हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक, चंद कविताएं चंद अशआर” शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है।)
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री हेमंत तारे जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “उर्दू से मेरा आत्मिक लगाव“।)
☆ दस्तावेज़ # ४३ – उर्दू से मेरा आत्मिक लगाव☆ श्री हेमंत तारे ☆
उर्दू भाषा ने बचपन से ही मेरे मन को एक अनकही, रहस्यमयी सी मोहकता से बाँधे रखा है। इसकी मनमोहक लिपि, और इसे दाहिनी ओर से बायीं ओर लिखे जाने कि पध्दति ने मुझे सदैव इस भाषा की और आकर्षित किये रखा. यह कहना भी आवश्यक होगा कि सुन्दर लिपी से परे इसके चाशनी से पगे उच्चारण हमेशा से मेरे हृदय को झंकृत करते रहे हैं। बचपन के दिनों में ही इसकी छाप मेरे मन पर पड़ गई थी। यदि मैं अपनी इस रुचि की जड़ों को तलाशने जाऊँ, तो पाता हूँ कि शायद मेरे कुछ बालसखा, जो मुस्लिम समुदाय से थे, उनके माध्यम से उर्दू लिपि और भाषा के प्रति यह आकर्षण जन्मा।
अक्सर, हमारे साथ ऐसा होता है कि हम जिन चीज़ों से प्रेम करते हैं, उन्हें पाने की राह सहज प्रतीत होती है, लेकिन व्यवहार में हम पहला कदम उठाने से अमूमन चूक जाते हैं। मेरी उर्दू के प्रति प्रेम कहानी भी कुछ ऐसी ही रही— मन में चाह थी, पर कदम ठिठके रहे।
सौभाग्यवश, जब मैं बैंक सेवा से सेवानिवृत्त हुआ, तब यह दबी हुई रुचि पुनः पूरे जोश और उत्साह के साथ उभर आई। उस समय मुझे शाहरुख़ ख़ान की एक फ़िल्म की निम्न प्रसिद्ध पंक्तियां याद आई:
“किसी चीज़ को अगर शिद्दत से चाहो, तो सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने में लग जाती है”
ऐसा लगा मानो ये शब्द मेरे लिए ही कहे गए हों। उत्साहवर्धक इन शब्दों ने मेरी सुषुप्त चाह को मानो राह दिखा दी हो.
बस, यहीं से मेरी उर्दू सीखने की यात्रा का आरंभ हुआ। पहला कदम था — एक योग्य “उस्ताद” की तलाश। और यह कार्य मेरे लिए आश्चर्यजनक रूप से सरल सिद्ध हुआ। संयोग ऐसा बना कि मेरे पचास वर्षों से अधिक पुराने मित्र, साहेबान ग़नी, जो स्वयं उर्दू में तालीमयाफ्ता रहे हैं, मेरी सहायता के लिए आगे आए और उन्होंने मेरे उर्दू भाषा पढ़ाने के प्रस्ताव का सहर्ष स्वागत किया । मैं अभिभूत तो तब रह गया जब उनकी पत्नी, जो उर्दू विषय में अलीगढ विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण है, ने भी मुझे उर्दू सिखाने के लिए मनोयोग से तत्परता दिखाई.
इस प्रकार, कृतज्ञता से भरे हृदय और वर्षों से संजोए हुए सपने को साकार करने के संकल्प के साथ, मैंने इस सुंदर यात्रा की शुरुआत लगभग 10 वर्ष पूर्व प्रारंभ की. शुरूआत दुरूह थी. मैं ने उर्दू लिपी का ककहरा जुगाडा, और कुछ इस तरह मैं उस भाषा की और चहलकदमी करने लगा जो वर्षों से चुपचाप मेरा इंतज़ार कर रही थी।
आज मैं उर्दू सहजता से पढ लिख लेता हूँ और मेरे घर नियमित रूप से उर्दू समाचार पत्र “इंकलाब” आता है. उर्दू सीखने का क्रम अब भी जारी है और अपनी उर्दू शब्द संपदा संवर्धित करने का मेरा प्रयास भी. 🙏
शिक्षा : पीएचडी (वास्तु शास्त्र), बी.टेक., एफआईई, एफआईवी, चार्टर्ड इंजीनियर,
सम्प्रत्ति : वास्तु/जियोपैथिक स्ट्रेस सलाहकार, प्रॉपर्टी मूल्यांकनकर्ता, पूर्व फैकल्टी, कृषि अभियांत्रिकी कॉलेज, जेएनकेवीवी, जबलपुर, पूर्व चीफ मैनेजर, एसबीआई, भोपाल सर्कल
विशेषज्ञता: औद्योगिक/कॉरपोरेट वास्तु एवं जियोपैथिक स्ट्रेस
लिखित पुस्तकें: “विजयी चुनावी वास्तु”, “Vastu For Winning Election”
लेख: टाइम्स ऑफ इंडिया, दैनिक भास्कर, जागरण, हरिभूमि, माय प्रॉपर्टी आदि
विभिन्न पुरस्कार विजेता
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है डॉ अनिल कुमार वर्मा जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “टी-शर्ट और शॉर्ट्स का जीवन में प्रवेश“।)
☆ दस्तावेज़ # ४२ – टी-शर्ट और शॉर्ट्स का जीवन में प्रवेश☆ डॉ अनिल कुमार वर्मा ☆
बचपन से लेकर 29 वर्ष की आयु तक, जब तक मुझे जॉन्डिस नहीं हुआ था, मैं बहुत दुबला-पतला था। 5′ 9.5″ की लंबाई में मेरा वज़न मात्र 55 किलो था। हाथ पतले होने के कारण मन में यह कॉम्प्लेक्स बैठ गया था कि हाफ शर्ट मुझ पर अच्छी नहीं लगेगी। इसी झिझक के कारण मैंने कभी हाफ शर्ट, टी-शर्ट या शॉर्ट्स पहनने की हिम्मत नहीं की। हाई स्कूल, कॉलेज से लेकर नौकरी और शादी के शुरुआती साल भी ऐसे ही गुजर गए।
जून 1979 में मैंने स्टेट बैंक में अधिकारी के रूप में रीवा शाखा जॉइन की। एक साल बाद मुझे जॉन्डिस हो गया। लगभग एक महीने तक गहन इलाज और सख्त परहेज़ चलता रहा। उस समय बैंक में मेरा प्रोबेशन पीरियड था, इसलिए लंबी छुट्टी लेना संभव नहीं था। सौभाग्य से एग्रीकल्चर डिवीजन के मैनेजर, एम.एम. वर्मा जी की मेहरबानी से आधे दिन का हल्का काम करके पूरा महीना किसी तरह निकल गया। कमजोरी इतनी थी कि स्कूटर की जगह साइकिल रिक्शा से आना-जाना करना पड़ा। सहकर्मियों के सहयोग से वह कठिन समय कट गया।
धीरे-धीरे स्वास्थ्य सुधरा, लेकिन न जाने कैसे मेरा मेटाबोलिज़्म बदल गया और शरीर ने वज़न बढ़ाना शुरू कर दिया। एक साल में ही मेरा वज़न 90 किलो तक पहुँच गया। फिर भी मेरे कपड़े वही रहे — बाहर फुल शर्ट और पैंट, तथा घर पर फुल कुर्ता/शर्ट और पायजामा।
समय बीतता गया। बैंक की ट्रांसफर व्यवस्था के कारण परिवार रीवा से सतना, पन्ना, जबलपुर, भोपाल होता हुआ 1995 में नरसिंहपुर आ पहुँचा। बेटी नेहा भी हर साल स्कूल और शहर बदलते-बदलते 7वीं कक्षा तक पहुँच गई।
मुझे शुरू से ही पर्यटन का शौक था। यह भी बैंक जॉइन करने के कारणों में से एक था, क्योंकि यहाँ एलटीसी की सुविधा थी। तो उस वर्ष हमने गर्मी की छुट्टियों में कोलकाता घूमने का कार्यक्रम बनाया। मैं पहले एक बार दिसंबर में कोलकाता जा चुका था, लेकिन पत्नी और बेटी को भी दिखाने की इच्छा थी।
सब कुछ योजना के अनुसार चला। एसी-2 कोच से यात्रा के बाद हावड़ा में हमें एक एसी रूम वाला होटल मिल गया। परंतु कोलकाता की गर्मी मैंने पहली बार देखी थी!
पहले दिन सुबह 10 बजे हम एंबेसडर टैक्सी से चिड़ियाघर गए। आधा चिड़ियाघर ही घूमे थे कि सूर्यदेव सिर पर 90° के कोण से आग बरसाने लगे। ऊपर से उमस ने हाल बेहाल कर दिया। पूरा शरीर पसीने से तर-बतर हो गया। छाता भी नहीं था। बेटी रोने लगी — “हमें होटल चलो, घर चलो, हमें नहीं घूमना कोलकाता!”
किसी तरह पेड़ों की छाँव से होते हुए हम गेट तक पहुँचे और टैक्सी लेकर होटल लौट आए। सबने नहाकर एसी चलाया और ऐसा लगा जैसे कोई बड़ी जंग जीतकर आए हों। उस तपती गर्मी में पहली बार समझ आया कि बंगाली लोग मलमल की पतली कुर्ती और धोती क्यों पहनते हैं!
शाम को हम बाज़ार गए और मलमल की कुर्तियाँ, टी-शर्ट और शॉर्ट्स खरीद लाए। फुल शर्ट्स पैक कर दीं। अगले कुछ दिन हमने अलसुबह और शाम को ही बाहर निकलकर यात्रा पूरी की, क्योंकि तुरंत लौटना रिज़र्वेशन के अभाव में संभव नहीं था।
मित्रों, इस यात्रा ने मेरे जीवन में एक नया मोड़ लाया। इसी यात्रा के बाद टी-शर्ट, मलमल की कुर्ती और शॉर्ट्स ने मेरे जीवन में प्रवेश किया। अब गर्मियों में मैं इनका भरपूर उपयोग करता हूँ!
शिक्षा : पीएचडी (वास्तु शास्त्र), बी.टेक., एफआईई, एफआईवी, चार्टर्ड इंजीनियर,
सम्प्रत्ति : वास्तु/जियोपैथिक स्ट्रेस सलाहकार, प्रॉपर्टी मूल्यांकनकर्ता, पूर्व फैकल्टी, कृषि अभियांत्रिकी कॉलेज, जेएनकेवीवी, जबलपुर, पूर्व चीफ मैनेजर, एसबीआई, भोपाल सर्कल
विशेषज्ञता: औद्योगिक/कॉरपोरेट वास्तु एवं जियोपैथिक स्ट्रेस
लिखित पुस्तकें: “विजयी चुनावी वास्तु”, “Vastu For Winning Election”
लेख: टाइम्स ऑफ इंडिया, दैनिक भास्कर, जागरण, हरिभूमि, माय प्रॉपर्टी आदि
विभिन्न पुरस्कार विजेता
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है डॉ अनिल कुमार वर्मा जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “क्रिकेट”।)
☆ दस्तावेज़ # ४१ – क्रिकेट☆ डॉ अनिल कुमार वर्मा ☆
-यह बात है सन 1957-58 की। उस समय हम लोग पुणे में रहते थे। मेरी उम्र लगभग सात–आठ वर्ष रही होगी। हमारा निवास स्थान था—ओल्ड बॉयज़ बटालियन, गणेश खिंड, औंध रोड। यह क्वार्टर मेरे पिताजी को उनके ऑफिस ARDE (आज का DRDO) से मिला था। इस कॉलोनी में ज़्यादातर लोग जबलपुर से ट्रांसफ़र होकर आए थे, क्योंकि वे पहले वहाँ की ऑर्डिनेंस फ़ैक्ट्री में कार्यरत थे। इसी वजह से यहाँ का वातावरण भी कुछ–कुछ जबलपुर जैसा ही था।
इन्हीं दिनों भारत की किसी अन्य देश के साथ टेस्ट क्रिकेट सीरीज़ चल रही थी। उसका असर यह था कि उस समय के अख़बारों में ख़बरें छपती थीं, रेडियो पर कमेंट्री आती थी और भारतीय फ़िल्म्स डिविज़न की न्यूज़रील (जो हर सिनेमा शो के पहले दिखाई जाती थी) में भी उसकी झलक मिल जाती थी। नतीजा यह हुआ कि पहले बड़े लड़कों में क्रिकेट का शौक़ जगा और फिर धीरे–धीरे वह हम छोटे बच्चों तक भी उतर आया।
जहाँ तक मुझे याद है, हमारी माताजी की मुंगरी (कपड़े पीटने का यंत्र) ही हमारा पहला बैट बनी। समस्या बॉल की थी। उस समय हमें सिर्फ़ रबर की बॉल मिल पाती थी, जबकि बड़े लड़के कॉर्क बॉल का इंतज़ाम कर लेते थे। हमारे पास वह सुविधा नहीं थी। तब हमने एक छोटा-सा इनोवेशन किया। याद नहीं कि यह आइडिया किस मित्र के दिमाग़ में आया था, मगर उस समय हमें यह बड़ा अनोखा लगा।
पिताजी की पुरानी साइकिल से निकला हुआ ट्यूब हमारे काम आया। उसे काट–काटकर हमने आधा सेंटीमीटर मोटे छल्ले बनाए। फिर कपड़े की एक पोटली बनाकर उसके ऊपर इन छल्लों को गोलाई में चढ़ाते चले गए। इस तरह हमारी एक ठोस बॉल तैयार हुई—लगभग कॉर्क बॉल जैसी!
तो मित्रों, बैट बना मुंगरी से और बॉल बनी साइकिल के ट्यूब से—और इस तरह शुरू हुआ हमारा क्रिकेट। लेकिन जल्दी ही समझ में आ गया कि मुंगरी का बैट सुविधाजनक नहीं है। उसका हैंडल काफ़ी मोटा था, जिसे पकड़ना और घुमाना हमारे छोटे हाथों के लिए कठिन था। तब हमने दूसरा जुगाड़ निकाला। मेरे स्वर्गीय मित्र प्रदीप डे (जो आगे चलकर आर्किटेक्ट बने) के पिताजी के पास लगभग 1 इंच मोटी एक पैकिंग की पटिया रखी थी। उनके घर मौजूद फरसे की मदद से हमने उसमें हैंडल तराशा और उस पर साइकिल ट्यूब का टुकड़ा चढ़ा दिया। यह नया बैट हमें काफ़ी समय तक साथ देता रहा।
बाद में हमारे गोविंद चाचा पूना आए। वे खेलों के शौक़ीन थे और अपने सेंट अलॉयसियस स्कूल में टूर्नामेंट भी करवाते थे। उन्होंने हमें लगभग 11 साल की उम्र में पहली बार असली क्रिकेट बैट दिलवाया। उस समय हमें लगा मानो कोई स्वर्ग की चिड़िया हमारे हाथ आ गई हो! हम सब बच्चों ने दिल से उनका आभार माना।
हाँ, एक बात और—हम लोग विकेट के लिए 3–4 ईंटों को एक के ऊपर एक रखकर स्टंप बना लेते थे। क्रिकेट ग्राउंड जैसी सुविधा तो थी नहीं, इसलिए मिलकर हमने एक खाली पड़ी ज़मीन से पत्थर साफ़ किए और एक पट्टी-सी पिच बना ली। लेकिन अक्सर बॉल छोटी-छोटी झाड़ियों में खो जाती थी।
हमारी टीम में एक दिन हमारी ही क्लास का साथी खेलने आया। उसने पहले कभी क्रिकेट नहीं खेला था। उसका नाम था सरदार हरभजन सिंह। हमें लगा कि यह क्या खेलेगा, इसे तो नियम भी नहीं आते होंगे। इसलिए मज़ाक में हमने उसे पहले बैटिंग दे दी। लेकिन आश्चर्य हुआ जब हमें उसे आउट करना बेहद मुश्किल हो गया! वह जैसे-तैसे बैट घुमाता और हर बार बॉल कहीं दूर जा गिरती। हमारे बॉलर्स परेशान हो गए। विकेट पर तो वैसे भी सीधी गेंद डालना हम बच्चों को कहाँ आता था! बड़ी मुश्किल से हमने उसे आउट किया।
उस दिन सरदार हरभजन सिंह ने हमारे छोटे-से “क्रिकेट साम्राज्य” का अहंकार तोड़ दिया। हमें समझ आ गया कि खेल में किसी का अनुभव ही सब कुछ नहीं होता—कभी-कभी किस्मत और प्राकृतिक टैलेंट भी चमत्कार कर जाते हैं।
हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक, चंद कविताएं चंद अशआर” शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है।)
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री हेमंत तारे जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “अम्मा की यादों का खज़ाना”।)
☆ दस्तावेज़ # ३९ – अम्मा की यादों का खज़ाना☆ श्री हेमंत तारे ☆
आज अम्मा कि पूजा सामग्री टटोल रहा था तो एक डिब्बे में उसके सहेजे हुये कुछ सिक्के हाथ लगे 5, 10, 20, 25 और 50 पैसे के सिक्के. ये सिक्के तो अब प्रचलन में रहे नही लेकिन हमारी पीढी ने इनका जलवा देखा है.
अम्मा को चीजें सहेजने का शौक था पर यूं भी नही की हर अटाले को सीने से चिपका के रख ले. उसकी रूचि अत्यंत परिष्कृत थी. क्या रखा जाये और क्या जरूरतमंद लोगों को दे दिया जाये ये उससे बेहतर कोई नही जानता था. बाबूजी भी दस्तावेज सम्भालने में अत्यंत दक्ष थे. आई बाबूजी के यह संस्कार हमें विरासत में मिले हैं. मेरे खजाने में कक्षा 1 से M. Sc. तक की सभी मार्कशीट, 1976 में लगे चश्मे से आज तक हुई आंखों की जांच का अद्यतन रिकार्ड, 1976 में खरीद की गई HMT घडी से लगाकर जीवन में की गयी छोटी – बडी खरीददारी के बिल आदि शुमार है. इन दस्तावेजों की आज कोई अहमियत नही लेकिन रखे हुये हैं, तो हैं.😏
सिक्के से शुरू बात कहां से कहां निकल गयी. मानव मन से गतिमान कुछ हो ही नही सकता. एक सेकंड के दसवे हिस्से में ये चाँद, मंगल ग्रह या सूरज कि लौटाबाट यात्रा कर सकता है, फिर सिक्के से मार्कशीट तक कोई लम्बा सफर तो था नही पर कुछ मित्र ये अवश्य कहेंगे खाली दिमाग शैतान का घर 😀
शिक्षा : पीएचडी (वास्तु शास्त्र), बी.टेक., एफआईई, एफआईवी, चार्टर्ड इंजीनियर,
सम्प्रत्ति : वास्तु/जियोपैथिक स्ट्रेस सलाहकार, प्रॉपर्टी मूल्यांकनकर्ता, पूर्व फैकल्टी, कृषि अभियांत्रिकी कॉलेज, जेएनकेवीवी, जबलपुर, पूर्व चीफ मैनेजर, एसबीआई, भोपाल सर्कल
विशेषज्ञता: औद्योगिक/कॉरपोरेट वास्तु एवं जियोपैथिक स्ट्रेस
लिखित पुस्तकें: “विजयी चुनावी वास्तु”, “Vastu For Winning Election”
लेख: टाइम्स ऑफ इंडिया, दैनिक भास्कर, जागरण, हरिभूमि, माय प्रॉपर्टी आदि
विभिन्न पुरस्कार विजेता
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है डॉ अनिल कुमार वर्मा जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “पन्ना का जंगल और ट्री हाउस की याद“।)
☆ दस्तावेज़ # ३८ – पन्ना का जंगल और ट्री हाउस की याद☆ डॉ अनिल कुमार वर्मा ☆
वर्ष 1985–86 की बात है। मेरी पोस्टिंग स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की पन्ना शाखा (Diamond Mine Fame) में हुई थी। यह इलाका घने जंगलों से घिरा था। पेड़ों की अंतहीन कतारें, हरियाली, पक्षियों की चहचहाहट और कभी-कभी दूर से आती जंगली जानवरों की आवाज—सब मिलकर इस जगह को रहस्यमय बना देते थे।
मेरे वहां पहुंचने के कुछ वर्ष पूर्व ही एक स्विस दंपत्ति, अपने व्यापार के सिलसिले, में पनना में रहने आया था। उनका स्वभाव बड़ा ही सौम्य और सरल था, लेकिन सबसे अनोखी बात यह थी कि उन्होंने जंगल के बीच में एक दो मंज़िला ट्री हाउस बनाया। कई पेड़ों को आपस में जोड़कर तैयार किया गया यह घर मानो किसी रोमांचक उपन्यास का हिस्सा लगता था।
एक शाम हम वहाँ पहुँचे। सूरज धीरे-धीरे ढल रहा था। चारों ओर हल्की-सी सुनहरी रोशनी फैली थी। पेड़ों की शाखाओं के बीच से छनकर आती हवा चेहरे को ठंडक पहुँचा रही थी।
जैसे ही हम लकड़ी की सीढ़ियों से ऊपर चढ़े, दंपत्ति ने मुस्कुराकर कहा—
“वेलकम टू आवर होम इन द जंगल!”
ऊपर पहुँचकर मैंने चारों ओर नज़र दौड़ाई। ट्री हाउस की बालकनी से सामने फैला जंगल, दूर चरते हिरण, और आसमान में परिंदों का झुंड—यह सब इतना मनमोहक था कि शब्द कम पड़ जाते।
रात ढलते-ढलते, जंगल का नज़ारा और भी रहस्यमय हो गया। दंपत्ति ने एक लालटेन जलाकर हमें ट्री हाउस के भीतर बिठाया। बाहर अंधेरे में किसी सियार की हुआं-हुआं सुनाई दे रही थी। कभी अचानक झाड़ियों में खड़खड़ाहट होती तो लगता कि कोई जंगली जानवर पास से गुज़र गया।
मैंने उनसे मज़ाक में कहा—
“क्या आपको रात में डर नहीं लगता?”
वे मुस्कुराए और बोले—
“डर? नहीं… हमें तो यहाँ जीवन की असली शांति मिलती है। शहर के शोरगुल से कहीं बेहतर।”
उनकी बात सुनकर लगा, सच ही तो है—यहाँ प्रकृति अपनी पूरी सच्चाई के साथ सामने खड़ी थी।
बैंक की ओर से हमने उन्हें फ्रिज़ का फाइनेंस किया। यह कोई बड़ा सौदा नहीं था, लेकिन इससे हमारे और उनके बीच आत्मीयता का रिश्ता जुड़ गया। असल वजह यह भी थी कि अगर हमें कभी किसी अधिकारी या आगंतुक को ट्री हाउस दिखाना पड़े, तो वे लोग सहज हों और हमें अनुमति देने में कोई हिचकिचाहट न हो।
उस ट्री हाउस की स्मृति अब तक मेरे मन में ताज़ा है—अंधेरे जंगल में लालटेन की हल्की रोशनी, ट्री हाउस की लकड़ी की खुशबू, और प्रकृति के बीच जीवन जीने की सरलता।
आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो लगता है कि वह अनुभव सिर्फ़ एक बैंकिंग कार्य नहीं था, बल्कि जीवन की सादगी और प्रकृति के साथ घुलने-मिलने का सबक़ भी था।
(ई-अभिव्यक्ति में सुविख्यात वास्तु एवं ज्योपैथिक स्ट्रैस कंसल्टेंट डॉ अनिल कुमार वर्मा जी का स्वागत। हरिद्वार के एक प्रतिष्ठित संस्थान द्वारा मानद डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित। बहुचर्चित पुस्तक “विजयी चुनाव वास्तु” के रचयिता। कृषि अभियंता, जवाहरलाल कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर में अध्ययन एवं अध्यापन, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त मुख्य प्रबंधक। संपर्क: askvastu.com)
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है डॉ अनिल कुमार वर्मा जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “पुणे यूनिवर्सिटी और ‘धूल का फूल’ की शूटिंग “।)
☆ दस्तावेज़ # ३७ – पुणे यूनिवर्सिटी और ‘धूल का फूल’ की शूटिंग☆ डॉ अनिल कुमार वर्मा ☆
उन दिनों (1956-66) पिताजी स्व. ए.एल. वर्मा ARDE पुणे में पोस्टेड थे। हमारे परिवार को पुणे यूनिवर्सिटी के पास “ओल्ड बॉयज बटालियन”, गणेश खिंड में क्वार्टर मिला था।
घर से निकल कर हम बच्चे ‘औंध रोड’ पार करते और फिर यूनिवर्सिटी की बाउंड्री वॉल लांघ कर उसके बगीचे में घूमने पहुँच जाया करते थे।
🌿 वर्ष 1957 या 58 की बात है।
तब मेरी उम्र 7-8 वर्ष रही होगी। अचानक पता चला कि यूनिवर्सिटी में किसी फिल्म की शूटिंग हो रही है! हमने पहले कभी शूटिंग नहीं देखी थी, तो उत्साह चरम पर था।फिल्म थी बी.आर. चोपड़ा जी की “धूल का फूल”।
शूटिंग के दौरान हमने करीब से देखे – राजेंद्र कुमार, माला सिन्हा और महमूद।
महमूद साहब ने तो बच्चों के साथ हंसी-मजाक भी किया – वह दृश्य आज भी दिल में ताज़ा है।
🎥 दो दृश्य अब भी याद हैं:
1️⃣ एक सीन में राजेंद्र कुमार और माला सिन्हा की साइकिलें आपस में टकरा जाती हैं। असल में साइकिलें मुश्किल से छुई भर थीं, पर उन्हें गिरा दिया गया। फिर माला सिन्हा की साइकिल को क्रू के जूनियर सदस्यों ने हथौड़े से ठोंक-पीटकर तिरछा कर दिया ताकि अगला टेक अधिक “नेचुरल” लगे।
2️⃣ दूसरा दृश्य था – यूनिवर्सिटी में परीक्षा समाप्त होने का। उसमें राजेंद्र कुमार, माला सिन्हा और महमूद स्टूडेंट्स की भीड़ के साथ पेपर देकर बिल्डिंग से बाहर आते हैं।
⏳ लगभग 4 वर्ष बाद यूनिवर्सिटी गार्डन में लिया गया एक फैमिली फोटोग्राफ मुझे हाल ही में मिला। उस फोटो ने स्मृति चक्र घुमा दिया और मैं मानसिक रूप से उसी काल में लौट गया।
चित्र में: पिताजी (स्व. ए.एल. वर्मा), माताजी (सरला देवी), दूसरी पंक्ति में मैं स्वयं और मेरे भाई अजय व अरुण (दोनों अब इस दुनिया में नहीं हैं), सबसे आगे खड़े छोटे भाई अभय (AAP, मध्य प्रदेश के पूर्व संयोजक और मेरे चचेरे भाई) तथा डॉ. अनूप वर्मा (ENT सर्जन, रायपुर) नज़र आ रहे हैं।
🙏 सचमुच, वो काल, वे चेहरे और वे पल… स्मृतियाँ जीवन की अमूल्य धरोहर होती हैं।
वे हमें बीते समय से जोड़ती हैं, अपनों की याद दिलाती हैं और यह सिखाती हैं कि क्षणभंगुर जीवन में परिवार और रिश्तों से बढ़कर कुछ भी नहीं। 🌹
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “बुंदेली के विद्वान स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव
☆ कहाँ गए वे लोग # ५७ ☆
☆ “बुंदेली के विद्वान स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
ईसुरी बुंदेलखंड के सुप्रसिद्ध लोक कवि हैं, उनकी रचनाओं में ग्राम्य संस्कृति एवं सौंदर्य का चित्रण है। बुंदेली बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। यह कहना कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं। भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में भी बुंदेली बोली का उल्लेख मिलता है। भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणों की भाषा विंध्येली प्राचीन बुंदेली ही थी। आशय मात्र यह है कि बुंदेली एक प्राचीन, संपन्न, बोली ही नहीं अपितु परिपूर्ण लोकभाषा है। क्षेत्रीय आकाशवाणी केन्द्रों ने इसकी मिठास संजोई हुई है। ऐसी लोकभाषा के उत्थान, संरक्षण व नव प्रवर्तन का कार्य तभी हो सकता है जब क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों, संस्थाओं, पढ़े लिखे विद्वानों के द्वारा बुंदेली में नया रचा जावे। बुंदेली में कार्यक्रम हों। जनमानस में बुंदेली के प्रति किसी तरह की हीन भावना न पनपने दी जावे, वरन उन्हें अपनी भाषा के प्रति गर्व की अनुभूति हो। प्रसन्नता है कि बुंदेली भाषा परिषद, गुंजन कला सदन, वर्तिका, अखिल भारतीय बुन्देलखण्ड साहित्य संस्कृति परिषद, पाथेय, जैसी संस्थाओं ने यह जिम्मेदारी व्यापक स्तर पर उठाई हुई है। प्रति वर्ष 1 सितम्बर को स्व. डा. पूरनचंद श्रीवास्तव जी के जन्म दिवस के सुअवसर पर बुंदेली पर केंद्रित अनेक आयोजन होते हैं।
आवश्यक है कि बुंदेली के विद्वान लेखक, कवि, शिक्षाविद स्व. पूरनचंद श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व, विशाल कृतित्व से नई पीढ़ी को परिचित करते रहें। जमाना इंटरनेट का है, किंतु बुंदेली के विषय में, उसके लेखकों, कवियों, साहित्य आदि के संदर्भ में इंटरनेट पर जानकारी नगण्य है।
स्व. पूरनचंद श्रीवास्तव जी का जन्म 1 सितम्बर 1916 को ग्राम पिपरटहा, तत्कालीन जिला जबलपुर अब कटनी में हुआ था। कायस्थ परिवारों में शिक्षा को हमेशा से महत्व दिया जाता रहा है, उन्होंने अनवरत अपनी शिक्षा जारी रखी और पी एच डी की उपाधि अर्जित की। वे हितकारिणी महाविद्यालय जबलपुर से जुड़े रहे और विभिन्न पदोन्तियां प्राप्त करते हुये प्राचार्य पद से 1976 में सेवानिवृत हुये। यह उनका छोटा सा आजीविका पक्ष था पर इस सबसे अधिक वे बहुत बड़े साहित्यकार थे। बुंदेली लोक भाषा उनकी अभिरुचि का विषय था। उन्होंने बुंदेली में और बुंदेली के विषय में खूब लिखा। रानी दुर्गावती बुंदेलखण्ड का गौरव हैं। वे संभवतः विश्व की पहली महिला योद्धा हैं जिनने रण भूमि में स्वयं के प्राण न्यौछावर किये। “वीरांगना रानी दुर्गावती” पर श्रीवास्तव जी का खण्ड काव्य बहुचर्चित, महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है। “भौंरहा पीपर” उनका एक और बुंदेली काव्य संग्रह है। भूगोल उनका अति प्रिय विषय था और उन्होंने भूगोल की आधा दर्जन पुस्तकें लिखीं, जो शालाओं में पढ़ाई जाती रही हैं। इसके सिवाय अपनी लम्बी रचना यात्रा में पर्यावरण, शिक्षा पर भी उनकी किताबें हैं, विभिन्न साहित्यिक विषयों पर स्फुट शोध लेख, साक्षात्कार आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में, आकाशवाणी में प्रकाशित – प्रसारित होते रहे हैं। संगोष्ठियों में सक्रिय भागीदारी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा रहा है। मिलन, गुंजन कला सदन, बुंदेली साहित्य परिषद, आंचलिक साहित्य परिषद जैसी अनेकानेक संस्थायें उन्हें सम्मानित कर स्वयं गौरवांवित होती रही हैं। वे उस युग के यात्री रहे हैं जब आत्म प्रशंसा और स्वप्रचार श्रेयस्कर नहीं माना जाता था, एक शिक्षक के रूप में उनके संपर्क में जाने कितने लोग आते गये और वे पारस की तरह सबको संस्कार देते हुये मौन साधक बने रहे।
उनके कुछ चर्चित बुंदेली गीत उधृत कर रहा हूं . . .
कारी बदरिया उन आई. . . ️
कारी बदरिया उनआई, हां काजर की झलकार।
सोंधी सोंधी धरती हो गई, हरियारी मन भाई,
खितहारे के रोम रोम में, हरख-हिलोर समाई।
ऊम झूम सर सर-सर बरसै, झिम्मर झिमक झिमकियाँ।
लपक-झपक बीजुरिया मारै, चिहुकन भरी मिलकियां।
रेला-मेला निरख छबीली- टटिया टार दुवारे,
कारी बदरिया उनआई, हां काजर की झलकार।
औंटा बैठ बजावै बनसी, लहरी सुरमत छोरा।
अटक-मटक गौनहरी झूलैं, अमुवा परो हिंडोरा।
खुटलैया बारिन पै लहकी, त्योरैया गन्नाई।
खोल किवरियाँ ओ महाराजा सावन की झर आई
ऊँचे सुर गा अरी बुझाले, प्रानन लगी दमार,
कारी बदरिया उन आई, हां काजर की झलकार।
मेंहदी रुचनियाँ केसरिया, देवैं गोरी हाँतन।
हाल-फूल बिछुआ ठमकावैं भादों कारी रातन।
माती फुहार झिंझरी सें झमकै लूमै लेय बलैयाँ –
घुंचुअंन दबक दंदा कें चिहुंकें, प्यारी लाल मुनैयाँ।
हुलक-मलक नैनूँ होले री, चटको परत कुँवार,
कारी बदरिया उनआई, हाँ काजर की झलकार।
इस बुंदेली गीत के माध्यम से उनका पर्यावरण प्रेम स्पष्ट परिलक्षित होता है।
इसी तरह उनकी एक बुन्देली कविता में जो दृश्य उन्होंने प्रस्तुत किया है वह सजीव दिखता है।
बिसराम घरी भर कर लो जू. . .
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां,
ढील ढाल हर धरौ धरी पर, पोंछौ माथ पसीना।
तपी दुफरिया देह झांवरी, कर्रो क्वांर महीना।
भैंसें परीं डबरियन लोरें, नदी तीर गई गैयाँ।
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां।
सतगजरा की सोंधी रोटी, मिरच हरीरी मेवा।
खटुवा के पातन की चटनी, रुच को बनों कलेवा।
करहा नारे को नीर डाभको, औगुन पेट पचैयाँ।
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां।
लखिया-बिंदिया के पांउन उरझें, एजू डीम-डिगलियां।
हफरा चलत प्यास के मारें, बात बड़ी अलभलियां।
दया करो निज पै बैलों पै, मोरे राम गुसैंयां।
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां।
वे बुन्देली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के विद्वान थे। सीता हरण के बाद श्रीराम की मनः स्थिति को दर्शाता उनका एक बुन्देली गीत यह स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि राम चरित मानस के वे कितने गहरे अध्येता थे।
अकल-विकल हैं प्रान राम के–
अकल-विकल हैं प्रान राम के बिन संगिनि बिन गुँइयाँ।
फिरैं नाँय से माँय बिसूरत,करें झाँवरी मुइयाँ।
पूछत फिरैं सिंसुपा साल्हें, बरसज साज बहेरा।
धवा सिहारू महुआ-कहुआ, पाकर बाँस लमेरा।
वन तुलसी वनहास माबरी, देखी री कहुँ सीता।
दूब छिछलनूं बरियारी ओ, हिन्नी-मिरगी भीता।
खाई खंदक टुंघ टौरियाँ, नादिया नारे बोलौ।
घिरनपरेई पंडुक गलगल, कंठ – पिटक तौ खोलौ।
ओ बिरछन की छापक छंइयाँ, कित है जनक-मुनइयाँ ?
अकल-विकल हैं प्रान राम के बिन संगिनि बिन गुँइयाँ।
उपटा खांय टिहुनिया जावें, चलत कमर कर धारें।
थके-बिदाने बैठ सिला पै, अपलक नजर पसारें।
मनी उतारें लखनलाल जू, डूबे घुन्न-घुनीता।
रचिये कौन उपाय पाइये, कैसें म्यारुल सीता।
आसमान फट परो थीगरा, कैसे कौन लगावै।
संभु त्रिलोचन बसी भवानी, का विध कौन जगावै।
कौन काप-पसगैयत हेरें, हे धरनी महि भुंइयाँ।
अकल-विकल हैं प्रान राम के बिन संगिनि बिन गुँइयाँ।
बुंदेली भाषा का भविष्य नई पीढ़ी के हाथों में है, अब वैश्विक विस्तार के सूचना संसाधन कम्प्यूटर व मोबाईल में निहित हैं, समय की मांग है कि स्व. डा. पूरनचंद श्रीवास्तव जैसे बुंदेली के विद्वानों को उनका समुचित श्रेय व स्थान, प्रतिष्ठा मिले व बुंदेली भाषा की व्यापक समृद्धि हेतु और काम किया जावे।
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “मौलाना साहब”।)
☆ दस्तावेज़ # ३४ – मौलाना साहब☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆
शहर के व्यस्ततम, एम जी रोड पर हमारी दुकान के पास ही मौलाना साहब की फूलों की दुकान थी। असली फूलों की नहीं, गुरुदत्त वाले नकली कागज़ के फूलों की। मौलाना साहब ने अपनी दुकान सजाने के लिए किसी के गुलशन को नहीं उजाड़ा, बस कुछ रंग बिरंगे काग़ज़ के टुकड़ों को मिलाकर फूलों का गुलदस्ता तैयार कर लिया। उनके गुलाब में अगर खुशबू नहीं होती थी, तो कांटे भी नहीं होते थे।
मौलाना साहब उनका असली नाम नहीं था ! उन्हें मौलाना क्यों कहते थे, वे कितनी जमात पढ़े थे, हमें इसका इल्म नहीं था। बस पिताजी इन्हें मौलाना साहब कहते थे, इसलिए हम भी कहते थे। एक शांत, सौम्य, दाढ़ी वाला चेहरा, जो सदा मुस्कुराता रहता था। पड़ोसी दुकानदार होने के नाते, पहली चाय मौलाना साहब और हमारे पिताजी साथ साथ ही पीते थे। तब दुकान खुली छोड़कर चाय पीने जाने का रिवाज नहीं था। चाय दुकान पर ही पी जाती थी .क्योंकि दुकान, दुकान नहीं पेढ़ी थी। रोजी रोटी का साधन थी।।
आज भी अगर कोई दुकानदार अपनी दुकान खोलेगा तो पहले पेढ़ी को प्रणाम करेगा, साफ सफाई करेगा, अपने आराध्य के चित्र पर श्रद्धा से अगरबत्ती लगाएगा, इसके बाद ही कारोबार शुरू करेगा। श्रृद्धा का ईमान से कितना लेना देना है, यह एक अलग विषय है। श्रृद्धा, श्रृद्धा है, ईमान ईमान।
हमारी दुकान के आसपास लगता था, पूरा भारत बसा हुआ हो। कोई दर्जी, कोई गोली बिस्किट वाला तो कोई पेन, घड़ी और चश्मे वाला। एक संगीत के वाद्यों की दुकान भी थी, जिसका नाम ही वीणा था। एक रैदास था, जो सुबह पिताजी के जूते पॉलिश करने के लिए ले जाता था, और थोड़ी देर बाद वापस रख जाता था। एक शू मेकर भी थे, जिनके पास चार पांच कारीगर थे।।
हमारी और मौलाना साहब की दुकान एक साथ ही खुलती थी। हमारी दुकान के दूसरी ओर बिना तले समोसे और बिस्किट की प्रसिद्ध एवरफ्रेश की दुकान थी, जहां शहर के खास लोग, शाम को घूमने और टाइम पास करने आते थे। सड़कों पर आवागमन तो रहता था, लेकिन उसे आप चहल पहल ही कह सकते हैं, भीड़भाड़ नहीं। ईद पर हमारा पूरा परिवार मौलाना साहब के घर सिवइयां खाने जाता था।
हमें इस रहस्य का पता बहुत दिनों बाद चला, जब मौलाना साहब और हमारे पिताजी दोनों इस दुनिया में नहीं रहे। राखी के दिन मौलाना साहब की बेगम हमारे पिताजी का इंतजार करती थी। उनकी कलाई पर एक राखी बेगम के हाथों से भी बंधी होती थी। स्नेह के बंधन कभी काग़ज़ी नहीं होते। उनमें भी प्यार की खुशबू होती है।।
सुबह का समय सभ दुकानदारों का मिलने जुलने का रहता था। जैसे जैसे दिन चढ़ता, ग्राहकी बढ़ने लगती, लोग अपने काम में लग जाते। दोपहर का वक्त भोजन का होता था। अक्सर सभी के डब्बे घर से आ जाया करते थे। तब टिफिन और लंच जैसे शब्द प्रचलन में नहीं थे। गुरुवार को बाज़ार बंद रहता था, और हर गुरुवार को सिनेमाघरों में नई फिल्म रिलीज होती थी। कालांतर में, दूरदर्शन पर रविवार को रामानंद सागर के रामायण सीरियल के कारण यह अवकाश गुरुवार की जगह रविवार कर दिया गया। अब कहां रामायण सीरियल और शहर के सिनेमाघर ! हर दुकानदार के पास अपने हाथ में ही, अपना अपना चलता फिरता सिनेमाघर, अर्थात् 4 जी मोबाइल जो उपलब्ध है।।
वार त्योहारों पर मौलाना साहब के यहां लोग अपने दुपहिया वाहनों का श्रृंगार काग़ज़ के हार फूल और रंग बिरंगी पत्तियों से करते थे। दशहरे पर नई खरीदी साइकिल को दुल्हन की तरह सजाया जाता था। शादियों में जिस तरह दूल्हा दुल्हन को ले जाने वाली कार की आजकल जिस तरह सजावट, बनाव श्रृंगार होता है, वैसा ही साइकिल का होता था। विशेष रूप से दूध वाले अपनी नई साइकिलों का श्रृंगार मनोयोग से करते थे, क्योंकि वही उनका दूध वाहन भी था।
आज मौलाना साहब इस दुनिया में नहीं हैं, उनकी काग़ज़ के फूलों की दुकान फल फूल रही है। कल की एक दुकान का विस्तार हो चला है, वह छोटी से बहुत बड़ी हो चुकी है। परिवार की तीसरी पीढ़ी उसी परंपरा का निर्वाह कर रही है। आज के कृत्रिम संसार में कभी न मुरझाने वाले हार फूलों का ही महत्व है। आज की रंग बिरंगी दुनिया वैसे भी किसी काग़ज़ के फूल से कम नहीं।।
☆ प्रथम पुण्य तिथि पर सादर स्मरण “स्मृतिशेष श्रीमती भारती श्रीवास्तव…” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆
नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्त्रोत सी सहित बहा करो,
जीवन के सुन्दर समतल में।।
सुप्रसिद्ध कवि स्व. श्री जयशंकर प्रसाद की उपरोक्त काव्य पंक्तियों की सार्थकता सिद्ध करने वाली एक आदर्श शिक्षिका श्रीमती भारती श्रीवास्तव की 13 अगस्त को प्रथम पुण्य तिथि है। अपनी कर्म निष्ठा से एक कर्तव्य परायण शिक्षिका के रुप में राष्ट्र निर्माता के दायित्वों का का निर्वाह करने वाली मातृ शक्ति श्रीमती भारती श्रीवास्तव इसी दिन हम सभी को छोड़ कर अनंत में विलीन हो गयीं।
समाज में ऐसी महिलाओं का व्यक्तित्व अत्यंत प्रेरकऔर प्रणम्य होता है जो कि परिवार, समाज और अपने कार्यालयीन क्षेत्रों में समान रूप से अपने दायित्वों का सफलता पूर्वक निर्वाह करते हुए सभी के बीच लोकप्रियता अर्जित करती हैं। श्रीमती भारती श्रीवास्तव जी भी एक ऐसी ही स्नेहमयी महिला थीं जिन्होंने यशस्वी, मनस्वी और तपस्वी नारी के रूप में पारिवारिक और सामाजिक संबंधों को तो सक्रियता पूर्वक निभाया ही लेकिन इसके साथ ही शैक्षणिक क्षेत्र में भी अपने शिष्यों के साथ गुरु के अतिरिक्त संरक्षक और अभिभावक की भूमिका भी बड़ी तन्मयता से अदा की। भारती जी मेरे घर के पास ही रहने वाले मेरे स्कूली साथी, बचपन के मेरे आत्मीय मित्र श्री नवीन श्रीवास्तव जी की जीवन संगिनी थी जिन्हें मै भाभी जी के रूप में संबोधित और सम्मानित करता था लेकिन आत्मीय रुप से मैं उन्हें अपनी बहन के रुप में भी देखा करता। दरअसल बात यह थी कि मुझे मेरी मां ने बताया था कि सबसे शुरू में मेरी एक बहन हुई थी जिसका नाम 15 अगस्त को जन्म होने के कारण भारती रखा गया था और बाद में बचपन में ही उसका देहांत भी हो गया था। बस इन्हीं भावनाओं के तहत मैं भारती भाभी को मन ही मन बहन भी मानता था।
भारती श्रीवास्तव जी गौर नदी के पास केन्द्रीय विद्यालय से सेवा निवृत्त हुईं थीं। वे अपने शिक्षकीय कार्यकाल में जिस भी स्कूल में रहीं, अपने छात्रों के बीच लोकप्रिय और प्रतिष्ठित शिक्षिका के रुप में चर्चित रहीं। उनके छात्रों के साथ उनके संबंध स्थायी और स्मरणीय रहते थे। उनके छात्र शालेय जीवन के बाद भी उनसे अक्सर बात करते और अपनी उस पूज्यनीय शिक्षिका का मार्गदर्शन लेते जिनसे उन्हें पारिवारिक आत्मीयता प्राप्त हुई थी। शाला का स्टाफ भी उनकी योग्यता और बौद्धिकता से काफी प्रभावित रहता। शैक्षणिक क्षेत्र में भारती जी एक ऐसी विदुषी शिक्षिका के रुप में विख्यात थीं जिन्हें अनेक भाषाओं का ज्ञान था। जो भी व्यक्ति जिस भाषा में उनसे बातचीत करता, भारती जी उसी भाषा में उससे बातचीत करने लगती।
भारती जी का मायका उड़ीसा राज्य में पुरी के आंचलिक क्षेत्र में था। हमारे देश में जगन्नाथ पुरी आध्यात्मिक रूप में काफी महत्व रखता है। भारती जी पुरी से जो पावन और धार्मिक संस्कार लेकर नवीन भाई के साथ मंगल परिणय के सूत्र में आबद्ध हुईं,उन संस्कारों के साथ उन्होंने न केवल अपने पति का जीवन के प्रत्येक सुख – दुख में साथ दिया बल्कि अपने दोनों बच्चों को भी उच्च शिक्षा के साथ ऐसे संस्कार दिए जिनके कारण उन्होंने समाज में एक गरिमामयी पहचान बनाई।। एक सबके लिए और सब एक के लिए की सहकारी भावना के साथ भारती जी पारिवारिक और सामाजिक क्षेत्र में अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रही थीं। उन्होंने सभी के बीच अपने प्रभावी व्यक्तित्व से एक विशिष्ट पहचान बनाई थी। कहने का मतलब यह कि सब कुछ अच्छा चल रहा था लेकिन विधाता को तो कुछ और मंजूर था। भारती जी को कठिन बीमारी केंसर ने जकड़ लिया। इलाज चला और फिर उम्मीद भी जगी। भारती जी के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा लेकिन फिर उनकी तबियत खराब होने लगी। डाक्टर बिटिया निमिषा, दामाद डाक्टर अनुज निगम की सारी कोशिशें बेकार हो गयीं और भारती जी बिटिया, दामाद, बेटे नयन, जीवन साथी नवीन, और जेठ जिठानी सभी को अपने सपने सौंप कर चिर निद्रा में लीन हो गयीं।
भारती जी ने अपनी विद्वत्ता और बौद्धिक समझ के साथ परिवार में, समाज में और स्कूल में जो अपनापन बांटा वह सभी के मानस पटल पर यादों की धरोहर के रूप में सदा अमिट रहेगा —
☆ “श्री ओंकार तिवारी और नर्मदा के स्वर…” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆
जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार, अधिवक्ता और सुप्रसिद्ध कवि श्री ओंकार तिवारी ने जब नर्मदा के स्वर अखबार का प्रकाशन किया, उस समय दैनिक, पाक्षिक और साप्ताहिक अखबार आज की तुलना में कम प्रकाशित होते थे इसलिए उस समय पाक्षिक और साप्ताहिक अखबारों की चर्चा भी काफी होती थी। चूंकि उस समय ऐसे अखबारों का प्रकाशन प्रायः वरिष्ठ पत्रकारों के द्वारा होता था। इसलिए विज्ञापनों की तुलना में इन अखबारों में पठनीय विषय सामग्रीका विशेष ध्यान रखा जाता था। उस समय अखबारों में समाचारऔर ज्ञानवर्धक लेख विज्ञापनों की तुलना में बहुतायत में प्रकाशित हुआ करते थे।
श्री ओंकार तिवारी जी का अखबार नर्मदा के स्वर एक ऐसा ही समाचार पत्र था जो कमर्चारियों और कृषकों की समस्यायों और गतिविधियों के लिए सक्रिय था। यह अखबार उस समय अपने बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक और आध्यात्मिक विषय सामग्री के प्रमुख प्रकाशन के लिए चर्चित समाचार पत्रों में से एक था। यह उल्लेखनीय है कि श्री ओंकार तिवारी जी ने इस समाचार पत्र का प्रकाशन अनेक कठिनाइयों के बीच किया लेकिन अपनी सिद्धांतवादी नीतियों और आदर्शों से समझौता नहीं किया इसका कारण भी शायद यह था कि श्री ओंकार तिवारी जी पूंजीवादी सभ्यता से हटकर बौद्धिकता और मानवीय संवेदना से ओतप्रोत एक ऐसे कृषक, कविऔर पत्रकार थे जिनकी सम्पूर्ण सोच सर्वहारा वर्ग के लिए ही समर्पित थी। कहने का मतलब यह कि नर्मदा के स्वर का प्रकाशन जितने समय तक संचालित किया गया उसने पाठकों के बीच अपनी लोकप्रिय पहचान बनाई।
स्मरणीय है कि श्रद्धेय श्री ओंकार तिवारी जी ने कृषक और पत्रकार के रुप में जितनी गौरवशाली पहचान बनाई उतनी ही प्रतिष्ठा उन्होंने कवि के रुप में भी अर्जित की थी। कवि सम्मेलनों में श्रोता उनकी कविताओं को अत्यंत सम्मान और उत्साह से सुना करते थे। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उनकी कविताओं का संग्रह धरती नाचे भी अपने समय में काफी पठनीय और लोकप्रिय सिद्ध हुआ।
मेरे अति प्रिय श्री मनीष तिवारी जी ने तुलसी जयंती के पावन अवसर पर नर्मदा के स्वर के तुलसी जयंती विशेषांक की प्रति सभी के अवलोकनार्थ जब प्रस्तुत की तो इस अखबार की अपने समय की गौरवशाली यादें ताजी हो गईं।
नर्मदा के स्वर और उसके संपादक श्रद्धेय भैया श्री ओंकार तिवारी जी का सादर स्मरण और शत शत प्रणाम।