(हमें प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)
पूरब की ओर
ज्यों ज्यों जाने का दिन नजदीक आ रहा था, त्यों त्यों झूम के चेहरे पर उदासी के बादल मँडराने लगे। आखिर वो दिन तो आ ही गया….दुनिया के मेले में हम सब आते हैं, जीवन-नाटक करके फिर क्या पाते हैं ?
आज 29 जुलाई है। बुधवार। बरामदे में बैठे केवाईसी के मैदान की ओर देख रहा हूँ। सोमवार को तो कई बच्चे आये थे। साथ में उनकी माँ या डैडी। बीच बीच में इन्सट्रक्टर आकर निर्देश दे रहा था। फिर कोई खेलने लगता, कोई योगा करता तो कोई नाव लेकर झील पर निकल जाता। पर देख रहा हूँ, आज केवाईसी में कुछ कम ही बच्चे खेलने आ रहे हैं। उतनी चहल पहल नहीं है।
सुबह 11 बजे घर से रवाना दिया था। नाश्ते में सिन्नी। तुर्की शब्द शिरिनी से यह बांग्ला शब्द बना है। बंगालिओं के घरों में एकादशी या पूर्णिमा के दिन या विवाह, उपनयन या अन्नप्राशन जैसे शुभ अनुष्ठानों के पश्चात सत्यनारायण भगवान के लिए थैंक्स गिविंग सेरिमनी होती है। उसमें सिन्नी बनाना अनिवार्य है। मैदा, दूध, नारियल की खुरचन एवं केले आदि से। बतासे के साथ तो यह अमृत बन जाती है। अब देखिए, हमारे घरेलू जीवन की इतनी रोजमर्रे की पूजा में जो चीज बनती है, उसका नाम तो तुर्की से ही आया है। तो -?
झूम ने कल रात ही यह बनाकर भगवान एवं बालगोपाल को भोग चढ़ाया था। आज नाश्ते में वही है। कहा जाता है अतिथि जब घर से चलने लगते हैं तो अपनी थाली को बिलकुल सफा चट करके न खायें। चावल व सब्जी के दो दाने छोड़ते जायें। ताकि इस घर में फिर से उनकी थाल लगे। झूम की सास ने उसे यह सब खूब बताया है। उसने हमदोनों से कहा,‘बाबा, माँ, सब कुछ खा मत लेना। दो चार दाने थाली पर छोड़ते जाना।’
स्वाभाविक है बेटी चाहती है कि उसके बाबा माँ उसके पास दोबारा आये। मगर हम जैसों के लिए बारबार सागर पार आना क्या इतना आसान है?
रास्ते में दो जगह जैम मिला। पहले तो किंग्सटन पार करते करते हाईवे पर जैम। रुपाई राजधानी ओटावा जाने वाली सड़क से होकर आगे बढ़ा। दूसरी जगह एक एक्सिडेंट हुआ था। मगर मजाल है कि कोई कतार तोड़ कर पंक्ति को ठेंगा दिखाकर आगे बढ़े? सब शंबूक गति से चलते जा रहे हैं।
हमारे दाहिने वही सेंट लॉरेन्स नदी। नदी किनारे वही सुंदर सुंदर एक तल्ले या मुश्किल से दो तल्ले मकान। पेड़ पत्तियों से भरे अपने सर हिला हिला कर हमें अलविदा कर रहे हैं। खलील गिब्रान (जन्मःः6 जनवरी,1883,ब्शारी, लेबानन, ऑटोमन सीरिया में, मृत्युःः10 अप्रैल 1931, 48 साल की उम्र में न्यूयार्क सीटी, अमेरिका में। वे कवि, चित्रकार, लेखक, दार्शनिक क्या नहीं थे?) ने उनके लिए लिखा है :- पेड़ वे कविताएँ हैं, जो धरती ने आकाश पर लिखी है ! तो भाई पेड़ों को काटने का मतलब है सारी कविताओं का, जिन्दगी के समूचे रस का सत्यानाश!
बीच बीच में दोनों ओर मक्के के खेत। रुपाई कह रहा था बायोफुयेल के चक्कर में गेहूँ वगैरह की पैदावर कम करके सभी इसी क्रैश क्रॉप की तरफ जा रहे हैं। भविष्य में इंसान खायेगा क्या? फुएल, कंक्रीट और रुपये ?
मॉन्ट्रीयल घुसने के बाद तो एअरपोर्ट पहुँचने के लिए जलेबिया पेंच से गुजरना पड़ता है। यहाँ बायें, वहाँ दायें। फिर पीछे 406 नम्बर सड़क से उधर 56 में। बापरे!कार के सामने लगे मोबाइल से अनवरत दिशानिर्देश। गुगल मैप से कह रहा हैः- यहाँ से 300मी. जाकर बायें मुड़िये। आप इस समय पैगामॉन्ट शहर में प्रवेश कर रहे हैं। आदि इत्यादि वगैरह…..
यूल एअरपोर्ट में प्रवेश हो चुका है। चेक इन लगेज का हस्तांतरण हो गया। सिक्योरिटी क्लीयरेंस के पहले हम थोड़ी देर बेटी दामाद के संग समय बीता रहे हैं। झूम की मां का केबिन बैगेज कुछ फुला हुआ था। वजन स्वीकृत भार से ज्यादा नहीं। झूम के कानों पर रुपाई का ग्रामोफोन बजने लगा,‘यह इतना मोटा कैसे हो गया? तुमने पहले से चेक नहीं किया? दिल्ली से स्पाइस जेट से बनारस जाने में होगी दिक्कत। डोमेस्टिक फ्लाइट में सात किलो ही ले जा सकते हैं।’
‘अरे उसमें माँ का हैन्ड बैग है, बस। वजन कुछ भी नहीं।’ मेरी बेटी समझाने लगी।
मगर वह मास्टरी करने से बाज कहाँ आता?, ‘बाबा माँ को तो मजा लेते हुए आराम से जाना चाहिए। क्या इनको तकलीफ देने के लिए हमलोगों ने यहाँ बुलाया है? वगैरह वगैरह’…. सुभाषितम्
मेरी मुनिया कितना समझाये ?
आते हुए मॉन्टी्रयल में एक जगह ‘‘ढाबे’’ पर उतरा था, चारों ओर सब फ्रेंच में ही लिखा था। एअरपोर्ट में भी ज्यादातर घोषणायें फ्रेंच में। फिर वही अंग्रेजी और फं्रासीसी के झगड़े में फँसा बेचारा हिन्दुस्तानी बनारसी बाबू मोशाय।
आते समय तारीख के हिसाब से केवल एक(?) ही दिन में यानी 30 तारीख भोर के पहले दिल्ली से रवाना होकर तीस तारीख की शाम को यूल पहुँच गये थे। मगर जाते समय 29,30 और 31 …..तारीख के हिसाब से तीन दिन लग रहे हैं। सूर्योदय पहले उधर ही जो होता है।
अब और क्या कहें? चलते वक्त बेटी के सर पर सिर्फ हाथ फेरता रहा। मुँह से एक शब्द भी न निकला। रुपाई को गले लगाया। उसकी माँ मुझसे काफी मजबूत है। उसने झूम को सीने में जकड़ लिया। बेटी के कानों में कुछ कह रही है। मैं कुछ कह क्यां नहीं पा रहा हूँ ?
पीछे रह गयी सुख स्मृतियां, केवल अनदेखे आँसुओं को पलकों में छुपाये हम परिन्दे पर चढ़ बैठे। कनाडा की भूमि, तुम्हें सलाम! तुम्हारी गोद में ही हम छोड़ जा रहे हैं हमारे बिटिया दामाद को।
वापसी में तो बहुत कुछ वैसा ही। यूल से ऐम्सटर्डम की फ्लाइट में तो सफाई ठीक ठाक थी। मगर ज्यों ज्यों ऐम्सटर्डम से हम दिल्ली की नजदीक पहुँचते गये वाश रुम में हम लोगों का ठप्पा लगता गया। प्लेन में हम ही लोगों का बहुमत जो था। नतीजतन बेसिन का पानी नीचे जा नहीं रहा था। कारण? सूर्ती या गुटका का नाम सुना है आपने? या अल्लाह, हम आखिर ऐसे क्यों हैं ?
फिर दिल्ली में जब एअरपोर्ट के निकास द्वार के पास रात में बैठा था, तो एकबार वाशरुम जाना पड़ा। देखा कि एक सज्जन ने जब बेसिन में अपना हाथ धो लिया, तो एक सफाई कर्मचारी ने तुरंत चार पॉच टिशू पेपर उनकी ओर बढ़ा दिया। लगा इतनी अच्छी आव भगत! मगर तुरंत देखा दस रुपया रूपी लक्ष्मी का हस्तांतरण। मामला समझ में आ गया।
रात्रि के करीब एक बजे हम इन्दिरागांधी एअरपोर्ट के ऊपर गगन में चक्कर काट रहे थे। सामने स्क्रीन पर सूचनायें आ रही थीं। आप अपने गन्तव्य से 32 किमी दूर है, 19 किमी दूर हैं, फिर 27 किमी। यह कैसे भाई? दूरी घट कर बढ़ गयी, क्यों ? मैं गलत तो नहीं न लिख रहा हूँ ? एकबार चाँद दीख गया। पूर्णिमा करीब है? फिर देखा नीचे धरती पर जाने कितने तारे बिखरे पड़े हैं। झिलमिलाती दिल्ली। इतना सुंदर! आँखों ने मन से कहा,‘देख लो जी भर के।’ मन पूछता है,‘ऐसा ही झिलमिलाता रूप हमारे देश के हर घर का नहीं हो सकता ?बोलो चुप न रहो।’
आह, दुष्यंत कुमार, आप ने यह क्यों लिखा ? :- कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए, / कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए। हे कवि कहिए – कब ये हालात बदलेंगे?
मातृभूमि में उतर कर एअरपोर्ट में नब्बे रुपये की एक चाय से हम ने उदर को पहला संदेशा भेजा। चलो बनारस की दहलीज पर हम खड़े हैं। भोर होते होते डोमेस्टिक एअरपोर्ट जाने के लिए बस की लाइन में लग गये। जिन लोगों ने यह फ्री टिकट नहीं लिया, उन्हें बस में चढ़ने के बाद दक्षिणा देनी पड़ी।
इसे नमक हरामी न समझे। आते समय डोमेस्टिक एअरपोर्ट पर हमने ब्रेड पकौड़ा लिया था। 106 के दो। बिलकुल चीमड़। लग रहा था कब घर पहुँचे। वहाँ सिगरा सिटी बस स्टैंड का माहौल था। एक एक द्वार के सामने खड़ी एअरहोस्टेस चिल्ला रही हैं,‘जयपुर! जयपुर! प्लेन अब छूटनेवाला है।’ कोई उधर से हाँक रही हैं, ‘मुंबई के तीन यात्री अभी नहीं आये। उनके नाम हैं ……!’ फिर,‘बेंगलूरूवाले इधर आइये।’बिलकुल प्राइवेट बस कंडक्टर के अंदाज में सब चिल्ला रही हैं। बाकी है तो बस प्लेन की दीवार को पीटना ….ढम्…ढम्…ढम्….
सामने देखा गेरुआ धोती पहने एक सन्यासी चक्कर काट रहे हैं। मैं समझ गया हम मार्गभ्रष्ट नहीं हुए हैं। हो न हो, हमारी मंजिले मक्सूद एक ही है।
अबकी बार फिल्मों की तरह बस से चढ़कर प्लेन तक पहुँचा। सीढ़ी चढ़कर हुआ गरूड़ासीन। क्रीऊ मेम्बर में बस दो। चलो चलो जल्दी चलो। उड़ो आसमां में।
मन उतावला। वहाँ घर में अबतक क्या होता रहा! फोन पर बातें तो होती रहीं, फिर भी ….। उबासी, आँखें मुँदी जा रही हैं। वक्त क्या ठहर गया? प्लेन उड़ रहा है न?
वो रहा अपना बनारस! नीचे वरुणा की रेख। अब प्लेन से उतरिये जनाब। यहाँ भी रिमझिम हो रही है। जल्दी से ऊँचे आँगन पर लपक कर चढ़ गये। घुटने से बेपरवाह। बाहर मेरा भतीजा और साला अपनी छोटी सी कार लेकर खड़े हैं। मैं चिल्लाता हूँ,‘ताऊ रे – !’
वो मेरा ताऊ, और मैं उसका ताऊ। वो फोटो खींच रहा है – हमारे आगमन का। हँसते हुए आ गया। पता चला आज ही उसे वापस बंगलूरू जाना है। मैं ने एक चांटा जमा दिया,‘ एकदिन और ठहर नहीं सकता था?’
‘क्या करूँ ताऊ? छुट्टी जो नहीं मिली।’
मैं चुप। हाँ, हमारे बच्चे बड़े हो गये हैं। उनके लिए हमारी गोद तो काफी छोटी पड़ गयी है। कार चल निकली।
पंछी अब अपने घोंसले की ओर जा रहा है। बाबतपुर से बनारस। जनवादी शायर मेयार सनेही के हरहुआ गाँव में देखा लड़कियॉँ बैग पीठ पर लादे स्कूल जा रही हैं। आजकल इन जगहां में भी कितनी चहल पहल रहती है। बस, कुछेक साल पहले यहाँ वीरानी छाई रहती थी।
राहे जिन्दगी पर सबका सफर जारी है। हम सब तो बस मुसाफिर हैं। थक कर बैठ सकते हैं। चोट लगने पर आह कर सकते हैं। तन या मन में आघात लगे तो रो सकते हैं। फिर किसी साथी का हाथ थाम लेंगे। और चलते रहेंगे ……
इस घुमक्कड़ परिन्दे को इस समय रवीन्द्रनाथ की दो पंक्तियॉँ याद आ रही हैं (कतो अजानारे जानाइले तुमि, कतो घरे दिले ठॉँई……) अन्जानों को मैं ने जाना/घर घर जाकर ठौर बनाया/निकट दूर को करके देखा /भाई बन वो चलकर आया!
और इस समय …………अब कितनी देर में पहुँचेंगे अपने घर ? आज पिताजी माताजी इस धरती पर होतें तो बैठे सोचते रहते -‘बेटा बहू कब घर पहुॅँचेगा? कनाडा से आने में भला क्या इतनी देर लगती है?’ चलो चलो….. चले चलो……
हम तो पच्छिम से पूरब की ओर चले जा रहे हैं। और पूर्वदिशा में ही न होता है एक नया सूर्यादय ?
– समाप्त –
© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी