खिंचाई करते रहते हैं, उनमें परस्पर बेहतर तालमेल होता है. लायन्स क्लब में तो टेल ट्विस्टर का एक पद ही होता है, जिसका काम ही होता है कि वह उस पदाधिकारी की खिंचाई करे जो अपना दायित्व भलिभांति न निभा रहा हो, इस तरह मैनेजमेंट के फंडे के अनुसार टांग खिंचाई से कार्य दक्षता बढ़ती है. दूसरी ओर केंकड़ों की तरह की टांगखिंचाई भी होती है, जिसमें जो दौड़ में आगे निकल रहा हो उसकी टांग खिंचाई कर उसकी प्रगति बाधित कर दी जाती है. बहरहाल मैंने मनोयोग से रामस्वरूप दीक्षित जी की यह पुस्तक टांग खींचने की कला आद्योपांत पढ़ी. और इसके सभी तीस बत्तीस व्यंग्य लेखों का निहितार्थ यही समझा कि जब एक मंजा हुआ दीक्षित जी जैसा व्यंग्यकार समाज की टांगें खींचता है तो उसका मंतव्य गिराना नहीं उठाना होता है. वह इतनी कलात्मक भाषाई शैली से विसंगतियों को पकड़ कर व्यंग्य के मृदु प्रहार से टांगे खींचता है कि जिस पर दांव चला जाता है वह तुरंत सजग हो उठ खड़ा होना चाहता है, और मुड़कर देखता है कि किसी ने उसे गिरते देखा तो नहीं. रामस्वरूप जी का पहले भी एक व्यंग्य संग्रह आ चुका है, “कढ़ाही में जाने को आतुर जलेबियां ”  जो काफी चर्चित हुआ है।

“टांग खींचने की कला ” में इस शीर्षक व्यंग्य के सिवाय लेखकीय परिवेश के कई व्यंग्य हैं जैसे साहित्य क्षेत्रे, स्तंभ लेखन के मजे, कवि का दुःख, एक व्यंग्यकार की चिट्ठी समीक्षक के नाम, सफल लेखक होने के उपाय, जे बिनु काज दाहिनेहु बांए आदि आदि. दूसरे समूह के व्यंग्य परिवार और पत्नी के इर्द गिर्द वाले हैं मसलन कैसे खुश रखें पत्नी को, नहानेवाले और न नहाने वाले, पति,  परिभाषा प्रकार और महत्व, पत्नीभ्याम नमः, जब हमने मकान ढ़ूंढ़ा वगैरह.  राजनीति और पुलिस पर व्यंग्य के बिना भी कोई किताब पूरी हो सकती है ? तीसरे समूह में इसी केटेगरी के व्यंग्य रखे जा सकते हैं पुलिस सम्मान, मंत्री जी के जूते, पटवारी की कलम, अथ विभूति वर्णन, इत्यादि. संग्रह के सारे व्यंग्यों की खासियत है कि वे अपेक्षाकृत दीर्घ जीवी विषयों पर हैं. किताब में हर उम्र, प्रत्येक अभिरुचि के पाठकों के लिये मसाला है. पुस्तक ज्ञानपीठ से प्रकाशित है स्पष्टतः त्रुटिहीन मुद्रण तथा स्तरीय प्रस्तुति है. पति,  परिभाषा प्रकार और महत्व व्यंग्य की रचनाशैली नवीनता लिये हुये है. जिसमें उपशीर्षकों के माध्यम से मजेदार व्याख्या है. उदाहरण स्वरूप पतियों के प्रकार बताते हुये उपशीर्षक है… हालावादी पति.. जो पति दिन भर काम के बाद रात को नशे में चूर होकर घर लौटते हैं और पत्नी के आपत्ति करने पर अश्लील सुभाषित उच्चारित करने लगते हैं, उन्हें दीक्षित जी हालावादी पति की श्रेणि में रखते हैं. यूं हालावादियों की एक उप श्रेणि और लिखी जानी चाहिये थी, जिसमें वे नवधनाड्य पति भी हो सकते हैं जो पत्नी के साथ जाम टकराते हुये ही हाला सेवन करते हैं. अस्तु  रचनायें उम्दा हैं. गहरे कटाक्षों से किताब भरी पड़ी हैं उदाहरण के लिये ” कुछ तो अफसर होने साथ मनुष्य भी होते हैं “, ” कैसे मुसीबत के दिनों में कविता (स्त्री का नाम नहीं )ने आपको समय से जूझने की ताकत दी, या ” विक्रमादित्य को चुप देख बेताल ने फिर कहा बोल विक्रम जबाब दे नहीं तो तेरा सिर फट जायेगा, विक्रमादित्य के मुंह से निकल गया नहीं, और बेताल फिर पेड़ पर जा लटका “… बेताल कथा को अनेकानेक व्यंग्यकारों ने अपनी अभिव्यक्ति का अवलंबन बनाया है,मैंने कई  ऐसे व्यंग्य पढ़े हैं,  किन्तु दीक्षीत जी का मंहगाई की बेताल कथा को निभा ले जाना डिफरेंट लगा. बहरहाल सर्वथा पठनीय संग्रह के लिये दीक्षित जी बधाई के सुपात्र हैं, उनके आने वाले संग्रहों की प्रतीक्षा रहेगी.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 119 – “सुरमयी लता” – श्री सुरेश पटवा ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

SURMAYI LATA (HINDI)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 119 ☆

☆ “सुरमयी लता” – श्री सुरेश पटवा ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(संयोगवश श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक“सुरमयी लता” की समीक्षा अन्य लेखक / लेखिकाओं द्वारा भी प्राप्त हुई है जिसे हम शीघ्र ही अगले अंकों में प्रकाशित कर रहे हैं।)

 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी की नवीन पुस्तक  “सुरमयी लता” की समीक्षा।

कृति. . . सुरमयी लता

लेखक. . . . सुरेश पटवा

मूल्य. . . . १९५ रु, पृष्ठ. . . १०६

प्रकाशक. . . सर्वत्र, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल

चर्चाकार. . . विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

☆ तुम्हारा ये जाना न माने जमाना, रहेंगी सदा गुलजार लता – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

अलेक्सा प्ले हिट्स आफ लता, इतना कहने भर की जरूरत है और अलेक्सा अनफारगेटबल एलबम बजाने लगेगी ” तू जहाँ जहाँ भी होगा मेरा साया साथ होगा “. कुछ व्यक्ति होते हैं जो मर कर भी अमर होते हैं. अपनी सुरीली आवाज के साथ लता हमेशा हर पीढ़ी के साथ रहेंगी. सुख, दुख, राष्ट्रीय पर्व, भक्ति, त्यौहार कोई भी अवसर हो लता का कोई न कोई गीत सहज सुलभ है. गीतकार और संगीतकार को कम ही लोग याद करते हैं, अधिकांश लता जी की आवाज को पहचानते हैं और उसके जरिये ही फिल्म, हीरोईन, या गीत को जानते हैं. लता जी गीत की ब्रांड एम्बेसडर बन चुकी हैं. ऐसी लीजेंड हस्ती पर स्वाभाविक रूप से ढ़ेर सारे काम हुये हैं. नसरीन मुन्नी की किताब “लता मंगेशकर-इन हर ऑन वॉइस“, लेखक हरीश भिमानी की चर्चित किताब इन सर्च ऑफ लता मंगेशकर, लता मंगेशकर: ए बायॉग्रफी बाई राजू भारतन, ऑन स्टेज विद लता, लेखिका: नसरीन मुन्नी कबीर और रचना शाह, लता: वॉइस ऑफ द गोल्डन एरा द्वारा मंदर वी बिचू, इंफ्लुएंस ऑफ लता मंगेशकर्स सॉन्ग्स इन माई सॉन्ग्स ऐंड लाइफ, लेखक: तारिकुल इस्लाम आदि किताबें अंग्रेजी में आ चुकी हैं. मूलतः हिन्दी में अपेक्षाकृत कम काम हुआ है. यद्यपि यतींद्र मिश्रा की पुस्तक “लता: सुर गाथा” प्रकाशित हो चुकी है. हिन्दी में लता जी पर किताबों की इस कमी को बहुविध लेखक तथा अध्यययन कर्ता श्री सुरेश पटवा ने बड़ी मेहनत से सुरमयी लता लिखकर किंचित पूरा किया है. और इस तरह उन्होंने हिन्दी जगत का अर्ध्य लता जी को समर्पित किया है.

श्री सुरेश पटवा

इस पुस्तक की विशेषता है कि  शताब्दी की इस सुरसाम्राज्ञी की बड़ी जीवनी को सुरेश जी ने अत्यंत संक्षेप में आम आदमी की जिज्ञासा के अनुरूप मनोहारी तरीके से समेट कर प्रस्तुत किया है. किताब लता पर संदर्भ के रूप में तो उपयोगी है ही, गीत संगीत में रुचि रखने वाले प्रत्येक पाठक का ध्यानाकर्षण करती है. लता की आवाज में जादू था, वे बच्चों सी मीठी बोली, अठखेली करती किशोरी से लेकर प्रौढ़ संजीदगी भरी आवाज में लय ताल राग के अनुरूप गाती थीं.

1974 में लता मंगेशकर का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में सबसे अधिक गाने गानेवाली गायिका के तौर दर्ज किया गया था, जिसमें कहा गया था कि उनके द्वारा 1948 से 1974 तक सोलो, ड्यूट और कोरस में लगभग 25000 गाने गाये गये हैं, ये संख्या 20 से अधिक भारतीय भाषाओं को मिलाकर बताई गयी थी. लेकिन इस रिकॉर्ड के लिए मोहम्मद रफी साहब ने भी चुनौती कर दी और गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड को पत्र के माध्यम से दावा कर दिया कि उन्होंने सोलो ड्यूट और कोरस में लगभग 28000 गाने गाए हैं. गिनीज बुक के दूसरे एडिशन के आने के पहले ही सन 1980 में रफी साहब का निधन हो गया और उनके निधन के बाद जब 1987 में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड का नया एडिशन आया तो उसमें मोहम्मद रफी साहब के नाम के साथ लता मंगेशकर का नाम भी शामिल था, क्योंकि लता मंगेशकर लगातार गाने गा रहीं थी. परंतु  इन रिकॉर्ड के तथ्यों एवं प्रमाणिकता पर सवाल खड़े होने लगे. शोधकर्ता हरमिंदर सिंग हमराज ने लता जी के प्रत्येक गाये हुये गाने को अपनी किताब में सूचीबद्ध किया जो संख्या लगभग छः हजार गिनी गई. अतः गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड ने 1991 के एडिशन में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी दोनों का ही नाम हटा दिया. अस्तु महान व्यक्तित्व और विवादों का चोली दामन का साथ बना ही रहता है, यह असामान्य नही है. ईर्ष्या उसी से होती है जो सफल हो. फिर लता जी को तो स्वयं उनकी बहन आशा भोंसलें जी, जो स्वयं एक अत्यंत सफल प्ले बैक सिंगर हैं, उनसे भी चैलेंज मिलता रहा. पटवा जी ने अपनी किताब में एक चैप्टर ही “विवादों के साये ” लिखा है. जिसमें उन्होंने बेबाकी से लता जी के ओ पी नैयर, मोहम्मद रफी, आदि से विवादों का उल्लेख कर पाठको के लिये स्पष्ट वादिता का लेखन किया है.

दिल से, धुंधली यादें, किस्सा रस, विवादों के साये, गीत संगीत की लंबी पारी, सराहना का सर्वोच्च शिखर इन छः चैप्टर्स में सुरेश जी ने गागर में सागर भरने का प्रयास कर लता जी के प्रति एक फिल्मी संगीत के रसिक श्रोता की श्रद्धांजली के रूप में लता जी के दुखद अवसान पर मात्र ३ दिनों में यह किताब लिख कर पूरी की है. लता जी का निधन ऐसी पीड़ा दायक घटना थी, जिससे सभी स्तब्ध रह गये थे. स्वाभाविक रूप से इस मर्मांतक घटना को अपने अपने तरीके से प्रत्येक भावुक हृदय व्यक्ति ने अभिव्यक्त किया था. मैंने ये पंक्तियां लिखी थी तब जो वेब दुनिया पोर्टल पर प्रकाशित हैं…

स्वर साम्राज्ञी कोकिल कंठी, हम सब का है प्यार लता

भारत रत्न, रत्न भारत का, गीतो का सुर, सार लता ।

रागो का जादू, जादू गजल का, सरगम की लय, तार लता,

तबले की धिन् पर, सितारों की धड़कन, नगमों की रस धार लता ।

बनारस घराना, जयपुर तराना, गीतो का इकरार लता,

बैजू सुना था सुर बावरा वो, तानसेन दीदार लता।

सरहद की रेखा से सुर बड़ा है, नूपुर की झंकार लता

भारत पाक लाख दुश्दुमन हों, जनता की सरकार लता ।

तुम्हारा ये जाना न माने जमाना, रहेंगी सदा गुलजार लता

कुल मिलाकर कहना चाहता हूं कि सुरमयी लता लिखकर सुरेश पटवा जी ने एक समसामयिक जागरूख अन्वेषी लेखक होने का दायित्व निभाया है. पुस्तक तथ्यात्मक जानकारियों के साथ रोचक शैली में लिखी गई भावात्मक अभिव्यक्ति है. पठनीय है और संदर्भ में बार बार पढ़ी जाती रहेगी. पुस्तक त्रुटि रहित मुद्रण के साथ अच्छे कागज पर स्तरीय है. लता जी जैसे किरदार सार्वजनिक संपदा हो जाते हैं, जिनके विषय में हर कोई जानना चाहता है, इस तरह की परिचयात्मक किताबों की सीरीज अन्य गायको तथा फिल्म जगत के कलाकारों पर सुरेश पटवा जी से अपेक्षित है. संतोष इस बात का है कि लता जी को गायकी में स्थापित होने के लिये भले ही संघर्ष करने पड़े किंतु नये संसाधनो के जरिये आज हर मोबाईल पर स्टार मेकर्स जैसे  ऐप हैं जिनसे प्रतिभायें अपनी सार्वजनिक उपस्थिति दर्ज कर रही हैं. इंडियन आईडल जैसे रियलटी शो प्लेटफार्म हैं जिनसे लता जी के कई प्रतिरूप शनैः शनैः गायिकी में अपना स्थान बना रहे हैं. किन्तु निर्विवाद तथ्य है कि लता दी तो लता दी ही थीं, न भूतो न भविष्यति. यद्यपि जिस दिन एक नई लता स्थापित होगी, संभवतः स्वर्ग में बैठी लता जी को ही सर्वाधिक प्रसन्नता होगी, क्योंकि सुर साधना सरस्वती की तपस्या और पूजा है.


चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 119 – श्रीमदभगवदगीता – हिन्दी पद्यानुवाद – पद्य अनुवादक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध “☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध “ जी के काव्य-संग्रह श्रीमदभगवदगीता – हिन्दी पद्यानुवादकी समीक्षा।

कृति –  श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद

पद्य अनुवादक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध “

मूल्य – ४५० रु, पृष्ठ – २५४

पुस्तक प्राप्ति हेतु पता – ए २३३, ओल्ड मीनाल, भोपाल, ४६२०२३

☆ श्रीमदभगवदगीता – हिन्दी पद्यानुवाद– पद्य अनुवादक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

दुख के महासागर मे जो मन डूब गया हो

अवसाद की लहरो मे उलझ ऊब गया हो

तब भूल भुलैया मे सही राह दिखाने

कर्तव्य के सत्कर्म से सुख शांति दिलाने

पावन पवित्र भावो का संधान है गीता

है धर्म का क्या मर्म, कब क्या करना  सही है

जीवन मे व्यक्ति क्या करे गीता मे यही है

पर जग के वे व्यवहार जो जाते न सहे है

हर काल हर मनुष्य को बस छलते रहे है

आध्यात्मिक उत्थान का विज्ञान है गीता

करती हर एक भक्त का कल्याण है गीता

श्रीमदभगवदगीता एक सार्वकालिक  वैश्विक ग्रंथ है. इसमें जीवन के मैनेजमेंट की गूढ़ शिक्षा है. धीरे धीरे संस्कृत जानने समझने वाले कम होते जा रहे हैं. किन्तु गीता में सबकी रुचि सदैव बनी रहेगी, अतः संस्कृत न समझने वाले हिन्दी पाठको को गीता का वही ज्ञान और काव्यगत आनन्द यथावत मिल सके इस उद्देश्य से संस्कृत मर्मज्ञ, शिक्षाविद, आध्यात्मिक तथा राष्ट्रीय भावधारा के कवि प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव  “विदग्ध” ने मूल संस्कृत श्लोक, फिर उनके द्वारा किये गये काव्य अनुवाद तथा शलोकशः भावार्थ को बढ़िया कागज व अच्छी प्रिंटिंग के साथ यह बहुमूल्य कृति प्रस्तुत की है. अनेक शालेय व विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमो में गीता के अध्ययन को शामिल किया गया है, उन छात्रो के लिये यह कृति बहुउपयोगी बन पड़ी है. स्वयं हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने अनेक राष्ट्राध्यक्षो को भेंट में भगवत गीता की प्रतियां भेंट में दी हैं. भगवत गीता की विशद टीकायें, अनेकानेक भाषाओ में अनुवाद के साथ ही कई रचनाकारों ने हिन्दी में भी इसके अनुवाद किये हैं. गीता के अध्येता भविष्य में भी ऐसा करते रहेंगे, क्योंकि गीता का मनोयोग से अध्ययन हृदय को स्पंदित करता है. प्रेरणा देता है. राह दिखाता है. 

भगवान कृष्ण ने द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के पूर्व (आज से पांच हजार वर्ष पूर्व) कुरूक्षेत्र के रणांगण मे दिग्भ्रमित अर्जुन को, जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओ को मिल चुके थे, गीता के माध्यम से ये अमर संदेश दिये थे. गीता के इन सूत्र श्लोकों के जरिये जीवन के मर्म की व्याख्या की गई है . श्रीमदभगवदगीता का भाष्य वास्तव मे ‘‘महाभारत‘‘ है। गीता को स्पष्टतः समझने के लिये गीता के साथ ही महाभारत को पढना और हृदयंगम करना भी आवश्यक है। महाभारत तो भारतवर्ष का क्या ? मानव  इतिहास है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झांककर ही श्रीमदभगवदगीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षो को व्यवस्थित ढ़ंग से समझा जा सकता है।

जहॉ भीषण युद्ध, मारकाट, रक्तपात और चीत्कार का भयानक वातावरण उपस्थित हो वहॉ गीत-संगीत-कला-भाव-अपना-पराया सब कुछ विस्मृत हो जाता है फिर ऐसी विषम परिस्थिति मे ज्ञान चर्चा की कल्पना बडी विसंगति जान पडती है। क्या रूदन में संगीत संभव है?  किंतु यह संभव हुआ है- तभी तो गीता के माहात्म्य में कहा गया है ‘‘गीता सुगीता कर्तव्य‘‘  । अतः संस्कृत मे लिखे गये गीता के श्लोको का पठन-पाठन भारत मे जन्मे प्रत्येक भारतीय के लिये अनिवार्य है। संस्कृत भाषा का जिन्हें ज्ञान नहीं है- उन्हे भी कम से कम गीता और महाभारत ग्रंथ क्या है ? कैसे है ? इनके पढने से जीवन मे क्या लाभ है ? यही जानने और समझने के लिये भावुक हृदय प्रो चित्र भूषण जी ने साहित्यिक श्रम कर कठिन किंतु जीवनोपयोगी संस्कृत भाषा के इन सूत्रो  का पद्यानुवाद किया है, और युगानुकूल सरल करने का प्रयास किया है।

साहित्य मनीषी कविश्रेष्ठ प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी, जो न केवल भारतीय साहित्य-शास्त्रो धर्मग्रंथो के अध्येता हैं बल्कि एक कुशल प्रवक्ता भी हैं, वे स्वभाव से कोमल भावो के भावुक कवि भी है। निरंतर साहित्य अनुशीलन की प्रवृत्ति के कारण विभिन्न संस्कृत कवियो की साहित्य रचनाओ पर हिंदी पद्यानुवाद भी आपने प्रस्तुत किया है. महाकवि कालिदास कृत ‘‘मेघदूतम्‘‘ व रघुवंशम् काव्य का आपका पद्यानुवाद दृष्टव्य, पठनीय व मनन योग्य है।गीता के विभिन्न पक्षों जिन्हे योग कहा गया है जैसे विषाद योग जब विषाद स्वगत होता है तो यह जीव के संताप में वृद्धि ही करता है और उसके हृदय मे अशांति की सृष्टि का निर्माण करता है जिससे जीवन मे आकुलता, व्याकुलता और भयाकुलता उत्पन्न होती हैं परंतु जब जीव अपने विषाद को परमात्मा के समक्ष प्रकट कर विषाद को ईश्वर से जोडता है तो वह विषाद योग बनकर योग की सृष्टि श्रृखंला का निर्माण करता है. और इस प्रकार ध्यान योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्तियोग, उपासना योग, ज्ञानयोग,  कर्मयोग,   विभूति योग, विश्वरूप दर्शन विराट योग, सन्यास योग, विज्ञान योग, शरणागत योग, आदि मार्गो से होता हुआ मोक्ष योग प्रशस्त होता है. प्रकारातंर से  विषाद योग से प्रसाद योग तक यात्रा संपन्न होती है।

इसी दृष्टि से गीता का स्वाध्याय हम सबके लिये चरित्र निर्माण, किंकर्तव्यविमूढ़ पलों में जीवन की राह ढूंढने में उपयोगी हैं. अनुवाद में प्रायः दोहे को छंद के रूप में प्रयोग किया गया है. कुछ अनूदित अंश इस तरह हैं..

पहला ही श्लोक है

धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय

शब्दशः अनुवाद किया गया है

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध हेतु तैयार

मेरों का पाण्डवों से संजय क्या व्यवहार

पहले ही अध्याय के २० वें श्लोक में आत्मा की अमरता इस तरह प्रतिपादित की गई है. . .

आत्मा शाश्वत अज अमर, इसका नहीं अवसान

मरता मात्र शरीर है, हो इतना अवधान

भावार्थ भी नीचे दिया गया है…

आत्मा न तो किसी काल में जन्म लेती है, और न ही मरती है. आत्मा अजन्मी नित्य, सनातन, और पुरातन है. शरीर के मारे जाने पर यह नहीं मरती.

एक चर्चित श्लोक है…

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहृणाति नरोपराणी

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्ययानि संयाति नवानि देहि

पदयानुवाद किया गया है…

जीर्ण वसन ज्यों त्याग नर, करता नये स्वीकार

त्यों ही आत्मा त्याग तन, नव गहती हर बार

अध्याय ५ कर्म सन्यास योग है जिसके ८वें और ९वें श्लोक का भावानुवाद है…

स्वयं इंद्रियां कर्मरत, करता यह अनुमान

चलते, सुनते, देखते ऐसा करता भान।।8।।

सोते, हँसते, बोलते, करते कुछ भी काम

भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।

इसी अध्याय का २९वां श्लोक है

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥

 

हितकारी संसार का, तप यज्ञों का प्राण

जो मुझको भजते सदा, सच उनका कल्याण।।29।।

अध्याय ९ से..

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।

मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥

मै ही कृति हूँ यज्ञ हूँ, स्वधा, मंत्र, घृत अग्नि

औषध भी मैं, हवन मैं, प्रबल जैसे जमदाग्नि।।16।।

इस तरह प्रो श्रीवास्तव ने श्रीमदभगवदगीता के श्लोको का पद्यानुवाद कर हिंदी भाषा के प्रति अपना अनुराग तो व्यक्त किया ही है किंतु इससे भी अधिक सर्व साधारण के लिये गीता के दुरूह श्लोको को सरल कर बोधगम्य बना दिया है. गीता के प्रति गीता प्रेमियों की अभिरूचि का विशेष ध्यान रखा है । गीता के सिद्धांतो को समझने में साधको को इससे बडी सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। अनुवाद बहुत सुदंर है। शब्द या भावगत कोई विसंगति नहीं है।  गीता के अन्य अनुवाद या व्याख्यायें भी अनेक विद्वानो ने की हैं पर इनमें लेखक स्वयं अपनी संमति समाहित करते मिलते हैं जबकि इस अनुवाद की विशेषता यह है कि प्रो श्रीवास्तव द्वारा ग्रंथ के मूल भावो की पूर्ण रक्षा की गई है।

आखिरी अठारहवें अध्याय के अंतिम श्लोक का अनुवाद है…

जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं तथा धनुर्धर पार्थ

विजय सुनिश्चित वहाँ ही, मेरी मति निस्वार्थ

अंत में यही कहूंगा कि

श्री कृष्ण का संसार को वरदान है गीता

निष्काम कर्म का बडा गुणगान है गीता

तो घर पर गीता को केवल पूजा के स्थान पर अगरबत्ती लगाने के लिये न रखें. उसे पढ़ने की टेबल पर रखें, और ऐसा माहौल बनायें कि बच्चे इसे पढ़ें समझें. आवश्यक हो तो बच्चो के लिये हिन्दी या अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध करवायें.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 118 – “आज की मधुशाला (काव्य संग्रह)” – डॉ संजीव कुमार ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 118 ☆

☆ “आज की मधुशाला (काव्य संग्रह)” – डॉ संजीव कुमार ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ संजीव कुमार जी के काव्य-संग्रह “आज की मधुशाला” की समीक्षा।

पुस्तक – आज की मधुशाला

लेखक  – डा संजीव कुमार

प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स, नोयडा

संस्करण –  २०२२,

मूल्य – ३५० रु

☆ एक सदी के अंतराल से मधुशाला का सार्थक रिमेक – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मनोभावना और सरोकारों को स्पर्श करता साहित्य अमर हो जाता है. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला ऐसी ही अद्भुत काव्य कृति है, जिसके लक्षणा और व्यंजना अर्थ अमिधा अर्थो से कहीं ज्यादा व्यापक और मर्मस्पर्शी हैं. वर्ष 1935 में प्रकाशित मधुशाला के अनगिनत संस्करण पुनर्प्रकाशित हो चुके हैं, अनेक भाषाओ में इसके अनुवाद और भावार्थ तथा आध्यात्मिक व्याख्यायें की गई हैं. उमर खैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित मधुशाला हिन्दी साहित्य की धरोहर है. मधु, मदिरा, हाला (शराब), साकी (शराब पड़ोसने वाली),  प्याला  (ग्लास), मधुशाला और मदिरालय की मदद से जीवन की जटिलताओं की सरल, गेय व्याख्या ने इसे रसिक स्वरूप में प्रतिष्ठित किया. बाद में नृत्य-नाटिका, आडियो व विभिन्न स्वरूपों में मधुशाला की अनेक प्रस्तुतियां होती रही हैं. रुबाईयों के सहज छंद बार बार अनेक कवियों के द्वारा अपनाये जाते रहे हैं. बच्चन जी के स्वर्गवास पर मैने “नीर नर्मदा का मधु है” लिखकर उन्हें श्रद्धांजली दी थी..

“कण कण शंकर बन आप्लावित ऐसी है माँ की मधुशाला,

माँ के दर्शन से पायें सुदर्शन को बन साकी पीने वाला”.

डा संजीव कुमार वर्तमान साहित्य जगत में वह नाम बन गया है, जो श्रेष्ठ विगत का अध्ययन कर, वर्तमान पर संधारित करके नितांत नया बनाकर आज के हिन्दी प्रेमी विश्व के लिये नूतन गढ़ रहे हैं. मुझे खुशी है कि मुझे डा संजीव कुमार रचित आज की मधुशाला के अध्ययन का सुअवसर मिला. मूल मधुशाला में १३५ हिंदी रुबाईयां हैं, उसी का अवलंब लेकर आज की मधुशाला में भी डा संजीव कुमार ने १३५ रुबाईयां ही लिखी हैं, वही शैली है बस दृश्य परिवर्तित हैं. बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशको में सूफी वाद का प्रतिनिधित्व करती मूल मधुशाला लिखी गई थी. डा संजीव कुमार की आज की मधुशाला को पढ़ते हुये  ऐसा लगता है कि एक सदी के अंतराल से पुनः स्टेज का गिरा हुआ पर्दा उठा है और मूल मधुशाला का सार्थक रिमेक हिन्दी प्रेमियों के लिये आया है.

उदाहरण देखिये, पहला ही पद है…

मधुशाला सौगात मानकार दिल ने सदा संभाली है,

हरि की इच्छा नेह समझकर हमने अब तक पाली है.

युग बदला है जीवन बदले बदल गई साकी बाला,

मौन ताकती रहती व्याकुल अब तो सबको मधुशाला.

या आत्म केंद्रित युग परिवर्तन पर यह देखिये…

प्यास तपाती थके पांव से

नाच नहीं पाता कोई

प्याला लेकर साकी बनकर

आज नहीं गाता कोई

४६ वीं रुबाई में हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखा था…

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,

ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,

कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।

आज की मधुशाला में वहीं पर डा संजीव कुमार लिखते हैं…

मंदिर मस्जिद के विवाद में बडी सियासत होती है

देख दिलों की आज दूरियां साकी घायल होती है

कहाँ शरण पीने वाले को कहां मार्ग का दर्शन है

भटक रहा हे प्याले के संग वह ढ़ूंढ़ रहा हे मधुशाला…  ४६

किसी रचना के इस तरह के महत्वपूर्ण कालांतरण कार्य हेतु मूल कवि के चोले में परकाया प्रवेश कर यथा स्वरूप रचना करने में डा संजीव कुमार की सफलता हेतु वे हिन्दी जगत की बधाई के सुपात्र हैं. यह आज की मधुशाला उसी तरह बारम्बार पढ़ी जायेगी जैसे मूल मधुशाला सदैव प्रासंगिक बनी हुई है. डा संजीव कुमार स्वयं इंडिया नेटबुक्स, नोयडा के निदेशक हैं, कहना न होगा कि पठनीय सामग्री के साथ साथ किताब का प्रकाशन, प्रस्तुति, कागज,  त्रुटि रहित मुद्रण आदि सब कुछ उत्कृष्ट कोटि का वैश्विक स्तर का है. मैं और उदाहरण देकर या रुबाईयों की व्याख्या करके आपके स्वयं पढ़ने के आनंद को कम नहीं करना चाहता, इसलिये बस यह लिखते हुये कि तुरंत आर्डर करें और इत्मिनान से मूल मधुशाला के संग संग आज की मधुशाला पढ़ें, और वैचारिक मधुर द्वंद का आनंद उठायें. एकदम पैसा वसूल, अवश्य पठनीय तथा संग्रहणीय किताब है.

अंत में एक सौ तैंतीसवा छंद देखिये..

पहले पंथ मतो का इतना उग्र रूप न दिखता था

अब तो घड़ी घडी लिखते हैं सब जैसे सेक्युलर बन के

पहले फिरते थे मधुशाला के पीछे याची बनकर

अब तो सबने छोड़ दिया है फिर फिर जाना मधुशाला

युग परिवर्तन को महसूस कीजिए.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा ☆ खामोशियों की गूँज (काव्य संग्रह) – सुश्री अदिति सिंह भदौरिया ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆

श्री दीपक गिरकर

☆ पुस्तक चर्चा ☆ खामोशियों की गूँज (काव्य संग्रह) – सुश्री अदिति सिंह भदौरिया ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆

पुस्तक  : खामोशियों की गूँज  (काव्य संग्रह) 

लेखिका  : अदिति सिंह भदौरिया 

प्रकाशक : पंकज बुक्स, 109-, पटपड़गंज गांव, दिल्ली -110091

आईएसबीएन : 978-81-8135-150-0

मूल्य   : 195 रूपए

☆ रूहानी प्रेम की कविताएं – श्री दीपक गिरकर ☆

खामोशियों की गूँजसुपरिचित लेखिका अदिति सिंह भदौरिया का प्रथम कविता संग्रह हैं। पत्र-पत्रिकाओं में इनके लेख, कहानियाँ, लघुकथाएँ, कविताएं और समसामयिक विषयों पर आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। इस संग्रह में प्रेम, इश्क़,  मोहब्बत, रूमानियत को अभिव्यक्त करती कविताएं हैं। साहित्यिक विधाओं में कविता ही ऐसी विधा है जो रूहानी इल्म के सबसे ज्यादा करीब है। इस संकलन में 119 छोटी-छोटी कविताएं संकलित हैं। इस कविता संग्रह की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप से वरिष्ठ साहित्यकार एवं राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के संपादक डॉ. लालित्य ललित ने लिखी है। डॉ. लालित्य ललित ने अपनी भूमिका में लिखा है – जीवन के हर पक्ष को बड़ी मासूमियत से अदिति ने ऑब्ज़र्व किया है। इसी कारण से इनकी रचनाओं में परिवेश की मौलिकता और उसका आकर्षण बोध यहाँ देखने को मिलता है।

सुश्री अदिति सिंह भदौरिया

इस कविता संग्रह की पहली कविता अक्स ही इतनी प्रभावशाली है कि पाठक अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाता है। सहज और निश्छल प्रेम में जीवंतता को अभिव्यक्त करती ये कविताएं पाठकों को प्रेम, मोहब्बत और मानवीय संवेदनाओं से अभिभूत कर देती हैं। अदिति सिंह रचना में डूबकर सृजन करती हैं इसी वजह से इनकी रचनाएं पाठकों से भी उसी शिद्दत से संवाद करती हैं। अक्स”, “अश्कों के प्रवाह और खामोशियाँ को उनके इस काव्य संग्रह की सबसे सशक्त कविताएं कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ये कविताएं पाठकों को अंदर तक झकझोर देती है। अदिति सिंह ने अत्यंत सूक्ष्मता के साथ इन कविताओं को रचा हैं। अक्स कविता की पंक्तियाँ – तुम मुझे भूल गए तुझको भुलाऊँ कैसे? / आईनादिल से तेरा अक्स मिटाऊँ कैसे? / जिसको रखा सदा सीप में मोती की तरह, / तू बता अश्क़ वह रुख पर गिराऊँ कैसे ! इस कविता के अंत में कवयित्री लिखती हैं – हाँ छिपाना चाहूँ तुझसे मैं ज़ख्म अपने, / पर टूटा आईना कहे मुझे, तेरा अक्स छिपाऊँ कैसे? अश्कों के प्रवाह रचना में लेखिका कहती हैं – कागज़ पर क़लम से मैंने खुद को सींचा है, / अश्कों के प्रवाह को सीने में भरकर देखा है ! / पढ़ पाओगे तुम शब्दों को, / पर अहसास नहीं इनमें होंगे ! / क्योंकि ख़ामोशी के शब्दों को मैंने, / पलकों की स्याही से सोखा है ! “खामोशियाँ कविता की पंक्तियों को देखिए – खामोशियों की चीखें दूर तक फ़ैल गई, / वरना शब्दों ने तो कब का कफ़न ओढ़ लिया है !  

कवयित्री की रचनाओं में कहीं-कहीं तो भाव इतने गहन हैं कि मन ठहर सा जाता हैसन्नाटे की गूँज में खोना चाहती हूँ, / मैं शब्दों के अहसास से दूर, / जीवन को जीना चाहती हूँ ! / मैं चाहती हूँ एक क्षितिज के / छोर मिलते हुए देखना / और उस छोर तक, / जीवन की डोरी को बुनना चाहती हूँ ! / जाने कब सांझ ढले जीवन की, / इस जीवन में खुद को जीना चाहती हूँ ! / तन्हाई की कब्र पर, / एक आह का इंतज़ार है ! (सन्नाटे की गूँज) संकलन की अन्य कविताएं फसल यादों की”, “सपनों की बूँद”, “खामोशी”, “तन्हाई”, “ख़्वाब”, “सागर का सूनापन”, “क़लम के रंग”, “कारवांदिल को झकझोर कर रख देती हैं।

अदिति सिंह की कविताएं सहज, सरल और संप्रेषणीय हैं। कवयित्री की रचनाएं सीधी और सादा लफ़्ज़ों में है। कविता की भाषा और शब्दों का चयन प्रभावपूर्ण है। कवयित्री की रचनाओं में आदि से अंत तक आत्मिक संवेदनशीलता व्याप्त है। लेखिका की रचनाओं में जीवन के तमाम रंग छलछलाते नज़र आते हैं। कुछ कविताओं में भाव रूमानी हैं तो कुछ कविताओं में भाव साधारण हैं। संग्रह की कुछ कविताओं में उपमाएं आकर्षित करती है। संग्रह का शीर्षक खामोशियों की गूँजबहुत लुभावना, सटीक और सार्थक है। इश्क़ और मोहब्बत में खामोशियों की भी जुबां होती है। यहाँ खामोशियाँ हैं, ऐसे ज़ख्म हैं जो आँखों से दिखते नहीं, कसक है, यादों की टीस है, तन्हाईयाँ हैं, धड़कन है, विश्वास है, ख़्वाब है, उम्मीद है, सपने हैं, जूनून है, भीगे पलों के गहरे अहसास है। ये कविताएं इबादत की मंज़िल खड़ी करती हैं। यह कविता संग्रह इश्क, मोहब्बत के बेहद रूमानी सफर पर पाठकों को ले जाने का प्रयास करता है। काव्य प्रेमियों के लिए यह एक अच्छा कविता संग्रह है। आशा है अदिति सिंह भदौरिया के इस प्रथम काव्य संग्रह खामोशियों की गूँज का हिंदी साहित्य जगत में स्वागत होगा।

समीक्षक – श्री दीपक गिरकर

संपर्क – 28-सीवैभव नगरकनाडिया रोडइंदौर– 452016 

मोबाइल : 9425067036

मेल आईडी : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा ☆ “बचते बचते प्रेमालाप (व्यंग्य संग्रह)” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆ श्री राहुल देव ☆

श्री राहुल देव 
 
पुस्तक चर्चा ☆ “बचते बचते प्रेमालाप (व्यंग्य संग्रह)” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆ श्री राहुल देव ☆

पुस्तक – बचते बचते प्रेमालाप (व्यंग्य संग्रह)

लेखिका – सुश्री अनीता श्रीवास्तव

पृष्ठ 142

मूल्य – 450/-

संस्करण – 2022

प्रकाशक – अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज

☆  सार्थक व्यंग्य की उमड़ती नदी  –    राहुल देव ☆

कहा जाता है कि विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले लेखक कला वर्ग के साहित्यिकों के बनिस्पत अच्छे साहित्यकार होते हैं | व्यंग्यभूमि मध्य प्रदेश की उभरती हुई व्यंग्य लेखिका अनीता श्रीवास्तव का पहला व्यंग्य संग्रह ‘बचते बचते प्रेमालाप’ पढ़ते हुए यह बात पूरी तरह से सच होती दिखाई देती है | सबसे पहले तो मुझे किताब के कलात्मक कवर व रोमांटिक शीर्षक को देखकर एकबारगी कविता संग्रह का भ्रम हुआ लेकिन नहीं यह तो भरे पूरे व्यंग्यों से सजा हुआ शानदार व्यंग्य संग्रह निकला | इस संग्रह में उनके 42 व्यंग्य शामिल है जिनसे लेखिका के व्यंग्य प्रेम और उनके रचना प्रक्रिया का पर्याप्त परिचय पाठक को प्राप्त हो जाता है |

सुश्री अनीता श्रीवास्तव

अधिसंख्य लेखकों की तरह अनीता भी कविता, कहानी और बाल गीतों की यात्रा तय करते हुए व्यंग्य तक पहुंची हैं और अब उन्हें समझ में आ गया है की यही उनकी असली विधा है | अपनी बात में लेखिका की ईमानदार आत्मस्वीकारोक्ति पढ़कर मैं यही कहूंगा देर आए दुरुस्त आए | वैसे तो परिमाणात्मक रूप से व्यंग्य साहित्य में स्त्री लेखिकाओं की आमद बढ़ी है लेकिन आमतौर पर कई सीमाओं में बंद होने के कारण उनका लेखन गुणात्मक रूप में उस तरह से विकसित नहीं हो पाता जैसा कि साहित्यगत कसौटियों की अपेक्षा होती हैं | आमतौर पर वह विचार के तौर पर कमजोर होते हैं या उनमें विषयगत विविधताएँ नहीं होती हैं | उनमें रचनात्मक इकहरापन पाया जाता है या उनमे सामाजिक सन्दर्भों की बहुआयामिकता नही दिखती | वह राजनीति से बचती हैं और हल्के-फुल्के व्यंग्य लिखकर ही संतुष्ट हो जाया करती हैं | लेकिन अनीता अपनी व्यंग्य प्रतिभा से इस क्लीशे को तोड़ती दिखाई देती है वह स्त्री सुलभ  सीमाओं को तोड़कर मानो नदी की तरह उमड़ती हुई आगे बढ़ती जाती है | अगर संग्रह से लेखिका का नाम हटा दिया जाए तो आप बता नहीं पाएंगे कि यह किसी महिला व्यंग्यकार का संग्रह होगा | उनके इस संग्रह की अधिकांश रचनाएं गजब की समझ, साहस और आत्मविश्वास के साथ लिखी गई मालूम पड़ती हैं |

‘आस्तीन के साँप’ शीर्षक व्यंग्य में वे लिखती हैं, ‘इधर आधी आबादी (महिलाएं) भी कम सशंकित नहीं है | समाज और परिवार में दोयम दर्जे की हैसियत के कारण वे दो तरफा हमले की शिकार हो रही हैं | ऐसे में अपने सम्मान की खातिर उन्होंने भी कुछ एतिहाती कदम उठाए | ख़ासकर जो खुद को मॉडर्न मानती हैं और जिनके हाथों में महिला सशक्तिकरण की मशाल है ऐसी लड़कों ने आज तीन छोटी करवा ली या विदाउट स्लीव्स पहनने लगी | कॉलेज में लड़के ऐसा करते तो इसे उनका स्टाइल समझा जाता | उन्हें लताड़ा जाता | लड़कियां आस्तीन से बचतीं तो उन्हें फैशनेबल समझा जाता | उन्हें अच्छी लड़कियों में नहीं गिना जाता और कुछ दकियानूसी टाइप लोग इन लड़कियों को बिगड़ा हुआ भी मान लेते | मगर उम्रदराज महिलाओं की बात अलग है उन्हें पूरा हक है आधी आबादी के लिए मार्ग प्रशस्त करने का।’

उनके व्यंग्यो में जगह-जगह मार्मिक टिप्पणियाँ उपस्थित मिलती हैं | ‘दो हफ्ते की ऑक्सीजन’ शीर्षक व्यंग्य में उनका यह कथन देखिये कि- ‘एक बूढ़ा पीपल अपनी डाली पर बैठी चिड़िया को उदास देख बोला तुम चिंता मत करो मैं हूं ना !’ इसी तरह एक अन्य स्थल पर वे लिखती हैं, ‘मैंने उन्हें अलग ला कर बैठा लिया, एक बंद दुकान के आगे बनी बेंच पर जोकि ऐसे ही थके हुए लोगों के इंतजार में तैनात रहती है |’ अनीता सीधी-सरल भाषा शैली से पाठक के मर्मस्थल पर प्रहार करती है | जहाँ अधिकांश व्यंग्य रचनाओं में रम्यता और पठनीयता है वहीं कुछ रचनाओं में एक किस्म का कच्चापन भी है | स्वाभाविकता व निजता का गुण इनकी रचनाओं की अपनी खासियत है | अनीता श्री अपने इस व्यंग्य संग्रह के जरिए समकालीन व्यंग्य पटल पर संभावनाशील व्यंग्य लेखिका के रूप में सशक्त उपस्थिति दर्ज करती हैं |

‘आज के समय का साक्षात्कार’ शीर्षक व्यंग्य में वे लिखती हैं, ‘जीवन में पतझड़ आने पर इंसान दुखी होता है | जितना लंबा पतझड़ उतना बड़ा दुख, कायदे से होना तो यही चाहिए मगर ऐसा होता नहीं, मसलन, विधुर हुए आदमी को जल्दी ही कोई और स्त्री भा जाती है | पतझड़ समाप्त | बसंत चालू |’ वही ‘अहा बक्सवाहा स्वाहा बक्सवाहा’ नामक व्यंग्य में दिखावे की संस्कृति पर प्रहार करते हुए स्पष्ट रूप से कहती हैं, ‘आज की शिक्षित लोगों में जागरूकता है तभी तो लोग पूरे साल एक खास दिवस की प्रतीक्षा करते हैं उस दिन वे एक पौधा लगाते हैं और चार-छह आदमी उसमें हाथ लगा कर फोटो खिंचवाते हैं | उसे स्टेटस पर डालते हैं | वीआईपी हुए तो अखबार में छपवाते हैं | इनमें से नब्बे प्रतिशत तो पलट कर देखते भी नहीं कि पौधा किस हाल में है | क्यों देखें?…उन्हें जीवन में आगे बढ़ना है | पीछे देखते हुए वे आगे कैसे बढ़ेंगे !’ इन व्यंग्य रचनाओं की उद्देश्यपरकता और सहज व्यंग्यदृष्टि प्रभावशाली है | अंदरूनी रचनाओं के शीर्षकों से ही व्यंग्य झलकता है | यह लगता ही नहीं कि यह किसी लेखिका का पहला व्यंग्य संग्रह है |

‘चुगली की गुगली’ शीर्षक व्यंग्य में लेखिका लिखती है- ‘ये अनुमान अपने आप लग गया कि चुगली समाज में समरसता बनाए रखने में सहायक है | कैसे? जो बातें मुंह पर कह देने से झगड़े का डर होता है यदि चुगली के माध्यम से संबंधित तक पहुंचा दी जाएं तो लाठी भी नहीं टूटती और सांप भी मर जाता है |’ बार-बार दोहराया गया झूठ आखिर क्यों सच होने का भ्रम देता है इस थीम पर लिखा गया ‘बड़ा आदमी आम और देशहित’ इस संग्रह का सबसे महत्वपूर्ण व्यंग्य है | बड़ा होने के लिए जन्म और कर्म के कांसेप्ट से अलग भी क्या कुछ हो सकता है यह व्यंग्य इसकी भी पड़ताल करता है | संग्रह में यह ‘ये टर्राने का मौसम’ और ‘सारी कुकुर जी’ जैसी मज़ेदार रचनाएं पढ़कर बीच-बीच में आप अनायास मुस्कुरा पड़ते हैं | मिडिल क्लास जबान को कुत्तापा की तरह से देखने का तिर्यक नजरिया लेखिका के पास हमेशा मौजूद रहा है | अचानक चल रहे चिंतन से चुहल की ओर मोड़ देने की यह अदा लेखिका को विशिष्ट बनाती है | यहाँ एक और व्यंग्य का जिक्र करना जरुरी समझता हूँ ‘हँसोड़कालीन सभ्यता के अवशेष’ | रूपको और प्रतीकों का व्यंग्य के पक्ष में ऐसा इस्तेमाल बहुत कम देखने को मिलता है- ‘अवसादोन्मुखी सभ्यता के पुरातत्व विभाग ने एक ऐसे नगर की खोज की है जिसे हँसोड़ कालीन सभ्यता कहा जा रहा है | पुरातत्व विभाग के कारिंदे उस वक्त मुंह के बल गिरते गिरते बचे जब खुदाई में लगे मजदूरों ने हाँफते हाँफते बताया कि ईंटें खिलखिला रही हैं।’ आपका यह व्यंग्य इतिहास के आलोक में भविष्य के दृष्टिगत वर्तमान से प्रश्न करता है | समय की ऐसी आवाजाही इनके व्यंग्य को एक अलग पहचान व नया आयाम प्रदान करती है | अनीता श्रीवास्तव के लेखन में मौजूद मौलिकता और मार्मिकता के तत्व, करुणा और हास्य का संतुलन देखकर आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते | मुझे बहुत दिनों बाद प्रचलित मुहावरों से हटकर लिखी गई व्यंग्य रचनाएं पढ़ने को मिली है | उनमें सूर्यबाला की तरह यथार्थ को व्यंग्यार्थ के साथ लक्षित करने की अचूक सामर्थ्य परिलक्षित होती है | ‘प्लेट खोकर चम्मच में खुश होने वाले’ शीर्षक व्यंग्य में वे मानवीय मनोविज्ञान की सूक्ष्म ऑब्जर्वेशन करती हुई लिखती हैं, ‘गोविंद जी ने पलटकर उस काउंटर की ओर वैसे ही देखा जैसे कुछ लोग सजी-धजी महिलाओं को थोड़ा दूर जाने पर देखते हैं | …जब तक पास खड़ी रहती हैं वे इधर-उधर देखते रहते हैं… सभ्यता के नाते |’ अपने आसपास की छोटी-छोटी बातों से व्यंग्य निकाल लाने का हुनर उनमें बखूबी है | विचार के स्तर पर गुंजाइश हमेशा बनी रहती है और यह परिपक्वता धीरे-धीरे लिख-पढ़कर ही आती है |

पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य ‘बचते बचते प्रेमालाप’ का यह अंश उल्लेखनीय है, ‘आदमी इमोशनल डायलॉग बोलने में माहिर है | उसने तय कर लिया है कि आज वह भावनाओं के स्विमिंग पूल में उस स्त्री को हंड्रेड परसेंट बहा ले जाएगा जो उसकी पत्नी नहीं है | जल्दी ही वे दोनों सच्ची-मुच्ची के मित्र होंगे | किसी पार्क में मिलेंगे… आमने सामने बैठेंगे नेत्र कोटरो में स्थित प्राकृतिक कैमरों से एक दूजे की यथार्थ फोटो खींचेंगें | उसने यह भी तय किया कि वह उसकी पसंद के फ्रेम में खुद को फिट करके ही दम लेगा भले ही इसके लिए उसे अपने यथार्थ को क्रॉप करना पड़े |’ चरित्र विश्लेषण करने में उन्हें महारथ हासिल है साथ ही शिल्प के स्तर पर इन रचनाओं में काफी विविधता मौजूद है | संग्रह का एक और व्यंग्य ‘महिला सूचक गाली …सांस्कृतिक विरासत है आली’ पढ़कर आप पाते हैं इनके यहां स्त्री विमर्श का आहवादी स्वर नहीं है बल्कि आलोचना के दायरे में वे खुद को भी रखती हैं और अनावश्यक हो हल्ला करने वाले लोगों के डबल स्टैंडर्ड्स को भी रेखांकित करती हैं | वे उलटबांसी की तरह से गालियों के समाजशास्त्र को गाली चिंतन कहकर पुकारती हैं | अनीता व्यंग्य की किसी कुशल सर्जन की तरह विसंगति का आद्योपांत ऑपरेशन कर डालती हैं | किताब में कुछ प्रकाशकीय त्रुटियां भी हैं जैसे कि ‘भैंस के आगे हॉर्न बजाना’ यह व्यंग्य दो बार छप गया है | साथ ही किताब का मूल्य भी ज्यादा है इसे कम होना चाहिए था |

अनीता श्री को व्यंग्य का सटीक निर्वहन करना आता है | मेरी उत्कृष्टता की कसौटी पर 42 में से 22 व्यंग्य खरे उतरे हैं | एक जगह उनका यह कथन दृष्टव्य है, ‘संपन्नता एक ऐसी बुशर्ट है कि चाहे जितनी बड़ी हो, तंग ही रहती है |’ एक उदाहरण और देखें, ‘आदमी का सोचना उसकी सुविधा और पसंद का है | आदमी ने हमेशा यही किया अपना सच दूसरों पर थोपा |’ धार्मिक ढकोसलों पर भी लेखिका पूरी सतर्कता के साथ अपनी कलम चलाती है | आपके यहाँ कल्पना की ऊंची उड़ान भी पूरे खिलंदड़पन के साथ मौजूद रही है | ‘मच्छर का ईमान और आदमी का खून’ शीर्षक व्यंग्य रचना में उनका यह कहना, ‘पिताजी के जीवन में अपने बेटे की बेरोजगारी को देखते हुए यही एकमात्र गर्व का विषय बचा है कि वह ओल्ड पेंशन स्कीम के जमाने में पैदा हुए थे |’ वे बगैर किसी लाग-लपेट के प्रवृत्तिगत सच को अनावृत करती चली जाती हैं |

‘हे मंजे हुए लोगों’ में लेखिका ने शिक्षक, डॉक्टर, नेता और व्यवसायी इन सभी क्षेत्रों के मंजे हुए लोगों की जमकर खबर ली है | सत्ता और पूंजीपतियों की सांठ-गाँठ को खोलते हुए वे लिखती हैं- ‘यह बढ़-चढ़कर चंदा देते हैं | चुनाव का बोझ जब नेताजी के कंधों पर आता दिखता है, अपना कंधा लगा देते हैं | सत्ता की पालकी, ये कहार बनकर ढोते हैं | बदले में सत्ता भी इन्हें हर कहर से बचाती है | इन दोनों की जोड़ी देश की तरक्की के लिए आवश्यक समीकरण रचाती है |’ इस उपक्रम में वे समाज और साहित्य के कोने-अतरे तक झाँक आयी हैं | ‘अमरता सूत्रम समर्पयामि’ शीर्षक व्यंग्य में लेखिका ने अद्भुत देह विमर्श प्रस्तुत किया है | इस किताब में  एक से बढ़कर एक व्यंग्य हैं | आपकी रचनाशीलता में अनुभव और अध्ययन की सम्मिलित गहराई झलकती है | ‘बेहद खुशमिजाज’ हिंदी की दुर्दशा पर एक बेहतरीन व्यंग्य रचना बन गयी है- ‘इधर कुछ दिन से मैं बीपी शुगर की धकेली उतनी ही सुबह सैर पर जाती हूं | वे लोग मुझे कल रास्ते में मिले | मुझे देखकर सामूहिक राधे-राधे हुई | मैंने जुबान पर आती गुड मॉर्निंग को दाढ़ चले दबाया और कहा राधे-राधे जी | तभी मुझे लगा मेरे भीतर एक संस्कारी किस्म की हिंदी भाषी नारी गश खाकर गिर गई |’ तो वही ‘कुछ खास नहीं’ शीर्षक व्यंग्य में वे व्यंग्य करती हुई लिखती हैं, ‘मैं कई दिनों से परमार्थ का कोई काम हथियाना चाह रही थी ताकि जीवन सार्थक हो जाए।‘

अगर मैं इसे अब तक प्रकाशित इस साल का सबसे उल्लेखनीय संग्रह कहूं तो शायद कोई अतिशयोक्ति न होगी | विज्ञान की इस अध्यापिका में अदम्य प्रतिभा और व्यंग्याभिव्यक्ति की एक सघन बेचैनी है | अगर वे इसी तरह लिखती रहीं तो बहुत आगे जायेंगीं | आगे चलकर इस युवा लेखिका में बड़ा साहित्यकार बनने की संभावनाएं विद्यमान हैं | उनका यह पहला संग्रह तो यही उम्मीद जगाता है कि वह सही दिशा में है | व्यंग्य जगत को अपनी इस नई लेखिका का खुले दिल से स्वागत करना ही चाहिए |

चर्चाकार… श्री राहुल देव  

संपर्क –  9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र.) 261203

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 116 – “रास्ते बंद नहीं होते” – सुश्री अनिता रश्मि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री अनिता रश्मि द्वारा लिखित लघुकथा संग्रह “रास्ते बंद नहीं होते” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 116 ☆

☆ “रास्ते बंद नहीं होते” – सुश्री अनिता रश्मि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

 

पुस्तक – रास्ते बंद नहीं होते (लघुकथा संग्रह)

लेखिका – सुश्री अनिता रश्मि

पृष्ठ – १९६ , मूल्य – ३७५ ,

संस्करण – २०२१

प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स नोयडा

अनिता रश्मि

सुश्री अनिता रश्मि

लघुकथा का साहित्यिक भविष्य व्यापक है, क्योंकि परिवेश विसंगतियों से भरा हुआ है  – चर्चाकार विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल

युग २० २० क्रिकेट का है. युग ट्विटर की माइक्रो ब्लागिंग का है. युग इंस्टेंट अभिव्यक्ति का है. युग क्विक रिस्पांस का है. युग १० मिनट में २० खबरो का है. युग २ मिनट में नूडल्स का है. आशय केवल इतना है कि साहित्य में भी आज पाठक जीवन की विविध व्यस्तताओ के चलते समयाभाव से जूझ रहा है. पाठक को कहानी का, उपन्यास का आनन्द तो चाहिये किंतु वह यह सब फटाफट चाहता है.

संपादक जी को शाम ६ बजे ज्ञात होता है कि साहित्य के पन्ने पर कार्नर बाक्स खाली है, और उसके लिये वे ऐसी फिलर सामग्री चाहते हैं जो पाठक के लिये आकर्षक हो.

इतना ही नहीं रचनाकार भी किसी घटना से अंतर्मन तक प्रभावित होते हैं, वे उस विसंगति को अपने पाठकों तक पहुंचाने पर मानसिक उद्वेलन से विवश हैं किन्तु उनके पास भी ढ़ेरों काम हैं, वे लम्बी कथा लिख नही सकते. यदि उपन्यास लिखने की सोचें तो सोचते ही रह जायें और रचना की भ्रूण हत्या हो जावे. ऐसी स्थिति में कविता या लघुकथा एक युग सापेक्ष साहित्यिक विधा के रूप में अभिव्यक्ति की छटपटाहट का सहारा बनती है.

मैं अनिता रश्मि की स्फुट लघुकथायें यत्र तत्र पढ़ता रहा हूं. किंतु जब एक जिल्द में रास्ते बंद नहीं होते पढ़ने मिली तो मैं उनके विशद स्तरीय लघुकथा लेखन से अंतस तक प्रभावित हुआ. किताब को भूमिका या आत्मकथ्य के पारम्परिक तरीके की जगह समय समय पर अलग अलग लघुकथाओ पर अनेकानेक पाठको की जो प्रतिक्रियायें लेखिका को मिलती रही हैं उन्हें किताब के अंत में संग्रहित किया गया है. अनुक्रम में  “आज की दुनिया” उपशीर्षक से माब लिंचिंग, रैलियां, भक्त, श्रद्धांजली, सच बोलने की सजा जैसे विभिन्न मुद्दों पर २९ लघुकथाओ, “विभाजन का दंश” उप शीर्षक से रिफ्यूजी, रिस्तों की चमक, काली रात आदि दस लघुकथायें, “अन्नदाता” उपशीर्षक से रोटी, चोरी, नियति स्वीकार, हार, किसान या आसान नहीं जैसी २० विषयों पर मर्मस्पर्शी रचनायें हैं. स्त्री उप शीर्ष से १९ संग्रहित कहानियों में से कुछ के शीर्षक हैं लालन पालन , दया, कन्या पूजन, बोरे में, वह लड़की, अवाक्, हिरणी ये शीर्षक ही कथ्य इंगित करने में समर्थ हैं. त्रासद महामारी के अंतर्गत कोरोना जनित बिम्बों पर २६ लघुकथाओ में कारुणिक दृश्य लेखिका की नजरों से देखने को मिले हैं. जिन्होंने जन्म दिया एक उपशीर्ष है, जिसमें माता, पिता परिवार को लेकर १० बिम्ब हैं. सेल्फी, एक चिट्ठी, प्राकृतिक आपदा, आत्महत्या आदि २४ प्रभावी लघुकथायें “अन्य” उपशीर्षक के अंतर्गत हैं और १२ लघुकथायें “पर्यावरण” के उपशीर्ष के अंतर्गत प्रस्तुत की गई हैं. विभिन्न उपशीर्षक जिनके अंतर्गत संग्रह की रचनाओ को समेटा गया है, अनिता रश्मी की सोच, समाज के प्रति उनकी दृष्टि और विसंगतियों के प्रति उनकी व्यकुलता समझाने को पर्याप्त हैं. कुल १५१ पठनीय , चिंतन को प्रेरित करती, पाठक की भावनायें उद्वेलित करती स्तरीय रचनायें किताब में हैं. लघुकथायें लम्बे समय अंतराल में लिखी गई हैं, जिन्हें समन्वित कर पुस्तक के स्वरूप में प्रस्तुत किया गया है. उनका रचना कर्म बताता है कि वे गंभीर लेखिका हैं, और शांत एकल प्रयास करती दिखती हैं. उनकी लघुकथा पर निर्मित पोस्टर व फिल्मांकन और उन्हें प्राप्त पुरस्कार उनकी साहित्यिक स्वीकार्यता बताते हैं.

लघुकथा संक्षिप्त अभिव्यक्ति की प्रभावशाली विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है. मुझे स्मरण है कि १९७९ में मेरी पहली लघुकथा दहेज, गेम आफ स्किल, बौना आदि प्रकाशित हुईं थी. तब नई कविता का नेनो स्वरूप क्षणिका के रूप में छपा करता था और लघुकथायें फिलर के रूप में बाक्स में छपती थीं. समय के साथ लघुकथा ने क्षणिका को पीछे छोड़कर आज एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा का स्थान अर्जित कर लिया है. लघुकथा  के समर्पित लेखकों का संसार बड़ा है. इंटरनेट ने दुनियां भर के लघुकथाकारों को परस्पर एक सूत्र में जोड़ रखा है. भोपाल में लघुकथा शोध केंद्र के माध्यम से इस विधा पर व्यापक कार्य हो रहा है. यद्यपि लघुकथा के सांझा संग्रह बड़ी संख्या में छप रहे हैं पर लघुकथा के एकल संग्रहों की संख्या अपेक्षाकृत सीमित है. ऐसे समय में इंडिया नेटबुक्स से अनिता रश्मि जी का यह संग्रह “रास्ते बंद नहीं होते” महत्वपूर्ण है. लघुकथा का साहित्यिक भविष्य व्यापक है, क्योंकि परिवेश विसंगतियों से भरा हुआ है, अपने अनुभवो को व्यक्त करने की छटपटाहट एक नैसर्गिक प्रक्रिया है, जो लघुकथाओ की जन्मदात्री है. अनिता रश्मि जैसे रचनाकारो से लघुकथा को व्यापक अपेक्षायें हैं. मैं पाठको को यह किताब खरीदकर पढ़ने की सलाह दे सकता हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा ☆ भीड़ और भेड़िए (व्यंग्य संग्रह) – श्री धर्मपाल महेन्द्र जैन ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆

श्री दीपक गिरकर

☆ पुस्तक चर्चा ☆भीड़ और भेड़िए (व्यंग्य संग्रह) – श्री धर्मपाल महेन्द्र जैन ☆ श्री दीपक गिरकर ☆

समीक्षित कृति : भीड़ और भेड़िए (व्यंग्य संग्रह)

लेखक   : धर्मपाल महेन्द्र जैन     

प्रकाशकभारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली – 110003 

मूल्य   : 260 रूपए

☆ विसंगतियों पर तीव्र प्रहार का रोचक संग्रह  – श्री दीपक गिरकर ☆

भीड़ और भेड़िएचर्चित वरिष्ठ कवि-साहित्यकार श्री धर्मपाल महेन्द्र जैन का चौथा व्यंग्य संग्रह हैं। धर्मपाल जैन के लेखन का कैनवास विस्तृत है। वे कविता और गद्य दोनों में सामर्थ्य के साथ अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार हैं। धर्मपाल महेन्द्र जैन की प्रमुख कृतियों में सर क्यों दाँत फाड़ रहा है”, “दिमाग वालो सावधान”, “इमोजी की मौज में (व्यंग्य संग्रह), इस समय तक”, “कुछ सम कुछ विषम” (काव्य संग्रह) शामिल हैं। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। धर्मपाल महेन्द्र जैन की गिनती आज के चोटी के व्यंग्यकारों में है। इनका व्यंग्य रचना लिखने का अंदाज बेहतरीन है। व्यंग्यकार ने इस संग्रह की रचनाओं में वर्तमान समय में व्यवस्था में फैली अव्यवस्थाओं, विसंगतियों, विकृतियों, विद्रूपताओं, खोखलेपन, पाखण्ड इत्यादि अनैतिक आचरणों को उजागर करके इन अनैतिक मानदंडों पर तीखे प्रहार किए हैं। साहित्य की व्यंग्य विधा में धर्मपाल जी की सक्रियता और प्रभाव व्यापक हैं। व्यंग्यकार वर्तमान समय की विसंगतियों पर पैनी नज़र रखते हैं। लेखक अपनी व्यंग्य रचनाओं को कथा के साथ बुनते हुए चलते हैं।

श्री धर्मपाल महेन्द्र जैन

भीड़ और भेड़िए”, “प्रजातंत्र की बस”, दो टाँग वाली कुर्सी”, भैंस की पूँछ”, “पहले आप सुसाइड नोट लिख डालें”, लाचार मरीज और वेंटिलेटर पर सरकारें”, कोई भी हो यूनिवर्सल प्रेसिडेंट”, “हाईकमान के शीश महल में”, “लॉक डाउन में दरबार”, “देश के फूफा की तलाश”, “चापलूस बेरोजगार नहीं रहते संविधान को कुतरती आत्माएँ जैसे रोचक और चिंतनपरक व्यंग्य पढ़ने की जिज्ञासा को बढ़ाते हैं और साथ ही अपनी रोचकता और भाषा शैली से पाठकों को प्रभावित करती हैं। भीड़ और भेड़िएसमकालीन राजनीति की बखिया उधेड़ता एक रोचक व्यंग्य रचना है। रचना भीड़ और भेड़िएव्यंग्य में लेखक लिखते है सत्तारूढ़ राजनेता या मोक्ष बुकिंग एजेंट जिस तरह भीड़ का भावुक हृदय जीतते हैं वह सबके बस की बात नहीं है। वे भीड़ में घुसी भेड़ों में यह आत्मविश्वास जमा देते हैं कि वे अपनी आत्मा की आवाज सुन कर वहाँ हैं। जो प्रायोजित भीड़ दैनिक भत्ते पर आती है वह पेशेवर भेड़ों से बनी होती है। ये भेड़ें तय अवधि के लिए आँखें बंद कर अपनी आत्मा किराए पर उठा देती हैं। दाम दो और आत्मा ले लो। आदमी से बनी भेड़ का चरित्र आदमी जैसा ही रहता है, संदिग्ध। आदमी पशु बनकर भी पशु जैसा वफादार नहीं बन सकता। (पृष्ठ 16)

प्रजातंत्र की बसलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों पर करारा और सार्थक व्यंग्य है। बस को धक्का लगाने के लिए सरकार ने बड़ा अमला रखा है। दायीं तरफ से आईएएस धक्का लगा रहे हैं। बायीं तरफ से मंत्रीगण लगे हैं। पीछे से न्यायपालिका दम लगा के हाइशा बोल रही है और आगे से असामाजिक तत्व बस को पीछे ठेल रहे हैं। लोग सात दशकों से पुरजोर धक्का लगा रहे हैं पर गाडी साम्य अवस्था में है। गति में नहीं आती, इसलिए स्टार्ट नहीं होती। प्रजातंत्र की बस सिर्फ चर्रचूँ कर रही है। (“प्रजातंत्र की बस”) यह यथार्थ को चित्रित करता बेहतरीन शैली में तराशा गया एक सराहनीय व्यंग्य है।

दो टाँग वाली कुर्सी व्यंग्य लेख वर्तमान परिस्थितियों में एकदम सटीक है तथा यह व्यंग्य लेख अवसरवादी राजनीति पर गहरा प्रहार करता है। जिस कुर्सी पर आपको बैठना हो उसके लिए यदि कोई और उत्सुक दिखे तो अपना दावा ठोक दें। प्रतिद्वंद्वी को आप खुद नहीं ठोकें। अपने चार लोगों को इशारा कर दें। वे उसकी ठुकाई करेंगे और आपका जोरशोर से समर्थन भी। प्रतिद्वंद्वी समझ जाएगा कि वह कुर्सी सिर्फ आपके लिए बनी है। हर कुर्सी में सिंहासन बनने की निपुणता नहीं होती। कुछ लोग जो अपनी कुर्सी को नरमुंडों और मनुष्यरक्त की जैविक खाद देकर पोषित कर पाते हैं, वे अपनी कुर्सी को सिंहासन बना पाते हैं। (“दो टाँग वाली कुर्सी”)

भैंस की पूँछ”, पहले आप सुसाइड नोट लिख डालेंजैसे व्यंग्य धर्मपाल जैन के अलहदा अंदाज के परिचायक है। धर्मपाल महेन्द्र जैन के कहनपन का अंदाज अलग है। बिन बारूद की तीलीधड़ाधड़ व्यंग्य लिखने वालों पर कटाक्ष है। भैंस की पूँछ बहुत ही मजेदार और चुटीला व्यंग्य है। आप रसीलाजी को नहीं जानते तो पक्का सुरीलीजी को भी नहीं जानते होंगे। वे महान बनने के जुगाड़ में जी जान से लगे थे पर पैंदे से ऊपर उठ नहीं पा रहे थे। उन्हें पता था कि विदेश में रहकर महान बनना बहुत सरल है। हिंदी नाम की जो भैंस है बस उसको दोहना सीख जाएँ तो उनके घर में भी घीदूध की नदियाँ बह जाएँ। (“भैंस की पूँछ”) “पहले आप सुसाइड नोट लिख डालेंयथार्थ को चित्रित करता बेहतरीन शैली में तराशा गया एक सामयिक प्रभावशाली व्यंग्य है जो पुलिस की कार्यशैली पर भी सार्थक हस्तक्षेप करती है। व्यंग्यकार दृश्य चित्र खड़े करने में माहिर हैं। एक बार फिर चेक कर लें कि आप ने सुसाइड नोट लिखकर अपनी ऊपरी जेब में विधिवत रख दिया है। पुलिस की नजर का कोई भरोसा नहीं है। विटामिन एम खाया हो तो वे सुसाइड नोट पाताल में भी खोज सकते हैं। यदि उन्हें विटामिन का पर्याप्त डोज़ मिले तो वे आँखों के सामने पड़ा सुसाइड नोट भी नहीं देख पाते। (“पहले आप सुसाइड नोट लिख डालें)         

लाचार मरीज और वेंटिलेटर पर सरकारें एक बेहतरीन व्यंग्य रचना है, जिसमें लाचार मरीज़ों की मन:स्थिति, उनकी पीड़ा, उनकी मजबूरियों का यथार्थ चित्रण किया गया है और साथ ही सरकार की कार्यशैली का कच्चा चिट्ठा खोला गया है। इस व्यंग्य रचना में अस्पतालों की बदहाल स्थिति का पोस्टमार्टम किया गया है। यह व्यंग्य रचना हमारी चिकित्सा व्यवस्था की पोल खोलती है। देश बीमार है। वेंटिलेटर मिल गया है पर उसका एडॉप्टर नहीं है। इसे अस्पताल की ऑक्सीजन लाइन से जोड़ें कैसे अधिकारियों का काम थोक में वेंटिलेटर खरीदना था, उन्होंने वह कर दिया। वेंटिलेटर आँकड़ों में दर्ज कर दिए। राजनेता गए, फीता काट कर बटन दबा आए। वे कोई तकनीकी आदमी तो थे नहीं कि जाँच करते कि वेंटिलेटर इंस्टाल हुआ या नहीं। टेक्निकल भर्ती की मांगे सचिवालयों के स्वास्थ्य विभागों में दबी पड़ी हैं। देश में बेरोजगारों की भीड़ है। (“लाचार मरीज और वेंटिलेटर पर सरकारें”) हम जीडीपी गिराने वालेरचना के माध्यम से लेखक ने सामाजिक विषमता / वर्ग विभेद पर करारा व्यंग्य किया है। आइंस्टीन का चुनावी फार्मूला माफिया तंत्र को उकेरती एक सशक्त व्यंग्य रचना है। इसे दस लोगों को फॉरवर्ड करें सोशल मीडिया पर गहरा तंज है। हाईकमान के शीश महल मेंव्यंग्य रचना में करारे पंच के साथ गहराई से वर्तमान सियासत पर तंज कसा गया है। संविधान को कुतरती आत्माएँराजनेताओं की यथार्थ स्थिति को उद्घाटित करती हुई एक उम्दा रचना है जिसमें राजनीतिज्ञ अपनी आत्मा को हाईकमान की तिजोरी में रखकर पद हथियाते हैं। फिर ये आत्माएँ संविधान को कुतरती हैं। वैशाली में ऑक्सीजन कंसंट्रेटर एक रोचक रचना है जिसमें राजा को अमेरिका से मिले पोर्टेबल ऑक्सीजन कंसंट्रेटर गिफ्ट राजा से महारानी, महारानी से उसके प्रेमी सेनापति, सेनापति से सेनापति की प्रेयसी विपक्षी नेत्री, विपक्षी नेत्री से उसके प्रियतम एंकर, एंकर से वैशाली की नगरवधू और नगरवधू से वापस राजा के पास आ जात्ता है। डिमांड ज्यादा है, थाने कम रचना में व्यंग्यकार ने थानों की बिक्री को निविदाओं से जोड़कर अनूठा प्रयोग किया है। लेखक समाज में व्याप्त विसंगतियों को चुटीलेपन के साथ उजागर करते हैं। लॉकडाउन में दरबाररचना में लेखक के सरोकार स्पष्ट होते हैं। इस रचना को लेखक ने एक नाट्य के रूप में प्रस्तुत किया है। व्यंग्यकार ने लॉकडाउन के दौरान सरकारी कार्यप्रणाली पर गहरा प्रहार किया है। साठोत्तरी साहित्यकार का खुलासाऔर हिंदी साहित्य का कोरोना गाथाकालवर्तमान साहित्यिक परिदृश्य पर सही, सटीक सारगर्भित सार्थक हस्तक्षेप करती हुई व्यंग रचनाएं हैं।  

हम जीडीपी गिराने वाले”, “साठोत्तरी साहित्यकार का खुलासा”, “लॉकडाउन में दरबार”, “पशोपेश में हैं महालक्ष्मीजी”, माल को माल ही रहने दो, “हिंदी साहित्य का कोरोना गाथाकाल इत्यादि इस संग्रह की काफी उम्दा व्यंग्य रचनाएँ हैं। संग्रह की रचनाओं के विषयों में नयापन अनुभव होता है। संग्रह की विभिन्न रचनाओं की भाषा, विचार और अभिव्यक्ति की शैली वैविध्यतापूर्ण हैं। इस व्यंग्य संग्रह की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप से वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखी है। व्यंग्यकार ने इस संग्रह में व्यवस्था में मौजूद हर वृत्ति पर कटाक्ष किए हैं। लेखक के पास सधा हुआ व्यंग्य कौशल है। धर्मपाल जैन की प्रत्येक व्यंग्य रचना पाठकों से संवाद करती है। चुटीली भाषा का प्रयोग इन व्यंग्य रचनाओं को प्रभावी बनाता है। व्यंगकार ने इन  व्यंग्य रचनाओं में चुटीलापन कलात्मकता के साथ पिरोया है। धर्मपाल जैन की व्यंग्य लिखने की एक अद्भुत शैली है जो पाठकों को रचना प्रवाह के साथ चलने पर विवश कर देती है। व्यंग्यकार ने अपने समय की विसंगतियों, मानवीय प्रवृतियों, विद्रूपताओं, विडम्बनाओं पर प्रहार सहजता एवं शालीनता से किया है। व्यंग्यकार धर्मपाल जैन के लेखन में पैनापन और मारक क्षमता अधिक है और साथ ही रचनाओं में ताजगी है। लेखक के व्यंग्य रचनाओं की मार बहुत गहराई तक जाती है। धर्मपाल जैन अपनी व्यंग्य रचनाओं में व्यवस्था की नकाब उतार देते हैं। लेखक की रचनाएँ यथास्थिति को बदलने की प्रेरणा भी देती है। आलोच्य कृति भीड़ और भेड़िए में कुल 52 व्यंग्य रचनाएँ हैं। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 136 पृष्ठ का यह व्यंग्य संग्रह आपको कई विषयों पर सोचने के लिए मजबूर कर देता है। यह व्यंग्य संग्रह सिर्फ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। आशा है यह व्यंग्य संग्रह पाठकों को काफी पसंद आएगा और साहित्य जगत में इस संग्रह का स्वागत होगा।

समीक्षा – श्री दीपक गिरकर

संपर्क – 28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोडइंदौर– 452016 

मोबाइल : 9425067036

मेल आईडी : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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