हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ आईएएस हो तो ऐसी संवेदनशील : दीप्ति उमाशंकर… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – आईएएस हो तो ऐसी संवेदनशील : दीप्ति उमाशंकर ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

हिसार में मैं सन् 1997 में आया था , पहली जुलाई से ! तब नहीं जानता था कि इस हिसार में कैसे पत्रकारिता  में पांव जमा पाऊंगा ! रोशन लाल सैनी उपायुक्त थे और दीप्ति उमाशंकर अतिरिक्त उपायुक्त ! मुझे चंडीगढ़ मुख्य कार्यालय से चलने से पहले बहुत ही सुंदर विजाटिंग कार्ड बनवा कर दिये गये थे ताकि सभी अधिकारियों को जब मिलने जाऊं तब यह कार्ड मेरा ही नहीं, हमारे संस्थान का भी परिचय दे ! इस तरह मैं उपायुक्त रोशन लाल सैनी से मिला और उन्होंने बहुत ही गर्मजोशी से स्वागत् किया और विश्वास दिलाया कि वे मुझे खबर से बेखबर नहीं रहने देंगे ओर उन्होंने वादा निभाया भी । वे खुद लैंडलाइन पर फोन करते और खबर बताने के बाद कहते कि ये रहीं खबरें आज तक ! इंतज़ार कीजिये कल तक ! वाह! इतने ज़िंदादिल ! इतने खुशमिजाज ! उनकों एक शेर बहुत पस़ंद था :

माना कि इस गुलशन को गुलज़ार न कर सके

 कुछ खार तो कम कर गये, निकले जिधर से हम!

इनके साथ ही दीप्ति उमाशंकर अतिरिक्त उपायुक्त थीं जबकि इनके पति वी उमाशंकर तब हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कुलसचिव ! इनसे मेरी अच्छी निभने लगी! हुआ यह कि एक दिन मैं इसी विश्वास में उपायुक्त दीप्ति उमाशंकर को भी अपना विजिटिंग कार्ड भेजकर मिलने चला गया । उन्होंने बहुत आदर से बुलाया, चाय मंगवाई और चाय पीते पीते मन में आया कि इनकी इंटरव्यू करूं ! जैसे ही मैंने यह बात उन्हें कही, वे एकदम असहज सी हो गयीं क्योंकि वे मीडिया से दूरी बना कर रखती थीं । उन्होंने कहा कि आप चाय लीजिए लेकिन इंटरव्यू नहीं ! इस तरह मैं चाय खत्म कर सीधे वी उमाशंकर के पास चला ! उन्हें सारी बात बताई ! उन्होंने कहा कि अच्छा ऐसे किया ! चलो, अब मैं मिलवाता हूँ उनसे और उन्होंने गाड़ी में बिठाया और फिर पहुंचे श्रीमती दीप्ति के पास ! श्री उमाशंकर ने कहा कि ये बहुत विश्वास के काबिल पत्रकार हैं, आप इनसे खबरें शेयर कर सकती हैं और फिर यह विश्वास आज तक बना हुआ है! वे कहती थीं कि यू आर वन ऑफ द बेस्ट जर्नलिस्ट इन हरियाणा!

जब स्वयं दीप्ति उमाशंकर उपायुक्त बनीं तब सुबह सवेरे मैं इनसे बात कर लेता ! एक सुबह बातों बातों में बताया कि बालसमंद गांव से एक छोटे से बच्चे को लाकर अस्पताल में भर्ती करवाया है क्योंकि उसकी मां ने दूसरी शादी कर ली और बाप बच्चे की तरफ से लापरवाह था, परिवार ने बच्चे को तबेले में रख छोड़ा था, जो बेचारा मिट्टी और गोबर खाकर जी रहा था, यह बात एक समाजसेविका सोमवती ध्यान में लाई और मैंने तुरंत बच्चे को सिविल अस्पताल पहुंचाया क्योंकि वह बहुत कमज़ोर हो चुका था !

अरे ! इतनी बड़ी बात और आप इतने सहज ढंग से बता रही हैं, आपने एक बच्चे को नवजीवन दिया है, आप आज सिविल अस्पताल में बच्चे का हाल चाल जानने पहुंचिए और मैं भी आऊंगा। मैं अपने कुछ साथी पत्रकारों के साथ पहुंच गया ! हिसार सिटी और हिसार दूरदर्शन पर उनका समाचार वायरल होने लगा और वे अपने स्वभावानुसार बहुत संकोच महसूस कर रही थीं ! फिर वह बच्चा स्वस्थ होने पर कैमरी रोड पर बने बालाश्रम को सौंप दिया गया ! वे वहाँ भी कुछ दिनों बाद उस बच्चे का हालचाल जानने गयीं, जिसका नाम लड्डू गोपाल रख दिया गया था ! जैसे ही लड्डू गोपाल को दीप्ति उमाशंकर के सामने लाया गया, वह बच्चा दौड़कर आया और उनकी टांगों से ऐसे लिपट गया जैसे उसे मां मिल गयी हो ! यह ममतामयी दीप्ति एक ऐसी ही आईएएस थीं ! बहुत संवेदनशील, बहुत भावुक ! यह दृश्य कभी नहीं भूल पाया ! उन्होंने एक कदम भी पीछे नहीं हटाया था कि मेरी साड़ी न खराब हो जाये बल्कि लड्डू गोपाल को प्यार से गोदी में उठा कर खूब लाड किया ! आज वह लड्डू गोपाल खूब बड़ा हो चुका होगा!

दूसरा ऐसा ही दृश्य याद है, जब वे हररोज़ लगभग ग्यारह बजे अपने कार्यालय से सटे छोटे से मीटिंग हाल में बैठकर सचिवालय आये लोगों की समस्यायें सुनतीं और तत्काल संबंधित अधिकारी को बुलातीं और वहीं समाधान करवा देतीं ! एक दिन हांसी के निकटवर्ती गा़व से एक युवा महिला आई अपनी समस्या लेकर और दीप्ति ने उस अधिकारी को फोन लगाया तो पता चला कि वह अधिकारी छुट्टी पर है ! इस पर उन्होंने महिला से कहा, कि कल आ जाना ! वह तो फूट फूट कर रोने लगी और बोली मैं तो आज भी किसी से पैसे उधार मांग कर आई हूँ । किराया लगाने के लिए मेरे पास कल  पैसे कहां से आयेंगे !

इस पर दीप्ति ने अपना पर्स खोला और सौ रुपये का नोट थमाते कहा कि अब तो कल आ सकती हो न !

जब वह चली गयी तब मैंंने कहा कि अब तो आपके खुले दरबार में भीड़ और भी ज्यादा होती जायेगी !

– वह कैसे और क्यों?

– अब तो आप आने जाने का टी ए, डी ए भी तो देने लगीं !

वे बोलीं कि भाई! देखे नहीं गये उसके आंसू! इतनी संवेदनशील, सहृदय! दोनों पति पत्नी हिसार में अलग अलग पदों पर लगभग बारह साल रहे और सन् 2003 को जब मुझे कथा संग्रह ‘ एक संवाददाता की डायरी’ पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों पचास हज़ार रुपये का सम्मान मिला, तब वे बहुत खुश हुईं और यह सम्मान अप्रैल माह में मिला था ! जब पंद्रह अगस्त आने वाला था तब ठीक एक दिन पहले दीप्ति उमाशंकर का फोन आया कि अभी आपको लोक सम्पर्क अधिकारी का फोन आयेगा, आप अपना बायोडेटा लिखवा देना!

– वह किसलिए?

– मेरे भाई जिसे देश का प्रधानमंत्री सम्मानित करे, उसे जिला प्रशासन को भी सम्मानित करना चाहिए कि नहीं ! कुछ हमारा भी फर्ज़ बनता है कि नहीं?

स्वतंत्रता दिवस के आसपास ही राखी भी आती है तो मैंने कहा कि बहन को राखी के दिन कुछ देते हैं, लेते नहीं ।

इस पर दीप्ति ने हंसकर जवाब दिया कि भाई अब घोर कलयुग आ गया है, भाई कुछ नही देते, बहनें ही भाइयों का ख्याल रखती हैं, बस, आप ऐसे ही अच्छा लिखते रहना!

कितने प्रसंग हैं! वे यहाँ से मुख्यमंत्री प्रकोष्ठ में भी रहीं और फिर अम्बाला की कमिश्नर भी! तब बेटी की शादी में आने का न्यौता एक माह पहले ही दिया वाट्सएप पर ! मैंने कहा, इतने समय तक तो भूल ही जायेगा ! उन्होंने जवाब दिया कि भूलने कैसे दूंगी ? याद दिलाती रहूंगी और आप, क्या यह न्यौता भूल जाओगे !

चलते चलते बताता चलूँ कि वे पंजाब के पटियाला से हैं और जब समय मिलता और नेता या समाजसेवी न रहते तब वे कहतीं कि अब तो प़जाबी बोल ले भाई !

बहुत बहुत सह्रदय आईएएस दम्पति उमाशंकर को आज यादों में फिर याद किया ! आजकल वी उमाशंकर मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव हैंं जबकि दीप्ति दिल्ली में डेपुटेशन पर ! वह पारिवारिक रिश्ता आज भी कायम है ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 20 -दो देश – दो परिवार, एक संस्कृति एवं एक ही तीज त्यौहार ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ जी का एक शोधपरक दस्तावेज़ दो देश – दो परिवार, एक संस्कृति एवं एक ही तीज त्यौहार।) 

☆  दस्तावेज़ # 20 – दो देश – दो परिवार, एक संस्कृति एवं एक ही तीज त्यौहार ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

तोर धानवा मोर धानवा एक में मिलाओ रे

मॉरीशस में गंगा तालाब पूज्य गंगा मां सी गयीं

भारतीय विवाह संस्कार में वर और बधु दो पक्ष होतें है l शादी के एक रस्म में जब पहली बार दोनो पक्ष यानि दो परिवार मिलते हैं तो भारतीय अन्न (धान) एवं शुभ प्रतीक (हल्दी) को दोनों पक्ष अपने-अपने घर से गमछे में बाँध कर लातें है l फिर शुरू होती है एक रस्म l जिसे हम हल्दी -धान बांटना कहते हैं l

शादी कराने वाले पुरोहित दोनों पक्ष द्वारा लाये हुए हल्दी और धान को पहले एक में मिलाते हैं और फिर आधा-आधा बाँट कर दोनों पक्ष को वापस दे देते हैं l

भारतीय संस्कृति में इस वैवाहिक विधि का क्या अर्थ क्या है, इस विषय पर हम चर्चा करते हैं l

इस वैवाहिक विधि के भाव को कुछ इस प्रकार समझें कि क्या चाह करके भी इन दोनों परिवार के लोग आपस में इस प्रकार मिल चुके हल्दी और धान में से अपने अपने हिस्से हल्दी और धान का बंटवारा अलग-अलग कर सकतें है?

जी बिल्कुल नहीं कर सकते है l

कहने का अर्थ यह है कि अब जब दो परिवार आपस में मिल गए lयह रिश्ता जन्म-जन्मांतर का हो गया l इन्हें अब अलग किया जाना मुश्किल ही नही असंभव है l

आज इस बात की चर्चा मैं मॉरीशस के साहित्यकार रामदेव जी से कर रहा था l इस बात की चर्चा मैंने क्यों किया इसको समझते हैं –

धुरंधर जी ने शिवरात्रि पर्व की बात की और पूछा कि आपके यहां शिवरात्रि कब है तो मैंने कहा कि मेरे यहां शिवरात्रि 26 फरवरी को है तो उन्होंने कहा कि मेरे यहां भी शिवरात्रि 26 फरवरी को है और मैं देख रहा हूं कि काफी युवा काँवर लेकर के गंगा तालाब की तरफ आगे बढ़ रहे हैं l यह गंगा तालाब जाएंगे और वहां से जल लेंगे और उस जल को शंकर जी के शिवलिंग पर चढ़ाएंगे l

गंगा तालाब क्या है ??

रामदेव धुरंधर कहते हैं – गंगा तालाब को शुरू में परी तालाब के नाम से जाना जाता था l भारतीय लोग उसे परी तालाब ही बोलते थे l मैंने अपने कई साहित्यिक ग्रंथों में उसे परी तालाब कहा है l कालांतर में भारतीय लोगों ने भारत से गंगाजल लाकर एक बड़े धार्मिक विधि विधान से परी तालाब के पानी में मिलाया और उसे उसका नामकरण कर दिया गया गंगा तालाब l

1- गंगा संगम तट प्रयागराज, उप्र (भारत)

2- गंगा तालाब (मारिशस)

चित्र साभार : गूगल

यानी परी तालाब के जल में गंगाजल मिल गया और दोनों एक दूसरे में इस तरह से घुल मिल गए कि मानो दोनों एक हो गए l

अब इन दोनों जल को पृथक कभी नहीं किया जा सकता और इसकी मान्यता एक धार्मिक सरोवर जैसी हो गई, मॉरीशस में गंगा तालाब पूज्य गंगा मां सी गईl

इसका तात्पर्य हुआ कि भारत और मॉरीशस की संस्कृतियों आपस में इस कदर मिल गई हैं कि वे युग युगांतर तक पृथक हो ही नहीं सकती l

रामदेव धुरंधर जी कहते थे कि हम युवा अवस्था में पैदल तो नहीं जाते थे लेकिन साइकिल से हम लोग थे 100 से कुछ काम किलोमीटर मेरे घर से वह जगह होगी वह हम कई लोग कई किलोमीटर की यात्रा कर पहुंचते थे l वहां से हम लोग वापस घर नहीं लौटते थे बल्कि वहां से कुछ दूर आगे एक जगह है त्रयोलेट l

इसके आसपास ही हिंदी के बड़े साहित्यकार अभिमन्यु अनत जी का घर भी है l त्रयोलेट में एक शिव मंदिर है जिसे महेश्वर नाथ जी का मंदिर कहते हैं l हम गंगा तालाब से जल भरकर उस शिव लिंग पर चढ़या करते थे l

(श्री रामदेव धुरंधर जी के फेसबुक पटल में एक पिन किया गया पोस्ट है l जिसमे एक फोटोग्राफ गंगा तालाब का है l इस फोटोग्राफ में माताजी यानी धुरंधर जी की पत्नी का भी चित्र है l यह चित्र गंगा तालाब के पास का ही लिया हुआ है l रामदेव धुरंधर जी इस चित्र से बहुत ही स्नेह करते हैं और इसके ही बहाने वे अपनी धर्मपत्नी स्व.देवरानी जी को याद करते हैं )

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 18 – विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांक – संपादक: अरविंद विद्रोही ☆ अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट☆

☆  दस्तावेज़ # 18 – विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांकसंपादक: अरविंद विद्रोही ☆ अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांक।) 

☆ विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांकसंपादक: अरविंद विद्रोही ☆ अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट ☆

विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांक

वर्ष 3, अंक 2-3, अप्रैल-सितंबर 1998

संपादक: अरविंद विद्रोही

अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट

प्रकाशक: दुर्गा प्रकाशन, जमशेदपुर

संपर्क: ई डब्लू एस 13/8, छोटा गोबिंदपुर,

जमशेदपुर – 831015

“शब्द कभी होता था ब्रह्म, आज माया है

अभिधा या लक्षणा नहीं, उसमें व्यंग्य ही समाया है।”

 – बालस्वरूप राही

‘विदूषक‘ पत्रिका के समकालीन व्यंग्य विशेषांक का अतिथि संपादन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। संवेदना की दशा तलाशती, हास्य-व्यंग्य की यह त्रैमासिक पत्रिका जमशेदपुर से प्रकाशित होती थी। इसके संपादक, अरविंद विद्रोही, जिन्होंने मुझे यह दायित्व सौंपा, का आभार मैं आजीवन मानूंगा। उनके जैसा जीवट वाला व्यक्ति मैंने नहीं देखा।

यह बात वर्ष 1998 की है। तब हास्य-व्यंग्य पत्रिकाओं में, मुंबई से ‘रंग’, जयपुर से ‘नई गुदगुदी’ और हिसार से ‘व्यंग्य विविधा’ प्रकाशित हो रही थीं। अधिकतर व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाएं व्यंग्य रचनाएं नियमित रूप से प्रकाशित कर रही थीं। अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं ने भी व्यंग्यकारों के लिए अपने द्वार खोल दिए थे। कुछ वर्ष पूर्व, अंबिकापुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘साम्य’ ने परसाई पर, और इलाहाबाद से प्रकाशित ‘कथ्यरूप’ ने व्यंग्य पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किए थे।

हिंदी गद्य में हास्य-व्यंग्य लेखन की शुरुआत भारतेंदु हरीशचंद्र के काल में हुई। तब प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुंद गुप्त ने हास्य-व्यंग्य लिखा। ‘अंधेर नगरी’ और ‘शिवशंभू के चिट्ठे’ अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लिखे गए साहसी व्यंग्य के नमूने हैं। उसके बाद जगन्नाथ चतुर्वेदी, अन्नपूर्णानंद, विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, राधाकृष्ण, गुलाबराय, जी पी श्रीवास्तव, श्रीनारायण चतुर्वेदी और विधान बनारसी ने हास्य-व्यंग्य लिखा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल और रवींद्रनाथ त्यागी ने इसे ठोस आधार प्रदान कर प्रतिष्ठित किया। के पी सक्सेना, केशवचंद्र वर्मा, बरसाने लाल चतुर्वेदी, मुद्राराक्षस, मनोहरश्याम जोशी, लतीफ घोंघी, शंकर पुणतांबेकर, कुंदन सिंह परिहार, नरेंद्र कोहली, प्रदीप पंत, सुदर्शन मजीठिया, कृष्ण चराटे, सूर्यबाला, हरीश नवल, प्रेम जनमेजय, सुरेश कांत और ज्ञान चतुर्वेदी ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।

उस समय सक्रिय, ज़्यादा से ज़्यादा व्यंग्यकारों को ‘विदूषक’ के समकालीन व्यंग्य विशेषांक में स्थान मिले, यह मेरा विनम्र प्रयास था। बहुत उमंग और उत्साह से मिशन की शुरुआत की। लेकिन यह क्या? पहले चार मूल्यवान विकेट बिना कोई रन बनाए ही चले गए। उनसे प्राप्त पत्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं जिन्हें पढ़कर अतिथि संपादक के प्रति आपके मन में करुणा अवश्य जागेगी:

(एक)

लखनऊ, 6/3/98

प्रिय बिष्ट जी,

आपका पत्र मिला। मैं काफी अरसे से कुछ लिख नहीं पा रहा हूं। पत्र-पत्रिकाओं में मेरी अनुपस्थिति आपने खुद लक्षित की होगी। अतः चाहकर भी विदूषक के लिए कुछ भेज नहीं पा रहा हूं। क्षमा करेंगे।

समकालीन व्यंग्य विशेषांक के लिए शुभकामनाएं,

आपका

श्रीलाल शुक्ल

(दो)

देहरादून, 7/2/98

प्रिय भाई,

आपका 30/1 का पत्र मिला। (आपके आग्रह के अनुसार) मैं नए व्यंग्यकारों पर कुछ नहीं लिख सकता। सबका पूरा कृतित्व मैंने नहीं पढ़ा है। ज्ञान चतुर्वेदी शायद सर्वश्रेष्ठ है। मैं गृहयुद्ध में नहीं पढ़ना चाहता। इधर तीन उपन्यास पढ़े जो अच्छे लगे।

सदा आपका

रवीन्द्रनाथ त्यागी

(तीन)

जलगांव, 6/3/98

प्रिय भाई साहब,

सस्नेह अभिवादन। आपका पत्र मिला। मैं ‘विदूषक’ के लिए नहीं लिख सकता। मैने पत्रिका के आरंभ होने के पूर्व ही लिखा था कि नाम ‘विदूषक’ ही रखना चाहें तो मेरा नाम सलाहकारों में न जाए। मैंने तीन बढ़िया नाम भी सुझाए थे लेकिन मसखरा नाम ही उन्होंने कायम रखा।

स्वस्थ-सानंद होंगे।

आपका सस्नेह

शंकर पुणतांबेकर

(चार)

मथुरा, 24/3/98

प्रिय बिष्ट जी,

नमस्कार। मैं मथुरा आ गया हूं इसलिए आपका (दिल्ली के पते पर भेजा गया) पत्र समय पर नहीं मिला। विदूषक का समकालीन व्यंग्य विशेषांक अवश्य भेजने की कृपा करें। अब तो वो निकल भी गया होगा।

आशा है, सपरिवार प्रसन्नचित होंगे।

आपका

बरसाने लाल चतुर्वेदी

ये पत्र तो फटाफट आ गए लेकिन काफी समय बीत जाने पर भी कोई रचना नहीं आई। चिंता का विषय था। फिर लगा कि शायद व्यंग्यकार अपनी श्रेष्ठतम रचना के सृजन में डूबे हुए हैं। वो भी अंततः आने लगीं। सबसे पहले जो तीन रचनाएं प्राप्त हुईं, वो थीं:

प्रदीप पंत की ‘भैयाजी का दहेज’, कुंदन सिंह परिहार की ‘प्रोफेसर वृहस्पति और एक अदना क्लर्क’, और सुरेश कांत की ‘वोट कैचर’

मैं तब अमलाई (शहडोल) में पोस्टेड था। तुरंत उन्हें देखकर, जमशेदपुर रवाना किया। तब सॉफ्ट कॉपी का ज़माना नहीं था, लेखक रचना की टंकित या हस्तलिखित प्रति भेजता था। अलबत्ता, डेस्कटॉप कंपोजिंग और पब्लिशिंग का आरंभ हो चुका था।

यहां से सिलसिला शुरू हो गया। रचनाओं का प्रवाह धीमे-धीमे बढ़ने लगा। अगले क्रम में प्राप्त रचनाओं के शीर्षक और व्यंग्यकारों के नाम इस प्रकार हैं:

गिरिराज शरण अग्रवाल: अर्थों का दिवंगत होना

सुबोध कुमार श्रीवास्तव: ताबीज में लटका अंगूठी में जड़ा भविष्य

लतीफ घोंघी: दुखी मत होना चुनाव होते रहेंगे

सुदर्शन मजीठिया: डॉक्टर लंबाशंकर

हरीश नवल: किस्सा-ए-डूपलैस

कृष्ण चराटे: अरे क्या यार पापा

मोहनजी श्रीवास्तव: राष्ट्रकवि के अभाव में

मोहनजी श्रीवास्तव बहुत कम लोगों से मिलते थे। गुमनाम-सा जीवन जी रहे थे। एक रविवार हम अमलाई से तीस किलोमीटर दूर, शहडोल में उनके आवास पर गए और उनसे पूरी विनम्रता और दृढ़ता से आग्रह किया कि वे इस अंक के लिए अपना योगदान अवश्य दें। उन्होंने समय मांगा और वादा किया कि दस दिन के अंदर रचना आप तक पहुंच जाएगी। आज उनकी यह रचना हमारे लिए धरोहर है।

इसके बाद, एक-एक कर बहुमूल्य रचनाएँ हमें मिलती गईं। ज्ञान चतुर्वेदी ने राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य उनके उपन्यास  ‘बारामासी’ का एक अंश भेजा। फिर दो प्रिय मित्रों की रचनाएं आईं, जवाहर चौधरी की ‘ओहदेदार कला मर्मज्ञ उर्फ़ राजा को जुकाम’ और पूरन सरमा की ‘पत्रकारिता में मेरा योगदान’ डॉ सरोजिनी प्रीतम ने भेजी अपनी रचना ‘भार का बोझ’। हम कृतज्ञ हुए और कृतज्ञता के वजन तले दब गए।

तत्पश्चात् प्राप्त हुई कुछ वरिष्ठ व्यंग्यकारों से रचनाएं जिनका हमने आदरपूर्वक स्वागत किया:

विनोद कुमार शुक्ल: व्यंग्यकार दल का चुनाव घोषणा पत्र

गौरी शंकर दुबे: पर्यावरण सप्ताह

डॉ सी भास्कर राव: अंगों में अंगूठा

हरि जोशी: चुनाव और कर्मचारी का हावभाव

ईश्वर शर्मा: जनरल प्रमोशन

दामोदर दत्त दीक्षित: फार्मूला मेम साहब

अश्विनी कुमार दुबे: भैयाजी की डायरी के चार पृष्ठ

जब्बार ढांकवाला: अफसरियत का अकाल

डॉ गंगाप्रसाद बरसैंया: मोदिनी मर्दिनी मदिरे

गिरीश पंकज: यह देश है वीर जवानों का

रामावतार सिंह सिसौदिया: नीचता – नए सुपर पैक में

डॉ भगीरथ बडोले: महात्मा की आत्मा

अब रचनाओं की आवक गति पकड़ती जा रही थी। मैं भी उसी तत्परता से उन्हें देखकर जमशेदपुर रवाना करता जा रहा था। डॉ स्नेहलता पाठक ने अपनी रचना भेजी जिसका शीर्षक था ‘जनता के नाम मंत्रीजी का बधाई पत्र’, डॉ श्रीराम ठाकुर दादा की रचना मिली ‘शादी कल की और आज की’, और सूर्यकांत नगर की रचना ‘जिसके हाथ लोई, उसके सब कोई’। इनके थोड़ा आगे-पीछे पहुंचे ये लिफाफे:

प्रभाशंकर उपाध्याय: अब प्रवचन परोस प्यारे

कस्तूरी दिनेश: लाश के आसपास रोदन कला

फारूक आफरीदी: ठेके पर चाहिए समीक्षक

बृजेश कानूनगो: कष्ट निवारण पथ

यशवंत कोठारी: समाचारों में आदमी की तलाश

सत्यपाल सिंह सुष्म: जब मैं मर जाऊंगा

सुष्म बहुत ही अच्छे इंसान थे। वे हमारे पारिवारिक मित्र बन गए थे। इस व्यंग्य में, उन्होंने कल्पना की है कि उनके मरने के बाद आयोजित श्रद्धांजलि सभा में व्यंग्यकार क्या-क्या कहेंगे। उन्होंने लिखा है कि जगत सिंह बिष्ट कुछ इस तरह कहेंगे, मैं सुष्म से दिल्ली के पुस्तक मेले में मधुसूदन पाटिल के अमन प्रकाशन पर मिला था। मैंने उनकी एक-दो रचनाएं ही पढ़ी हैं। व्यंग्य में वे बिल्कुल मेरे कद्दावर ठहरते हैं। मैं सोचता था कि वे अपनी पुस्तक ‘बेवकूफी का कोर्स’ की प्रति मुझे देंगे। पर उन्होंने नहीं दी। इसलिए मैं भी चुप रहा। वे मेरे साथ मीठी-मीठी बातें खूब करते रहे। शायद ‘विदूषक’ के ‘समकालीन व्यंग्य विशेषांक’ में छपने के लिए। उन्हें कहीं से खबर लग चुकी थी कि मैं उसका अतिथि संपादक हूं। ध्यान रहे, ये शब्द मेरे नहीं, सत्यपाल सिंह सुष्म की कल्पना की उड़ान हैं।

इस बीच कुछ और रचनाएं जो प्राप्त हुईं:

मदन गुप्ता सपाटू: मुझे न ले जाना विद्युत शवदाह गृह

रवींद्र पांडे: भौतिक परिवर्तन

आलोक शर्मा: छाप और आप

श्रवण कुमार उर्मलिया: दिमाग की दरार

ब्रह्मदेव: बात एक पार्क की

अमलाई के ‘पाठक मंच’ के प्रबुद्ध सदस्यों की रचनाएं भी इस अंक में आपको मिलेंगी:

राजेंद्र सिंह गहलोत: किस्सा साढ़े तीन यार

अनिल गर्दे: बफे(लो) सिस्टम

अभय कुमार: घर से श्मशान तक

महेंद्र कुमार वर्मा: बड़े बाबू

जमशेदपुर के नवोदित रचनाकारों की रचनाएं भी शामिल की गईं हैं:

प्रेमचंद मंधान ‘लफ्ज़’: कचरा और हीरा

निर्मल मिलिंद: बड़े दिलवाले

बृजमोहन राय देहाती: रावण की चिट्ठी

हमारी हार्दिक इच्छा थी कि व्यंग्यालोचन खंड में, हास्य-व्यंग्य के बदलते स्वरूप, सैद्धांतिक पक्ष की विस्तृत विवेचना, व्यंग्य की वर्तमान दशा और दिशा, व्यंग्यलोचन के उद्भव और विकास का संक्षिप्त इतिहास, महत्वपूर्ण व्यंग्यकारों से साक्षात्कार, पिछले दो-चार दशकों की उत्कृष्ट कृतियों की समीक्षा भी इस विशेषांक में सम्मिलित करें लेकिन चाहकर भी हम ऐसा नहीं कर सके।

फिर भी, इस अंक के प्रारंभ में, प्रेम जनमेजय का ‘आलोचना का व्यंग्य’ शीर्षक से गहन-गंभीर आलेख है। डॉ तेजपाल चौधरी का विद्वतापूर्ण आलेख ‘व्यंग्य: एक शिल्प सापेक्ष विधा’ भी इसमें शामिल है। विनोद साव की शंकर पुणतांबेकर से बातचीत ‘यदि परसाई व्यंग्यकार हैं तो व्यंग्य एक विद्या है’  और मेरी रवींद्रनाथ त्यागी से बातचीत भी इसमें संग्रहीत है। समीक्षा खंड में, डॉ मधुसूदन पाटिल की समीक्षा ‘अपने परिवेश की विसंगतियां खोजते व्यंग्य’ और मेरे द्वारा की गई समीक्षा ‘पलाश जैसे शोख और चटख हास्य-व्यंग्य’ शामिल हैं।

इस विशेषांक में आपको सुधीर ओखदे दो जगह दृष्टिगोचर होंगे। व्यंग्य रचनाओं के खंड में, अपनी रचना ‘सिगरेट और मध्यमवर्गीय’ के साथ, और अंत में, अपने विचारोत्तेजक आलेख ‘व्यंग्य: कुछ कड़वी सच्चाइयां’ के साथ। ऐसी रचनाओं को अंग्रेज़ी में कहते हैं ‘थॉट प्रोवोकिंग’ – विचार करने के लिए विवश कर देने वाली।

एक बार फिर मैं सभी व्यंग्यकारों और आलोचकों को हृदय की गहराइयों से पुनः आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने उस समय इस विशेषांक के लिए अपना बहुमूल्य योगदान दिया। हमारे जिन आदरणीय मित्रों का इस दौरान देहावसान हो गया, उन्हें हम विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। जो मित्र आज भी व्यंग्य लेखन से जुड़े हुए हैं, उनके उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हुए, यह कामना करते हैं कि उनकी लेखनी और प्रखर हो!

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ आईएएस का साहित्य में योगदान क्यों नहीं मानते… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – आईएएस का साहित्य में योगदान क्यों नहीं मानते… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

– क्या आप कमलेश भारतीय हैं?

मैं हरियाणा सचिवालय की वीआईपी लिफ्ट के सामने खड़ा था और एक सभ्य, सभ्रांत सी महिला मुझसे यह सवाल कर रही थीं ! मैं श्रीमती धीरा खंडेलवाल का ‘शुभ तारिका’ के लिए इंटरव्यू लेने जा रहा था और मैने कभी उनको देखा न था । हां, मेरे पास उनका  काव्य संग्रह जरूर था, जिसे मैं साथ लिए हुए था । शायद वही कवर सामने था, जिस पर धीरा खंडेलवाल की फोटो और परिचय था ।

– क्या, आप धीरा खंडेलवाल का इंटरव्यू करने जा रहे हो ?

– जी, पर आपको कैसे पता?

– अजी, मैं ही तो धीरा खंडेलवाल हूँ । आपके पास यह काव्य संग्रह इसका प्रमाण है ! देखिए तो मेरी फोटो !

यह थी हमारी पहली मुलाकात ! असल में मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना और मैंने ही “शुभ तारिका’ की संपादिका श्रीमती उर्मि कृष्ण को यह सुझाव दिया था कि पत्रिका में ‘छोटी सी मुलाकात’ के रूप में हर माह एक इंटरव्यू दिया जाये और मैं यह काम खुशी से करने को तैयार हूँ क्योंकि आपका सदैव उलाहना रहा कि मैंने शुभ तारिका को कभी सहयोग नहीं दिया, पर आप मेरी विवशता नहीं जानती थीं कि हमारे ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के कांट्रेक्ट में यह शर्त है कि आप बिना अनुमति बाहर कुछ प्रकाशित नहीं करवा सकते ! अब मैं ‘दैनिक ट्रिब्यून’  के नियम से स्वतंत्र हो चुका हूँ, अब आप बताइये कि क्या लिखना है, मुझे ! श्रीमती उर्मि ने कहा कि जो आप चाहें, वही शुरू कर लीजिए!.

यह बात बताता चलूँ कि जिन दिनों मैंने लिखना शुरू किया, उन दिनों ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में एक छोटा सा विज्ञापन दिखाई दिया- कहानी लेखन महाविद्यालय का, जिसमें यह कहा गया था कि लेखन का कोर्स कर घर बैठे ही धन और यश कमाइए ! अरे ! ऐसे कैसे? मैंने उस पते पर चिट्ठी लिख दी, मुझे इसके निदेशक डाॅ महाराज कृष्ण जैन का खत दो चार दिनों में ही मिल गया ! खैर ! मैंने कोई कोर्स तो वहां से नहीं किया लेकिन एक परिचय हो गया, जो आजीवन चला ! इसके लिए मैंने बहुत कुछ लिख लिख कर भेजा ! एक दो चीज़ें याद हैं कि मैंने एक परिचर्चा दी थी- क्या महसूस करती हैं लेखकों की पत्नियां ! इसके बाद मेरा व्यंग्य आलेख – क्यों नहीं आते लेखक अच्छे अच्छे ! यही नहीं इसके पचास साल के प्रकाशन के दौरान पांच लघुकथा विशेषांक आये और शायद मैं ही इकलौता लेखक हूँ जिसकी लघुकथा इसके हर विशेषांक में है ! जब दैनिक ट्रिब्यून ज्वाइन कर लिया तब नियमानुसार मैंने बाहर लिखना बंद कर दिया । फिर मुझसे  भाभी उर्मि सहयोग मांगें पहले जैसा और मैं चुप रह जाऊं ! इस तरह सन् 1990 से सन् 2011 आ गया और मैं जैसे ही इस कांट्रेक्ट से मुक्त हुआ तब मैंने कहा- भाभी जी, अब बताइये कि क्या सहयोग दूं?

फिर यह छोटी सी मुलाकात स्तम्भ शुरू करने की सोची और पहला इंटरव्यू डाॅ कृष्ण कुमार खंडेलवाल का करने का इरादा बनाया लेकिन अपनी व्यस्तताओं के चलते उनके पास समय नहीं था, तब मै़ने ही सुझाव दिया, कि फिर धीरा खंडेलवाल का इंटरव्यू करवा दीजिये, मेंने भी ठान रखा है कि आपसे ही यह इंटरव्यू का सिलसिला शुरू करूंगा ! इसके लिए खंडेलवाल खुशी खुशी मान गये और उनका एक काव्य संग्रह दराज से देते कहा कि आप थोड़ा इसे देख लीजिए और उसी दिन तीन बजे इंटरव्यू का समय भी तय कर दिया !

इस तरह हमारी पहली मुलाकात हरियाणा सचिवालय की लिफ्ट के सामने हुई ! फिर वे मुझे अपने ऑफिस ले गयीं और चाय की चुस्कियों के बीच  ‘छोटी सी मुलाकात’ का श्रीगणेश हो गया! ।

धीरा खंडेलवाल का स्वभाव बहुत सरल और सामने वाले को बहुत मान सम्मान देने वाला है ! कहीं भी बड़ी अधिकारी होने का कोई आभास तक नहीं होने देती थीं ! फिर तो उनसे कभी सचिवालय में तो कभी सरकारी बंगले पर मुलाकातों का सिलसिला तीन साल तक चलता रहा ! वे उन दिनों एक नया काव्य प्रयोग भी कर रही थीं – त्रिवेणी लिखने का ! वाट्सएप पर सुबह सवेरे धीरा खंडेलवाल की त्रिवेणी आ जाती ! मैंने एक बात महसूस की कि आईएएस अधिकारियों को साहित्यकार न मान कर लेखन को उनका शुगल मानने की भूल‌ करते हैं दूसरे लेखक और ऐसी प्रतिक्रियायें भी मुझे सुनने को मिलतीं रहीं ! फिर चाहे वे धीरा हों या डाॅ खंडेलवाल हों या, फिर रमेंद्र जाखू और या, फिर शिवरमण गौड़ हों ! यह मैं समझता हूँ कि इनके साथ न्याय नहीं है । धीरा लगातार लिखतीं आ रही हैं और सन् 2022 में तो इनके दो काव्य संग्रह एक साथ आये और तब तो मैं उपाध्यक्ष की अवधि पूरी होने पर हिसार वापस आ चुका था कि इन्होंने बड़े ही सम्मान से बुलाया और हरियाणा निवास में एक, कमरा भी बुक करवा दिया क्योंकि जनवरी के महीने धुंध बहुत छा जाती है और ग्यारह बजे चंडीगढ़ पहुंचना बहुत मुश्किल था ।

इस तरह इनके एकसाथ दो काव्य स़ग्रहों  के विमोचन-समारोह में शामिल होने व अनेक आईएएस मित्रों से फिर से मुलाकात का अवसर बना दिया ! यह भी कहता हूँ कि खंडेलवाल दम्पति साहित्य के प्रति बहुत ही गहरी भावना से जुड़े हूए हैं और अपनी पुस्तकों का विमोचन ऐसे भव्य स्तर पर करते हैं कि दूसरे लेखक सोचते हैं कि काश ! हमारी कृति का भी ऐसा विमोचन हो कभी ! खैर ! इनकी बातों और स्नेह को जितना याद करूं कम रहेगा !

हां, जब मैं  हरियाणा निवास से चेक आउट करने लगा तो जो राशि मेरी बताई मैंने अदा की और हिसार आ गया! दो चार दिन बाद धीरा जी का फोन आ गया, वे नाराज़ हो रही थीं कि  मैंने तो आपको एक भाई की तरह बुलाया था और आपने पैसे चुका दिये ! मैंने जवाब दिया कि मैंने भी तो अपनी बहन का मान ही रखा था कि वे यह न समझें कि भाई ऐसा है कि छोटा सा बिल नहीं चुका सका !

अब उसी दिन शाम को हमारे घर कोई सज्जन आये कि मुझे धीरा मैम ने भेजा है कि यह लिफाफा दे दूं। लिफाफे में मेरे हरियाणा निवास ठहरने की राशि थी !

अब आगे की कथा अगली कड़ी में ! खंडेलवाल दम्पति की कथा अनंता!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 17 – सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी से मुलाकात – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी से मुलाकात।) 

☆  दस्तावेज़ # 17 – सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी से मुलाकात ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

जो साज़ पे गुजरी है, वो किस दिल को पता है

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवींद्रनाथ त्यागी से मेरी पहली भेंट आज से लगभग तीस वर्ष पहले उनके गुरु तेगबहादुर मार्ग, देहरादून स्थित आवास पर हुई थी।

हरिशंकर परसाई ने कहीं लिखा है, “मैं रवींद्रनाथ त्यागी को एक श्रेष्ठ कवि और एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार स्वीकार करता हूं। उनकी विशिष्टता का एक प्रमुख कारण यह है कि हमारे जो पुराने क्लासिक्स हैं, उनमें उनकी गति है। वे सचमुच बहुत अच्छा लिखते हैं। ऐसा प्रवाहमय विटसंपन्न गद्य मुझसे लिखते नहीं बनता।”

शरद जोशी के निधन के बाद, एक नवोदित व्यंग्यकार ने परसाई से पूछा कि शरद जोशी और अपने बाद, समकालीन व्यंग्यकारों में वे किसे श्रेष्ठ मानते हैं। उन्होंने रवींद्रनाथ त्यागी का नाम लिया। उस व्यंग्यकार ने कहा कि अकेला ‘राग दरबारी’ ही श्रीलाल शुक्ल को उत्कृष्टम व्यंग्यकारों की श्रेणी में खड़ा करने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने फिर कहा कि आप रवींद्रनाथ त्यागी को ध्यानपूर्वक पढ़िए। ऐसा कई बार हुआ। अलग अलग समय, अवसर और मूड में, उनसे यह प्रश्न दोहराया जाता था। वे हर बार यही कहते थे कि रवींद्रनाथ त्यागी को पढ़िए, ध्यानपूर्वक पढ़िए।

यह आज से लगभग तीस साल पहले की बात होगी। तदोपरांत, त्यागी से मिलने, उनको प्रत्यक्ष जानने-समझने और उनकी कतिपय कृतियों को पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। कालांतर में, वे मेरे लिए ‘आदरणीय’ से ‘श्रद्धेय’ हो गए।

एक व्यंग्यकार मित्र, उन दिनों, मज़ाक में कहा करते थे कि हिंदी व्यंग्य के तीन स्कूल हैं – परसाई स्कूल, जोशी स्कूल और त्यागी स्कूल – और तीनों में भर्ती चालू है।

मेरी प्राइमरी शिक्षा परसाई स्कूल में हुई। शरद जोशी के व्यंग्य मैं मंत्रमुग्ध होकर पढ़ता और सुनता था। उनकी शब्द-छटा अलौकिक होती थी और मैं मुक्त मन और कंठ से उसकी प्रशंसा करता था।

गर्मियों की छुट्टियों में, मै अक्सर परिवार के साथ देहरादून जाया करता था, जहां सेवानिवृत्ति के बाद रवींद्रनाथ त्यागी का निवास था। उनसे पहली मुलाकात के दौरान, दो लंबी मुलाकातें हुईं और ढेर सारी बातें हुईं। मैं उनसे इतना प्रभावित हुआ कि मैंने मिडिल स्कूल के लिए त्यागी स्कूल में आवेदन कर दिया। एडमिशन के मामले में वे काफी स्ट्रिक्ट दिखाई दिए लेकिन मैंने पाया कि मेरे प्रति उनका रुख काफी उदार एवं स्नेहपूर्ण रहा। भला कौन नहीं चाहता कि उसके स्कूल में एकाध होनहार छात्र भी हो!

पहली मुलाकात की औपचारिकताओं के बाद, मैंने उन्हें बताया कि परसाई उनकी बेहद तारीफ़ किया करते हैं। त्यागी बोले, “यह तो उनकी महानता है। परसाई हमारे एकमात्र अंतरराष्ट्रीय स्तर के लेखक हैं। उनके लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी प्रत्येक रचना उद्देश्यपूर्ण है, उनका संपूर्ण लेखन प्रतिबद्ध लेखन है। उन्होंने गरीबों और शोषित-पीड़ितों का दुख पहले शिद्दत से महसूस किया, फिर प्रतिबद्ध हुए, और लिखा। उल्टा नहीं हुआ। पहले प्रतिबद्धता नहीं आई। पहले अनुभव किया, फिर प्रतिबद्ध हुए। तभी उनमें वो दृष्टि और गहराई है।”

थोड़ा ‘नॉस्टैल्जिक’ होकर उन्होंने बताया कि 1979 में जब वे दौरे पर जबलपुर गए थे तो रोज शाम परसाई से भेंट करते थे। परसाई ने स्थानीय कॉलेज में उनके सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित किया और अपनी अस्वस्थता के बावजूद वहां गए और पूरे समय तक बैठे रहे। परसाई उनके प्रति गहरी आत्मीयता का अनुभव करते थे क्योंकि दोनों गर्दिश की लंबी-लंबी रातों से गुजरे और निखरे थे। (यदि आपने परसाई और त्यागी की ‘गर्दिश के दिन’ शीर्षक रचना न पढ़ी हो तो अवश्य पढ़ लें) उन दिनों त्यागी कुछ परेशान थे और नौकरी छोड़ने पर विचार कर रहे थे। विदा होते समय परसाई ने उनसे वचन लिया कि वे त्यागपत्र नहीं देंगे और अपने उच्च सरकारी पद पर रहते हुए लिखते रहेंगे।

शरद जोशी को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि यदि वे बंबई में दो कमरों का फ्लैट बनाने के चक्कर में न पड़ते तो शायद इतनी जल्दी हमारे बीच से चले जाने से बच जाते। व्यर्थ की भागमभाग, रात-दिन तनाव में लिखना, मंच पर व्यंग्य पाठ के लिए हवाई यात्राएं, टीवी सीरियल की डेडलाइन और अनियमित खानपान ने उनका स्वास्थ्य ध्वस्त कर दिया।

जब त्यागी को चकल्लस पुरस्कार मिलना था तो उस कार्यक्रम में शरद जोशी भी उपस्थित थे। उन्होंने देखा कि शरद जोशी कुछ परेशान और विचलित से लग रहे हैं। पूछने पर पता चला कि उस दिन उनका टीवी पर पहला प्रोग्राम आने वाला था। इन्होंने कहा कि आप जाकर कहीं देख आइए लेकिन वे नहीं गए और कार्यक्रम के अंत तक बैठे रहे।

त्यागी में सबसे बड़ा गुण जो मैंने पाया, वो था उनका ज़रा भी आत्ममुग्ध नहीं होना। मैंने उनके गद्य की प्रशंसा करनी चाही तो उन्होंने रोक दिया। मैंने उन्हें महानतम व्यंग्यकार कहना चाहा तो उन्होंने बहुत विनम्रता और स्पष्टवादिता के साथ कहा कि समकालीन व्यंग्यकारों में सबसे पहले हरिशंकर परसाई, फिर शरद जोशी, फिर श्रीलाल शुक्ल, और उसके बाद ही रवींद्रनाथ त्यागी। श्रीलाल शुक्ल की प्रारंभिक दो पुस्तकों ‘अंगद का पांव’ और ‘सूनी घाटी का सूरज’ को वे उनकी उत्कृष्ट कृतियां मानते थे।

चर्चा अन्य व्यंग्यकारों के साथ-साथ, लतीफ घोंघी की भी चली। उन्होंने कहा कि आप और हम मुस्लिम समाज को नहीं जानते जितना लतीफ। मुस्लिम समाज की रूढ़ियों पर उन्होंने प्रहार किया। मैंने उन्हें ध्यान दिलाया कि लतीफ घोंघी पर केंद्रित रचना ‘तीसरी परंपरा की खोज’ में उन्होंने लिखा है, “पुस्तक (व्यंग्य रचना) की प्रशंसा में यह भी कहना पड़ेगा कि लतीफ की रचनाओं का स्तर और रचनाओं का रस ठीक वही है जो अब तक की उन्नीस पुस्तकों में था। आप उस पर यह अभियोग कभी नहीं लगा सकते कि उन्होंने अपना स्तर उठाया, नया रस पैदा किया, या किसी नए चरित्र की सृष्टि की। वे वहीं हैं, जहां थे। वे पीछे नहीं हटे। सुमित्रानंदन पंत की भांति उन्होंने ‘पल्लव’ के ‘सा’ को ‘गुंजन’ के ‘रे’ में नहीं बदला। वे इंसान ही रहे, महान नहीं बने।” उन्होंने बताया कि लतीफ घोंघी ने उनके कथन को सही स्पिरिट में लिया और सहर्ष स्वीकार किया।

त्यागी का व्यक्तित्व अंतर्मुखी था। वे एकदम से किसी व्यक्ति को हाथों-हाथ नहीं लेते। उसे समझते-परखते, तब जाकर खुलते। प्रारंभिक संकोच और दूरी के बाद, वे मुझे बहुत आत्मीयता से अपनी ‘स्टडी’ में ले गए और मेरे बारंबार आग्रह पर उन्होंने भावविभोर होकर अपनी कुछ कविताएं सुनाईं। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था। उनकी कविताएं मैंने पहले नहीं पढ़ी थीं। बहुत धीर-गंभीर, गहरी और अंतर्मुखी कविताएं लिखते थे वो। उनका गद्य हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण है और कविताएं इसके ठीक विपरीत। ये रवींद्रनाथ त्यागी के व्यक्तित्व के दो पहलू हैं। इन्हें जाने बगैर उन्हें नहीं समझा जा सकता। उनकी एक कविता प्रस्तुत है, जो हरिवंश राय बच्चन को पसंद आई और उन्होंने इसे अपने द्वारा संपादित ‘हिंदी की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएं’ नामक संग्रह में शामिल किया। कविता इस प्रकार है:

☆ अंधा पड़ाव ☆

ड्राइंग रूम में वह नहीं आया

उसके चमचमाते जूते आए,

जब मिलाया उसने हाथ

मुलाकात रह गई दस्तानों तक,

जब वह बैठा सोफे पर

तो उनकी जगह एक शानदार शूट वहां बैठ गया,

कफ़ों ने पकड़ा कॉफ़ी का कप

टाई और कॉलर ने ब्रेकफास्ट किया,

उसके होंठ नहीं हँसे बिल्कुल

सिर्फ़ उसकी सिगरेट चमकी

विदा की जगह हिलता रहा रूमाल

वह नहीं निकला पोर्च के बाहर

सिर्फ़ उसकी मोटर निकली।

उन्होंने संस्कृत और हिंदी साहित्य का गहन अध्ययन किया था। उर्दू शेरोशायरी और अंग्रेजी क्लासिक्स का भी उन्हें ज्ञान था। इतिहास और दर्शन शास्त्र में उनकी गहन रुचि थी। अख़बार और पत्रिकाएं वे नियमित पढ़ते थे। पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के महत्वपूर्ण अंशों को रेखांकित कर ध्यानपूर्वक मनन करते थे। प्रतिदिन, घंटों राइटिंग टेबल पर बैठकर, टेबल लैंप की रोशनी में लिखते रहते थे। साहित्य के प्रति उनकी लगन देखते ही बनती थी। जितने वे प्रतिभावान थे, उतने ही परिश्रमी, व्यवस्थित और अनुशासित भी। उन्होंने मुझे बताया कि व्यंग्य लेखन के लिए पढ़ना, खूब पढ़ना, बेहद जरूरी है। आप खूब पढ़िए, कांजी हाउस के पर्चे से लेकर पीजी वुडहाउस तक। लेखन में परिश्रम बेहद आवश्यक है। लिखिए, रीराइट कीजिए, बार बार पढ़कर सुधारिए। टॉल्स्टॉय ने युद्ध और शांति जैसे बड़े उपन्यास को तीन बार रीराइट किया। और सबसे महत्वपूर्ण बात, लेखन से कभी कोई उम्मीद मत करना, बस लिखते रहना।

वे मुंह-देखी बात नहीं करते थे। अपनी बेबाक और स्पष्ट टिप्पणी करते थे। उन्होंने कहा कि आपके पहले व्यंग्य-संग्रह में कुछ रचनाएं ठीक थीं लेकिन उसका शीर्षक ‘तिरछी नज़र’ हल्का था। मैंने उन्हें दफ्तरी जीवन पर आधारित अपने स्तंभ के बारे में बताया, तो उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करने के लिए उन्होंने प्रोत्साहित किया लेकिन कहा कि आपका शीर्षक ‘दफ्तर की दुनिया’ मुझे अच्छा नहीं लगता। बाद में उन्होंने एक शीर्षक सुझाया ‘घर से चलकर दफ्तर तक’। प्रकाशक महोदय की कृपा से यह पुस्तक ‘अथ दफ्तर कथा’ नाम से छपी।

रवींद्रनाथ त्यागी साहित्य में रस को अनिवार्य मानते थे। वे रूपवाद, कलावाद और प्रगतिवाद के पचड़ों से ऊपर उठकर थे। उन्होंने कहा कि जो भी रसपूर्ण है, मैं लिखूंगा, यदि आवश्यक हुआ तो चुटकुले भी। उन्होंने विश्व के महान राजनेताओं से संबंधित हास्य-व्यंग्य लिखा है। इसी तरह, प्रसिद्ध साहित्यकारों से संबंधित हास्य-व्यंग्य वे उन दिनों लिख रहे थे। उनके पास अनेक पत्र आते थे जो उनके साहित्य में अश्लील अंशों पर आपत्ति जताते थे लेकिन अपनी रचनाओं में हसीन स्टेनो, सुन्दर रमणी, रूपवती विधवा, इत्यादि की पुनरावृति से वे चिंतित नहीं होते थे। उन्होंने कालिदास के मेघदूत के कुछ अंश, जो उन्हें कंठस्थ थे, सुनाए और सिद्ध किया कि श्लील और अश्लील की लक्ष्मण-रेखा बहुत बारीक है। कालिदास ने कुछ आवश्यक प्रसंगों के साथ, अनावश्यक अश्लील प्रसंग भी विस्तार से चित्रित किए हैं। थोड़ा काव्यानंद आप भी लें:

वहां अलका में, कामी प्रियतम,

लाल-लाल अधरों वाली प्रेमिकाओं के

नीवीबंधों के टूट जाने से ढीले पड़े वस्त्र को

जब खींचने लगते हैं,

तो लज्जा के कारण विमूढ़ बनी वे रमणियां

सामने रखे,

किरणें छिटकाते रत्नदीपों पर,

मुट्ठी भर-भर कुमकुम फेंककर बुझाने की असमर्थ चेष्टा करती हैं,

क्योंकि रत्नदीप बुझाए नहीं जा सकते।

उन दिनों वे रवींद्र कालिया द्वारा संपादित और इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से प्रकाशित साप्ताहिक ‘गंगा-यमुना’ के लिए, पचास साल पूर्व के इलाहाबाद के संस्मरण लिख रहे थे।

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पर केंद्रित संस्मरण को सुनने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने ‘सरस्वती’ के हीरक जयंती अंक में छपे सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के फोटो दिखाए। उन दिनों के ढेरों संस्मरण सुनाए। यहां उनके ‘कुछ और साहित्यिक संस्मरण’ का प्रारंभिक अंश उद्धृत कर रहा हूं:

दुष्यंत मेरा बचपन का दोस्त था। हाई स्कूल में हम दोनों साथ-साथ पढ़ते थे और प्रयाग विश्वविद्यालय में भी हम दोनों सहपाठी रहे। हाई स्कूल का फॉर्म भरते समय, उसी ने मेरे नाम के साथ ‘त्यागी’ जोड़ा और बदले में मैंने ही उसका नाम ‘दुष्यन्त नारायण’ से ‘दुष्यन्त कुमार’ किया। उसी ने मुझे सर्वप्रथम पंत जी से मिलवाया और उसी के साथ मैंने निराला जी के प्रथम दर्शन किए। यदि वह मुझे मेरठ में चैलेंज न देता तो मैं कभी भी लेखक बनने की न सोचता। वह बाद में भी बराबर हिम्मत देता रहा मगर जैसे ही मेरा प्रथम काव्य-ग्रन्थ छपा और साहित्य के दिग्गजों ने उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करनी शुरू की, वैसे ही वह मुझसे बचने लगा। वह जब भी किसी साहित्यकार से मुझे मिलवाता तो मुझे ‘व्यंग्यकार’ कहकर ही मिलवाता, ‘कवि’ कहकर नहीं। धीरे-धीरे वह भी मेरी कविता का प्रशंसक बन गया जिसके लिए मैं आजीवन उसका कृतज्ञ रहूंगा। प्रयागराज में ही मैं श्रीराम वर्मा, मलयज और शमशेर बहादुर सिंह से मिला। ये लोग नितांत अध्ययनशील और प्रतिभाशाली थे मगर बाकी नवयुवक रचनाकारों की सदा निंदा भरी आलोचना ही किया करते थे। शमशेर ने मेरे कविता-संग्रह के फ्लैप पर कुछ भी लिखने से साफ मना कर दिया मगर बाद में मैंने देखा कि उन्होंने बेहद घटिया किस्म के काव्य-ग्रंथों की भी बेहद प्रशंसा की जिसका कारण मुझे बाद में मुझे दुष्यंत से ज्ञात हुआ।

यह सच है कि उनकी कविताओं को जितनी स्वीकृति प्राप्त हुई, उससे कहीं अधिक प्रतिष्ठा उन्हें हास्य-व्यंग्य गद्य लेखन से मिली लेकिन इससे उनकी कविताएं गौण नहीं हो जातीं। उन्होंने लिखा है, “मेरा बचपन बड़े कष्टों में और बहुत ही ज़्यादा गरीबी में बीता। सारे भाई-बहन इलाज न होने के कारण एक-एक कर मर गए। ईश्वर की कृपा से मैंने किसी तरह उच्च शिक्षा प्राप्त की, देश की एक बड़ी सेवा के लिए चुना गया, और साहित्य की सेवा करने की प्रवृत्ति मिली। बाल स्वरूप राही का एक शेर याद आता है:

हम पर दुख का पर्बत टूटा तब हमने दो चार कहे,

उस पे भला क्या बीती होगी जिसने शेर हज़ार कहे।

लेखक पर सृजन का भरी दबाव होता है। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसे अन्य लोग नहीं समझ सकते। लेखक भी आपस में लेखकों की मानसिक पीड़ा की चर्चा नहीं करते। जॉर्ज ऑरवेल, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, वॉल्ट विटमैन और विलियम फॉल्कनर की तरह रवींद्रनाथ त्यागी भी मानसिक अवसाद या डिप्रेशन से ग्रस्त और त्रस्त रहे। गर्दिश भरा बचपन, उच्च पद और नौकरी के तनाव, और लेखन का दबाव अपना असर दिखाते रहे। एक बार वे नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार हुए। नौकरी में रहते हुए ईमानदारी और स्पष्टवादिता का खामियाजा भुगता, एक बार सस्पेंड हुए और प्रमोशन के क्रम में पिछड़ गए। हेनरी मिलर ने लगभग ठीक ही फरमाया है कि दुख की परिस्थितियां ही किसी लेखक को लेखक होने के लिए विवश करती हैं। लिखते हैं तो ज़िंदा हैं, न लिखते तो मर जाते। उन्होंने तब तक छह कविता-संग्रह, बीस व्यंग्य-संग्रह, एक उपन्यास, और बच्चों के लिए दो कथा-संग्रह लिखे थे। ‘उर्दू-हिंदी हास्य-व्यंग्य’ नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ का संपादन भी उन्होंने किया। आठ खण्डों में उनकी रचनावली भी प्रकाश्य थी। इतना कुछ लिखने में उन्होंने कितनी यातना, दुख, पीड़ा और तनाव सहा होगा, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्हें प्रणाम करते हुए यह शेर कहा जा सकता है:

जो तार से निकली है, वह धुन सबने सुनी है,

जो साज़ पे गुजरी है, वो किस दिल को पता है!

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ –  “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

डॉ. वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व  सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

स्व. स्व. महेश महदेल

☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ ☆

☆ “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय

दुनियाभर के ज्ञान और जानकारी को मस्तिष्क के गागर में भरे सामान्य सी कदकाठी और  व्यक्तित्व वाले अत्यंत सरलता, सहजता, सादगी पूर्ण, आडम्बर रहित जीवन यापन करने वाले महेश महदेल जैसे लोगों के लिए ही शायद “सिंपल लिविंग हाई थिंकिंग” जैसे वाक्य लिखे गए होंगें । अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले महदेल जी को शायद ही किसी ने प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान देते सुना होगा, लेकिन जानकार लोग बताते हैं की अल्पभाषी, शान्त प्रकृति के महदेल जी से जब भी, जिस भी विषय पर जानकारी चाही जाती थी वे उसे समय, स्थान आंकड़ों, घटनाओं सहित इतना विस्तार से बताते थे कि घण्टों चर्चा में बीत जाने का भान ही नहीं होता था। मानो सब कुछ सिलसिले बार उनके मन मस्तिष्क पर अंकित हो।

परतंत्र देश में स्वतंत्र ख्यालों वाले आदरणीय महेश जी का जन्म 1942 में गांव रामगढ़ जिला डिंडोरी मध्य प्रदेश में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा के पश्चात उन्होंने जबलपुर के तत्कालीन रॉबर्टसन कॉलेज से शिक्षा पूर्ण की। उनके लिए शानदार वेतन  वाली शासकीय और अशासकीय नौकरियां बाहें फैलाए खड़ी थीं, किंतु ज्ञान पिपासु प्रबुद्ध महदेल जी ने अर्थ (धन ) को महत्व न देकर जीवन के मानवीय मूल्य के अर्थ को ही महत्व दिया । वे जानते थे कि सुख सुविधा और सिद्धांतों के रास्ते अलग अलग होते हैं। जीवनपर्यंत धन-दौलत, सुख-सुविधा, ताम-झाम से दूर रहे । कहा जाता है कि जिम्मेदारियां के बाजार में ऐसा संभव नहीं है किंतु इन सब के बावजूद उन्होंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए भाई-बहनों और परिजनों की मदद की, मार्गदर्शन किया । उन्हें पढ़ाने-लिखाने, स्वावलम्बी बनाने का पूर्ण दायित्व निभाया। आपने अविवाहित रहकर अपना संपूर्ण जीवन पत्रकारिता को समर्पित किया। पत्रकारिता उनके जीवन का हिस्सा बन गई सांध्य दैनिक जबलपुर से पत्रकारिता की प्रारंभ हुई यात्रा हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, देशबंधु आदि अखबारों से होती हुई ‘स्वतंत्र मत’ पर समाप्त हुई। जहां उन्होंने लगभग 20 वर्ष सेवाएं दीं। पत्रकारिता का लंबा और गहरा अनुभव उन्हें रहा। जिस नीर क्षीर परीक्षण विश्लेषण के साथ उन्होंने पत्रकारिता की वह अपने आप में विशिष्ट है। उनकी पत्रकारिता में वस्तुपरकता, तथ्यों की सच्चाई, शुद्धता, नवीनता, अनोखापन होता था। संतुलित,गरिमापूर्ण शब्द, निर्भीकता, निष्पक्षता, उत्कृष्ट अभिव्यक्ति उनकी लेखनी में परिलक्षित होती थी। उनके सहयोगी पत्रकार बताते हैं कि  अखबारों का चाहे अंतरराष्ट्रीय पृष्ठ हो, नगर समाचार का हो, व्यापार या कृषि समाचार का हो, विज्ञापन, सराफा बाजार या खेल का पृष्ठ हो सभी पृष्ठों को व्यवस्थित, सुसज्जित करने में उनका पूर्ण दखल था । उनके लेखन का कमाल उनकी संपादकीय में देखने मिलता था । अत्यंत सारगर्भित, धारदार शब्द, स्पष्टवादिता, रोचकता से भरी संपादकीय दिल पर छाप छोड़ने वाली होती थी । उत्कृष्ट साहित्य संपन्न उपयोगी पुस्तकों की समीक्षा और समालोचना भी उन्होंने बहुत लिखीं। ‘बाल विकास की डिक्शनरी’ के नाम से मेरी पुस्तक ‘मां फिट तो बच्चे हिट’ की उनके द्वारा लिखी समीक्षा भी लोगों द्वारा अत्यंत सराही गई। पत्रकारिता के विभिन्न आयामों को गहराई से जानने समझने वाले भले ही कई हों किंतु उसे सिखाने, बताने और समझाने वाले लोग कम ही होते हैं। उन्होंने अपने साथियों- सहयोगियों को बहुत कुछ सिखाया और अनुकरण हेतु सादगी, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, कर्मठता, कार्य के प्रति जुनून का सबक भी कार्यशीलता से देते रहे। पत्रकारिता में जबरदस्त पैठ रखने के कारण सहयोगी उन्हें “लार्ड” के नाम से पुकारते थे वहीं अगली पीढ़ी उन्हें प्रेम आदर और अपनत्व के साथ कक्काजी कह कर आदर देती थी।

स्वभाव में फक्कड़ माननीय महदेल जी ने कभी संग्रह किया ही नहीं न धन का, न वस्तुओं का और तो और अपने लेखन का भी नहीं । उन्होंने अपनी मर्जी से जीवन जिया और मर्जी से ही जाते-जाते शरीर का दान देकर परोपकार की एक इबारत भी लिख गए।अहम, अहंकार से सैकड़ों कोसों दूर निराभिमानी महेश जी के शब्दकोश में आत्मावंचना, आत्म प्रदर्शन जैसे कोई शब्द ही नहीं थे। अपने चिंतन मनन और कार्य में समर्पित साहित्य प्रेमी महदेल जी साहित्यिक सम्मेलनों,  संगोष्ठियों में इतने सहजता, सादगी और निर्विकार रूप से सम्मिलित होते थे कि किसी का ध्यान उनकी ओर जा ही नहीं पाता था। नेपथ्य में कार्य करने की प्रवृति के कारण उनकी योग्यताओं, प्रतिभाओं को वैसा प्रचार-प्रसार नहीं मिल पाया जिससे वे प्रत्यक्ष रूप से जनसामान्य तक पहुंच सकें । पत्रकारिता के इस शहंशाह के लिए अब  केवल यही कहा जा सकता है..

वह ऊंचे कद का मगर झुक कर चलता था

 जमाना उसके कद का अंदाज न लगा सका।

पत्रकारिता में दधीचि की तरह उनके त्याग-समर्पण को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

हजारों मंजिलें होंगीं हज़ारों कारवां होंगे मगर

ज़माना उनको ढूंढेगा न जाने वो कहाँ होंगे ..।

शत-शत नमन …

डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, चंचलबाई पटेल महिला महाविद्यालय, जबलपुर

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ साहित्य से दोस्ती : विकास नारायण राय ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – साहित्य से दोस्ती : विकास नारायण राय ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

आज एक ऐसे व्यक्तित्व को याद करने जा रहा हूँ, जिन्होंने अपने दम पर ‘ साहित्य से दोस्ती’ जैसी मुहिम चलाई ।इसी के अंतर्गत कभी ‘ प्रेमचंद से दोस्ती’ तो कभी अम्बेडकर, तो कभी छोटूराम से दोस्ती जैसे अभियान चलाये और पूरा हरियाणा नाप दिया, पाट दिया साहित्य से दोस्ती के नाम पर !

इनसे मुलाकात तो हिसार के पुलिस पब्लिक स्कूल में हुई, जब मुझे बच्चों द्वारा लिखित कथा प्रतियोगिता के सम्मान समारोह में छोटी बेटी प्राची के चलते जाना पड़ा और पूरा समारोह ऐसे आयोजित किया गया, जैसे वरिष्ठ लेखकों को पुरस्कार बांटे जा रहे हों ! तभी कुछ कुछ हमारी भी दोस्ती इनसे हो गयी थी । उन दिनों वे करनाल के शायद मधुवन में उच्च पुलिस अधिकारी थे और अपने कड़क स्वभाव के लिए जाने जाते थे लेकिन साहित्य के लिए उनका दिल बहुत ही संवेदनशील था और आज भी है।

साहित्य से दोस्ती से पहले सन् 1992 -1993 के आसपास श्री राय ने ‘साहित्य उपक्रम’ नाम से एक प्रकाशन शुरू किया था और इसके तुरंत बाद ‘साहित्य से दोस्ती’ मुहिम भी चला दी । इसमें प्रेमचंद, भगत सिंह, छोटूराम व अम्बेडकर से दोस्ती जैसे अनेक अभियान चलाये । एक वैन किताबों से भरी चलती थी, जिसमें इनके मिशन के अनुसार सस्ते मूल्य पर अच्छी साहित्यिक किताबें उपलब्ध रहती थीं। जैसे कभी एनबीटी और रुसी साहित्य की पुस्तकें आसानी से मिलती थीं ।

आखिर ऐसा अभियान क्या चलाया ?

हमारे समय में कितनी ही समस्याएं हैं , जैसे कन्या भ्रूण हत्या, साम्प्रदायिक और प्रकृति को बचाने जैसी अनेक समस्याएं हैं ओर नयी पीढ़ी को इनके प्रति संवेदनशील बनाना ही इन दोस्तियों का मूल उद्देश्य रहा और आज भी है। किताबें आम आदमी की पाॅकेट को देखकर ही प्रकाशित की जानी चाहिएं और उपलब्ध होनी चाहिएं।

जब इनसे करनाल के पाश पुस्तकलय के बारे में पूछा तब श्री राय ने बताया कि आतंकवाद के दौरान हरियाणा पुलिस के दो अधिकारी और दो सिपाही पटियाला में शहीद हो गये थे । इनकी स्मृति में यह विचार चला कि या तो अस्पताल बनाया जाये या फिर पुस्तकालय ! आखिरकार फेसला पाश पुस्तकालय बनाने का हुआ ।  बहुत संवेदना और भाव से यह पुस्तकालय बनाया गया लेकिन समय के साथ साथ इसकी उपयोगिता पर सवाल उठे और आखिरकार इसे बंद कर दिया गया पर इससे हमारा अभियान खत्म नहीं हुआ । ‘साहित्य उपक्रम’ प्रकाशन आज भी चल रहा है ! आजकल श्री राय फरीदाबाद रहते हैं और वही कुछ न कुछ लिखते पढ़ते रहते हैं। यह साहित्य से दोस्ती पता नहीं हरियाणा में कितने लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम करती आ रही है ! यह दोस्ती ज़िदाबाद ! लोगों के बीच किताबें लेकर जाते रहेंगे ! यह विश्वास दिलाते हैं वी एन राय ने ताकि बच्चे अपने समाज और अपनी समस्याएं को समझ सकें!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Memoirs ☆ दस्तावेज़ # 19 – My Beloved Chemistry Teacher: Brother Frederick ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆ 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(This is an effort to preserve old invaluable and historical memories through e-abhivyakti’s “दस्तावेज़” series. In the words of Shri Jagat Singh Bisht Ji – “The present is being recorded on the Internet in some form or the other. But some earlier memories related to parents, grandparents, their lifetime achievements are slowly fading and getting forgotten. It is our responsibility to document them in time. Our generation can do this else nobody will know the history and everything will be forgotten.”

In the next part of this series, we present a memoir by Shri Jagat Singh Bisht Ji My Beloved Chemistry Teacher: Brother Frederick.“)

☆ दस्तावेज़ # 19 – My Beloved Chemistry Teacher: Brother Frederick ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆ 

(A tribute to my beloved Chemistry teacher Bro Frederick.)

Positive psychologists Ed Diener and Robert Biswas-Diener wisely observed, “Happiness does not just exist in the present but also can be drawn from past events. Try savouring past successes, enjoyable experiences, and other golden memories by making a habit out of looking at memorabilia or trading stories with a spouse or friends.” Indeed, it is in moments of reflection that we realise how profoundly the past shapes our present.

(Brother Frederick is sitting in the first row at the extreme right. Brother John Bosco is sitting third from left in the first row.)

As I sift through the sands of memory, one golden figure stands out like a lighthouse on a dark shore—my Chemistry teacher, Brother Frederick. With unwavering gratitude, I recall how he influenced not just my education, but my entire life’s trajectory. His blessings, teachings, and unflinching faith in my potential continue to resonate, even after more than fifty years.

The Alchemy of Inspiration

My journey with Chemistry began in the sunlit corridors of St. Gabriel’s Higher Secondary School, Ranjhi, Jabalpur. The school, nestled beyond the church that bridged two educational institutions, was where my childhood dreams took flight. Among the myriad faces of teachers who guided us, it was Brother Frederick who left an indelible mark on my heart.

(My picture clicked, developed and printed by Bro Frederick in the photography club at school founded by him.)

A man of science and magic, he believed in making lessons come alive. Theory was never enough for him; he transformed Chemistry into a fascinating spectacle. I vividly remember the fete he organised, where he performed “scientific magic” that left us spellbound. Imagine this—a tub of water bursting into flames when pebbles were tossed in; jars of colourless liquid transforming into brilliant pink before fading back into clarity; and a tap seemingly suspended in mid-air, pouring water from nowhere!

It was more than just entertainment; it was a masterclass in sparking curiosity. Inspired by his passion, I pursued Chemistry all the way to a master’s degree and even embarked on research. It was his infectious enthusiasm that kindled this fire in me.

A Life Beyond the Laboratory

Brother Frederick’s influence extended far beyond the confines of the Chemistry lab. He nurtured a love for practical learning. We set up a science club, a magic club, and a photography club under his guidance. Together, we assembled telescopes, crafted small radio transmitters, and even devised substitutes for complex laboratory equipment like the Kipp’s apparatus.

I had the privilege of assisting him in the laboratory, an experience that deepened my respect for his meticulous nature. When he was transferred from Jabalpur to Patna, I joined a group of students at the railway station to bid him farewell. As the train began to move, I ran alongside it, waving madly with tears streaming down my face. That moment remains etched in my memory—a poignant farewell to a teacher who was more like a guardian angel.

A Scholar and a Gentleman

Brother Frederick was a man of immense resolve. Even as he approached middle age, he enrolled for a master’s degree in English literature, delving into the works of Keats, Shelley, Byron, and Dickens with the same fervour he showed in the laboratory. His dedication to lifelong learning was a lesson in itself.

I fondly recall how he encouraged my thirst for knowledge. When the school library received a shipment of books from Canada, students were allowed to choose two books each. I couldn’t resist picking five, and he graciously let me take them all, confident that I would make good use of them.

A Touching Reunion

Years later, in 1976, I returned to St. Gabriel’s as a Chemistry teacher. Walking into the same laboratory that Brother Frederick had so lovingly set up was surreal. I taught my students with the same passion and curiosity that he had instilled in me, and those three years remain the most fulfilling chapter of my professional life.

On one occasion, I took students on an educational trip to Patna and Kathmandu. When we arrived at Loyola School in Patna, where Brother Frederick was then posted, he rushed out to meet us. Ignoring everyone else, he called out excitedly, “Where is Jagat? Where is Jagat?” That moment was a testament to the bond we shared—a bond that time and distance could not diminish.

A Legacy of Love

In 2005, some of us from the Class of 1971 revisited our alma mater. The school welcomed us with a cultural programme and even organised a cricket match. At this reunion, I learned from the Brother Principal that Brother Frederick had passed away. The news hit me hard, but in my heart, he remains alive—his wisdom and kindness still guide me whenever life feels uncertain.

For me, Brother Frederick was more than a teacher. He was an alchemist who turned Chemistry into a way of life, a magician who made science enchanting, and a mentor who believed in the power of dreams. His lessons went far beyond the periodic table; they were about curiosity, resilience, and the joy of lifelong learning.

Even now, when I think of him, I see a gentle figure in the lab, patiently explaining concepts, his eyes twinkling with passion. And I smile, knowing that his legacy lives on—not just in me, but in every student whose life he touched.

♥♥♥♥

© Jagat Singh Bisht 

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

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≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 18 – स्व अटल बिहारी बाजपेयी जी का सानिध्य, मेरे जीवन का अविस्मरणीय क्षण – श्री रामदेव धुरंधर ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ जी का एक शोधपरक दस्तावेज़ “स्व अटल बिहारी बाजपेयी जी का सानिध्य, मेरे जीवन का अविस्मरणीय क्षण – श्री रामदेव धुरंधर “।) 

☆  दस्तावेज़ # 18 – स्व अटल बिहारी बाजपेयी जी का सानिध्य, मेरे जीवन का अविस्मरणीय क्षण – श्री रामदेव धुरंधर ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

(माँ सरस्वती के आराधन पर्व बसंत पंचमी के अवसर पर माँ वाणी के कृपापात्र प्रख्यात हिंदी साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी (मारिशस) के साथ फोन पर हुई एक वार्ता पर आधारित )

चलिए राजेश जी ! आपसे कुछ बात कर लेते हैं l आप वाराणसी गए थे? कैसी रही आपकी यात्रा? और कवि जयशंकर प्रसाद जी के कार्यक्रम में तो आपको बहुत सारे लोग पहचान गए होंगे l ऐसा कहते — कहते धुरंधर जी ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण एवं आकर्षक संस्मरण मुझे सुना दिया l शायद रामदेव धुरंधर जी यह नहीं समझ पा रहे थे कि मैं उनसे जो बात कर रहा हूँ, वह उनके जीवन से जुड़ा बेशकीमती संस्मरण है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है l अब इस विषय में कहना ही क्या है l जब एक महापुरुष एक महामानव के विषय में कुछ कहने लगे तो, तो कैसा महसूस होता है, ज़रा यह संस्मरण सुनाने वाले से आप भी सुनिए  – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’)

श्री रामदेव धुरंधर जी ने कहा कि मेरा घर तो गांव में थाl उम्र 25 – 30 की होगी। हिंदी से मुझे बहुत प्रेम था और मैंने हिंदी में लिखना शुरू कर दिया थाl उम्र कम थी तो बहुत ही हिचकिचाहट और संकोच भी होता था l खैर जो बात आज मैं आपको बताने जा रहा हूं इसे आप सुनिए l मैं सोमदत्त बखोरी जी से बात शुरु करता हूँ। यह बात करते – करते समझिये कि मैं और गहराई में प्रवेश करता जाऊँगा। सोमदत्त बखोरी जी हिंदी के अच्छे साहित्यकार थे l इसके साथ-साथ वे हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जी के बड़े नजदीकी भी थे और उनका राजनैतिक कद भी काफी ऊंचा था l वे राजधानी पोर्ट लुईस के नगर सचिव भी थे l”

श्री सोमदत्त बखोरी जी उन दिनों लॉन्ग माऊँटेन हिंदी भवन के उप प्रधान थे। लॉन्ग माऊँटेन को धारा नगरी भी कहा जाता था। यह हिन्दी से प्रेरित नाम था। मैंने धारा नगरी अर्थात लॉन्ग माऊँटेन हिंदी भवन में हिन्दी की अपनी अच्छी खासी पढ़ाई की है।

श्री रामदेव धुरंधर 

यहां पर मैं धुरंधर जी के संस्मरण आलेख को रोकता हूं और आपसे अपनी एक बात बताना चाहता हूं l धुरंधर जी ने जब मुझे श्री सोमदत्त बखोरी जी की बात की l उनका नाम लिया, तो मुझे आदरणीया डॉ.नूतन पाण्डेय जी ( सहायक निदेशक केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली ) द्वारा अपने आवास पर भेंट की गई एक पुस्तक “मारिशसीय हिंदी नाटक साहित्य और सोमदत्त बखोरी “ की न सिर्फ याद ताजा हो गई बल्कि उसके प्रति पृष्ठ पर पूर्व प्रधानमंत्री श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेई की पुस्तक भेंट करती हुई, तस्वीर भी याद आ गयी “

अब मैं इस संस्मरण आलेख को आगे बढ़ाता हूं। धुरंधर जी का यह संस्मरण भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्रद्धेय अटल बिहारी बाजपेई से संबंधित है। धुरंधर जी ने कहा अटल बिहारी जी यहाँ सरकारी मेहमान थे। सरकारी बात तो सरकारी स्तर पर हुई होगी। मैं यहाँ अटल जी के हिन्दी – प्रेम के बारे में आपसे बोल रहा हूँ। हिन्दी के प्रति उनका प्रेम मानो पग पग पर छलक आता था। आपको बता दूँ हिन्दी में उनका पहला कार्यक्रम लोंग माऊँटेन के हिन्दी भवन में हुआ था। तब अटल जी भारत में विरोधी दल के नेता थे। पर यहाँ की सरकार ने उन्हें आमंत्रित किया था। हिन्दी भवन के अध्यक्ष ने कुछ संकोच से कहा आप तो वहाँ विरोधी दल से हैं। अटल जी ने यह बात पकड़ ली थी। उन्होंने जब भाषण शुरु किया तो ‘दल’ शब्द पर बहुत बल दिया। उन्होंने कहा भारत में इतने दल हैं कि मैं क्या कहूँ समझिये कि सभी दल तो बस दल दल में फँसे हुए हैं। उनकी इस बात पर खूब हँसी गूँजी थी। निस्सन्देह हिन्दी में तो उन्होंने बहुत प्यारा भाषण दिया था। श्री अटल बिहारी वाजपेई जी को मॉरिशस में सुनने पर मैंने जाना वे हिन्दी में बड़ी रुचि रखते थे। राजेश जी, वाकई उनके बोलने का अंदाज और हिंदी के प्रति उनका लगाव मेरे लिए अप्रतिम था। उनकी एक अदा थी बोलते — बोलते वे रुक जाते थे। उनकी आँखें बंद रहती थीं। वे नये सिरे से बोलना शुरु करते थे तो मानो हिन्दी में मधुर सी फुहारें झड़ रही हों।

अटल जी तो यहाँ बहुत कम समय के हमारे मेहमान थे। बखोरी जी ने हिन्दी भवन में कहा था अटल जी के सान्निध्य का लाभ उठाने की आकाँक्षा से वे अपने आवास पर एक साहित्यिक गोष्ठी रख रहे हैं। लोग आएँ तो उन्हें खुशी होगी। मैं जाता। इस वक्त कहने से मुझे संकोच नहीं पैसे की दृष्टि से मेरी हालत कमजोर थी। गोष्ठी शाम के तीन बजे रखी जा रही थी। जाहिर था शाम हो जाती। हमारे यहाँ शाम के छह सात के बीच बसों का चलना बंद हो जाता है। यदि वहाँ शाम हो जाती तो मुझे टैक्सी ले कर घर लौटना पड़ता। पैसा तो दो सौ तक जाता। पर मैंने एक तरह से खतरा मोल लिया था। अटल जी के साथ एक संगोष्ठी में बैठना शायद मेरा जुनून हो गया हो। वह शायद मेरी हिन्दी थी और उसके लिए मैं जीवट के साथ तैयार था। गोष्ठी तीन बजे थी तो मुझे घर से तीन घंटे आगे निकलना पड़ता जो मैंने किया था। मैं बस से पोर्ट लुईस पहुँचा। वहाँ से चल कर बखोरी जी के आवास पहुँचने के लिए आधा घंटा लग सकता था। वहाँ बस जाती नहीं थी। मैं टैक्सी ले कर जाता तो पर्याप्त पैसा लगता और जैसा कि मैंने कहा मैं पैसे के मामले में तो मैं बहुत कमजोर था।

मैं सार संकेत से सोमदत्त बखोरी जी का आवास तो जानता था, लेकिन मुझे अपने पैरों से चल कर वहाँ पहुँचना था। उनका आवास पोर्ट लुईस के किनारे में पर्वत की तराई पर था। पर्वत तो दूर से दिख जाता, लेकिन वहाँ बखोरी जी का आवास कहाँ हो यह ठीक – ठीक जानना मेरे लिए कठिन तो होता। पर देश की राजधानी पोर्ट लुईस में मुझे परेशानी होती भी नहीं। एक रास्ता पर्वत की ओर जाता था। मैंने खड़ा हो कर मानो उसका अध्ययन किया और लगे हाथ लोगों से पूछ लिया बखोरी जी का आवास जानते हों तो मुझे बताएँ। मुझे याद है एक आदमी ने मुझे ठीक से बताया था। मेरा काम अब तो बहुत आसान हो गया था। पर्वत से सटे हुए उस रास्ते में वाहन न के बराबर चलते थे। सहसा मुझे पीछे वाहन की आवाज सुनाई दी। मैं किनारे में हट गया। वह एक मोटर थी। कुछ आगे जाने पर मोटर रुक गयी। मैं मोटर तक पहुँचा तो भीतर से आवाज आई आइए धुरंधर जी। यह श्री अटल बिहारी बाजपेयी की आवाज थी। मैं चौंक पड़ा। इसका मतलब हुआ हिन्दी भवन में कार्यक्रम के बाद चाय के अंतर्गत आत्मीय बातचीत के अंतर्गत मित्रों की ओर से मेरा नाम लिया जाना काम आया था। राजेश जी, इस वक्त आपसे कहते मैं गर्व अनुभव कर रहा हूँ अटल जी ने मुझसे कहा था धुरंधर तो मेरा बहुत प्यारा नाम है। मोटर वाली बात आपसे कहता हूँ। अटल जी मोटर की पिछली सीट पर थे। वे एक किनारे में हट गए और मुझे अपने पास बैठने का इशारा कर दिया। मोटर बी. एम. डाब्लियू थी। ड्राइवर ने कृओल में मुझसे कहा था उ एन ग्राँ जीमून [अर्थात आप बहुत बड़े आदमी हैं] ड्राइवर के कथन का सार तत्व था। अटल जी के साथ मैं बैठा हुआ रामदेव धुरंधर उस वक्त सचमुच बड़ा था। उन दिनों के मॉरिशस के सब से महंगे होटल में अटल जी को ठहराया गया था। होटल ग्राँबे में था और उसका नाम पॉल्म बीछ था।

अटल जी ने मुझे बताया उन्होंने आज उन्होंने दिन में एक कविता लिखी है। वे वह कविता संगोष्ठी में सुनाएँगे। पर उन्होंने तो तत्काल मेरे लिए वह कविता पढ़ दी। मैंने अपना यह संस्मरण पहले भी लिखा है। वह कविता मुझे याद भी थी। पर अभी केवल मैं कविता का भाव कह पाऊँगा। वह कविता बहुत मशहूर हुई थी। धर्मयुग में यह छपी थी। जहाँ तक मैं जानता हूँ इस कविता को अटल जी की श्रेष्ठ कविताओं में एक माना गया है। कविता लिफाफा और पत्र पर आधारित है। शायद वह इस तरह से है लिफाफा चाहे कितना सुन्दर हो, लेकिन पत्र को पाने के लिए उसे तो फाड़ा ही जाता है।

इस बात पर आता हूँ मुझे अटल जी के साथ मोटर में बैठने का अवसर मिल गया। पर मैं तो लोगों से रास्ता पूछ कर बखोरी जी के घर जा रहा था। अब तो मुझे किसी से रास्ता पूछना नहीं था l मैं अटल जी के साथ मोटर में बैठकर बखोरी जी के घर पहुंचा l इस वक्त आपको यह बताते मुझे हँसी भी आ रही है। मैं भी मोटर से उतरा था जो एक असंभव प्रक्रिया थी। वहाँ अटल जी उतरे तो क्या पूछना, बखोरी जी, उनकी पत्नी और हिन्दी प्रेमियों ने मिलकर उनका स्वागत किया l

बखोरी जी वकील थे, नगर सचिव थे, लेकिन स्वयं में हिन्दी भी थे। उनकी बहुत कृपा है मुझ पर। भारत में मेरी कहानी छपना धर्मयुग से शुरु हुआ। संपादक थे डा. धर्मवीर भारती। यहाँ बखोरी जी ने अनुराग पत्रिका में मेरी पहली कहानी छापी और यह एक सिलसिला बन गया था।

संगोष्ठी आरंभ होने पर धाराप्रवाह चलती रही। बहुत कम लोग थे। सब को सुनाने का मौका मिला था। अटल जी ने शुरु करने पर मेरा नाम लिया और कहा भी हम मोटर में आ रहे थे तो उन्होंने आज की लिखी हुई अपनी कविता मुझे सुनायी।

मैं अपनी बात यहाँ कर रहा हूँ उस तरह के आलीशान घर में बैठने का मेरा पहला अवसर था। चाय की बात तो इस तरह से थी शक्कर अलग तो दूध अलग। बैठने पर सावधान रहें बैठना ही है तो ठीक से बैठें। जरूर मेरे मन में चल रहा हो मैं हिन्दी जानता हूँ और इस भाषा में लिखना शुरु किया है यही मुझे इस ऊँचाई पर पहुँचा रहा है।

राजेश जी, यह संस्मरण तो मैं आपको और विस्तार से सुना सकता हूँ। इसे किसी और दिन के लिए छोड़ते हैं। अभी मुझे बड़ी ही भाव प्रवणता से याद आ रहा है उस दिन गोष्ठी में कौन – कौन लोग थे। दो चार नाम मैं ले रहा हूँ गुरु जी रविशंकर कौलेसर, नारायणपत्त दसोई, कितारत, रोगेन [अच्छी हिन्दी जानने वाले तमिल] दीपचंद बिहारी, लक्ष्मीप्रसाद मंगरू, बेनीमाधव रामखेलावन, भानुमती नागदान। ये गुजराती महिला थीं। मैंने इन्हें जीवन पर्यंत हिन्दी की लेखिका के रूप में ही जाना। आश्चर्य ही कहें भानुमती नागदान ही एक महिला हुईं जिन्होंने यहाँ हिन्दी लेखन में खास प्रतिष्ठा अर्जित की है।

राजेश जी, मैं अंत में दुख से आपको बताता हूँ जितने नाम मैंने आपको सुनाये इनमें से आज एक भी जीवित नहीं है। दो साल हुए बखोरी जी की शताब्दी मनायी गयी। मंगरू जी लगभग सौ साल में दिवंगत हुए। कौलेसर और मंगरू हिन्दी के मेरे गुरु थे। अब अपने बारे में कह लूँ। आपको यह सुनाने के लिए मैं जीवित रह गया हूँ। मेरी उम्र इनसे तो बहुत कम है, लेकिन मेरा एक स्वाभिमान भी है अपने से बड़े इन लोगो के साथ मैंने उठ — बैठ का रिश्ता बनाया था। बल्कि इन लोगों ने मुझे सुना है और दाद दी है।

अपने इन बडों को मेरा नमन। अटल बिहारी बाजपेयी जी को मेरा पूज्य भाव समर्पित।

राजेश जी, मुझ लगता है मैंने आपको अपना एक दमदार संस्मरण सुनाया। जरूर आपको अच्छा लगा होगाl आपके बारे में कहता हूँ आप लिखते रहिए.. लिखते रहिए. आपको राह में ऐसे ही अच्छे-अच्छे लोग मिल जायेगें l धीरे-धीरे आपकी अपनी अच्छी पहचान हो जाएगी बल्कि पहचान तो हो ही गई है l गंगा की धारा बह रही है l उस धारा में आपको डुबकी लगानी है l डुबकी लगाएंगे तो कुछ ना कुछ तो पाएंगे ही। गंगा जी भी चाहती हों कि उनकी धारा में आप डुबकी लगाएँ और डूबकी लगाने का आपका सौभाग्य तो है ही l आप कोशिश करेंगे तो हो ही जाएगा।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

माघ, शुक्ल पक्ष पंचमी

दिनांक : 02-02-2025, रविवार ( बसंत पंचमी )

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर

श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर मध्य प्रदेश के कटनी नगर के प्रतिष्ठित कवि एवं लेखक हैं । आप शासकीय सेवा से निवृत्त होने के उपरान्त अपना पूरा समय साहित्य, कला, संस्कृति को दे रहे हैं । यों तो नगर की समस्त साहित्यिक संस्थाओं में आपकी सक्रिय भागीदारी रहती है तथापि आप इंटेक कटनी चेप्टर में को कन्वीनर हैं । इनकी पुस्तक “ठाकुर राजेंद्र सिंह के बालगीत” काफी चर्चित रही । राजेंद्र सिंह जी कटनी क्षेत्र के पुरातत्व महत्व के क्षेत्रों सहित कटनी नगर की विरासत पर महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं ।

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व ““कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

 

स्व. खुइया मामा

☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ ☆

☆ “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर 

कटनी शहर से 15 कि. मी. के फासले पर बिलहरी नामक क़स्बा है। यहाँ बौद्ध, जैन, कल्चुरी जैसे विभिन्न इतिहास काल के प्रचुर पुरा अवशेष पुरातत्व विभाग के संरक्षण में आज भी देखे जाते हैं। लोककथाओं, दंतकथाओं में कहा जाता है कि वर्तमान बिलहरी में कभी कर्णदेव नामक एक राजा थे। वह प्रतिदिन अपनी देवी की पूजा करते और खौलते तेल के कड़ाह में कूद कर स्वयं को देवी मां को समर्पित कर देते। प्रसन्न होकर देवी उन्हें पुनः जीवित कर सवा मन सोना देती थीं। आत्म बलिदान से प्राप्त धन को राजा प्रतिदिन गरीबों में बाँट देते थे।

कटनी के लोगों ने राजा कर्णदेव को तो नहीं देखा, किन्तु सन 1930 – 1980 के दौरान शहर में दान परंपरा के एक अन्य सामान्य पुरुष को देखा है, जिन्हें कटनी ही नहीं अन्य शहरों के लोग भी खुइया मामा के नाम से जानते थे, ये कटनी रेलवे स्टेशन के सामने एक पान दुकान का संचालन करते थे। इन्होंने एक छोटी सी दुकान से अर्जित कमाई से अपने जीवन में गरीबों को जो दान दिया वह आज के मूल्य के अनुसार करोड़ों रुपयों का होगा।

कटनी शहर का अस्तित्व सन 1867 में अंग्रेजों द्वारा मुड़वारा नामक छोटे से गाँव से कुछ दूर रेल स्टेशन स्थापित किये जाने से आया। धीरे धीरे अन्य शहरों के अमीर – गरीब जीविका की तलाश में यहाँ आकर बसने लगे। ऐसे ही लोगों में एक थे अग्रवाल परिवार के खुइया मामा जो चित्रकूट के निकट एक गांव से आकर कटनी में बस गए और रेलवे स्टेशन के बाहर पान दुकान का संचालन करने लगे। उस समय तक शहर इतना अधिक विकसित नहीं था। स्टेशन के पास ही कुछ चाय पान की दुकान थीं और वहां से बस्ती के बीच सूनापन रहता था। छह सवा छह फुट ऊँचे, पहलवानी कद काठी वाले मानवीय गुणों से ओतप्रोत खुइया मामा दबंग स्वभाव के थे। ये यात्रियों का उदार भाव से सहयोग भी करते थे। आपकी दुकान यात्रियों को सुरक्षा के प्रति आश्वस्त भी कराती थी। बाहर के यात्रियों के लिये आपकी दुकान एक तरह से अमानती सामान गृह एवं पूछताछ केंद्र की तरह भी थी। जिस समय अन्य दुकानों में पाँच पैसे का एक पान मिलता था, वहीँ आपकी दुकान में पांच पैसे में दो यानि जोड़ी से पान मिलते थे। अकेली पान दुकान एवं उदार स्वभाव होने के कारण आपका कारोबार चल निकला।

खुइया मामा की एक पुत्री थी जो वाक्यों का उच्चारण नहीं कर पाती थी। अतः उसके जीवन के प्रति उनके अंतर्मन में नमीं बनी रहती थी। खुइया मामा  दोपहर का भोजन करने रिक्शे में बैठकर  दुकान से घर को जाते थे। उस समय उनके साथ दुकान में अर्जित फुटकर सिक्कों की एक पोटली होती थी। कुर्ते के जेब में भी सिक्के भरे होते थे। जिन्हें राह में मिलने वाले गरीब याचकों को बांटते चलते थे। यह उनका नित्य नियम था। दो पैसे की आस में भिखारी और गरीब लोग उनके दुकान से चलने के पूर्व से ही वहां झुंड बनाकर एकत्र हो जाते थे। रास्ते में भी लोग उनके इंतजार में खड़े रहते थे और जब घर पहुंचते तो वहां भी पैसे पाने वालों का हुजूम उनके स्वागत में खड़ा मिलता था। खुइया मामा पैसों की पोटली या जेब से सिक्का निकाल कर सभी को देते चलते थे। कभी कभी तो उनकी पोटली खाली भी हो जाती थी। उनका यह नियम कोई तीस चालीस साल तक अनवरत चलता रहा। इस तरह खुइया मामा ने पान की दुकान से कमाए पैसों का एक बड़ा भाग नित्य के दान पुण्य में खर्च किया। उक्त राशि को बचाकर यदि उन्होंने मकान, जमीन खरीद कर रखे होते तो निश्चय ही आज उनका बाजार मूल्य करोड़ों रुपये में होता।

खुइया मामा की एक आदत और थी, जब चाहे वे पानी में फूले चने तलवा लेते, रसगुल्ला बनवा लेते और उसे आसपास के लोगों में वितरित करवाते। लोग छक कर खाते और आनंद मनाते।

गीता प्रेस गोरखपुर की धार्मिक पुस्तकें जिन्हें बेचने से कोई आर्थिक लाभ नहीं होता, इन्हें भी विक्रय के लिए खुइया मामा अपनी दुकान में उपलब्ध कराते थे। उस समय कटनी शहर में गीता प्रेस की पुस्तकों वाली यह अकेली दुकान होती थी, जहाँ से केवल स्थानीय लोग ही नहीं बल्कि अन्य शहरों के लोग भी पुस्तक खरीदने आते थे। सन 1984 में कटनी शहर के इस अनोखे दानवीर ने निर्वाण प्राप्त किया। वर्तमान में आपकी दुकान यद्यपि अपने पूर्व स्थान में नहीं रह गई है, किन्तु स्टेशन के सामने ही अन्य स्थान पर आपके पौत्र खुइया मामा पान भंडार का संचालन आज भी कर रहे हैं।

© श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर

कटनी (म. प्र.)

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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