हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-22 – आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -22 – आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं….

मित्रो, चल रहा हूँ, यादों की पगडंडियों पर – बिल्कुल बेखबर कि ये मुझे कहां ले जाने वाली हैं पर मैं डरते-डरते चलता जा रहा हूँ। आज पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ की बहुत याद आ रही है, जिसकी कवरेज लगभग छह साल तक की, यानी छह साल तक इस विश्वविद्यालय के हर मोड़ पर अनजाने चलता गया !

सबसे पहले यादों में आ रहे हैं- योगेन्द्र यादव! वही जो पहले चुनाव विश्लेषक रहे डी डी चैनल पर, फिर आप पार्टी में शामिल हुए और इसके बाद ‘ स्वराज’ पार्टी बनाई। आजकल कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के साथ हैं। भारत जोड़ो यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण यात्री रहे !

जिन दिनों मैं पंजाब विश्वविद्यालय कवर करता था, योगेन्द्र यादव विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र में प्राध्यापक थे और विभाग के नोटिस बोर्ड पर कोई न कोई टिप्पणी लिख कर लगा देते ! मुझे बहुत इंटरेस्टिंग लगी यह बात और ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का एक साप्ताहिक स्तम्भ था, हर सोमवार – चंडीगढ़ दर्शन‌’ उसमें हम स्टाफ के लोग चंडीगढ़ की कोई न कोई रोचक घटना देते थे। ‌एक बार मैंने योगेन्द्र यादव की इस तरह की आदत पर

‘चंडीगढ़ दर्शन’ पर छोटी सी टिप्पणी दे दी, जिसके बाद हमारा परिचय हुआ, जो आज तक बना हुआ है। ‌हालांकि योगेन्द्र यादव जल्द ही पंजाब विश्वविद्यालय से दिल्ली चले गये। ‌इनके पिता श्री संग्राम सिंह हरियाणा के बड़े सर्वोदयी नेता थे। पिता के ही पदचिन्हों पर योगेन्द्र यादव भी चले और चलते चलते राजनीति में आ गये। जब कभी हिसार आते हैं, मुझे दिल्ली से चलते समय ही फोन आ जाता है और हमारी मुलाकातें हिसार में ज्यादा हुईं। एक बार अपना कथा संग्रह देते समय हमारे सहयोगी छायाकार मित्र फोटो खींचने लगे तब बोले कि यह दोस्ताना फोटो है और ये पत्रकार से पहले हमारे दोस्त हैं ! वे अपनी जगह राजनीति में टटोल रहे हैं और मैं पत्रकारिता व लेखन में, पर अलग अलग रास्तों के राही दोस्ती की डगर पर चल‌ रहे हैं। सालों साल से ! हम हैं राही अलग अलग दिशाओं के !

पंजाब विश्वविद्यालय के उन दिनों पी आर ओ हुआ करते संजीव तिवारी, जो कम रोचक नहीं थे! उन्होंने बिल्कुल  अपने पीछे एक वाक्य लिखवा रखा था, जिसका भाव यह था कि यदि आप सोचते हैं कि आपके आते ही सब हो जायेगा तो धैर्य रखना सीखिए, सब कुछ आपकी सोच के अनुसार नहीं होगा ! बहुत दिलचस्प ! उन्होंने अपनी ओर से पत्रकारों को आराम की सुविधा भी दे रखी थी। यदि आप आराम करना चाहें तो सामने छोटे से कमरे में जाइये और वहाँ एक बढ़िया वाले तख्तपोश पर आराम कीजिये, चाय या नींबू पानी आ जायेगा ! ऐसा पी आर ओ मैंने फिर कहीं नहीं देखा। ‌हिसार आने के बावजूद जब कभी चंडीगढ़ आना होता तो चलने से पहले तिवारी को फोन लगाता कि एक कमरा बुक करवा दीजिये और कमरा बुक मिलता ! उनकी बहन रत्निका तिवारी सेक्टर दस के गवर्नमेंट गर्ल्ज काॅलेज में संगीत प्राध्यापिका थीं और बहुत ही अच्छी गायिका ! उन्हें जाना बड़ी बेटी रश्मि के चलते क्योंकि वह इसी काॅलेज की छात्रा रही  बीए में। उनके कार्यक्रम जालंधर दूरदर्शन पर भी आते थे। कुछ समय विनीत पूनिया भी पंजाब विश्वविद्यालय के पी आर  ओ रहे, जो आजकल कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं! वे हिसार के गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के छात्र हैं!

इसी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के जिक्र के बिना आगे नहीं बढ़ पाऊंगा ! यहीं पर डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता, डाॅ यश गुलाटी, डाॅ सत्यपाल सहगल, डाॅ परेश और आजकल अपने दैनिक ट्रिब्यून के सहयोगी रहे डाॅ गुरमीत सिंह, डाॅ जगमोहन, डाॅ अतुलवीर अरोड़ा और इन दिनों डाॅ योजना रावत आदि से कुछ कम और कुछ ज्यादा जान पहचान रही ! न जाने कितने साहित्यिकारो को सुनने का अवसर मिला, जिनमें अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा और प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी भी शामिल हैं। इन दोनों के इंटरव्यू जो दैनिक ट्रिब्यून के लिए किये, मेरी ‘ यादों की धरोहर’ पुस्तक में शामिल हैं! भीष्म साहनी की बात नहीं भूली कि आजकल साहित्य कम पढ़ा जाता है और आज जो बुक सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है वह है बैंक की पासबुक !

कितनी ही साहित्यिक गोष्ठियों की कवरेज और कितने ही रचनाकारों को सुनने का अवसर मिला। मुझे डाॅ मेहंदीरत्ता ने कहा कि कमलेश, अब तुम पीएच डी कर लो, मैने बताया कि मेरा सपना डाॅ धर्मपाल ने तोड़ दिया था, दूसरे डाॅ इंद्रनाथ मदान ने बहुत प्यारी सलाह दी थी कि हिंदी में बहुत बड़ी गिनती में डाॅक्टर हो गये हैं और अब कुछ अच्छे कंपाउंडरों की जरूरत है और मैं चाहता हूँ कि तुम पर  पीएचडी हो और यह बात सच साबित हुई, मेरे लेखन पर तीन शोध प्रबंध आ चुके हैं!

खैर! अपने यशोगान के लिए माफी, यह मेरा इरादा बिल्कुल नहीं था ! आज की राम राम!

कल भी पंजाब विश्वविद्यालय ही जाना चाहूँगा ! अभी बहुत प्यारी सी यादें शेष हैं !

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ “मिट्टी का आँगन” ☆ श्रीमति उषा रानी ☆

श्रीमति ऊषा रानी

☆ संस्मरण- “मिट्टी का आँगन”श्रीमति ऊषा रानी

मेरा घर और मिट्टी का आँगन मुझे आज भी बहुत याद आता है।

मैं, अपने भाई-बहनों में तीसरी संतान, बहुत नटखट, जिद्दी और चंचल थी। मम्मी, मेरा बहुत ध्यान रखती थी।  हमारे घर में मिट्टी का आँगन था। मेरी मम्मी, मिट्टी से आँगन लीपती थी।

हम सब भाई-बहन और पड़ोस के बच्चें आँगन में खेलते थे लेकिन मिट्टी का आँगन, मुझे बहुत लुभाता था। आंगन भी मुझे देख कर प्रसन्न रहता था, लेकिन मई-जून का माह और स्कूल के ग्रीष्म अवकाश में सूर्य का तेज मुझे और आँगन को बहुत सताता था, घर पूरब दिशा में होने के कारण प्रात: सूर्य की किरणें, आँगन में प्रवेश कर जाती थी। आँगन में ही रसोई वो भी खुली थी, रसोई से लगी सीढियां छत की ओर जाती उसी सढियों के नीचे रसोईघर था।मम्मी प्रातः ही भोजन बनाती और बाबू जी हमे नहला देते थे। मम्मी, रसोई का काम समाप्त कर, हमें कमरे में अंदर रखती और धूप की तरफ से हल्का दरवाजा फेर लेती थी।

गर्मी की तपन मुझे और आँगन को बुरी तरह झुलसाती थी। आँगन में जगह-जगह मिट्टी की पपड़ी बन कर उतरती थी, मुझे आँगन की यह हालत देखी ना जाती थी। मम्मी शाम को आँगन में, झाडू लगा कर पानी का छिड़काव करती तब और ज्यादा गर्मी हो जाती लेकिन कुछ समय बाद आंसमा में चांद,तारों का शीतल व्यवहार आंगन को कुछ राहत देता था इसी तरह से गर्मियों की छुट्टियां बीतती। जुलाई माह में स्कूल का खुलना और मौसम का करवट बदलना    मुझे बहुत अच्छा लगता था।

बरसात के मौसम में आंधी के साथ पेड़ के सूखे पत्तों का आँगन में आ जाना, मुझे बहुत आर्कषित करता था, मन ख्वाबों की उड़ान भरता और सोचता कि विशाल पेड़ के पत्ते जिन्हें में छू नही पाती थी, आज मेरे आँगन में मेरे साथ खेलेगे। मैं बहुत खुश होती और हाथ फैला कर लट्टू की तरह घूम जाती फिर पत्तों को देखती, ये क्रम चलता रहता।

फिर आसमां में घटा का घिरना, नन्ही-नन्ही बूंदों का आंगन को स्पर्श करना, मानों कई माह की बिछड़न बाद एक-दूसरे को गले लग रहे है।

तपस हीं दूरियां समाप्त करती धरा का आलिगंन करना प्रकृति को स्वत: हरा- भरा कर देता है, वर्षा रुपी मोती से आंगन का भर जाना फिर धरा- अम्बर का मिलना मेरे कल्पना रुपी आंगन को, मिट्टी की  सौंधी-सौंधी खुशबू से  महका कर, वातावरण को सुगंधित बना देता है।

फिर तेज बारिश में, भीगने को आँगन में दौड़ना, मिट्टी में फिसलना और गिर जाना, मम्मी को अच्छा नही लगता इस लिए अक्सर मम्मी मुझे बारिश में भीगने नही देती।

मैं कमरे से ही आँगन में बारिश का बरसना और पानी में बुलबुले बनाना, बिखरना निहारती थी, ये प्रकृति क्रीड़ा मुझे, अपनी ओर आर्कषित करती थी, बूंदों का तड़- तड़ की आवाज करना मानों सरगम का स्वर होना मन मयूर नृत्य करने को मजबूर कर देता।

 पानी का, आँगन में भरना और तेजी से जल निकासी से बाहर जाना मुझको अच्छा लगता था, मिलकर दूर जाना, मुझे आज  भी एकांकी ओर ले जाता है, शायद मिलना- बिछड़ना प्रकृति में विद्यमान है।

आज भी मैं बारिश में नही निकलती हूँ। हवा के झोकों, वर्षा की फुहार में मम्मी का मेरे साथ होना महसूस होता है। मम्मी का हाथ पकड़ना,बारिश में नही जाने देना, मेरे स्मृति चिन्ह में आ जाता है।

मुझे “मिट्टी का आँगन” रह-रह कर, आज भी याद आता है। बहुत तड़पाता है मेरी मम्मी की याद दिलाता है आंखों में पलकों को भिगोकर चला जाता है।

मुझे आज भी  “मिट्टी का आंगन” याद आता है।

*

© श्रीमति ऊषा रानी (स०अ०)

सहायक अध्यापक 

संपर्क – कम्पोजिट विद्यालय खाता, विकास क्षेत्र- मवाना, जिला- मेरठ (उ०प्र०) मो नं – 9368814877, ईमेल – – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है हिंदी – उर्दू के नामचीन वरिष्ठ साहित्यकार  – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक”)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १६ ☆

औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(09.06.2024 को 53वीं पुण्यतिथि पर विशेष)

इतना जप-तप सभी निरर्थक,

तन्मय एक प्रणाम बहुत है।

तुम तैंतीस कोटि देवों को मानो,

मुझको  मेरा  राम बहुत है।

भगवान राम के प्रति अटूट आस्था और विश्वास की परिचायक इन पंक्तियों के रचयिता  स्वर्गीय श्री भगवती प्रसाद पाठक की 09.06.2024 को 53वीं पुण्यतिथि है। संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध साहित्यकार, पत्रकार और शिक्षाविद श्री पाठक को विधाता ने यद्यपि मात्र 51 वर्षों की अल्पायु प्रदान की थी परन्तु इतने संक्षिप्त जीवन काल में ही उन्होंने साहित्य, पत्रकारिता और शिक्षा के क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण योगदान किया वह स्तुत्य और वंदनीय है। श्री पाठक को संस्कारधानी के मूर्धन्य कवि स्व श्री केशव प्रसाद पाठक के सानिध्य में साहित्य साधना का सौभाग्य मिला था इसलिए उनकी रचनाओं में भी श्री केशव प्रसाद पाठक की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। श्री केशव प्रसाद पाठक के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित अपने एक बहुचर्चित व्याख्यान में  श्री पाठक ने कवि श्रेष्ठ श्री केशव पाठक के लिए ‘मीटर का मास्टर’ विशेषण का प्रयोग करते हुए कहा था कि श्री केशव पाठक की अनेक कविताएं  पूर्ण गीत  (परफेक्ट राइम)  की श्रेणी में रखे जा सकते हैं जिसमें किसी पंक्ति में प्रयुक्त शब्दों का स्थानांतरण कर देने के पश्चात् भी उसकी गति भंग नहीं होती है। स्व. श्री भगवती प्रसाद पाठक का वह  व्याख्यान इतना चर्चित हुआ कि कालान्तर में पड़ाव प्रकाशन, भोपाल ने उसे “केशव पाठक की काव्य कला” शीर्षक से एक पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित किया था।

आज जब मैं अपने इस आलेख में स्व.श्री भगवती प्रसाद पाठक  के अनुपम और आदर्श व्यक्तित्व एवं कृतित्व की अनूठी विशेषताओं की विवेचना कर रहा हूं तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस आलेख में सन् साठ के दशक में श्री पाठक द्वारा प्रकाशित और संपादित ‘साप्ताहिक सही बात ‘ का उल्लेख किए बिना मेरा यह आलेख अधूरा ही रहेगा। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि यह समाचार पत्र थोड़े से ही समय में प्रदेश में हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर के रूप में विशिष्ट पहचान बनाने में सफल हुआ। अपने आप में संपूर्ण इस समाचारपत्र के हर अंक में श्री पाठक ने पत्र के शीर्षक की मर्यादा का सदैव ध्यान रखा। ‘यथा नाम तथा गुण’ की पहचान ने सही बात समाचारपत्र को अल्प काल में ही प्रदेश भर में चर्चित अखबार बना देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्री पाठक ने कालांतर में संस्कारधानी के कुछ और समाचार-पत्रों में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी के रूप में सेवाएं प्रदान कीं।

स्व.श्री पाठक हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू साहित्य के उद्भट विद्वान थे। मराठी और बंगला भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी। अपने धाराप्रवाह व्याख्यानों से प्रबुद्ध श्रोतावर्ग को मंत्रमुग्ध कर लेने की अद्भुत क्षमता श्री पाठक के अंदर मौजूद थी। नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की जिन प्रसिद्ध कविताओं का श्री पाठक ने  हिंदी में अनुवाद किया उसे साहित्य जगत में अत्यधिक सराहा गया। गहन अध्येता, चिंतक और विचारक श्री पाठक  संस्कारधानी के प्रतिष्ठित शिक्षाविद थे। उन्होंने  एक अनुशासनप्रिय अध्यापक और प्राचार्य के रूप में छात्रों के चरित्र निर्माण पर विशेष जोर दिया। उनके पढ़ाए हुए छात्र आज भी श्रद्धा पूर्वक उनका स्मरण करते हैं। श्री पाठक द्वारा लिखित संस्कृत भाषा की जिन पाठ्य पुस्तकों ने शिक्षा जगत में विशेष लोकप्रियता हासिल की जिनमें’ देववाणी दीपक’ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। विचारक श्री पाठक ने अनेक साहित्यिक प्रतियोगिताओं में निर्णायक की भूमिका का निर्वाह भी किया। नवोदित रचनाकारों को  अपने लेखन में अधिकाधिक निखार लाने के लिए  उन्होंने हमेशा प्रोत्साहित किया और मार्गदर्शन प्रदान किया। पाठक जी का जीवन संघर्षपूर्ण रहा और हमेशा ही चुनौतियों से जूझने में बीता। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया और अपने इन्हीं मूल्यों को पोषित करते रहने की दृढ़ता के कारण उन्हें बड़ी कीमतें भी चुकाना पड़ीं। वे ऐसे निर्मल-व्यक्ति के रूप में जिए, जिनमें किसी से दुश्मनी, कड़वाहट, या बदला लेने की भावना नहीं थी। वे देश-प्रदेश के बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाविदों और राजनेताओं के निरंतर संपर्क में रहे। सभी क्षेत्रों में उन्हें उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त रही।

त्याग, सेवा और समर्पण की त्रिवेणी श्री पाठक के लिए जीवन भर रामचरितमानस की पंक्तियां “परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा नहिं सम अधमाई” आदर्श बनीं रहीं और वे सहृदयता और संवेदनशीलता के पर्याय बने रहे। आधी रात को भी किसी भी जरूरत मंद व्यक्ति की सहायता के लिए रहने वाले श्री पाठक के  द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं गया। अहंकार और आडंबर से कोसों दूर, सहज सरल व्यक्तित्व के धनी श्री पाठक का अनुकरणीय  जीवन  ‘ नेकी कर दरिया में डाल ‘  कहावत का उत्कृष्ट उदाहरण है। जबलपुर के श्रीजानकी रमण महाविद्यालय के संस्थापक प्राचार्य पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी के इस कथन से मैं पूर्णतः सहमत हूं कि ” जो लोग स्वर्गीय पाठक जी के संपर्क में रहे हैं वे इसकी पुष्टि कर सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व और जीवन दर्शन जितना बहिरंग में दिखता है उससे अधिक व्यापक कैनवास में चित्रित किए जाने योग्य था।”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-21 – जाने किस घड़ी वक्त का बदले मिज़ाज… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग – 21 – जाने किस घड़ी वक्त का बदले मिज़ाज… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

यादों से घिरा रहता हूँ, सुबह शाम ! जब जब यादें आती हैं, कितने खट्टे मीठे अनुभव याद कराती हैं और यह भी कि वक्त क्या क्या दिन दिखाता है ! आज जब चंडीगढ़ की ओर निकल रहा हूँ, तब बस स्टैंड के पास ही स्थित हरियाणा आई जी ऑफिस की याद हो आती है, जिसमें आज के दिन साहित्य अकादमी के अध्यक्ष माधव कौशिक, सुभाष रस्तोगी, उर्मिल और गार्गी तिवारी जैसे रचनाकार एक ही ऑफिस में एक साथ काम करते थे यानी पूरा आई जी ऑफिस रचनाकारों से भरा पड़ा था । ‌जब मैंने सन् 1990 में ‘ दैनिक ट्रिब्यून’ में उप संपादक के तौर पर ज्वाइन किया, तब इन लोगों ने मुझे अपनी गोष्ठियों में बुलाना शुरू किया, यही नहीं, ऑफिस की पत्रिका में भी मेरी रचनायें प्रकाशित की जाने लगीं । ये लोग भी मुझसे मिलने ऑफिस आते रहते ! ये दिन कभी भूलने वाले नहीं । ‌यह प्यार और सम्मान भूलने वाला नहीं ! फिर‌ इतने वर्षों के बीच गार्गी तिवारी को हिसार की कारागार में देखने का दुखद दृश्य भी देखा । मैं किसी कवरेज के सिलसिले में कारागार गया था, महिला जेल अधीक्षक ने एक कैदी की तारीफ करनी शुरू की कि वह लेखिका है और पता नहीं उसकी बदनसीबी उसे कैसे यहाँ तक ले आई । मैंने कहा कि आप मिलवाइये उससे। उन्होंने अंदर किसी को भेजा और देखता हूँ कि मेरे सामने कैदियों के भेस में गार्गी तिबारी खड़ी है ! वह मुझे विस्फारित आंखों से देख रही थी और मैं उसे!

– क्या हुआ गार्गी? यहाँ इस हाल में कैसे?

जेल अधीक्षक ने जवाब दिया कि इस प्यारी सी गुड़िया पर अपने ही पति की हत्या का इल्जाम इसके देवर ने मढ़ दिया है !

गार्गी टप् टप् आंसू बहाये जा रही थी और मैं वहाँ से चला आया – निशब्द! क्या और कैसी सांत्वना दूं? फिर जब नया साल आया तब मैंने नीलम को कहा कि आज हम एक व्यक्ति को नया साल मुबारक करने जायेंगे । इस तरह मैं पत्नी को बिना कुछ बताये गंगवा रोड स्थित कारागार की ओर ले गया । महिला अधीक्षक को गार्गी से मिलने की इज़ाज़त मांगी । उन्होंने बुला दिया । तब मैंने कहा कि गार्गी, आज शायद तुमने सोचा भी न हो और मैंने भी कैसे सोच लिया कि गार्गी को नये साल की विश करके जायेंगे हम पति पत्नी और यह विश भी कि आपको फिर यहाँ न देखना पड़े ! इसके बाद उसी साल गार्गी सारे दोषों से मुक्त हो गयी ! फिर एक दो बार चंडीगढ़ में भी मुलाकात हुई और वह ज्योतिष यानी भविष्यवाणी करने का काम करने लगी थी‌ । इन दिनों कहाँ है, नहीं जानता पर इंसान कहाँ से कहां पहुंच जाता है वक्त के फेर मे ! हैरान हूँ आज तक !

इतने वर्षों बाद माधव कौशिक सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते देश की सबसे बड़ी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हुए और उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा भी हरियाणा के आईटी हब गुरुग्राम में रहती हैं। ‌वे प्रसिद्ध कथाकार अमरकांत की पुत्रवधू हैं और इनके पति अरूण बर्धन से ‘सारिका’ के कार्यालय में कुछ मुलाकातें हुईं रमेश बतरा के माध्यम से! खेद उन्हें कोरोना लील गया । जिन दिनों हरियाणा ग्रंथ अकादमी की पत्रिका ‘ कथा समय’ का संपादन कर रहा था , उन दिनों अमरकांत की कहानी ‘अमलतास के फूल’ प्रकाशित की थी और इनके बड़े बेटे से बातचीत भी प्रकाशित की थी ! तब एक स्तम्भ शुरू किया था कि बड़े लेखक अपनी ही संतानों की नज़र में क्या हैं और उनकी कौन सी रचना क्यों पसंद है !

पर एक सवाल जहाँ भी हरियाणा में जाता हूँ जरूर उठता है कि हरियाणा ने साहित्य अकादमी को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तो दिये लेकिन आज तक हरियाणा के किसी साहित्यकार को अकादमी पुरस्कार नहीं मिला ! यह भी एक अलग तरह का कीर्तिमान कहा जा सकता है !

सुभाष रस्तोगी आजकल जीरकपुर में रहते हैं और‌ उनकी कहानियाँ ‘कथा समय ‘ में भी लीं, खासतौर पर दिल्ली के रेप केस पर आधारित ‘सात पैंतालिस की बस ‘ जो मुझे बहुत पसंद आई ! वैसे रस्तोगी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और प्रमुख कवियों में एक! ‘साक्षी’ नाम से सहित्यिक संस्था भी चलाते रहे!

माधव‌ कौशिक और कुमुद शर्मा के छोटे छोटे साक्षात्कार भी मैंने इनके साहित्य अकादमी के लिए चुने जाने के बाद किये!

शायद आज इतना ही काफी! यह कहते हुए कि अच्छे और बुरे दिन सब पर आते हैं लेकिन अपने दिनों को भूलना नहीं चाहिए और न ही संबंधों को क्योंकि

वक्त की हर शै गुलाम

वक्त का हर शै पे राज

आदमी को चाहिए

वक्त से डर कर रहे

कौन जाने किस घड़ी

वक्त का बदले मिज़ाज!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 13 – संस्मरण # 7 – गटरू ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 13 – संस्मरण # 7 – गटरू ?

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी हम सपरिवार वैष्णो माता का दर्शन करने के लिए पुणे से जम्मू के लिए रवाना हुए।

दीवाली का मौसम था बच्चों की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी और तीन सप्ताह की छुट् टियाँ थीं। इस बार यह तय हुआ था कि माता वैष्णो का दर्शन कर हम दीवाली वहीं पर मनाएँगे और उसके बाद लौटते समय दिल्ली में उतर कर आगरा, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि जगह बच्चों को दिखाएँगे। बच्चों के मन में भी बहुत उत्साह था कि हम पंद्रह दिन के लिए बाहर जा रहे थे।

दीपावली से पहले घर की उन्होंने बड़े उत्साह से साफ़- सफ़ाई की। अपनी -अपनी अलमारियों की, पुस्तकों के मेज़ों की सबकी सफ़ाई हुई और दीवाली से तीन दिन पहले हम लोग जम्मू के लिए रवाना हुए।

इससे पहले पुणे से जाने के लिए दिल्ली में गाड़ी बदलने की आवश्यकता होती थी। पर अब कुछ वर्षों से तो दो रात की यात्रा करके जम्मू तवी झेलम एक्सप्रेस द्वारा सीधे जम्मू पहुँचने की सुविधा थी। बच्चे साथ में थे इसलिए आवश्यकता से अधिक भोजन सामग्री साथ लेकर चले थे। दो रातें तो अच्छी तरह से हँस- खेलकर बीत गई पर तीसरे दिन सुबह हमें जम्मू पहुँचना था उस दिन ट्रेन 8 घंटे विलंब से चलने लगी। बच्चे अब ऊब चुके थे और थक भी चुके थे। हमें जम्मू प्लेटफार्म पर पहुँचते-पहुँचते शाम के 6:30 बज गए जबकि यह ट्रेन सुबह के 10:30 बजे जम्मू पहुँचती है। जम्मू शहर से 40 किलोमीटर की दूरी पर कटरा नामक एक छोटा – सा शहर है इसी शहर तक पहुँचने पर यात्री माता वैष्णोजी का दर्शन करने के लिए ऊपर पहाड़ पर जा सकते हैं।

हम सब गाड़ी से प्लेटफॉर्म पर उतरे तो प्लेटफॉर्म पर तिल धरने को जगह न थी। मानो बड़ी संख्या में यात्री दर्शन करने के लिए आए हुए थे। हमारी ट्रेन से तो अधिकतर लोग दिल्ली, जालंधर और पठानकोट में ही उतर गए क्योंकि दीवाली के शुभ अवसर पर उत्तर भारत के अधिकांश लोग अपने घर- परिवार के साथ ही इस उत्सव को मनाना पसंद करते हैं। इसलिए गाड़ी खाली ही थी। दो चार यात्री हमारे ही जैसे थे जो माता का दर्शन करने के लिए प्लेटफार्म पर उतरे। कुछ लोकल थे, त्योहार मनाने घर जा रहे थे।

ठंडी का मौसम था और साथ ही पहाड़ी इलाका, इसलिए हम सभी काफ़ी गर्म कपड़े लेकर ही चले थे जिस कारण चार सदस्यों के चार सूटकेस, हरेक का एक हैंडबैग और भोजन का बड़ा बैग अलग से।

कुछ देर तक हम सब प्लेटफॉर्म पर खड़े रहे पर एक भी कुली नज़र न आया। इधर – उधर नज़र दौड़ाते रहे। अचानक एक बीस – बाईस साल का नवयुवक हमारे सामने आकर खड़ा हो गया। वेशभूषा से वह कोई कुली तो नज़र ना आ रहा था क्योंकि उसकी कमीज़ भी उसके शारीरिक ढाँचे से बड़ी थी मानो किसी बड़े मोटे और ऊँचे कदवाले व्यक्ति से माँगकर पहन रखी थी। वह पास आकर बोला, ” माताजी सामान चक ल्या?” अर्थात माता जी क्या मैं सामान उठा लूँ।

उसकी ओर देखने पर ऐसा लगा कि उसने शायद कभी पहले कुली का काम किया ही न था। उसके शरीर पर लाल कुली की कमीज तो थी पर कुलियों के हाथ पर जो बिल्ला होता है, पीतल का बना हुआ, जिस पर उनकी पंजीकरण संख्या लिखी हुई होती है, वह उसके पास नहीं था। पर उस वक्त हमारे पास और कोई उपाय भी नहीं था। सामान तो अधिक थे ही, बच्चे ट्रेन में बैठे – बैठे अब थक चुके थे। रात गहरा रही थी। ठंड के मौसम में अंधेरा भी जल्दी ही छाने लगता है। ठंडी भी बढ़ रही थी। आगे यात्रा अभी बाकी थी।

मैंने उसे सामान उठाने के लिए कहा। सबसे बड़ी – सी जो अटैची थी उसने उसे उठाकर जब अपने सिर पर रखा तो उसका सारा शरीर कुछ पल के लिए डगमगा उठा। यह देखकर ही मेरा संदेह दूर हो गया कि उस नौजवान को कुलीगिरी करने की आदत नहीं थी। पर उस वक्त हमारे पास और कोई दूसरा चारा भी ना था। अब बाकी छोटे-मोटे सामान मैंने उठा लिए कुछ पति महोदय ने उठा लिया और उससे भी छोटे जो सामान थे वे बच्चों के हाथ में थमा दिए। बच्चों से कहा कि वे कुली के साथ ही चलें। एग्ज़िट गेट से वह निकल गया और उसके पीछे- पीछे बच्चे दौड़ते रहे। सामान लेकर चलते हुए हम बीच-बीच में इससे -उससे टकराते रहे। बच्चों ने उससे अपनी नज़र न चूकने दी। और सामान हाथ में लेकर मैं और मेरे पति भी भीड़ में से संभलते हुए बाहर निकले।

बाहर भी यात्रियों की बहुत बड़ी भीड़ थी थोड़ी देर के लिए तो मेरा दिल धड़क उठा यह सोचकर कि यदि प्लेटफार्म पर इतनी बड़ी भीड़ है, स्टेशन के बाहर भी इतनी लंबी – चौड़ी भीड़ है तो माता के मंदिर में न जाने कितनी भीड़ होगी ? और न जाने कितने घंटे दर्शन के लिए खड़ा रहना पड़ेगा! स्टेशन के बाहर सीढ़ियाँ उतरकर बाईं ओर मुड़ते ही टैक्सी स्टैंड है। हम सब सामान लेकर वहाँ पहुँचे। लंबी डगें भरते हुए पति महोदय टैक्सी की खोज में निकले।

सारा सामान नीचे रखा गया और बच्चे उस पर बैठ गए। ठंडी हवा चल रही थी तो बच्चे और भी सिकुड़ गए। मैंने जिज्ञासावश उससे बातचीत शुरू कर दी।

– क्यों बेटा ऊपर बहुत भीड़ है क्या ?

– ना जी न सारे बापस जान लगे जी! क्या है के जी दवाली दा मौसम है लोकी, अपणे कार विच रैणा पसंद करदे हन।

– तो फिर अभी इतनी भीड़ क्यों है यहाँ?

– जी जे लोकी आए सन वो सारे बापस जान रै सन।

-अच्छा तो इस भीड़ में जानेवाले ज्यादा हैं, आनेवाले कम।

-जी हाँ। जी हाँ।

-बच्चे, तुम्हारा नाम क्या है?

-जी गटरू

अच्छा तुमने इससे पहले कुली का काम कभी किया है गटरू?

-जी वैसे नई करदा पर हूण करण लग्या।

-क्यों ?

– जी इक माह बाद साडी पैण दा ब्याह है- –

– अच्छा! कहाँ के रहनेवाले हो गटरू

– जी पठाणकोट दा

बातचीत के सिलसिले से पता चला कि गटरू के पिता को खेत में काम करते हुए साँप ने काटा था। समय पर अस्पताल ना पहुँचाए जाने के कारण उनकी मौत हो गई थी। इस घटना को अब दो वर्ष बीत चुके थे। थोड़ी खेती होती है, उसी से उनका गुज़ारा होता है। अब बहन की शादी में बड़ा खर्च है तो जम्मू रेलवे स्टेशन पर कुछ महीना भर काम करके वह चार पैसे जोड़ लेगा। दशहरे से दीवाली तक माता का दर्शन करने के लिए बड़ी संख्या में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से लोग आते हैं। उस भीड़ को संभालने के लिए वहाँ की जो उपस्थित कुलियों की संख्या है वह कम पड़ती है।

गटरू के गाँव का कोई आदमी जम्मू स्टेशन पर कुली था। उसीके सहारे वह भी यहाँ आकर अपनी तकदीर आज़मा रहा था। पंद्रह -बीस दिनों तक काम करके जो कमा लेगा वही रकम उसकी बहन की शादी में काम आएगा। उसके घर में उसकी बहन के अलावा दो छोटी बहनें और भी थीं। वे अभी स्कूल में पढ़ रही थीं।

गटरू बड़ा उत्साही, चपल, मेहनती लड़का था। उसकी आँखों में भोलेपन की तरलता थी गोरा रंग जो मेहनत – मजदूरी के कारण और कुपोषण के कारण थोड़ा काला – सा पड़ गया था। वह कमजोर भी दिखता था। आँखों के नीचे गड् ढे – से पड़ गए थे। पर फिर भी आँखें बहुत कुछ बोलती थीं।

इतने में कटरा जाने के लिए टैक्सी मिल गई हम लोगों ने तुरंत टैक्सी में छोटा- मोटा सामान रखना प्रारंभ किया। गटरू ने बड़े उत्साह के साथ कुछ सामान टैक्सी के ऊपर के कैरियर में रखकर रस्सी बाँधने में ड्राइवर की सहायता की। उसका हँसमुख वदन और सदैव सहायता करने की तत्परता ने मुझे उसकी मासूमियत की ओर आकर्षित किया। मैं मन ही मन उसके परिश्रम करने की क्षमता की प्रशंसा करती रही।

गटरू के हाथ में मैंने ₹60 रखे उस जमाने में ₹60 बहुत होते थे। हम चल पड़े उसने हमसे नमस्ते कहा। सभी सामान उठाकर वह स्टेशन से नीचे ले आया था और हमारे साथ तब तक खड़ा था जब तक हम रवाना न हुए। उसकी यह जिम्मेदारी वहन करने के भाव को देख मन प्रसन्न हो रहा था।

हम कटरा पहुँचे। देर रात को ही नहा धोकर मंदिर जाने के लिए रात के 10 बजे रवाना हुए बच्चे थके तो थे पर मंदिर जाने का उत्साह उनके मन में जोश भरने में सफल हुआ। माता का मंदिर रात भर खुला रहता है लोग रात भर चलते हुए, उतरते हुए दिखाई देते हैं। अब तो मंदिर जाने के लिए कई व्यवस्थाएँ भी हो गई थीं। घोड़े, पालकी यहाँ तक कि हेलीकॉप्टर और बैटरी वाली गाड़ियाँ भी थीं।

हम लोगों ने अपनी यात्रा शुरू की। मंदिर जाने के लिए जहाँ से यात्रा शुरू करते हैं वहाँ से पहाड़ की चोटी तक जहाँ मुख्य गर्भ गृह स्थित है 14 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है।

जिस स्थान से यात्रा प्रारंभ होती है उसे बाणगंगा कहते हैं। अधकुंवारी, हाथी मत्था होते हुए इस 14 किलोमीटर की यात्रा हमने 6 घंटे में पूरी की। अधकुँवारी में बहुत बड़ी भीड़ होती है क्योंकि एक छोटी सी गुफा के भीतर से सबको बाहर गुजरकर निकलना पड़ता है जिस कारण वहाँ थोड़ा ज्यादा समय लगता है।

माता के मंदिर के ऊपर भी एक और मंदिर है। यह उस राक्षस का मंदिर है जो माता का पीछा करते हुए इस स्थान तक आया था। उसका नाम है भैरवनाथ। भैरवनाथ का मंदिर माता के मंदिर से और ऊपर चढ़कर है। उसका दर्शन करने के लिए भी कई लोग जाते हैं। उस रास्ते की यात्रा बहुत कठिन यात्रा है।

दीपावली की रात हम ऊपर मंदिर में ही रहे दीपावली का त्यौहार था इसलिए मंदिर में भीड़ नहीं थी। हमें बड़ी आसानी से माता का दर्शन मिला। गुफा के भीतर तीन पिंडों के रूप में माता सरस्वती, माता काली और माता वैष्णो के दर्शन हुए। यहाँ किसी देवी की मूर्ति नहीं है। केवल तीन पिंडियाँ हैं। हम सब बड़े खुश थे क्योंकि हमें ज्यादा भीड़ का सामना नहीं करना पड़ा था।

हम लोग दूसरे दिन सुबह जब नीचे उतरने लगे तो हमें रास्ते में गटरू मिला। उसे देखकर हमें आश्चर्य हुआ। दो क्षण रुक कर हमने उससे पूछ ही लिया कि वह माता के मंदिर के रास्ते पर क्या कर रहा था तो उसने बताया कि ट्रेनें खाली आ रही थी इसलिए वह मंदिर में एक-दो दिन लोगों का सामान उठाकर ऊपर ले जाने का काम करने जा रहा था। ऐसे लोगों को वहाँ पिट्ठू कहते हैं। पिट्ठू के रूप में गटरू किसी परिवार के यात्रियों के साथ चल रहा था। उसने उनके सामान उठाए हुए थे और साथ में एक छोटे बच्चे को पीठ पर बाँधे रखा था।

कटरा में ही बस स्टॉप के पास एक साधारण होटल में हमने अपनी बुकिंग कर रखी थी और सामान भी वहीं छोड़ रखा था। नीचे उतरते ही साथ हम सब उसी होटल में लौट गए। गरम गरम पानी से नहाने पर थकावट भी दूर होती है। थोड़ा कुछ खा – पीकर बच्चे और हम सभी सो गए।

दीवाली के तीसरे दिन हम लोग जम्मू के लिए रवाना हुए। हमारी गाड़ी रात को 9:45 बजे थी। हम सब स्टेशन के पास अभी टैक्सी से उतरे ही थे कि गटरू नज़र आया। संयोग की बात थी कि वह भी पहाड़ से नीचे उतर आया था और कुली का काम कर रहा था।

हमें देखते ही वह पास आकर खड़ा हो गया। पास आकर गाड़ी का नाम उसने हमसे पूछा और बोला अभी 2 घंटे हैं गाड़ी को जाने में। वह हमारा सामान टैक्सी से उतारकर प्लेटफार्म नंबर एक पर ले आया। जहाँ हमारा रिजर्व डिब्बे के आने की संभावना थी उसने ठीक उसी के सामने हमारा सारा सामान लाकर रख दिया। मैंने पैसे देने चाहे उसने कहा “पैले आपको सीट पर मैं बिठांगा ओस ते वाद पैहे ले ल्यांगा। “

गटरू का चेहरा, लोगों पर उसका विश्वास और उसके चेहरे पर फैला भोलापन न जाने क्यों हम सब को बहुत अच्छा लगा था।

प्लेटफार्म नंबर एक के और प्लेटफार्म नंबर 2 के बीच तीन और ट्रैकें थीं। बीच में जो तीन ट्रैकें थी वह जम्मू स्टेशन पर न रुकने वाली गाड़ियों के लिए थीं। कई बार माल गाड़ियाँ बिना रुके इन्हीं ट्रैकों पर से द्रुत गति से निकलती हैं। प्लेटफार्म नंबर एक की ट्रैक अभी खाली थी। इसी ट्रैक पर हमारी रेल गाड़ी आने वाली थी।

प्लेटफार्म नंबर दो पर एक ट्रेन के आने की सूचना दी गई और इन दोनों ट्रकों के बीच के ट्रक पर कुछ दूरी पर एक खाली मालगाड़ी खड़ी थी। जब दोबारा प्लेटफॉर्म क्रमांक 2 पर अजमेर जाने वाली गाड़ी की सूचना मिली। गटरू हमारा सामान रखते ही तुरंत प्लेटफार्म से नीचे उतरने को तत्पर हुआ। मैंने पर्स में से निकालकर पैसे उसकी तरफ बढ़ाए तो उसने कहा अभी टाइम है वह ले लेगा।

एक से दूसरे प्लेटफार्म तक जाने के लिए अधिकतर बड़े शहरों के स्टेशनों पर ओवरब्रिज बने हुए होते हैं। पर गटरू को बहुत जल्दी थी और वह जल्द से जल्द दूसरे प्लेटफार्म पर पहुँचना चाहता था। चूँकि वहाँ पर सूचना दे दी गई थी कि वहाँ से अजमेर जाने वाली गाड़ी आ रही थी तो वह अति शीघ्रता में था। वैसे भी कुली काफी सतर्क होते हैं और नियमित रूप से इसी तरह एक से दूसरे ट्रैक पर बिना सामान के आते – जाते रहते हैं ताकि दोनों प्लेटफार्म पर आसानी से वे कुली का काम कर सकें और अधिक धनराशि कमा सकें।

रेलगाड़ियों के आने-जाने के समय सभी कुली काफी सतर्क होते हैं। एक प्लेटफार्म से दूसरे प्लेटफार्म पर बड़ी चपलता से चढ़ भी जाते हैं।

गटरू एक नंबर प्लैटफॉर्म से उतरकर एक खाली ट्रैक पार कर दूसरे ट्रैक पर खड़ा हो गया। उसकी एक टाँग ट्रैक के अभी भीतर थी और दूसरी बाहर। इतने में प्लेटफार्म नंबर दो पर अजमेर जाने वाली गाड़ी आने लगी। वह रुक गया। जो गाड़ी आई थी वह अभी गति से ही चल रही थी।

सामान बेचने वालों की, यात्रियों की चहल-पहल थी। इधर प्लेटफार्म नंबर एक पर खड़े लोग अचानक ज़ोर से चिल्लाने लगे – ए छोकरे हट ओए! सुनाई नहीं दे॔दा? ओए हट न! पर पटरियों पर खड़े गटरू को किसी की भी आवाज सुनाई नहीं दी। हमारा ध्यान जब लोगों की चीख-पुकार की ओर गई तो ध्यान देने पर देखा दो खाली पटरियों के बीच जो एक और पटरी थी जिस पर एक खाली मालगाड़ी काफी समय से खड़ी थी, वह बिना किसी सिग्नल के और आवाज़ के धीरे- धीरे पीछे की ओर शंटिंग करने लगी। गटरू को ही सब हटने को कह रहे थे। जब तक हम सबका ध्यान गया और हमने गटरू को नाम लेकर पुकारना शुरू किया तब तक खाली गाड़ी के पिछले हिस्से से एक धक्का लगने के कारण वह पटरी पर गिर पड़ा। यद् यपि रेलगाड़ी की गति बहुत धीमी थी पर थे तो लोहे के पहिए। उसकी एक टाँग हमारे देखते ही देखते कट गई। वह दूसरी टाँग समेत अपने शरीर को ऊपर से हटाने के प्रयास में अभी था ही कि रेलगाड़ी के दूसरे डिब्बे का पहिया उसके ऊपर से गुज़र गया। थोड़ी दूर जाकर गाड़ी रुक गई। सब तरफ एक भारी चुप्पी छा गई। सारे लोग भीड़ करके उसी जगह पर जमा हो गए जहाँ से वे झुककर पटरी पर पड़े गटरू को देख पा रहे थे। कुछ जवान लड़के जो दुकान चलाते थे वे सब गटरू के पास पहुँच गए। गटरू बेहोश बेजान सा खून में लथपथ पड़ा था।

रेलगाड़ी के ड्राइवर को जब तक समाचार मिला और उसने गाड़ी रोकी तब तक गटरू का धड़ दो टुकड़ों में बँट चुका था।

हमारे बच्चे रोने लगे। मेरे हाथ में उसे देने वाले जो नोट थे वे इस तरह हाथ की मुट्ठी में भींच गए कि मेरे ही नाखून मेरी हथेली में गड़ गए। प्लेटफार्म अचानक श्मशान जैसा शांत हो गया। स्थायी दुकानवाले, चायवाले, पूड़ी तरकारी बेचनेवाले सब स्तंभित थे।

कुछ समय के बाद फिर सब सामान्य हो गया। पुलिस वहाँ पहुँची, एंबुलेंस आई स्ट्रेचर पर गुटरू के शरीर के दो हिस्से, टूटी हुई बेजान टाँगे रखी गईं और अस्पताल ले जाया गया। वह तो बिचारा बेहोश पड़ा था।

सभी लोग इसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। यात्री, अन्य दुकानवाले सभी, पर हमारा परिवार बिल्कुल चुप्पी साधे खड़ा था। बच्चे थोड़ी देर तक ज़ोर से गटरू, गटरू कहकर अपने पापा से और मुझसे चिपकाकर रोने लगे। संभवतः गटरू के साथ हमारा क्या संबंध था यह बात आस- पास खड़े लोग न समझे होंगे। पर बच्चों को इस दुर्घटना ने हिला दिया था।

हम दोनों की आँखें हमारे साथ लिपटे हुए बच्चों के साथ चुपचाप बरसती ही रही।

थोड़ी देर में हमारी भी गाड़ी आई और हमने अपना सामान जगह पर रखा। रात का समय था बच्चे सामान रख कर चुपचाप अपनी सीटों पर काँच की बंद खिड़की के उस पार देखते हुए आँसू बहाते रहे जिस ओर गटरू दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। गाड़ी चल पड़ी पर हम एक दूसरे से कुछ ना बोले जब भी बच्चों से मेरी आँखें चार होती तो लगता कि बच्चे मुझसे पूछ रहे थे मम्मा जिंदा रहेगा न गटरू? उसके घर वालों को क्या पता कि बहन की शादी के लिए पैसा कमाने के लिए आया हुआ अनुभवशून्य भाई जो अपनी नींद, भूख, प्यास सब भूलकर सिर्फ एक ही धुन में लगा था आज मौत से लड़ रहा था।

ट्रेन में उपस्थित सभी यात्री देर रात तक इसी विषय पर चर्चा करते रहे। दूसरे दिन सुबह हम दिल्ली पहुँचे। यहाँ से हमारी दूसरी यात्रा शुरू होने वाली थी। बच्चों का हृदय अभी भी पिछली रात की घटना से प्रभावित था। हम दिल्ली स्टेशन पर उतरे। वहीं पर नाश्ता करने बैठे तो बच्चों ने कुछ खाने से इंकार कर दिया। हम समझ रहे थे कि अपने जीवन में इस छोटी सी उम्र में ऐसी घटना देखकर उनका दिल भी दर्द से भर उठा होगा। अब आगे घूमने जाने का उनका पूरा उत्साह ही ठंडा पड़ गया था।

मैं अपने आप से सवाल कर रही थी इस दुनिया में गटरू जैसे कितने ही लोग होंगे जो कम उम्र में छोटा जीवन लेकर आते हैं और अपनी कुछ खासियत के कारण हमेशा दूसरों के दिल में बसे रहते हैं। गटरू इस कहानी के रूप में हमारे हृदय में बसा रहेगा। उसकी मधुर मुस्कान, उसका भोला चेहरा, उसकी बोलती आँखें सदैव हमारे हृदय में बसा रहेगा फिर जीवन तो अपनी जगह है उसका काम है चलते रहना किसी ने ठीक ही कहा है शो मस्ट गो ऑन!

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारीके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆

☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

देश के स्वतंत्रता संग्राम में महाकौशल क्षेत्र का विशेष महत्व रहा है जिसमें अंग्रेज सरकार की रीति – नीति विरोधी उग्र जनसभाओं, प्रदर्शनों के साथ – साथ सम्पूर्ण क्षेत्र में देशभक्ति की वैचारिक लहर का प्रवाह निरंतर बनाए रखने में जबलपुर का योगदान अभूतपूर्व था। जबलपुर के उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में जिन्होंने मैदानी आंदोलनों के साथ ही अपने देशभक्ति पूर्ण साहित्य सृजन से आम आदमी को आंदोलन से जोड़ने का काम किया उनमें सेठ गोविन्द दास एवं सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ ही पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी का नाम प्रमुखता से शामिल है जिन्हें लोग सम्मान से “गोविंदगुरु” कहते थे। एक गीत में उनके तेवर देखिए –

“नवयुग की वह क्रांति चाहिए !

जो साम्राज्यों पर मानव की विजय गुंजाए।

उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं था। वे अपनी किशोरावस्था में ही अपने देश को गुलाम बनाने वाली सत्ता के खिलाफ खड़े हो गए थे। उनके आत्म कथ्य के अनुसार –

जब मैं कक्षा आठवीं का छात्र था तभी स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा लेकर उसकी क्रांतिकारी गतिविधियों की एक किशोर इकाई बन गया था। मैंने मई सन 1931 में सिहोरा जाकर सर्वप्रथम सत्याग्रह में भाग लिया। अध्यक्ष थे एड. पं. लल्लू लाल मिश्रा। मैंने और मेरे मित्र जबलपुर के श्री हरगोविंद व्यास ने “भारत में अंग्रेजी राज्य” जप्तशुदा साहित्य पढ़कर ब्रिटिश हुकूमत का कानून तोड़ा। पं. मिश्रा उसी रात गिरफ्तार करके जबलपुर जेल भेज दिए गए और कम उम्र होने के कारण हम दोनों मित्रों को थाने ले जाकर बेतों से पीटा गया और हिरन नदी के उस पार जबलपुर रोड पर छोड़ दिया गया।

पं. गोविंदगुरु के कथन अनुसार – “मैं उन दिनों की बहुचर्चित एवं लोकप्रिय “राष्ट्रीय बालचर संस्था”, “नेशनल ब्वायज स्काउट्स” का एक संस्थापक सदस्य रहा हूं। हरिजन आंदोलन में गांधी जी के मध्यप्रदेश दौरे के समय मैंने जबलपुर और फिर करेली जाकर बालचर के रूप में सेवाएं दी हैं तथा त्रिपुरी कांग्रेस के समय भी मैं एक स्वयं सेवक के रूप में सेवारत रहा हूं। व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय मुझे अप्रैल 1941 में दो माह का सश्रम कारावास दिया गया और मैं नागपुर जेल भेज दिया गया।”

भारत छोड़ो आंदोलन में 9 अगस्त 1942 को पं. गोविंद प्रसाद तिवारी के सभी वरिष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी साथी गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए थे और नगर में स्वतंत्रता संग्राम के संचालन का भार उनके कंधों पर आ गया जिसे उन्होंने वीरांगना सुभद्रा कुमारी चौहान के मार्गदर्शन में संचालित किया। 12 अगस्त को सुबह सुभद्रा जी गिरफ्तार कर ली गईं और आधी रात को पं. गोविंदगुरु को भी गिरफ्तार कर जबलपुर जेल भेज दिया गया जहां उन्हें डेढ़ वर्ष तक कारावास की सजा भोगना पड़ी।

जेल से वापस आने के बाद उन्होंने एक निजी शाला में शिक्षक के रूप में कार्य प्रारम्भ कर दिया और स्वतंत्रता के बाद अपना पूरा जीवन शिक्षा, साहित्य और समाज को समर्पित कर दिया। वे देश की प्रगित के लिए जितना आवश्यक नव – निर्माणों को मानते थे उतना ही आवश्यक नागरिकों के आर्थिक उन्नयन और व्यक्तित्व के विकास को भी मानते थे।

उल्लेखनीय है कि 1960 में जब आचार्य विनोबा जी का जबलपुर में आगमन होना तय हुआ और उनके रहने संबंधी व्यवस्था पर विचार – विमर्श हुआ तब गोविंदगुरु ने उन्हें राइट टाउन मैदान में घास और बांस की कुटी बनाकर उसमें ठहराने का प्रस्ताव रखा जिसे सर्वमान्य किया गया और विनोबा जी व उनके दो सचिवों के लिए तिवारी जी के नेतृत्व में सुंदर कुटियों और एक उद्यान का निर्माण कराया गया। अपनी इस आवास व्यवस्था को देख कर विनोबा जी प्रफुल्लित हो उठे। उन्होंने इसकी तुलना पंचवटी में सीता – राम की पर्ण कुटी से की। इसी प्रवास में विनोबा जी ने जबलपुर को “संस्कारधानी” कहा।

गोविंदगुरु जिस शाला में शिक्षक थे उसके उद्यान में उन्होंने 20×20 फुट के क्षेत्र में सीमेंट से बना भारत का नक्शा कुछ इस तरह बनवाया जिसमें सारे प्रमुख पर्वत, नदियां और झीलें बनी थीं। उत्तर दिशा में पानी छोड़ने की व्यवस्था थी जहां से नदियों के उद्गम स्थल तक सुराख थे, जब पानी छोड़ा जाता सभी नदियां प्रवाहित होने लगातीं, झीलें भर जातीं। नक्शा देखने मात्र से विद्यार्थियों को भारत की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान हो जाता। उन्होंने अपने विद्यार्थियों को जीवन में कर्म और सादगी का महत्व बताया।

उनके द्वारा रचित प्रकाशित कृतियों में प्रमुख हैं – गांधी गीत (गीत संग्रह), तरुणाई के बोल, अभियान गीत, विश्व शांति के साम गान, भावांजलि (सभी काव्य संग्रह), वीरांगना दुर्गावती (खंड काव्य), रक्ताभ भोर (किशोर काव्य संग्रह) एवम सीमा के प्रहरी।

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई उनके विषय में कहते हैं – “स्व. गोविंद प्रसाद तिवारी जिन्हें हम “गोविंदगुरु” कहते थे हमारी साहित्यिक पीढ़ी के अग्रज थे। मुझ जैसे रचनाकारों को उनका स्नेह और प्रोत्साहन प्राप्त था। वे निश्छल और भावुक व्यक्ति थे।”

ख्यातिलब्ध कवि रामेश्वर शुक्ल “अंचल” कहते हैं – “हम लोगों के “गोविंदगुरु” कवि और मनुष्य दोनों रूपों में श्रेष्ठ और प्यार की वस्तु हैं। कवि का ओज और माधुर्य दोनों गुणों पर उनका समान अधिकार है।

“गीतांजलि” के अनुगायक पद्मभूषण पं. भवानी प्रसाद तिवारी उनकी कविताओं पर अपना अभिमत देते हुए कहते हैं – “कवि के मन में जिस क्रांति की पदचाप मुखरित हो चुकी है वह साम्राज्यवाद के ध्वंस के लिए गति ग्रहण करती है।

समाज में व्याप्त भूख, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, शोषण, हिंसा, सांप्रदायिकता आदि को देखकर वे न सिर्फ तड़प उठते थे वरन उसका पूरी शक्ति से विरोध करते हुए समाधान भी सुझाते थे। मेरे पिताश्री स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव “गोविंदगुरु” के प्रिय साहित्यिक मित्रों में शामिल थे। मैं उन्हें चाचा कहता था, मेरा सौभाग्य है कि मुझे इतने सहज, सरल, विद्वान देश भक्त का पितृ तुल्य स्नेह और आशीर्वाद मिला। उन्हें सादर श्रद्धांजलि।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-20 – कुमार विकल मैं बहुत उदास हूँ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -20 – कुमार विकल मैं बहुत उदास हूँ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

जब जालंधर की यादें लिखनी शुरू की थीं, तब लगता था कि दो चार दिन लिखकर आपसे विदा ले लूंगा लेकिन यादें जालंधर से चलती हुईं मुझे न जाने कौन कौन से देश में लिए जा रही हैं !  थोड़ा सा चंडीगढ़ की ओर भी आ निकला हूँ तो प्रसिद्ध कवि कुमार विकल और पत्रकार निरूपमा दत्त को एक साथ याद कर रहा हूँ क्योंकि जब कुछ समय के लिए निरूपमा दत्त दिल्ली पत्रकारिता के लिए चली गयी थीं तब कुमार विकल ने एक कविता लिखी थी :

निरूपमा दत्त !

मैं बहुत उदास हूँ

तुम चाहे यहाँ से चली गयी हो

लेकिन मैं तुम्हारे आसपास हूँ !

इस तरह इन दोनों को एक साथ ही याद कर रहा हूँ ! वैसे यह अकेलापन या प्रेम सिर्फ कविता तक ही सीमित है न कि कुमार विकल या निरूपमा दत्त किसी और तरह जुड़े रहे । निरूपमा दत्त ने कुमार विकल की कविताओं की निरंतर चर्चा कर उनकी प्रतिभा की ओर आकर्षित किया और‌ यही एक अच्छे पत्रकार का काम भी है और होना भी चाहिए ! यह भी सच है कि कुमार विकल की कविताओं या प्रतिभा को किसी सहारे की जरूरत नहीं थी । साम्प्रदायिक दंगों पर लिखी कविता की याद आ रही हैं कुछ पंक्तियाँ :

यह जो सड़क पर बहता खून है

इसे सूंघ कर बताओ

यह किसका है?

यानी सबके खून का रग एक जैसा ही है, फिर इसे आप हिंदू या मुस्लिम में कैसे बांट रहे हो?

साइकिल से गिरे

मज़दूर के बिखरे डिब्बे की रोटी

खून से लाल है गयी है

कुछ ऐसी पंक्तियां भी रही हैं जो मेहनतकश की ओर ध्यान खींचती हैं !

यह सिर्फ एक बानगी भर है , कुमार विकल की कविताओं की लेकिन कुछेक लोग इनकी शराब पीने की बात उठा कर इनकी कविताओं और व्यक्तित्व को कम करने की कोशिश करते हैं, जो कभी सफल नही हुए और न ही इनका लेखन कभी इनको सफल होने देगा ! यह यक्ष प्रश्न जरूर है‌ कि कुमार विकल‌ के बाद फिर पंजाब या चंडीगढ़ का कोई कवि इतनी ऊंचाई को क्यों नहीं छू पाया?

ऐसे ही किस्से पंजाबी के प्रसिद्ध कवि शिव कुमार बटालवी के बारे में चर्चित हैं लेकिन उनके गीत आज भी बड़े लोकप्रिय हैं और ऐसे ही उन्हें विरह का सुल्तान नहीं कहा जाता है!

खैर, कुमार विकल पंजाब विश्वविद्यालय के प्रकाशन विभाग में काम करते थे और यदि इनसे कोई हिंदी के प्रसिद्ध कवि धूमिल से कम आंके तो यह नादानी होगी ।

अब  रही बात निरूपमा दत्त की तो वे पत्रकार के साथ साथ एक्टिविस्ट हैं और आधी दुनिया की आवाज़ बड़े ज़ोर शोर से उठाती आ रही हैं । मैं इन्हें चंडीगढ़ आने से पहले से जानता था और चंडीगढ़ आकर और ज्यादा जाना ! एकदम खुली किताब जैसी ज़िंदगी और खुला व्यक्तित्व ! इन्होंने एक किताब पंजाबी में प्रकाशित की थी, जो मुम्बई की किसी महिला वकील की सच्ची कथा पर आधारित थी और उसका एक वाक्य नहीं भूलता कि मेरा पति मुझे बुरी तरह मारता था । उसकी मार से मिले ज़ख्म तो कुछ दिन बाद भर जाते और भूल जाते पर आत्मा से उनके निशान कभी न जाते! निरूपमा दत्त बहुत अच्छी कवयित्री भी हैं और एक्टिविस्ट तो हैं ही! निरूपमा दत्त ने एक बार इंडियन एक्सप्रेस के अपने काॅलम में मेरे बारे में लिखा था- गुडमैन द लालटेन! यह सर्टिफिकेट की तरह आज भी मेरी फाइलों में से कभी कभी झांक जाता है ! निरूपमा दत्त के खिलंदड़दने की एक रोचक याद है । ‌उस दिन मेरे मित्र रमेंद्र‌ जाखू के काव्य संग्रह पर पंजाब विश्वविद्यालय के आईसीसीएसआर के सभागार में विचार गोष्ठी थी और मैं और‌ निरूपमा सबसे पीछे बैठे थे। निरूपमा दत्त अपने स्वभाव के अनुसार सुन रही थी दत्तचित्त होकर । गोष्ठी खत्म हुई। ‌हम अपने अपने अखबार के दफ्तर भागे । दफ्तर में रमेंद्र का फोन आया कि यार, किसी तरह निरूपमा को रोक लो, वह मेरे बारे में पता नहीं क्या लिख दे । मैंने कहा कि आप आ जाओ, आपको निरूपमा के घर ले चलता हूँ और ऐसा ही हुआ। हम निरूपमा के सेक्टर आठ स्थित घर पहुंचे और निरूपमा को मैंने कहा कि मेरी दोस्ती दोनों से है। रमेंद्र को जो लग रहा है कि आप अच्छा नहीं लिखने जा रही तो इतना ही करो कि कुछ भी न लिखो। यह मित्र इसी में खुश है। ‌निरूपमा ने हमें उस बरसात में ही बढ़िया चाय पिलाई और‌ हंसते हंसते विदा किया। रिपोर्ट से जाखू गद्गद्‌ हो गये!

निरूपमा में दूसरों की प्रशंसा करने और कवरेज की सराहना करने का बहुत बड़ा गुण है, जो सीखने लायक है। मैंने प्रयाग शुक्ल के दामाद सिद्धार्थ की कला प्रदर्शनी पर राइट अप लिखा जो निरूपमा दत्त को बहुत पसंद आया और उसने मुझे फोन पर बधाई दी ! यह गुण सीखने की बात है । वह आज भी अपने अंदाज में जी रही है, कोई और महिला पत्रकार चाह कर भी वैसी ऊंचाई को छू नहीं पाई !

ज्यादा न कह कर इतना ही कहूँगा कि मेरी बात को महसूस कर रहे होंगे कि निरूपमा जैसी होना बहुत मुश्किल है!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 12 – संस्मरण # 6 – खूँटी ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण –  खूँटी)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 12 – संस्मरण # 6 – खूँटी ?

पुराने ज़माने में दीवारों पर या दरवाज़े के पीछे खूँटियाँ लगी होती थीं। इन खूटियों पर कचहरी के कोट, दादाजी की लाठी, चाचाजी का हैट, ताऊजी की छेत्री टँगी रहती थी।

समय के साथ – साथ आधुनिक काल में ये खूटियाँ गायब हो गईं पर जिंदगी तो न जाने समय -समय पर कितने ही प्रकार की खूँटियों से बँधी ही होती है। ये खूँटियाँ न दिखती हैं न कभी हमारा उनकी ओर ध्यान ही जाता है। मगर हम उससे बँधे अवश्य रहते हैं। हर उम्र में ये सुखद अनुभूति दे जाती हैं।

स्त्री हो या पुरुष सभी को अपने जीवन में इन मायाजाल की खूँटियों से बँधना ही पड़ता है।

शैशव  में अपनी मर्ज़ी के सब मालिक होते हैं। ज़िद करते ही इर्द-गिर्द उपस्थित सभी लोग व्यस्त से हो जाते हैं। यह जीवन का वह दौर होता है जब शिशु अपनी हर बात रोकर मनवा लेता है। वह घर के सभी सदस्यों के लिए मनोरंजन का केंद्र होता है। लाड़ -प्यार घर के हर कोने से उँडेलकर उसे दिया जाता है।

जब तक बालक -बालिका बन जाते हैं तो रोना कम हो जाता है और अपनी बात मनवाने का तरीका भी बदल लेते हैं। वे अब रूठने की कला सीख जाते हैं। वे अब भी घर के सदस्यों के लिए आकर्षण का केंद्र होते हैं।

किशोरावस्था के आते -आते किशोर -किशोरियों का घर में कम और बाहर अधिक समय व्यतीत होने लगता है। मित्रों और सखियों का एक समूह जुट जाता है। समय व्यतीत करने के लिए मित्र पर्याप्त होते हैं। उनके चर्चे के विषय, हँसी- ठिठोली सब कुछ अलग ही होती हैं। गपशप मारने के लिए सड़क का कट्टा या टपरी सबसे उत्तम स्थान बन जाता है। किसी को किसी के घर जाने की आवश्यकता ही नहीं होती।

हमारे ज़माने में हम साइकिल हाथ में थामे घंटों किसी पुलिया के पास एकत्रित हो जाते थे। आज दृश्य थोड़ा बदला है। किशोर अब मोटर साइकिल रोककर गपशप करते रहते हैं।

किशोरावस्था में घर मात्र भोजन और शयन का स्थान रह जाता है। माँ के साथ दिनचर्या पर थोड़ी बहुत बातचीत हो भी जाए पर कुछ घरों में पिता की व्यस्तता में अपनी संतानों से नियमित बैठकर बातचीत भी कई बार संभव  हो ही नहीं पाती है। पिता कॉलेज और ट्यूशन फीस जुटाने का कुछ हद तक ज़रिया मात्र रह जाता है। परिवार है तो घर है, घर है तो संबंध हैं और यही संबंध अदृश्य खूँटी से बँधा रिश्ता होता है। भले ही थोड़ा शिथिल – सा पड़ा होता हुआ दिखाई देता है पर फिर भी सभी बँधे रहते हैं।

अपने मित्रों के सौहार्द में रहनेवाला शायद इस बात का अहसास नहीं कर पाता पर मन के भीतर एक भूख सी अवश्य रह जाती है जिसका अहसास जीवन के चालीसवें पड़ाव तक आते -आते महसूस होने लगता है कि उसे पिता के साथ विशेष समय व्यतीत करने का अवसर न मिला। यह जो थोड़ी दूरी बन जाती है उसे पाटना कई बार कठिन भी  हो जाता है। पिता भी बच्चों से बनी दूरी को साठ के आते -आते अनुभव करने लगते हैं। हरेक का अपना व्यक्तित्व, विचारधारा और दृष्टिकोण अनुभव के आधार पर अलग ही होते हैं।

अब समय रफ्तार से दौड़ता है। घर के किशोर युवक बन जाते हैं। अधिकतर निर्णय न जाने कब से वे ही लेने लगते हैं। पिता के कुछ कहने पर यह कहकर चुप करा देते हैं कि

“आप नहीं समझेंगे पापा, आपका समय अलग था। ” यह एक वाक्य समझदार पिता के लिए पर्याप्त होता है और वे कलह, विवाद आदि से बचने के लिए अपने समय में सिमटने लगते हैं।

माता -पिता संतानों के जीवन में  हस्तक्षेप करना बंद कर देते हैं और अपने आनंद और वात्सल्य की क्षुधा को तृप्त करने वे नाती-पोते के साथ समय व्यतीत करते हैं।

यह संबंधों की नई खूँटी अवकाश प्राप्त माता -पिता के लिए अलग अनुभव होता है। वे अपने नाती-पोते के साथ एक सुखद सबंध कायम कर जीवन में एक अद्भुत आनंद के भागीदार होते हैं। इस खूँटी में कलह, विवाद मतभेद के लिए कोई स्थान नहीं होता है। उनकी अनंत जिज्ञासाएँ और प्रश्न जीवन के अंतिम पड़ाव में वृद्धजनों को अलौकिक सुख दे जाते हैं।

जीवन के अंत में यही खूँटी सबसे सशक्त और आनंददायी होती है। जीवन परिपूर्ण प्रतीत होने लगता है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆

☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

प्रतिभाओं को खोजना – निखारना ही लक्ष्य था

ओंकार श्रीवास्तव “संत” एक निहायत ही सामान्य कद – काठी वाले व्यक्ति थे जिन्हें उनके जन्म भूमि और संस्कृति प्रेम ने, बच्चों, किशोर – किशोरियों और युवाओं को सन्मार्ग पर बनाए रखने की तत्परता ने, इरादे और वचनों की दृढ़ता तथा साथियों के प्रति समर्पण की भावना ने उनके जीवनकाल में ही विशिष्ट बना दिया था। उन्होंने 1958 में अपने बाल्यकाल में ही कुछ मित्रों के साथ साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक संस्था “गुंजन कला सदन” की स्थापना की। ओंकार जी द्वारा बनाई गई यह संस्था जबलपुर नगर और आसपास के क्षेत्रों में अपने 66 वें वर्ष में भी पूरी तरह से गतिशील है। श्रीवास्तव जी ने अपनी प्रतिभा, संगठन शक्ति और सक्रियता से गुंजन में ऐसे प्राण फूंक कि चहुं ओर उसकी गूंज सुनाई देने लगी। विगत 66 वर्षों में “गुंजन” और ओंकार एक दूसरे में ऐसे समाहित हुए कि अब इन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। ओंकार श्रीवास्तव के व्यक्तित्व – कृतित्व को समझने के लिए गुंजन के स्थापना काल से ओंकार जी के जीवन काल तक उनके गुंजन के प्रति समर्पण और सामाजिक कार्यों पर दृष्टि डालना होगी। गुंजन कला सदन के स्थापना काल के उनके कुछ अभिन्न साथी समाजसेविका अन्नपूर्णा तिवारी, इंजी. जीवानंद पांडे, सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. घनश्याम असरानी, इनायत खान अब नहीं हैं, किंतु भाई गौरीशंकर केशरवानी, सरदार गुरवचन सिंह चौपरा, नरेंद्र जैन “एन सी”, डॉ. आनंद तिवारी, पूर्व मंत्री अजय विश्नोई, सुरेश सराफ, जादूगर एस. के. निगम, लोकगंदर्भ पंडित रुद्रदत्त दुबे “करुण”, राजेंद्र साहू, अजय अग्रवाल, लायन राजीव अग्रवाल, लायन नरेन्द्र जैन, विजय जायसवाल सहित अनेक लोग आज भी अपने – साथियों के साथ समर्पित भाव से गुंजन कला सदन के उद्देश्य पूर्ण कार्यक्रमों को करते चले आ रहे हैं जो ओंकार श्रीवास्तव जी ने प्रारंभ किए थे। गुंजन कला सदन में प्रांतीय स्तर, नगर स्तर के स्वतंत्र संगठनों के साथ ही महिला प्रकोष्ठ, साहित्य प्रकोष्ठ व युवा गुंजन संगठन भी सक्रिय हैं।

ओंकार श्रीवास्तव जो भी कार्यक्रम करते थे वे सफलता के कीर्तिमान रचते थे। आखिर क्यों ? उन्होंने अपने साथियों को स्वयं इसका रहस्य बताते हुए कहा था कि जब किसी आयोजन में पूरे मन – प्राण समर्पित किए जाते हैं, केवल लक्ष्य रूपी चिड़िया की आंख को देखा जाता है तो सफलता को कदम चूमना ही पड़ते हैं। ओंकार जी ने अपने जीवन काल में नगर की प्रतिभाओं के विकास को ध्यान में रखते हुए प्रति वर्ष अनेक कार्यक्रम किए जिनमें प्रमुख हैं – बड़े – बड़े नाट्य समारोह, अ.भा. कवि सम्मेलन, अ.भा. महिला कवि सम्मेलन, अ.भा. हास्य कवि सम्मेलन, मुशायरे, नृत्य समारोह, चित्रकला – मूर्तिकला, गायन – वादन, भाषण प्रतियोगिताएं, नाटककार सांसद सेठ गोविन्द दास समारोह, बुंदेली दिवस समारोह तथा होली पर “रसरंग बारात” जैसे बड़े बजट के विशाल और व्यवस्थित सांस्कृतिक कार्यक्रम। इन सभी आयोजनों में नगर के किशोरों, युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित रहती थी। इन कार्यक्रमों ने गुंजन और ओंकार जी की प्रतिष्ठा बढ़ाई।  होलिका दहन की संध्या को नगर के लगभग 4 किलो मीटर मुख्य मार्ग पर निकलने वाली “रसरंग बारात” ने तो टी वी चैनलों के कव्हरेज के कारण सम्पूर्ण देश में एक अनोखे कार्यक्रम के रूप में ख्याति प्राप्त कर ली थी। इस कार्यक्रम के पीछे होली के विकृत हो चुके स्वरूप को पुनः सांस्कृतिक गरिमा प्रदान कराना लक्ष्य था। इस रसरंग बारात में दूल्हे के वेश में शामिल हजारों महिलाओं – पुरुषों के साथ बैंड वादकों, शहनाई और ढोल वादकों के साथ  नृत्य करती दुलदुल घोड़ियां, किन्नरों की टीम, महिला घुड़सवार, गुलाल उड़ती बैलगाड़ियां, ऊंट, नृत्य करते रीछ, विविध प्रसंगों पर झांकियां, गधों पर सवार समाजसेवी और नेता लोगों के आकर्षण का केंद्र होते थे। उल्लेखनीय है कि नगर के जितने विधायकों ने इस बारात में गधों पर सवार होकर भाग लिया वे सभी आगे चलकर मंत्री बने। लोगों को प्रतिवर्ष इस बारात की प्रतीक्षा रहती थी किंतु निरंतर 15-16 वर्षों तक जारी रही इस बारात को यातायात व्यवस्था को दृष्टिगत रखते हुए बंद करने का निर्णय लेना पड़ा यद्यपि यह आयोजन अब भी बदले स्वरूप में “रसरंग महोत्सव” के नाम से प्रतिवर्ष होलिका दहन की संध्या को जबलपुर के शहीद स्मारक रंगमंच व सभागार में होता है। इसमें सभी महिला – पुरुष आयोजक, अतिथि और दर्शकों को साफा, माला पहनाकर दूल्हे के रूप में सजाकर ही मंच व दर्शक दीर्घा में भेजा जाता है। बहुत बड़े क्षेत्र में अपनी विशिष्टता के कारण यह कार्यक्रम अति लोकप्रिय है। इस कार्यक्रम को हाल में बैठे सैकड़ों लोगों के साथ ही हाल के बाहर लगे बड़े परदे पर भी सैकड़ों लोग देखते हैं।

ओंकार जी की संस्कृति संरक्षण एवं प्रतिभा विकास की सकारात्मक भावना के कारण गुंजन कला सदन को उसके स्थापना काल से ही जबलपुर के प्रबुद्ध व संपन्न जनों का संरक्षण मिला। सांसद सेठ गोविन्द दास, सांसद रात्नकुमारी देवी, सांसद जयश्री बैनर्जी, सांसद पत्रकार पंडित मुंदर शर्मा, प्रखर पत्रकार संपादक पंडित कालिका प्रसाद दीक्षित “कुसुमाकर”, पंडित भगवतीधर वाजपई, समाजसेवी पंडित नर्मदाप्रसाद तिवारी, शिक्षाविद डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव, व्यंग्यकार पंडित श्रीबाल पांडेय, शिक्षाविद मनोरमा चटर्जी, पूर्व उपमहापौर अन्नपूर्णा तिवारी आदि “गुंजन” के सशक्त संरक्षक थे। आज भी गुंजन को समाज के श्रेष्ठजनों का संरक्षण प्राप्त है। ओंकार जी का मानना था कि संस्कृति संरक्षण और समाज को सकारात्मक दिशा में के जाने के लिए चंद संस्थाएं पर्याप्त नहीं हैं इसके लिए अनेक संस्थाएं बनना चाहिए। उन्होंने स्वयं “ज्ञान गुंजन” एवं “गूंज” आदि संस्थाएं बनवाईं। कभी अन्य संस्थाओं से द्वेष नहीं रखा।

एक बात की जानकारी और दे दूं जो चंद लोग ही जानते हैं। ओंकार श्रीवास्तव अपने पिता को बहुत प्रेम करते थे। एक अवसर पर उन्होंने बताया था कि उनके पिता ने कक्षा पांचवीं तक उन्हें अपने कंधे पर बैठाकर स्कूल छोड़ा और स्कूल से लेकर घर आए। उन्हें अपने ऐसे प्रिय पिता के निधन की खबर शहीद स्मारक भवन, जबलपुर में उस समय मिली जब वे वहां एक नाटक में अभिनय कर रहे थे। उन्होंने सोचा कि नाटक को बीच में छोड़ कर जाना पूरी टीम और दर्शकों के साथ अन्याय होगा अतः संदेशवाहक को मौन रहने का संकेत करते हुए पिता के निधन की खबर को आयोजन की समाप्ति तक अपने साथियों से गोपनीय रखा और नाटक की समाप्ति के बाद ही घर पहुंचे।

स्व. ओंकार श्रीवास्तव जी का जन्म दिवस एवं “गुंजन कला सदन” का स्थापना दिवस प्रतिवर्ष 27 दिसंबर को विविध आयोजनों के साथ धूमधाम से मनाया जाता है। 29 जुलाई 2016 को ओंकार जी ने अंतिम सांस ली, किंतु प्रतिभाओं को खोजकर उन्हें निखार कर सामने लाने का जो काम ओंकार जी ने शुरू किया था उसे “गुंजन” आज भी कर रही है। गुंजन से प्रोत्साहन पाकर विविध क्षेत्रों के अनेक कला साधकों ने राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की और कर रहे हैं। गुंजन के माध्यम से ओंकार जी की लक्ष्य यात्रा उनके बाद भी जारी है।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-19 – किताबें उधार लेकर क्यों पढ़ें? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-19 – किताबें उधार लेकर क्यों पढ़ें? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

वैसे तो यादों की पिटारी किसी की कभी खत्म नहीं होती, लेकिन क्या क्या, कहाँ छिपा हुआ है, किस कोने में छिपा है, यह खुद पिटारी रखने वाला भी नहीं जानता क्योंकि यादें हमारे अवचेतन में रहती हैं और सही समय पर कैमरे की फ्लैश की तरह कौंध जाती हैं! बिजली की तरह चमकने लगती हैं! बेशक किसी लेखक से कम मुलाकातें रही हों लेकिन उसका योगदान बहुत ज्यादा हो,  फिर तो याद करना बनता है न?

ऐसे ही जालंधर से जुड़े पत्रकार रहे हैं-‌रमेश कपिला और उनकी पत्नी मधुर कपिला! रमेश कपिला का जिक्र मोहन राकेश के साथ होना चाहिए था, ऐसा बहुत मित्रों ने कहा लेकिन मेरी कपिला  जी से चंडीगढ़ रहते हुए भी बड़ी औपचारिक सी मुलाकातें हैं, उनके निकट व पारिवारिक सदस्य अनिल कपिला जरूर दैनिक ट्रिब्यून में मेरे सीनियर रहे, जिनसे काफी निकटता रही। हम दोनों यदि नाइट ड्यूटी साथ आ जाती तो ड्यूटी खत्म होने के बाद टेबल टेनिस खेलते थे और मैं मोहाली रात को और भी देर से घर पहुंचता! अनिल कपिला काफी चुहल करने करते थे न्यूज़ रूम में और आज भी उनकी यह आदत गयी नहीं! रमेश कपिला की पत्नी मधुर कपिला से यादें जुड़ी हैं कि वे संगीत नाटक व चित्रकला कार्यक्र्मों की कवरेज कर पहुंचती थीं और हमारे सम्पर्क की कड़ी साहित्य भी था और वे अच्छी लेखिका थीं! हम साहित्य की चर्चा सेक्टर ग्यारह स्थित मीरा गौतम के यहाँ करते! मीरा गौतम के पति रमेश गौतम ‘नवभारत टाइम्स’ के चंडीगढ़ से विशेष संवाददाता थे। मीरा गौतम ने काफी समय सहारनपुर के किसी काॅलेज में बिताया, फिर वे कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में भी कुछ समय रहीं, वे अच्छी कवयित्री हैं और उनके काव्य संग्रह भी आये!

यहीं मैं पंजाबी के प्रसिद्ध नाटककार आत्मजीत को भी याद कर रहा हूँ, जो मोहाली रहते हैं और उन्होंने बंटवारे के दुखा़ंत को लेकर लिखी मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ का ऐसा शानदार रूपांतरण किया कि इससे म़ंटो के साथ आत्मजीत भी खूब याद रहेंगे! यही पंजाबी रूपांतरण नवांशहर  में डाॅ देवेंद्र द्वारा गठित ‘ कला संपर्क’ की ओर से हमारे शहर में मंचित किया गया, जिसकी नायिका बीरी थी! इसके मुख्य किरदार में रेशम थे और बहुत भावपूर्ण अभिनय किया था।

इन दोनों का एक संवाद आज तक नहीं भूला। जब बेटी के रूप में बीरी मुख्य किरदार से मिलने जेल जाती है तब वह घर की खैर खबर पूछता है तो बेटी बताती है कि हमारी कुतिया ने बच्चे दिये हैं। इस पर पिता पूछता है कि फिर बधाई के रूप में क्या किया? इस पर बेटी जवाब देती है कि मैं यह खबर बांट आई थी! क्या बात है आत्मजीत! यहीं से मेरा परिचय आत्मजीत से बना!

चूंकि देवेंद्र हमारे ही घर में किराये पर रहते थे तो उन्होंने यह बात कहते मुझे भी जोड़ लिया कि इस छोटे शहर में रंगकर्म में मेरा सहयोग कीजिये! इस नाटक की रिहर्सल्ज हमारे ही घर हुईं क्योंकि देवेंद्र हमारे  ही रहते थे! इसकी एक भूमिका गढ़वाली लड़की सुषमा ने निभाई थी तो मुख्य भूमिका रेशम कलेर ने! निर्दशन पुनीत सहगल का और हमने इसे आर्य स्कूल के पीछे वाले मैदान में नववर्ष की पूर्व संध्या पर पहली बार अपने छोटे से शहर में मंचित किया था! सुधा जैन और बूटा सिंह कोहेनूर ने संगीत व गायन पक्ष संभाला था! मेरे बचपन के मित्र और आजकल नवांशहर के प्रसिद्ध डाॅ आदर्श रामपाल ने नाटक मंचन के आर्थिक पक्ष को दूर करते अपनी दराज खोलकर कहा था कि जितने पैसे चाहिएं ले लो देवेंद्र लेकिन मेरा यह दोस्त किसी और से पैसे मांगने नहीं जायेगा! असल में मैंने नवमी से ग्यारहवी़‌ तक मेडिकल ही रखा था और राजपाल मेरे तीन वर्ष तक सहपाठी रहे! फिर‌ मैं बीए करने लगा और वे अमृतसर से डाॅक्टर बन कर आये!

 तो  मित्रो! नाटक के माध्यम से मैं डाॅ आत्मजीत के सम्पर्क में आया और‌ उनके पंजाबी नाटक में दिये योगदान को जान पाया! मैंने उन्हें प्रसिद्ध लेखक मोहन राकेश की पत्नी अनिता राकेश की इंटरव्यू दिखाई, जो दिल्ली जाकर की थी और बरसों बाद मेरी पुस्तक ‘यादों की धरोहर’ का आधार‌ बनी!

खैर! डाॅ आत्मजीत को इससे अपनी पत्रिका मंचन’ के मोहन राकेश विशेषांक का आइडिया आया, जिसमें मेरी वही इंटरव्यू भी अनुवाद कर प्रकाशित की और यही नहीं मैने डाॅ आत्मजीत को सत्रह वर्ष से संभाले ‘सारिका’ का विशेषांक इस आग्रह के साथ दिया कि मुझे लौटा देंगे, विशेषांक तो आया पर ‘सारिका’ का अंक आज तक नहीं लौटा! जैसे मैंने भी एक बार डाॅ चंद्र त्रिखा के निजी पुस्तकालय से ‘अज्ञेय की प्रिय कहानियाँ’ यह कहकर ले ली कि लौटा दूंगा पर मेरी ट्रांसफर हिसार हो गयी और यह मेरे साथ हिसार चली आई! इसीलिए तो कहा जाता है कि गंगा में विसर्जित की गयीं अस्थियाँ और उधार दी गयीं किताबें कभी वापस नहीं आतीं! तभी तो मोहन राकेश कहते थे कि  हम किसी से उनके घर की और कोई चीज़ उधार नहीं मांगते तो किताब ही क्यों उधार मांगते हो? यानी किताबें खरीद कर पढ़िए!

बस, बाॅय आज की जय जय!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares