रंगमंच – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – नाटक – ☆ स्वतन्त्रता दिवस ☆ – डॉ .कुँवर प्रेमिल

स्वतन्त्रता दिवस विशेष 
डॉ कुंवर प्रेमिल

 

(आज प्रस्तुत है डॉ कुंवर प्रेमिल जी  द्वारा स्वतन्त्रता दिवस  के अवसर पर  रचित  सामाजिक चेतना का संदेश देता हुआ एक नाटक  “स्वतन्त्रता दिवस “। ) 

 

☆ नाटक – स्वतन्त्रता दिवस

 

एक मंच पर कुछेक पुरुष-महिलाएं एकत्रित हैं। वे सब विचारमग्न प्रतीत होते हैं। मंच के बाहर पंडाल में भी कुछेक पुरुष-महिलाएं-बच्चे बड़ी उत्सुकता से मंच की ओर देख रहे हैं।

तभी एक विदूषक जैसा पात्र हाथ में माइक लेकर मंच पर पहुंचता है।

विदूषक – भाइयों-बहिनों आज स्वतन्त्रता दिवस है। आज के दिन हमारा देश स्वतंत्र हुआ था। तभी न हम सिर उठाकर जीते हैं। अपना अन्न-पानी खाते-पीते हैं।

‘हम स्वतंत्र हैं’ – कहकर-सुनकर कितना अच्छा लगता है। बोलिए, लगता है कि नहीं। ‘

पंडाल से –  आवाजें आती हैं अच्छा लगता है जी बहुत अच्छा लगता है, बोलो स्वतन्त्रता की  जय, स्वतन्त्रता दिवस की जय।

(सभी स्त्री-पुरुष स्वतन्त्रता की जय बोलते हैं।)

मंच से – तभी एक महिला ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगती है- ‘अरे काहे की स्वतन्त्रता, और कैसा स्वतन्त्रता दिवस। हम महिलाएं कुढ़-कुढ़कर जिंदगी व्यतीत करती हैं। शक का साया उन पर पूरी जिंदगी छाया रहता है।  उन्हें अविश्वास में जीना पड़ता है। न पति न सास-ससुर कोई उनकी नहीं सुनता है। जिनकी अभिव्यक्ति समाज-परिवार के साथ गिरवी रखी हो, उनकी कैसी स्वतन्त्रता। कपड़े-लत्ते, गहने सब दूसरों की पसंद के, उनका अपना कुछ नहीं है। बच्चे भी वे दूसरों की अनुमति के बिना पैदा नहीं कर सकतीं।  इक्कीसवीं सदी में भी उनकी हालत हंसी-मज़ाक से कम नहीं है।

पंडाल से – तभी पंडाल से एक आदमी बिफरकर बोला – स्त्रियों का हम पुरुषों पर मिथ्या आरोप है। हम पूरी कोशिश करते हैं उन्हें प्रसन्न रखने की फिर भी वे पतंग सी खिंची रहती हैं। हम उत्तर-दक्षिण कहेंगे तो वे पूरब-पश्चिम कहेंगी। माँ-बाप उलटे हमें ‘औरत के गुलाम’ कहकर पुकारते हैं। मज़ाक उड़ाते हैं।  छींटाकशी करते हैं। हमें तो इधर कुआं उधर खाई है। साथ में जग हँसाई है।

मंच से – एक बूढ़ा एक बूढ़ी लगभग रोते हुए बोले – ‘हमें न तो बहू पसंद करती है न हमारा सपूत ही। हमारी जमीन-जायदाद पर अपना हक बताते हैं पर सेवा से जी चुराते हैं।

बहुएँ वक्र चाल चलती हैं। पुत्र बहुओं के मोह जाल में फँसकर उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। अवसान होती जिंदगी का आखिर रखवाला कौन है? मँझधार में हमारी जीवन-नैया है। बेहोशी में नाव खिवैया है। उनके पास हमारे लिए समय नहीं है। ये हमें तिल-तिल जलाते हैं। हमें वृद्धाश्रमों में छोड़ आते हैं।

पंडाल से – तभी कुछ लड़के-लड़कियां पंडाल में उठकर खड़े होकर शुरू हो जाते हैं। हमारे दादा-दादी की मुसीबतें हमसे देखी नहीं जाती हैं। पूछा जाए तो उन्हीने हमें पाला है। माताएँ हमें दादी के पास सुलाकर खुद निर्विघ्न सोती हैं। बेचारी दादी रात भर हमारे गीले कपड़े बदलती हैं। खुद गीले में सॉकर हमें सूखे में सुलाती हैं।

दादाजी लोग बिस्कुट – टॉफी – खिलौने, बाल मेगज़ीन ला लाकर देते हैं।  बिजली जाने पर दादियाँ रात भर अखबार से मच्छर उड़ाकर हमें चैन की नींद सुलाती हैं।  आखिर क्यों है ऐसा?  क्या कोई हमें बताएगा?

(मंच एवं पंडाल दोनों में अफरा-तफरी मच जाती है।  छोटा सा नाटक जी का जंजाल बन जाता है। किसी को क्या पता था कि इतनी बड़ी उलझन आकार खड़ी हो जाएगी।)

विदूषक बोला – हम सब आखिर अंधे कुएं के मेंढक ही साबित हुए। ऐसे में तो परिवार उजाड़ जाएंगे हम सब एक दूसरे पर आरोप ही लगाते रह जाएँगे। परिवार/समाज में मोहब्बत के बीज कौन डालेगा?  समाज में जो घाट रहा है – अक्षम्य है।  ऐसे में मेलजोल की भरपाई कब होगी। कब पूरा परिवार होली-दशहरा-रक्षाबंधन-स्वतन्त्रता दिवस हंसी-खुशी मनाएगा।

कब बच्चे मौज में नाचेंगे। बूढ़ा-बूढ़ी कब आँगन में रांगोली डालेंगे। कब दादा सेंतकलाज बनाकर बच्चों को उपहार बांटेंगे। कब दादा-दादी के दुखते हाथ-पैर दबाये जाएंगे। बच्चों को कब रटंत विद्या, घोंतांत पानी से निजात मिलेगी। कब प्यार-स्नेह-आत्मीयता से छब्बीस जनवरी मनेगी।

माइक बजाकर राष्ट्रगीत बजाकर मोतीचूर के लड्डू बांटने से कुछ नहीं मानेगा।  केवल स्वतन्त्रता रटने भर से स्वतन्त्रता का एहसास नहीं होगा।  जब तक आपस में प्यार-मोहब्बत,  आदर-सेवभाव, विनम्रता विकसित नहीं होगी, असली स्वतन्त्रता के दर्शन नहीं होंगे। कभी नहीं होंगे। बोलिए – स्वतन्त्रता दिवस की जय, भाई-चारे की जय, माता-पिता की जय-गुरुओं कि जय।

भाइयों, आजकल न तो पहले जैसे गुरु हैं और न पहले जैसे विद्यार्थी। स्वतन्त्रता दिवस की जय बोलने से पहले यह सब करना होगा। वरना वही ढाक के तीन पात हाथ में लगेंगे। जयहिन्द!

(इतना कहकर विदूषक नाचने लगता है। उसे नाचते देख, मंच और पंडाल में सभी नाचने लगते हैं।)

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल 
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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रंगमंच – नाटक – ☆विश्व इतिहास की पहली महिला योद्धा  ..वीरांगना रानी दुर्गावती ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

रानी दुर्गावती बलिदान पर विशेष
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी द्वारा रानी दुर्गावती बलिदान दिवस पर विशेष रूप  से लिखित नाटक। यह नाटक  बच्चों से लेकर वरिष्ठ नागरिकों तक के लिए शिक्षाप्रद गीत, कविता एवं साक्षात्कार  का मिला जुला स्वरूप है जो अपने आप में एक प्रयोग से कम नहीं है। साथ ही यह नाटक हमें इतिहास के कई अनछुए पहलुओं से रूबरू करता है। )

 

☆ नाटक – विश्व इतिहास की पहली महिला योद्धा  ..वीरांगना रानी दुर्गावती☆

 

पात्र-

0 गायन मंडली

1 पुरूष स्वर (1)    –    पापा

2 बालिका  – चीना

3 बालक    –  चीकू

4 खंडहर की आवाजे – (अनुगूंज में महिला स्वर)

5 पुरूष स्वर (2)

6 साक्षात्कार कर्ता

 

जिनसे साक्षात्कार लेना है –

०     रानी दुर्गावती  विश्वविद्यालय के कुलपति

१.    कलेक्टर जबलपुर

२.   संग्रहालय अध्यक्ष- जबलपुर रानी दुर्गावती संग्रहालय

३.    संग्रहालय अध्यक्ष-  मंडला

४.   संग्रहालय अध्यक्ष ..दमोह

५.   मदन महल , वीरांगना दुर्गावती की समाधि के आम पर्यटक एवं उस परिसर के दुकानदार आदि

 

चीना- चीकू । मैने तुमसे कोई कहानियो की किताब लाने को कहा था तुम ये कौन सी पुस्तक उठा लाये हो पुस्तकालय से।

चीकू- दीदी यह पुस्तक है ‘रानी दुर्गावती’ वही दुर्गावती, जिसके विषय मे हमारी पाठ्य पुस्तक में छोटा सा पाठ पिछले साल हमने पढा था।

चीना- अरे वाह। तब तो इससे हमे वीरांगना दुर्गावती के विषय में पूरी जानकारी मिल जायेगी।

पापा- हां बच्चो। तुम लोग इस पुस्तक को पूरी तरह पढ डालो, यह छुटिटयो का अच्छा उपयोग होगा। फिर मै तुम्हें वह जगह घुमाने ले जाउंगा जहां दुर्गावती ने वीरगति पाई थी और मदन महल एवं अन्य वे स्थान भी दिखलाउूंगा जिनका संबंधी रानी से रहा है।

चीकू- पापा। हम लोग पुरातत्व  संग्रहालय भी चलेगे, वहां भी तो रानी से जुडे अवशेष देखने मिल सकेंगे .

पापा- हां, जरूर। तुम्हे पता है…..

पुरूष स्वर (2)- विश्व इतिहास में रानी दुर्गावती पहली महिला है जिसने समुचित युद्ध नीति बनाकर अपने विरूद्ध हो रहे अन्याय के विरोध मे मुगल साम्राज्य के विरूद्ध शस्त्र उठाकर सेना का नेतृत्व किया और युद्ध क्षेत्र मे ही आत्म बलिदान दिया।

साक्षात्कार कर्ता-   और इस विषय मे हमे बता रहे हैं …..

पापा-  बच्चो। प्रसिद्ध गीतकार प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव की एक रचना है ‘‘गोंडवाने की रानी दुर्गावती” — जिसमें उन्होनें दुर्गावती का वैसा ही समग्र चित्रण किया है जैसा प्रसिद्ध कवियत्री सुभद्रा कुमारी चैहान ने ‘‘खूब लडी मर्दानी” कविता मे रानी झांसी का वर्णन किया था। तुम यह गीत सुनना चाहेागे।

चीकू-चीना- जरूर। जरूर। सुनाइये न पापा

पापा- तो सुनो

गायक मंडली-

गूंज रहा यश कालजयी उस वीरव्रती क्षत्राणी का

दुर्गावती गौडवाने की स्वाभिमानिनी रानी का।

उपजाये हैं वीर अनेको विध्ंयाचल की माटी ने

दिये कई है रत्न देश को मां रेवा की घाटी ने

उनमें से ही एक अनोखी गढ मंडला की रानी थी

गुणी साहसी शासक योद्धा धर्मनिष्ठ कल्याणी थी

 

युद्ध भूमि में मर्दानी थी पर ममतामयी माता थी

प्रजा वत्सला गौड राज्य की सक्षम भाग्य विधाता थी

दूर दूर तक मुगल राज्य भारत मे बढता जाता था

हरेक दिशा मे चमकदार सूरज सा चढता जाता था

साम्राज्य विस्तार मार्ग में जो भी राह मे अड़ता था

बादशाह अकबर की आंखो में वह बहुत खटकता था

 

एक बार रानी को उसने स्वर्ण करेला भिजवाया

राज सभा को पर उसका कडवा निहितार्थ नहीं भाया

बदले में रानी ने सोने का एक पिंजन बनवाया

और कूट संकेत रूप मे उसे आगरा पहुंचाया

दोनों ने समझी दोनों की अटपट सांकेतिक भाषा

बढा क्रोध अकबर का रानी से न रही वांछित आशा

 

एक तो था मेवाड प्रतापी अरावली सा अडिग महान

और दूसरा उठा गोंडवाना बन विंध्या की पहचान

 

पापा- बच्चो। इससे पहले कि हम यह गीत पूरा करें, आओ बात करते है आज विंध्य अंचल की पहचान,को लेकर जिलाधीश जबलपुर  से,

साक्षात्कारकर्ता-

चीकू- चीना-पापा हमे उस गीत मे बहुत मजा आ रहा था उसे पूरा सुनवाईये ना।

पापा- अच्छा चलो जैसा तुम लोग चाहो।

गायन मण्डली-

घने वनों पर्वत नदियों से गौड राज्य था हरा भरा

लोग सुखी थे धन वैभव था थी समुचित सम्पन्न धरा

 

आती हैं जीवन मे विपदायें प्रायः बिना कहे

राजा दलपत शाह अचानक बीमारी से नहीं रहे

 

पुत्र वीर नारायण बच्चा था जिसका था तब तिलक हुआ

विधवा रानी पर खुद इससे रक्षा का आ पडा जुआ

 

रानी की शासन क्षमताओ, सूझ बूझ से जलकर के

अकबर ने आसफ खां को तब सेना दे भेजा लडने

 

बडी मुगल सेना को भी रानी ने बढकर ललकारा

आसफ खां सा सेनानी भी तीन बार उससे हारा

 

तीन बार का हारा आसफ रानी से लेने बदला

नई फौज ले बढते बढते जबलपुर तक आ धमका

 

तब रानी ले अपनी सेना हो हाथी पर स्वतः सवार

युद्ध क्षेत्र में रण चंडी सी उतरी ले कर मे तलवार

 

युद्ध हुआ चमकी तलवारे सेनाओ ने किये प्रहार

लगे भागने मुगल सिपाही खा गौडी सेना की मार

 

तभी अचानक पासा पलटा छोटी सी घटना के साथ

काली घटा गौडवानें पर छाई की जो हुई बरसात

 

भूमि बडी उबड खाबड थी और महिना था आषाढ

बादल छाये अति वर्षा हुई नर्रई नाले मे थी बाढ

 

छोटी सी सेना रानी की वर्षा के थे प्रबल प्रहार

तेज धार मे हाथी आगे बढ न सका नाले के पार

 

तभी फंसी रानी को आकर लगा आंख मे तीखा बाण

सारी सेना हतप्रभ हो गई विजय आश सब हो गई म्लान

 

पापा- बच्चो। तुम्हें पता है , उस समय तक गौंड़ सेना पैदल व उसके सेनापति हाथियो पर होते थे , जबकि मुगल सेना घोड़ो पर सवार सैनिको की सेना थी .अच्छा चीकू तुम सोचकर  बतलाओ कि इस घोड़े और हाथी के अंतर से दोनो सेनाओ की लड़ाई के तरीको में क्या फर्क होता रहा होगा ?

चीकू – .. पापा सीधी सी बात है , हाथी धीमी गति से चलते रहे होंगे और  घोड़े तेजी से भागते ही होंगे इसलिये जो मुगल सैनिक घोड़ो पर रहते होंगे  वे तेज गति से पीछा भी कर सकते रहे होंगे और जब खुद की जान बचाने की  जरूरत होती होगी तो वो तेजी से भाग भी जाते होंगे . पर पैदल गौंडी सेना धीमी गति से चलती होगी और वो जल्दी भाग भी नही सकते रहे होंगे . मैं सही कह रहा हूं न पापा !.

पापा -… बिलकुल सही बेटा . विशाल, सुसंगठित, साधन सम्पन्न मुगल सेना जो घोड़ो पर थी उनसे जीतना संख्या में कम, गजारोही गौंड सेना के लिये लगभग असंभव था,  फिर भी जिस तरह रानी ने दुश्मन से वीरता पूर्वक लोहा लिया, वह नारी सशक्तीकरण का अप्रतिम उदाहरण है। आओ बात करते है जबलपुर के रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के कुलपति जी से  जो इन ऐतिहासिक मूल्यो को नई पीढ़ी में पुर्नस्थापित करने हेतु महत्वपूर्ण कार्य कर रहे है-

साक्षात्काकर्ता-

पापा – बच्चो। आओ अब उस गीत को पूरा कर लें।

गयक मडंली-

सेना का नेतृत्व संभालें संकट मे भी अपने हाथ

ल्रडने को आई थी रानी लेकर सहज आत्म विश्वास

 

फिर भी निधडक रहीं बंधाती सभी सैनिको को वह आस

बाण निकाला स्वतः हाथ से यद्यपि हार का था आभास

 

क्षण मे सारे दृश्य बदल गये बढे जोश और हाहाकार

दुश्मन के दस्ते बढ आये हुई सेना मे चीख पुकार

 

घिर गई रानी जब अंजानी रहा ना स्थिति पर अधिकार

तब सम्मान सुरक्षित रखने किया कटार हृदय के पार

 

स्वाभिमान सम्मान ज्ञान है मां रेवा के पानी मे

जिसकी आभा साफ झलकती गढ़ मंडला की रानी में

 

महोबे की बिटिया थी रानी गढ मंडला मे ब्याही थी

सारे गौंडवाने मे जन जन से जो गई सराही थी

 

असमय विधवा हुई थी रानी मां बन भरी जवानी में

दुख की कई गाथाये भरी है उसकी एक कहानी में

 

जीकर दुख मे अपना जीवन था जनहित जिसका अभियान

24 जून 1564 को इस जग से था किया प्रयाण

 

है समाधी अब भी रानी की नर्रई नाला के उस पार

गौर नदी के पार जहां हुई गौडो की मुगलों से हार

 

कभी जीत भी यश नहीं देती कभी जीत बन जाती हार

बडी जटिल है जीवन की गति समय जिसे दे जो उपहार

 

कभी दगा देती यह दुनियां कभी दगा देता आकाश

अगर न बरसा होता पानी तो कुछ और हुआ होता इतिहास

 

चीना-चीकू- मजा आ गया। इस गीत मे तेा जैसे सारी कहानी ही पिरो दी गई है।

पापा- हां बेटा।  दरअसल कोई तारीख अच्छी या बुरी नहीं होती, ये हम होते है, जो अपने कामो से उस तारीख को स्वर्णाक्षरो मे लिख डालते है, या उस पर कालिख पोत देते है, फिर उन्ही घटनाओ को इतिहास मे रचनाकार समेट कर पुस्तक तैयार कर देते है पीढियो के संदर्भेा के लिये।

पुरूष स्वर- (वाचक स्वर) रानी दुर्गावती पर अनेक पुस्तके लिखी गई है, कुछ प्रमुख इस तरह है-

  1.   राम भरोस अग्रवाल की गढा मंडला के गोंड राजा
  2.   नगर निगम जबलपुर का प्रकाशन रानी दुर्गावती
  3.   डा. सुरेश मिश्रा की कृति रानी दुर्गावती
  4.   डा. सुरेश मिश्र की ही पुस्तक गढा के गौड राज्य का उत्थान और पतन
  5.   बदरी नाथ भट्ट का नाटक दुर्गावती
  6.   बाबूलाल चौकसे का नाटक महारानी दुर्गावती
  7.   वृन्दावन लाल शर्मा का उपन्यास रानी दुर्गावती
  8.   गणेश दत्त पाठक की किताब गढा मंडला का पुरातन इतिहास

इनके अतिरिक्त अंग्रेजी मे सी.यू.विल्स, जी.वी. भावे, डब्लू स्लीमैन आदि अनेक लेखको ने रानी दुर्गावती की महिमा अपनी कलम से वर्णित की है।

महिला अनुगूंज स्वर- इस वीरांगना की स्मृति को अक्षुण्य बनाये रखने हेतु भारत सरकार ने 1988 मे एक साठ पैसे का डाक टिकट भी जारी किया है।

पापा- आओ बच्चो तुम्हे ले चले रानी की पत्थरो पर लिखी ऐतिहासिक इबारत को पढने- ये है मदन महल का किला और यह एक पत्थर आधार शिला बैलेसिंग राक, प्रकृति का अद्भुत करिष्मा, कितना आकर्षक दिखता है इस उॅचाई से, इन पहाडियो पर आओ बात करें इस एतिहासिक स्मारक पर आये इन हमारे जैसे अन्य पर्यटको से।

साक्षात्कार कर्ता-………………………

पर्यटक………………………..

चीना-पापा, जबलपुर मे रानी दुर्गावती के और कौन कौन से स्मारक है?

पापा- बेटे। रानी ने अपने शासनकाल मे जबलपुर मे अनेक जलाशयो का निर्माण करवाया, अपने प्रिय दीवान आधार सिंग, कायस्थ के नाम पर अधारताल, अपनी प्रिय सखी के नाम पर चेरीताल और अपने हाथी सरमन के नाम पर हाथीताल बनवाये थे। ये तालाब आज भी विद्यमान है। प्रगति की अंधी दौड मे यह जरूर हुआ है कि अनेक तालाब पूरकर वहा भव्य अट्टालिकाये बनाई जा रही है।

चीकू- पापा रानी दुर्गावती के समय की और भी कुछ चीजे, सिक्के आदि दिखलाइये ना।

पापा- बेटा, इस विषय मे तुम्हे रानी के नाम पर ही स्थापित रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर की अध्यक्षा बतायेंगी।

साक्षात्कार- संग्रहालय अध्यक्ष से ।

चीना- पापा, दुर्गावती ने और कौन कौन सी लडाइयां लडी थी ?

पापा- बेटा। रानी दुर्गावती ने सर्वप्रथम मालवा के राज बाज बहादुर से लडाई लडी थी, जिसमें बाज बहादुर का काका फतेहसिंग मारा गया था। फिर कटंगी की घाटी मे दूसरी बार बाज बहादुर की सारी फौज का ही सफाया कर दिया गया। बाद मे रानी रूपमती को सरंक्षण देने के कारण अकबर से युद्ध हुआ, जिसमें दो बार दुर्गावती विजयी हुई पर आसफ खां के नेतृत्व मे तीसरी बार मुगल सेना को जीत मिली और रानी ने आत्म रक्षा तथा नारीत्व की रक्षा मे स्वयं अपनी जान ले ली थी .

पुरूष 2 (वाचक स्वर)- नारी सम्मान को दुर्गावती के राज्य मे सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती थी। नारी अपमान पर तात्कालिक दण्ड का प्रावधान था। न्याय व्यवस्था मौखिक एवं तुरंत फैसला दिये जाने वाली थी . । रानी दुर्गावती एक जन नायिका के रूप मे आज भी गांव चौपाले में लोकगीतो के माध्यम से याद की जाती हैं .

गायक मडंली-

तरी नाना मोर नाना रे नाना

रानी महारानी जो आय

माता दुर्गा जी आय

रन मां जूझे धरे तरवार, रानी दुर्गा कहाय

राजा दलतप के रानी हो, रन चंडी कहाय

उगर डकर मां डोले हो, गढ मडंला बचाय

हाथन मां सोहे तरवार, भाला चमकत जाय

सरपट सरपट घोडे भागे, दुर्गे भई असवार

तरी नाना………..

वाचक स्वर- ये लोकगीत मंडला, नरसिंहपुर, जबलपुर, दमोह, छिंदवाडा, बिलासपुर, आदि अंचलो मे लोक शैली मे गाये जाते है इन्हें सैला गीत कहते है।

वाचक स्त्री कण्ठ- रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालींजर मे हुआ था . उनके पिता कीरत सिंह चन्देल वंशीय क्षत्रिय शासक थे। इनकी मां का नाम कमलावती था। सन् 1540 में गढ मंडला के राजकुमार दलपतिशाह ने गंधर्व विवाह कर दुर्गावती  का वरण किया था। 1548 मे महाराज दलपतिशाह के निधन से रानी ने दुखद वैधव्य झेला। तब उनका पुत्र वीरनारायण केवल 3 वर्ष का था। उसे राजगद्दी पर बैठाकर  रानी ने उसकी ओर से कई  वर्षो तक कुशल राज्य संचालन किया।

वाचक पुरूष स्वर (2)- आइने अकबरी मे अबुल फजल ने लिखा है कि रानी दुर्गावती के शासन काल मे प्रजा इतनी संपन्न थी कि लगान का भुगतान प्रजा स्वर्ण मुद्राओ और हाथियो के रूप मे करती थी।

चीकू- पापा। मुझे तो लगता है, शायद यही संपन्नता, मुगल राजाओ को गौड राज्य पर आक्रमण का कारण बनी।

चीना- अरे खूब चीकू, तुम तो बडे चतुर बन गये।

पापा- हां बच्चे, तुम बिल्कुल सही हो लेकिन, महत्वपूर्ण बात यह है कि अकबर ने विधवा रानी पर हमला कर, सब कुछ पाकर भी कलंक ही पाया, जबकि रानी ने अपनी वीरता से सब कुछ खोकर भी इतिहास मे अमर कीर्ति अर्जित की।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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रंगमंच स्मृतियाँ – “कोर्ट मार्शल” – श्री समर सेनगुप्ता एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव

रंगमंच स्मृतियाँ – “कोर्ट मार्शल” – श्री समर सेनगुप्ता एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव 

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।

इस प्रयास में  सहयोग के लिए  श्री समर सेनगुप्ता जी  एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव जी का आभार।  साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ   – हेमन्त बावनकर)   

“कोर्ट मार्शल”

संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के व्यक्तिगत अनुदान योजना के अंतर्गत ( CFPGS) इस नाटक की प्रस्तुति विगत 18 मार्च 2019 तो शाम 7.30 बजे  मानस भवन, जबलपुर में श्री स्वदेश दीपक द्वारा लिखित  एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव के निर्देशन में की गई।

कलाकार/बैनर – समन्यास वैलफेयर सोसायटी, भोपाल

*निर्देशकीय*

मेरे लिए नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ की कहानी जाति व्यवस्था और उसके परिणाम दिखाने वाली नहीं है बल्कि उसके भी आगे जाकर मनुष्य के सबसे बड़े विकार ‘अहंकार’ को सामने लाने और उसे समझने की कोशिश है । किसी भी कारण से किसी को भी अपने से कमतर समझना और इस वजह से उसे प्रताड़ित करना किसी नये अपराध और अपराधी का जन्मदाता हो सकता है ।

सत्य की रक्षा के लिए न्याय प्रणालियां हमेशा से ही चिंतित रहीं हैं, शायद स्वदेश दीपक जी ने कोर्ट मार्शल की रचना इसी चिन्ता की बुनियाद पर की है और इसके लिए उन्होंने बड़ी कुशलता से सेना की पृष्ठभूमि को चुना क्योंकि सेना चाहे किसी भी देश की हो अपने कौशल, सजगता, निपुणता और देशप्रेम के लिए पहचानी जाती है । जहां अनुशासन सर्वोच्य ताक़त है वहीं भावुकता सर्वाधिक बड़ी कमज़ोरी ।

मगर फिर क्या होता है जब कमज़ोरी को भड़काया जाता है और इसके लिए भावुकता को हथियार बनाया जाता है ।

हां ये ज़रूर है कि ‘गाली का जवाब गोली से नहीं दिया जा सकता’ लेकिन गाली की तह तक पहुँचें तो सभ्यता-संस्कृति का ऐसा घिनौना रूप दिखता है कि तमाम आदर्श ही गाली लगने लगते हैं ।

अतएव मैं अपने आसपास की तमाम सामाजिक और मानसिक गन्दगी के अच्छे या बुरे (जो भी हों) पक्ष के बारे में सोचना, समझना, जानना और उसे सामने लाना ज़रूरी समझता हूँ जिसकी सिद्धि के लिए प्रस्तुत नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ मेरी बखूबी मदद करता है ।

हर चीज़ के पीछे कोई ना कोई कारण होता है । अपराध के भी कारण होते हैं ।

अपराध वो नहीं जो हुआ है और अपराधी भी वो नहीं जिसने किया है बल्कि अपराध और अपराधी वो है जिसने समय रहते कुछ बातों पर ध्यान नहीं दिया । उसे छोटा मानकर उसके खिलाफ शिकायत नहीं की, आवाज़ नहीं उठाया । यही अनदेखा, अनसुना कर दिया गया कृत्य ही कालांतर में एक भयंकर अपराध और अपराधी का रूप धारण कर लेता है ।

तथाकथित छोटे आदमी की शिकायत को वहीं दबा देना और स्वयंभू बड़े आदमी की ग़लती देखकर अपनी आंख बंद कर लेना ही अपराध है ।

कौन होता है अपराधी ? इंसान ? या उसकी सोच, उसके विचार, उसकी आत्मा । कौन ? और कौन है हंटर ऑफ दी सोल ? शत्रु कौन है, जो सामने खड़ा है वो, या वो, जो अंतस में छिपकर बैठा है ?

इन्हीं सवालों को समझने और उसके जवाब ढूंढने का नाम है नाटक ‘कोर्ट-मार्शल’

कथा सार-

नाटक की मुख्य कहानी फ्लैशबैक में है । नाटक का एक पात्र ब्रिगेडियर सूरत सिंह अतीत में हुई एक ऐसी घटना का ज़िक्र करता है जिसने उसके अब तक के जीवन के सोच की धारा ही बदल दी थी । युद्ध और कोर्ट मार्शल में मरने और मारने की बात करने वाले सूरत सिंह को अंततः कहना पड़ता है कि “पहली बार मुझे इस दिल दहला देने वाले सत्य का पता चला कि जब हम किसी जान लेते हैं तो हमारे प्राणों का एक हिस्सा भी मर जाता है, मरने वाले के साथ । सच क्या केवल उतना ही होता है जितना समझ आये ? दिखाई दे ?”

कोर्ट-मार्शल है रामचंदर का । किसी भी सैनिक की भांति रामचंदर भी अपने देश की आन-बान-शान के लिए मर मिटने को तैयार है । चुस्त, ईमानदार और अपनी ड्यूटी का पक्का रामचंदर एक आइडियल सोल्जर है । लेकिन एक दिन यह आदर्श सैनिक अपने ही रेजिमेंट के दो अफसरों को गोली मार देता है जिसमें एक की मौत हो जाती है और दूसरा गंभीर रूप से घायल हो जाता है । रामचंदर अपना गुनाह कबूल करता है लेकिन ये बताना नहीं चाहता कि उसने गोली क्यों चलाई । क्यों की हत्या ?

रामचंदर का जनरल कोर्ट मार्शल किया जाता है जिसमें उसे फांसी की सज़ा सुनाई जाती है लेकिन सज़ा सुनाने वाले प्रिसाइडिंग ऑफिसर कर्नल सूरत सिंह के लिए उन्ही का निर्णय उनके गले की फांस बन जाता है ।

स्वदेश दीपक (1942)

एक भारतीय नाटककार, उपन्यासकार और लघु कहानी लेखक हैं । उन्होंने 15 से अधिक प्रकाशित पुस्तकें लिखी हैं । स्वदेश दीपक हिन्दी साहित्यिक परिदृश्य पर 1960 के दशक के मध्य से सक्रिय हैं । उन्होंने हिन्दी और अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की थी । छब्बीस साल उन्होंने अम्बाला के गांधी मेमोरियल कॉलेज में अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाया । 2004 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया । 2 जून, 2006 को वो सुबह की सैर के लिए गये   लेकिन आज तक वापस नहीं आये ।

कृतियाँ –

  • कहानी संग्रह- अश्वारोही (1973), मातम (1978), तमाशा (1979), प्रतिनिधि कहानियां (1985), बाल भगवान (1986), किसी अप्रिय घटना का समाचार नहीं (1990), मसखरे कभी नहीं रोते (1997), निर्वासित  कहानियां (2003)
  • उपन्यास-  नम्बर 57 स्क्वाड्रन (1973), मायापोत (1985)
  • नाटक- बाल भगवान (1989), कोर्ट मार्शल (1991), जलता हुआ रथ (1998), सबसे उदास कविता (1998), काल कोठरी (1999)
  • संस्मरण- मैंने मांडू नहीं देखा (2003)

प्रस्तुति : श्री समर सेनगुप्ता, जबलपुर एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव, भोपाल   

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रंगमंच स्मृतियाँ – “कफन” – श्री समर सेनगुप्ता

रंगमंच स्मृतियाँ – “कफन” – श्री समर सेनगुप्ता

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।

इस प्रयास में  सहयोग के लिए e-abhivyakti श्री समर सेनगुप्ता जी का आभार व्यक्त करता है। साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा करता है  – हेमन्त बावनकर)   

कफन 

यह नाटक मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी “कफन” पर आधारित है।

भारतीय समाज का गठन बहुत ही  निर्मम ढंग से हुआ है. मेहनत-मशक्कत से आजीविका चलानेवालों को निम्न वर्ग में रखा गया है और दूसरों की मेहनत पर पलनेवालों को उच्च वर्ग में रखा गया है।  इस परजीवी वर्ग के ही लोग कालान्तर में समाज नियन्त्रणकर्ता से शोषक में तब्दील हो गये.

प्रस्तुत नाटक में “घीसू”  बेगारी खटने से इंकार कर देता है, फलस्वरूप उसे कामचोर कहा जाता है. घीसू का बेटा “माधो” भी अपने बाप की तरह निकम्मा घोषित हो चुका है.

बाप-बेटे दोनों उठाईगिरी, चोरी, कर्जा और भीख मांग कर अपना पेट पालते हैं. माधो की घरवाली उम्मीद से है दर्द से छटपटाते हुये मर जाती है. इधर बेगैरत बाप-बेटा दाह संस्कार के लिये भीख मांगते हैं और भीख के पैसों से गुलछर्रे उड़ातें हैं.

नाटक में थोड़ा बदलाव किया गया है. बेरोज़गारी और बदहाली से तंगहाल “घीसू” समाज के खिलाफ बगावत करता है।  वह भले ही शराब के नशे में कहता है “दया-भीक्षा में दुई दिन चलत है, ज़रूरत सबसे बड़ी चीज़, भूख राक्षस है माधो! गलती से कौन की भीख की ठठरी के पीछे दौड़ रहा है. लतियाय दे माधो! लतियाय दे”.             

घीसू के चरित्र में श्री अशोक सिॆह ठाकुर का अभिनय अत्यंत सराहनीय रहा है. दर्शकों ने सभी रंगकर्मियों के अभिनय को सराहा. माधो के चरित्र में श्री शुभम पांडे, सरजू के चरित्र में  श्री राज, घन्सू के चरित्र में श्री सौरभ, अलगू के चरित्र में श्री ऋत्तिक गौतम, बड़े बाबू के चरित्र में श्री उत्कर्ष यादव एवं गंगाराम के चरित्र में श्री सोम श्रीवास्तव का अभिनय सराहा गया।

प्रकाश एवं नृत्य निर्देशन श्री आशुतोष पांडे, संगीत श्री विक्की तिवारी, मंच सज्जा श्री अनमोल विश्वकर्मा, मंच संचालन श्री शरफ़ वाहाव एवं नाट्य निर्देशन श्री समर सेनगुप्ता द्वारा किया गया.

नाट्य मंचन – मानस भवन, जबलपुर ,म.प्र.

दिनांक – १३/०१/२०१९ समय-सांय ७.३५

© श्री समर सेनगुप्ता

आप इस लिंक पर “विमर्श सांस्कृतिक सामाजिक सेवा समिति” की प्रस्तुति “कफन” के मुख्य अंश देख सकते हैं >>>>>>  “कफन” 

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रंगमंच नाटिका – “राह” – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

नाटिका राह

(स्मरण महीयसी महादेवी वर्मा जी: १) 

संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघु नाटिका  

१. राह

एक कमरे का दृश्य: एक तख़्त, दो कुर्सियाँ एक मेज। मेज पर कागज, कलम, कुछ पुस्तकें, कोने में कृष्ण जी की मूर्ति या चित्र, सफ़ेद वस्त्रों में आँखों पर चश्मा लगाए एक युवती और कमीज, पैंट, टाई, मोज़े पहने एक युवक बातचीत कर रहे हैं। युवक कुर्सी पर बैठा है, युवती तख़्त पर बैठी है।

नांदीपाठ: उद्घोषक: दर्शकों! प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक लघु नाटिका ‘विश्वास’। यह नाटिका जुड़ी है एक ऐसी गरिमामयी महिला से जिसने पराधीनता के काल में, परिवार में स्त्री-शिक्षा का प्रचलन न होने के बाद भी न केवल उच्च शिक्षा ग्रहण की, अपितु देश के स्वतंत्रता सत्याग्रह में योगदान किया, स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया, हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की, अपने समय के सर्व श्रेष्ठ पुरस्कारों के लिए चुनी गयी, भारत सरकार ने उस पर डाक टिकिट निकाले, उस पर अनेक शोध कार्य हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। नाटिका का नायक एक अल्प  ज्ञात युवक है जिसने विदेश में चिकित्सा शिक्षा पाने के बाद भी भारतीयता के संस्कारों को नहीं छोड़ा और अपने मूक समर्पण से प्रेम और त्याग का एक नया उदाहरण स्थापित किया।

युवक: ‘चलो।’

युवती: “कहाँ।”

युवक: ‘गृहस्थी बसाने।’

युवती: “गृहस्थी आप बसाइए, मैं नहीं चल सकती?”

युवक: ‘तुम्हारे बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? तुम्हारे साथ ही तो बसाना है। मैं विदेश में कई वर्षों तक रहकर पढ़ता रहा हूँ लेकिन मैंने कभी किसी की ओर  आँख उठाकर भी नहीं देखा।’

युवती: “यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कुछ तो मैंने  आपके बारे में सोचा भी नहीं।”

युवक: ‘फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ तुम साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हो। विश्वास करो तुम्हारे किसी काम में कोई बाधा न आएगी। मैं खुद तुम्हारे कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।’

युवती: “मुझे आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हूँ खुद से भी अधिक, लेकिन मैं गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकती।”

युवक: ‘समझा, तुम निश्चिन्त रहो। घर के बड़े-बूढ़े कोई भी तुम्हें घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, तुम्हें पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात कर, सहमति लेकर ही आया हूँ।’

युवती: “अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले मुझसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि मैं तो गृहस्थी बसा नहीं सकती।”

युवक: ‘ओफ्फोह! मैं भी पढ़ा-लिखा बेवकूफ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता न करो। तुम जैसा चाहोगी इलाज करा लेंगे, जब तक तुम स्वस्थ न हो जाओ और तुम्हारा मन न हो मैं तुम्हें कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।’

युवती: “इसका भी मुझे भरोसा है। इस कलियुग में ऐसा भी आदमी होता है, कौन मानेगा?”

युवक: ‘कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, तुम्हारे अलावा।’

युवती: “लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।”

युवक: ‘अब तुम्हीं बताओ, ऐसा क्या करूँ जो तुम मान जाओ और गृहस्थी बसा सको। तुम जो भी कहोगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।’

युवती: “ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं करने के लिए कहूँ।”

युवक: ‘हो सकता है तुम्हें विवाह का स्मरण न हो, तब हम नन्हें बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?’

युवती: “यह भी नहीं हो सकता, जब आप विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे तभी मैंने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?”

युवक: ‘लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को  संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।’

युवती: “चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मैं जानती हूँ कि आप मेरी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप मेरा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह भी जानती हूँ।”

युवक: ‘अब क्या कहूँ? क्या करूँ? तुम तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।’

युवती: “रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। मैं सन्यासिनी हूँ, मेरे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी कर्तव्य से च्युत होने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन तुम्हें कैसे मना कर सकती हूँ? मैं नियम भंग का प्रायश्चित्य कर लूँगी।”

युवक: ‘ऐसा करो हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।’

युवती: “आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?”

युवक: ‘नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा तुम्हारे किसी के विषय में सोचना भी नहीं है।’

युवती: “लेकिन मुझे तो सोचना है, सबके बारे में। मैं तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गयी लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दूँ तो क्या विधाता मुझे क्षमा करेगा? विधाता की छोड़ भी दूँ तो मेरा अपना मन मुझे कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न मेरा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से मैंने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें वहाँ विवाह करें। मैं बड़भागी हूँ जो आपके जैसे व्यक्ति से सम्बन्ध जुड़ा। अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।”

युवक: ‘तुम तो चट्टान की तरह हो, हिमालय सी, मैं खुद को तुम्हरी छाया से भी कम आँक रहा हूँ। ठीक है, तुम्हारी ही बात रहे। तुम प्रायश्चित्य करो, मैंने तुमसे तुम्हारा नियम भंग कर बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। तुम जब जहाँ जो भी करो उसमें मेरी पूरी सहमति मानना। जिस तरह तुमने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी तुम्हारे भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी तुम्हारा या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचे तो तुमसे बात करने में या कभी आवश्यकता पर सहायता लेने से तुम खुद को नहीं रोकोगी, मुझे खबर करोगी तुमसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ। तुम यह विश्वास न तो तोड़ सकोगी, न मना कर सकोगी। तुम अशिक्षा से लड़ रही हो, मैं अपने ज्ञान से बीमारियों से लड़ूँगा। इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो एक ही होगी हमारी राह।’

कुछ समय तक युवक युवती की और देखता रहा, किन्तु युवती का झुका सर ऊपर न उठता देख और अपनी बात का उत्तर न मिलता देख नमस्ते कर चल पड़ा बाहर की ओर।

[मंच पर नांदी का प्रवेश: दर्शकों क्या आपने इन्हें पहचाना? इस नाटिका के पात्र हैं हिंदी साहित्य की अमर विभूति महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके बचपन में हुए बाल विवाह के पति जो चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने विदेश चले गये थे।] 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ०७६९९९५५९६१८ ईमेल: [email protected]

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रंगमंच स्मृतियाँ – “काल चक्र” – श्री असीम कुमार दुबे

रंगमंच स्मृतियाँ – “काल चक्र” – श्री असीम कुमार दुबे

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं। – हेमन्त बावनकर)   

काल चक्र – मानवीय संवेदनाओं का बयां करता नाटक  

संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से कोशिश नाट्य संस्था की ओर से भारत भवन के अंतरंग सभागार में रंगकर्मी श्री असीम कुमार दुबे के निर्देशन में नाटक ‘काल चक्र’ का मंचन किया गया। इस नाटक का मंचन 13 वर्ष बाद कुछ बदलाव के बाद दुबारा किया गया। इससे पहले यह रवीन्द्र भवन में प्रस्तुत किया गया था।

नाटक का कथानक मराठी लेखक स्वर्गीय जयवंत दळवी के कालजयी नाटक पर आधारित है। इसके स्क्रिप्ट में कुछ बदलाव करने के पश्चात संगीत एवं प्रकाश के अभूतपूर्व संयोजन के साथ जीवन्त प्रस्तुति दी गई।

इस नाटक का गीत-संगीत अहम पहलू रहा।

शीर्षक गीत इस नाटक में बूढ़े- माँ बाप की मानसिक एवं शारीरिक स्थिति को बहुत गहराई से बयां करता है।

जन्म निश्चित

मृत्यु निश्चित

ये जीवन है कालचक्र ….. ।

इसी तरह हमनें जिन पर प्यार लुटाया

उन्होने हमें क्या लौटाया …… ।

उनके जीवन के आखिरी पड़ाव में आने वाली उलझनों और अपनों के तिरस्कार की पीड़ा दिखाई गई है।

यह एक सामान्य मध्यमवर्गीय ईमानदार परिवार के स्वाभिमानी पिता विटठल और माँ रुक्मणी की कहानी है। कहानी उन बुजुर्ग दम्पतियों की शारीरिक और मानसिक पीड़ा बयां करती है, जिनके दो बेटे होने के बावजूद उन्हें वृद्धाश्रम की राह दिखाई जाती है।  उनके दो पुत्र हैं विश्वनाथ एवं शरद। वे अपने बड़े बेटे विश्वनाथ और बहू लीला के पास रहते हैं। बेटे बहू बात-बात पर विट्ठल और रुक्मणी को ताने देते रहते हैं। उनका छोटा बेटा शरद एक दवा कंपनी में अधिकारी है और उसकी पत्नी मीना सोशल वर्कर है। वे दोनों स्वयं को बहुत ही व्यस्त दिखाते हैं। इसलिए माता पिता से मिलने कभी-कभार आ पाते हैं। नाटक का सबसे महत्वपूर्ण पल वह होता है, जब पिता सोचता है कि जिस तरह से लोग बच्चे गोद लेने के लिए विज्ञापन निकालते हैं, उसी तरह क्यों न माता-पिता को गोद लेने के लिए विज्ञापन निकाला जाए। जिस पर दोनों बेटे अपने पिता का मज़ाक बनाते हैं और कहते हैं किस इस उम्र में कौन तुम्हें गोद लेगा?

इतना सब कुछ होने के बाद भी प्रोफेसर दंपति राघव और इरावती उनको गोद लेने के लिए तैयार हो जाते हैं। प्रोफेसर दंपति उन्हें खुश रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते। माता-पिता को गोद लेने के बाद जब माँ का जन्मदिन आता है जिसे काफी धूमधाम से जन्मदिन मनाया जाता है। इतनी अपार खुशी के माँ सहन नहीं कर पाती और उनको हार्ट अटैक आ जाता है। कुछ दिनों के पश्चात इरावती से कविता सुनते सुनते पिता भी आँखें मूँद लेते हैं। इसी समय दोनों बेटों को अपनी गलती पर पश्चाताप होता है। वे अपने माता पिता को वापस लेने जाते हैं। किन्तु,  जब तक वे पहुँचते हैं, तब तक सब कुछ समाप्त हो चुका होता है।

यदि मराठी में सारांश बयां करना चाहें तो –

“काल तुम्ही आमच्यावर अवलंबून होता. आज आम्ही तुमच्यावर अवलंबून आहोत ! हे एक कालचक्र आहे !

आज तुम्ही जे म्हणताय, तेच आम्ही आमच्या तरुणपणी म्हणत होतो. आज आम्ही जे म्हणतोय तेच तुम्ही उद्या तुमच्या म्हातारपणी म्हणणार!”

अर्थात

“कल तुम हम पर अवलंबित थे, आज हम तुम पर अवलंबित हैं। यह एक कालचक्र है!

आज जो तुम कह रहे हो, वही हम अपनी युवावस्था में कहते थे। आज जो हम कहते हैं, वही तुम कल अपनी वृद्धावस्था में कहोगे।”

मंच पर सुषमा ठाकुर, आलोक गच्छ, विवेक सावरीकर मृदुल, महुआ चटर्जी, भुवांशु शर्मा, राजीव श्रीवास्तव, रश्मि गोल्या, जगदीश बागोरा, अपूर्वा मुक्तिबोध, कान्हा जैन, अवनि वर्मा आदि ने प्रत्येक पात्र की सजीव भूमिकाएँ निभाईं।

नेपथ्य में कमल जैन (प्रकाश परिकल्पना), लीला और किशोर (मंच निर्माण), शरद नायक, प्रशांत धवले, स्मिता खरे (गायन) लक्ष्मी नारायण ओसले (वाद्य) एवं पुनीत वर्मा द्वारा वायलिन पर विशेष प्रस्तुति दी गई।

 

 

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रंगमंच स्मृतियाँ – “तीसवीं शताब्दी” – श्री असीम कुमार दुबे

रंगमंच स्मृतियाँ – “तीसवीं शताब्दी” – श्री असीम कुमार दुबे

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं। – हेमन्त बावनकर)   

उपरोक्त चित्र भोपाल के भारत भवन में स्वर्गीय के जी त्रिवेदी नाट्य समारोह में बादल सरकार के नाटक “तीसवीं शताब्दी” के मंचन के समय का है। इस नाटक का ताना बाना हिरोशिमा की बरसी पर हिरोशिमा की विभीषिका के इर्द गिर्द बुना गया है।

इस नाटक में पात्र कल्पना करता है कि वह तीसवीं शताब्दी के लोगों से बात कर रहा है। उसे यह आभास होता है कि तीसवीं शताब्दी के लोग बीसवीं शताब्दी के लोगों पर यह आरोप लगाएंगे कि- हमने आखिर हिरोशिमा-नागासाकी जैसे कांड को होने ही क्यों दिया? वह पाता है कि इस शताब्दी का प्रत्येक व्यक्ति अपराधी है, उसका अपराध यह है कि उसने मानवता के प्रति ऐसी साज़िशों के प्रति आवाज क्यों नहीं उठाई?

इस समारोह में अनूप शर्मा को कला निर्देशन, जुल्फकार को संगीत के लिए सम्मानित किया गया। संगीता अत्रे को “शो मस्ट गो ऑन” के खिताब से नवाजा गया। यह संगीता अत्रे का रंगकर्म के प्रति समर्पण भाव को प्रदर्शित करता है जो अपनी माँ की दो दिन पूर्व मृत्यु के पश्चात भी नाटक में भावपूर्ण प्रस्तुति देने आईं। नाटक में असीम दुबे, नीति श्रीवास्तव, प्रवीण महुवाले, साजल श्रोत्रिय, संगीता अत्रे, दीपक तिवारी, ऐश्वर्या तिवारी, इन्दिरा आदि ने भूमिकाएँ निभाईं।

© असीम कुमार दुबे

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रंगमंच – मध्य प्रदेश के रंगक्षेत्र में स्टेट बैंक के रंगकर्मियों का योगदान – श्री असीम कुमार दुबे

असीम कुमार दुबे 

मध्य प्रदेश के रंगक्षेत्र में स्टेट बैंक के रंगकर्मियों का योगदान

न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला  |

ना सौ न तत्कर्म नाट्यास्मिन  यन्नदृश्यते ||

(कोई ज्ञान, कोई शिल्प, कोई विद्या , कोई कला, कोई योग तथा कोई कर्म ऐसा नहीं है जो नाट्य में दिखाई न देता हो |)

नाटक से न केवल भाषा का विकास होता है, वरन मनुष्य का भी विकास होता है . भौतिकवाद के विश्व-व्यापी विकास के बाद आज सारी दुनिया में पुनः सांस्कृतिक मूल्यों कि आवश्यकता महसूस कि जा रही है . भले ही साहित्य में नाटक को कविता या कहानी के समतुल्य स्थान न मिला हो परन्तु नाटक में साहित्य कि सारी विधाओं का अद्भुत मेल है. नाटक भाषा को भाषा से जोड़ता है, नाटक मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है और नाटक जीवन को जीवन से जोड़ता है. दरअसल नाटक का एक मजबूत संपर्क सूत्र है .

भारतीय  स्टेट बैंक और रंगकर्म

यदि इस विषय पर चर्चा की जाये तो लोग सोच में पड़ जायेंगे कि एक बैंक का रंगकर्म  से क्या नाता ? भारतीय स्टेट  बैंक के भोपाल मंडल (मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ ) के कलाकारों ने विगत 40 वर्षों में  प्रदेश के और विशेषकर भोपाल के रंगक्षेत्र में अत्यंत उल्लेखनीय योगदान दिया है।   राजभाषा मास के दौरान ३० वर्षों तक सतत स्टेट बैंक नाट्य समारोह का आयोजन किया जाता रहा ( दुर्भाग्य से विगत कुछ वर्षों से यह समारोह बंद कर दिया गया है )।   इस नाट्य समारोह ने रंगमंच को एक नई ऊंचाई, एक नई शक्ति और एक नई ऊर्जा दी है।  स्टेट बैंक नाट्य समारोहों में मंचित नाटकों ने रचनात्मकता, सृजन क्षमता और रंगकर्म के प्रति कलाकारों की निष्ठा का एक ऐसा उदहारण प्रस्तुत किया है, जो शौकिया (अव्यवसायिक) रंगमंच में मिलना संभव नहीं है।

स्टेट बैंक के इस प्रतिष्ठित आयोजन में  देश के ख्यातनाम रंग निर्देशकों श्री हबीब तनवीर, श्री बंसी कौल,  श्री प्रभात गांगुली, श्री राजेंद्र गुप्त, श्री अलखनंदन, श्री जयंत देश्मुख, श्री प्रशांत खिरवडकर आदि का निर्णायकों एवं मुख्य अतिथियों के रूप में इस समारोह में शामिल होना इसके प्रतिष्ठित होने का प्रमाण है।   स्टेट बैंक के इस नाट्य समारोह को मध्य प्रदेश के पूर्व राज्यपालों महामहिम श्री भाई महावीर एवं श्री बलराम जाखड़ जी से भी सराहना मिली है।

स्टेट बैंक नाट्य समारोह ने कई श्रेष्ठ निर्देशक एवं  अभिनेता/अभिनेत्री भोपाल के रंमंच को दिए है। इनमे से कई अभिनेताओं ने भारत महोत्सव (रूस -1988) सहित देश के अनेक प्रतिष्ठित नाट्य समरोहों  में शिरकत की है।  बैंक के अनेक रंगकर्मी दूरदर्शन की टेलिफिल्मो, धारावाहिकों एवं फीचर फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं।

स्टेट बैंक के मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ के  रंगकर्मियों में से कुछ प्रमुख नाम हैं  स्व. श्री विजय डिंन्डोरकर, स्व. श्री प्रदीप पोद्दार, श्री अशोक बुलानी, श्री उदय शहाणे, श्री बसंत काशिकार, श्री असीम कुमार दुबे, श्री राकेश सेठी, श्री प्रवीण महुवाले, श्री आलोक गच्छ, श्री अविनाश नेमाडे, श्री जगदीश बागोरा, श्री संजय जैन, श्री सुधीर खानवलकर , श्री अरविन्द बिलगैया , श्री दीपक सभरवाल, श्री दीपक तिवारी, श्रीमती संध्या पोद्दार, श्रीमती सुशीला प्रसाद, श्रीमती रश्मि मुजुमदार, श्रीमती गीता अइयर आदि।

३० वर्षों में स्टेट बैंक नाट्य समारोहों में सैंया भये कोतवाल, दुलारी बाई, एक था गधा, आषाढ़ का एक दिन, सदगति, राम लीला, बगिया बांछा राम की , माँ रिटायर होती है , महाभोज, मोटेराम का सत्याग्रह , संध्या छाया, कोर्ट मार्शल, जिस लाहोर नई देख्या , अच्छे आदमी, अंजी, बजे ढिंडोरा, अरे शरीफ लोग, शुतुरमुर्ग, कालचक्र  सहित 100 से अधिक नाटकों के श्रेष्ठ प्रदर्शन किये गए  हैं।

© असीम कुमार दुबे

 

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