मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ मी प्रभा… मुक्काम सोमवार पेठ – लेखांक # 4 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ मी प्रभा… मुक्काम सोमवार पेठ – लेखांक#4☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सोमवार पेठेतल्या सोनवण्यांचं स्थळ आमच्या एका नातेवाईकांनी सुचवलं. सोनवणे हे दूधवाले सोनवणे म्हणून प्रसिद्ध होते, गावाकडे शेतीवाडी !पुण्यात लाॅजिंगचा व्यवसाय! मुलगा पदवीधर, उंच,सावळा नाकीडोळी नीटस ! 

नोव्हेंबरमध्ये साखरपुडा पिंपरीच्या वाड्यात आणि २६ जानेवारी १९७७ ला लग्न पुण्यात झालं !

एकत्र कुटुंब सासूबाई, दीर, जाऊबाई, त्यांची छोटी मुलगी, दुधाचा आणि लाॅजिंगचा  व्यवसाय !

चाकोरीबध्द आयुष्य– बायकांचं आयुष्य चार भिंतीत बंदिस्त ! सात आठ वर्षे जगून पाहिले तसे, पण नाही रमले. १९७७ साली लग्न, १९७८ साली मुलगा झाला.

मी, सासूबाई, जाऊबाई मिळून स्वयंपाक करत असू, इतर सर्व कामाला बाई आणि नोकर चाकर होते. आयुष्य चाकोरीबध्द, जुन्या वळणाचं वातावरण, हातभार बांगड्या, डोईवर पदर, उंबरठ्याच्या बाहेरचं जग माहित नसलेलं आयुष्य !   

शाळेत असताना कविता करत होते, कथा कविता प्रकाशितही झाल्या होत्या. लग्नानंतर थांबलेली कविता उफाळून वर आली. लिहू लागले. कथा, कविता, लेख प्रकाशित होऊ लागले ! देवी शारदेच्या कृपेने एम.ए.पर्यंतचं शिक्षण पूर्ण केलं ! पीएच.डी. साठीही नाव नोंदवलं, पण स्वतःच्या आळशीपणामुळेच पूर्ण होऊ शकलं नाही. घटना घडत गेल्या…वादळ वारे आले, गेले….संसार टिकून राहिला. कविता प्रकाशित झाल्या. कवितेला व्यासपीठ मिळालं, स्वतःची ओळख मिळाली. संमेलनाच्या निमित्ताने प्रवास घडले, दिवाळी अंकाचे संपादन केले ! साहित्य क्षेत्रातली ही मुशाफिरी निश्चितच सुखावह….मी इथवर येणं ही अशक्यप्राय गोष्ट होती…..पण आयुष्य पुढे सरकत राहिलं…मुलाचं मोठं होणं…इंजिनियर होणं…चांगला जाॅब मिळणं, आणि एक चांगला मुलगा म्हणून ओळख निर्माण होणं. कामवाली जेव्हा म्हणाली, ” मी सांगते सगळ्यांना,आमच्या सोनवणेवहिनींचा मुलगा म्हणजे सोनं आहे ,सोनं सुद्धा फिकं आहे त्याच्यापुढे,” तेव्हा मी भरून पावले. निश्चितच! ही दैवगती ! आयुष्य कटू गोड आठवणींनी भरलेलं !

चारचौघींपेक्षा माझं आयुष्य वेगळं आहे हे नक्की ! हे वेगळेपण पेलणं निश्चितच कठीण गेलं !औरंगाबादच्या गझल संमेलनात मा.वसंत पाटील म्हणाले होते, ” कवी/कलावंत हा शापित असतो, तो तसा असावा लागतो,”– ते मला माझ्या बाबतीत शंभर टक्के पटलं आहे ! जसं जगायचं होतं तसं जगता आलं नाही…पण जे जगले ते मनःपूत आणि तृप्त करणारंही….कवितेची नशा ही वेगळीच आहे…..ती झिंग अनुभवली !” अल्प, स्वल्प अस्तित्व मज अमूल्य वाटते, दरवळते जातिवंत खुणात अताशा ” ही अवस्था अनुभवली ! मुलाचं लग्न…नातवाचा जन्म..सगळं सुखावह !

वाढतं वय …आजारपण ..सुखदुःखाचा खेळ ! जगरहाटी…अपयश, उपेक्षा, अपेक्षाभंग….या व्यतिरिक्तही आयुष्य बरंच काही भरभरून देणारं !

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 119 ☆ एक छोटी सी पहल ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय संस्मरण  ‘एक छोटी सी पहल…!’ )  

☆ संस्मरण # 119 ☆ एक छोटी सी पहल ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

घुघुवा के जीवाश्म विश्व इतिहास में अमूल्य प्राकृतिक धरोहर है, जो हमारे गांव के बहुत पास है और निवास (मण्डला जिला) से बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के रास्ते पर स्थित है।

बहुत साल पहले घुघुवा फासिल्स श्रेणी लावारिस एवं अनजान स्थल था,वो तो क्या हुआ कि एक दिन हमारी खेती का काम करने वाले मजदूर मलथू ने बताया कि भैया जी, बिछिया के पास घुघुवा गांव के जंगल से पत्थर बने पेड़ पौधों को काटकर कोई ट्रकों से रात को जबलपुर तरफ ले जाता है, सुना है कोई बड़े डाक्टर साहब की हवेली बन रही है और ये कलात्मक पत्थर तराश कर हवेली में मीनार बनकर खड़े हो रहे हैं।मलथू की बात सुन हम अपने एक दोस्त के साथ साइकिल से घुघुवा रवाना हुए।

प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर ऊंचे-ऊंचे महुआ के वृक्षों की गहरायी घाटियों के बीच बसे स्वच्छंद विचारों वाले भोले भाले आदिवासी निश्छल,निष्कपट खुली किताब सा जीवन जीते खोये से मिले अपनेपन में। रास्ते भर पायलागी महराज कानों में गूंजता रहा।

हम आगे बढ़े,घुघुवा गांव में मुटकैया के सफेद छुई से लिपे घर के आंगन में साइकिल टिका कर मुटकैया के साथ जंगल तरफ पैदल निकल पड़े। रास्ते में मुटकैया ने बताया कि आजा- परपाजा के मुंहन से सुनत रहे हैं कि पहले यहां समंदर था, करोड़ों साल पहले धरती डोलती रही और उलट पुलट होती रही। पहाड़ के पहाड़ दब गए लाखों साल, फिर से भूकम्प आने पर ये पत्थर बनकर बाहर आ गए।

पार्क के बारे में हमने भी सुना था कि  यहां करोड़ों साल पहले अरब सागर हुआ करता था। प्राकृतिक परिवर्तन की वजह से पेड़ से पत्ते तक जीवाश्म में परिवर्तित हो गए। घुघवा  में डायनासौर के अंडे के जीवाश्म भी मिले हैं। सही समय पर बाहर ना आने और प्राकृतिक परिवर्तन के चलते ये पत्थर में परिवर्तित हो गए हैं।डेढ दो किलोमीटर तक घूम घूमकर हम लोगों ने पेड़ पत्तियों आदि के जीवाश्म का अवलोकन किया और गांव लौटकर पूरी जानकारी के साथ इसकी रपट जबलपुर के अखबारों और जबलपुर कमिश्नर को भेजी, हमने मांग उठाई कि तुरंत घुघुवा के जीवाश्म से छेड़छाड़ बंद की जानी चाहिए और घुघुवा को नेशनल फासिल्स पार्क के रूप में घोषित किया जाना चाहिए। अखबारों में छपा और तत्कालीन कमिश्नर श्री मदनमोहन उपाध्याय जी ने प्रेस फोटोग्राफर श्री बसंत मिश्रा के साथ घुघुवा के जीवाश्म श्रेत्र का अवलोकन किया। तत्काल प्रभाव से जबलपुर के डाक्टर की बन रही हवेली से वे कटे हुए जीवाश्म बरामद किए गए। हमारे द्वारा समय-समय पर घुघुवा को राष्ट्रीय जीवाश्म पार्क बनाये जाने हेतु दबाव बनाया गया और अंत में शासन द्वारा छै हजार करोड़ साल पुरानी जीवाश्म श्रृंखला को नेशनल फासिल्स पार्क घोषित कर दिया। धीरे धीरे काम आगे बढ़ा, पार्क के विकास के लिए पहली किश्त पचास लाख रिलीज हुई,उस समय हम भारतीय स्टेट बैंक की सिविक सेंटर शाखा में फील्ड आफीसर थे, अपने प्रयासों से सिविक सेंटर शाखा में घुघुवा नेशनल फासिल्स पार्क का खाता खुलवाया, पार्क  विकास संबंधी कार्य सर्वप्रथम जबलपुर विकास प्राधिकरण को सौंपा गया, जबलपुर विकास प्राधिकरण का कार्यालय हमारी शाखा के ऊपर स्थित था, बीच बीच में हम लोग घुघुवा में हो रहे विकास कार्यों को देखने जाते और खुश होते कि छोटी सी पहल से घुघुवा को अन्तर्राष्ट्रीय नक्शे पर स्थान मिला। यहां 6.5 करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्म पाये गये हैं ये उसी समय के जीवाश्म हैं जब धरती पर डायनोसोर पाये जाते थे | घुघवा के जीवाश्म  पेड़ ,पौधों , पत्ती ,फल, फूल एवं  बीजों से संबंधित है | घुघवा राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान का कुल क्षेत्रफल 0.27 वर्ग किलोमीटर है | लगातार प्रयास के बाद घुघवा को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया | घुघुवा नेशनल फासिल्स पार्क को महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया। हमने अभी भी मांग की है कि घुघुवा में एक ऐसा शोध संस्थान बनाया जाना चाहिए जहां पृथ्वी के निर्माण से लेकर पेड़ पौधों के फासिल्स बन जाने तक की प्रक्रिया पर शोधकार्य हों।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ दैनिक ट्रिब्यून के पूर्व संपादक राधेश्याम शर्मा को याद करते हुए ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

दैनिक ट्रिब्यून के पूर्व संपादक राधेश्याम शर्मा का निधन

☆ संस्मरण ☆ दैनिक ट्रिब्यून के पूर्व संपादक राधेश्याम शर्मा को याद करते हुए ☆ श्री कमलेश भारतीय

मैं नवांशहर में दैनिक ट्रिब्यून का पार्ट टाइम रिपोर्टर था सन् 1978 से । हमारी बेटी रश्मि के स्कूल आदर्श बाल विद्यालय के प्रिंसिपल धर्मप्रकाश दत्ता ने सलाह मांगी कि किसे वार्षिक उत्सव के लिए बुलाएं । मैंने कहा कि हमारे संपादक राधेश्याम शर्मा जी को बुला लीजिए । वे मेरे साथ पंचकूला श्री राधेश्याम शर्मा के घर न्यौता देने गये । वे सहर्ष मान गये । पति पत्नी दोनों आए । समारोह के बाद जब चलने लगे तो मुझे कहने लगे कि -अच्छी रिपोर्ट भेजना लेकिन मेरा उल्लेख नाममात्र ही करना । हमारा उद्देश्य स्वप्रचार नहीं होना चाहिए । यह बहुत बड़ी सीख थी मेरे लिए । आज तक स्मरण है और अपनाई है । जब चंडीगढ़ में दैनिक ट्रिब्यून का पहली मार्च , 1990 को उपसंपादक बना तब पंजाब विश्वविद्यालय के एक समारोह के बाद उन्होंने डाॅ इंदु बाली को बड़े गर्व से कहा था कि कमलेश को हम लेकर आए हैं दैनिक ट्रिब्यून में । मेरा सिर सम्मान से झुक गया था ।

मैं उनके संपादन में मात्र छह माह ही काम कर पाया जब वे भोपाल माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति बन कर चलने लगे तब मुझे अपने कार्यालय में बुला कर मेरे स्थायी होने की चिट्ठी सौंपते कहा कि मैं अपनी जिम्मेवारी से आपको प्रिंसिपल पद छुड़वा कर लाया था । उसी जिम्मेवारी से स्थायी करके जा रहा हूं । आपका प्रोबेशन पीरियड खत्म हुए पांच दिन ही हुए हैं लेकिन बाद में कोई कब करे या आपको परेशान करे, इसलिए मैं अपनी जिम्मेवारी पूरी कर रहा हूं । धन्य । उन्होंने मेरी इंटरव्यू में भी चेयरमैन डाॅ पी एन चुट्टानी को कहा था कि ग्यारह साल से कमलेश हमारे पार्ट टाइम रिपोर्टर हैं और इन सालों में एक भी शिकायत नहीं आई । इससे ज्यादा क्या प्रमाण चाहिए आपको इसकी कवरेज का ?

इनका मंत्र था -कलम रुके नहीं , भटके नहीं , अटके नहीं और बिके नहीं । इस मंत्र को अपनाए ही चला गया और ,,,आज वे नहीं हैं ,,,बहुत बहुत याद आते रहेंगे राधेश्याम जी आप फिर मुझे मौका मिला हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष बनने का । उन्हें अकादमी के कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए मैं सरकारी गाड़ी लेकर न केवल लेने बल्कि छोड़ने जाता तो उनकी आंखों से जो प्यार बरसता वह मेरे लिए अनमोल होता ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #90 – गांधी संस्मरण – 1 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ गांधी संस्मरण के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  के महत्वपूर्ण संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #90 – गांधी संस्मरण – 1 ☆ 

गांधीजी की धर्म यात्रा

नोआखली अब बांग्लादेश में है और गुलामी के दिनों में यह क्षेत्र पूर्वी बंगाल का एक जिला था, जहां 80% आबादी मुस्लिमों की थी। जिन्ना की मुस्लिम लीग की सीधी  कारवाई या डायरेक्ट एक्शन के आह्वान पर यहां ग्रामीण इलाकों में दंगे हुए। दस अक्टूबर 1946 को शुरू हुए दंगे, जो लगभग एक सप्ताह चले, के दौरान मुस्लिम लीग के गुंडों का आतंक  हिंदुओं पर कहर बन कर टूट पड़ा।  यहां के निवासी हिन्दू जमींदार थे या व्यवसाई, उनके साथ कौन सा ऐसा जुल्म था जो नहीं हुआ। हत्या, बलात्कार , आगजनी, संपत्ति का लूट लेना सब कुछ हुआ , स्त्रियों और बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया। स्त्रियों के ऊपर बलात्कार हुए उनके अंग भंग कर कुएं में फेक दिया गया।  इस सांप्रदायिकता से बचने के लिए हिंदुओं ने वहां से पलायन कर दिया। बीस अक्टूबर तक जब नोआखली से दंगा पीड़ित कलकत्ता पहुंचे तब देश को इस विभीषिका का पता चला।  गांधीजी को जब यह सब समाचार मिले तो वे  नोआखली जाने के लिए व्यग्र हो उठे। उन्होंने कांग्रेस के नेता आचार्य कृपलानी और उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी को तत्काल नोआखली के लिए रवाना किया और उनकी रिपोर्ट मिलते ही स्वयं के वहां जाने की सार्वजनिक घोषणा कर दी।  और फिर गांधीजी 29 अक्टूबर 1946 को कलकत्ता पहुँच गए। उनका कलकत्ता आगमन मुस्लिम लीग के गुंडों को पसंद नहीं आया। उन्होंने गांधीजी को हतोत्साहित करने की खूब कोशिश की। बंगाल के मुख्यमंत्री शहीद सुहरावर्दी तो उनके नोआखली जाने के सख्त खिलाफ थे। पर गांधीजी तो किसी और मिट्टी के बने थे। मुस्लिम लीग के गुंडों के द्वारा पेश की गई अड़चनों, हमलों आदि ने भी उन्हे कर्मपथ से विचलित होने नहीं दिया। वे कलकत्ता में सबसे मिले स्थिति का जायजा लिया और फिर वहां से पूर्वी बंगाल निकल गए जहां विभिन्न ग्रामों में होते हुए अपने दल के साथ 20 नवंबर 1946 को श्रीरामपुर पहुंचे।  यहां से उन्होंने अपने दल के साथियों को अलग गांवों में भेज दिया।

श्रीरामपुर में रहते हुए गांधीजी ने बांग्ला भाषा सीखने का प्रयास शुरू कर दिया और उनके गुरू बने प्रोफेसर निर्मल कुमार बोस। इस गाँव में रहते हुए गांधीजी ने रोज आस पास के गांवों में पैदल जाना शुरू किया, ताकि पीड़ितों को ढाढ़स बँधाया जा सके। पूर्वी बंगाल, नदियों के मुहाने में बसा हुआ क्षेत्र है।  यहां एक गाँव से दूसरे गाँव जाने के लिए नालों को पार करना होता था और इस हेतु बांस की खपच्चियों के बनाए गए अस्थाई पुल एक मात्र सहारा थे। इन पुलों पर चलना आसान न था। फिर भी गांधीजी ने धीरे धीरे इन पुलों पर चलने का अभ्यास किया। गांधीजी का भोजन उन दिनों कितना था ? पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि गांधीजी मौसम्बी का रस या नारियल के पानी के अलावा एक पाव बकरी का दूध, उबली  हुई सब्जी व जौ, कभी कभी खाखरा और अंगूर तथा रात में कुछ खजूर लेते थे और इस भोजन की कुल मात्रा 150 ग्राम ( दूध के अलावा) से अधिक नहीं होती थी।

गांधीजी अढ़ाई महीने  तक नोआखली में रुके और इस दौरान लगभग 200 किलोमीटर बिना चप्पल के नंगे पैर पैदल चलकर पचास गांवों में लोगों से मिले, उनके घावों में मलहम लगाया, उनके दुखदर्द सुने और उनके आत्मबल को मजबूत करने का प्रयास किया। गांधीजी की यह यात्रा धर्म की स्थापना की यात्रा थी और इस यात्रा का वर्णन पढ़ने से गांधीजी के तपोबल का अंदाज होता है।

जब गांधीजी नोआखली पहुँच गए तो मनुबहन गांधी, जो उन  दिनों सूदूर गुजरात में थी, को इसकी खबर लगी। वे बापूजी के पास जाने को व्यग्र हो उठी।  गांधीजी और मनु बहन व उनके पिता जयसुखलाल गांधी के बीच पत्राचार हुआ और अंतत: मनु बहन 19 12.1946 को श्रीरामपुर, गांधीजी के पास पहुँच गई। वे 02 मार्च 1947 तक गांधीजी के साथ इस यात्रा में शामिल रही और इस दौरान उन्होंने गांधीजी की दैनिक डायरी लिखी। इस डायरी को गांधीजी रोज पढ़ते थे और अपने हस्ताक्षर करते।  मनु बहन की यह डायरी बाद में नवजीवन ट्रस्ट अहमदाबाद द्वारा 1957 में पहली बार प्रकाशित हुई नाम दिया गया एकला चलो रे – (गांधी जी की नोआखली की धर्म यात्रा की डायरी)

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ मी प्रभा… स्वाध्यायचे दिवस – लेखांक # 3 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ मी प्रभा… स्वाध्यायचे दिवस – लेखांक#3☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

रत्नागिरीला मावशीकडे चार  महिने राहिल्यानंतर मी परत आजीआजोबांकडे आले. आजी म्हणाली, “ तू पुण्याला जा आणि काॅलेजचं शिक्षण पूर्ण कर. तुझा मोठा भाऊ शिकतो, धाकटी बहिण शिकते, लोकांना वाटेल ही काय ढ आहे की काय?” मी ढ नव्हते पण अभ्यासूही नव्हते !

मी पुण्यात  गोखलेनगरला रहाणा-या काकींकडे राहून स्वाध्याय या बहिःस्थ विद्यार्थ्यांसाठी असलेल्या महाविद्यालयात प्रवेश घेतला. मी बसने जात, येत होते. स्वाध्यायमधले दिवस खूपच अविस्मरणीय ! तिथे माझ्या आयुष्याला नव्याने पालवी फुटली. आमचा वर्ग खूप मोठा होता. कुलकर्णी आणि पुरोहित या दोघी गृहिणी स्वाध्यायच्याच बिल्डींगमध्ये रहायच्या आणि माझ्याशी खूप प्रेमाने वागायच्या !

आमच्या वर्गात एक नन होती. आम्ही त्यांना सिस्टर म्हणत असू, मी एकदा सिस्टरला म्हटलं,

‘मला पण नन व्हायचंय,’ तर त्या म्हणाल्या “हा मार्ग खूप कठीण आहे, आणि तुझ्यासाठी नाही !”

वार्षिक स्नेहसंमेलनात मी अनेक कार्यक्रमात सहभागी झाले. गोखले हाॅलमधे हे संमेलन होत असे. या संमेलनात मी पहिल्यांदा माझ्या कविता व्यासपीठावर सादर केल्या. पुरोहित बाई आणि मी ज्या कविसंमेलनात होतो त्या कविसंमेलनात कवी कल्याण इनामदार पण होते. आम्हाला दोन कविता आणि कल्याण इनामदार यांना चार कविता सादर करायला सांगितल्या, ही गोष्ट पुरोहित बाईंना खटकली होती. त्यावेळी त्या म्हणाल्या होत्या, ” ते प्रसिद्ध कवी असले तरी स्वाध्यायचे विद्यार्थीच आहेत  !”

मी  एकांकिका स्पर्धेतही सहभागी होते, आणि मला उत्कृष्ट अभिनयाचं पारितोषिकही मिळालं होतं! त्यावेळी लिमये सरांनी विचारले होते, “व्यावसायिक  रंगभूमीवर काम करणार का?” पण ते कदापीही शक्य नव्हतं!

एकदा आम्ही सहा सातजणी काॅलेज बुडवून निलायमला “फूल और पत्थर” हा सिनेमा पहायला गेलो होतो, दुस-या दिवशी सरांनी कडक शब्दात समज दिली होती,

मराठी कुलकर्णी सर, हिंदी धामुडेसर, अर्थशास्त्र लिमये सर आणि इंग्लिश  महाजन सर शिकवत. धामुडेसरांनी मला मुलगी मानलं होतं!

आमच्या वर्गात माधुरी बेलसरे नावाची एक व्याधीग्रस्त मुलगी होती, तिला नीट चालता येत नव्हतं.  तिला स्वाध्याय मध्ये तिची बहिण घेऊन यायची, तिचं नाव शुभदा ! शुभीशी माझी खूप छान मैत्री झाली. माधुरी गोखले ही सुद्धा चांगली मैत्रीण होती ! त्या काळात माझा मोठा भाऊ एस.पी.काॅलेजला आणि धाकटी बहिण गरवारे काॅलेज मध्ये शिकत होते.  ते दोघं हाॅस्टेलवर रहात होते.

स्वाध्यायमध्ये माझ्या कलागुणांना वाव मिळाला. अवतीभवती कौतुक आणि प्रेम वाटणारी माणसं होती. वर्गातल्या सविता जोशी आणि माळवे बाईही खूप कौतुक करायच्या !

माझ्या आयुष्यात स्वाध्याय- पर्व खुप महत्वाचे आहे.

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #89 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में… – 5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #89 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (गांधी यात्रा के कुछ संस्मरण) – 5 ☆ 

गांधी यात्रा के कुछ संस्मरण :-   

(iii) दमोह में सभा के दौरान गांधी जी ने लोगो से चंदा देने की अपील की। दमोह में लोगों ने दिल खोल कर चंदा दिया था। किसी ने जेवर तो किसी ने चांदी की चवन्नी।  गोदावरी बाई धगट भी वहां मौजूद थीं। उन्होंने अपने कानों से सोने के कर्णफूल निकाले और मंच की ओर बढ़ीं। इस बीच एक कर्णफूल भीड़ में कहीं गिर गया। गोदावरी धगट  ने गांधी जी से कहा कि वह दोनों कर्णफूल देने आईं थी, लेकिन एक कहीं गिर गया। गांधी जी ने मंच से कहा, जिस किसी को भी कर्णफूल मिला हो, वहा यहां लाकर दे सकता है, देश की आजादी के लिए इसकी जरूरत है। कुछ ही देर बाद, हजारों की भीड़ के बीच से एक व्यक्ति मंच तक पहुंचा और कर्णफूल गांधी जी को दे गया।

(iv) 02 दिसंबर 1933 को गांधीजी मीरा बहन के साथ देवरी में सभा को संबोधित करने जा रहे थे।  तब नन्ही बाई नामक दस वर्षीय बालिका गांधीजी को निकट से देखने के प्रयत्न में मोटर कार से टकराकर गिर पड़ी और चोटिल हो गई। मीरा बहन ने उसे अपनी कार में बिठाया और अस्पताल लेकर गई थी।  सभा स्थल से लौटकर गांधीजी नन्ही बाई को देखने अस्पताल गए। तब नन्ही बाई भी गांधीजी को इतने निकट से देखकर गदगद हो गई और अपना दर्द भूल गई।

(v) 20 अप्रैल 1935 को गांधीजी जब दूसरी बार इंदौर पधारे तो सेठ हुकुमचंद ने उन्हें, मीरा बहन व कस्तूरबा गांधी को अपने निवास स्थल ‘इन्द्र भवन’ में भोजन के लिए आमंत्रित किया।  भोजन के समय जो घटना घटी वह गांधीजी की हास्यप्रियता को दर्शाती है।  सेठ जी के यहाँ गांधीजी को सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन परोसा गया।  इस पर गांधीजी ने सेठ जी से मजाक में कहा कि ‘मेरा नियम है कि मैं जिन बर्तनों में भोजन करता हूं वे मेरे हो जाते हैं।‘ सेठ हुकुमचंद ने विनम्रता पूर्वक कहा कि ‘जी महात्मा जी।’ इस पर गांधीजी खिल खिलाकर हंस पड़े और अपने साथी रामानंद नवाल से कहा कि ‘ मेरे बर्तन कहां हैं, लाओ उन्हें।‘ अंत में गांधीजी ने अपने साधारण बर्तनों में भोजन ग्रहण किया।

(vi) गांधीजी जब खंडवा पधारे तब सफाई कर्मियों की हड़ताल चल रही थी, गांधीजी ने ऐसी परिस्थिति  में स्वयं शौचालयों की सफाई की। उनके खानपान संबंधी हिदायतें तो खंडवा के लोगों को पहले से पता थी और दूध की व्यवस्था हेतु कुछ बकरियाँ जिला कांग्रेस के महामंत्री रायचंद नागड़ा के यहाँ बांध दी गई। जब लोगों को पता चला कि गांधीजी को इन्ही बकरियों का दूध अर्पित किया जाएगा तो लोगों ने श्रद्धा भाव से इन बकरियों को काजू, किसमिस, बादाम आदि मेवे खिलाने शुरू कर दिए।

(vii) गांधीजी 01 दिसंबर को इटारसी से रेलगाड़ी पकड़ करेली पहुंचे। यहां से वे सागर जाने वाले थे। बरमान घाट पर गांधीजी को नाव से नर्मदा नदी पार करनी थी। नदी तट पर मल्लाहों ने उन्हें अपनी नौका पर चढ़ाने से इंकार कर दिया।  मल्लाहों की जिद्द थी कि वे गांधीजी के चरण धो चरणामृत पीने के बाद ही उनको नर्मदा नदी पार कराएंगे। गांधीजी इस आग्रह को स्वीकार नहीं कर रहे थे पर मल्लाह भी अपनी बात पर अड़े रहे। आखिरकार गांधीजी को बरमान घाट के भोले भाले मल्लाहों का आग्रह स्वीकार करना पड़ा। और इस प्रकार कलयुग में प्रभु श्रीराम के चरण केवट द्वारा धोने की पौराणिक कथा एक बार फिर दोहराई गई.

(viii)  जबलपुर में गांधीजी श्याम सुंदर भार्गव की कोठी में ठहरे थे। जबलपुर में एक पत्रकार के प्रश्न का उत्तर देते हुए गांधीजी ने कहा कि जबलपुर का पूरा दायित्व दो तरुण व्यापारियों के हाथों में था, जबकि यहां के वकीलों के एक वर्ग ने असहयोग आंदोलन में दूरी बनाए रखी। इस बात का प्रतिरोध यहाँ के बैरिस्टर ज्ञानचंद वर्मा ने करते हुए कहा कि उन्होनें तो गांधीजी के आह्वान पर पिछले वर्ष ही वकालत छोड़ दी है।  गांधीजी ने वर्मा जी की बात धैर्यपूर्वक सुनी और उनके साहसपूर्ण प्रतिरोध की प्रसंशा की और सभी वकीलों से अदालत का बहिष्कार करने का आह्वान किया।

(ix) मध्य प्रदेश यात्रा के दौरान गांधीजी के आश्रय स्थल  अमीरों के महलनूमा आवास से लेकर धर्मशाला और गरीबों की झोपड़ी भी बने। जब गांधीजी 30 नवंबर 1933 को वर्धा से इटारसी पहुंचे तो उनके रुकने की व्यवस्था रेलवे स्टेशन के नजदीक सेठ लखमीचन्द गोठी की धर्मशाला में की गई। गांधीजी धर्मशाला की स्वच्छता  व अच्छी  व्यवस्था से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी हस्तलिपि में इसकी प्रसंशा करते हुए लिखा ‘इस धर्मशाला में हम लोगों को आश्रय दिया गया, इसके लिए हम संचालकों का आभार मानते हैं। यह जानकर कि  स्वच्छता से रहने वाले हरिजनों को भी स्थान मिलता है बहुत हर्ष हुआ।‘  यहां से उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी की जन्मस्थली बाबई जाने के बारे में भी पूछताछ की पर रास्ता खराब होने के कारण उस वक्त उनका बाबई जाना स्थगित हो गया।

(x) गांधीजी का माखनलाल चतुर्वेदी के प्रति बहुत अनुराग था, उनकी वाक्शक्ति व भाषण देने की कला से गांधीजी बहुत प्रभावित थे। इसीलिए  वे जबलपुर से सोहागपुर होते हुए जब बाबई पहुंचे तो इस अनुराग को उन्होंने आमसभा में व्यक्त किया। गांधीजी ने कहा कि ’ माखनलाल जी की जन्मभूमि देखने को मेरा मन बाबई  में ही लगा हुआ था। मैं यहां हरिजन कोष  के लिए दान लेने नहीं आया हूं। आपने अपने मानपत्र में यहाँ की कार्यकर्ताओं के कष्टों का जो विवरण दिया है, उसका मेरे मन पर असर हुआ है। यदि हरिजन मंदिर नहीं जा पाते तो याद रखो कि इस मंदिर में भगवान का वास नहीं है।‘    

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ हरकारा ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में पहला संस्मरण – “हरकारा”.)   

☆ संस्मरण ☆ हरकारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(इतिहास के झरोखों से)

हमारे जीवन काल में अनेकों किरदार आए जिनकी वज़ह से हम अपना जीवन अच्छे से निर्वाह कर सके और आगे भी करते रहेंगे।

एक किरदार जोकि अब विलुप्त होने की कगार पर है, जिसने हमारे जीवन की खुशियाँ और गम परोसने में सर्दी, गर्मी और वर्षा की परवाह कभी भी नहीं की, वरन आंधी और तूफानों  में भी हमारी सेवा करता रहा। जी हाँ  जिसका हम रोज़ इंतजार करते थे। “पोस्टमैन” बचपन में जब घर में Door Bell की परंपरा नहीं थी या यूँ  कह लें  कि ये सब उस जमाने में रईसों के चोचले  होते थे।

दरवाज़े की सांखल / चिटकनी की आवाज़ आती थी तो भागकर पोस्टमेन  से संबंधियों के आए हुए पोस्टकार्ड पढ़ते हुए अम्माजी के हवाले कर देते थे। पिताश्री तब संध्या काल में घर पर आकर भी पूछते थे- क्या किसी की कोई चिट्ठी आई है क्या ?

इसके पीछे एक कारण ये भी था कि  हमारे परिवार के अधिकतर लोग देश के विभिन्न शहरों में बसे हुए थे।  1947 के बँटवारे  के भुक्तभोगी जो थे।

जब दीपावली और होली पर 2 रुपए का “इनाम” देने के बाद भी उसको ये सुना देते थे कि आजकल चिट्ठियां आने में अधिक समय लगने लगा है। तुम लोग काम ठीक से नहीं करते क्या ? वो भी मुस्कराते हुए चला जाता था समझता था की मेरे ऊपर एहसान कर रहे है।

बैंक की लिखित परीक्षा का परिणाम देते हुए हमारे पोस्टमैन भैया बोले थे कि” इस बार नौकरी लग जाएगी” तो हमारी दादी ने तुरंत उसे आशीर्वाद देते हुए कहा था “तुम्हारे मुंह में घी शक्कर” तो वो भी बोला था इस बार बिना मिठाई के नहीं मानूंगा। शायद उसकी दुआ ही रही होगी की हमने बैंक की नौकरी से अपना जीवन यापन किया।

समय बदला इंटरनेट, मोबाइल संचार के नए-नए साधन आ गए। परंतु, हरकारों  की उपयोगिता आज भी कम नहीं हुई है। निजी क्षेत्र में कूरियर सेवा भी तीन दशक से अधिक समय से कार्यरत है परंतु अभी भी गोपनीयता की दृष्टि से पोस्ट सेवा ही विश्वसनीय है।

वर्ष 2007 में हमारे बैंक ने एक Pilot Project के अंतर्गत India Post के साथ एक करार किया था तो, पोस्ट ऑफिस की कार्य प्राणली को और अधिक नज़दीक से जानने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ कार्यरत कर्मचारी बहुत ही विषम परिस्थितियों में कार्य करते है। हालांकि बाद में वो करार भंग हो गया था।

भारतीय सिनेमा ने भी अपनी फिल्मों के माध्यम से पोस्टमैन के रोल का बखूबी चित्रण किया और अनेक फिल्मों में पोस्टमैन द्वारा समाज के प्रति निभाई जा रही जिम्मेवारी को जनसाधारण तक पहुंचाया।

बदलते हुए सामाजिक ढांचे ने पोस्टमैनों में भी कहीं कहीं लालच की बुराई भर दी है।

Black Sheep हर वर्ग में पाए जाते है।

हमारे युग में उनका योगदान सरहनीय है और हम सब उनके कृतज्ञ है। इसी प्रकार के कई अन्य किरदार भी है फिर कभी चर्चा करेंगे।

 

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ मी प्रभा… रत्नागिरीचा रम्य परिसर – लेखांक#2☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ मी प्रभा… रत्नागिरीचा रम्य परिसर – लेखांक#2☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

अकरावी पास झाल्यावर मी शिरूरला सी.टी.बोरा काॅलेजला प्रवेश घेतला. राणी गायकवाड आणि मी अगदी सख्ख्या मैत्रिणी ! काॅलेजमधे मी आर्टसला गेले तर ती काॅमर्सला! काॅलेजमध्ये प्रवेश घ्यायच्या आधीच तिचं माझं किरकोळ कारणांवरून भांडण झालं. आम्ही शाळेत असताना काॅलेजमधला एक मुलगा आमच्या मागं लागलाय, असं राणीच्या भावाला कुणीतरी सांगितलं. मग त्यानं त्याला बरीच मारहाण केली होती. आम्ही काॅलेजमधे गेल्यावर तो मुलगा आमच्या दोघींशी बोलू इच्छित होता, पण आम्ही त्याच्याशी बोललो नाही. पण एक दिवस तो मला लायब्ररीत भेटला आणि काही पुस्तकं वाचायला दिली. मी त्याच्याशी बोलू लागले, तो मला म्हणाला, “राणीने मला मार बसवला, मी तिचा बदला घेणार आहे “! त्या काळात मी राणीशी बोलत नव्हते, आमची मैत्री तुटली याचा काहीजणांना आनंद झाला होता. पण दिवाळीच्या आधी आम्ही बोलू लागलो. आमची मैत्रीण संजू कळसकरनी आमच्यात समझौता घडवून आणला! दुस-या दिवशी आम्ही दोघी काॅलेजमधे बरोबर गेलो, राणी म्हणाली ‘चल आपण त्याला सांगू ‘ आम्ही बोलायला लागलो, तर तो आमच्याशी भांडायला लागला, आणि म्हटला, “तुम्ही दोघी माझ्या घरी चला”. राणी म्हणाली मी नाही येणार आणि ती घरी निघून गेली. पण मी गेले त्याच्या घरी ,मला त्यात काही  अनैतिक वाटले नाही. खरोखर ते  फक्त एक भांडण होते,पण संशयास्पद वातावरण निर्माण झाले एवढे नक्कीच.  तो खूपच चिडलेला होता, पण तो माझ्याशी काही गैरवर्तन  करेल असं मला मुळीच वाटलं नाही. त्याची आई म्हणाली जेऊन जा, त्याची बहीण एक वर्ष आमच्या वर्गात होती तिनं ताट वाढलं, तेवढ्यात तिथे पवारांचा नोकर मला न्यायला आला. कारण अशी अफवा पसरली की मी त्या मुलाबरोबर पळून गेले! तो मुलगा त्या अर्थाने मला कधीच आवडला नव्हता. त्याच्याबद्दल माझ्या मनात प्रेम, आकर्षण मुळीच नव्हतं, राणीलातरी तो कधी काळी आवडला होता. एकदा आम्ही “होली आयी रे” सिनेमा पहायला गेलो, तेव्हा ती प्रेमेन्द्रला पाहून  म्हणाली होती, “हा त्या पोरासारखाच दिसतो ना,तो आवडतो मला “! जो मुलगा मला कधीच आवडला नव्हता त्याच्याबरोबर पळून गेल्याच्या अफवेमुळे मला काॅलेज सोडावं लागलं. मला काहीच न विचारता माझे आईवडील मला गावाला घेऊन गेले आणि मी स्वतःला निर्दोष शाबित करू शकले नाही. दिवाळीच्या सुट्टीत आजोळी गेल्यावर या विषयावर चर्चा झाली. काका म्हणाले “काॅलेजमधे अशा गोष्टी होणारच!” पण माझ्यासमोर कोणी बोलत नव्हतं ,माझी मानसिकता जाणून घ्यायचा कोणी प्रयत्न केला नाही, माझं “लव अफेअर” असल्याचं गृहित धरलं होतं जणू ! मला त्या गोष्टीचा प्रचंड मानसिक त्रास झाला. 

माझी आई म्हणाली ‘ तू काही दिवस इथे रहा.’ माझी मावशी त्या काळात रत्नागिरीला रहात होती. थोडे दिवस आजीआजोबांकडे राहिल्यानंतर मी मावशीकडे रत्नागिरीला गेले !

रत्नागिरी हे मला आवडलेलं नितांत सुंदर शहर. तिथे मला अंजू पिंगळे नावाची मैत्रीण मिळाली.  काका एसटीमध्ये ऑफिसर होते आणि एसटीच्या ऑफिसर्स क्वार्टर्समध्ये रहात होते. मावशीचा फ्लॅट खूपच सुंदर होता आणि तिनं तो ठेवलाही खूप सुंदर होता !

त्याच बिल्डींग मध्ये रहाणा-या ठाकुरकाकींची मैत्रीण लेखिका कुसुम अभ्यंकर होत्या. त्या एकदा मला भेटल्या. मी त्यांच्या वाचलेल्या कादंब-यांची नावं सांगितली, त्या माझ्याशी खुप छान बोलल्या !

मावशी आणि तिच्या  मैत्रीणींबरोबर मी हेदवी, गुहागर, आणि आजूबाजूच्या ब-याच ठिकाणच्या सहली केल्या.  रत्नागिरी मला इतकं आवडलं होतं की मला आयुष्यभर रत्नागिरीत रहायला आवडलं असतं ! खूपच निसर्गरम्य परिसर आहे. वाईटातून काही चांगले घडत होते, काळजावरचे चरे नंतरच्या काळात  कवितेत उतरले !

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ विजय दिवस विशेष – अंखियों के झरोखों से ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक संस्मरण  ‘अंखियों के झरोखों से’ )  

☆ विजय दिवस विशेष –  अंखियों के झरोखों से ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

सन् 1971 भारत-पाक युद्ध। 16 दिसंबर स्वर्णिम विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। हमारे जवानों ने जबरदस्त साहस दिखाया था, दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए थे,93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों के साथ लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी ने तिरंगे के सामने आत्मसमर्पण किया था। जनरल नियाजी के साथ 8 पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों को संस्कारधानी के सीएमएम में युद्धबंदी के रूप में रखा गया था।
शत्रु सेना के आत्मसमर्पण के बाद इन अधिकारियों को रखने के लिए जबलपुर को सबसे उपयुक्त और सुरक्षित माना गया था।सीएमएम में लेफ्टिनेंट जनरल ए ए के नियाजी के साथ मेजर जनरल मुहम्मद हुसैन,मेजर जनरल हुसैन शाह,मेजर जनरल राव फरमान अली,मेजर जनरल मुहम्मद जमशेद,मेजर जनरल काजी अब्दुल मजीद खान,रियर एडमिरल मुहम्मद शरीफ ,एयर कमांडर इनामुलहक को विशेष सुरक्षा में रखा गया था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #88 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर)–4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #88 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर) – 4 ☆ 

गांधीजी का मध्यप्रदेश में छठवीं बार आगमन 1933 में हुआ और इस दौरान वे बालाघाट, सिवनी, छिंदवाड़ा, बैतूल,इटारसी  सागर, दमोह, कटनी, जबलपुर, मंडला , सोहागपुर,  बाबई, हरदा, खंडवा गए। गांधीजी ने 28 नवंबर 1933 से शुरू किए अपने इस दौरे में कुल सत्रह दिन मध्य प्रदेश में बिताए। इस हरिजन दौरे के दौरान उन्होंने  अस्पृश्यता निर्मूलन और जातिगत ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करने पर बल दिया।  उनके दमोह और सागर दौरे की कुछ झलकियां निम्न हैं:-     

गांधीजी का दमोह  आगमन – महात्मा गांधी रेहली तथा गढाकोटा होते हुए 2 दिसंबर,1933 को क्षेत्र के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी पंडित जगन्नाथ प्रसाद पटैरिया शेवरले कार से दमोह पहुंचे। चुंगी नाके पर उनका स्वागत किया गया तथा उन्हें एक विशाल जूलूस में मुख्य बाजार ले जाया गया। दमोह में उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया, उनके सिर पर छत्र रखा गया, सड़कों पर अभ्रक डाला गया और पूरे रास्ते उन पर पुष्पवर्षा की गई। गांधीजी ने वर्तमान गांधी चौक  में एक विशाल सभा को संबोधित किया,जहाँ झुन्नी लाल वर्मा द्वारा स्वागत भाषण दिया गया। अन्य स्थानों की भांति यहां भी उन्हें थैलियां भेंट की गयी। इस अवसर पर दमोह की यह विशेषता रही कि यहां ईसाईयों ने भी, जिनमें अंग्रेज भी शामिल थे, थैली प्रदान करी। इससे गांधीजी अत्यंत प्रसन्न हुये। बाद में उन्होंने हरिजनों के लिए एक बाल्मीकि गुरुद्वारे का भूमिपूजन किया था। इधर दमोह में आज जहां टोपी लेन है, वहां सैकड़ों टेलर मास्टर जमा थे। लोग गांधी टोपियां सिला रहे थे।

सागर :-  “संसार के सर्वश्रेष्ठ महान पुरुष,त्यागी महात्मा गांधी का हृदय से स्वागत कीजिए” यह पंक्तियां उस आमंत्रण पत्र  का हिस्सा हैं जो 1, 2 व 3 दिसंबर,1933 को बापू के सागर जिले के विभिन्न स्थानों के  दौरे के लिए छापा गया था। बापू का कार्यक्रम मूलतः आज के देवरी विधानसभा क्षेत्र में स्थित अनंतपुरा गांव जाने के लिए बना था, जहां उन्हें एक नवयुवक जेठालाल द्वारा संचालित  ‘खादी निवास’ नामक बुनकरों की बस्ती में चल रहे काम का निरीक्षण करना था। गांधीजी  नरसिंहपुर जिले के करेली रेलवे स्टेशन पर 1 दिसंबर 1933 उतरे और  करेली और बरमान के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हुए वे कार से देवरी पहुंचे थे, जहां दलितों के बीच उन्होंने आधा घंटा बिताया और मुरलीधर मंदिर के कपाट हरिजनों के लिए खुलवा  दिए। इसके बाद वे  अनंतपुरा ग्राम में पूरा दिन और पूरी रात रुके। बाद में गांधीजी ने ‘अनंतपुरा में मैंने क्या देखा’ प्रसंशात्मक  लेख लिखा, जो 15 दिसंबर 1933 के हरिजन में छपा।  

गांधी का आगमन सागर के लिए बड़ी घटना थी। यहाँ भी उन्होंने कोरी समाज के मंदिर की नींव रखी। दलितों को जहां मंदिर प्रवेश में दिक्कतें थीं तो उनके खुद के पूजास्थल बनवाना भी उस समय क्रांतिकारी कदम था। गांधीजी ने  गल्लामंडी प्रांगण की आमसभा को संबोधित किया और फिर इसी कार्यक्रम में गांधी अपने उपयोग की चीजें भी नीलाम कर हरिजन आंदोलन के लिए धन एकत्रित किया। बहुतों ने सामान खरीदा। कइयों ने सामान लिए बिना भी अपने गहने और रूपये गांधी जी को दे दिए।

गांधी यात्रा के कुछ संस्मरण :-      

(i) गांधीजी  जब रायपुर से बिलासपुर जा रहे थे तो रास्ते में एक वृद्धा मोटर के सामने खडी हो गयी और बोली की मरने के पहले वह गांधीजी के चरण धोकर पुष्प चढ़ाना  चाहती है। गांधीजी ने हंसकर कहा कि इसके लिए वे एक रुपया लेंगे। वृद्धा के पास रुपया न था वह बोली मैं घर जाकर देखती हूँ शायद कुछ मिल जाय। आसपास खड़े लोगों ने उसे रुपया देना चाहा पर वह इसके लिए तैयार न हुई, गांधीजी ने भी हँसते हुए अपने चरण आगे बढ़ा वृद्धा की इच्छा पूरी की। बिलासपुर में गांधीजी की विशाल सभा शनिश्चरा पड़ाव पर हुयी। सभा की समाप्ति पर लोग चबूतरे की ईंट, पत्थर और  मिटटी तक घर ले गए.

(ii)  गांधीजी के बैतूल से इटारसी जा रहे थे। एक छोटे से स्टेशन ढोढरा पर रेल गाडी रुकी, बाहर अपार जनसमूह महात्मा गांधी की जय के नारे लगा रहा था। दीनता और गरीबी इतनी की आम जन के पास ठीक से तन ढकने को कपडे तक न थे। गांधीजी डिब्बे से बाहर आये, मनकीबाई नामक महिला ने उन्हे माला अर्पित की और गांधीजी को कुछ सिक्के यह कहते हुए दिए कि उसने गांव  वालों से एक एक पैसा मांगकर एकत्रित किया है। गांधीजी ने इसे दरिद्रनारायण का प्रसाद मानते हुए ग्रहण किया.

क्रमशः….

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print