English Literature – Memoir ☆ दस्तावेज़ # 25 – The Alchemy of becoming ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆ 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(This is an effort to preserve old invaluable and historical memories through e-abhivyakti’s “दस्तावेज़” series. In the words of Shri Jagat Singh Bisht Ji – “The present is being recorded on the Internet in some form or the other. But some earlier memories related to parents, grandparents, their lifetime achievements are slowly fading and getting forgotten. It is our responsibility to document them in time. Our generation can do this else nobody will know the history and everything will be forgotten.”

In the next part of this series, we present a memoir by Shri Jagat Singh Bisht Ji The Alchemy of becoming.“)

☆ दस्तावेज़ # 25 – The Alchemy of becoming ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆

As I sit quietly today, looking back at the journey I have lived, I see life not as a straight line but as a river—sometimes placid, sometimes tumultuous—always flowing. At a distance, it may appear a seamless continuum, but if you wade into its waters with care, you notice the whirlpools and tributaries, the rocks and banks, the many confluences that shaped the course. My own life has followed such a river’s path—like the Ganga, shaped by many turns, contributions, and inner transformations.

Like the holy Bhagirathi emerging from the Gangotri glacier, I too had a modest beginning. I was born in Ranjhi, a quiet suburb of the then sleepy town of Jabalpur. My early years flowed gently, in a world bounded by simplicity and schoolbooks, unaware of the larger world waiting beyond the next bend.

At sixteen, a turning point came—like the Bhagirathi meeting the Alaknanda at Devprayag and becoming the Ganga. It was my encounter with Brother Frederick, my Chemistry teacher and mentor, who first recognised the spark within me. He urged me to appear for the National Science Talent Search Examination, saying with conviction, “You have it in you.” His words became a catalyst, and when I secured a national ranking, my life took a decisive turn.

That achievement opened doors I hadn’t imagined—summer schools in Jaipur, Chennai, and Mumbai, rubbing shoulders with brilliant minds like Arunava Gupta, Pradip Mitra, and Rajiv Joshi. I began to see the world through the lens of science, logic, and curiosity. It was a time of identity formation—a scholar in the making.

But the river does not always follow the course we expect. Life, with its own currents, steered me into banking—a practical harbour for livelihood. Yet even there, destiny had something rich in store. I was selected to be a Behavioural Science Trainer. This was no ordinary role; it was a calling. The faculty at State Bank Staff College—Ravi Mohanty, Srinivasan Raghunath, and Santanu Banerjee—were not merely teachers; they were alchemists.

If my early years were a gentle river, this was the blast furnace stage of life. I was the raw iron ore—unshaped, full of potential—and they smelted me, transformed me, refined me. Alongside my dear colleagues Raghu Shetty and Prakash Divekar, I emerged stronger, sharper—like forged steel. It wasn’t just a change of skill but a transformation of being.

I conducted sessions on self-awareness, relationships, emotional intelligence—helping bank staff serve not just with efficiency but with empathy. But in teaching others, I learned the most about myself. My inner self, once a quiet stream, now bubbled with awareness, reflection, and the heat of change.

That transformation created a bridge to the next big chapter—my deep dive into the science of happiness and well-being. Positive Psychology gave me a new language to understand joy, fulfilment, and human potential. It reoriented my compass from achievement to meaning.

As retirement approached, one might think the river would slow. But rivers are strange—they gather force before meeting the sea. My wife and I became Laughter Yoga Master Trainers, mentored by the joyful duo Dr Madan and Madhuri Kataria. We found in laughter not just therapy but a sacred connection with others. It was like the Sangam at Prayagraj—where Ganga, Yamuna, and the invisible Saraswati meet. We were becoming whole.

Adding yoga and meditation to our lives, we were no longer just flowing—we were now merging with the ocean, carrying with us the essence of every experience, every person who shaped us, every soul we touched.

Looking back, it is clear—no achievement stands alone. Each is a ripple that causes another, building towards a life well-lived. From a curious boy in Ranjhi to a torchbearer of emotional intelligence and laughter, the river of my life has flowed through many lands. It has nurtured me, challenged me, and above all, made me more human.

Like Ganga, I hope I’ve left a trail of nourishment behind—and like the blast furnace, I hope I’ve emerged not just stronger, but purer.

Life is good. Life is meaningful. And if lived with awareness, even its small achievements can shape something truly vast.

♥♥♥♥

© Jagat Singh Bisht 

Laughter Yoga Master Trainer

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≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 24 – खजुराहो नृत्य उत्सव/KHAJURAHO DANCE FESTIVAL – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ खजुराहो नृत्य उत्सव/KHAJURAHO DANCE FESTIVAL।) 

☆  दस्तावेज़ # 24 – खजुराहो नृत्य उत्सव ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

कुछ स्मृतियाँ ओस की बूंदों की तरह होती हैं — चुपचाप मन के किसी कोने में झिलमिलाती रहती हैं, जब समय बहुत दूर निकल चुका होता है। वर्ष था 1986। मेरी पदस्थी पन्ना में थी — वह नगर जो अपने हीरों के लिए प्रसिद्ध है, जहां लोग पूरी ज़िंदगी बिता देते हैं धरती के नीचे कुछ चमकते कणों की तलाश में, पर जिनके हिस्से वह आता है, वे वाक़ई किस्मत वाले होते हैं। लेकिन उस वसंत ऋतु में, मेरी पत्नी और मैंने एक अलग ही किस्म का हीरा खोजा — जो न मिट्टी में था, न आकाश में, बल्कि खजुराहो की खुली हवा, मंदिरों की पृष्ठभूमि और नृत्य की थापों में दमक रहा था।

हम दोपहिया वाहन पर निकले थे — पन्ना से खजुराहो की ओर, हवा हमारे चेहरे को सहला रही थी और मन में एक अजीब सी उत्सुकता थी। रास्ते में मड़ला में — जो आज पन्ना नेशनल पार्क का प्रवेश द्वार है — एक ढाबे पर रुके। ढाबे के मालिक ने चाय परोसी और बड़ी नम्रता से बताया कि इलाके में एक बाघ घूम रहा है, और इस रास्ते पर दोपहिया वाहन से जाना सुरक्षित नहीं है। हम मुस्कुरा दिए — थोड़े चिंतित, पर ज्यादा रोमांचित। जैसे जंगल ने हमारी यात्रा को एक रहस्यमयी प्रस्तावना दे दी हो।

खजुराहो — मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले का वह नगर, जहां पत्थर भी कविताएं कहते हैं। हिंदू और जैन मंदिरों का यह समूह, जो अब विश्व धरोहर घोषित हो चुका है, उस वर्ष पहली बार यूनेस्को की सूची में शामिल हुआ था। और उसी वर्ष मार्च में, इन मंदिरों की गोद में आयोजित खजुराहो नृत्य महोत्सव का आंनद लेने हम पहुंचे। यह एक ऐसा उत्सव था जहां दुनिया भर के शास्त्रीय नृत्यकला के साधक इकट्ठा हुए थे।

यह मेरे सहकर्मी राम विलास कटारे की कृपा थी, जो उस समय खजुराहो में ही पदस्थ थे, कि हमें वहां तीन दिन रुकने और महोत्सव में भाग लेने का सौभाग्य मिला। राम विलास ने बाद में बैंक की नौकरी छोड़कर ग्वालियर में उद्योग की दुनिया में अपनी पहचान बनाई, लेकिन उन दिनों हम सब बस कला प्रेमी थे — मंच के सामने बैठे, मंत्रमुग्ध दर्शक।

महोत्सव की प्रथम संध्या में मंच पर थीं — संजुक्ता पाणिग्रही। ओडिसी नृत्य की यह नृत्यांगना अपने संगीतकार पति के साथ मंच पर आईं। उनकी प्रस्तुति जादुई थी — नृत्य और अभिनय का ऐसा संगम कि हर भाव, हर मुद्रा, हर अभिनय एक प्रार्थना लगने लगे। गीत गोविंद की भक्ति से लेकर सूरदास की पदावली, तुलसी के चौपाई, विद्यापति की सौंदर्यरस और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सूक्ष्मता — सब कुछ जैसे सजीव हो उठा। संजुक्ता जी की भंगिमा में कहीं लोकनाट्य ‘जात्रा’ की झलक थी, तो कहीं आत्मा की पुकार।

दूसरे दिन सुबह दूरदर्शन की टीम ने मंदिर परिसर में पिछली रात की प्रस्तुति का पुनः फिल्मांकन किया। संजुक्ता जी का साक्षात्कार लिया गया, जिसमें साधना श्रीवास्तव ने ओडिसी नृत्य के भाव और सौंदर्य को सुलझे हुए प्रश्नों से उद्घाटित किया। हम सौभाग्यशाली थे कि इतने निकट से इस अनुभव के साक्षी बन पाए।

दोपहर को होटल चंदेला में भोजन का आयोजन था। वहां परोसे गए व्यंजनों की सुगंध — मसालों की वह गंध — आज भी स्मृति में बसी हुई है। स्वाद, जो सिर्फ जीभ पर नहीं, मन में बस गया।

दूसरे दिन शाम को आधुनिक नृत्य की एक नई लहर देखने को मिली — प्रसिद्ध भरतनाट्यम नृत्यांगना चंद्रलेखा द्वारा निर्देशित ‘नवग्रह’। भरतनाट्यम, कलारिपयट्टु और योग की त्रिवेणी से रचा गया यह प्रदर्शन केवल दृश्य नहीं, विचार का भी अनुभव था। उन्होंने नृत्य की एक नई भाषा रची — ऐसी जो परंपरा में जड़ें रखते हुए भी समकालीनता की बात करती थी।

तीसरी संध्या — मलविका सरुक्कई का भरतनाट्यम प्रदर्शन। उन्होंने प्रस्तुत किया ‘रास’ — वह क्षण जब गोपियाँ कृष्ण की बांसुरी सुनकर अपने भीतर की खोज में निकलती हैं। यह यात्रा केवल भौगोलिक नहीं, आत्मिक थी। एक नई अनुभूति की तलाश। मलविका की प्रस्तुति में वह झलक थी — वह क्षणिक जादू — जिसे पकड़ना कठिन है, पर महसूस करना सरल।

इन तीन दिनों ने हमें केवल नृत्य नहीं, जीवन का दर्शन दिया। मंदिरों की छाया, चांदनी की आभा, नूपुरों की झंकार, और कलाकारों की साधना — सब कुछ मिलकर एक ऐसी ऊर्जा बना रहे थे जो मन को स्थिर और आत्मा को उद्दीप्त कर देती थी।

नौकरी की दुनिया में जब जीवन यांत्रिक हो उठता है, तब कला वह खिड़की बनती है जिससे रोशनी भीतर आती है। नृत्य, संगीत, साहित्य, रंगमंच — इन सबका सान्निध्य मेरे जीवन की निधि रहा है। वे क्षण जब कलाकार और दर्शक दोनों एक ऊर्जा में विलीन हो जाते हैं — वे पल जैसे आकाश में उगे तारे — दुर्लभ, दिव्य और अमर।

खजुराहो नृत्य महोत्सव उन्हीं दिव्य पलों का संधान है। एक संवाद — नर्तक और देवता के बीच। और आज भी, जब आँखें मूंदता हूँ, तो वह स्वर, वह छवि, वह रस — सब लौट आता है। वह अनुभव, जिसमें कलाकार अपने अस्तित्व से परे जाकर उन तारों की छाया में नृत्य करता है — और उसी में विलीन हो जाता है।

♥♥♥♥

☆ KHAJURAHO DANCE FESTIVAL ☆

Some memories, like dew on a lotus petal, glisten quietly in the heart long after time has moved on. The year was 1986. I was posted in Panna, a quiet town known for its diamond mines where people spend lifetimes in pursuit of something that gleams only for the chosen few. But that spring, my wife and I discovered a different kind of gem — one that shimmered not beneath the earth but under the open skies of Khajuraho, set against the sacred silhouettes of temples and the rhythm of anklets on stone.

We had set out one breezy afternoon, the wind brushing against our faces as our two-wheeler cruised through the ghat section between Panna and Khajuraho. Somewhere near Madla — now the gateway to the Panna National Park — we halted at a modest roadside dhaba. The dhaba owner, a wiry old man with kindness in his eyes, poured us steaming cups of tea and cautioned us in hushed tones: a tiger was said to be prowling nearby. We smiled nervously, half-amused, half-intrigued — the wilderness lending a thrilling prelude to what lay ahead.

Khajuraho, in the Chhatarpur district of Madhya Pradesh, is a town where stone whispers stories — of gods and mortals, of yearning and transcendence. In March that year, it became the stage for the Khajuraho Dance Festival, where artists from across India gathered to breathe life into ancient dance forms under the timeless gaze of sculpted deities. The festival coincided with a significant moment in history: the temples had just been inscribed on the UNESCO World Heritage list, a fitting honour for the marvels that would form the sacred backdrop to the celebration of classical Indian dance.

It was thanks to my affable colleague Ram Vilas Katare, then posted at Khajuraho, that we were able to attend. He arranged our stay and ensured we had the best seats for the opening performances. Ram Vilas would later go on to leave banking and find his fortune in industry, but that evening, we sat side by side as mere rasiks — lovers of art — in quiet reverence.

The festival began with a performance that remains etched in golden memory — Sanjukta Panigrahi, the reigning queen of Odissi, took the stage. With her was her musician husband, who carried the music like a prayer. Sanjukta’s dance was a revelation — a confluence of nritta and abhinaya, where each movement became an invocation, each expression a verse. From Jayadeva’s Gita Govinda to Surdas’s padavali, from the rustic poetry of Vidyapati to the soulfulness of Tagore, she traversed the spiritual spectrum with grace that was almost otherworldly. The effect was so powerful that even the intricate carvings behind her seemed to pause and listen.

Doordarshan was there too, recording the performances. The next morning, we found ourselves privileged spectators at the temple complex where the shoot continued. The gracious Sadhna Shrivastava interviewed Sanjukta Panigrahi, her questions drawing out the essence of Odissi, while we watched the unfolding of art at close quarters. It felt less like an interview and more like a satsang — a sacred communion.

The afternoons were gentle, the sun warm, the heart warmer. We lunched at Hotel Chandela, where the grilled delicacies teased the senses. Even today, the memory of those spices — smoky, tangy, aromatic — is enough to make the mouth water.

Day two brought with it the bold strokes of modernity — a performance by the inimitable Chandralekha. Her Navagraha was unlike anything we had seen. Using Bharatanatyam, Kalaripayattu and Yoga, she gave us a new vocabulary of movement. It was not merely a dance; it was an introspective journey, a cosmic choreography that expanded the definition of tradition.

The final evening of our stay introduced us to Malavika Sarukkai and her sublime Bharatanatyam recital. Her piece, Raas, was a poetic meditation — the gopis enchanted by Krishna’s flute, venturing into the unknown woods and, in the process, awakening to their own divine selves. There was a certain hush in the air as she danced, a silence not of absence but of awe. In that moment, it felt as though time itself had stepped aside to watch.

These three days in Khajuraho gave us not just performances, but moments of transcendence. As the temple stones glowed in the evening light and the air reverberated with the taal and the thumri, it became clear — this was no ordinary festival. It was sadhana in motion, a spiritual offering wrapped in rhythm, gesture and song.

Over the years, I have been fortunate to meet and witness the brilliance of many great artists — from literature to theatre, from painting to sculpture. In the humdrum of a job, it is these windows into beauty that give breath to the soul. The arts, for me, have been more than pastimes. They are life’s quiet conversations with the sublime, a nourishment of the spirit.

The Khajuraho Dance Festival was, and remains, one such conversation — a dialogue between the eternal and the ephemeral, between the dancer and the divine. And sometimes, when I close my eyes, I can still hear the tinkle of anklets, still see the moonlight casting shadows on the sandstone, still feel that inexplicable joy of watching an artist step into the starlight — and become one with it.

♥♥♥♥

© Jagat Singh Bisht 

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 23 – महाकुंभ 2025 – एक अविस्मरणीय अनुभव- ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ # 23 – महाकुंभ 2025 – एक अविस्मरणीय अनुभव ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट  ☆

कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जो मन पर स्थायी छाप छोड़ जाते हैं। वे केवल दृश्य नहीं होते, वे जीवन के भाव बन जाते हैं। महाकुंभ 2025 के अवसर पर तीर्थयात्रा हमारे लिए ऐसा ही एक अनुभव थी—एक दिव्य यात्रा, जो शरीर से अधिक आत्मा को स्पर्श कर गई।

हम तीर्थराज प्रयागराज पहुंचे, जहां गंगा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणी संगम पर पवित्र महाकुंभ का आयोजन हो रहा था। यह कोई सामान्य आयोजन नहीं था, बल्कि जीवन में एक बार मिलने वाला दुर्लभ संयोग था, क्योंकि ग्रह-नक्षत्रों का ऐसा संयोग अब 144 वर्षों बाद ही होगा। यह जानकर ही मन रोमांचित हो जाता है कि हम इस दुर्लभ अवसर के साक्षी बन पाए।

हमने स्नान से पहले ही तय कर लिया था कि हमें सूर्योदय से पहले संगम तक पहुंचना है। सुबह-सुबह अंधेरे में हमने ई-रिक्शा लिया और फिर एक युवक की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर बोट क्लब तक पहुंचे। ठंडी हवा, गहराता अंधकार और भीतर उठती श्रद्धा की लहरें—सब मिलकर एक अद्भुत वातावरण बना रहे थे।

(महाकुंभ 2025 के अवसर पर संगम में अप्रतिम सूर्योदय का विहंगम दृश्य )

नाव की यात्रा अपने आप में एक ध्यान-साधना बन गई थी। गंगा की लहरों पर तैरती हमारी छोटी सी नाव, आकाश में लालिमा बिखेरता सूरज, और बादलों के बीच से झांकती किरणें—यह सब किसी स्वप्न जैसा लग रहा था। नाव चलाने वाला नाविक साधारण पर बहुत अनुभवों से भरा हुआ था। उसके चेहरे पर शांति थी, बातों में अपनापन। वह वर्षों से यही करता आया था—श्रद्धालुओं को संगम तक ले जाना और वापस लाना। उसकी हर बात में जीवन की सादगी और गहराई थी।

(महाकुंभ 2025 के अवसर पर पवित्र गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर नाव यात्रा का अद्भुत अनुभव )

नाव धीरे-धीरे संगम की ओर बढ़ रही थी, और हमारा मन जैसे विचारों से मुक्त होता जा रहा था। जल का विशाल विस्तार, उसकी गहराई और तेज बहाव ने हमें भीतर तक छू लिया। जब हम संगम पहुंचे और डुबकी लगाई, तो वह सिर्फ एक स्नान नहीं था। वह एक आत्मिक अनुभव था। जैसे वर्षों से जमी हुई कोई चिंता, कोई संशय उसी क्षण जल में घुलकर बह गया हो। डुबकी लगाने के बाद एक अनकही शांति भीतर उतर आई। हमें यह जानकर संतोष हुआ कि हम केवल दर्शक नहीं रहे, हमने इन पुण्य पलों को जिया है।

(महाकुंभ 2025 के अवसर पर यमुना नदी पर साइबेरियाई पक्षी)

इसके बाद हम जब वापसी कर रहे थे, तो मन बार-बार उसी प्रश्न में उलझता रहा—क्या सच में यह केवल परंपरा है, या इसके पीछे कोई और गहरा आकर्षण है? तभी हमें संगम घाट की ओर बढ़ती वह अंतहीन मानव श्रृंखला दिखी। लोग पैदल चले आ रहे थे—महिलाएं, पुरुष, बुज़ुर्ग, बच्चे—हर उम्र, हर वर्ग के लोग। चेहरों पर थकावट नहीं, बस एक अपूर्व आस्था का भाव।

इनमें से कई लोग पढ़े-लिखे नहीं थे, साधनहीन थे, लेकिन उनके विश्वास में कोई कमी नहीं थी। न उनके पास रहने की निश्चित व्यवस्था थी, न भोजन की। फिर भी वे चले आ रहे थे—क्यों? क्योंकि उन्हें भरोसा था कि ईश्वर रास्ता बनाएगा, और धर्म की राह में कोई अकेला नहीं होता। यह आस्था देख कर हमारी आंखें नम हो गईं। हम सोचने लगे—क्या यही वह अदृश्य शक्ति है जो करोड़ों लोगों को इस महासंगम की ओर खींच लाती है?

प्रशासन ने अपनी ओर से व्यवस्थाएं की थीं—रास्ते में रैन बसेरे बनाए गए थे, जहां तीर्थयात्री निशुल्क ठहर सकते थे। जगह-जगह भंडारे लगे थे, जहां सेवाभाव से भोजन मिल रहा था। अस्थायी शौचालयों की भी व्यवस्था थी, ताकि लोगों की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकें। जो लोग ये साधन जुटाने में असमर्थ थे, उनके लिए यह किसी वरदान से कम नहीं था। पर फिर भी जब करोड़ों लोग एक साथ किसी छोटे शहर में उतरते हैं, तो किसी भी तैयारी की सीमाएं झलकने लगती हैं।

हम भी भीड़ के साथ-साथ पैदल चलते रहे, धूप तेज़ हो चुकी थी लेकिन लोग रुक नहीं रहे थे। हमने कोशिश की कि उनके मन को समझें, उनकी भावनाओं को महसूस करें, पर एक गहराई थी जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। उलटे हमारी अपनी जिज्ञासा और बढ़ती चली गई, और साथ ही अध्यात्म के प्रति आस्था भी।

एक लम्बी यात्रा के बाद हम एक डिजिटल म्यूज़ियम पहुंचे, जहां महाकुंभ 2025 को आधुनिक तकनीक के माध्यम से दर्शाया गया था। वहां छोटे-छोटे वृत्तचित्रों के माध्यम से कुंभ मेले का इतिहास और उसका महत्व बताया गया। यह देखना सुखद अनुभव था कि परंपरा और तकनीक कैसे साथ चल सकते हैं।

शाम को बोट क्लब क्षेत्र के काली घाट पर लेज़र और ड्रोन शो का भी आनंद लिया। रौशनी और रंगों से सजी वह प्रस्तुति जैसे कुंभ की भव्यता को एक नए रूप में जीवंत कर रही थी।

संगम क्षेत्र और टेंट सिटी भीड़ से खचाखच भरी थी, लेकिन हम भाग्यशाली रहे कि प्रयागराज के सिविल लाइंस इलाके में हम ठहरे थे। यह क्षेत्र अपेक्षाकृत शांत था और वहां अच्छे रेस्टोरेंट, शॉपिंग आउटलेट्स और पीवीआर सिनेमा हॉल भी मौजूद थे। हमने विशेष रूप से ‘एल चिको’ रेस्टोरेंट में भोजन का आनंद लिया, जो हमारे दिन की थकान को सुकून में बदल गया।

प्रयागराज से रवाना होने के पहले हमने तय किया कि पास के ऐतिहासिक अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद पार्क में श्रद्धा सुमन अर्पित करें, जहां देशभक्ति की वह ज्वाला आज भी जीवित लगती है।

इस पूरी यात्रा के अंत में हमारे मन में एक ही भाव रह गया— 

“हे ईश्वर, इस महाकुंभ की आध्यात्मिक ऊर्जा से हमारे जीवन में शांति, प्रेम और समरसता बनी रहे।”

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५० – “मंडला, जबलपुर के गौरव रत्न – श्रद्धेय स्व. श्री रामकृष्ण पांडेय” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व मंडला, जबलपुर के गौरव रत्न – श्रद्धेय स्व. श्री रामकृष्ण पांडेयके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

स्व. श्री रामकृष्ण पांडेय

☆ कहाँ गए वे लोग # ५० ☆

☆ “मंडला, जबलपुर के गौरव रत्न – श्रद्धेय स्व. श्री रामकृष्ण पांडेय” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

तिथियां गिनने न बैठो

 उत्थान और पतन की

सच मानो ये घड़ी है

 संकल्प और प्रण की

 ——–

सुप्रसिद्ध कवि स्व. पं. श्रीबाल पांडेय जी की इन काव्य पंक्तियों की सार्थकता सिद्ध करने वाले मंडला के गौरव रत्न स्व. श्री रामकृष्ण जी पांडेय के व्यक्तित्व और कृतित्व के विषय में आज जब मैं कुछ लिखने बैठा हूं तो मैं सोचता हूं कि श्री पांडेय जी ने भी पं. श्रीबाल पांडेय जी की काव्य पंक्तियों के अनुसार उत्थान और पतन के दिन नहीं गिने बल्कि अपनी कर्म निष्ठा के माध्यम से विकास की दिशा तय करने में जीवन पर्यन्त संकल्पबद्ध रहे। सादा जीवन, उच्च विचार के धनी श्री रामकृष्ण पांडेय का जन्म मंडला जिले के ग्रामीण अंचल निवास के भीखमपुर में हुआ था संघर्ष की धूप में तपते हुए उन्होंने कठिनाइयों के बीच मैट्रिक की परीक्षा शानदार अंकों से उत्तीर्ण करते हुए मेरिट में स्थान प्राप्त किया और अपने गांव ही नहीं बल्कि अपने जिले को गौरवान्वित किया था।

 इस कामयाबी के बाद तो पांडेय जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और शिक्षा के क्षेत्र में लगातार आगे बढ़ते रहे। उन्होंने जबलपुर विश्व विद्यालय से एम. ए. की परीक्षा में स्वर्ण पदक प्राप्त करने के बाद महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे पूर्व सांसद डा. महेश दत्त मिश्रा के मार्गदर्शन में भारतीय संसदीय प्रणाली पर पी. एच. डी. की उपाधि अर्जित की। यह गौरवशाली सिलसिला यहीं नहीं रुका। पांडेय जी ने इसके बाद इंडियन प्राइम मिनिस्टर थ्योरी एंड प्रेक्टिस पर डी. लिट की उपाधि भी प्राप्त की बाद में उन्होंने प्रधानमंत्री सचिवालय में विशेष राजनैतिक सलाहकार के दायित्व का भी निर्वाह किया। कम्युनिकेशन आफ इंडिया के डायरेक्टर के पद को सुशोभित करने के बाद पांडेय जी आकाशवाणी से श्रोता अनुसंधान अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए। उल्लेखनीय बात तो यह है कि सेवानिवृत्त होने के बाद पांडेय जी ने एल. एल. बी. की परीक्षा पास की और वह भी गोल्ड मेडल लेकर। फिर एल. एल. एम. में भी गोल्ड मेडल लिया और फिर छत्तीसगढ़ के रायपुर में सीनियर प्रोड्यूसर का काम करते हुए सफलता पूर्वक वकालत भी की।

पांडेय जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। शिक्षा क्षेत्र में विभिन्न उपाधियां अर्जित करने के साथ ही उन्हें ज्योतिष शास्त्र का भी विशेष ज्ञान था। प्रारंभिक जीवन में उन्होंने जबलपुर के कामता प्रसाद गुरु भाषा भारती संस्थान में असिस्टेंट डायरेक्टर का भी सफलता पूर्वक कार्य किया। पांडेय जी को पत्रकारिता का भी अच्छा अनुभव था। उन्होंने जबलपुर के दैनिक देशबंधु सहित अनेक अखबारों में भी पत्रकारिता कार्य किया और निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में ख्याति अर्जित की।

 स्व. श्री पांडेय यूं रिश्ते में तो हमारे फूफाजी हुआ करते थे परंतु उन्होंने इस रिश्ते को तरजीह नहीं दी बल्कि मेरे पिताजी को हमेशा पितृ तुल्य माना और पिताजी के प्रति उनके मन में हमेशा श्रद्धा का भाव रहा। वे कभी कभी अपनी समस्याओं के समाधान के लिए भी पिताजी के पास आते थे और हमेशा चेहरे पर एक सुकून का भाव लेकर लौटते। अपने कार्यक्षेत्र के बारे में पिताजी के साथ जब उनकी गंभीर चर्चा प्रारंभ होती तो समय का पता ही नहीं चलता। हम चारों भाइयों को उन्होंने अपने छोटे भाई जैसा स्नेह दिया। उनके सहज सरल स्वभाव में इतनी बेतकल्लुफी शामिल थी कि हमें उनके मित्र होने की अनुभूति होने लगती। स्व. श्री पांडेय सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में कल्याणकारी दृष्टिकोण और परस्पर सहयोग के लिए चर्चित रहे। वे सभी की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते थे चाहे वह उनका परिचित हो या अपरिचित । उन्होंने हम लोगों को हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। मेरे एम. ए. करने के बाद एक बार उन्होंने पूछा कि मैं आजकल क्या कर रहा हूं। मैंने कहा, अभी तो कुछ नहीं। उस समय पांडेय जी जबलपुर में आकाशवाणी में श्रोता अनुसंधान अधिकारी थे। उन्होंने मुझसे रेडियो स्टेशन में मिलने को कहा। जब मैं उनसे जाकर मिला तो उन्होंने मुझसे मानदेय पर एशियाड ८२ के अंतर्गत सर्वे का काम सौंप दिया और यही नहीं उस समय पांडेय जी के अधीनस्थ लगभग ४० बेरोजगार युवक काम रहे थे। सर्वे कार्य के बाद जब हम सभी को मानदेय की इकठ्ठी राशि मिली तो हमारी खुशी ‌देखते ही बनती थी।

श्रद्धेय पांडेय जी के साथ बिताया गया समय हमारे स्मृति कोष की अमूल्य धरोहर है। साहित्यिक गतिविधियों में भी श्री पांडेय जी हमें हमेशा प्रोत्साहित करते थे। उनका प्रोत्साहन और मार्गदर्शन मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हुआ करता। एक बार एक काव्य गोष्ठी में काव्य पाठ के पूर्व ही उन्होंने मुझे एक विशेष कविता पढ़ने का संकेत। दिया। शायद यह कविता उनके नजरिए से सामयिक और महत्वपूर्ण रही हो। आदरणीय डा. राजकुमार सुमित्र जी और आदरणीय डा. रामकृष्ण जी पांडेय के आतिथ्य में आयोजित उस काव्य गोष्ठी में मैंने वह कविता मैं अंधा ही अच्छा हूं, सुनाई और वह कविता सराही भी गयी।

 पांडेय जी आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी यादें हमारे दिल और दिमाग में सदा उनके हमारे आस पास होने का अहसास दिलाती है –

आदमी के, प्यार के,

संघर्ष के जो गीत गाये

जियेंगी सदियां उन्हें

दिन रात छाती से लगाये।

© श्री यशोवर्धन पाठक

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

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आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ –  “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४६ – “मधुर गीतकार-  स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४७ – “साहित्य के प्रति समर्पित : आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४८ – “गीतों के राजकुमार मणि “मुकुल”- स्व. मणिराम सिंह ठाकुर “मणि मुकुल”  ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४९ – “शिक्षाविद और सहकारिता मनीषी – स्व. डा. सोहनलाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 22 – कृतज्ञता की दृष्टि से: एक नई सुबह की शुरुआत – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ कृतज्ञता की दृष्टि से: एक नई सुबह की शुरुआत।) 

☆  दस्तावेज़ # 22 – कृतज्ञता की दृष्टि से: एक नई सुबह की शुरुआत ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

सर्जरी के अगले दिन की सुबह, जब मैं अपनी बालकनी में बैठा था, तो दुनिया मेरे सामने एक नई चमक के साथ सजीव हो उठी। मेरी पुनर्स्थापित दृष्टि केवल एक चिकित्सा चमत्कार नहीं थी—यह एक उपहार थी, एक नई अनुभूति। नीम का पेड़ मेरे सामने पहले से कहीं अधिक स्पष्ट और सुंदर लग रहा था। उसकी हरी- बैंगनी पत्तियाँ कोमल हवा में नृत्य कर रही थीं, उगते हुए सूर्य की सुनहरी-लाल किरणों में स्नान कर रही थीं। उससे परे, विशाल नीला आकाश एक दिव्य छत्र की भाँति फैला हुआ था, शांत और अनंत। शाखाओं पर बैठे पक्षियों की चहचहाहट ने सुबह को और अधिक मधुर और जादुई बना दिया। यह आनंद इतना निर्मल और निष्कलंक था कि मुझे लगा मानो मैं फिर से पंद्रह साल का हो गया हूँ।

वे हाथ जो चमत्कार करते हैं:

जब मेरा हृदय इस सुंदरता को आत्मसात कर रहा था, तो वह डॉ महेश अग्रवाल के प्रति कृतज्ञता से भर गया, जिन्होंने यह रूपांतरण संभव किया। यह कहना कि वे एक कुशल नेत्र सर्जन हैं, उनके प्रति न्याय नहीं होगा। वे सच्चे अर्थों में एक चिकित्सक हैं—ऐसे व्यक्ति जो कुशलता को करुणा से, विशेषज्ञता को सहानुभूति से और अनुभव को मानवता से जोड़ते हैं।

डॉक्टर और रोगी का संबंध केवल एक लेन-देन नहीं होता। यह एक पवित्र बंधन होता है, जो विश्वास, देखभाल और समझ पर आधारित होता है। रोगी केवल शारीरिक पीड़ा ही नहीं, बल्कि मानसिक चिंता, भय और अनिश्चितता भी लेकर आता है। एक सच्चा चिकित्सक केवल बीमारी को नहीं, बल्कि उसके साथ आई चिंताओं को भी दूर करता है। वह एक आशा का संदेशवाहक बन सकता है, जो पीड़ा को राहत में, अंधकार को प्रकाश में और निराशा को विश्वास में बदल सकता है। डॉ अग्रवाल इस भावना को सहजता से जीते हैं। उनकी कुशलता उनकी विनम्रता से मेल खाती है, और उनका ज्ञान उनकी मानवता से।

आशा की किरण:

बढ़ती उम्र के साथ धीरे-धीरे सब कुछ फीका पड़ने लगता है—शक्ति, इंद्रियाँ और संवेदनाएँ। घुटने दर्द करने लगते हैं, सुनने की क्षमता घट जाती है, और दाँत कमजोर हो जाते हैं। लेकिन जब आँखें, जो दुनिया की खिड़कियाँ हैं, जवाब देने लगती हैं, तो ऐसा लगता है कि जीवन का सार ही धुंधला हो गया है। फिर भी, यह एक आशीर्वाद ही है कि बढ़ती उम्र में भी दृष्टि को पुनः प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए हमें न केवल कुशल सर्जनों का, बल्कि उन वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं का भी आभार मानना चाहिए, जिन्होंने चिकित्सा विज्ञान को इस स्तर तक पहुँचाया है कि आज मोतियाबिंद की सर्जरी दर्दरहित, सरल और अत्यंत प्रभावी हो गई है।

लेकिन मेरी अपनी सर्जरी की राह इतनी आसान नहीं थी। एक अनपेक्षित स्वास्थ्य समस्या, जो वर्षों से अनदेखी बनी रही, ने मेरी सर्जरी को तीन साल तक टाल दिया। इस अनिश्चितता ने मुझे परेशान कर दिया, खासकर जब कुछ अनुभवी चिकित्सकों ने सलाह दी कि “मोतियाबिंद की सर्जरी कोई आपातकालीन प्रक्रिया नहीं है, इसे जब चाहें करा सकते हैं।” परंतु इंतजार करने का अर्थ था एक ऐसी दुनिया में रहना जो धीरे-धीरे धुंधली होती जा रही थी।

इसी दौर में, डॉ अग्रवाल की बुद्धिमत्ता और उनके शब्दों ने मुझे संबल दिया। उन्होंने मुझसे कहा, “मैंने हमेशा आपको एक खुशहाल व्यक्ति के रूप में देखा है। आप दूसरों के जीवन में हँसी और खुशी लाते हैं। मैं कभी नहीं चाहूँगा कि आप कोई अनावश्यक जोखिम उठाएँ। बस थोड़ा धैर्य रखें—हम जल्द ही समाधान निकाल लेंगे।” उनकी आश्वस्त करने वाली आवाज़, उनका विश्वास मेरे लिए संबल बन गया। और भगवान की कृपा से, समाधान मिल भी गया और मैं सर्जरी के लिए तैयार हो गया।

एक मास्टर का स्पर्श:

खुद सर्जरी अपने आप में एक अद्भुत अनुभव था। डॉ अग्रवाल, जिन्होंने चेन्नई के प्रतिष्ठित शंकर नेत्रालय और मदुरै के अरविंद आई हॉस्पिटल से प्रशिक्षण प्राप्त किया था, ने इसे ऐसे कुशलता से किया कि मानो यह एक कला हो। माइक्रो इन्सीजन मोतियाबिंद सर्जरी—बिना दर्द, बिना पट्टी, बिना टांका, एक अद्भुत तकनीक—बिल्कुल सहजता से संपन्न हुई। ऑपरेशन थिएटर में वे पूर्णतः शांत, केंद्रित और रोगी के प्रति संवेदनशील थे। उनकी आश्वस्त करने वाली आवाज़ ने मुझे पूरे समय सहज बनाए रखा।

उनका अस्पताल, श्री गणेश नेत्रालय, केवल एक चिकित्सा केंद्र नहीं है—यह एक आशा और देखभाल का स्थान है। वहाँ की पूरी टीम—ऑप्टोमेट्रिस्ट, ऑपरेशन थिएटर तकनीशियन, नर्सिंग स्टाफ और सहायक कर्मचारी—सभी मुस्कुराहट के साथ सेवा करते हैं। यह भी संयोग नहीं कि डॉ अग्रवाल ने “शंकर” नेत्रालय में प्रशिक्षण लिया, अपने अस्पताल का नाम “गणेश” नेत्रालय रखा, और उनका स्वयं का नाम “महेश” है—शंकर, गणेश और महेश, हिंदू पौराणिक कथाओं में सबसे शक्तिशाली और मंगलकारी देवताओं में गिने जाते हैं। यह स्थान वास्तव में दिव्यता और शांति से भरा हुआ है।

एक नया संसार:

आज, जब मैं अपनी पुनर्स्थापित दृष्टि के साथ बाहर निकलता हूँ, तो दुनिया पहले से कहीं अधिक सुंदर लगती है। मेरी दृष्टि अब 6/6, N6 है—इतनी स्पष्ट जितनी पहले कभी नहीं थी। मुझे इस बात का पछतावा है कि मैंने सर्जरी में देरी क्यों की, लेकिन पछतावा केवल क्षणिक है। जो बचा है, वह है अनंत आनंद, जीवन को फिर से खोजने की उत्सुकता। अब किताबें पढ़ना और अधिक सुखद हो गया है, टेलीविजन देखना अधिक आनंददायक लगने लगा है, दूर और पास के दृश्य पहले से अधिक स्पष्ट और जीवंत दिखाई देते हैं। मुझे लगता है जैसे मैं मुक्त हूँ, एक चिड़िया की तरह, जो आसमान को चूमने के लिए तैयार है।

हार्दिक आभार:

डॉ महेश अग्रवाल ने न केवल मेरी दृष्टि को पुनः प्राप्त किया, बल्कि मेरी आत्मा को भी पुनर्जीवित किया। उन्होंने मेरे जीवन के एक कठिन अध्याय को एक नए उजाले में बदल दिया। इसके लिए मैं हमेशा उनका आभारी रहूँगा। उनकी बुद्धिमत्ता, धैर्य और करुणा ने मुझे गहराई तक प्रभावित किया है। मैं उनके प्रति अपना हार्दिक धन्यवाद अर्पित करता हूँ। वे ऐसे ही और लोगों के जीवन में प्रकाश लाते रहें, उन्हें अंधकार से निकालकर नई रोशनी की ओर ले जाते रहें।

दुनिया फिर से सुंदर हो गई है—और इसका सारा श्रेय उन्हें जाता है।

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – ऐसा भी सूखा ? ?

आज 2 फरवरी 2019 की रात को लिखा एक संस्मरण ज्यों का त्यों साझा कर रहा हूँ।

रात के 2:37 बजे का समय है। अलीगढ़ महोत्सव में कविता पाठ के सिलसिले में हाथरस सिटी स्टेशन पर मुंबई के कवि मित्र के साथ उतरा हूँ। प्लेटफॉर्म लगभग सुनसान। टिकटघर के पास लगी बेंचों पर लगभग शनैः-शनैः 8-10 लोग एकत्रित हो गए हैं। आगे की कोई ट्रेन पकड़नी है उन्हें।

बाहर के वीराने में एक चक्कर लगाने का मन है ताकि कहीं चाय की कोई गुमटी दिख जाए। शीतलहर में चाय संजीवनी का काम करती है। मित्र बताते हैं कि बाहर खड़े साइकिल रिक्शावाले से पता चला है कि बाहर इस समय कोई दुकान या गुमटी खुली नहीं मिलेगी। तब भी नवोन्मेषी वृत्ति बाहर जाकर गुमटी तलाशने का मन बनाती है।

उठे कदम एकाएक ठिठक जाते हैं। सामने से एक वानर-राज आते दिख रहे हैं। टिकटघर की रेलिंग के पास दो रोटियाँ पड़ी हैं। उनकी निगाहें उस पर हैं। अपने फूडबैग की रक्षा अब सर्वोच्च प्राथमिकता है और गुमटी खोजी अभियान स्थगित करना पड़ा है।

देखता हूँ कि वानर के हाथ में रोटी है। पता नहीं ठंड का असर है या उनकी आयु हो चली है कि एक रोटी धीरे-धीरे खाने में उनको लगभग दस-बारह मिनट का समय लगा। थोड़े समय में सीटियाँ-सी बजने लगी और धमाचौकड़ी मचाते आठ-दस वानरों की टोली प्लेटफॉर्म के भीतर-बाहर खेलने लगी। स्टेशन स्वच्छ है तब भी एक बेंच के पास पड़े मूंगफली के छिलकों में से कुछ दाने वे तलाश ही लेते हैं। अधिकांश शिशु वानर हैं। एक मादा है जिसके पेट से टुकुर-टुकुर ताकता नन्हा वानर छिपा है।

विचार उठा कि हमने प्राणियों के स्वाभाविक वन-प्रांतर उनसे छीन लिए हैं। फलतः वे इस तरह का जीवन जीने को विवश हैं। प्रकृति समष्टिगत है। उसे व्यक्तिगत करने की कोशिश में मनुष्य जड़ों को ही काट रहा है। परिणाम सामने है, प्राकृतिक और भावात्मक दोनों स्तर पर हम सूखे का सामना कर रहे हैं।

अलबत्ता इस सूखे में हरियाली दिखी, हाथरस सिटी के इस स्टेशन की दीवारों पर उकेरी गई महाराष्ट्र की वारली या इसके सदृश्य पेंटिंग्स के रूप में। राजनीति और स्वार्थ कितना ही तोड़ें, साहित्य और कला निरंतर जोड़ते रहते हैं। यही विश्वास मुझे और मेरे जैसे मसिजीवियों को सृजन से जोड़े रखता है।

?

© संजय भारद्वाज  

11:07 बजे , 3.2.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 643 ⇒ अविवाहित ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका संस्मरणात्मक आलेख – “अविवाहित।)

?अभी अभी # 643 ⇒ अविवाहित ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। विवाह को आप एक ऐसा लड्डू कह सकते हैं, जो खाए वह भी पछताए और जो नहीं खाए, वह भी पछताए। एक कुंवारा व्यक्ति ब्रह्मचारी भी हो सकता है और अविवाहित भी। माननीय अटल जी से जब यह प्रश्न किया था, तो उनका जवाब था, मैं ब्रह्मचारी नहीं, एक बैचलर हूं। वैसे आपको सामाजिक जीवन में कई शादीशुदा बैचलर भी मिल जाएंगे।

शादी, व्यक्ति का अत्यंत निजी मामला है। मेरे पचास वर्ष के विवाहित अनुभव में मैं कुछ ऐसे अंतरंग मित्रों से भी मिला हूं, जो आजीवन अविवाहित एवं अविवादित रहे। दुर्योगवश, आज उनमें से एक भी जीवित नहीं है।

वे जीवन में कितने सुखी अथवा सफल रहे, इसका आकलन मैं करने वाला कौन? लेकिन इसी बहाने मैं उन चार व्यक्तियों को स्मरण करना चाहता हूं। उनके नाम असली भी हो सकते हैं और काल्पनिक भी। इसमें मानहानि जैसा कुछ नहीं है, और जरूरी भी नहीं कि वे आपके परिचित हों, क्योंक उनका फेसबुक से भी कोई संबंध नहीं।।

१. सबसे पहले व्यक्ति श्री चंद्रकांत सरमंडल थे, जो मेरी नजर में एक संत थे, मुझसे दो वर्ष बड़े थे, और अभी कुछ समय पहले ही वे आकस्मिक रूप से हमें छोड़ गए। उनके नारायण बाग के मकान में मैं ३५ वर्ष एक किराएदार की हैसियत से रहा। संयोगवश वे मेरे कॉलेज के एक मित्र के भी सहपाठी रहे थे। सरल, सौम्य और संतुष्ट चंद्रकांत जी पेशे से एक वैज्ञानिक होते हुए भी सात्विक विचारधारा वाले एक धार्मिक व्यक्ति थे, जिनका पूरा जीवन उनके माता पिता और परिवार को समर्पित था।

उनमें प्राणी मात्र के लिए दर्द था, वे अत्यंत मृदुभाषी, संकोची एवं स्वावलंबी सज्जन पुरुष थे।।

२. नंबर दो पर मेरे पूर्व बैंककर्मी साथी और अभिन्न मित्र श्री बी.के .वर्मा थे, वे बैंक से अधिक मेरे पूरे परिवार से जुड़े रहे। हमारी शर्मा जी व वर्मा जी की जोड़ी मशहूर थी। बैंक समय के पश्चात् हमेशा हमें साथ साथ देखा जाता। वे मेरे सारथी भी थे। 

कॉफी हाउस में उन्हें घंटों बहस करते देख सकते थे। उनकी सुबह की दिनचर्या में अहिल्या लायब्रेरी भी शामिल थी। सुबह लाइब्रेरी में हिंदी अंग्रेजी अखबारों का कलेवा करते, और तत्पश्चात् सिर्फ कॉफी टोस्ट के धुंए में सामने वाले को परोस देते। शादी नहीं करने के उनके कारण मुझे कभी हजम नहीं हुए।।

अपने भोजन के लिए उन्होंने एक गरीब महिला रख रखी थी, जिसकी गरीबी और मजबूरी से वे इतने द्रवित हो गए थे, कि उनकी अपनी बीमारी के वक्त वे पहले उनकी केयरटेकर बनी और उसके बाद दत्तक पुत्री। स्वयं कानून के जानकार और एक लॉ ग्रेजुएट, हमारे वर्मा जी ने नाजुक वक्त पर अपनी वसीयत भी उसके नाम पर कर दी, और मानसिक तनाव और पारिवारिक संघर्ष के बीच अपनी इहलीला त्याग दी।

३. तीसरे नंबर पर मुझसे पांच वर्ष बड़े चार्टर्ड अकाउंटेट की शौकिया डिग्रीधारी श्री जी.एल., गोयल जिन्होंने मुझे जीवन में बौद्धिक और आध्यात्मिक आधार दिया। कुछ लोगों की निगाह में वे एक चमत्कारी पुरुष थे, लेकिन मेरे लिए वे एक सच्चे हितैषी और शुभचिंतक मित्र साबित हुए। रोज मुझसे कुछ लिखवाना, और फिर एक समीक्षक की तरह उसे A, B, C अथवा D ग्रेड देना, ही शायद आज मुझे उनके बारे में कुछ लिखने को मजबूर कर रहा है।

संगीत हो अथवा बागवानी, ज्योतिष, शेयर मार्केट होम्योपैथी नेचुरोपैथी, टेलीपैथी के अलावा शायद ही कोई ऐसी पैथी हो, जिनकी जानकारी उन्हें नहीं हो।

वे आजीवन अकेले रहे, लेकिन हमेशा सबके काम आते रहे। फिर भी जो सबका भला करना चाहते हैं, उन्हें जीवन में कष्ट भी झेलना पड़ता है। अंतिम कुछ समय से गंभीर रूप से बीमार रहे और कुछ वर्ष पहले ही मुझे अकेला छोड़ गए।

४. मेरे अंतिम अविवाहित पात्र श्री क्रांतिकुमार शुक्ला भी आज मेरे साथ नहीं है। कभी संघर्षशील पत्रकार रहे शुक्ला जी स्काउट गतिविधि के प्रति आजीवन समर्पित रहे।

उनके साथ कई स्काउट ट्रिप का भी हमने आनंद लिया। क्या जमाना था, शुक्ला जी साइकिल उठाए, सुबह सुबह हमारे घर चले आ रहे हैं। स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मनोरंजन, कैसे बीत गया जीवन, कुछ पता ही नहीं चला।।

अंतिम समय भी उनका जीपीओ स्थित स्काउट हेडक्वार्टर पर ही  गुजरा। स्मृति दोष और अकेलापन यह पुराना फौजी झेल नहीं पाया, और कुछ वर्ष पूर्व वे भी इस दुनिया से कूच कर गए।

अविवाहित रहते हुए भी ये चारों व्यक्ति मेरे जीवन का हिस्सा रहे। मेरे व्यक्तिगत परिवार को इन चार सदस्यों के जाने से जो क्षति पहुंची है, उसकी व्यथा ही यह आज की कथा है। चारों मेरे अपने थे, और सदा मेरे अपने रहेंगे। कभी हम पांच थे, आज सिर्फ मैं अकेला। हूं, फिर भी शादीशुदा हूं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४९ – “शिक्षाविद और सहकारिता मनीषी – स्व. डा. सोहनलाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व शिक्षाविद और सहकारिता मनीषी – स्व. डा. सोहनलाल गुप्ताके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

स्व. डा. सोहनलाल गुप्ता

☆ कहाँ गए वे लोग # ४९ ☆

☆ “शिक्षाविद और सहकारिता मनीषी – स्व. डा. सोहनलाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

कर्मवीर के आगे पथ का

हर पत्थर साधक बनता है 

दीवारें भी दिशा बताती

तब मानव आगे बढ़ता है

हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि स्व. श्री ब्रजराज पांडव की इन पंक्तियों की सार्थकता सिद्ध की थी जबलपुर के चर्चित सहकारिता मनीषी और शिक्षा शास्त्री स्व. डा. सोहनलाल गुप्ता ने जिन्होंने अपनी कर्मठता और विद्वत्ता से शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा अर्जित की जिसके कारण आज भी जनमानस के स्मृति पटल डा. एस एल गुप्ता की छवि और प्रभाव अंकित है।

डा. सोहन लाल गुप्ता एक बहुआयामी व्यक्तित्व के रुप में समाज में प्रतिष्ठित और प्रेरक स्तंभ थे। शिक्षाविद और सहकारिता मनीषी के रुप में उन्होंने अनेक कीर्तिमान स्थापित किए। एक सबके लिए और सब एक के लिए के सिद्धांत के पोषक और प्रचारक डा, सोहनलाल गुप्ता सिर्फ सहकारिता चिंतक और लेखक ही नहीं थे बल्कि उन्होंने सहकारी आंदोलन को सशक्त नेतृत्व भी प्रदान किया था।

 जबलपुर नागरिक सहकारी बैंक के प्रथम अध्यक्ष के रूप में उन्होंने सहकारी बैकिंग को कमजोर वर्ग के आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण माध्यम बनाने में सक्रिय योगदान भी दिया। वर्ष १९७०३ के दशक में मात्र दो लाख रुपए की पूंजी से शुरू किए गए इस नागरिक सहकारी बैंक में उस समय बैंक की प्रारंभिक स्थिति में डा. गुप्ता की लगभग ८० हजार रुपए की पूंजी शामिल थी। १९७९ तक उन्होंने बैठक के अध्यक्ष पद का सफलतापूर्वक निर्वाह किया। यह डा, एस. एल. गुप्ता का सहकारिता के प्रति गहरे लगाव और लगन का परिचायक था।

सहकारिता और ग्रामीण विकास के अंतर्गत कृषिगत गतिविधियों में शोध कार्यों के लिए भी डा. सोहनलाल गुप्ता के की प्रभावी सोच और योगदान को भी शासन ने स्वीकार करते हुए उन्हें पुरस्कृत किया था। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संदर्भ में डा. गुप्ता ने जो शोध कार्य किये, उसके लिए भी विश्व विद्यालय अनुदान आयोग द्वारा उनकी सराहना की गई। ५ अगस्त १९१८ को जन्मे डा. सोहनलाल गुप्ता की महाविद्यालयीन शिक्षा सेंट कालेज में हुई थी। बाद में उन्होंने वर्ष १९४२ में एम. ए. की परीक्षा और वर्ष १९४३ मं एल. एल. बी. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। शिक्षा के प्रति डा. गुप्ता का लगाव बड़ा गहरा था। उन्होंने १९४६ में एम. काम. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वर्ष १९५२ में डा. गुप्ता ने पी. एच. डी. की उपाधि अर्जित की और इसके बाद १९५३ में उन्होंने जबलपुर के जी. एस. कामर्स कालेज में सहायक प्राध्यापक के पद पर अपनी सेवाएं देना शुरू किया। डा. गुप्ता की सक्रिय और समर्पित सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए उन्हें १९६० में कालेज में प्राध्यापक के पद पर पदोन्नत किया गया। इसके बाद डा. सोहनलाल गुप्ता ने जब महाविद्यालय में प्राचार्य का दायित्व संभाला तो उनसे उस समय उनकी विद्वता और योग्यता को देखते हुए कालेज को काफी आशाएं थीं। डा. गुप्ता ने कुशलता और सफलता के साथ उन अपेक्षाओं को पूर्ण किया और कालेज के विकास की अद्भुत कहानी लिखते हुए १९७७ में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त होने के बाद भी शिक्षा जगत के लिए जीवन पर्यंत पूरी तरह समर्पित डा. सोहनलाल गुप्ता शैक्षणिक क्षेत्र में नित नये लाभकारी और उपयोगी पाठ्यक्रमों के संचालन हेतु प्रयत्नशील रहे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अर्थ वाणिज्य उच्च अध्ययन एवं अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की और संचालक के रुप में अनेक वर्षों तक उस केंद्र को महाकोशल क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण और उपयोगी संस्थान बनने में सफलता अर्जित की। इस संस्थान की स्थापना के पीछे डा. गुप्ता की सार्थक सोच यह थी कि आज का शिक्षित युवा अपने आर्थिक भविष्य के निर्माण के लिए व्यावसायिक और औधौगिक प्रबंध में व्यापक प्रशिक्षण प्राप्त करे। अपने शिक्षकीय जीवन के दौरान डा. एस. एल. गुप्ता ने पाठ्यक्रमों से संबंधित अनेक पुस्तकें का लेखन किया जो कि अर्थ वाणिज्य के क्षेत्र में विभिन्न कालेजों में छात्रों के लिए अध्ययन हेतु सहायक सिद्ध हुई।

 गांधीवादी विचारक डा. गुप्ता संत विनोबा भावे के वैचारिक दृष्टिकोण से भी काफी प्रभावित थे और यहीं कारण था कि उन्होंने जिला सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष पद पर काफी वर्षों तक सक्रियता पूर्वक अपने दायित्वों का का निर्वाह भी किया। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने कर्तव्यों और दायित्वों का ईमानदारी से निर्वाह करने वाले डा. सोहनलाल गुप्ता का स्वर्गवास दिनांक २२ अक्टूबर १९९६ को हुआ था लेकिन उनकी प्रेरक स्मृतियां सदा हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी। सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. राजकुमार सुमित्र जी के शब्दों में व्यक्ति बीत जाता है और समय भी किंतु स्मृतियां अशेष होती हैं। कुछ चित्र और कुछ स्मृतियां ऐसी होती हैं जिनके कारण स्मृति कोष सार्थक हो जाया करता है। श्रद्धेय डा. सोहनलाल गुप्ता जी की छवि और स्मृतियां ऐसी ही है।

© श्री यशोवर्धन पाठक

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

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आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ –  “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४६ – “मधुर गीतकार-  स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४७ – “साहित्य के प्रति समर्पित : आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४८ – “गीतों के राजकुमार मणि “मुकुल”- स्व. मणिराम सिंह ठाकुर “मणि मुकुल”  ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 21 – महीयसी महादेवी वर्मा की अद्भुत होली ☆ श्री आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

श्री आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन।)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ महीयसी महादेवी की अद्भुत होली।) 

☆  दस्तावेज़ # 21 – महीयसी महादेवी वर्मा की अद्भुत होली ☆ श्री आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆ 

हिंदी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखनेवाली बुआ श्री (महीयसी महादेवी वर्मा) से जुड़े संस्मरण की शृंखला में इस बार होली चर्चा। बुआ श्री ने बताया कि रंग पर्व पर भंग की तरंग में मस्ती करने में साहित्यकार भी पीछे नहीं रहते थे किंतु मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया जाता था। हिन्दू पंचांग के अनुसार होली बुआ श्री का जन्म दिवस भी है। प्रयाग राज (तब इलाहाबाद) में अशोक नगर स्थित बंगले में साहित्यकारों का जमघट दो उद्देश्यों की पूर्ति हेतु होता था। पहला महादेवी जी को जन्म दिवस की बधाई देना और दूसरा उनके स्नेह पूर्ण आतिथ्य के साथ साहित्यकारों की फागुनी रचनाओं का रसास्वादन कर धन्य होना। बुआ श्री होली की रात्रि अपने आँगन में होलिका दहन करती थीं। उसके कुछ दिन पूर्व से बुआश्री के साथ उनके मानस पुत्र डॉ. रामजी पांडेय का पूरा परिवार होली के लिए गुझिया, पपड़िया, सेव, मठरी आदि तैयार करा लेता था। एक एक पकवान इतनी मात्रा में बनता कि पीपों (कनस्तरों) और टोकनों में रखा जाता। होली का विशेष पकवान गुझिया (कसार की, खोवे की, मेवा की, नारियल चूर्ण की, चाशनी में पगी), सेव (नमकीन, तीखे, मोठे गुण की चाशनी में पगे), पपड़ी (बेसन की, माइडे की, मोयन वाली), खुरमे व मठरी, दही बड़ा, ठंडाई आदि आदि बड़ी मात्रा में तैयार करे जाते कि कम न हों।        

होली खेलत रघुवीरा

सवेरा होते ही शहर के ही नहीं, अन्य शहरों से भी साहित्यकार आते जाते, राई-नोन से उनकी नजर उतरी जाती, बुआ श्री स्वयं उन्हें गुलाल  का टीका लगाकार आशीष देतीं। आगंतुक साहित्यिक महारथियों में आकर्षण का केंद्र होते महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, फिराक गोरखपुरी, सुमित्रानंदन पंत, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, उमाकांत मालवीय, रघुवंश,अमृत राय, सुधा चौहान, कैलाश गौतम, एहतराम इस्लाम आदि आदि। साहित्यकारों पर किंशुक कुसुम (टेसू के फूल) उबालकर बनाया गया कुसुंबी रंग डाला जाता था। यह रंग भी बुआ श्री की देख-रेख में घर पर हो तैयार किया जाता था। क्लाइव रोड से बच्चन जी की अगुआई में एक टोली ‘होली खेलत रघुवीरा, बिरज में होली खेलत रघुवीरा आदि होली के लोक गीत गाते, झूमते मस्ताते हुए पहुँचती। बच्चन जी स्वयं बढ़िया ढोलक बजाते थे।  

‘बस करो भइया…’

महाप्राण निराला बुआ श्री को अपनी छोटी बहिन मानते थे, फिर होली पर बहिन से न मिलें यह तो हो ही नहीं सकता था। उनके व्यक्तित्व की दबंगई के कारण अनकहा अनुशासन बना रहता था। निराला विजय भवानी (भाँग) का सेवन भी करते थे। एक वर्ष अरगंज स्थित निराला जी के घर कुछ साहित्यकार भाँग लेकर पहुच गए, निराला जी को ठंडाई में मिलाकर जमकर भाँग पिला दी गई। भाँग के नशे में व्यक्ति जो करता है करता ही चला जाता है। यह टोली जब पहुंची तो गुजिया बाँटी-खाई जा रही थीं। निराला जी ने गुझिया खाना आरभ किया तो बंद ही न करें, किसका साहस की उन्हें टोंककर अपनी मुसीबत बुलाए। बुआ जी अन्य अतिथियों का स्वागत कर रही थी, किसी ने यह स्थिति बताई तो वे निराला जी के निकट पहुँचकर बोलीं- ”भैया! अब बस भी करो।और लोग भी हैं, उन्हें भी देना है, गुझिया कम पड़ जाएंगी।” निराला जी ने झूमते हुआ कहा- ‘तो क्या हुआ? भले ही कम हो जाए मैं तो जी भर खाऊँगा, तुम और बनवा लो।” उपस्थित जनों के ठहाकों के बीच फिर गुझिया खत्म होने के पहले ही फिर से बनाने का अनुष्ठान आरंभ कर दिया गया।    

राम की शक्ति पूजा

एक वर्ष होली पर्व पर बुआ श्री के निवास पर पधारे साहित्यकारों ने निराला जी से उनकी प्रसिद्ध रचना ”राम की शक्ति पूजा” सुनाने का आग्रह किया। निराला जी ने मना कर दिया। आग्रहकर्ता ने बुआ श्री की शरण गही। बुआ श्री ने खुद निराला जी से कहा- ”भैया! मुझे शक्ति पूजा सुन दो।” निराला जी ने ”अच्छा,  इन लोगों ने तुम्हें वकील बना लिया, तब तो सुनानी ही पड़ेगी। उन्होंने अपने ओजस्वी स्वर में समा बाँध दिया। सभी श्रोता सुनकर मंत्रमुग्ध हो गए।

खादी की साड़ी

महादेवी जी सादगी-शालीनता की प्रतिमूर्ति,  निराला जी के शब्दों में ‘हिंदी के विशाल मंदिर की वीणापाणी’ थीं।वे खादी की बसंती अथवा मैरून बार्डर वाली साड़ी पहनती थीं।  प्रेमचंद जी के पुत्र अमृत राय उन्हें प्रतिवर्ष जन्मदिन के उपहार स्वरूप खादी की साड़ी भेंट करते थे। उल्लेखनीय है की अमृत राय का विवाह महादेवी जी की अभिन्न सखी सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्री सुधा चौहान के साथ बुआ श्री की पहल पर ही हुआ था।

बिटिया काहे ब्याहते

बुआ श्री अपने पुत्रवत डॉ. रामजी पाण्डेय के परिवार को अपने साथ ही रखती थीं। उनके निकटस्थ लोगों में प्रसिद्ध पत्रकार उमाकांत मालवीय भी रहे। रामजी भाई की पुत्री के विवाह हेतु स्वयं महादेवी जी ने पहल की तथा यश मालवीय जी को जामाता चुना। विवाह का निमात्रण पत्र भी बुआ श्री ने खुद ही लिखा था। वर्ष १९८६ में यश जी होली की सुबह अमृत राय जी के घर पहुँच गए, वहाँ भाग मिली ठंडाई पीने के बाद सब महादेवी जी के घर पहुँचे। जमकर होली खेल चुके यश जी का चेहरा लाल-पीले-नीले रंगों से लिपा-पूत था, उस पर भाग का सुरूर, हँसी-मजाक होते होते यश जी ने हँसना शुरू किया तो रुकने का नाम ही न लें, ठेठ ग्रामीण ठहाके। बुआ श्री ने स्वयं भी हँसते हुई चुटकी ली ” पहले जाना होता ये रूप-रंग है तो अपनी बिटिया काहे ब्याहते?”

बुआ श्री ने हमेश अपना जन्मोत्सव अंतरंग आत्मीय सरस्वती पुत्रों के के साथ ही मनाया। वे कभी किसी दिखावे के मोह में नहीं पड़ीं। होली का रंग पर्व किस तरह मनाया जाना चाहिए यह बुआ श्री के निवास पर हुए होली आयोजनों से सीखा जा सकता है।

♥♥♥♥

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 20 – मैहर में एक दिव्य संगीतमयी संध्या/A Night of Divine Music in Maihar – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ मैहर में एक दिव्य संगीतमयी संध्या/A Night of Divine Music in Maihar।) 

☆  दस्तावेज़ # 20 – मैहर में एक दिव्य संगीतमयी संध्या/A Night of Divine Music in Maihar ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

वह शाम किसी और शाम जैसी नहीं थी। वह एक ऐसी शाम थी जब समय ठहर गया था और संगीत ने सांसारिक सीमाओं को पार कर दिया था। आज भी, जब मैं अपनी आँखें बंद करता हूँ, तो सितार और सरोद की स्वरलहरियाँ मेरी स्मृतियों में गूंज उठती हैं, तबले की थापों के साथ, जो मैहर की पवित्र हवा में गूंज रही थीं।

यादगार यात्रा

यह मार्च 1983 की बात है, जब हम जबलपुर से मैहर के लिए निकले थे। यह एक छोटा सा तीर्थ नगर है, लेकिन हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में इसकी विरासत अपार है। यही वह स्थान है, जहाँ महान उस्ताद अलाउद्दीन खान ने अपना जीवन संगीत को समर्पित किया और मैहर घराने को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। इस यात्रा का उद्देश्य अलाउद्दीन खान संगीत समारोह में भाग लेना था, जो हर वर्ष उनकी स्मृति में आयोजित किया जाता है। यहाँ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महान कलाकार अपनी कला को गुरुदक्षिणा स्वरूप अर्पित करते हैं।

मेरे साथ मेरा बचपन का मित्र ओमेन थॉमस और मेरे सहकर्मी सरदार सरन सिंह सलूजा तथा तिजारे साहब थे। हम ट्रेन से मैहर पहुँचे, यह सोचकर कि यह एक और सुंदर संगीतमयी शाम होगी। लेकिन हमें क्या पता था कि हम जीवन की सबसे अविस्मरणीय संध्या में प्रवेश कर रहे थे।

संगीतमयी संध्या का शुभारंभ

कार्यक्रम की शुरुआत पंडित जितेंद्र अभिषेकी के भक्तिपूर्ण भजनों से हुई, जिनकी सुमधुर आवाज़ में गहरा आध्यात्मिक भाव था। हम मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते रहे। इसके बाद प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना सितारा देवी का अभूतपूर्व प्रदर्शन हुआ। उनकी मोहक मुद्राएँ, तीव्र गति के कदम, और गहरी भावनाएँ हमें किसी और ही लोक में ले गईं।

लेकिन असली जादू तब शुरू हुआ जब चार महान संगीत सम्राट मंच पर उतरे—सितार पर पंडित रविशंकर, सरोद पर उस्ताद अली अकबर खान, और तबले पर पिता-पुत्र की जोड़ी—उस्ताद अल्ला रक्खा और उस्ताद ज़ाकिर हुसैन। उनके मंच पर आते ही पूरा सभा स्थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।

एक स्वप्निल संगीत यात्रा

रात्रि का आरंभ राग यमन कल्याण से हुआ, जिसका विस्तृत आलाप और जटिल बंदिशें हमें एक अनोखी यात्रा पर ले गईं। यह प्रस्तुति एक घंटे से भी अधिक समय तक चली, और जब इसकी मधुर तान समाप्त हुई, तब रात आधी बीत चुकी थी।

इसके बाद राग मालकौंस की गहरी और आध्यात्मिक स्वर लहरियाँ बहने लगीं, फिर राग सोहिनी ने वातावरण को अलौकिक बना दिया। फिर जो हुआ, वह किसी जादू से कम नहीं था—

पहले पंडित रविशंकर और उस्ताद अली अकबर खान के बीच एक दिव्य जुगलबंदी हुई, जहाँ सितार और सरोद ने मानो एक संवाद छेड़ दिया। फिर सितार और तबले के बीच अद्भुत संगति हुई, उसके बाद सरोद और तबले की झंकार ने सबको रोमांचित कर दिया। लेकिन असली चमत्कार तब हुआ जब तबले की जुगलबंदी शुरू हुई—पिता-पुत्र उस्ताद अल्ला रक्खा और उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के बीच।

जहाँ एक ओर पिता की परिपक्वता थी, वहीं पुत्र की युवा ऊर्जा। उनकी उंगलियों से निकलते स्वर जादू की तरह बहने लगे। एक लयबद्ध प्रतिस्पर्धा में उस्ताद ज़ाकिर हुसैन ने अपने पिता को चुनौती दी, और उस्ताद अल्ला रक्खा ने अपनी अनुभवी थापों से जवाब दिया। सभागार तालियों और वाह-वाह से गूंज उठा, और यह सिलसिला कुछ देर तक यूँ ही चलता रहा।

भैरवी के साथ सूर्योदय का स्वागत

जैसे-जैसे रात्रि समाप्ति की ओर बढ़ी, कलाकारों ने अंतिम प्रस्तुति दी—राग भैरवी। इसे सुबह की रागिनी कहा जाता है, और जब सितार, सरोद और तबले की मीठी स्वर लहरियाँ गूंजने लगीं, तो ऐसा लगा मानो यह पूरी रात की साधना की अंतिम आहुति हो।

हम सभी सम्मोहित थे, समय मानो ठहर गया था। और जब अंतिम सुर भी हवा में विलीन हुआ, तब एहसास हुआ कि हम एक अद्वितीय संगीतमयी यात्रा से गुज़र चुके थे। सूरज की पहली किरणें हम पर पड़ रही थीं जब हम मैहर रेलवे स्टेशन की ओर लौट रहे थे, अपने हृदयों में इस अनमोल रात की यादें संजोए हुए।

एक दुर्लभ सौभाग्य

मैंने अपने जीवन में अनगिनत संगीत समारोह देखे हैं, किंतु मैहर की वह रात सबसे अलग थी। शायद ऐसी घटनाएँ केवल भाग्य से ही मिलती हैं।

पंडित रविशंकर, उस्ताद अली अकबर खान, उस्ताद अल्ला रक्खा और उस्ताद ज़ाकिर हुसैन—ये चारों एक साथ मंच पर हों, यह दृश्य ही अपने आप में दुर्लभ था। आज भी, जब मैं ओमेन थॉमस से मिलता हूँ, तो हम उस रात को याद कर मुस्कुरा उठते हैं। वह स्वर, वह लय, वह जादू—सबकुछ आज भी जीवंत लगता है।

ऐसी प्रस्तुतियाँ कभी-कभार ही होती हैं, और जब होती हैं, तो वे आत्मा पर एक अमिट छाप छोड़ जाती हैं। वह रात केवल एक संगीत सभा नहीं थी, वह एक दिव्य अर्पण थी—संगीत के माध्यम से ईश्वर की आराधना। और इस अनमोल अनुभव के लिए मैं सदैव आभारी रहूँगा।

☆ A Night of Divine Music in Maihar ☆

It was a night like no other, a night where time stood still, and music transcended the earthly plane. Even today, as I close my eyes, I can hear the notes of the sitar and sarod weaving a tapestry of celestial beauty, accompanied by the rhythmic beats of the tabla that echoed through the sacred air of Maihar.

A Journey to Remember

It was the month of March in 1983 when we set off from Jabalpur to Maihar, a small temple town with a towering legacy in Hindustani classical music. Maihar was the home of the legendary Ustad Allauddin Khan, a man who reshaped the Maihar Gharana and mentored some of the greatest musicians of our time. The occasion was the annual Allauddin Khan Sangeet Samaroh, a festival dedicated to his memory, where maestros of Indian classical music gathered to offer their art as a tribute.

Accompanied by my childhood friend, Oommen Thomas, and my colleagues Sardar Saran Singh Saluja and Tijare Sahab, we took the train to Maihar, eager to witness an unforgettable musical soiree. We had attended many concerts before, but little did we know that this night would be etched in our souls forever.

The Evening Unfolds

The concert began with the soulful bhajans of Pandit Jitendra Abhisheki, whose voice carried a devotional fervour that left us spellbound. This was followed by a breathtaking Kathak performance by the legendary Sitara Devi. Her footwork, her expressions, and the sheer grace with which she moved transported us to another realm.

But the true magic began when the four greatest stalwarts of Indian classical music stepped onto the stage—Pandit Ravi Shankar on the sitar, Ustad Ali Akbar Khan on the sarod, accompanied by the father-son duo, Ustad Alla Rakha and Ustad Zakir Hussain, on the tabla. The moment they appeared, the entire audience rose in a thunderous ovation.

A Night of Musical Enchantment

The performance began with Raga Yaman Kalyan, a majestic piece that stretched over an hour, drawing us into its hypnotic embrace. By the time the notes settled into silence, it was already midnight.

Then came Raga Malkauns, a deeply meditative raga, followed by Raga Sohini, which filled the air with an ethereal quality. What followed next was sheer brilliance—a jugalbandi (duet) between Pandit Ravi Shankar and Ustad Ali Akbar Khan, their instruments conversing in a divine dialogue. This was followed by an interplay between sitar and tabla, then sarod and tabla. Each transition was seamless, each note more mesmerizing than the last.

And then came the moment that left us all breathless—the jugalbandi between the father and son, Ustad Alla Rakha and Ustad Zakir Hussain. The seasoned mastery of the father met the youthful brilliance of the son in an electrifying exchange of rhythms. The beats rained down like a celestial symphony, leaving the audience in rapturous applause that refused to die down.

The Dawn of Bhairavi

As dawn began to break, the maestros offered their final piece—Raga Bhairavi, the queen of morning ragas. The melody was like a prayer, a soulful farewell that lingered in the cool morning air. We sat there, transfixed, unwilling to break the spell.

It was only when the final note dissolved into silence that we realized how deep a trance we had been in. The first light of the morning sun greeted us as we made our way to the railway station, our hearts full and our souls touched by something divine.

A Once-in-a-Lifetime Experience

I have attended countless classical music performances, but nothing has ever come close to that night in Maihar. Perhaps such experiences are not just a matter of chance but destiny. To witness Pandit Ravi Shankar, Ustad Ali Akbar Khan, Ustad Alla Rakha, and Ustad Zakir Hussain together on one stage was nothing short of a blessing. Even today, when I meet Oommen Thomas, we reminisce about that magical night, each note still alive in our memories.

Such renditions happen rarely, and when they do, they leave an imprint on the soul. That night in Maihar was more than just a concert—it was a divine offering, a moment in time where music touched eternity. And for that, I will forever be grateful.

♥♥♥♥

 #AllauddinKhanSangeetSamaroh  #Maihar

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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