☆ संस्मरण ☆ सुरजीत पातर और मैं ☆ प्रो. नव संगीत सिंह ☆
यह बात करीब चार दशक पुरानी है — 1978-79 की। उस समय मैं पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में कैलिग्राफिस्ट (1977-86) के तौर पर कार्यरत था। कैलिग्राफिस्ट, यानी ख़ुशनवीस, एक अच्छा सुलेखक। कैलिग्राफिस्ट को कहीं-कहीं कैलिग्राफर भी कहा जाता है। पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला से पहले मैं गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर में बतौर एक सुलेखक (1974-77) रह चुका हूं।
पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में डॉ. जोध सिंह सबसे पहले उप-कुलपति (1962-66) थे। पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में मेरी सर्विस के दौरान, तीन कुलपति विश्वविद्यालय आये। जिनमें से डाॅ. अमरीक सिंह को बहुत सख्त और अनुशासित वीसी माना जाता था। प्रोफेसर के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, मैं पाँच उप-कुलपतियों से मिला — डॉ. जोगिंदर सिंह पुआर, डॉ. जसबीर सिंह आहलूवालिया, श्री स्वर्ण सिंह बोपाराय, डाॅ. जसपाल सिंह और डॉ. बी.एस. घुम्मण। जिस समय मेरी नियुक्ति हुई; डॉ पुआर वीसी थे। डा. आहलूवालिया के समय हमारा कॉलेज पंजाबी विश्वविद्यालय का पहला कान्सटिचुऐंट कॉलेज बना। श्री बोपाराय के समय में मुझे चयन ग्रेड व्याख्याता के रूप में पदोन्नत किया गया था; डॉ जसपाल सिंह के समय मैं एसोसिएट प्रोफेसर बन गया और डाॅ. जब घुम्मण पहली बार गुरु काशी कॉलेज आये तो मैं वाइस प्रिंसिपल के पद पर था और मैंने ही उनका स्वागत किया था, क्योंकि तब कॉलेज प्रिंसिपल छुट्टी पर थे।
जिस समय की यह बात है, उन दिनों गैर-शिक्षण कर्मचारी संघ के अध्यक्ष के रूप में हरनाम सिंह और कौर सिंह सेखों के बीच कश्मकश चल रही थी और वे दोनों अपने-अपने समय के कर्मचारी यूनियन के नेता थे। अब ये दोनों इस दुनिया में नहीं हैं।
पहली बार मुझे पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के कर्मचारियों द्वारा आयोजित दो दिवसीय कार्यक्रम में भाग लेना था और मेरी पहली पसंद कविता थी। तब मैं स्वयं कविता नहीं लिखता था। मुझे अन्य कवियों की कविताएँ पढ़ना/याद करना और उन्हें कहीं सुनाना पसंद था। मैं पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला की विशाल लाइब्रेरी में गया, जहां पहली नजर में ही ‘कोलाज किताब’ और इसके खूबसूरत नाम ने मुझे आकर्षित कर लिया। मुझे पता चला कि यह 1973 में प्रकाशित तीन कवियों, परमिंद्रजीत (1.1.1946-23.3.2015) जोगिंदर कैरों (जन्म 12.4.1941) और सुरजीत पातर (14.1.1945-11.5.2024) की सांझी पुस्तक है।
और यह भी कि यह तीनों लेखकों की पहली-पहली किताब है। इन लेखकों ने इस पुस्तक के बाद ही अपनी-अपनी अन्य पुस्तकें लिखीं। (यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पातर ने डॉ. जोगिंदर कैरों के मार्गदर्शन में गुरु नानक देव विश्वविद्यालय से पीएचडी की थी।) इस किताब में से जिस कविता ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह थी सुरजीत पातर की कविता ‘हुण घरां नूं पतरणा…’। मैं किताब घर ले आया, एक कागज पर कविता लिखी और फिर उसे याद कर लिया। मैं इसे एक सप्ताह तक दोहराता रहा, कई बार विशेष संकेतों और भाव-भंगिमाओं के साथ इसे पढ़ा और जब मुझे यकीन हो गया कि मैं यही कविता सुनाऊंगा, तो मैंने इस कार्यक्रम में अपना नाम लिखवा दिया।
उस समय डाॅ. अमरीक सिंह विश्वविद्यालय के उप-कुलपति थे। पहले दिन कर्मचारियों की खेल प्रतियोगिताएं थीं, जिसमें मेरी कोई रुचि नहीं थी। दूसरे दिन सांस्कृतिक गतिविधियों की प्रतियोगिता थी, जो गुरु तेग बहादुर हॉल में हुईं। ये प्रतियोगिताएं शाम करीब पांच बजे शुरू हुईं और रात नौ बजे तक चलीं। कविता के अलावा गीत-संगीत और गिद्धा-भांगड़ा की भी प्रस्तुति हुई। इस अवसर पर मैंने काव्य-पाठ में भाग लिया। मुझे याद नहीं कि उस प्रतियोगिता में अन्य कितने प्रतियोगी थे। लेकिन मेरे साथ कर्मचारी संघ के उस समय के अध्यक्ष कौर सिंह सेखों भी इसमें शामिल हुए, जिन्होंने संत राम उदासी की कविता सुनाई थी और मैंने सुरजीत पातर की – ‘हुण घरां नूं परतणा …’ मैं स्वयं को इस प्रतियोगिता के प्रथम तीन स्थानों पर देख रहा था। मुझे लगता था कि मेरी कविता दूसरा या तीसरा पुरस्कार जीतेगी। क्योंकि सबसे पहले स्थान पर मैं संघ के अध्यक्ष को देख रहा था। इसलिए नहीं कि उसकी प्रस्तुती मुझसे बेहतर थी, सिर्फ इसलिए कि वह संघ के अध्यक्ष थे और उन्हें ‘अनदेखा’ कैसे किया जा सकता था!
लेकिन मुझे बहुत आश्चर्य हुआ, जब मेरी प्रस्तुति के लिए प्रथम स्थान की घोषणा की गई और संघ-अध्यक्ष को दूसरे पुरस्कार से संतोष करना पड़ा। उद्घोषक विश्वविद्यालय का ही एक शिक्षक था, जो निर्णायक मंडल में बैठा था। कार्यक्रम की शोभा बढ़ाने वाले अन्य दर्शकों में उप-कुलपति, रजिस्ट्रार, उप रजिस्ट्रार और विश्वविद्यालय के बड़ी संख्या में कर्मचारी शामिल थे।
इसके बाद मैं सुरजीत पातर से चार बार मिला। तीन बार दर्शक के तौर पर और एक बार मंच-संचालक के रूप में। 29 मार्च 2018 को अकाल यूनिवर्सिटी तलवंडी साबो में जब सुरजीत पातर आए तो उनका परिचय देने के लिए मैं मंच संचालक के तौर पर उपस्थित था। यहां मैंने उनसे अपना परिचय एक पाठक के रूप में करवाया। जिसमें मैंने उसी कविता को सुनाया (‘हुण घरां नूं परतणा…’), जिसमें मुझे पहला पुरस्कार मिला था। इस कार्यक्रम में उप-कुलपति समेत पूरी यूनिवर्सिटी मौजूद थी। उनके साथ उनके छोटे भाई उपकार सिंह भी आये थे। छात्रों, शिक्षकों, कर्मचारियों ने उनके साथ फोटो खिंचवाईं। छुट्टी के बाद भी हम काफी देर तक उनके साथ बैठे रहे, उनकी बातें सुनते रहे। आज जब यह महान कवि हमारे बीच शारीरिक रूप में मौजूद नहीं है तो मन भावुक हो रहा है। आज मैंने यूं ही प्रोफ़ेसर प्रीतम सिंह द्वारा संपादित ‘पंजाबी लेखक कोश’ (2003) को देखना शुरू किया। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि ‘लेखक कोश’ में “सुरजीत” नाम के 29 लेखक हैं, जिनमें 4 महिला-लेखिकाएँ भी शामिल हैं। सबसे बड़ी प्रविष्टियों वाले चार लेखक हैं — सुरजीत सिंह सेठी, सुरजीत सिंह गांधी, सुरजीत सिंह भाटिया और सुरजीत पातर। आज की तारीख में आकाश में ध्रुव तारे की तरह चमकने वाले लेखक सिर्फ और सिर्फ सुरजीत पातर ही हैं।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 16 – संस्मरण # 10 – गुलमोहर का पेड़
आज भयंकर गर्मी पड़ रही थी। मैं चाय की प्याली लेकर सुबह -सुबह ही बालकनी का दरवाज़ा खोलकर, बालकनी की छोटी दीवार से सटकर खड़ा हो गया।
अपनी भागती -दौड़ती ज़िंदगी में बहुत कम समय मिलता है कि मैं फुर्सत से कभी बालकनी में भी आऊँ। यहाँ गमलों में लगे हरे- भरे पौधे इस गर्मी में आँखों को सुकून दे रहे थे।
अचानक सुदूर एक विशाल गुलमोहर का वृक्ष दिखा। रक्तरंजित पुष्पों से सुसज्जित! वृक्ष आज संपूर्ण शृंगार के साथ अपने यौवन का प्रदर्शन कर रहा था।
न जाने क्यों मेरे हृदय में एक टीस-सी उठने लगी। अपने बचपन की कुछ घटनाएँ अधूरे चलचित्र की तरह मेरी आँखों के सामने उभरने लगीं।
मैं अभी छह-सात वर्ष का ही था। अपने घर की खिड़की पर लोहे की सलाखों को पकड़कर फेंस के उस पार के गुलमोहर के वृक्ष को मैं अक्सर निहारा करता था। प्रतिदिन उसे देखते -देखते मेरा उससे एक अटूट संबंध – सा स्थापित हो गया था। उसका विभिन्न रूप मुझे बहुत भाता रहा। कभी हरे पत्तों से भरी हुई टहनियाँ, तो कभी लाल फूलों से भरी तो कभी नग्न टहनियों पर लटकती उसकी भूरी चपटी फलियाँ मुझे आकर्षित करतीं।
बाबा कॉटन मिल में कार्यरत थे। छोटा -सा सुखी परिवार था हमारा, दादा-दादी,बाबा -माँ और मैं। फिर हड़तालों की वजह से कॉटन मिल बंद होने लगे।बाबा बेरोज़गार हो गए।माँ दहेज़ में मिले पैतृक निशानी कभी कंगन बेचती तो कभी अपना हार। इस तरह एक वर्ष बीत गया। कारखाने से भी कोई धनराशि न मिली। फिर बाबा को सात समुंदर पार विदेश में कहीं काम मिल गया। माँ ने अपना प्रिय चंद्रहार बेचकर बाबा को विदेश जाने के लिए रुपयों की व्यवस्था कर दी। बाबा मशीनों के जानकार थे। काम मिलते ही वे चले गए।
प्रति वर्ष जब गुलमोहर के वृक्ष पर फूल खिलते तो बाबा घर आते। माह भर रहते खूब जी भरकर खिलौने लाते,विदेशी वस्तुएँ लाते और एक बार घर में फिर रौनक छा जाती।
गुलमोहर के वृक्ष पर ज्योंही एक फूल खिला हुआ दिखाई दे जाता मैं दौड़कर माँ को सुखद संवाद देता।उसके गले में अपनी बाहें डालकर कहता ” बाबा के आने का मौसम है।” माँ हँस देती।
हर पंद्रह दिनों में बाबा की चिट्ठी आती।उस लिफ़ाफ़े में दादा-दादी के लिए भी अलग खत होते।माँ बाबा की चिट्ठी पढ़ती तो अपने आँचल के कोने से अपना मुँह छिपाकर मंद -मंद मुस्कराती। मेरे बारे में लिखी बातें वह मुझे अपनी गोद में बिठाकर कई बार पढ़कर सुनाती।शायद उस बहाने वह अपने हिस्से का भी खत बाँच लेती।
काठ की बड़ी सी डिबिया में माँ अपने खत रखा करती थीं। दो खतों के बीच की अवधि में न जाने माँ उन खतों को कितनी बार पढ़ लिया करती थीं। हर बार चेहरे पर मुस्कान फैली दिखाई देती। अब बाबा की पदोन्नति हुई तो शायद वे व्यस्त रहने लगे,न केवल खतों का आना कम हुआ बल्कि बाबा भी अब दो वर्ष बाद घर लौटे। इस बीच दादाजी का स्वर्गवास हो गया। दादी अपने गाँव लौट गईं।
इधर देश भी उन्नति कर रहा था। सत्तर का दशक था।जिनके पास धनाभाव न था उनके घर टेलीफोन लगने लगे थे। हमारे घर पर भी काला यंत्र लग गया। अब बाबा फोन ही किया करते।खतों का आदान -प्रदान बंद हो गया।
अब जब कभी बाबा का फोन आता तो माँ कम बोलती दिखाई देती और उधर से बाबा बोलते रहते। माँ अक्सर फोन पर बातें करते समय आँचल के कोने से नयनों के कोर पोंछती हुई दिखाई देती । मैं तो अभी छोटा ही था उन आँसुओं को समझ न पाता पर दौड़कर उनके पास पहुँच जाता ,अपनी छोटी -छोटी उँगलियों से उनके आँसू पोंछता और वे मुझे अपने अंक में भर लेतीं।
समय कहाँ रुकता है। मैं भी तो बड़ा हो चला था।अब कभी -कभी मैं भी बाबा से फोन पर बातें कर लेता था। पर यह भी सच है कि मेरे पास कहने को कुछ खास न होता था सिवाय इसके कि बाबा कब आओगे? और उत्तर मिलता ,देखो शायद इस गर्मी में।
उस साल ज्योंही मैंने गुलमोहर के फूलों को खिलते देखा तो मैं दौड़कर माँ के पास आया और यह सुखद समाचार दिया कि बाबा के आने का मौसम है। उस दिन माँ ने करुणा भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा और कहा , “तेरे बाबा अब घर नहीं लौटेंगे, मैं तुझे अब इस भुलावे में न रखूँगी। तेरे बाबा ने विदेश में अपनी अलग गृहस्थी बसा ली। “
उस दिन मैंने माँ को अपने सीने से लगा लिया था और माँ घंटों मुझसे लिपटकर रोती रहीं।उस दिन समझ में आ रहा था कि माँ फोन पर बातें करती हुई आँखें क्यों पोंछा करती थीं।उस दिन उसके भीतर की दबी वेदना ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ी थी।
मैं जैसे अचानक ही बड़ा हो गया था। माँ का दर्द मुझे भीतर तक गीला कर गया जैसे भारी वर्षा के बाद ज़मीन की कई परतें गीली हो जातीं हैं वैसे ही मेरे हृदय का ज़र्रा – जर्रा लंबे अंतराल तक भीगा रहा।
एक दिन मैं फेंस के उस पार गया और गुलमोहर के तने से लिपटकर खूब रोया। फिर न जाने मुझे क्या सूझा मैंने उसके तने से कई टहनियाँ कुल्हाड़ी मारकर छाँट दी मानो अपने भीतर का क्रोध उस पर ही व्यक्त कर रहा था। बेकसूर गुलमोहर का वृक्ष कुरूप, क्षत -विक्षत दिखाई देने लगा।मैंने उसके तने पर भी कई चोटें की। अचानक उस पर खिला एक फूल मेरी हथेली पर आ गिरा। फूल सूखा – सा था।ठीक बाबा और माँ के बीच के टूटे,सूखे रिश्तों की तरह । फूल भी अपने वृक्ष से अलहदा हो रहा था।
मैंने वृक्ष से अपना सारा नाता तोड़ दिया।तोड़ दिया अपना सारा नाता अपने बाबा से जिसने मेरी स्नेहमयी,त्यागमयी प्रतीक्षारत माँ को केवल दर्द उपहार में दिए थे। अपना बाकी जीवन फिर कभी माँ को हँसते हुए नहीं देखा।उसके उदास चेहरे ने मेरे जीवन के कई अध्याय लिख डाले।
सोचता हूँ कि दुनियावाले सात जन्म साथ निभाने की कसमें क्यों खाते हैं जब कि एक जन्म भी साथ निर्वाह करना कठिन होता है!!
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय जी द्वारा लिखित – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप”।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
वह 1972 का कोई दिन था. मैं शहर से अपने घर आधारताल की तरफ लौट रहा था, कि मेरे एक पुराने मित्र मार्तण्ड व्यास मिल गए थे. वे उन दिनों कविता में हाथ आजमा रहे थे और मैंने भी कागज़ काले करने की दिशा में कदम बढ़ा रखे थे. हमारी दोस्ती का पुल यही था.
हमने बल्देवबाग तिराहे की एक दूकान पर चाय पी और वे पान खाने के लिए पान के टपरे के सामने पान लगवाने लगे. वे ज़र्दा के शौक़ीन थे, और उसे चिंतन -चूर्ण कहते थे. वे हथेली पर चूना और तम्बाकू को रगड़ -रगड़ कर उन्हें एकसार कर रहे थे और इसी के साथ गप्पें लगाने का काम भी कर रहे थे.
उसी समय एक प्रौढ़ सज्जन अपने साथ दो और लोगों को लिए हुए उसी टपरे पर आ पहुंचे. उनका व्यक्तित्व और पहिरावा मुझे सम्मोहन में खींच ले गया. गौर वर्ण, प्रशस्त ललाट, काले लम्बे केश जो गर्दन के पीछे जाकर पुनः शीर्ष पर लौटने की मंसा में कुछ मुड़ चले थे. खादी का श्वेत कुरता -पाजामा, उस पर खादी की ही हल्की पीलाभ जैकेट. वाणी में खनक. साफ़ उच्चारण. गंभीर भाव. चेहरे से झरता तरल स्नेह.
मैं बात इधर कर रहा था और मन उधर को लपका जा रहा था. आँखें और कान उसी दिशा में भगदड़ सी मचाए हुए थे.
मैंने मित्र से कहा, वे कोई कवि लगते हैं…!
मित्र ने उनके केशों को लक्ष्य करके जवाब दिया – बालकवि होंगे…!
मन उनकी तरफ जा चुका था, पर तन संकोच में पड़ा रहा. उसके पाँव न बढ़े. हमने अपनी सायकलें सम्हालीं और वहाँ से निकल पड़े.
कुछ दिनों बाद ‘नई दुनिया ‘ अख़बार के दफ्तर जाना हुआ, जो उसी बल्देवबाग तिराहे पर था. मैंने उन्हें वहाँ दोबारा देखा. एक समाचार देना था, तो उन्हीं से पूछा किसे देना चाहिए. उन्होंने दीवार पर लगे लकड़ी के एक डब्बे की ओर इशारा कर कहा उधर डाल दो. समाचार को डब्बे के हवाले कर मैं फिर उनकी मेज पर गया. उसके सामने वाली बेन्च पर बैठते हुए पूछा – क्या आपसे कुछ बात कर सकता हूँ…?
— हाँ, ज़रूर.
मैंने पहले अपना परिचय दिया, बताया कि लिखता हूँ. उन दिनों के चर्चित कवियों और कथाकारों की रचनाओं के सम्बन्ध में उन्हें बताया. धूमिल, मुक्तिबोध, अज्ञेय, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर जैसे नामों को सुनकर उन्होंने कलम बन्द करते हुए कहा – चलो चाय पीते हैं.
हम दोनों बातें करते हुए चाय के उसी टपरे पर जा पहुंचे. अब उन्होंने बोलना शुरू किया. मिठास के साथ. खनक से भरी. आँखें भी बोलने लगीं. पलकों ने फड़कना आरम्भ कर दिया. मैं उनकी मुहब्बत में पड़ता चला गया. लगा हमारा दीर्घकाल से परिचय है. मैं उन्हें जानने के पहले से जनता हूँ. मैं उनसे मिलने के पहले मिल चुका हूँ. वे नाम से ही नहीं, ह्रदय से भी सुमित्र हैं, दिल इसकी ताईद कर चुका था. वे मित्रता का सगुण स्वरुप ही लगते थे.
एक चाय ने अकूत चाह के दरवाज़े खोल दिए. मुलाक़ातें होने लगीं. कोतवाली के बगल में चुन्नीलाल के बाड़े में भी उनसे मिलने, जाना होने लगा. बैठकें लगने लगीं. लिखा हुआ सुनना -सुनाना होने लगा.
वे राजकुमार सुमित्र थे. काया से राजकुमार और आत्मा से सुमित्र. उनके मुरीदों की संख्या अपार है. सब उम्रों के लोग उनके प्रभामंडल में हैं. उन्होंने जबलपुर में सांस्कृतिक वातावरण बनाने में अपने को खपा दिया. एक क्षितिज तैयार किया. उसमें असंख्य तारे टांकते रहे. उनकी रोशनी भी वही बने.
वे बोधि वृक्ष थे. उनके सानिध्य से मन की विचलन मुरझाने लगती थी. रचनात्मकता का आगार थे वे. नए लिखने वालों की पाठशाला थे. अपनी उपस्थिति से आयोजनों को गरिमामय बना देते थे. उनका होना आश्वस्ति थी, न होना वंचना.
वे चले गए. पर उनका जाना, चले जाना नहीं है. वे हममें कहीं शेष हैं. शेष बने रहेंगे. हम उन्हें सदा महसूस करते रहेंगे. जब कोई कठोर आघात करेगा, वे याद आएँगे. जब भी दोस्ताने की परिभाषा में खलल डाला जाएगा, तब भी वे मन में कौंध जाएंगे. जब भी निर्मल प्रेम के प्रतीक खोजे जाएंगे, तो प्रतिफल में वही मिलेंगे. उदारता के व्यंजनार्थ में वे पाए जाएंगे. आम्र -पल्ल्लवों की छाया में उन्हीं की शीतलता घुली होगी. वसन्त में शामिल रहेगा उनका दुलार और होली के रंगों में सबसे गहरा रंग भी वही होंगे.
लेखक – श्री राजेन्द्र चन्द्रकांत राय
साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -23 – हरियाणा से जुड़ा हिसार के रिपोर्टर से पहले रिश्ता… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
फिर एक नया दिन, फिर एक न एक पुरानी याद ! पंजाब विश्विद्यालय की कवरेज के दिनों एक बार छात्रायें अपनी हाॅस्टल की वार्डन के खिलाफ कुलपति कार्यालय के बाहर धरने पर बैठ गयीं। कड़ाके की सर्दी में रजाइयां ओढ़े धरना जारी रखा। मैं लगातार कवरेज करता गया। आखिरकार छात्राओं की जीत हुई और वार्डन को बदल दिया गया। छात्राओं की नेता का नाम था अनिता डागर और बरसों बाद हिसार में जब फतेह सिंह डागर उपायुक्त बने तब ध्यान आया अनिता डागर का। वह बताती थी कि भिवानी की रहने वाली हूं और डागर भी। बस, मन में आया कि हो न हो , उपायुक्त डागर का कोई कनेक्शन हो अनिता के साथ ! मैंने आखिर पूछ ही लिया ! श्री डागर बहुत हंसे और बोले कि अनिता मेरी ही बेटी है और आजकल मुम्बई रहती है और यही नहीं एक एन जी ओ चलाती है ! कमाल ! अनिता! कभी अपने पापा की ऊंची पोस्ट का जिक्र नहीं किया और भिड़ गयी कुलपति से ! जब वार्डन की ट्रांसफर दूसरे हाॅस्टल में हुई तब मुझे संपादक विजय सहगल ने बताया कि तुम जिसके खिलाफ धरने की कवरेज कर रहे थे, वह कोई और नही बल्कि ‘पंजाब केसरी’ के संपादक विजय चोपड़ा की बहन है ! आज ही विजय जी का फोन आया कि तुम्हारे रिपोर्टर ने छात्राओं के धरने की कवरेज कर हमारी बहन की ट्रांसफर करवा दी !
खैर ! जब फतेह सिंह डागर के यहां कोई मांगलिक कार्य था, तब उन्होंने मुझे भिवानी बुलाया तब मैंने पूछा कि अनिता आयेगी ? वे बोले कि भाई की शादी में बहन क्यों नही आयेगी ? इस तरह काफी सालों बाद उस ‘धाकड़ छोरी’ अनिता से मुलाकात हो पाई और उसी दिन उसकी इंटरव्यू नभ छोर में दी। मुझे राकेश मलिक लेकर गये थे , जो बीएसएनएल में एस डी ओ हैं ! अनिता से मैंने पूछा कि क्या अब भी लीडरी करती हो? वह हंसी और बोली कि अब लीडरी नहीं बल्कि समाजसेवा करती हूँ, मुम्बई में एनजीओ चला कर ! देखिए, कैसे पंजाब विश्वविद्यालय का कनेक्शन कहाँ हिसार व भिवानी से जुड़ता चला गया !
ऐसा ही मज़ेदार कनेक्शन जुड़ा हरियाणा में कांग्रेस की बड़ी नेत्री सैलजा से, जिसे हरियाणा में ‘बहन जी’ के रूप में जाना जाता है। मुझे पजाब विश्वविद्यालय की कवरेज करते कुछ ही समय हुआ था कि केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री सुश्री सैलजा का सम्मान डी एस डब्ल्यू डाॅ अनिरूद्ध जोशी ने विश्विद्यालय की ओर से रखा ! वीआईपी गेस्ट हाउस के पास के मैदान में ! उन्होंने बताया कि सैलजा एम ए अंग्रेज़ी के प्रथम वर्ष की छात्रा रही लेकिन एम ए पूरी न कर सकी क्योंकि उनके पिता व कांग्रेस नेता चौ दलबीर सिंह का निधन हो गया और उन्हें पिता की राजनीतिक जिम्मेदारी व विरासत संभालनी पड़ी। हमें यह खुशी है कि हमारी छात्रा अपने शिक्षकों से भी ऊपर पहुंच गयी है। यही शिक्षक की सबसे बड़ी खुशी होती है कि उसके छात्र उससे ऊंचे उठें ! सच, आज तक याद रही यह बात ! फिर सैलजा आईं मंच पर और कहा कि वे हाॅस्टल में रहती थीं ऊपर की मंजिल पर और आज तक याद है कि कैसे किसी परिवारजन के मिलने आने पर महिला सेवादार ऊंची आवाज़ लगातीं कि हिसार वाली सैलजा नीचे आ जाओ, घर से मिलने आए हैं, जैसे कोर्ट में आवाज़ लगती है कि जल्दी पेश हो जाओ ! उन दिनों मुझे पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड मेरे बकाया पैसे नहीं दे रहा था ! मैं खटकड़ कलां के गवर्नमेंट आदर्श सीनियर स्कूल के प्रिंसिपल के पद से रिजाइन देकर ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में आया था। मैंने समारोह में बैठे बैठे ही सैलजा के नाम एप्लिकेशन लिख ली और जैसे ही हमें इंटरव्यू के लिए इनके पास बुलाया तो बातचीत के बाद मैंने अपनी अर्ज़ी भी सौ़ंप दी ! करिश्मा देखिये ! कुछ दिन बाद पंजाब स्कूल एजुकेशन बोर्ड के अकाउंट विभाग से दफ्तर में फोन आया कि आपने तो हमारी शिकायत केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री सैलजा से कर दी , अब आप आकर अपनी बकाया राशि का चैक ले जाओ ! इस तरह यह मेरी सैलजा से पहली मुलाकात थी और मैंने कभी सोचा भी न था, कि कभी हरियाणा के हिसार में मैं रिपोर्टर बन कर आऊंगा और मुझे किराये का मकान बिल्कुल सुश्री सैलजा के पड़ोस में मिलेगा ! बाद में वही मकान मैंने खरीद लिया और इस तरह सुश्री सैलजा का पक्का पड़ोसी बन गया ! अब जो कोई मुझ से मेरे घर का पता पूछता है तो मैं बताता हूँ कि सैलजा का घर देखा है? बस, वहीं आकर मुझे फोन कर देना, मैं वहीं लेने आ जाऊंगा!
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक”।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
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जीवन तो मिलता नहीं, हमको बारंबार।
ईश्वर ने हमको दिया, ये अमूल्य उपहार॥
मनुष्य चूँकि सामाजिक प्राणी है, अतः समाज के सर्वजनीन और सर्वकालीन सरोकारों की दृष्टि से आदर्श व्यक्ति और उसके साथ आदर्श व्यक्तित्व की कसौटी है। इस कसौटी पर खरे उतरने वाले व्यक्ति समाज के दिशादर्शक और सच्चे अर्थों में समाज के निर्माता होते हैं। जो विभिन्न माध्यमों से अपने इस महायज्ञ में निर्लिप्त भाव से संलग्न होते हैं। ऐसा ही एक व्यक्तित्व डॉक्टर श्री राम ठाकुर दादा के नाम से पहचाना जाता है।
कृतिकार रहे ना रहे, कृति जीवित रहती है जिसके माध्यम से कृतिकार अमर होजाता है। हम स्मरण करते हैं स्वर्गीय डॉक्टर श्री राम ठाकुर ‘दादा’ को जो आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु जिन्होंने कविता ‘ कहानी ‘लघु कथा’ व्यंग्य, उपन्यास, संस्मरण आदि अपना संपूर्ण साहित्य हमें दिया। हम उनके कृतज्ञ हैं निश्चित तौर पर दादा ने सद्कार्य करते हुए साहित्य सृजन किया। साहित्यसमाज का दर्पण होता है और साहित्यकार एक सच्चा समाज सुधारक होता है विशाल व्यक्तित्व के धनी थे। ‘दादा’ यानि सिर्मौर।
संस्कारधानी जबलपुर के साहित्यकार -डॉक्टर श्री राम ठाकुर “दादा?
फूलों की सुगंध वायु के विपरीत नहीं जाती है परंतुमानव के गुणों की सुगंध चारों ओर जाती है।
व्यंग्यकार : डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा” का लेखन परिवेश
जन्म :- 28 जनवरी 946 ग्राम बारंगी, तहसील सोहागपुर, जिला होशंगाबाद
शिक्षा: – एम.ए., पी.एच. डी. (संस्कृत), साहित्य रत्न (हिंदी)
मध्य प्रदेश के रचनाधर्मियों की संपर्क संचयिका ‘हस्ताक्षर’ सृजनधर्मी, साहित्य अकादमी की हुजह॒ ऑफ इंडिया राइटर्स, एशिया इंटरनेशनल, की लर्नेंड इंडिया, हिंदी साहित्यकार संदर्भ कोष, ” हू ज हू ‘ इन मध्यप्रदेश हिंदी आदि परिचय ग्रंथों में उल्लेखा
पुस्तकें- दादा के छक््के- हास्य व्यंग काव्य संग्रह, अभिमन्यु का सत्ताव्यूह- लघुकथा संग्रह, ऐसा भी होता है -व्यंग्य निबंध, पच्चीस घंटे- व्यंग्य उपन्यास” सृजन परिवेश,
मेरी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाएं- गद्य व्यंग्य, प से पर्स, पिल्ला और पति -व्यंग्य लेख, दादा की रेल यात्रा- व्यंग्य खंडकाव्य, अफसर को नहीं दोष गुसाईं -व्यंग्य लेख, स्वतंत्रयोत्तर संस्कृत काव्य में हास्य व्यंग्य – शोध ग्रंथ, आत्म परिवेश, दांत दिखाने के- व्यंग्य लेख, मेरी प्रिय छब्बीस कहानियां -निजी कहानी संग्रह, मेरी एक सौ इक्कीस लघु कथाएं, बात पते की -व्यंग्य निबंध, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं (गद्य)
संपादन- साहित्य निर्देशिका, पोपट, अभिव्यक्ति एवं दूरसंचार विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका नर्मदा संचार का संपादन
पुरस्कार सम्मान और अलंकरण- मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार, मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार, मध्य प्रदेश लेखक संघ द्वारा पुष्कर जोशी सम्मान, जबलपुर पत्रकार संघ द्वारा हरिशंकर परसाई स्मृति पुरस्कार, करवट कला परिषद भोपाल द्वारा रत्र भारती पुरस्कार, पत्रकार विकास मंच जबलपुर द्वारा परसाई सम्मान -95, मित्र संघ जबलपुर द्वारा विशिष्ट कवि सम्मान, अखिल भारतीय कला संस्कृति, साहित्य परिषद मथुरा उत्तर प्रदेश द्वारा साहित्य अलंकार सम्मान उपाधि » महाप्रबंधक जबलपुर दूरसंचार द्वारा हिंदी पुस्तक लेखक सम्मान, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद (उ. प्र.) द्वारा डॉ. परमेश्वर गोयल व्यंग्य शिखर सम्मान, साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी परियावा, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) द्वारा विवेकानंद सम्मान, मध्य प्रदेश लघुकथाकार परिषद द्वारा व्यंग्यकार रासबिहारी पांडे स्मृति सम्मान अलंकरण, मध्य प्रदेश नवलेखन संघ भोपाल द्वारा साहित्य मनीषी सम्मान, अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच पटना द्वारा डॉ. परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर सम्मान, सृजन सम्मान संस्था रायपुर द्वारा “लघुकथा गौरव सम्मान, अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत अलंकरणा इनके अतिरिक्त देश के विभिन्न नगरों में आयोजित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ कई गोष्टियों व समारोहों में व्याख्यान एवं अनेक संस्थाओं द्वारा स्वागत एवं सम्मान।
डॉ. श्री राम ठाकुर दादा का नाम किसी परिचय का मुखापेक्षी नहीं है। विगत 40 वर्षों से अधिक वर्षों से भी अपनी व्यंग्य रचनाओं से जनमानस को गुदगुदाते रहे हैं और एक वैचारिक आंदोलन को बड़ी सहजता से चला रहे हैं। उनकी लघुकथाएं चेतना के विभिन्न स्तरों पर पाठकों को झकझोरती रही हैं और अपनी तरह के अनूठे मौलिक शिल्प वाला उपन्यास लिखकर वे चर्चाओं के केंद्र में रहे हैं। मध्य प्रदेश साहित्य परिषद में “पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार तथा मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार की चर्चा जब भी होती है तो जबलपुर के संदर्भ में दादा का उल्लेख अनिवार्य होता है। आकाशवाणी और दूरदर्शन के अतिरिक्त विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में दादा की उपस्थिति सहज रूप से दिखलाई देती है।
हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रविंद्र नाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल और उनके समकालीन साहित्यकारों ने साहित्य में व्यंग्य को विशिष्ट स्थान दिलाने में सफलता प्राप्ति की। वहीं उनके बाद की पीढ़ी के साहित्यकारों ने इसे समृद्ध किया और निखारा भी। इन रचनाकारों में डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा? का महत्वपूर्ण स्थान है।
समाज में फैली विद्वरूपताओं, भ्रष्टाचार, असमानताओं, कुरीतियों, भाई- भतीजावाद, लोगों के बदले नैतिक मूल्य आदि पर जितनी तीखी चोट व्यंग्य कर सकता है उतनी अन्यथा कोई विधा नहीं। व्यंग्य वर्तमान व्यवस्था पर लिखा जाता है उसका प्रभाव भी तात्कालिक होता है किंतु पाठक वर्ग में यह सदैव अभिरुचि का साहित्य रहा है इसी का प्रतिफल है कि आज साहित्य में व्यंग्य की अलग पहचान है।
स्वतंत्र उत्तर संस्कृत काव्य में हास्य व्यंग – *दादाः अत्यंत पढ़ाकू और परिश्रमी व्यक्ति थे। वे किसी कार्य को करने की ठान लेते तो अपने श्रम और निष्ठा के बल पर पूरी करके ही दम लेते थे।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है पी .एच . डी. करना। “दादा? ने अपनी संपूर्ण शिक्षा दूरसंचार विभाग में नौकरी करते हुए प्राप्त की है। एक तरफ पढ़ाई, दूसरी तरफ गृहस्थी और तीसरी तरफ साहित्य सृजन और चौथी तरफ साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन में भागीदारी करना। इन सब क्षेत्रों में मेहनत और लगन से वे हमेशा अग्रणी रहे और उन्होने पी .एच .डी. भी ऐसे मौलिक एवं श्रमसाध्य विषय पर की जिसके प्रकाशित होने के लिए ख्याति लब्ध संस्कृत विद्वान डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी ने अपनी अनुशंसा में लिखा है -‘प्रस्तुत ग्रंथ एक ओर सामान्य रूप से आधुनिक युग के प्रमुख संस्कृत महाकाव्यों, खंड काब्यों, मुक्तकों, काव्य संग्रहों, गीति काव्य, नाटकों, रुपको तथा स्फुट रचनाओं का सर्वेक्षण करता है और दूसरी ओर उन्हें दृश्यमान हास्य और व्यंग्य की प्रवृत्तियों को रेखांकित करता है।
हम जानते हैं कि लेखन की सबसे बड़ी और उच्चतम प्रयोजनीयता, विकृतियों से दूर मनीष को सच्चा इंसान बनाना और हमेशा बेहतरी की ओर ले जाने से जुड़ी रहती है। इस तरह वह समाज के लिए बेहतरी की लड़ाई का अगवा होता है जिसमें उसे जुगाड़ -तुगाड़ के समझौतों से परे, लगातार अपने रास्ते पर खुद की प्रतिभा और परिश्रम से अपने को विकसित करते हुए, लेखन के भीतरी और बाहरी संघर्ष से सीधे जुड़ कर आगे बढ़ना जरूरी हो जाता है। वाहवाही लूटने का अंदाज ज्यादा कारगर नहीं होता, अपितु निरंतर अपने काम में लगे रहने और अपनी आंतरिक और बाहरी पड़ताल को खुला रख पाने से ही लेखन संभव हो पाता है। ‘ दादा ने इन कसौटियों पर अपने को रखा और सतत लेखक बने रहे। लेखक और एक अच्छा इंसान, क्योंकि इंसानियत के रास्ते को आगे और सजग और व्यापक बनाना बल्कि संभव करना ही लेखक का पहला काम है। वे सहज स्वभाव के लेखक थे, कोई बनावटी लहजा नहीं या किसी तरह के आडंबर या अहम के शिकार व्यक्ति की तरह, एकदम नहीं। उनकी आत्मीयता, प्रेम, स्वभाविक विनम्रता, सक्रियता और अपनी बोली- वाणी में उनके एक खास तरह के मीठेपन से सभी परिचित हैं। यही वजह है कि उनके नगर के साहित्यिक साथियों से अच्छे संबंध थे और वे उनसे यथोचित आदर व स्नेह भी पाते थे।
साहित्यिक चेतना के विस्तार में, लोगों में रुचि और लगाव पैदा करने के मामले में, नगर में, उन्होंने जो कार्य किया, उससे सभी परिचित हैं। इस मंच के माध्यम से नई पीढ़ी के युवक और पाठक संपर्क में आए और इस वर्ग का अपेक्षित परिष्कार भी संभव हो सका। इसलिए यह कहना ठीक लगता है कि साहित्यिक आयोजनों के सिलसिले में “दादा’ का नाम एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में था।
“दादा? जीवन भर एक साधारण, सरल व्यक्ति रहे अभिजात्य उनके जीवन से दूर ही रहा। इसलिए उनकी रचनाओं में साधारण व्यक्ति की रोजमर्रा की समस्याएं ही अधिक महत्व पाती हैं। वे अपने आसपास होते अन्याय और भ्रष्टाचार से अधिक व्यथित रहते थे।
“दादा? के लेखन की शुरुआत हास्य व्यंग की कविताओं से हुई और नए सोपान गढ़ती गई उनकी यह लेखनी। बीच-बीच में स्पुट रूप से उन्होंने कहानियां और रिपोर्ताज शैली का भी उपयोग करते हुए लेखन
किया ।बाद में वे चंपू काव्य, लघुकथा के क्षेत्र में भी आए। उनकी अनेक विधाओं पर निरंतर चलती लेखनी रुकी नहीं अंतिम दिनों में भी सक्रिय बनी रही।
लेखन में दादा ने सामाजिक, राजनैतिक एवं लौकिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर जहां भी दृष्टि डाली, वहां से व्यंग के पक्षको उजागर किया और समाज के सामने रखा तथा लोगों को उस ओर भी सोचने समझने के लिए बाध्य किया, झकझोरा । उनके व्यंग में तीखापन तो है ही , मीठी चुटकी भी असरदार है। मारक क्षमता के साथ चुटीला पन खासतौर पर सहजता लिए दिखता है। जिसे परसाई जी सटायर की संज्ञा देते थे । वे तमाम पक्ष दादा की रचनाओं में यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं।
“दादा? ने अपने समय में जब लघुकथा एक फिलर के रूप में अखबारों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थी, तब से लघुकथा का लेखन कार्य किया और उसे एक स्वतंत्र मंच देने की महती भूमिका अदा की ।
लघुकथा पर दादा? ने अनेक लेख लिखे तथा उसकी महत्ता पर बल दिया। जबलपुर में लघु कथा को एक मंच प्रदान करते हुए दादा के सहयोग से मोइनुद्दीन अतहर द्वारा युवा रचनाकार समिति का गठन हुआ जिसमें प्रमुख रुप से प्रदीप शशांक अभय बोर्ड निर्मोही, गुरु नाम सिंह रीहल, कुंवर प्रेमिल, रमेश सैनी, धीरेंद्र बाबू खरे तथा रविंद्र अकेला जैसे रचनाकारों को एक मंच दिया । जिसे अब मध्यप्रदेश लघुकथाकार परिषद के नाम से जाना जाता है। इस मंच के माध्यम से लघुकथा पढ़ी गई। लघु कथा के वर्तमान स्वरूप पर आलेख पढ़े गए तथा उस पर केंद्रित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की चर्चा भी की गई और सभी प्रकार के कार्यक्रमों में दादा” की अपनी भूमिका रहा करती थी जिसका जबलपुर क्षेत्र की साहित्य विधा में एक अलग महत्व है।
जाने-अनजाने ऐसे और भी रचनाधर्मी होंगे जिनको दादा का यथा समय योगदान मिलता रहा है चाहे वह परोक्ष रूप में अथवा अपरोक्ष रूप में | श्री राम ठाकुर दादा ने सभी को हर संभव सहायता प्रदान की है चाहे वह किसी भी रूप में हो | अतः दादा की छवि उन सभी के दिलों में आज भी स्थान बनाए हुए हैं।
याद कोई आए तो इस तरह ना आए
जिस तरह घटा कोई बिजलियां गिराती हैं
सम्मान और पुरस्कार की परंपरा में भी दादा का योगदान नगर की अनेक संस्थाओं को मिला| जिससे संस्थाएं भी गौरवान्वित हुई और जबलपुर का मान भी बढ़ा।
दादा के द्वारा पाठक मंच की अनेक गोष्ठी आयोजित की गई और जबलपुर के साहित्य जगत को बांध के रखा अनेक समीक्षा गोष्टियों में उन्होंने नए पुराने साहित्यकारों को शामिल किया। समीक्षाओं पर मंतव्य व्यक्त किए और उस पर बहस की परंपरा भी डाली। ऐसी समीक्षा गोष्ठियों में उभरते साहित्यकार एक नई ऊर्जा के साथ सामने आए। जिसका श्रेय ठाकुर *दादा” को ही जाता है। इस तरह ‘दादा’ ने परंपराओं को गढ़ा है। उनका सरल, सहज स्वभाव व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेता था। चाहे वह उनका सहकर्मी हो या आम आदमी। होटल पर बैठे हुए रिक्शेवाले हो अथवा पान के टपरे पर खड़ा व्यक्ति। जुझारू, जीवट और जमीन से जुड़े रहने वाले दादा का हंसमुख स्वभाव और प्रसन्नचित्त रहने का गुण मनुष्य मात्र को जीवन जीने की प्रेरणा देता है । उनकी लेखन शैली जबलपुर साहित्य के नए शिल्पियों को सदा ही प्रेरणा प्रदान करती रहेंगी ।
उनका व्यंग्य लेखन मरते दम तक चलता रहा उनकी अंतिम 2 पुस्तकें मृत्यु के। या 2 माह पूर्व दिल्ली से प्रकाशित होकर आई। उन्होंने अपने लेखन में व्यंग्य को प्रमुखता दी और एक सफल व्यंग्यकार के रूप में अपने आप को प्रस्तुत किया। हरिशंकर परसाई जैसा बेबाक कथन तथा शरद जोशी जैसा तीखा तेवर वाले इस महान व्यंग्य शिल्पी ने व्यंग्य के लगभग पन्द्रह तीर चलाएं जिसने साहित्य के क्षेत्र में धूम मचाई कि चारों ओर दादा का नाम बड़े सम्मान से लिया जाने लगा। मान- सम्मान, पुरस्कार, अलंकरण से पूरे देश में सम्मानित डॉ. श्री राम ठाकुर ‘दादा’ के व्यक्तित्व में घमंड की छांव तक नहीं थी। वह बहुत सरल तथा सहज व्यक्तित्व के धनी थे। जो भी उनके संपर्क में आता उनसे प्रभावित होकर धन्य हो जाता। उनके व्यक्तित्व का खास पहलू यह है कि उन्हें सभी छोटे -बड़े “दादा” कहकर पुकारते थे।
सपनों के दर्पणों में निहारा किए तुम्हें
यादों की पालकी से उतारा किए तुम्हें
डॉक्टर श्री राम ठाकुर “दादा अपने सृजन के आरंभ काल से जीवन के संध्या काल तक संघर्षरत रहे। उनकी साहित्यिक कृतियां अमूल्य धरोहर हैं। कुल मिलाकर यदि हम “दादा? की जीवन स्थितियों का निष्पक्ष अवलोकन करें तो सहजी उनकी मूल्यवत्ता से साक्षात्कार कर सकेंगे। पाठक मंच के माध्यम से संगठनकर्ता के रूप में भी “दादा ने सराहनीय योग दिया है।
डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा” आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु एक साहित्यकार सुधि चिंतक, सहृदय विचार वान व्यक्तित्व के रूप में भी सदैव जीवंत रहेंगे।
डॉ. श्री राम ठाकुर दादा” ऐसे समर्थ कृतिकार हैं जो आडंबरहीन भाषा और संक्षिप्त प्रारूप में यानी लघुकथाओं में मनुष्य के बहुरंगी मन और आधुनिक जीवन को विविध भंगिमाओं में प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते हैं।
“दादा’ की जिजीविषा और जीवन के प्रति उनका राग जबरदस्त था। इसीलिए उनका अचानक चले जाना हमें स्तब्ध कर गया। लगता है ऐसे जिजीविषा- संपन्न लोगों के साथ जीवन अधिक छल करता है।
जमाना बड़े शौक से सुन रहा था,
हमीं सो गए दास्तां कहते कहते।
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डॉ. श्री राम ठाकुर *दादा”के निधन पर श्रद्धांजलि
कुमार सोनी- उनका साहित्य, उनका विनोद खसतौर से रेलयात्रा का उल्लेख बरबस याद आता है। नये-पुराने को बटोरकर चलना आज के समय में दुरूह कार्य है। दादा जिसे बखूबी निभाते रहे।
रमेश सैनी –मुझे दादा के पहले उपन्यास’ पच्चीस घंटे’की घटनाओं में उनका जीवन संघर्ष, जीवन के प्रति जिजीविषा, मुस्कुरा कर जवाब देने का उनका नायाब तरीका और विद्वूपता से मुठभेड़ करता उनका भरा- पूरा चेहरा याद आ गया।
कुंवर प्रेमिल – दादा जरूर इस भौतिक संसार से रूठ गए हैं पर ऐसे विचारक, कवि, कहानीकार, व्यंग्यकार और लघु कथा कार को हम सब हमेशा हमेशा याद करते रहेंगे दादा को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है।
गुरनाम सिंह रीहल- मैं दादा से सदा से प्रभावित रहा उनके साथ मैंने जीवन के विगत 30 वर्षों के कालखंड को, अपने अमूल्यवान यादों के साथ संजोकर रखा है। वे क्षण बेशकीमती धरोहर के रूप में यूँ मेरे साथ रच बस गए हैं कि उन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
आनंद कृष्ण- दादा के विराट व्यक्तित्व में महासागरों से प्रशांति थी पर भीतर लहरें उद्वेलित होती थीं जब कोई बात हद से बाहर गुजरती तो उनकी कलम उसे कागज पर उगल देती और उसके बाद उस विसंगति या विद्वूप से उत्पन्न उनका संभास भी शांत होता यह अमोघ मंत्र है, जो रचनाकार को संयत और संयमित रखने में मदद करता है इसका मैंने भी स्वयं व्यावहारिक रूप से अनुभव किया है।
श्रीमती नम्नता पंचभाई- डॉक्टर श्री राम ठाकुर दादा एक महान साहित्यकार थे। एकदम शांत गंभीर से दिखने वाले ‘दादा ‘अपने अंदर इतनी कला छुपाए हुए थे जिसका अंदाजा उनके द्वारा रचित साहित्य को पढ़ने के बाद से ही पता चलता है। जिस प्रकार सागर की गहराई का पता नहीं चलता उसी प्रकार दादा के अंदर कितने रत्नों का भंडार साहित्य के रूप में भरा पड़ा था वह किसी को पता नहीं। ऐसी महान हस्ती का हमारे बीच से असमय चले जाना एक बहुत बड़ी क्षति है जिसकी पूर्ति असंभव है।
प्रदीप शशांक- ‘दादा’ के सहज हंसमुख, मिलनसार स्वभाव के कारण हमें बिल्कुल भी महसूस नहीं होता था कि दादा उम्र में हमसे काफी बड़े तथा साहित्य क्षेत्र की बहुत बड़ी हस्ती हैं उनमें घमंड तो लेशमात्र भी नहीं था।
हमारी रचनाओं को पढ़कर वे मुक्त कंठ से सराहना करते थे तथा बड़े भाई के रूप में महत्वपूर्ण सुझाव देने के साथ ही विभिन्न व्यंग पत्रिकाओं के पते भी देते थे।
आज आज दादा हमारे बीच नहीं हैं, किंतु साहित्य जगत में उनका नाम अमर हो गया है। ईमानदार, स्वाभिमानी और सहज व्यक्तित्व के धनी ‘दादा’ की अनगिनत अंमूल्य यादें सदा हमारे साथ रहेंगी।
मलय – दादा एक पिछड़े समाज से आए और उन्होंने अपनी समझ को विकसित करते हुए प्रतिभा को प्रति फलित करते हुए लेखन को पूरी मशक्कत के रास्ते से धीरे-धीरे अर्जित किया दादा के लेखन और सक्रियता की बढ़ती पहचान के कारण ही मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद ने उन्हें जबलपुर में पाठक मंच का संयोजक बनाया इसलिए यह कहना ठीक लगता है कि साहित्यिक आयोजनों के सिलसिले में ‘दादा’ का नाम एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में था और नगर की इस क्षति का तत्काल ही पूरी कर पाना संभव नहीं लगता।
कुंदन सिंह परिहार- ‘दादा’ बड़े स्वाभिमानी थे। अपने साथ होने वाले किसी भी अन्याय को वे बर्दाश्त नहीं करते थे, चाहे उन्हें कितनी भी क्षति क्यों न हो [साहित्य में भी उन्हें जहां पक्षपात दिखाई पड़ता था वे तत्काल उसका विरोध करते थे। ‘दादा’ के जाने से उनके मित्रों का संसार जरूर संकुचित हुआ है और इस क्षति की पूर्ति बहुत मुश्किल है क्योंकि दादा सिर्फ एक संख्या नहीं थे।
गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त- ‘दादा’ नाम जबान पर आते ही, उनकी मधुर मुस्कान के साथ उनका अक्स एक चलचित्र की भांति मेरे मस्तिष्क में उभर आता है। उनकी एक स्वाभाविक भाव मुद्रा बरबस ही अपनी ओर खींच लेती है। ‘ दादा’ की शिराओं में खून के साथ-साथ एक व्यंग की धारा भी सहज रूप में प्रवाहमान रही है [ उनका बातचीत करने का ढंग, कहने और सुनाने की कला बड़ी ही रोचक लगती थी। वे जब भी लिखते एक आम आदमी के इर्द-गिर्द घटती हर बारीक से बारीक चीज को पकड़ कर लिखते थे। यह सहजपन बड़ा ही कठिन होता है, जो ‘दादा’ में था। व्यंग के हास्य और हास्य के साथ व्यंग दादा में एक दूसरे के पूरक रहे हैं उन्हें अलग -अलग नहीं किया जा सकता, यही ‘दादा ‘की लेखन शैली की अपनी पहचान को उजागर करता है। उनकी लेखन शैली जबलपुर साहित्य के नये शिल्पियों को सदा ही प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।
राजेंद्र दानी- दादा” की सक्रियता व्यक्ति केंद्रित कभी नहीं रही। अपने लेखन से तथा अपनी भौतिक सक्रियताओं से बार-बार यह प्रमाणित करते रहे कि वे जिन सरोकारों के लिए क्रियाशील हैं, उनसे दुखों, असमानताओं, जातिगत संकीर्ण विश्वासों, अभावों और बौद्धिक सीमाओं का अंत अवश्यंभावी है और वे अपनी समग्र द्रढ़ताओं के साथ इससे पीछे हटने वाले नहीं है। लंबी काया के इस द्रढ़ व्यक्ति ने कभी हार नहीं मानी और जीवन पर्यत अपनी समस्त ऊर्जा के साथ साहित्य सृजन के लिए समर्पित रहे।
अपने लेखन के लिए जिस माध्यम का चयन उन्होंने किया वह बेहद चुनौतीपूर्ण था और उस पर एकांगी और निषेधता के आरोप तब भी लगते थे और अब भी लगते हैं यह व्यंग था, यह परसाई की राह थी, यह शरद जोशी की राह थी और श्रीलाल शुक्ल की राह थी और श्रीलाल शुक्ल की राह अब भी है।
अफसोस यह है कि ‘दादा’ की यात्रा अभी जारी थी और उन्हें मिलो दूर जाना था वह सेवानिवृत्त हो चुके थे और अपनी राह को निरंतर चौड़ा होते देखना चाहते थे। ऐसे में उनका जाना बहुत बड़ी सामाजिक और व्यक्तिगत क्षति है। यह तथ्य कल्पनातीत है श्री राम ठाकुर ‘दादा’ का निधन एक ऐसी ही बड़ी दुर्घटना है।
मोहम्मद मुइनुद्दीन ‘अतहर‘- सादा जीवन उच्च विचार के धनी मौन तपस्वी ज्योतिष श्री राम ठाकुर दादा ने अपने 63 वर्ष की अल्पायु में अपने सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए साहित्य के क्षेत्र में जो योगदान दिया है जो भुलाया नहीं जा सकता। अपने कार्य के प्रति जिस लगन, निष्ठा / वैर्य तथा ईमानदारी से कार्य करते हुए मैंने दादा को देखा किसी अन्य को नहीं। “दादा? के इस उद्बार को मैंने अपने गले का हार बना लिया और एक लक्ष्य बनाकर उनके साथ हो लिया।
* दादा? के सत्संग से मुझे उनसे यह प्रेरणा मिली सत्सहित्य का पठन, चिंतन, मनन ही हमारे जीवन को संवार सकता है। साहित्य के पौधे को चिंतन से जितना सींचोगे उतना ही वह परवान चढ़ेगा। साहित्य हमारे विवेक को जागृत करता है और मुख्य बात यह है कि यह समाज सुधारक की भूमिका अदा करता है।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -22 – आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं….
मित्रो, चल रहा हूँ, यादों की पगडंडियों पर – बिल्कुल बेखबर कि ये मुझे कहां ले जाने वाली हैं पर मैं डरते-डरते चलता जा रहा हूँ। आज पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ की बहुत याद आ रही है, जिसकी कवरेज लगभग छह साल तक की, यानी छह साल तक इस विश्वविद्यालय के हर मोड़ पर अनजाने चलता गया !
सबसे पहले यादों में आ रहे हैं- योगेन्द्र यादव! वही जो पहले चुनाव विश्लेषक रहे डी डी चैनल पर, फिर आप पार्टी में शामिल हुए और इसके बाद ‘ स्वराज’ पार्टी बनाई। आजकल कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के साथ हैं। भारत जोड़ो यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण यात्री रहे !
जिन दिनों मैं पंजाब विश्वविद्यालय कवर करता था, योगेन्द्र यादव विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र में प्राध्यापक थे और विभाग के नोटिस बोर्ड पर कोई न कोई टिप्पणी लिख कर लगा देते ! मुझे बहुत इंटरेस्टिंग लगी यह बात और ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का एक साप्ताहिक स्तम्भ था, हर सोमवार – चंडीगढ़ दर्शन’ उसमें हम स्टाफ के लोग चंडीगढ़ की कोई न कोई रोचक घटना देते थे। एक बार मैंने योगेन्द्र यादव की इस तरह की आदत पर
‘चंडीगढ़ दर्शन’ पर छोटी सी टिप्पणी दे दी, जिसके बाद हमारा परिचय हुआ, जो आज तक बना हुआ है। हालांकि योगेन्द्र यादव जल्द ही पंजाब विश्वविद्यालय से दिल्ली चले गये। इनके पिता श्री संग्राम सिंह हरियाणा के बड़े सर्वोदयी नेता थे। पिता के ही पदचिन्हों पर योगेन्द्र यादव भी चले और चलते चलते राजनीति में आ गये। जब कभी हिसार आते हैं, मुझे दिल्ली से चलते समय ही फोन आ जाता है और हमारी मुलाकातें हिसार में ज्यादा हुईं। एक बार अपना कथा संग्रह देते समय हमारे सहयोगी छायाकार मित्र फोटो खींचने लगे तब बोले कि यह दोस्ताना फोटो है और ये पत्रकार से पहले हमारे दोस्त हैं ! वे अपनी जगह राजनीति में टटोल रहे हैं और मैं पत्रकारिता व लेखन में, पर अलग अलग रास्तों के राही दोस्ती की डगर पर चल रहे हैं। सालों साल से ! हम हैं राही अलग अलग दिशाओं के !
पंजाब विश्वविद्यालय के उन दिनों पी आर ओ हुआ करते संजीव तिवारी, जो कम रोचक नहीं थे! उन्होंने बिल्कुल अपने पीछे एक वाक्य लिखवा रखा था, जिसका भाव यह था कि यदि आप सोचते हैं कि आपके आते ही सब हो जायेगा तो धैर्य रखना सीखिए, सब कुछ आपकी सोच के अनुसार नहीं होगा ! बहुत दिलचस्प ! उन्होंने अपनी ओर से पत्रकारों को आराम की सुविधा भी दे रखी थी। यदि आप आराम करना चाहें तो सामने छोटे से कमरे में जाइये और वहाँ एक बढ़िया वाले तख्तपोश पर आराम कीजिये, चाय या नींबू पानी आ जायेगा ! ऐसा पी आर ओ मैंने फिर कहीं नहीं देखा। हिसार आने के बावजूद जब कभी चंडीगढ़ आना होता तो चलने से पहले तिवारी को फोन लगाता कि एक कमरा बुक करवा दीजिये और कमरा बुक मिलता ! उनकी बहन रत्निका तिवारी सेक्टर दस के गवर्नमेंट गर्ल्ज काॅलेज में संगीत प्राध्यापिका थीं और बहुत ही अच्छी गायिका ! उन्हें जाना बड़ी बेटी रश्मि के चलते क्योंकि वह इसी काॅलेज की छात्रा रही बीए में। उनके कार्यक्रम जालंधर दूरदर्शन पर भी आते थे। कुछ समय विनीत पूनिया भी पंजाब विश्वविद्यालय के पी आर ओ रहे, जो आजकल कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं! वे हिसार के गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के छात्र हैं!
इसी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के जिक्र के बिना आगे नहीं बढ़ पाऊंगा ! यहीं पर डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता, डाॅ यश गुलाटी, डाॅ सत्यपाल सहगल, डाॅ परेश और आजकल अपने दैनिक ट्रिब्यून के सहयोगी रहे डाॅ गुरमीत सिंह, डाॅ जगमोहन, डाॅ अतुलवीर अरोड़ा और इन दिनों डाॅ योजना रावत आदि से कुछ कम और कुछ ज्यादा जान पहचान रही ! न जाने कितने साहित्यिकारो को सुनने का अवसर मिला, जिनमें अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा और प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी भी शामिल हैं। इन दोनों के इंटरव्यू जो दैनिक ट्रिब्यून के लिए किये, मेरी ‘ यादों की धरोहर’ पुस्तक में शामिल हैं! भीष्म साहनी की बात नहीं भूली कि आजकल साहित्य कम पढ़ा जाता है और आज जो बुक सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है वह है बैंक की पासबुक !
कितनी ही साहित्यिक गोष्ठियों की कवरेज और कितने ही रचनाकारों को सुनने का अवसर मिला। मुझे डाॅ मेहंदीरत्ता ने कहा कि कमलेश, अब तुम पीएच डी कर लो, मैने बताया कि मेरा सपना डाॅ धर्मपाल ने तोड़ दिया था, दूसरे डाॅ इंद्रनाथ मदान ने बहुत प्यारी सलाह दी थी कि हिंदी में बहुत बड़ी गिनती में डाॅक्टर हो गये हैं और अब कुछ अच्छे कंपाउंडरों की जरूरत है और मैं चाहता हूँ कि तुम पर पीएचडी हो और यह बात सच साबित हुई, मेरे लेखन पर तीन शोध प्रबंध आ चुके हैं!
खैर! अपने यशोगान के लिए माफी, यह मेरा इरादा बिल्कुल नहीं था ! आज की राम राम!
कल भी पंजाब विश्वविद्यालय ही जाना चाहूँगा ! अभी बहुत प्यारी सी यादें शेष हैं !
मेरा घर और मिट्टी का आँगन मुझे आज भी बहुत याद आता है।
मैं, अपने भाई-बहनों में तीसरी संतान, बहुत नटखट, जिद्दी और चंचल थी। मम्मी, मेरा बहुत ध्यान रखती थी। हमारे घर में मिट्टी का आँगन था। मेरी मम्मी, मिट्टी से आँगन लीपती थी।
हम सब भाई-बहन और पड़ोस के बच्चें आँगन में खेलते थे लेकिन मिट्टी का आँगन, मुझे बहुत लुभाता था। आंगन भी मुझे देख कर प्रसन्न रहता था, लेकिन मई-जून का माह और स्कूल के ग्रीष्म अवकाश में सूर्य का तेज मुझे और आँगन को बहुत सताता था, घर पूरब दिशा में होने के कारण प्रात: सूर्य की किरणें, आँगन में प्रवेश कर जाती थी। आँगन में ही रसोई वो भी खुली थी, रसोई से लगी सीढियां छत की ओर जाती उसी सढियों के नीचे रसोईघर था।मम्मी प्रातः ही भोजन बनाती और बाबू जी हमे नहला देते थे। मम्मी, रसोई का काम समाप्त कर, हमें कमरे में अंदर रखती और धूप की तरफ से हल्का दरवाजा फेर लेती थी।
गर्मी की तपन मुझे और आँगन को बुरी तरह झुलसाती थी। आँगन में जगह-जगह मिट्टी की पपड़ी बन कर उतरती थी, मुझे आँगन की यह हालत देखी ना जाती थी। मम्मी शाम को आँगन में, झाडू लगा कर पानी का छिड़काव करती तब और ज्यादा गर्मी हो जाती लेकिन कुछ समय बाद आंसमा में चांद,तारों का शीतल व्यवहार आंगन को कुछ राहत देता था इसी तरह से गर्मियों की छुट्टियां बीतती। जुलाई माह में स्कूल का खुलना और मौसम का करवट बदलना मुझे बहुत अच्छा लगता था।
बरसात के मौसम में आंधी के साथ पेड़ के सूखे पत्तों का आँगन में आ जाना, मुझे बहुत आर्कषित करता था, मन ख्वाबों की उड़ान भरता और सोचता कि विशाल पेड़ के पत्ते जिन्हें में छू नही पाती थी, आज मेरे आँगन में मेरे साथ खेलेगे। मैं बहुत खुश होती और हाथ फैला कर लट्टू की तरह घूम जाती फिर पत्तों को देखती, ये क्रम चलता रहता।
फिर आसमां में घटा का घिरना, नन्ही-नन्ही बूंदों का आंगन को स्पर्श करना, मानों कई माह की बिछड़न बाद एक-दूसरे को गले लग रहे है।
तपस हीं दूरियां समाप्त करती धरा का आलिगंन करना प्रकृति को स्वत: हरा- भरा कर देता है, वर्षा रुपी मोती से आंगन का भर जाना फिर धरा- अम्बर का मिलना मेरे कल्पना रुपी आंगन को, मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू से महका कर, वातावरण को सुगंधित बना देता है।
फिर तेज बारिश में, भीगने को आँगन में दौड़ना, मिट्टी में फिसलना और गिर जाना, मम्मी को अच्छा नही लगता इस लिए अक्सर मम्मी मुझे बारिश में भीगने नही देती।
मैं कमरे से ही आँगन में बारिश का बरसना और पानी में बुलबुले बनाना, बिखरना निहारती थी, ये प्रकृति क्रीड़ा मुझे, अपनी ओर आर्कषित करती थी, बूंदों का तड़- तड़ की आवाज करना मानों सरगम का स्वर होना मन मयूर नृत्य करने को मजबूर कर देता।
पानी का, आँगन में भरना और तेजी से जल निकासी से बाहर जाना मुझको अच्छा लगता था, मिलकर दूर जाना, मुझे आज भी एकांकी ओर ले जाता है, शायद मिलना- बिछड़ना प्रकृति में विद्यमान है।
आज भी मैं बारिश में नही निकलती हूँ। हवा के झोकों, वर्षा की फुहार में मम्मी का मेरे साथ होना महसूस होता है। मम्मी का हाथ पकड़ना,बारिश में नही जाने देना, मेरे स्मृति चिन्ह में आ जाता है।
मुझे “मिट्टी का आँगन” रह-रह कर, आज भी याद आता है। बहुत तड़पाता है मेरी मम्मी की याद दिलाता है आंखों में पलकों को भिगोकर चला जाता है।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है हिंदी – उर्दू के नामचीन वरिष्ठ साहित्यकार – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक”।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(09.06.2024 को 53वीं पुण्यतिथि पर विशेष)
इतना जप-तप सभी निरर्थक,
तन्मय एक प्रणाम बहुत है।
तुम तैंतीस कोटि देवों को मानो,
मुझको मेरा राम बहुत है।
भगवान राम के प्रति अटूट आस्था और विश्वास की परिचायक इन पंक्तियों के रचयिता स्वर्गीय श्री भगवती प्रसाद पाठक की 09.06.2024 को 53वीं पुण्यतिथि है। संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध साहित्यकार, पत्रकार और शिक्षाविद श्री पाठक को विधाता ने यद्यपि मात्र 51 वर्षों की अल्पायु प्रदान की थी परन्तु इतने संक्षिप्त जीवन काल में ही उन्होंने साहित्य, पत्रकारिता और शिक्षा के क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण योगदान किया वह स्तुत्य और वंदनीय है। श्री पाठक को संस्कारधानी के मूर्धन्य कवि स्व श्री केशव प्रसाद पाठक के सानिध्य में साहित्य साधना का सौभाग्य मिला था इसलिए उनकी रचनाओं में भी श्री केशव प्रसाद पाठक की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। श्री केशव प्रसाद पाठक के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित अपने एक बहुचर्चित व्याख्यान में श्री पाठक ने कवि श्रेष्ठ श्री केशव पाठक के लिए ‘मीटर का मास्टर’ विशेषण का प्रयोग करते हुए कहा था कि श्री केशव पाठक की अनेक कविताएं पूर्ण गीत (परफेक्ट राइम) की श्रेणी में रखे जा सकते हैं जिसमें किसी पंक्ति में प्रयुक्त शब्दों का स्थानांतरण कर देने के पश्चात् भी उसकी गति भंग नहीं होती है। स्व. श्री भगवती प्रसाद पाठक का वह व्याख्यान इतना चर्चित हुआ कि कालान्तर में पड़ाव प्रकाशन, भोपाल ने उसे “केशव पाठक की काव्य कला” शीर्षक से एक पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित किया था।
आज जब मैं अपने इस आलेख में स्व.श्री भगवती प्रसाद पाठक के अनुपम और आदर्श व्यक्तित्व एवं कृतित्व की अनूठी विशेषताओं की विवेचना कर रहा हूं तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस आलेख में सन् साठ के दशक में श्री पाठक द्वारा प्रकाशित और संपादित ‘साप्ताहिक सही बात ‘ का उल्लेख किए बिना मेरा यह आलेख अधूरा ही रहेगा। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि यह समाचार पत्र थोड़े से ही समय में प्रदेश में हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर के रूप में विशिष्ट पहचान बनाने में सफल हुआ। अपने आप में संपूर्ण इस समाचारपत्र के हर अंक में श्री पाठक ने पत्र के शीर्षक की मर्यादा का सदैव ध्यान रखा। ‘यथा नाम तथा गुण’ की पहचान ने सही बात समाचारपत्र को अल्प काल में ही प्रदेश भर में चर्चित अखबार बना देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्री पाठक ने कालांतर में संस्कारधानी के कुछ और समाचार-पत्रों में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी के रूप में सेवाएं प्रदान कीं।
स्व.श्री पाठक हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू साहित्य के उद्भट विद्वान थे। मराठी और बंगला भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी। अपने धाराप्रवाह व्याख्यानों से प्रबुद्ध श्रोतावर्ग को मंत्रमुग्ध कर लेने की अद्भुत क्षमता श्री पाठक के अंदर मौजूद थी। नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की जिन प्रसिद्ध कविताओं का श्री पाठक ने हिंदी में अनुवाद किया उसे साहित्य जगत में अत्यधिक सराहा गया। गहन अध्येता, चिंतक और विचारक श्री पाठक संस्कारधानी के प्रतिष्ठित शिक्षाविद थे। उन्होंने एक अनुशासनप्रिय अध्यापक और प्राचार्य के रूप में छात्रों के चरित्र निर्माण पर विशेष जोर दिया। उनके पढ़ाए हुए छात्र आज भी श्रद्धा पूर्वक उनका स्मरण करते हैं। श्री पाठक द्वारा लिखित संस्कृत भाषा की जिन पाठ्य पुस्तकों ने शिक्षा जगत में विशेष लोकप्रियता हासिल की जिनमें’ देववाणी दीपक’ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। विचारक श्री पाठक ने अनेक साहित्यिक प्रतियोगिताओं में निर्णायक की भूमिका का निर्वाह भी किया। नवोदित रचनाकारों को अपने लेखन में अधिकाधिक निखार लाने के लिए उन्होंने हमेशा प्रोत्साहित किया और मार्गदर्शन प्रदान किया। पाठक जी का जीवन संघर्षपूर्ण रहा और हमेशा ही चुनौतियों से जूझने में बीता। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया और अपने इन्हीं मूल्यों को पोषित करते रहने की दृढ़ता के कारण उन्हें बड़ी कीमतें भी चुकाना पड़ीं। वे ऐसे निर्मल-व्यक्ति के रूप में जिए, जिनमें किसी से दुश्मनी, कड़वाहट, या बदला लेने की भावना नहीं थी। वे देश-प्रदेश के बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाविदों और राजनेताओं के निरंतर संपर्क में रहे। सभी क्षेत्रों में उन्हें उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त रही।
त्याग, सेवा और समर्पण की त्रिवेणी श्री पाठक के लिए जीवन भर रामचरितमानस की पंक्तियां “परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा नहिं सम अधमाई” आदर्श बनीं रहीं और वे सहृदयता और संवेदनशीलता के पर्याय बने रहे। आधी रात को भी किसी भी जरूरत मंद व्यक्ति की सहायता के लिए रहने वाले श्री पाठक के द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं गया। अहंकार और आडंबर से कोसों दूर, सहज सरल व्यक्तित्व के धनी श्री पाठक का अनुकरणीय जीवन ‘ नेकी कर दरिया में डाल ‘ कहावत का उत्कृष्ट उदाहरण है। जबलपुर के श्रीजानकी रमण महाविद्यालय के संस्थापक प्राचार्य पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी के इस कथन से मैं पूर्णतः सहमत हूं कि ” जो लोग स्वर्गीय पाठक जी के संपर्क में रहे हैं वे इसकी पुष्टि कर सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व और जीवन दर्शन जितना बहिरंग में दिखता है उससे अधिक व्यापक कैनवास में चित्रित किए जाने योग्य था।”
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग – 21 – जाने किस घड़ी वक्त का बदले मिज़ाज… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
यादों से घिरा रहता हूँ, सुबह शाम ! जब जब यादें आती हैं, कितने खट्टे मीठे अनुभव याद कराती हैं और यह भी कि वक्त क्या क्या दिन दिखाता है ! आज जब चंडीगढ़ की ओर निकल रहा हूँ, तब बस स्टैंड के पास ही स्थित हरियाणा आई जी ऑफिस की याद हो आती है, जिसमें आज के दिन साहित्य अकादमी के अध्यक्ष माधव कौशिक, सुभाष रस्तोगी, उर्मिल और गार्गी तिवारी जैसे रचनाकार एक ही ऑफिस में एक साथ काम करते थे यानी पूरा आई जी ऑफिस रचनाकारों से भरा पड़ा था । जब मैंने सन् 1990 में ‘ दैनिक ट्रिब्यून’ में उप संपादक के तौर पर ज्वाइन किया, तब इन लोगों ने मुझे अपनी गोष्ठियों में बुलाना शुरू किया, यही नहीं, ऑफिस की पत्रिका में भी मेरी रचनायें प्रकाशित की जाने लगीं । ये लोग भी मुझसे मिलने ऑफिस आते रहते ! ये दिन कभी भूलने वाले नहीं । यह प्यार और सम्मान भूलने वाला नहीं ! फिर इतने वर्षों के बीच गार्गी तिवारी को हिसार की कारागार में देखने का दुखद दृश्य भी देखा । मैं किसी कवरेज के सिलसिले में कारागार गया था, महिला जेल अधीक्षक ने एक कैदी की तारीफ करनी शुरू की कि वह लेखिका है और पता नहीं उसकी बदनसीबी उसे कैसे यहाँ तक ले आई । मैंने कहा कि आप मिलवाइये उससे। उन्होंने अंदर किसी को भेजा और देखता हूँ कि मेरे सामने कैदियों के भेस में गार्गी तिबारी खड़ी है ! वह मुझे विस्फारित आंखों से देख रही थी और मैं उसे!
– क्या हुआ गार्गी? यहाँ इस हाल में कैसे?
जेल अधीक्षक ने जवाब दिया कि इस प्यारी सी गुड़िया पर अपने ही पति की हत्या का इल्जाम इसके देवर ने मढ़ दिया है !
गार्गी टप् टप् आंसू बहाये जा रही थी और मैं वहाँ से चला आया – निशब्द! क्या और कैसी सांत्वना दूं? फिर जब नया साल आया तब मैंने नीलम को कहा कि आज हम एक व्यक्ति को नया साल मुबारक करने जायेंगे । इस तरह मैं पत्नी को बिना कुछ बताये गंगवा रोड स्थित कारागार की ओर ले गया । महिला अधीक्षक को गार्गी से मिलने की इज़ाज़त मांगी । उन्होंने बुला दिया । तब मैंने कहा कि गार्गी, आज शायद तुमने सोचा भी न हो और मैंने भी कैसे सोच लिया कि गार्गी को नये साल की विश करके जायेंगे हम पति पत्नी और यह विश भी कि आपको फिर यहाँ न देखना पड़े ! इसके बाद उसी साल गार्गी सारे दोषों से मुक्त हो गयी ! फिर एक दो बार चंडीगढ़ में भी मुलाकात हुई और वह ज्योतिष यानी भविष्यवाणी करने का काम करने लगी थी । इन दिनों कहाँ है, नहीं जानता पर इंसान कहाँ से कहां पहुंच जाता है वक्त के फेर मे ! हैरान हूँ आज तक !
इतने वर्षों बाद माधव कौशिक सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते देश की सबसे बड़ी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हुए और उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा भी हरियाणा के आईटी हब गुरुग्राम में रहती हैं। वे प्रसिद्ध कथाकार अमरकांत की पुत्रवधू हैं और इनके पति अरूण बर्धन से ‘सारिका’ के कार्यालय में कुछ मुलाकातें हुईं रमेश बतरा के माध्यम से! खेद उन्हें कोरोना लील गया । जिन दिनों हरियाणा ग्रंथ अकादमी की पत्रिका ‘ कथा समय’ का संपादन कर रहा था , उन दिनों अमरकांत की कहानी ‘अमलतास के फूल’ प्रकाशित की थी और इनके बड़े बेटे से बातचीत भी प्रकाशित की थी ! तब एक स्तम्भ शुरू किया था कि बड़े लेखक अपनी ही संतानों की नज़र में क्या हैं और उनकी कौन सी रचना क्यों पसंद है !
पर एक सवाल जहाँ भी हरियाणा में जाता हूँ जरूर उठता है कि हरियाणा ने साहित्य अकादमी को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तो दिये लेकिन आज तक हरियाणा के किसी साहित्यकार को अकादमी पुरस्कार नहीं मिला ! यह भी एक अलग तरह का कीर्तिमान कहा जा सकता है !
सुभाष रस्तोगी आजकल जीरकपुर में रहते हैं और उनकी कहानियाँ ‘कथा समय ‘ में भी लीं, खासतौर पर दिल्ली के रेप केस पर आधारित ‘सात पैंतालिस की बस ‘ जो मुझे बहुत पसंद आई ! वैसे रस्तोगी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और प्रमुख कवियों में एक! ‘साक्षी’ नाम से सहित्यिक संस्था भी चलाते रहे!
माधव कौशिक और कुमुद शर्मा के छोटे छोटे साक्षात्कार भी मैंने इनके साहित्य अकादमी के लिए चुने जाने के बाद किये!
शायद आज इतना ही काफी! यह कहते हुए कि अच्छे और बुरे दिन सब पर आते हैं लेकिन अपने दिनों को भूलना नहीं चाहिए और न ही संबंधों को क्योंकि
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 13 – संस्मरण # 7 – गटरू
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी हम सपरिवार वैष्णो माता का दर्शन करने के लिए पुणे से जम्मू के लिए रवाना हुए।
दीवाली का मौसम था बच्चों की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी और तीन सप्ताह की छुट् टियाँ थीं। इस बार यह तय हुआ था कि माता वैष्णो का दर्शन कर हम दीवाली वहीं पर मनाएँगे और उसके बाद लौटते समय दिल्ली में उतर कर आगरा, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि जगह बच्चों को दिखाएँगे। बच्चों के मन में भी बहुत उत्साह था कि हम पंद्रह दिन के लिए बाहर जा रहे थे।
दीपावली से पहले घर की उन्होंने बड़े उत्साह से साफ़- सफ़ाई की। अपनी -अपनी अलमारियों की, पुस्तकों के मेज़ों की सबकी सफ़ाई हुई और दीवाली से तीन दिन पहले हम लोग जम्मू के लिए रवाना हुए।
इससे पहले पुणे से जाने के लिए दिल्ली में गाड़ी बदलने की आवश्यकता होती थी। पर अब कुछ वर्षों से तो दो रात की यात्रा करके जम्मू तवी झेलम एक्सप्रेस द्वारा सीधे जम्मू पहुँचने की सुविधा थी। बच्चे साथ में थे इसलिए आवश्यकता से अधिक भोजन सामग्री साथ लेकर चले थे। दो रातें तो अच्छी तरह से हँस- खेलकर बीत गई पर तीसरे दिन सुबह हमें जम्मू पहुँचना था उस दिन ट्रेन 8 घंटे विलंब से चलने लगी। बच्चे अब ऊब चुके थे और थक भी चुके थे। हमें जम्मू प्लेटफार्म पर पहुँचते-पहुँचते शाम के 6:30 बज गए जबकि यह ट्रेन सुबह के 10:30 बजे जम्मू पहुँचती है। जम्मू शहर से 40 किलोमीटर की दूरी पर कटरा नामक एक छोटा – सा शहर है इसी शहर तक पहुँचने पर यात्री माता वैष्णोजी का दर्शन करने के लिए ऊपर पहाड़ पर जा सकते हैं।
हम सब गाड़ी से प्लेटफॉर्म पर उतरे तो प्लेटफॉर्म पर तिल धरने को जगह न थी। मानो बड़ी संख्या में यात्री दर्शन करने के लिए आए हुए थे। हमारी ट्रेन से तो अधिकतर लोग दिल्ली, जालंधर और पठानकोट में ही उतर गए क्योंकि दीवाली के शुभ अवसर पर उत्तर भारत के अधिकांश लोग अपने घर- परिवार के साथ ही इस उत्सव को मनाना पसंद करते हैं। इसलिए गाड़ी खाली ही थी। दो चार यात्री हमारे ही जैसे थे जो माता का दर्शन करने के लिए प्लेटफार्म पर उतरे। कुछ लोकल थे, त्योहार मनाने घर जा रहे थे।
ठंडी का मौसम था और साथ ही पहाड़ी इलाका, इसलिए हम सभी काफ़ी गर्म कपड़े लेकर ही चले थे जिस कारण चार सदस्यों के चार सूटकेस, हरेक का एक हैंडबैग और भोजन का बड़ा बैग अलग से।
कुछ देर तक हम सब प्लेटफॉर्म पर खड़े रहे पर एक भी कुली नज़र न आया। इधर – उधर नज़र दौड़ाते रहे। अचानक एक बीस – बाईस साल का नवयुवक हमारे सामने आकर खड़ा हो गया। वेशभूषा से वह कोई कुली तो नज़र ना आ रहा था क्योंकि उसकी कमीज़ भी उसके शारीरिक ढाँचे से बड़ी थी मानो किसी बड़े मोटे और ऊँचे कदवाले व्यक्ति से माँगकर पहन रखी थी। वह पास आकर बोला, ” माताजी सामान चक ल्या?” अर्थात माता जी क्या मैं सामान उठा लूँ।
उसकी ओर देखने पर ऐसा लगा कि उसने शायद कभी पहले कुली का काम किया ही न था। उसके शरीर पर लाल कुली की कमीज तो थी पर कुलियों के हाथ पर जो बिल्ला होता है, पीतल का बना हुआ, जिस पर उनकी पंजीकरण संख्या लिखी हुई होती है, वह उसके पास नहीं था। पर उस वक्त हमारे पास और कोई उपाय भी नहीं था। सामान तो अधिक थे ही, बच्चे ट्रेन में बैठे – बैठे अब थक चुके थे। रात गहरा रही थी। ठंड के मौसम में अंधेरा भी जल्दी ही छाने लगता है। ठंडी भी बढ़ रही थी। आगे यात्रा अभी बाकी थी।
मैंने उसे सामान उठाने के लिए कहा। सबसे बड़ी – सी जो अटैची थी उसने उसे उठाकर जब अपने सिर पर रखा तो उसका सारा शरीर कुछ पल के लिए डगमगा उठा। यह देखकर ही मेरा संदेह दूर हो गया कि उस नौजवान को कुलीगिरी करने की आदत नहीं थी। पर उस वक्त हमारे पास और कोई दूसरा चारा भी ना था। अब बाकी छोटे-मोटे सामान मैंने उठा लिए कुछ पति महोदय ने उठा लिया और उससे भी छोटे जो सामान थे वे बच्चों के हाथ में थमा दिए। बच्चों से कहा कि वे कुली के साथ ही चलें। एग्ज़िट गेट से वह निकल गया और उसके पीछे- पीछे बच्चे दौड़ते रहे। सामान लेकर चलते हुए हम बीच-बीच में इससे -उससे टकराते रहे। बच्चों ने उससे अपनी नज़र न चूकने दी। और सामान हाथ में लेकर मैं और मेरे पति भी भीड़ में से संभलते हुए बाहर निकले।
बाहर भी यात्रियों की बहुत बड़ी भीड़ थी थोड़ी देर के लिए तो मेरा दिल धड़क उठा यह सोचकर कि यदि प्लेटफार्म पर इतनी बड़ी भीड़ है, स्टेशन के बाहर भी इतनी लंबी – चौड़ी भीड़ है तो माता के मंदिर में न जाने कितनी भीड़ होगी ? और न जाने कितने घंटे दर्शन के लिए खड़ा रहना पड़ेगा! स्टेशन के बाहर सीढ़ियाँ उतरकर बाईं ओर मुड़ते ही टैक्सी स्टैंड है। हम सब सामान लेकर वहाँ पहुँचे। लंबी डगें भरते हुए पति महोदय टैक्सी की खोज में निकले।
सारा सामान नीचे रखा गया और बच्चे उस पर बैठ गए। ठंडी हवा चल रही थी तो बच्चे और भी सिकुड़ गए। मैंने जिज्ञासावश उससे बातचीत शुरू कर दी।
– क्यों बेटा ऊपर बहुत भीड़ है क्या ?
– ना जी न सारे बापस जान लगे जी! क्या है के जी दवाली दा मौसम है लोकी, अपणे कार विच रैणा पसंद करदे हन।
– तो फिर अभी इतनी भीड़ क्यों है यहाँ?
– जी जे लोकी आए सन वो सारे बापस जान रै सन।
-अच्छा तो इस भीड़ में जानेवाले ज्यादा हैं, आनेवाले कम।
-जी हाँ। जी हाँ।
-बच्चे, तुम्हारा नाम क्या है?
-जी गटरू
अच्छा तुमने इससे पहले कुली का काम कभी किया है गटरू?
-जी वैसे नई करदा पर हूण करण लग्या।
-क्यों ?
– जी इक माह बाद साडी पैण दा ब्याह है- –
– अच्छा! कहाँ के रहनेवाले हो गटरू
– जी पठाणकोट दा
बातचीत के सिलसिले से पता चला कि गटरू के पिता को खेत में काम करते हुए साँप ने काटा था। समय पर अस्पताल ना पहुँचाए जाने के कारण उनकी मौत हो गई थी। इस घटना को अब दो वर्ष बीत चुके थे। थोड़ी खेती होती है, उसी से उनका गुज़ारा होता है। अब बहन की शादी में बड़ा खर्च है तो जम्मू रेलवे स्टेशन पर कुछ महीना भर काम करके वह चार पैसे जोड़ लेगा। दशहरे से दीवाली तक माता का दर्शन करने के लिए बड़ी संख्या में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से लोग आते हैं। उस भीड़ को संभालने के लिए वहाँ की जो उपस्थित कुलियों की संख्या है वह कम पड़ती है।
गटरू के गाँव का कोई आदमी जम्मू स्टेशन पर कुली था। उसीके सहारे वह भी यहाँ आकर अपनी तकदीर आज़मा रहा था। पंद्रह -बीस दिनों तक काम करके जो कमा लेगा वही रकम उसकी बहन की शादी में काम आएगा। उसके घर में उसकी बहन के अलावा दो छोटी बहनें और भी थीं। वे अभी स्कूल में पढ़ रही थीं।
गटरू बड़ा उत्साही, चपल, मेहनती लड़का था। उसकी आँखों में भोलेपन की तरलता थी गोरा रंग जो मेहनत – मजदूरी के कारण और कुपोषण के कारण थोड़ा काला – सा पड़ गया था। वह कमजोर भी दिखता था। आँखों के नीचे गड् ढे – से पड़ गए थे। पर फिर भी आँखें बहुत कुछ बोलती थीं।
इतने में कटरा जाने के लिए टैक्सी मिल गई हम लोगों ने तुरंत टैक्सी में छोटा- मोटा सामान रखना प्रारंभ किया। गटरू ने बड़े उत्साह के साथ कुछ सामान टैक्सी के ऊपर के कैरियर में रखकर रस्सी बाँधने में ड्राइवर की सहायता की। उसका हँसमुख वदन और सदैव सहायता करने की तत्परता ने मुझे उसकी मासूमियत की ओर आकर्षित किया। मैं मन ही मन उसके परिश्रम करने की क्षमता की प्रशंसा करती रही।
गटरू के हाथ में मैंने ₹60 रखे उस जमाने में ₹60 बहुत होते थे। हम चल पड़े उसने हमसे नमस्ते कहा। सभी सामान उठाकर वह स्टेशन से नीचे ले आया था और हमारे साथ तब तक खड़ा था जब तक हम रवाना न हुए। उसकी यह जिम्मेदारी वहन करने के भाव को देख मन प्रसन्न हो रहा था।
हम कटरा पहुँचे। देर रात को ही नहा धोकर मंदिर जाने के लिए रात के 10 बजे रवाना हुए बच्चे थके तो थे पर मंदिर जाने का उत्साह उनके मन में जोश भरने में सफल हुआ। माता का मंदिर रात भर खुला रहता है लोग रात भर चलते हुए, उतरते हुए दिखाई देते हैं। अब तो मंदिर जाने के लिए कई व्यवस्थाएँ भी हो गई थीं। घोड़े, पालकी यहाँ तक कि हेलीकॉप्टर और बैटरी वाली गाड़ियाँ भी थीं।
हम लोगों ने अपनी यात्रा शुरू की। मंदिर जाने के लिए जहाँ से यात्रा शुरू करते हैं वहाँ से पहाड़ की चोटी तक जहाँ मुख्य गर्भ गृह स्थित है 14 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है।
जिस स्थान से यात्रा प्रारंभ होती है उसे बाणगंगा कहते हैं। अधकुंवारी, हाथी मत्था होते हुए इस 14 किलोमीटर की यात्रा हमने 6 घंटे में पूरी की। अधकुँवारी में बहुत बड़ी भीड़ होती है क्योंकि एक छोटी सी गुफा के भीतर से सबको बाहर गुजरकर निकलना पड़ता है जिस कारण वहाँ थोड़ा ज्यादा समय लगता है।
माता के मंदिर के ऊपर भी एक और मंदिर है। यह उस राक्षस का मंदिर है जो माता का पीछा करते हुए इस स्थान तक आया था। उसका नाम है भैरवनाथ। भैरवनाथ का मंदिर माता के मंदिर से और ऊपर चढ़कर है। उसका दर्शन करने के लिए भी कई लोग जाते हैं। उस रास्ते की यात्रा बहुत कठिन यात्रा है।
दीपावली की रात हम ऊपर मंदिर में ही रहे दीपावली का त्यौहार था इसलिए मंदिर में भीड़ नहीं थी। हमें बड़ी आसानी से माता का दर्शन मिला। गुफा के भीतर तीन पिंडों के रूप में माता सरस्वती, माता काली और माता वैष्णो के दर्शन हुए। यहाँ किसी देवी की मूर्ति नहीं है। केवल तीन पिंडियाँ हैं। हम सब बड़े खुश थे क्योंकि हमें ज्यादा भीड़ का सामना नहीं करना पड़ा था।
हम लोग दूसरे दिन सुबह जब नीचे उतरने लगे तो हमें रास्ते में गटरू मिला। उसे देखकर हमें आश्चर्य हुआ। दो क्षण रुक कर हमने उससे पूछ ही लिया कि वह माता के मंदिर के रास्ते पर क्या कर रहा था तो उसने बताया कि ट्रेनें खाली आ रही थी इसलिए वह मंदिर में एक-दो दिन लोगों का सामान उठाकर ऊपर ले जाने का काम करने जा रहा था। ऐसे लोगों को वहाँ पिट्ठू कहते हैं। पिट्ठू के रूप में गटरू किसी परिवार के यात्रियों के साथ चल रहा था। उसने उनके सामान उठाए हुए थे और साथ में एक छोटे बच्चे को पीठ पर बाँधे रखा था।
कटरा में ही बस स्टॉप के पास एक साधारण होटल में हमने अपनी बुकिंग कर रखी थी और सामान भी वहीं छोड़ रखा था। नीचे उतरते ही साथ हम सब उसी होटल में लौट गए। गरम गरम पानी से नहाने पर थकावट भी दूर होती है। थोड़ा कुछ खा – पीकर बच्चे और हम सभी सो गए।
दीवाली के तीसरे दिन हम लोग जम्मू के लिए रवाना हुए। हमारी गाड़ी रात को 9:45 बजे थी। हम सब स्टेशन के पास अभी टैक्सी से उतरे ही थे कि गटरू नज़र आया। संयोग की बात थी कि वह भी पहाड़ से नीचे उतर आया था और कुली का काम कर रहा था।
हमें देखते ही वह पास आकर खड़ा हो गया। पास आकर गाड़ी का नाम उसने हमसे पूछा और बोला अभी 2 घंटे हैं गाड़ी को जाने में। वह हमारा सामान टैक्सी से उतारकर प्लेटफार्म नंबर एक पर ले आया। जहाँ हमारा रिजर्व डिब्बे के आने की संभावना थी उसने ठीक उसी के सामने हमारा सारा सामान लाकर रख दिया। मैंने पैसे देने चाहे उसने कहा “पैले आपको सीट पर मैं बिठांगा ओस ते वाद पैहे ले ल्यांगा। “
गटरू का चेहरा, लोगों पर उसका विश्वास और उसके चेहरे पर फैला भोलापन न जाने क्यों हम सब को बहुत अच्छा लगा था।
प्लेटफार्म नंबर एक के और प्लेटफार्म नंबर 2 के बीच तीन और ट्रैकें थीं। बीच में जो तीन ट्रैकें थी वह जम्मू स्टेशन पर न रुकने वाली गाड़ियों के लिए थीं। कई बार माल गाड़ियाँ बिना रुके इन्हीं ट्रैकों पर से द्रुत गति से निकलती हैं। प्लेटफार्म नंबर एक की ट्रैक अभी खाली थी। इसी ट्रैक पर हमारी रेल गाड़ी आने वाली थी।
प्लेटफार्म नंबर दो पर एक ट्रेन के आने की सूचना दी गई और इन दोनों ट्रकों के बीच के ट्रक पर कुछ दूरी पर एक खाली मालगाड़ी खड़ी थी। जब दोबारा प्लेटफॉर्म क्रमांक 2 पर अजमेर जाने वाली गाड़ी की सूचना मिली। गटरू हमारा सामान रखते ही तुरंत प्लेटफार्म से नीचे उतरने को तत्पर हुआ। मैंने पर्स में से निकालकर पैसे उसकी तरफ बढ़ाए तो उसने कहा अभी टाइम है वह ले लेगा।
एक से दूसरे प्लेटफार्म तक जाने के लिए अधिकतर बड़े शहरों के स्टेशनों पर ओवरब्रिज बने हुए होते हैं। पर गटरू को बहुत जल्दी थी और वह जल्द से जल्द दूसरे प्लेटफार्म पर पहुँचना चाहता था। चूँकि वहाँ पर सूचना दे दी गई थी कि वहाँ से अजमेर जाने वाली गाड़ी आ रही थी तो वह अति शीघ्रता में था। वैसे भी कुली काफी सतर्क होते हैं और नियमित रूप से इसी तरह एक से दूसरे ट्रैक पर बिना सामान के आते – जाते रहते हैं ताकि दोनों प्लेटफार्म पर आसानी से वे कुली का काम कर सकें और अधिक धनराशि कमा सकें।
रेलगाड़ियों के आने-जाने के समय सभी कुली काफी सतर्क होते हैं। एक प्लेटफार्म से दूसरे प्लेटफार्म पर बड़ी चपलता से चढ़ भी जाते हैं।
गटरू एक नंबर प्लैटफॉर्म से उतरकर एक खाली ट्रैक पार कर दूसरे ट्रैक पर खड़ा हो गया। उसकी एक टाँग ट्रैक के अभी भीतर थी और दूसरी बाहर। इतने में प्लेटफार्म नंबर दो पर अजमेर जाने वाली गाड़ी आने लगी। वह रुक गया। जो गाड़ी आई थी वह अभी गति से ही चल रही थी।
सामान बेचने वालों की, यात्रियों की चहल-पहल थी। इधर प्लेटफार्म नंबर एक पर खड़े लोग अचानक ज़ोर से चिल्लाने लगे – ए छोकरे हट ओए! सुनाई नहीं दे॔दा? ओए हट न! पर पटरियों पर खड़े गटरू को किसी की भी आवाज सुनाई नहीं दी। हमारा ध्यान जब लोगों की चीख-पुकार की ओर गई तो ध्यान देने पर देखा दो खाली पटरियों के बीच जो एक और पटरी थी जिस पर एक खाली मालगाड़ी काफी समय से खड़ी थी, वह बिना किसी सिग्नल के और आवाज़ के धीरे- धीरे पीछे की ओर शंटिंग करने लगी। गटरू को ही सब हटने को कह रहे थे। जब तक हम सबका ध्यान गया और हमने गटरू को नाम लेकर पुकारना शुरू किया तब तक खाली गाड़ी के पिछले हिस्से से एक धक्का लगने के कारण वह पटरी पर गिर पड़ा। यद् यपि रेलगाड़ी की गति बहुत धीमी थी पर थे तो लोहे के पहिए। उसकी एक टाँग हमारे देखते ही देखते कट गई। वह दूसरी टाँग समेत अपने शरीर को ऊपर से हटाने के प्रयास में अभी था ही कि रेलगाड़ी के दूसरे डिब्बे का पहिया उसके ऊपर से गुज़र गया। थोड़ी दूर जाकर गाड़ी रुक गई। सब तरफ एक भारी चुप्पी छा गई। सारे लोग भीड़ करके उसी जगह पर जमा हो गए जहाँ से वे झुककर पटरी पर पड़े गटरू को देख पा रहे थे। कुछ जवान लड़के जो दुकान चलाते थे वे सब गटरू के पास पहुँच गए। गटरू बेहोश बेजान सा खून में लथपथ पड़ा था।
रेलगाड़ी के ड्राइवर को जब तक समाचार मिला और उसने गाड़ी रोकी तब तक गटरू का धड़ दो टुकड़ों में बँट चुका था।
हमारे बच्चे रोने लगे। मेरे हाथ में उसे देने वाले जो नोट थे वे इस तरह हाथ की मुट्ठी में भींच गए कि मेरे ही नाखून मेरी हथेली में गड़ गए। प्लेटफार्म अचानक श्मशान जैसा शांत हो गया। स्थायी दुकानवाले, चायवाले, पूड़ी तरकारी बेचनेवाले सब स्तंभित थे।
कुछ समय के बाद फिर सब सामान्य हो गया। पुलिस वहाँ पहुँची, एंबुलेंस आई स्ट्रेचर पर गुटरू के शरीर के दो हिस्से, टूटी हुई बेजान टाँगे रखी गईं और अस्पताल ले जाया गया। वह तो बिचारा बेहोश पड़ा था।
सभी लोग इसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। यात्री, अन्य दुकानवाले सभी, पर हमारा परिवार बिल्कुल चुप्पी साधे खड़ा था। बच्चे थोड़ी देर तक ज़ोर से गटरू, गटरू कहकर अपने पापा से और मुझसे चिपकाकर रोने लगे। संभवतः गटरू के साथ हमारा क्या संबंध था यह बात आस- पास खड़े लोग न समझे होंगे। पर बच्चों को इस दुर्घटना ने हिला दिया था।
हम दोनों की आँखें हमारे साथ लिपटे हुए बच्चों के साथ चुपचाप बरसती ही रही।
थोड़ी देर में हमारी भी गाड़ी आई और हमने अपना सामान जगह पर रखा। रात का समय था बच्चे सामान रख कर चुपचाप अपनी सीटों पर काँच की बंद खिड़की के उस पार देखते हुए आँसू बहाते रहे जिस ओर गटरू दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। गाड़ी चल पड़ी पर हम एक दूसरे से कुछ ना बोले जब भी बच्चों से मेरी आँखें चार होती तो लगता कि बच्चे मुझसे पूछ रहे थे मम्मा जिंदा रहेगा न गटरू? उसके घर वालों को क्या पता कि बहन की शादी के लिए पैसा कमाने के लिए आया हुआ अनुभवशून्य भाई जो अपनी नींद, भूख, प्यास सब भूलकर सिर्फ एक ही धुन में लगा था आज मौत से लड़ रहा था।
ट्रेन में उपस्थित सभी यात्री देर रात तक इसी विषय पर चर्चा करते रहे। दूसरे दिन सुबह हम दिल्ली पहुँचे। यहाँ से हमारी दूसरी यात्रा शुरू होने वाली थी। बच्चों का हृदय अभी भी पिछली रात की घटना से प्रभावित था। हम दिल्ली स्टेशन पर उतरे। वहीं पर नाश्ता करने बैठे तो बच्चों ने कुछ खाने से इंकार कर दिया। हम समझ रहे थे कि अपने जीवन में इस छोटी सी उम्र में ऐसी घटना देखकर उनका दिल भी दर्द से भर उठा होगा। अब आगे घूमने जाने का उनका पूरा उत्साह ही ठंडा पड़ गया था।
मैं अपने आप से सवाल कर रही थी इस दुनिया में गटरू जैसे कितने ही लोग होंगे जो कम उम्र में छोटा जीवन लेकर आते हैं और अपनी कुछ खासियत के कारण हमेशा दूसरों के दिल में बसे रहते हैं। गटरू इस कहानी के रूप में हमारे हृदय में बसा रहेगा। उसकी मधुर मुस्कान, उसका भोला चेहरा, उसकी बोलती आँखें सदैव हमारे हृदय में बसा रहेगा फिर जीवन तो अपनी जगह है उसका काम है चलते रहना किसी ने ठीक ही कहा है शो मस्ट गो ऑन!