हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – सहज सरल जिंदादिल व्यक्तित्व के धनी  ☆ डॉ. प्रदीप शशांक ☆

डॉ. प्रदीप शशांक

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – सहज सरल जिंदादिल व्यक्तित्व के धनी  ☆ डॉ. प्रदीप शशांक

जय प्रकाश पांडे जी, क्या कहूँ इस शख्सियत के विषय में ? सहज, सरल, सौम्य, सदा हंसते हंसाते रहने वाले जिंदा दिल व्यक्तित्व के धनी, प्रेमी निच्छल हृदय, एक बार जो भी इनसे मिला इन्हीं का हो गया। अच्छे व्यक्तियों के लिये जितनी उपमा होती हैं वह इस हरदिल अजीज के लिए भी कम पड़ जावेंगी।

जय प्रकाश जी के साहित्यिक कृतित्व पर अनेक मित्र प्रकाश डालेंगे। हम केवल उनके दिलदार व्यक्तित्व के विषय में बात करेंगे।

पांडे जी से हमारा परिचय लगभग 8 वर्ष पुराना है। किसी पत्रिका में प्रकाशित मेरा व्यंग्य पढ़कर उन्होंने हमें फोन किया और व्यंग्य की तारीफ करते हुए हमें बधाई दी। प्रथम फोन के बाद ही उनकी आत्मीयता ने हमें इतना प्रभावित किया कि हम अच्छे मित्र बन गये। उसके बाद शहर में आयोजित अनेकों गोष्ठियों में मुलाकात होती रही और आपसी बातों में हंसी मजाक और ठहाकों के बीच हमारी मित्रता परवान चढ़ती गई। प्रायः सप्ताह, 15 दिन में उनसे फोन पर एक दूसरे की साहित्यिक गतिविधियों पर चर्चा होती रहती थी। ठहाकों के बीच उनका मिठास से भरा “जय हो” कहना, अंतर्मन तक खुशियों से भर देता था।

कोरोना काल के पहले एक दिन शाम 4 बजे उनका फोन आया, शशांक तुम आराम तो नहीं कर रहे हो? हमने कहा -आराम का तो समय है, लेकिन आप के लिये तो समय ही समय है। उन्होंने कहा- मैं तुम्हारे ही क्षेत्र में हूँ, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज में, बस पांच मिनिट में तुम्हारे घर आ रहा हूँ। हमने कहा-स्वागत है आपका।

पांच मिनिट बाद वह हमारे घर पर थे। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि उनके लड़के ने श्री राम इंजीनियरिंग कालेज में कैंटीन ली है अतः मैं आज यहां आया था सो सोचा तुमसे मिलता चलूं। श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज से लगी हुई हमारी कालोनी है।

घर पर वह प्रथम बार आये थे, बातों और ठहाकों के दौर के बीच में हमारी श्रीमती जी ने चाय, नमकीन लाकर रख दिया। पांडे जी की बातों का प्रभाव ऐसा था कि श्रीमती जी भी आकर हम लोगों के पास बैठ गईं और उनकी बातों का आनंद लेने लगीं। बातों में मशगूल हम लोगों को पता ही नहीं चला कि कब 6 बज गये।

श्रीमती जी को ऐसा बिल्कुल भी महसूस नहीं हुआ कि पांडे जी से पहले बार मिलीं हैं, ऐसा लगा कि वर्षों की जान पहचान है।

फिर तो जब भी वह कालेज आते तो हमारे घर जरूर आते, आते ही कहते – भाभी जी चाय बहुत अच्छी बनाती हैं तो हम भाभी जी के हाथ की बनी चाय पीने आये हैं।

हाजिर जवाबी, और मजाकिया स्वभाव के धनी पांडे जी को हमने 2024 की रैंकिंग में 43 वें नंबर पर आने हेतु बधाई दी तो उन्होंने ठहाका लगाते हुए कहा – धन्यवाद।

किंतु हमें असंतोष है नंबर एक के आदमी को इतने पीछे कर दिया। आज आत्ममुग्धता और महात्वाकांक्षा का युग है हर आदमी नंबर 1 वाला और ये लोग राजनीति खेल कर कटुता पैदा कर रहे हैं। मजाक में ही उन्होंने उस सूची पर कटाक्ष कर दिया।

दो वर्ष पूर्व 23 दिसंबर 22 को पांडे जी के मित्रों का माडेलियन ग्रुप( जबलपुर मॉडल हाई स्कूल में पढ़े उनके साथी मित्र) का ओरछा (राम राजा का किला) पिकनिक मनाने हेतु जाने का प्रोग्राम बना। सभी 65 +उम्र के उनके मित्र सपत्नीक जाने वाले थे। हमारे साले साहब शेखर सिंह राजपूत भी उस ग्रुप में थे। इत्तेफाक से बस में 3 सीट खाली थीं तो हमारे साले का फोन आया और ओरछा चलने को कहा, किंतु उस समय मेरे घुटने में ज्यादा तकलीफ होने का कारण हमने जाने से मना कर दिया, किंतु श्रीमती जी को भेज दिया। हमारी श्रीमती जी अपनी भाभी के साथ जब बस में आगे की सीट पर बैठी थीं तभी पांडेय जी भी अपनी श्रीमती के साथ बस में चढ़े और हमारी श्रीमती जी को देखकर हैरान रह गये और सोच में पड़ गये कि यह यहाँ कैसे? खैर, नमस्कार करने के बाद वह भी पीछे जाकर अपने अन्य दोस्तों के साथ बैठ गये।

कुछ देर बाद हमारी श्रीमती जी का फोन हमारे पास आया और उन्होंने बताया कि हम लोग आराम से बस में बैठ गये हैं। उन्होंने बताया कि पांडे जी भी आये हैं अपनी श्रीमती जी के साथ।

हमने पांडे जी को फोन लगाया, फोन उठाते ही उन्होंने कहा, भाभी जी बस में हैं लेकिन … हमने उनकी शंका का समाधान करते हुए कहा- आप के माडेलियन ग्रुप में हमारी मॉडल भी साथ जा रही हैं, वह आपके मित्र शेखर की बहन हैं। अरे..तुमने पहले कभी नहीं बताया, शेखर हमारे साथ बाजू में ही बैठे हैं, लो बात कर लो। हमने अपने साले साहब को बताया कि पांडे जी हमारे भी पुराने साहित्यिक मित्र हैं।

उसके बाद पांडे जी, हमारी श्रीमती जी को शेखर के बहन होने के नाते और ज्यादा सम्मान देने लगे। जब भी फोन करते हम दोनों से ही बात करते।

लगभग 8माह पूर्व शायद अप्रेल में ही उन्होंने बताया था कि पेट में कुछ परेशानी है। अतः यहां पर डॉक्टर को दिखाया है लेकिन आराम नहीं लग रहा है। उसके बाद वे बांबे गये वहां जांच के दौरान उनको आंत में कैंसर की शिकायत बताई। कुछ दिनों बाद वह नागपुर भी गये। बाद में जबलपुर में कीमो करवाने सप्ताह में एक बार अस्पताल जाते थे। एक बार हमने फोन लगाया तो घंटी पूरी गई लेकिन फोन नहीं उठा। हमें लगा कि कहीं व्यस्त होंगे। कुछ देर बाद उनका फोन आया और उन्होंने बताया कि उनका कीमो हो रहा था। हमने उनसे कहा कि आप आराम करो, बाद में बात करेंगे लेकिन उन्होंने हंसते हुए कहा अरे नहीं, नर्स अपना काम कर रहीं है, हम अपना काम करें और उन्होंने हंसते हुए हमसे बात करना शुरू कर दी। इतने दर्द के बाद भी उन्होंने हमें यह महसूस नहीं होने दिया।

अभी 27 नवंबर को जब उनसे बात हुई तो उन्होंने बताया कि कीमो पूरे हो गये हैं, अब नागपुर जाकर टेस्ट करवाना है कि कितने परसेंट रिकवरी हुई है। हमने कहा कि आप जल्द ठीक हो कर आओ, बहुत दिनों से घर नहीं आये हो। फोन स्पीकर में ही था, हमारी श्रीमती जी ने भी उनसे कहा कि आप जल्दी अच्छे होकर आओ, चाय पीने। उन्होंने कहा- हमने चाय पीना छोड़ दिया है किन्तु आपके हाथ की चाय पीने एक बार जरूर आऊंगा।

हम लोग उनके आने का इंतजार ही करते रह गये।

इस बीच उनके निधन के समाचार की अफवाहें भी उड़ने लगीं। हम सब स्तब्ध थे, किंतु उनकी जीवटता बार बार उन्हें मौत के मुंह से बाहर लाती रही।

25 दिसंबर को साले साहब का फोन आया और उन्होंने बताया कि पांडे जी को जबलपुर लेकर आ गये हैं और वह यहां पर गेलेक्सी अस्पताल में आई सी यू वार्ड में भर्ती हैं। 25 दिसंबर की शाम को 5.30 पर हम श्रीमती जी के साथ गेलेक्सी अस्पताल पांडे जी को देखने पहुंचे। उनकी हालत देखकर दिल धक्क से हो गया। इतना दिलदार, हंसमुख इंसान की ऐसी स्थिति, आंखें देख रही थी उनको लेकिन दिल को विश्वास ही नही रहा था कि यह पांडे जी ही हैं। उनके बेड के पास उस समय केवल उनकी पुत्री ही थी। श्रीमती जी ने उसे सांत्वना दिया और कहा कि पांडे जी जल्दी ठीक हो जावेंगे, पुत्री की आंखों में अश्रु झिलमिलाने लगे।

नियति को शायद यही मंजूर था। 26 दिसंबर की सुबह उनके निधन की खबर उनके पुत्र की ओर से मिली।

भगवान को भी अच्छे लोगों की शायद ज्यादा जरूरत होती है तभी उन्हें अपने पास बुला लिया।

वे सह्रदय, हंसमुख एवं दिलदार व्यक्तित्व के स्वामी थे। सदा हंसते ठहाके लगाते रहते थे। उनका यूं अचानक चले जाना हम सभी मित्रों की व्यक्तिगत क्षति है। उन्हें अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि।

*****

डॉ. प्रदीप शशांक

श्रीकृष्णम ईको सिटी, श्रीराम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर, म.प्र. 482002 मोबाइल -9131485948

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – साहित्य के सूर्य – जय प्रकाश पांडे जी ☆ श्री रमाकांत ताम्रकार ☆

श्री रमाकांत ताम्रकार

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – साहित्य के सूर्य – जय प्रकाश पांडे जी ☆ श्री रमाकांत ताम्रकार 

श्री जय प्रकाश पांडे जी जैसा व्यक्ति अब मिलना असम्भव है क्योंकि जिनका कोई नहीं होता उनके श्री पांडे जी होते थे. हरएक व्यक्ति के साथ श्री पांडे जी खड़े थे जिससे उनके साथ जो भी व्यक्ति होता वह अपने को सबल मानता था. अब इस समय बहुत-बहुत ही बड़ी रिक्तता आ गई है. जिसकी पूर्ति असंभव है. श्री पांडे जी अद्भुत जिजीविषा एवं दृढ़ संकल्प के धनी थे. उनका दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट था. इतनी बड़ी पोस्ट पर होने के बाद भी सहज और सरल हृदय थे.

हमने कई साहित्यिक यात्राएँ की जिसमें मुझे उनका साथ कृष्ण और सुदामा सरीखा मिलता था. साहित्यिक कार्यक्रमों में आप मुझे हमेशा आगे रखते थे. 9वे दशक से हमारा साथ था. उन्होने साहित्य जगत को अमृतमय योगदान दिया. श्री परसाई जी के जन्मदिन के अवसर पर उनके विरोध के बावजूद बहुत ही उत्कृष्ट कार्यक्रम किया था जिसकी पूरे देश में प्रशंसा हुई. इसी प्रकार श्री परसाई जी का उत्कृष्ट प्रथम साक्षात्कार भी आपने लेकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया था. एसे ही उन्होंने अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया. जिनकी चर्चा आज भी होती है. अनेकों शीर्षस्थ सम्मान उत्कृष्ट लेखन हेतु उन्हें मिले. जब कोई उन्हें सम्मानित करने की बात कहता तो वे किसी दूसरे अच्छे लेखक का नाम सुझाते. पुरूस्कार समितियों में वे बिल्कुल पारदर्शिता और निष्पक्षता से अडिग होकर अपना पक्ष रखते.

आप ई-अभिव्यक्ति पत्रिका के सम्पादक, व्यंग्य की महत्वपूर्ण पत्रिका अट्टहास के अतिथि सम्पादक के साथ-साथ अनेकों पत्रिकाओं का संपादन करते रहते थे. वर्तमान में आप व्यंग्य के लिए कटिबद्ध थे. इसलिए व्यंग्य के उन्नयन के लिए आपने जबलपुर नगर के व्यंग्यकार का एक समूह व्यंग्यम बनाया. जिसमें पिछले साढ़े आठ साल से (लगभग) लगातार व्यंग्य गोष्ठियों का आयोजन अपने घर के लॉन में आयोजित कर रहे थे. य़ह कार्यक्रम इतनी सादगी और गंभीर विमर्श का होता है जिसकी चर्चा संपूर्ण देश में हो रही है. व्यंग्य के प्रति उनका स्पष्ट और सटीक नजरिया था.

आप को जब पता चला कि कैंसर हो गया है तब उनकी य़ह दृढ़ता थी कि मैं कैंसर को हरा दूँगा. वे कभी भी कैंसर से डरे नहीं. उन्होंने समान्य रूप से 11 कीमोथेरेपी कराई. हँस मुख और सहयोगी भावना से अंतिम समय तक लगे रहे. उनका जुझारूपन हमारी प्रेरणा है. वे अक्सर मुझसे और अपने साथियों से कहते कि जब तक मैं जिंदा हूँ तब तक व्यंग्यम की गोष्ठी मेरे ही घर में होगी और य़ह वचन उन्होंने निभाया भी. वे अक्सर मुझसे कहते थे कि अब व्यंग्यम तुम लोगों को चलाना है, इस व्यंग्य की मशाल को कभी बुझने नहीं देना कुछ स्वार्थी लोग इस पर आधिपत्य जमाने की कोशिश करेंगे पर डटे रहना. मैं उनसे कहता आप कहाँ जा रहे है अपन सब मिलकर ही व्यंग्य विधा का काम करेंगे. वो तो करेगें ही पर किसी का कोई भरोसा नहीं है अब देखो न सुमित्र जी चले गए. एसा वे कहते थे. शायद उन्हें आभास हो गया था किन्तु उन्होंने इस बात को किसी पर भी जाहिर नहीं किया.

मेरी उनसे दिन में 3 से 4 बार चर्चा होती थी और हर चर्चा में व्यंग्य एवं साहित्य के उन्नयन की चर्चा होती जिसमें नई नई योजना नए कार्यक्रमों की गहन बात होती. हम एक-दूसरे के व्यंग्य की मंजाई करते फिर उसे प्रस्तुत करते.

12 दिसम्बर को नागपुर जाने से पहले करीब लगभग डेढ़ घंटे हमारी चर्चा हुई थी. फिर नागपुर में ऑपरेशन के पहले उन्होंने कहा मैं ऑपरेशन कराकर अधिकतम सोम या मंगल तक लौट आऊंगा फिर अपन व्यंग्यम की गोष्ठी करेगें. मैंने कहा पहले तबीयत फिर गोष्ठी की बात करेंगे. तब उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा अरे सब ठीक है थोड़ा ऑपरेशन हो जाएगा तो और ठीक हो जाएगा. पर क्या पता था कि मेरी उनसे यह अंतिम बात है. नागपुर से लाकर जब उन्हें जबलपुर के अस्पताल में भर्ती किया तब हम सभी व्यंग्यम के साथी मिलने गए थे. मैंने उनके कंधे पर हाथ रखकर आवाज लगाई तो उन्होंने आंख खोली, आंखों में बहुत तेज था कुछ और करने की ललक जो हमारी चर्चा में होती थी. पर ईश्वर को कुछ और मंजूर था और 26 दिसम्बर 24 को श्री पांडे जी को अपने पास बुला ही लिया. हम सब प्रति क्षण प्रार्थना करते ही रह गए.

 श्री जय प्रकाश पांडे जी के जाने से मेरे जीवन में रिक्तता आ गई है. पर मुझे विश्वास हैं कि श्री पांडे जी सूक्ष्म रूप में हम सबके साथ है उन्हीं की प्रेरणा से उनके विचारों को आगे ले जाना है.

 मैं अपने सबल सच्चे मित्र के श्रीचरणों में विनम्र श्रध्दांजलि इस आशय से दे रहा हूँ कि वे सदैव हमारे साथ रहेंगे.

 श्री रमाकांत ताम्रकार

जबलपुर

मोबाइल 9926660150

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – मार्गदर्शक स्वर्गीय जयप्रकाश पांडेय जी ☆ श्री श्याम खापर्डे  ☆

श्री श्याम खापर्डे

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – मार्गदर्शक स्वर्गीय जयप्रकाश पांडे जी ☆ श्री श्याम खापर्डे 

स्वर्गीय जय प्रकाश पांडे जी से मेरी पहचान फेसबुक पर हुई थी। मैं उनके व्यंग्य का प्रशंसक था. हम दोनों भारतीय स्टेट बैंक में अधिकारी थे।  परंतु हम दोनों का परिचय नहीं था, मैंने उनका नाम जरुर सुना था और वह बहुत ही शानदार व्यंग लिखते थे। मैं भी उनके व्यंग्य को पसंद करता था और अपनी टिप्पणी उन्हें भेजता था वह भी मेरी कविताओं के प्रशंसक थे और मेरी कई बार प्रशंसा करते थे।  उन्होंने मुझे एक बार कहा कि आपकी दो-तीन कविताएं मुझे भेजिए मैं अभिव्यक्ति में प्रयास करता हूं मैंने अपनी तीन कविताएं भेजी उनका फोन आया कि कविताएं अच्छी है, मैं श्री हेमंत बावनकर जी को भेजता हूं वह संपादक है वह आपसे संपर्क करेंगे। आप उन्हें संक्षिप्त में अपना परिचय दे देना। कुछ देर के बाद श्री हेमंत बावनकर जी का फोन आया और उनसे पहली बार बातचीत हुई उन्होंने मेरी कविताएं स्वीकृत की और मेरा स्तंभ ” क्या बात है श्याम जी ” की शुरुआत ई-अभिव्यक्ति पर हुई। 

स्वर्गीय जयप्रकाश पांडे जी से मेरी पहली मुलाकात भोपाल में भारतीय स्टेट बैंक के कविता के लिए साहित्य के सम्मान के लिए आयोजित कार्यक्रम में हुई जहां मुझे भी आमंत्रित किया गया था। 

सम्मान के बाद मैंने अपनी कविता का पाठ किया जिसे सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने मेरी प्रशंसा की और कविता के लिए बधाई दी।  उसके बाद हम दोनों अच्छे मित्र बन गए। 

दूसरी बार जब वह अट्टहास के ” परसाई “अंक के अतिथि संपादक थे तब मैंने उनसे उस अंक की एक प्रति मंगवाई, उन्होंने भेजी और मुझसे कहा इसको पढ़ कर आप इस अंक की समीक्षा लिखिए . मैंने उनसे कहा कि मुझे समीक्षा लिखना नहीं आता वह बोले की प्रयास करो और लिखो।  मैंने उस अंक कों पढ़कर अपनी तरफ से प्रयास किया और समीक्षा लिखकर उनको भेजा। 

मेरी समीक्षा को पढ़कर उन्होंने मुझे फोन किया और कहां कि आपने बहुत मेहनत की है और यह समीक्षा लिखी है जो बहुत ही सुंदर है और मेरी उम्मीद और अपेक्षाओं से भी बढ़कर है मैंने यह समीक्षा कई ग्रुप में भेजी हैं और पेपर में भी भेजी है, वह अभिव्यक्ति में भी प्रकाशित हुई थी। 

उनका हमेशा मार्गदर्शन मुझे मिलता रहा. वह मेरे लिए मित्र से भी बढ़कर थे, मैं अपनी बेटी के यहां कटनी आया हुआ हूं और उनसे मिलने अगले सप्ताह जबलपुर जाने वाला था, अचानक उनके स्वर्गवास का समाचार फेसबुक में पढ़कर बहुत ही दुख हुआ .मेरा मन उसे दिन से व्याकुल है और अंतकरण दुख से भर गया है। 

मैंने एक अच्छा मित्र, मार्गदर्शक, जान से भी प्यारा साथी खो दिया है इसका दुख मुझे जीवन पर्यंत रहेगा। 

ईश्वर मृत आत्मा को अपने चरणों में स्थान दें एवं उनके परिवार को यह दुख सहने की क्षमता दे यही प्रार्थना है। 

ओम शांति। विनम्र श्रद्धांजलि। 

उनको समर्पित एक कविता आपसे साझा करना चाहूँगा —

जयप्रकाश पांडे ☆

 

तुम मंझधार में हमको

छोड़ कर चले गए

स्नेह के धागों को

तोड़ कर चले गए

 

तुम आज के युग के

निर्भीक कलमकार थे

शब्दों में जिसके चुभन हो

वो व्यंग्यकार थे

 विसंगतियों को चित्रित करते

चित्रकार थे

” परसाई “के व्यंग्यों के

सच्चे पैरोकार थे

क्या खता हुई

 जो मुंह मोड़ कर चले गए ?

स्नेह के धागों को

 तोड़ कर चले गए

 

तुमने मुझे लिखने की

कला सिखाईं थी

प्रोत्साहित किया

मेरी हिम्मत बंधाई थी

शब्दों के अर्थ समझाए

सही राह दिखाई थी

मेरी कविता सुप्त थी

तुमने जीवंत बनाई थी

क्या सजा दी है

मेरे सर गम का घड़ा

फोड़कर चले गए

स्नेह के धागों को

तोड़ कर चले गए ?

 

तुम्हारे शोक में

हर इंसान रो रहा है

जमीं रो रही है

आसमान रो रहा है

कलम रो रही है

व्यंग्य का

हर दृष्टिकोण रो रहा है

व्यंगम के वह तीर और

उच्चारण रो रहा हैं

क्या मिला

चाहने वालों को

अश्रुओं से जोड़कर चले गए ?

स्नेह के धागों को

तोड़ कर चले गए

 

तुमको भूलना भी हमको

कितना मुश्किल है

कैसे द्रवित ना हो

हमारे सीने में भी दिल है

सब उदास है

सूनी सूनी महफिल है

तुम्हें छीन ले गया

विधाता कितना संगदिल है

क्या हुआ जो

तुम झंझोड़ कर चले गए ?

स्नेह के धागों को

तोड़ कर चले गए

 

शोकाकुल परिवार और मित्र है

नियति का भी खेल विचित्र है

तुम सहज सरल स्पष्टवादी हो

हर कार्य साफ सुथरा और चरित्र है

क्यों आइना दिखा कर

कचोट कर चले गए ?

तुम मंझधार में हमको

छोड़कर चले गए

स्नेह के धागों को

तोड़ कर चले गए /

श्री  श्याम खापर्डे 

भिलाई जिला दुर्ग छत्तीसगढ़

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जयप्रकाश पांडेय जी की स्मृति में… ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जयप्रकाश पांडेय जी की स्मृति में… ☆ श्री राकेश कुमार 

हमारा बैंक : हमारी कहानी समूह में 10 अप्रैल 2021 को हम सब के प्रिय श्री जय प्रकाश पांडे जी ने सभी सदस्यों से आग्रह किया था कि आज सभी सदस्य आईना देखकर कुछ भी लिख कर ग्रुप में साझा करें।

वो दिन हमारी जिंदगी का एक टर्निंग पॉइंट था। उनकी प्रेरणा से हमने भी कुछ लिखने का प्रयास किया और संलग्न लेख लिखा था।

आज उनकी स्मृति में उसी लेख को आप सबके के साथ पुनः शेयर कर रहा हूं। 🙏

☆ जीवन की बैलेंस शीट ☆

हमारे प्रिय मित्र ने आदेश दिया कि 🪞आइने के सामने जाकर आज अपनी जिंदगी का लेखा जोखा पेश करो। आजकल समय कुछ नेगेटिव बातो का है तो हमे भी लगने लगा कहीं चित्रगुप्त के सामने पेश होने की ट्रेनिंग तो नहीं हो रही। अभी तो जिंदगी शुरू की है रिटायरमेंट के बाद से।

खैर, हमने इंटरव्यू की तैयारी शुरू कर दी और अपनी सबसे अच्छी वाली कमीज़ (जिससे हमने स्केल 3 से लेकर 5 के interview दिए थे वो मेरा lucky charm थी) पहन, जूते पोलिश कर आइना खोजने लगे अरे ये क्या आइना कहां है मिल नहीं रहा था, मिलता भी कैसे आज एक वर्ष से अधिक हो गया जरूरत ही नहीं पड़ी।

श्रीमती जी से पूछा तो बोली क्या बात है अब Covid की दूसरी घातक लहर चल पड़ी है तो आपको सजने संवरने की पड़ी है, आप उस मोबाइल में ही लगे रहो। एक साल से सब्जी की दुकान तक तो गए नहीं अब जब सारी दुनिया दुबक के पड़ी है और आपको झुल्फे संवारने की याद आ रही है।

हमने उलझना ठीक नहीं समझा और बैठ गए मोबाइल लेकर, दोपहरी को जैसे ही श्रीमतीजी नींद लेने लगी हम भी अपने मिशन में लग गए और आइना खोज लिया। एक निगाह अपनी नख से शिखा तक डाली और थोड़ी से चीनी खाकर चल पड़े। अम्माजी की याद आ गई जब भी घर से किसी अच्छे काम के लिए जाते थे तो वो मुंह मीठा करवा कर ही बाहर जाने देती थी और आशीर्वाद देकर कहती थी जाओ सफलता तुम्हारा इंतजार कर रही है। हमने भी मन ही मन अपनी सफलता की कामना कर ली।

जैसे ही आईने के सामने पहुंचे मुंह से निकल ही रहा था may i come in, sir लेकिन फिर दिल से आवाज़ आई अब तुम स्वतंत्र हो, डरो मत, आगे बढ़ो। आईने में जब अपने को देखा तो लगा ये कौन है लंबी सफेद दाढ़ी वाला पूरे चेहरे पर दूध सी सफेदी देख कर निरमा washing powder के विज्ञापन की याद आ गई।

अपने आप को संभाल कर हमने अपने कुल देवता का नमन किया।

पर ये क्या? मन बहुत ही चंचल होता है विद्युत की तीव्र गति से भी तेज चलता है हम भी पहुंच गए कॉलेज के दिनों में स्वर्गीय प्रोफ सुशील दिवाकर की वो बात जहन में थी जब हमारी बढ़ी हुई दाढ़ी पर उन्होंने कहा था ” not shaving” तो हमने एकदम कहा था ” no sir Saving” वो खिल खिला कर हंसने लगे। बहुत ही खुश मिजाज़ व्यक्ति थे।

अब कॉलेज के प्रांगण में थे तो प्रो दुबे एस एन की याद ना आए ऐसा हो ही नहीं सकता, economics को सरल और सहज भाव में समझा देते थे आज भी उनकी बाते ज़ुबान पर ही रहती है।

एक दिन कक्षा में demand और supply पर चर्चा हो रही थी। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बतलाया की सरकार जब अपने स्तर पर मज़दूर को रोज़गार देती है तो उससे demand निकलती है, मजदूर पेट भरने के बाद कुछ अपने पर खर्च करने की सोचता है, अपनी shave करने के लिए बाज़ार से एक blade खरीदता है, और शुरू हो जाती है Demand, दुकानदार, होलसेलर को ऑर्डर भेजता है और होलसेलर फैक्ट्री को ऑर्डर भेजता है, फैक्ट्री जो बंद हो गई थी मजदूर लगा कर फैक्ट्री चालू कर देता है और रोज़गार देने लगता है। कैसे एक blade से रोज़गार शुरू होता है।

अपनी लंबी दाढ़ी देख कर हम भी आपको कहां से कहां ले गए, इसलिए आइना नही देख रहे थे हम आजकल।

टीप – हमने किसी दाढ़ी बढ़ाए हुए को भी आइना दिखाने की कोशिश नहीं की। 😁

श्री राकेश कुमार 

11th April 2021

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

डॉ.वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारीके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी

☆ कहाँ गए वे लोग # ४० ☆

☆ “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय

महान व्यक्ति अपने कर्मों की छाप और कदमों के अमिट निशान दुनिया में छोड़ जाते हैं, ऐसे ही महान शख्स थे स्व. यशवंत शंकर धर्माधिकारी। आपका जन्म स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सामाजिक सुधार आंदोलनों के नेता, विनोबा भावे के अनन्य सहयोगी एवं गांधीवादी विचारधारा के समर्थक वर्धा के श्री शंकर त्र्यंबक धर्माधिकारी के परिवार में हुआ था। प्रतिष्ठित परिवार से जो सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, कर्मठता के संस्कार उन्हें मिले उन्हीं सब का निर्वहन कर उन्होंने अपने व्यक्तित्व को और अधिक सुरभित बनाया । धर्माधिकारी जी ने नागपुर से 1952 में विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त की तदोपरान्त उन्होंने संस्कारधानी जबलपुर में वकालत का कार्य प्रारंभ किया । इस क्षेत्र में वे लगभग 45 वर्ष तक  सेवाएं प्रदान करते रहे । उन्होंने अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ न्याय क्षेत्र में भी बुलंदियां हासिल कर शोहरत प्राप्त की । उनकी शख्सियत को नजरअंदाज करना न तो समाज के लिए संभव था और न ही सरकार के लिए । उनके परिश्रम, लगन, ईमानदारी और बुद्धिमत्ता ने उन्हें 12 अगस्त 1971 में महाधिवक्ता के रूप में प्रतिष्ठित किया। नियम-सिद्धांतों, नैतिकता और ईमानदारी की डोर से बंधे धर्माधिकारी जी को आपातकाल में श्री जयप्रकाश नारायण को अपने आवास में अपने सानिध्य में रखने के कारण 1975 में नैतिक जिम्मेदारी के तहत पद त्याग करना पड़ा उन्होंने साबित कर दिया कि –

कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे में ढल गए

कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदल गए

ऊंचाईयां उन्होंने केवल न्याय के क्षेत्र में ही तय नहीं की थी, वे श्रेष्ठ साहित्यकार भी थे। उनकी साहित्य में गहरी रुचि थी हिंदी, मराठी और अंग्रेजी साहित्य पर उनका पूर्ण अधिकार था । इतिहास, दर्शन तथा आध्यात्म में भी उनकी गहरी पैठ थी । सच्चाई की जितनी कड़वाहट  उनके व्यवसाय से जुड़ी थी, संगीत की उतनी ही मधुरता उनके जीवन में घुली थी। वे संगीत के भी बेहद शौकीन थे। विभिन्न शैक्षिक, सांस्कृतिक आध्यात्मिक कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति उनकी रुचि का परिचायक थी । साधारणता यह देखा जाता है कि साहित्य और कला प्रेमी खेल के मैदान से दूर रहते हैं, किंतु उन्हें खेल में भी दिलचस्पी थी और भी इसका भरपूर आनंद भी लेते थे ।

श्री धर्माधिकारी जी महान शिक्षाशास्त्री और शिक्षा प्रेमी थे। नगर के गौरवशाली गोविंदराम सेक्सरिया अर्थ वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर के लम्बे समय तक शासी निकाय के अध्यक्ष रहे। उनके मार्गदर्शन में महाविद्यालय पुष्पित, पल्लवित हुआ और प्रदेश के श्रेष्ठ महाविद्यालय में अपना स्थान बनाया । एड. धर्माधिकारी जी रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के कार्य परिषद के साथ-साथ अनेक महाविद्यालयों  में भी शासी निकाय के सदस्य रहे। शहर की कोई भी प्रतिष्ठित शिक्षण संस्था ऐसी नहीं होगी जिससे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उनका संबंध न रहा हो।

इन सब के अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात है उनका विनम्र होना और इंसानियत के गुणों से भरपूर होना। मुझे याद आती है अपने बाल्यकाल की एक घटना । चूँकि मेरे पिता स्व. प्रो.एन के पाण्डेय गोविंदराम सेक्सरिया महाविद्यालय में ही प्राध्यापक थे और आदरणीय धर्माधिकारी जी के घर महाविद्यालयीन कारणों से आना-जाना होता रहता था । उन दिनों मेरी मां रीढ की हड्डी की समस्या से परेशान थीं और उनके लिए चलना-फिरना कठिन हो गया था ऐसे समय में उन्होंने अपने ड्राइवर बाबूराव जी को स्पष्ट निर्देश दिया कि जब तक मां का इलाज पूर्ण नहीं हो जाता वह उनके लिए कार की व्यवस्था बनाए रखे । सरस्वती-लक्ष्मी पुत्र धर्माधिकारी जी के संवेदनशील, मानवता पूर्ण व्यवहार ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उच्च वर्ग में जन्मे पले बढ़े श्री धर्माधिकारी जी समवर्गी में ही नहीं अपितु मध्यम और निम्न वर्गी लोगों में भी अत्यंत लोकप्रिय थे। छोटे-बड़े सभी लोग उन्हें प्यार और आदर से दादा और काका जैसे संबोधनों से संबोधित करते थे। उनके वात्सल्य पूर्ण स्नेहिल व्यवहार को मैं आज भी नहीं भूल पाती जब मैं कक्षा सातवीं की स्टूडेंट थी तब उन्होंने एक बार मुझे बग्घी में घुमाया था और रास्ते भर पिताजी की तरह सिद्धांतों के साथ ईमानदारी की राह पर चलने, कठिन परिश्रम और समय का पाबंद रहने की शिक्षा दी थी। युवा- वृद्ध, बालक सबसे उनका प्रेम पूर्ण व्यवहार रहता था। गरीबों के प्रति उनकी सहृदयता देखते ही बनती थी। वे  सबके दुख-सुख में शरीक होकर सुख को दूना और दुख को आधा कर देते थे। 15 जून 1996 को उनके निधन पर हर किसी को लगा कि कोई अपना चला गया जीवन शून्य बनाकर।  खुशमिज़ाज़, शौकीन, हंसमुख, मिलनसार, सहनशील प्रकृति के धनी एड. यशवन्त शंकर धर्माधिकारी जी की पत्नी श्रीमती यशोदा धर्माधिकारी जी भी शिक्षा और समाज सेवा में सदैव अग्रणी रहीं । समाज सेवा की परंपरा को आगे बढ़ाया उनके पुत्र स्व. प्रियदर्शन धर्माधिकारी जी ने, जो नगरीय प्रशासन राज्य मंत्री भी रहे। पुत्रवधु श्रीमती प्रीति धर्माधिकारी जी भी निरंतर शिक्षा और समाज सेवा में उदारता के साथ जुड़ी हैं । पुत्री स्व.की शुभदा पांडे जी ने भी शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान की। 

दादा वाय.एस.धर्माधिकारी को सादर नमन …

डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, सी. पी. महिला महाविद्यालय

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 5 – मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में अगला दस्तावेज़ सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा प्रेषित  “मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा। यह जानते हुए भी कि कुनबे क्यों बिखर रहे हैं, फिर भी हम कुनबों को जोड़ने के स्वप्न देखते हैं। यही सकारात्मकता है। )

☆  दस्तावेज़ # 5 – मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆ 

 गाँव छोड़े मुझे काफी समय बीत गया। बाबूजी ने खेतों के बीचोबीच एक बड़ा – सा घर बनाया था। घर में प्रवेश से पहले लिपा पुता आँगन, तुलसी मंच और एक कुआँ हमारा स्वागत करता।

फिर आती एक सीढ़ी, जिसे चढ़कर तीन तरफ से खुला बरामदा हुआ करता था। यहाँ कपड़े और लकड़ी की सहायता से बनी एक आराम कुर्सी रखी रहती जिस पर बाबूजी अक्सर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाया करते थे। कौन आया कौन गया, हाथ पैर धोए या नहीं, पैरी पौना (प्रणाम) किया या नहीं इन सब बातों की ओर उनका पूरा ध्यान रहता था। हाँ, उनके हाथ में एक जापमाला भी हुआ करती थी और वह दिवा – रात्रि उँगलियों में उसे फेरा करते थे।

बाबूजी जब अस्सी के ऊपर थे तब भी कमाल था कि कोई बात भूलते हों! संस्कारों में, रीति-रिवाज के पालन में, लेन -देन में, बहुओं की देखभाल में कहीं कोई कमी न आने देते। घर का सारा अंकुश उनके हाथ में था। सबको अपना हिस्सा मिले, सब स्वस्थ रहें, बहुएँ समय -समय पर अपने पीहर जाएँ, ज़ेवर बनाएँ, वस्त्र खरीदे इन सब बातों की ओर बाबूजी का पूरा ध्यान रहता था। खेतीबाड़ी साझा होने के कारण घर में धन का अभाव न था।

बाबूजी बहुत मेहनती थे। सत्तर साल की उम्र तक सुबह – शाम पहले तो खुद ही गोठ में जाते, गैया मैया की पूजा करते, उनके पैरों को छूकर प्रणाम करते उन्हें नहलाते, साफ करते फिर उनके पास उनके बछड़े को छोड़ते। वह भरपेट दूध पी लेते तो वे बाकी दूध दुहकर घर के भीतर ले लाते।

ताज़ा दूध उबल जाने पर अपनी आँखों के सामने बिठाकर अपने दोनों बेटों को और हम बच्चों को दूध पिलाते। घर में दो भैंसे भी थीं, उनकी भी खूब सेवा करते। दूध दुहकर लाते और उसी दूध से बेबे (दादीमाँ) दही जमाती, पनीर बनाती, मक्खन निकालती, घी बनाती। सुबह पराँठे के साथ ढेर सारा मक्खन मिलता, दोपहर को लस्सी, रात को पनीर। वाह ! बीजी ( माँ) और चाईजी ( चाचीजी) दोनों के हाथों में जादू था। क्या स्वादिष्ट भोजन पकाया करती थीं कि बस हम सब उँगलियाँ चाटते रहते थे।

घर के भीतर आठ बड़े कमरे थे और एक खुला हुआ आँगन। रसोई का कमरा भी बड़ा ही था और वहीं आसन बिछाकर हम सब भोजन किया करते थे। आँगन में बच्चों की तेल मालिश होती, मेरे चारों बड़े भाई मुद्गल उठा -उठाकर व्यायाम करते, उनकी भी मालिश होती और वे कुश्ती खेलने अखाड़ों पर जाते।

बेबे आँगन के एक कोने में कभी गेहूँ पीसती तो कभी चने की दाल। कभी मसालेदार बड़ियाँ बनाती तो कभी सब मिलकर पापड़। बेबे को दिन में कभी खाली बैठे हुए नहीं देखा। वह तो सिर्फ साँझ होने पर ही बाबूजी के साथ बैठकर फुरसत से हुक्का गुड़गुड़ाया करती और बतियाती।

बाबूजी सुबह- सुबह पाठ करते और बेबे नहा धोकर सब तरफ जल का छिड़काव करतीं। तुलसी के मंच पर सुबह शाम दीया जलाती। गायों को अपने हाथ से चारा खिलाती और अपनी दिनचर्या में जुट जातीं। बेबे हम हर पोता-पोती को अलग प्यार के नाम से पुकारती थीं। घर में किसी और को उस नाम से हमें पुकारने का अधिकार न था। मैं घर का सबसे छोटा और आखरी संतान था। वे मुझे दिलखुश पुकारा करती थीं। बेबे के जाने के बाद यह नाम सदा के लिए लुप्त हो गया। आज चर्चा करते हुए स्मरण हो आया।

ठंड के दिनों में गरम -गरम रोटियाँ, चूल्हे पर पकी अरहर की दाल, अरबी या जिमीकंद या पनीर मटर की स्वादिष्ट सब्ज़ियाँ सब चटखारे लेकर खाते। सब कुछ घर के खेतों की उपज हुआ करती थी। ताजा भोजन खाकर हम सब स्वस्थ ही थे। हाँ कभी किसी कारण पेट ऐंठ जाए तो बेबे बड़े प्यार से हमारी नाभी में हींग लगा देती और थोड़ी ही देर में दर्द गायब! कभी दाँत में दर्द हो तो लौंग का तेल दो बूँद दाँतों में डाल देतीं। दर्द गायब! सर्दी हो जाए तो नाक में घी डालतीं। सर्दी गुल! खाँसी हो जाए तो हल्दी वाला दूध रात को पिलाती। शहद में कालीमिर्च का चूर्ण और अदरक का रस मिलाकर पिलाती। खाँसी छूमंतर ! पर हम इतने सारे भाई बहन कभी किसी वैद्य के पास नहीं गए।

घर के हर लड़के के लिए यह अनिवार्य था कि दस वर्ष उम्र हो जाए तो बाबा और चाचाजी की मदद करने खेतों पर अवश्य जाएँ। गायों, भैंसो को नहलाना है, नाँद में चारा और चौबच्छे में पीने के लिए पानी भरकर देना है। बाबूजी अब देखरेख या यूँ कहें कि सुपरवाइजर की भूमिका निभाते थे।

लड़कियों के लिए भी काम निश्चित थे पर लड़कों की तुलना में कम। बहनें भी दो ही तो थीं। बेबे कहती थीं- राज करण दे अपणे प्यो दे कार, ब्याह तो बाद खप्पेगी न अपणे -अपणे ससुराला विच। (राज करने दे अपने पिता के घर शादी के बाद खटेगी अपनी ससुराल में) और सच भी थी यह बात क्योंकि हम अपनी बेबे, बीजी और चाइजी को दिन रात खटते ही तो देखते थे।

दोनों बहनें ब्याहकर लंदन चली गईं। बाबूजी के दोस्त के पोते थे जो हमारे दोस्त हुआ करते थे। घर में आना जाना था। रिश्ता अच्छा था तो तय हो गई शादी। फिर बहनें सात समुंदर पार निकल गईं।

दो साल में एक बार बहनें घर आतीं तो ढेर सारी विदेशी वस्तुएँ संग लातीं। अब घर में धीरे – धीरे विदेशी हवा, संगीत, पहनावा ने अपनी जगह बना ली। घर में भाइयों की आँखों पर काला चश्मा आ गया, मिक्सर, ज्यूसर, ग्राइंडर, टोस्टर आ गए। जहाँ गेहूँ पीसकर रोटियाँ बनती थीं वहाँ डबलरोटी जैम भी खाए जाने लगे। हर भोजन से पूर्व सलाद की तश्तरियाँ सजने लगीं। घर में कूलर लग गए। रसोई से आसन उठा दिए गए और मेज़ कुर्सियाँ आ गईं। ठंडे पानी के मटके उठा दिए गए और घर में फ्रिज आ गया। जिस घर में दिन में तीन- चार बार ताज़ा भोजन पकाया जाता था अब पढ़ी -लिखी भाभियाँ बासी भोजन खाने -खिलाने की आदी हो गईं।

सोचता हूँ शायद हम ही कमज़ोर पड़ गए थे सफेद चमड़ियों के सामने जो वे खुलकर राज्य करते रहे, हमें खोखला करते रहे। वरना आज हमारे पंजाब के हर घर का एक व्यक्ति विदेश में न होता।

बेबे चली गईं, मैं बीस वर्ष का था उस समय। बाबूजी टूट से गए। साल दो साल भर में नब्बे की उम्र में बाबूजी चल बसे। वह जो विशाल छप्पर हम सबके सिर पर था वह हठात ही उठ गया। वह दो तेज़ आँखें जो हमारी हरकतों पर नज़र रखती थीं अब बंद थीं। वह अंकुश जो हमारे ऊपर सदैव लगा रहता था, सब उठ गया।

घर के बड़े भाई सब पढ़े लिखे थे। कोई लंदन तो कोई कैलीफोर्निया तो कोई कनाडा जाना चाहता था। अब तो सभी तीस -बत्तीस की उम्र पार कर चुके थे। शादीशुदा थे और बड़े शहरों की पढ़ी लिखी लड़कियाँ भाभी के रूप में आई थीं तो संस्कारों की जड़ें भी हिलने लगीं थीं।

बीस वर्ष की उम्र तक यही नहीं पता था कि अपने सहोदर भाई -बहन कौन थे क्योंकि बीजी और चाईजी ने सबका एक समान रूप से लाड- दुलार किया। हम सबके लिए वे बीजी और चाईजी थीं। बाबा और चाचाजी ने सबको एक जैसा ही स्नेह दिया। हम सभी उन्हें बाबा और चाचाजी ही पुकारते थे। कभी कोई भेद नहीं था। हमने अपने भाइयों को कभी चचेरा न समझा था, सभी सगे थे। पर चचेरा, फ़र्स्ट कज़न जैसे शब्द अब परिवार में सुनाई देने लगे। कभी- कभी भाभियाँ कहतीं यह मेरा कज़न देवर है। शूल सा चुभता था वह शब्द कानों में पर हम चुप रहते थे। जिस रिश्ते के विषय से हम बीस वर्ष की उम्र तक अनजान थे उस रिश्ते की पहचान भाभियों को साल दो साल में ही हो गई। वाह री दुनिया!

पहले घर के हिस्से हुए, फिर खेत का बँटवारा। अपने -अपने हिस्से बेचकर चार भाई बाहर निकल गए।

बहनें तो पहले ही ब्याही गई थीं।

अगर कोई न बिखरा था तो वह थीं बीजी और चाइजी। उन्होंने बहुओं से साफ कह दिया था – सोलह साल दी उम्रा विच इस कार विच अस्सी दुआ जण आई सन, हूण मरण तक जुदा न होणा। बेशक अपनी रोटी अलग कर ले नुआँ। (सोलह साल की उम्र में हम दोनों इस घर में आई थीं अब मरने तक जुदा न होंगी हम। बेशक बहुएँ अपनी रोटी अलग पका लें)

हमारा मकान बहुत बड़ा और पक्का तो बाबूजी के रहते ही बन गया था। सब कहते थे खानदानी परिवार है। गाँव में सब हमारे परिवार का खूब मान करते थे। बिजली, घर के भीतर टूटी (नल), ट्रैक्टर आदि सबसे पहले हमारे घर में ही लाए गए थे। पर सत्तर -अस्सी साल पुराना कुनबा विदेश की हवा लगकर पूरी तरह से बिखर गया।

आज मैं अकेला इस विशाल मकान में कभी – कभी आया जाया करता हूँ। अपनी बीजी, चाइजी और चाचाजी से मिलने आता हूँ। वे यहाँ से अन्यत्र जाना नहीं चाहते थे। खेती करना मेरे बस की बात नहीं सो किराए पर चढ़ा दी। जो रोज़गार आता है तीन प्राणियों के लिए पर्याप्त है। मैं यहीं भटिंडा में सरकारी नौकरी करता हूँ। बाबा का कुछ साल पहले ही निधन हुआ। अविवाहित हूँ इसलिए स्वदेश में ही हूँ वरना शायद मैं भी निकल गया होता।

आज अकेले बैठे -बैठे कई पुरानी बातें याद आ रही हैं।

बाबूजी कहते थे, *दोस्तानुं कार विच न लाया करो पुत्तर, पैणा वड्डी हो रही सन। (अपने दोस्तों को लेकर घर में न आया करो बेटा, बहनें बड़ी हो रही हैं।)

हमारी बहनों ने हमारे दोस्तों से ही तो शादी की थी और घर पाश्चात्य रंग में रंग गया था। बाबूजी की दूरदृष्टि को प्रणाम करता हूँ।

बेबे कहती थीं – हॉली गाल्ल कर पुत्तर दीवारों दे भी कान होंदे। (धीरे बातें करो बेटे दीवारों के भी कान होते हैं)

बस यह दीवारों के जो कान होने की बात बुजुर्ग करते थे वह खाँटी बात थी। घर के दूसरे हिस्से में क्या हो रहा था इसकी खबर पड़ोसियों को भी थी। वरना इस विशाल कुनबे के सदस्य इस तरह बिखर कर बाहर न निकल जाते।

© सुश्री ऋता सिंह

27/4/1998

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 555 ⇒ कुंटे साहब ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कुंटे साहब ।)

?अभी अभी # 555 ⇒ कुंटे साहब ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यूं तो वे हमारे फैमिली डॉक्टर थे, फिर भी हम सभी उन्हें कुंटे साहब ही कहते थे। मोहल्ला क्लीनिक की धारणा हमारे यहां बहुत पुरानी है। हर मोहल्ले में आपको एक दो किराने की दुकानें, दूध की दुकान, और साइकिल की दुकान के साथ एक छोटा मोटा डॉक्टर का दवाखाना भी नजर आ ही जाता था।

आज भले ही इलाज बहुत महंगा हो गया हो, इस शहर में डॉ अकबर अली जैसे चिकित्सक केवल दो रुपए में मरीजों को देखते थे।

डॉ मुखर्जी की ख्याति तो पूरे प्रदेश में थी। पांच और दस रुपए वाले डॉक्टर बहुत महंगे डॉक्टर माने जाते थे।।  

कुंटे साहब का दवाखाना हमारे घर से एक डेढ़ किलोमीटर दूर, सुतार गली में था, लेकिन गली मोहल्लों की घनी बस्ती के बीच इतना दूरी आम तौर पर पैदल ही तय की जाती थी। पहले मेरी मां मुझे उंगली पकड़कर डॉ कुंटे के पास लाती थी, और बाद में मैं मां को उंगली पकड़कर दवाखाने लाता था।

तब हम डॉक्टरों को डिग्री से नहीं आंकते थे, उनके इलाज और स्वभाव पर ही हमारा ध्यान केंद्रित होता था। डॉक्टर कुंटे के सर पर मैने कभी बाल नहीं देखे, लेकिन उनके शांत और गंभीर चेहरे पर मूंछ जरूर थी। वे बहुत कम बोलते थे।।  

उनका एक कंपाउंडर भी था, जो लकड़ी के काउंटर के पीछे से पर्ची के अनुसार दवाइयां दिया करता था। दुबले पतले, चिड़चिड़े, स्वभाव के चश्माधारी इन सज्जन का नाम जोशी जी था। दुबले पतले लोग चिड़चिड़े और मोटे लोग हंसमुख क्यों होते हैं, यह पहेली मैं आज तक सुलझा नहीं पाया।

हर डॉक्टर गोलियों के साथ पीने की दवा भी देता था, इसलिए खाली शीशी साथ में लानी पड़ती थी। आजकल तो पीने की दवा भी बाजार से लेनी पड़ती है। गोलियों की भी पुड़िया बनाई जाती थी, आज भी कई चिकित्सक पॉलीथिन का प्रयोग कम ही करते हैं।।  

पैसे अक्सर मां ही दिया करती थी, फिर भी कुंटे साहब का इलाज इतना महंगा नहीं था। समय के साथ हम बड़े होते चले गए, और कुंटे साहब बूढ़े।

क्लीनिक के ऊपर ही उनका निवास था। उनका एक पुत्र मेरा कॉलेज का सहपाठी था। उनसे कुंटे साहब के हालचाल मिलते रहते थे।।  

एक बार मेरे मित्र के आग्रह पर उनसे मिलने उनके घर गया था। उनके घुटने जवाब दे चुके थे। सीढियां चढ़ना उतरना उनके लिए संभव नहीं था। तब तक घुटने का प्रत्यारोपण इतना आम नहीं हुआ था, केवल मालिश और व्यायाम से ही काम चल रहा था।

उनका शरीर कसरती था।

जब तक आप कसरत करते रहते हैं, शरीर काम करता रहता है। तब देसी व्यायाम ही कसरत कहलाता था। दंड बैठक लगा ली, और शरीर की मालिश कर ली। योगासन में स्ट्रेचिंग एक्सरसाइजे़स होती हैं, जिससे शरीर लचीला बना रहता है। इस उम्र में कुंटे साहब को सलाह देना मुझे उचित नहीं लगा।।  

घर जाकर मां को भी कुंटे साहब का हाल बताया। मां को भी अफसोस हुआ। मां ने बताया कुंटे साहब हमारे परिवार के लिए डॉक्टर नहीं भगवान थे। एक दर्द का रिश्ता ही तो मरीज और डॉक्टर को करीब लाता है। तब इस पेशे में पैसा और लालच प्रवेश नहीं कर पाया था।

कुंटे साहब को मेरी मां की तरह कितने मरीजों की दुआ लगी होगी। आज अनायास ही मां की स्मृति के साथ कुंटे साहब का भी स्मरण हो आया। उनकी तस्वीर आज सिर्फ मेरी यादों में है, केवल शब्द चित्र ही पर्याप्त है उनके लिए तो।।  

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Memoir ☆ The Citizenship journey: A Memoir ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆ – The Citizenship journey: A Memoir – ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Life has a way of presenting opportunities that shape not just our careers but also our inner selves. My journey with Citizen SBI was one such transformative experience. It began with my selection as faculty for the State Bank Academy, Gurgaon—a position I never assumed. Instead, I was posted as the head of the learning center at Indore, a role that coincided with my appointment as the intervention leader for the Citizen-SBI program.

Citizen SBI was more than a training program. Inspired by Swami Ranganathananda of the Ramakrishna Mission, it aimed to cultivate ‘enlightened citizenship.’ This concept transcended political citizenship—focused on rights and freedoms—and emphasized a deeper engagement with collective welfare and individual fulfillment. The program was the brainchild of our chairman, O.P. Bhatt, who envisioned its impact extending to 200,000 employees and, through them, to 140 million customers.

The foundation of this initiative was engagement—true, deep involvement in one’s work. As I immersed myself in its philosophy, I discovered the transformative power of meaningful contribution. No longer was work just a duty; it became a purpose-driven act of service. This shift in mindset was a spiritual awakening for me.

The journey began with workshops and pilots across locations, from Mumbai to Hyderabad and Gurgaon. I remember vividly my first interaction with V. Srinivas, the visionary CEO of Illumine Knowledge Resources. His conviction was palpable, though his ideas initially seemed abstract to many. Over time, through detailed workshops and apprenticeships, the abstract became tangible, and the facilitators, including myself, underwent a profound transformation.

The program’s influence extended beyond professional training. It created a rich network of facilitators, bonded by a shared purpose. The ‘facilitator gym’ sessions at the Bandra-Kurla Complex honed our skills and deepened our understanding of citizenship. These moments of camaraderie and collective learning were deeply fulfilling.

Back in Indore, I was tasked with implementing Citizen SBI in the State Bank of Indore. Initially, there was resistance—they did not yet see themselves as citizens of SBI. However, with the help of facilitators like Suresh Iyer, Harinaxi Sharma, and Arun Kalway, we gradually earned their trust. The program’s ethos resonated, bringing about a noticeable shift in their attitudes.

The essence of Citizen SBI was not about personal gain but about contributing positively to others. It wasn’t ‘swantah sukhai’—happiness for oneself—but a collective welfare-driven joy. This philosophy became my way of life, influencing not just my work but my personal ethos.

The program’s success was also a testament to the incredible people involved. Intervention leaders like Bijaya Dash, R. Natarajan, and Balachandra Bhat became cherished friends. Vasudha Sundararaman, our deputy general manager, coordinated the program with unmatched efficiency and warmth. Yashi Sinha, general manager, was an epitome of grace and wisdom. Above all, V. Srinivas, with his dedication to the cause, became a source of inspiration—a guru whose example I sought to follow in words and deeds.

As I reflect on this journey, I find myself deeply fulfilled. I have reaped not only the ‘outer fruits’ of professional growth and recognition but also the ‘inner fruits’ of spiritual evolution and the joy of contribution. My experiences as a behavioral science trainer and student of positive psychology further enriched this journey, grounding it in the principles of authentic happiness.

Citizen SBI was not merely a program; it was a movement, a way of life. It taught me that true citizenship is an internal transformation, a continuous journey of growth, contribution, and engagement. It is a journey I carry forward with pride and gratitude, knowing that it has shaped me into not just a professional but a better human being.

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – मंज़िल अपनी -अपनी ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – मंज़िल अपनी -अपनी)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – मंज़िल अपनी -अपनी ?

राजस्थान भारत का एक ऐसा ख़ूबसूरत राज्य है जहाँ आज भी असंख्य लोग अपनी- अपनी कलाओं से जुड़े हुए हैं। ये वे लोग हैं जो कई पुश्तों से वही कार्य करते हैं जो उनके पूर्वज करते आए थे। बस अंतर यदि कुछ है तो यह कि अब इन लोगों के कार्य और कलाओं को करने की विधि में आधुनिकता की छाप दिखाई देती है।

जयपुर राजस्थान का वह हिस्सा है जिसे गुलाबी शहर कहा जाता है। यहाँ दो हिस्से हैं – एक पुराना जयपुर और दूसरा नया जयपुर। पहाड़ों पर बने अपूर्व किले यात्रियों का आकर्षण केंद्र है। शहर के बीच एक जल महल है जिसे देखने लोग यहाँ आया करते हैं।

अब इसमें एक आलीशान रेस्तराँ भी बनाया गया है।

जयपुर शहर से 22 किलोमीटर की दूरी पर एक विशाल खुले मैदान पर एक छोटा – सा गाँव स्थापित किया गया है। वास्तव में यह कोई बसा -बसाया गाँव नहीं है। इस स्थान को राजस्थानी गाँव का कृत्रिम रूप देकर लोगों का मनोरंजन किया जाता है। इस स्थान को ‘चोखी ढाणी’ कहा जाता है इसका अर्थ है *सुंदर या अच्छा गाँव। *

इस सुंदर गाँव के प्रवेश द्वार पर यात्रियों का स्वागत माथे पर टीका लगाकर और “राम राम साईं” कहकर किया जाता है। स्वागत करने वाले राजस्थानी पोशाक में ही दिखाई देते हैं। इस गाँव के भीतर प्रवेश करने के लिए ₹300 का टिकट है। (आज शायद परिवर्तन आया होगा मगर जिस समय की मैं बात कर रही हूं 2007 तब इसकी कीमत ₹300 ही थी)

शाम को 7 से रात के 12 बजे तक यहाँ विभिन्न प्रकार की कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है। गाँव के घर, मिट्टी से बनी दीवारे, दीवारों पर राजस्थानी कलाकृतियाँ, चित्र, कुआँ, पनघट आदि सभी दृश्य यहाँ देखने को मिलेंगे। साथ ही राजस्थानी भोजन का विभिन्न जगहों पर आयोजन भी दिखाई देता है। छोटे -छोटे भोजनालय की फ़र्श जो गोबर मिट्टी से लिपी हुई होती है उस पर दरियाँ बिछाकर चौकियों पर थाली कटोरे सजाकर गरमागरम भोजन परोसा जाता है। यात्री जयपुर जाने पर इस स्थान का दर्शन अवश्य करते हैं।

मैं जब जयपुर पहुँची तो मुझसे भी कहा गया कि चोखी ढाणी का मैं निश्चित रूप से दर्शन करूँ। उस दिन शाम के समय निश्चित समय पर होटल में हमें चोखी ढाणी ले जाने के लिए गाड़ी आ गई और मैं होटल के अन्य यात्रियों के साथ चोखी ढाणी के लिए रवाना हुई। चोखी ढाणी में पहुँचते ही मुझे ऐसा लगा मानो राजस्थान के किसी फलते -फूलते गाँव में आ गई हूँ। चारों तरफ दीये जल रहे थे। चूल्हे पर भोजन पक रहा था। बाजरे की रोटी, बेसन के पकोड़े से बनी तरी वाली सब्ज़ी और दाल बाटी की खुशबू हवा में भरी थी।

सारा वातावरण आनंद से सराबोर था। कहीं कोई जादू दिखा रहा था तो कोई कठपुतली का नाच, तो कहीं कुछ पुरुष और स्त्री लोक गीत गा रहे थे, कहीं कुछ पुरुष ढोलक बजा रहे थे और मंच पर सजी-धजी युवा लड़कियाँ घड़े पर कई घड़े अपने सिर पर रखकर नृत्य दिखा रही थीं। नाचती हुई वे बड़े से परात के किनारों पर खड़ी होकर ढोल के धुनों पर नाच रही थीं। सारा दृश्य अद्भुत था और मन को न केवल प्रसन्न कर रहा था बल्कि यह सोचने के लिए भी विवश कर रहा था कि हमारे देश में कितनी अद्भुत कलाएँ आज भी जीवित हैं।

मैं अकेली ही इस गाँव के हर घर के आँगन में चल रहे विभिन्न कार्यक्रमों का आनंद ले रही थी। दो लाल पगड़ी वाले ज्योतिषी नज़र आए जिनके इर्द-गिर्द कई लोग बैठे थे और ये ज्योतिषी जी उन्हें उनके हाथ की रेखाएँ देखकर उनका भविष्य बता रहे थे। खुशगुबार माहौल था। कुछ औरतें काँच की डिज़ाइनदार चूड़ियाँ पहनकर खुश हो रही थीं। अपनी अपनी कलाइयाँ घुमाकर अपने साथियों को चूड़ियों की खनक सुना रही थीं। वहीं पर कुछ लोग लाख की चूड़ियाँ बना रहे थे। उस पर विभिन्न प्रकार की मोतियाँ जड़ रहे थे जो देखने में अद्भुत सुंदर थे। कुछ लोग राजस्थानी मोजड़ियाँ पहन-पहन कर अपने पैरों के माप की मुजड़ियाँ तलाश रहे थे। कुछ वृद्धा औरतें पास बैठी अन्य महिलाओं के हाथों में सुंदर मेहंदी के फूल और आकृतियाँ काढ़ रही थीं। इस गाँव में छोटे-बड़े सब व्यस्त थे। यात्री तो खुश थे ही गाँववासी भी प्रसन्न थे। कलाकारों को अपनी कला की प्रशंसा सुन और भी खुशी हो रही थी।

अचानक मेरा ध्यान एक सुरीली आवाज़ की ओर आकर्षित हुआ। यह आवाज़ इस भीड़ से हटकर और सब शोर से उठकर मेरे कानों में पड़ने लगी। मैं भीड़ से हटकर उस आवाज़ की दिशा की ओर चलने लगी। चोखी ढाणी के पूर्वी दिशा में एक कृत्रिम तालाब -सा बना हुआ था। उस पर एक छोटा- सा पुल बनाया गया था। उस पुल को पार कर मैं तालाब की दूसरी ओर पहुँची। एक बुज़ुर्ग फटी हुई दरी पर बैठे हुए थे और उनके साथ एक अट्ठारह- उन्नीस वर्षीय युवक बैठा था। वृद्ध के सामने बाजा रखा हुआ था और वे आकाश की ओर ताकते हुए बाजे पर उँगलियाँ फेरते हुए कबीर के दोहे गा रहे थे। उसके साथ मधुर आवाज़ में उसका बेटा साथ दे रहा था। दोनों की आवाज़ में एक अद्भुत मिठास थी और साथ ही गाने का अंदाज भी निराला था। ये पिता-पुत्र राजस्थान के किसी छोटे से कबीले के निवासी थे और सूफी संतों की वाणी गाया करते थे। चोखी ढाणी में इसी वर्ष पहली बार वे गीत गाने तथा लोगों का मनोरंजन करने आए थे। उनके इर्द-गिर्द कई लोग बैठे गीतों का आनंद ले रहे थे। कई विदेशी यात्री भी थे जो उनकी धुनों पर थिरक रहे थे। मैं रात के 12 बजे तक मंत्रमुग्ध होकर उनके गीत सुनती रही। मुझे भोजन की भी सुध न रही और मैं उस मीठी आवाज के जादू में खोई हुई उनके गाए लोकगीत और संतवाणियों को गुनगुनाती हुई अपने होटल में लौट आई।

उन दोनों की आवाज मेरे हृदय की गहराई को छू गई थी। उनका जब गाना समाप्त हुआ और भीड़ भी छँटने लगी तो मैं अपनी जिज्ञासावश उनके और समीप जा बैठी थी। उस लड़के ने मुझे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और शुद्ध भाषा में पूछा, “आंटी जी आपको हमारा गाना अच्छा तो लगा न!” मैं क्या कहती, मैं तो मंत्रमुग्ध ही हो गई थी। दोनों की आवाज की मैंने प्रशंसा की, दिल खोलकर युवा की खुली और ऊँची आवाज की विशेष प्रशंसा की तथा अपने दिल की गहराई से युवक को आशीर्वाद दिया।

बातचीत का सिलसिला जारी रहा तो युवक ने अपना नाम आफ़ताब बताया। उसके पिता वृद्ध थे तथा दृष्टिहीन भी थे। वह एक सूफ़ी गायक तथा अजमेर के निवासी थे। पिता का नाम अशफाक मियाँ था। अजमेर में रहकर उनकी रोज़ी-रोटी अब नहीं चलती थी इसलिए वे जयपुर आ गए थे और इसी साल चोखी ढाणी में अपने मधुर स्वर का जादू उन्होंने चलाना प्रारंभ कर दिया था।

आफ़ताब दिन में कॉलेज जाता और रात के समय चोखी ढाणी में गीत गाता। गाँव बनानेवाली संस्था की ओर से उन्हें महीने में कुछ बंधी हुई रकम मिल ही जाती और साथ ही गाना सुनने के बाद लोग भी खुश होकर कुछ न कुछ रकम पुरस्कार स्वरूप अवश्य देते। दोनों मिलाकर उनका गुज़ारा हो जाता।

बातें करते – करते पता चला कि उसके तीन बड़े भाई भी थे पर आज कोई भी जवित नहीं हैं। उसकी बूढ़ी अम्मा थीं जो पिता की देखभाल किया करती थी अब वह भी नहीं रहीं। अपने घर की बातें करते हुए और अपनी अम्मा का ज़िक्र करते ही उसकी आँखें छलक उठीं। मैं उसके पास ही बैठी थी तो सांत्वना देते हुए मैंने उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया। दो मिनिट चुप रहने के बाद उसने स्वयं को संभाल ही लिया।

आफ़ताब का सप्ना था कि एक दिन वह महान गायक बनेगा। उसे गायकी की तालीम अपने पिता से ही मिली थी, वही उसके उस्ताद थे। कॉलेज से लौटकर नियमित रूप  तीन -चार घंटे वह रियाज़ भी किया करता था।

इस वर्ष मैं कुछ स्कूलों के शिक्षकों को ट्रेनिंग देने के लिए जयपुर आई थी। बड़ी उत्कट इच्छा थी कि उस बाप – बेटे की सुरीली आवाज और सूफी संगीत का आनंद एक और दिन लूँ। पर मैं वहाँ रुक न सकी दूसरे ही दिन मुझे अहमदाबाद के लिए रवाना होना था।

 युवक के हृदय की उच्च आकांक्षा को देखकर मेरा हृदय बाग – बाग हो उठा। मैं मन ही मन सोचने लगी कि क्या ईश्वर इसकी इच्छाओं को पूरी करेंगे ? उस इच्छा की पूर्ति के लिए वह हर दिन कड़ी मेहनत किया करता था।

कहते हैं भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। बात 2009 की है। मैं एक दिन अपने कमरे में कुछ लिख रही थी रात के कुछ 9:30 बजे होंगे अचानक मेरे कानों में आफ़ताब की वह परिचित मीठी आवाज सुनाई दी। पहले मैंने ध्यान से सुना तो अंदाज आया कि पड़ोस के घर में टीवी पर किसी कार्यक्रम में दिखाए जाने वाले गीत की वह आवाज़ थी। मैंने तुरंत टीवी लगाया, मुझे टीवी देखने में खास रुचि नहीं है परंतु आज उस आवाज को सुन मेरे मन ने मुझे सारे काम स्थगित करने पर विवश कर दिया। चैनलों की जानकारी नहीं जिस कारण टीवी के सारे चैनल ढूँढ़ने के लिए मजबूर कर दिया।

अब पता चला यह टीवी पर दिखाए जाने वाले एक कार्यक्रम का हिस्सा था। हाँ आफ़ताब ही तो था जो अब टीवी पर गीत गा रहा था! जयपुर के चोखी ढाणी की बात को गुज़रे दो वर्ष बीत चुके थे पर आफ़ताब की मधुर आवाज मेरे हृदय और मस्तिष्क पर छाई हुई थी। आफ़ताब की बात मैंने अपने परिवार वालों से भी की थी। उस दिन जब टीवी पर मैंने उसकी आवाज सुनी और उसे टीवी पर देखा तो मेरी बेटी ने कहा कि वह पिछले कुछ सप्ताहों से टीवी पर एक कार्यक्रम में गीत गाते हुए दिखाई दे रहा था। हिंदी सिनेमा के लिए पार्श्वगायकों की खोज के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की गई थी इस प्रतियोगिता में हजार युवक -युवतियों ने हिस्सा लिया था। अब कुछ चुनिंदा गायकों के बीच प्रतियोगिता चल रही थी।

मैं कभी भी टीवी नहीं देखती थी पर जब से आफ़ताब गीत गाते हुए दिखाई देने लगा मैं तबसे बड़े चाव से उस कार्यक्रम को देखने बैठ जाती। हमारे घर में सब मेरा मज़ाक उड़ाने लगे। बेटियाँ कहती मम्मा तो सठिया गई हर रोज 9:30 बजे ही टीवी के सामने बैठ जाती हैं। पर मैं बच्चों को यह समझाने में सफल न हो सकी कि उस बालक की आवाज़ में क्या तो मिठास थी, क्या दर्द था और आलापों की तानों में पागल कर देने की क्षमता! आफ़ताब की आँखों में एक प्रसिद्ध गायक बनने का जुनून मैंने देखा था वह मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती थी।

आखिर वह दिन आ ही गया जब आफ़ताब ही असंख्य लोगों का पसंदीदा प्रिय गायक बना। रिकॉर्डिंग कंपनी द्वारा उसे एक करोड़ रुपये का कॉन्ट्रैक्ट मिला। एक सुंदर गाड़ी दी गई उसे और पचास लाख रुपये भी दिए गए।

कुछ दिनों तक हर पत्र-पत्रिकाओं में आफ़ताब की चर्चा, उसकी सफलता की कहानी, उसके जुनून की बातें, उसके आत्मविश्वास और मेहनत की मिसाल ही पढ़ने को मिलती रही। सुनने में आया कि उसने अपने पिता की आँखों का भी ऑपरेशन करवाया।

समय बीतता चला गया आफ़ताब की आवाज अब अक्सर सुनाई देती। कई नायकों के लिए वह सफल पार्श्वगायक सिद्ध हुआ। नए ज़माने का गायक ही नहीं, कई सफल एल्बम भी बना चुका। उसकी आवाज सदा ही मेरे कानों में गूँजती रही।

कुछ महीनों के बाद मैं अपनी एक सहेली को लेकर राजस्थान दर्शन के लिए गई। जयपुर में हम तीन-चार दिन रुकने वाले थे जिस दिन हम जयपुर पहुँचे उसी रात मेरी सहेली ने चोखी ढाणी जाने की बात की। मैंने उसे रास्ते में आफ़ताब की सफलता की कहानी सुनाई।

हम चोखी ढाणी पहुँचे। ठंड के दिन थे लोग राजस्थान की ठंडी का आनंद ले रहे थे। हम भी घूमने लगे। अचानक एक परिचित आवाज़ सुनकर मैं ठिठक गई। कदम अपने आप उस दिशा की ओर बढ़ चले। मैं अपनी सहेली का हाथ पकड़कर उसे खींचती हुई ले जाने लगी। मेरी गति देख वह हैरान हो गई ! हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पहली बार मैंन आफ़ताब का गीत सुना था।

मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं। मेरी आँखों के सामने अशफाक मियाँ बैठे हुए थे। वह आज भी उतनी ही तल्लीनता और मिठास के साथ सूफी संतों की वाणी गा रहे थे। वही बाजा, वही जगह, वही व्यक्ति और वही फटी हुई दरी! पर आज वे अकेले थे। मेरे आश्चर्य की सीमा न थी ! आफ़ताब जैसे प्रसिद्ध और धनाढ्य गायक के पिता को इस ठंडी में इस तरह गीत गाने की क्या ज़रूरत थी? मेरी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी जब उनका गीत समाप्त हुआ तो मैं उनके पास पहुँची, हाथ जोड़कर मैंने उनसे पूछा, ” उस्ताद जी आज तो आफ़ताब का सपना पूरा हो गया है। वह जो चाहता था उसे मिल गया है। फिर आप इस बुढ़ापे में इस ठंडी में यहाँ क्यों कष्ट सहन कर रहे हैं?

अशफाक मियाँ ने एक बार सजल नेत्रों से मेरी ओर देखा फिर दोनों बाहें फैलाकर आसमान की ओर देखते हुए बोले, ” यहीं से तो मेरे आफ़ताब का सफ़र शुरू हुआ था ना! उसे जहाँ जाना था वहाँ वह पहुँच चुका लेकिन मेरी जगह यही है। मैं अपनी कला को उसकी जड़ों से अलहदा नहीं कर सकता। वरना आप जैसे लोगों की यादों में हमारी आवाज़ कैसे घर बना सकेगी भला ! मैं तो इस जगह पर गीत गाकर अपना अहसान जताता हूँ। वह आफ़ताब का सपना था यह मेरा सपना है। आप जैसे यात्रियों की सेवा कर सकूँ इससे बढ़कर मेरी और कोई ख्वाहिश नहीं। खुदा हाफ़िज़ !

उस वृद्ध संत के प्रति मेरे हृदय में आदर की भावना और भी बढ़ गई और साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि दो कलाकार एक दूसरे के हृदय से कितने भी जुड़े क्यों न हों उनके सपने और मंजिल अलग ही होते हैं। सच भी तो है कि कला को उसकी जड़ से अलग करना अर्थात उसमें परिवर्तन का समावेश होना। भला वृद्ध संत यह कैसै होने देते। हर किसी की अपनी- अपनी मंजिल होती है। शायद यही संसार का कटु सत्य भी है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रेके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

 

 

स्व. अंशलाल पंद्रे

☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ ☆

☆ सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

अत्यंत सहज, सामान्य से दिखने वाले अंशलाल पंद्रे को उनके ज्ञान, कर्तव्य निष्ठा, ईमानदारी, सहृदयता, मिलनसारिता, देशभक्ति और सशक्त लेखनी ने उनके जीवन काल में ही विशिष्ट बना दिया था। एक समय ऐसा था जब न सिर्फ जबलपुर वरन आसपास के अनेक नगरों की साहित्यिक – सांस्कृतिक, आध्यात्मिक संस्थाओं के कार्यक्रमों के सूत्रधार और शक्तिपुंज पंद्रे जी ही हुआ करते थे। पंद्रे जी ने धर्म – आध्यात्म, प्रकृति, महापुरुषों और देशभक्ति पर अविस्मरणीय  मधुर, प्रेरणादायी, सहज – सरल भावभरे गीत लिखे।

एकता और समानता पर उनकी पंक्तियां –

राम, कृष्ण, ईसा, मोहम्मद,

नानक का सम्मान यहां।

जाति धर्म का भेद नहीं है,

हम सब एक सामान यहां।।

 

,,,,और प्रकृति प्रेम –

रिमझिम गाए सावनी घटा।

बहलाए मन फगुनी छटा।।

जो दिखे लगे निखरा – निखरा।

है नमन तुझे हे ! वसुंधरा।।

,,,,श्रम का पूजन –

हाथों में लेकर कुदाल खेतों को हम जाते।

सूरज की पहली किरन से रोज ही नहाते।

श्रम की पूजा करने में विश्वास हमारा है।

सबसे अच्छी फुलवारी – हिन्दुस्तान हमारा है।।

12 सितम्बर 1954 में ग्राम विजयपानी खुर्द में जन्में अंशलाल पंद्रे की प्रारंभिक शिक्षा एवं कर्म भूमि का केंद्र छपारा जिला – सिवनी रहा। आपने अर्थशास्त्र में एम. ए. तथा गायन में संगीत प्रभाकर किया। सफलता के लिए निरंतर प्रयत्न एवं कर्म पर विश्वास रखने वाले अंशलाल पंद्रे जी मध्यप्रदेश के लोकप्रिय क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी रहे। शासकीय सेवा में अति व्यस्तता के बाद भी उन्होंने साहित्य सृजन जारी रखा। उनकी रचनाएं देश की प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा आकाशवाणी व दूरदर्शन से प्रसारित होती रहीं। पंद्रे जी आकाशवाणी से अनुबंधित गीतकार, सुगम संगीत व ड्रामा आर्टिस्ट भी रहे हैं। आप जबलपुर की संस्था “वर्तिका” के अध्यक्ष सहित अनेक संस्थाओं व पत्रिकाओं के संरक्षक भी रहे।  दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय, भोपाल के परिषद सदस्य पंद्रे जी का देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मान किया गया। यों तो आपके गीत अनेक संग्रहों में शमिल हैं तथापि आपके द्वारा रचित कृतियों में प्रमुख हैं – सच्चिदानंद साईं हरि, गीत गुंजन, गीत मेरे मीत, प्यारा मध्यप्रदेश, सुर हरसिंगार (संगीत साधकों के लिए), जय मां हे भारती, किलकारी – फुलवारी, अंश भजनामृत एवं जननी भारत माता। देश के प्रसिद्ध शायर साज़ जबलपुरी के अनुसार कविता में अनेक विषयों पर अपनी सशक्त अभिव्यक्ति करने वाले अंशलाल पंद्रे में रसिकता, आध्यात्मिकता, राष्ट्रचिंतन तथा सरसता का अदभुत योग है।

साहित्य साधिका संध्या जैन “श्रुति” कहती हैं –

पंद्रे जी के गीतों का सरस सुवासित काम।

सद्भावी वाणी सरल अंशलाल है नाम।।

डॉ. हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के तत्कालीन प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग डॉ.आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने लिखा था कि “व्यक्तिगत जीवन में भी पंद्रे जी की सरलता, सहजता और भावप्रवणता को देखकर हर कोई मुग्ध हो उठता है। व्यक्तित्व की यही छाप पंद्रे जी के गीतों में देखी जा सकती है।”

पंद्रे जी की देशभक्ति पूर्ण भावभरी रचनाएं सदा आने वाली पीढ़ी का मार्गदर्शन करती रहेंगी।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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