(इस बार हम एक नया प्रयोग करेंगे। श्री सुरेश पटवा जी और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। निश्चित ही आपको नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। आज प्रस्तुत है नर्मदा यात्रा द्वितीय चरण के शुभारम्भ पर प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी का नर्मदा यात्रा के आह्वान का आनंद लें उनके अपने ही अंदाज में । )
☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण – श्री अरुण डनायक जी की कलम से ☆
(झाँसी घाट से बरमान घाट (86 किलोमीटर))
☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण – श्री अरुण कुमार डनायक जी की कलम से ☆
प्रिय जगमोहन लाल,
जोग लिखी ग्रीन हाइट्स भोपाल से अरुण कुमार ने, और पहले कही राम राम, सो ध्यान से बांचना, थोड़ी लिखी बहुत समझना और घरवालों तथा दोस्तों को भी पढने देना। सुना है नर्मदा की परकम्मा में फिर से जा रहे हो, सो ऐसा करना कि 06.11.2019 दिन बुधवार को सुबह सबेरे सोमनाथ एक्सप्रेस में बैरागढ़ से बोगी नंबर चार बर्थ नंबर सात पर बैठ जाना। आगे हबीबगंज में तीन और साथी मिलेंगे तो उन्हें भी अपने बगल में प्रेम से बिठाना और वे आपको एक गत्ता के डिब्बा में 10 पूरी और आलू की सब्जी देंगे सो इसका कलेवा और ब्यारी कर लेना। वे लोग आपको एक बांस का डंडा भी देंगे सो उसे भी रख लेना। आगे दुपहरी में श्रीधाम स्टेशन में उतर कर भैया टेम्पो कर झांसीघाट पहुँच जाना और नर्मदा मैया की अगरबती पूजाकर, नारियल फोड़ यात्रा शुरू कर देना।
भैया, नरसिंहपुर जिले में नर्मदाजी की इस यात्रा में आपको तीन सहायक नदियाँ मिलेंगी, सनेर से तो आप झांसीघाट से पहले ही मिल चुके हो, आगे चलोगे तो शेर नदी मिलेगी यहाँ टोन घाट पर छोटा सा जलप्रपात मिलेगा , इसे देखकर आगे बढना शोकलपुर के पास शक्कर नदी का संगम नर्मदा से होगा। यहाँ भगवान शिव ने तपस्या की थी और इसका पुराना नाम शुक्लेश्वर घाट है, पूर्वी तट पर देखोगे तो नीलकंठेश्वर महादेव के दर्शन होंगे। यह स्थान प्रसिद्ध है पूर्णिमा का मेला भरता है और संस्कृत पाठशाला में रुकने ठहरने की व्यवस्था है। जब नर्मदा में दूधी नदी मिलेगी तो समझना की नरसिंहपुर जिले की सीमा खतम और होशंगाबाद जिला शुरू।
अगरवालजी, पूरी यात्रा में आपको नर्मदा तट पर कोई सत्रह बड़े सुन्दर घाट मिलेंगे। मुआर तट पर भैसासुर का वध हुआ था तो चिनकी घाट पर नर्मदा संगमरमर की चट्टानों के बीच बहती है इसे लघु भेडाघाट भी कहते हैं, यहाँ पांच सौ साल पुराने शिव मंदिर के दर्शन करना न भूलना। आगे चलोगे तो गरारु घाट मिलेगा जहाँ गरुणदेव ने तपस्या की थी, राम जानकी मंदिर के दर्शन कर आगे बढना, करहिया घाट पर बरगद का पेढ़ देखकर घाट पिपरिया की ओर चले जाना, वहाँ शंकरजी के मंदिर की परिक्रमा किये बगैर आगे न जाना। फिर चट्टानों के बीच बहती, शोर मचाती नर्मदा के दर्शन तुम घुघरी घाट और बुध घाट पर करना और सांकल घाट पहुंचना। मित्र, सांकल घाट की महिमा बहुत है, कहते हैं की आदि शंकराचार्य ने यहीँ तपस्या की थी। अगर मकर संक्रान्ति पर आते यहाँ तो गँवई गाँव के मेले का सुख पाते। सांकल घाट के आगे ब्रह्मकुंड है, देवासुर संग्राम का साक्षी। यहीँ शेर नदी और सतधारा मिलेगी जिसे पार करते ही आप बरमान पहुँच जाओगे। ब्रह्मा के यज्ञ स्थल, बरमान की शान निराली है। यहाँ प्रेम से मीठे भुट्टे खाना और गन्ना चूसना। यहीँ पर आपकी भेंट हमारे फुफेरे भाई अविनाश दवे से होगी। भईया, अविनाश दवे से हमारी राम राम कहना और बताना कि कभी उनके पुरखा गंगादत्त महेश्वर दवे तथा ननिहाल पक्ष के सोमदत्त शिवदत्त डनायक गुजरात के खेड़ा और उमरेठ से कोई तीन सौ साल पहले नर्मदा के तीरे तीरे चलकर बरमान से सागर होते हुए पन्ना बसने गये थे। मित्र न जाने वे किस घाट पर बैठे होंगे, कहां स्नान ध्यान और पूजन किया होगा। तुम्हें अगर कोई पंडा मिले तो उसकी पुरानी बहियों को जरुर खंगालना और हमारे इन पुरखों का नाम जरूर खोजना। दोस्त, अगर संभव हो तो बरमान घाट की किसी कुटिया में हमारे इन पुरखों की स्मृति में दो चार पौधे लगाने अविनाश दवे को प्रेरित करना। बरमान घाट पर बारहवीं सदी की वाराह मूर्ति, रानी दुर्गावती का बनवाया हुआ ताज महल की आकृति जैसा मंदिर, सत्रहवीं सदी का राम जानकी मंदिर, हाथी दरवाजा, खजुराहो जैसा सोमेश्वर मंदिर है, यह सब देखना न भूलना। मित्र, बरमान में एकाध दिन जरूर रुकना फिर आगे चलना तो बिल्थारी घाट पड़ेगा जहाँ बाली की राजधानी थी और महाभारत काल में पांडव यहीँ रुके थे। आगे बचई गाँव मिलेगा कहते हैं यह राजा विराट की नगरी थी इधर एक मानवाकार शिला दिखेगी जिसे लोग कीचक शिला भी कहते हैं।ककराघाट भी कम भाग्यशाली नहीं है, शिवानन्द की तपस्थली पर आप पारद शिवलिंग के दर्शन करना, फिर ककरा महराज की तपस्या के किस्से सुनना। कोई सज्जन आपको यह भी बताएगा कि यहीँ तिमार ऋषि ने जलसमाधि ली थी तो आगे रिछावर घाट पर जामवंत ने तपस्या की थी। यहाँ से कीटखेडा होते हुए रामघाट पहुंचना लोग बताते हैं कि यहीँ भगवान राम ने तप किया था। इधर शिव मंदिर और हनुमान मंदिर के दर्शन करना मत भूलना। भैया राम घाट के आगे ही शोकलपुर है जिसका बखान हमने ऊपर कर ही दिया है।
मित्र , बरमान घाट में कोई गवैया मिल जाए तो उससे बबुलिया गीत जरुर सुनना। नर्मदा मैया की श्रद्धा में गाये जाने वाले इस गीत की महिमा निराली है और 1300 किमी की नर्मदा परिक्रमा में यह भजन गीत आपको यहीँ सुनने-सुनाने मिलेगा।
किसी ने हमें बताया कि गाडरवाड़ा के पास मोहपानी है। इधर एक गुफा , अंग्रेजों के जमाने का पुल और रानी दहार देखने लायक है। गाडरवाड़ा स्टेशन से कोई चौदह किमी दूर चौरागढ़ का किला है। इस किले से दुर्गावती के पुत्र वीर नारायण की वीरता के किस्से जुढ़े हैं और यहीँ किले के निकट नौनियाँ गाँव में छह विशालकाय मूर्तियाँ देखने मिलेंगी। गाडरवाड़ा स्टेशन से कोई पांच किमी दूर डमरू घाटी है जहाँ भगवान् शिव की विशाल मूर्ती है।
दोस्त जब झाँसीघाट से चलोगे तो पहला विश्राम झालोन घाट पर करना और रात्रि बेलखेडी में रुकना। अगली रात मुआर के मंदिर में ठौर मिलेगी तो आगे जमुनियां गाँव के बाद सांकल पडेगा उधर रात में रुक जाना। आगे आप बढोगे तो पिपरिया और चिनकी में भी रात रुकने मिलेगी फिर बरमान में तो आनंद बरसने वाला है। बरमान से जब आप आगे चलोगे तो ज़रा संभलकर चलना। इधर पगडंडी सकरी और फिसलन भरी है ज़रा सी लापरवाही से नदी में गिरने का डर रहता है। आगे बारिया गावं पडेगा वहाँ रात बिता कर दूसरे दिन भदेरा के लिए चल देना। बस एक रात रुके तो शोकलपुर आ जाएगा। शोकलपुर में संस्कृत पाठशाला है जहा रात प्रेम से बिताना। शोकलपुर से जब आप चलोगे तो सांडिया पडेगा यहीँ अंजनी नदी नर्मदा से मिलती दिखेगी।
मित्र, भोजन पानी की तो तुम चिंता न करना। नरसिंहपुर जिला तो कृषि और दुग्ध प्रधान है और फिर कार्तिक का महीना शुरू हो गया है सो दही से परहेज करना, बुंदेलखंड में लोकोक्ति है कि “क्वार करेला कार्तिक दही मरहो नई तो परहो सई”। अब तो खेतों में भटा, टमाटर, मिर्ची की फसल आ गई होगी और गुड़ घी तो खूब मिलेगा सो बढ़िया गक्कड, भरता घी गुड़ के साथ खाना और सीताफल, बेर, मुकईया और आँवला के साथ गन्ने को चूसना। नर्मदा मैया न तो तुम्हे भूखा रहने देंगी और न कष्ट में रहने देंगी। मित्र जब कभी थक जाओ तो नर्मदा तट के किनारे की रेत को मैया का आँचल समझ प्रेम सो जाना।
दोस्त थोड़े में लिखा है इसे पढ़कर सुरेश पहलवान और मुंशीलाल जी को जरूर सुनाना। अगर प्रयास जोशी कहीं मिल जायँ तो उन्हें भी यह चिट्ठी पढने को दे देना शायद वह भी साथ चलने को तैयार हो जाएँ।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की अगली कड़ी में उनका एक यात्रा वृत्तांत “विकास की राह में आदर्श ग्राम योजना के वेदनामय स्वर” । आप प्रत्येक सोमवार उनके साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 19☆
☆ यात्रा वृत्तांत – विकास की राह में आदर्श ग्राम योजना के वेदनामय स्वर ☆
प्रधान मंत्री ने लोकनायक जय प्रकाश नारायण की जयंती पर 11 अक्टूबर 2014 को “आदर्श ग्राम योजना” लांच की थी इस मकसद के साथ कि सांसदों द्वारा गोद लिया गांव 11 अक्टूबर 2016 तक सर्वांगीण विकास के साथ दुनिया को आदर्श ग्राम के रूप में नजर आयेगा परन्तु कई जानकारों ने इस योजना पर सवाल उठाते हुए इसकी कामयाबी को लेकर संदेह भी जताया था जो आज सच लगता है। गांव की सूरत देखकर योजना के क्रियान्वयन पर चिंता की लकीरें उभरना स्वाभाविक है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री का मकसद इस योजना के जरिए देश के छह लाख गांवों को उनका वह हक दिलाना है जिसकी परिकल्पना स्वाधीनता संग्राम के दिनों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने की थी। गांधी की नजर में गांव गणतंत्र के लघु रूप थे जिनकी बुनियाद पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी है।
प्रधानमंत्री की अभिनव आदर्श ग्राम योजना में अधिकांश ग्रामों को गोद लिए पांच साल से ज्यादा गुजर गये है पर कहीं कुछ पुख्ता नहीं दिख रहा है। ये भी सच है कि दिल्ली से चलने वाली योजनाएं नाम तो प्रधानमंत्री का ढोतीं हैं मगर गांव के प्रधान के घर पहुंचते ही अपना बोझा उतार देतीं हैं। एक पिछड़े आदिवासी अंचल के गांव की सरपंच हल्की बाई बैगा घूंघट की आड़ में कुछ पूछने पर इशारे करती हुई शर्माती है तो झट सरपंच पति मनीराम बैगा एक टोला में पानी की विकट किल्लत की बात करने लगता है – इसी टोला में नल नहीं लगे हैं, हैंडपंप नहीं खुदे और न ही बिजली पहुंची। आदर्श ग्राम योजना के बारे में किसी को कुछ नहीं मालुम…… ।
क्या है आदर्श ग्राम योजना?
आदर्श ग्राम योजना के तहत गांव के विकास में वैयक्तिक, मानव, आर्थिक एवं सामाजिक विकास की निरंतर प्रक्रिया चलनी चाहिए। वैयक्तिक विकास के तहत साफ-सफाई की आदत का विकास, दैनिक व्यायाम, रोज नहाना और दांत साफ करने की आदतों की सीख, मानव विकास के तहत बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं, लिंगानुपात संतुलन, स्मार्ट स्कूल परिकल्पना, सामाजिक विकास के तहत गांव भर के लोगों में विकास के प्रति गर्व और आर्थिक विकास के तहत बीज बैंक, मवेशी हॉस्टल, हेल्थ कार्ड आदि आते हैं।
आंखन देखी –
मध्यप्रदेश के सुदूर प्रकृति की सुरम्य वादियों के बीच आदिवासी जिला के एक बैगा बाहुल्य गांव के पड़ोस से कल – कल बहती पुण्य सलिला नर्मदा और चारों ओर ऊंची ऊंची हरी भरी पहाडि़यों से घिरा यह गांव एक पर्यटन स्थल की तरह महसूस होता है परन्तु गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी गांव में इस कदर पसरी है कि उसका कलम से बखान नहीं किया जा सकता है। करीब 1400 की आबादी वाले इस गाँव में 80% गरीब बैगा परिवार रहते हैं। साक्षरता का प्रतिशत बहुत कमजोर और चिंतनीय है इस गाँव की बैगा बस्ती दिन के उजाले में भी सायं – सायं करती नजर आती है।
क्या कहते हैं ग्रामवासी ?
प्रधानमंत्री की इस योजना में गांव के लोगों को कहा गया है कि वे अपने सांसद से संवाद करें। योजना के माध्यम से लोगों में विकास का वातावरण पैदा हो, इसके लिए सरकारी तंत्र और विशेष कर सांसद समन्वय स्थापित करें, इस बात पर सरपंच पति मनी बैगा बताते हैं कि सांसद बेचारे बहुत व्यस्त रहते हैं और प्रधानमंत्री ज्यादा उम्मीद करते हैं बेचारे सांसद साल डेढ़ साल तक ऐसे गांव नहीं पहुंच पाते तो इसमें सांसदों का दोष नहीं हैं उनके भी तो लड़का बच्चा हैं। बैगा बाहुल्य गांव में घर में शराब बनाने की छूट रहती है और महुआ की शराब एवं पेज पीकर वे अपना जीवन यापन करते हैं पर गांव भर के लोगों को सरकार की मंशा के अनुसार नशा नहीं करने की शपथ दिलाई गई है। गांव के झोलटी बैगा बताते हैं कि जनधन खाता गांव से 45 किमी दूर के बैंक में खुला है गांव से करीब 20-25 किमी के आसपास कोई बैंक या कियोस्क नहीं है। प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा में 12-12 रुपये दो बार जमा किया कोई रसीद वगैरह नहीं मिली। बैंक ऋण के सवाल पर झोलटी बैगा ने बताया कि एक बार लोन से कोई कंपनी 5000 रुपये का बकरा लोन से दे गई ब्याज सहित पूरे पैसे वसूल कर लिए और बकरा भी मर गया, गांव भर के कुल नौ गरीबों को एक एक बकरा दिया गया था, बकरी नहीं दी गई। सब बकरे कुछ दिन बाद मर गए।।
तुलसीराम बैगा पांचवीं फेल हैं कोई रोजगार के लिए प्रशिक्षण नहीं मिला मेहनत मजदूरी करके एक टाइम का पेट भर पाते हैं, चेंज की भाजी में आम की अमकरिया डालके “पेज “पी जाते हैं। सड़क के सवाल पर तुलसी बैगा ने बताया कि गांव के मुख्य गली में सड़क जैसी बन गई है कभी कभार सोलर लाइट भी चौरस्ते में जलती दिखती है। कभी-कभी पानी भी नल से आ जाता है पर नलों में टोंटी नहीं है।
दूसरी पास फगनू बैगा जानवर चराने जंगल ले जाते हैं खेतों में जुताई करके पेट पालते हैं जब बीमार पड़ते हैं तो नर्मदा मैया के भजन करके ठीक हो जाते हैं।
पढाई – लिखाई के हालचाल –
प्रायमरी, मिडिल और हाईस्कूल की दर्ज संख्या के अनुसार स्कूल में शिक्षकों का भीषण अभाव है “स्कूल चलें हम” सन्तोषजनक नहीं है। पहली से दसवीं तक के अधिकांश बच्चे जंगल और नर्मदा नदी के इस पार और उस पार से कई मील चलकर आते हैं कई गांव के बच्चे जान जोखिम में डाल कर नाव से स्कूल पढ़ने आते हैं बरसात में नहीं भी आते। यातायात के साधन न के बराबर हैं अधिकांश बच्चे बैगा जाति के हैं बच्चों से बातचीत से पता चला कि वे बड़े होकर देश की रक्षा करेंगे।
वित्तीय समावेशन –
रिजर्व बैंक एवं भारत सरकार के निर्देश हैं कि हर व्यक्ति को पांच किलोमीटर के दायरे में बैंकिंग सुविधाएं मिलनी चाहिए परन्तु इस गाँव में 45 किमी दूर बैंक है एवं 20 किमी के दायरे में कियोस्क बैंक सुविधाएं उपलब्ध होने में संदेह लगता है।
योजनाओं की बिलखती दास्तान –
सरपंच पति ने बताया कि गांव में 50-60% के लगभग जनधन खाते खुल पाए हैं सुरक्षा बीमा के हाल बेहाल हैं। उज्जवला योजना में गरीब दो चार महिलाओं को मुफ्त एल पी जी कनेक्शन मिले हो सकते हैं पर सभी गरीबी रेखा की महिलाएं हर महीने सिलेंडर खरीदने 800 रुपये कहाँ से पाएंगी ? फसल बीमा के बारे में गांव में किसी को जानकारी नहीं है। कुछ शौचालय बने हैं पर खुले में शौच लोग जाते रहते हैं।
डिजीटल इंडिया को ठेंगा दिखाता गांव में दूर दूर तक किसी भी प्रकार की दूरसंचार सेवाएं उपलब्ध नहीं है 15-20 किमी के दायरे में मोबाइल के संकेत नहीं मिलते, गांव के पास एक ऊंची पहाड़ी के ऊपर एक खास पेड़ में चढ़ने से मोबाइल के लहराते संकेत मिलते हैं कलेक्टर के कहने पर गांव में एक दिन स्वास्थ्य विभाग का एक स्टाफ कभी कभार आ जाता है। कुपोषण की आदत गांव के संस्कारों में रहती है देर से ही सही पर अब गांव के विकास में प्रशासन अपनी रुचि दिखाने जैसा कुछ कर रहा है। पर यह भी सच है कि गांधी के सपनों का गांव बनाने के लिए पारदर्शिता सच्ची जवाबदेही और ईमानदार कोशिश की जरूरत होगी।
(आदरणीय श्री सुरेश पटवा जी की साहित्यिक अध्ययन के अतिरिक्त पर्यटन में भी विशेष अभिरुचि है। श्री सुरेश पटवा जी की यात्रा संस्मरण लेखन की अपनी अलग ही शैली है। वे किसी पर्यटन स्थल पर जाने से पहले उस स्थल का भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक एवं संस्कृतिक आदि प्रत्येक दृष्टि से अध्ययन करते हैं। प्रस्तुत है उनके मुरुद का सिद्दी ज़ंजीरा क़िला यात्रा का संस्मरण।)
☆ मुरुद का सिद्दी ज़ंजीरा क़िला ☆
समुंद्र के बीचोबीच 400 सालों से अजेय इतिहास का गवाह है ये रहस्मयी मुरुद-जंजीरा किला, ये तो आप मानते ही होंगे की भारत में प्राचीन रहस्यों की कोई कमी नहीं है क्योंकि हमारा इतिहास ही इतना प्रभावशाली और रहस्यमयी रहा है की जितना जानों उतना कम है। आज हम आपको ऐसे ही एक रहस्य के बारे में बताने जा रहे है। ये किस्सा है एक ऐसे किले का जिसने कई बड़ी लड़ाईयां देखी पर फिर भी ये किला अजेय रहा है। तो जानते है इसके पीछे का रहस्य।
ये है महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के मुरुद गांव में स्थित मुरुद-जंजीरा फोर्ट है जो अपनी बनावट के लिए जाना जाता है। चारों तरफ से पानी से घिरे होने की वजह से इसे आईलैंड फोर्ट भी कह सकते है। ये आइलैंड फोर्ट भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया में अपनी बनावट के लिए मशहूर है।
मुरुद-जंजीरा भारत के महाराष्ट्र राज्य के रायगड जिले के तटीय गाँव मुरुड में स्थित एक किला हैं। यह भारत के पश्चिमी तट का एक मात्र किला हैं, जो की कभी भी जीता जा सका था । यह किला 350 वर्ष पुराना है। स्थानीय लोग इसे मुस्लिम किला कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ अजेय होता है। माना जाता है कि यह किला पंच पीर पंजातन शाह बाबा के संरक्षण में है। शाह बाबा का मकबरा भी इसी किले में है। यह किला समुद्र तल से 90 फीट ऊंचा है। इसकी नींव 20 फीट गहरी है। यह किला सिद्दी जौहर मज़बूत किया गया था। इस किले का निर्माण 22 वर्षों में हुआ था। यह किला 22 एकड़ में फैला हुआ है। इसमें 22 सुरक्षा चौकियां है। ब्रिटिश, पुर्तगाली, शिवाजी, कान्होजी आंग्रे, चिम्माजी अप्पा तथा शंभाजी ने इस किले को जीतने का काफी प्रयास किया था, लेकिन कोई सफल नहीं हो सका। इस किले में सिद्दिकी शासकों की कई तोपें अभी भी रखी हुई हैं। जंजीरा किला समुद्र के बीच बना हुआ है और चारों ओर से खारे पानी से घिरा हुआ है। समुद्री तल से लगभग 90 फीट ऊंचे किले में शाह बाबा का मकबरा बन हुआ हैऔर इसकी नींव 20 फीट गहरी है।
40 फीट ऊंची दीवारों से घिरा ये किला अरब सागर में एक आइलैंड पर है। इसका निर्माण अहमदनगर सल्तनत के मलिक अंबर की देखरेख में 15 वीं सदी में हुआ था। 15 वीं सदी में राजापुरी (मुरुद-जंजीरा किले से 4 किमी दूर) के मछुआरों ने खुद को समुद्री लुटेरों से बचाने के लिए एक बड़ी चट्टान पर मेधेकोट नाम का लकड़ी का किला बनाया। इस किले को बनाने के लिए मछुआरों के मुखिया राम पाटिल ने अहमदनगर सल्तनत के निज़ाम शाह से इजाज़त मांगी थी।
बाद में अहमदनगर सल्तनत के थानेदार ने इस किले को खाली करने कहा तो मछुआरों ने विरोध कर दिया। फिर अहमदनगर के सेनापति पीरम खान एक व्यापारी बनकर सैनिकों से भरे तीन जहाज लेकर पहुंचे और किले पर कब्ज़ा कर लिया। पीरम खान के बाद अहमदनगर सल्तनत के नए सेनापति बुरहान खान ने लकड़ी से बने मेधेकोट किले को तुड़वाकर यहां पत्थरों से किला बनवाया।
इसके नाम में ही इसकी खासियत छिपी है दरअसल जंजीरा अरबी भाषा के ‘जजीरा’ शब्द से बना जिसका अर्थ होता है टापू। यमन और इथियोपिया से अफ़्रीकन हब्सी लोगों ने समुद्री लुटेरों से व्यापारिक जहाज़ों को सुरक्षा देने के लिए एक समुद्री सेना तैयार की थी वे हिंदुस्तान के अरब तुर्की होते हुए यूरोप की समुद्री यात्राओं को शुल्क लेकर सुरक्षा देते थे। उन्होंने मछुआरों से इसे हथिया लिया था।
यह रहस्मयी किला जंजीरा के सिद्दीकियों की राजधानी हुआ करता था, अंग्रजों और मराठा शासकों ने इस किले को जीतने का काफी प्रयास किया, लेकिन वह अपने इस मकसद में कामयाब नहीं हो पाए। इसकी अजेयता का कारण ये भी है की पुराने समय में पानी के रास्ते इस किले तक पहुंचना बेहद मुश्किल काम था और जब कोई सेना इसकी तरफ बढती थी तब किले में मौजूद सेना आराम से दुश्मनों को हरा देती थी। इस किले पर 20 सिद्दीकी शासकों ने राज किया। अंतिम शासक सिद्दीकी मुहम्मद खान था, जिसका शासन खत्म होने के 330 वर्ष बाद 3 अप्रैल 1948 को यह किला भारतीय सीमा में शामिल कर लिया गया।
मुरुद-जंजीरा किले का दरवाजा दीवारों की आड़ में बनाया गया है। जो किले से कुछ मीटर दूर जाने पर दीवारों के कारण दिखाई देना बंद हो जाता है। यही वजह रही है कि दुश्मन किले के पास आने के बावजूद चकमा खा जाते हैं और किले में घुस नहीं पाते हैं। अनेक वर्ष बीत जाने के बाद भी तथा चारों ओर खारा अरब सागर होने के बाद भी यह मजबूती से खड़ा है।
जंजीरा किले का परकोटा बहुत ही मजबूत है, जिसमें कुल तीन दरवाजे हैं। दो मुख्य दरवाजे और एक चोर दरवाजा। मुख्य दरवाजों में एक पूर्व की ओर राजापुरी गांव की दिशा में खुलता है, तो दूसरा ठीक विपरीत समुद्र की ओर खुलता है। चारों ओर कुल 19 बुर्ज हैं। प्रत्येक बुर्ज के बीच 90 फुट से अधिक का अंतर है। किले के चारों ओर 500 तोपें रखे जाने का उल्लेख भी कहीं-कहीं मिलता है। इन तोपों में कलाल बांगड़ी, लांडाकासम और चावरी ये तोपें आज भी देखने को मिलती हैं।
कोई बताने वाला नहीं मिलता कि ज़ंजीरा कैसे जाएँ। जितने लोग उतनी बातें। यदि आप जाना चाहते हैं तो गेट वे आफ इंडिया पहुँचें, वहाँ से मंडवा के लिए फ़ेरी टिकट 75 रुपयों में ख़रीदें। फ़ेरी आपको मंडवा उतार देगी। वहाँ से फ़ेरी वालों की बस आपको उसी किराए में अलीबाग़ तक के जाएगी। अलीबाग़ से 65 किलोमीटर की दूरी पर मरुद गाँव है। अलीबाग़ से मुरुद सरकारी बस से जाया जा सजता है या आप टैक्सी या ऑटो से भी 2000-2500 में जाना-आना कर सकते हैं। आपको यदि रुकना है तो रास्ते में काशिद समुद्री बीच पर होटेल गेस्ट हाउस मिल जाते हैं। अलीबाग़ से स्कूटर या बाइक भी 600 रुपए प्रतिदिन किराए पर मिल जाती हैं। आपके पास ड्राइविंग लाइसेंस होना चाहिए। काशिद के आगे ख़ोरा बंदर गाँव हैं वहाँ से 40 रुपयों में फेरी ज़ंजीरा क़िला तक जाने-आने का शुल्क लेती है।
(आज प्रस्तुत है श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी की 12 किमी ऊंचाई से एक प्रायोगिक यात्रा संस्मरण जो आपको अपनी कई यात्राएं एवं उसके पीछे की स्मृतियाँ अवश्य याद दिला देगा। धरती से हजारों किमी ऊपर हवा में उड़ते हुए क्या आपको नहीं लगता कि आप एक वैश्विक ग्राम (Global Village) के सदस्य हो गए हैं?)
जमीन से कोई 12 किमी ऊपर, 800 करोड़ के यान में, एक बेड आपका हो, आप 12000 किमी की यात्रा पर कोई 1000 किमी प्रति घण्टे की रफ्तार से पहली बार सफर पर हों , तो मन पसन्द सुस्वादु खाते पीते , सारी यात्राये स्मरण हो आना स्वाभाविक ही है ।
वह पहली विमान यात्रा का पल पल याद आया जब हमें एम टेक करते हुए पहले सेमेस्टर के अंत मे पहली स्टाइपेंड मिली थी और मित्रों श्री प्रदीप व श्री सनत जैन के साथ इंडियन एयरलाइन के 14 सीटर सिंगल इंजिन हवाई जहाज से स्टूडेंट्स कनसेशन की शायद केवल 180 रु की टिकिट पर महज हवाई यात्रा करने के लिए भोपाल से इंदौर का जीवन का पहला हवाई सफर किया था ।
लंदन के पास समुद्र सतह से 12 कि मी ऊपर कही आसमान से न्यूयॉर्क की ओर बढ़ते हुए
फिर याद आया वह हवाई सफर जब पत्नी, पिताजी और तीनों छोटे छोटे बच्चों के संग गोएयर की फ्लाइट से नागपुर से हैदराबाद का सफर किया था, वह यात्रा इसी अमिताभ को लेकर मैथ्स ओलम्पियाड के राष्ट्रीय राउंड में उसकी सहभागिता के लिए थी , जिस बेटे के न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन के कन्वोकेशन में हिस्सेदारी के लिए आज सपत्नीक आज दुबई से न्यूयॉर्क के इस सफर पर हैं हम । बेटे से दामाद श्री अभिमन्यु बेटी अनुव्रता ने दुनियां की सबसे प्रतिष्ठित एतिहाद एयर लाइंस के बिजनेस क्लास में श्रेष्ठतम यात्री विमान एयरबस में टिकिट करवा दी है । लेटे हुए सामने लगे टी वी स्क्रीन पर देख रहा हूं हमारा जहाज लंदन के ऊपर से गुजर रहा है । 7 घण्टो की लगभग आधी यात्रा हो चुकी है । मेरा हृदय सारी समग्रता से छोटी बेटी अनुभा को अशेष आशीष दे रहा है, वह इस समय लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में अपने एल एल एम की परीक्षा की तैयारी कर रही होगी ।
तीनो बच्चों की ऐसी वैश्विक सफलता के लिए दिल परमात्मा का कोटिशः धन्यवाद कर रहा है । भगवान यदि ऊपर कहीं है, जैसा हम सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी मानते आए हैं, तो मैं अभी धरती की अपेक्षा कम से कम उनके 12 किलोमीटर निकट हूं।
सुकोमल काली पट्टी आँखों पर पहनकर माँ और पिताजी व पत्नी कल्पना के उस हर छोटे बड़े संघर्ष, समर्थन, बच्चों को प्रोत्साहन, के वे सारे मौके एक साथ दिख रहे हैं जिनकी परिणीति बच्चों की ये उपलब्धियां हैं ।
एक आम सर्विस क्लास भले ही मेरी तरह सरकारी उच्चतम वेतनमान के अंतिम पायदान पर ही क्यों न हो विदेश यात्राओं के लिए किसी सेमिनार की स्पॉन्सरशिप तलाशता रहता है । पर हमें बच्चे ऐसे अवसर व साधन सुलभ करवा रहे हैं कि कल मनमोहक नाती रुवीर को गोद मे लिए उत्फुल्ल था और अभी इस विमान में पूरी फुरसत में हूँ।
सोच रहा हूँ दुनियां क्या सचमुच ग्लोबल विलेज बन गई है ? शायद नहीं यू एन ओ के होते हुए आज तक न तो सारे विश्व में कार ड्राइविंग में केवल लेफ्ट हैंड या राइट हैंड की एक रूपता आ पाई है ,जो निर्णय बहुत सहजता से लिया जा सकता है , एक से जिप कोड , एक से रोड साइन , इमरजेंसी हेतु एक से टेलीफोन नम्बर्स ,एक से बिजली के सॉकेट एक सा वोल्टेज व ऐसे ही जाने कितनी ही वैश्विक समरूपता सरकारें ला सकती हैं । पर जाने क्यों देश तो लड़ने में लगे हैं , सामने लाइव टीवी पर बीबीसी बता रहा है कि ईरान के विरोध में अमेरिका ने अपने जंगी जहाज पर पेट्रियाड मिसाइल भेज दी हैं । पाकिस्तान में ग्वादर के पांच सितारा होटल पर आतंकी हमला होने की खबर भी आ रही है।
मुझे तो कल नाती को गोद में लिए हुए केवल उसके रोने व मुस्कराने की भाषा से उसकी हर डिमांड को डिकोड करती मेरी बेटी व पत्नी की तुतलाकर उससे होती बातें याद आ रही हैं । काश सारी दुनिया के सारे लोग इसी तरह सहजता से डिकोड हो सकते तो शायद दुनियां वास्तव में ग्लोबल बन पाती ।
फिलहाल जहां मेरा विमान है , वहाँ से काशी और काबा दोनों ही एक ओर हैं … पूरब की ओर सिर नवा कर मेरी एक सहयात्री बुरका नशीन महिला रमजान में पवित्र नमाज अदा कर रहीं हैं । मैं भी आदिदेव सूर्य को प्रणाम करते हुए मन ही मन प्रार्थना करता हूँ कि हमारे बच्चों की पीढियों के लिए ही सही प्री इमिग्रेशन क्लियरेंस में किसी दाढ़ी वाले या बुर्के वाली को अब और ह्यूमिलेट न होना पड़े । जब मेरा बेटा हमें लेने न्यूयॉर्क एयरपोर्ट पर आएगा तो उसके साथ बाते करते हुए विश्व बंधुत्व पर मैं उसे ऐसी आश्वस्ति देने योग्य हो सकूँ कि वास्तव में हम सब उसी ग्लोबल विलेज के रहवासी हैं जहाँ पक्षी बिना वीजा या पासपोर्ट के साइबेरिया से भारत आ जाते हैं और भारत की सरहद पर गूंजती स्वर लहरियां बिना प्रतिबंध पाकिस्तान के बॉर्डर को पार कर जाती हैं ।
(आज प्रस्तुत है सुदूर पूर्व भारत की प्रख्यात लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी का यूरोप यात्रा संस्मरण। यह संस्मरण निश्चित ही आपको आपकी यूरोप यात्रा की याद दिला देगा। यदि आपने अब तक यह यात्रा नहीं की है तो आपको यात्रा पर जाने के लिए अवश्य प्रेरित करेगा। एक बेहतरीन यात्रा संस्मरण।)
यदि इब्न बतूता के कथन, “यात्रा वो होती है। जो आपको कहने के लिये कुछ न छोड़े, सिर्फ आपको एक कहानी सुनाने वाले व्यक्ति के रूप में बदल दे। जिसे सुनाते जाना चाहिए।” यूरोप एक कहानी की तरह है। जिसे सुनाते हुए कभी नहीं थकेंगे। एक बेहतरीन गंतव्य है। यूरोप की यात्रा एक रोलर कोस्टर की सैर जैसी होती है। जो दमदार है। मंत्रमुग्ध कर देने वाली है और कभी न भुलायी जाने वाली है।
मेरी यूरोप यात्रा बहुत ही रोमांचक व जिज्ञासा पूर्ण थी। जब मैं 55 वर्ष की और मेरे पति महाशय 60 वर्ष के थे। तब अपने बच्चों के आग्रह पर हमने यूरोप यात्रा करने का निर्णय लिया। इससे पहले अमेरिका व अन्य बहुत से देशों की विदेश यात्राएं हम कर चुके थे। पर इस यात्रा की उत्सुकता कुछ अधिक थी। जिसका पहला कारण हमारी जुड़वा बेटियों में से एक बेटी भी जर्मनी के म्यूनिख शहर में रहकर पढ़ाई कर रही थी। उससे मिलने की चाह थी और दूसरा कारण इतिहास में यूरोपीय देशों के बारे में बहुत पढ़ा था। ऐन फ्रैंक की डायरी पढ़ने के बाद तो हिटलर की जगह देखने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी । रोम के राजाओं की बहुत सी कहानियाँ पढ़ी थी। शेक्सपियर, जूलियट, सीजर पढ़ा था। स्विट्जरलैंड की प्राकृतिक सुंदरता को पुस्तकों में पढ़ा व चित्रों में देखा था। नेपोलियन बोनापार्ट के विषय में इतिहास में पढ़ा था। नीदरलैंड का तो कहना ही क्या?
कुल मिलाकर यूरोप यात्रा की लालसा घनिष्ठ होती जा रही थी।
अत: बच्चों ने हमारे विवाह की 33 वीं सालगिरह पर यूरोप यात्रा पर भेजने का निर्णय लिया।”अंधा क्या चाहे दो आँखें” हम बहुत खुश और उत्साहित थे। मैंने तो अपने लेखक धर्म के नाते सबसे पहले अपनी एक नई डायरी और तीन-चार अच्छी नस्ल के कलम रख लिये थे। हमारी यूरोप यात्रा प्रारंभ से अंत तक 25 दिनों की रखी गई थी।
हम 5 मई 2018 को सुबह 10:30 बजे तिनसुकिया असम से स्पाइजेट के जहाज से दिल्ली के लिए रवाना हुए। 5 मई की रात दिल्ली से कुछ जरूरी खरीददारी की व विश्राम किया। फिर 6 मई 2018 की सुबह 3:40 पर एलिटालिया एयरवेज से रोम (इटली) के लिए रवाना हुए। यह सफर सात घंटे का था। रोम के समयानुसार सुबह 8:30 बजे रोम पहुंच गए। वहां से टर्मिनल-1 में पहुंच कर 3:30 बजे म्यूनिख (जर्मनी)के लिए रवाना हुए। 7 मई 2018 शाम 5:30 बजे हम म्यूनिख पहुंच गए थे। एयरपोर्ट से आठ बजे हम पाँच सितारा होटल “लीमेरिडियन” में पहुंचे। यहां का मौसम बहुत ही मनमोहक था। न अधिक गर्मी, न अधिक सर्दी। वैसे यहां ठंड के समय में बहुत अधिक ठंड पड़ती है। तापमान माइनस 12-15 तक चला जाता है। बरफ गिरती है।
जर्मनी की धरती पर जहां नजर उठाओ। वहां सिर्फ हरे-भरे वृक्ष पेड़-पौधे व रंग बिरंगे फूल ही फूल दिखाई देते थे। साफ सुथरी और चौड़ी सड़कें थीं। यहां ईमानदारी लोगों के खून में रहती है। मैट्रो या ट्रम के टिकट का कहीं कोई चैकिंग सिस्टम नहीं है, लेकिन मजाल है कि कोई बिना टिकट सफर कर ले। यह सब कारण ही देश की उन्नति में सहायक होते हैं। यहाँ हमने मरियम चर्च देखी। वहाँ स्ट्रीट पर रूमानिया नृत्य हो रहा था। गीत संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। यहां के लोगों से परिचय प्राप्त किया।यहाँ के लोग बहुत मेहनती होते हैं। यहाँ सभी लोग अपनी राष्ट्र भाषा यानि जर्मन का प्रयोग ही करते हैं। यहां अंग्रेजी भाषा का प्रयोग न के बराबर ही होता है। अंग्रेजी जानते हैं पर बोलते नहीं हैं। जर्मन भाषा की लिपि रोमन ही है। पर भाषा अलग है। अधिकतर लोग साइकिल का प्रयोग करते हैं या पैदल चलते हैं। यहाँ गर्मियों में रात 8:30 बजे तक धूप रहती है। दुकानें ठीक आठ बजे बंद हो जाती हैं। पर होटल रात 12:00 बजे तक खुले रहते हैं। और मैट्रो ट्रेन रात के 2:00 बजे तक चलती हैं। सिर्फ दो घंटे के लिए बंद होकर फिर सुबह चार बजे से चलने लगती हैं। यहाँ रात में किसी प्रकार का कोई डर नहीं है। चोरी चपाटी, मार पीट, हिंसा आदि सभी बुराइयों से जर्मनी पूरी तरह सुरक्षित है। यहाँ बच्चे, लड़कियाँ पूरी तरह सुरक्षित हैं।
11 मई 2018 को रात आठ बजे हम लोग म्यूनिख से ज्यूरिख यानि स्वीट्जरलैंड के लिए निकल पड़े।
यह सफर बस का था,पर सड़कें खुली और अच्छी होने के कारण बस इस तरह चल रही थी कि हमें लग रहा था कि हम हवाई यात्रा कर रहे हैं। बस में शौचालय आदि की भी सुविधा थी। एक कैंटीन भी थी। जिसमें चाय, कॉफी, सैंडविच आदि खरीदे जा सकते थे । दो सीट पर एक यात्री को बैठाया गया था। सभी लोग आराम से सोते हुए जा रहे थे। बस द्वारा जर्मनी की हरी-भरी धरती का आनंद लेते जा रहे थे। दूर तक ऐसा लगता था कि सुंदर स्वच्छ हरे रंग का कालीन बिछा है। दो घंटे के सफर के बाद बस को “लिम्बाट” नदी के एक बड़े से जहाज पर चढ़ाया गया था। इस पानी के जहाज में रेस्टोरेंट भी था। हम लोगों ने यहां कॉफी पी। जहाज की यात्रा लगभग बीस मिनट की थी। इसके बाद नदी पर ब्रिज बना हुआ था। चारों तरफ बस्ती थी। उस ब्रिज पर करीब बीस मिनट बस चली।
यह सारा दृश्य अद्भुत था। कोंचलेगेन वह सीमा थी। जहां पर हमारा पासपोर्ट चैक किया गया था। कोंचलेगेन जर्मनी की अंतिम सीमा थी। इसके बाद से हम दूसरे देश में प्रवेश कर रहे थे। इस तरह बस द्वारा सिर्फ चार घंटे के सफर के बाद रात 12:10 बजे एक दूसरे देश में पहुंच गए थे,और वह देश था स्विट्जरलैंड।
स्विटजरलैंड एक ऐसा देश है। जिसे पर्यटन की दृष्टि से आदर्श माना जाता है। इसलिए यह पर्यटकों में खासा लोकप्रिय है। आल्प्स पर्वत श्रृंखला के करीब स्थित इस देश के प्राकृतिक नजारे, नदियाँ, झीलें और संस्कृति पर्यटकों को खासा लुभाती हैं। कला और संस्कृति से समृद्घ इस देश में बहुत से म्यूजियम और ऐतिहासिक स्थल हैं।
स्विट्जरलैंड मध्य यूरोप का एक देश है। इसकी 60 % ज़मीन आल्प्स पहाड़ों से ढकी हुई है। सो इस देश में बहुत ही ख़ूबसूरत पर्वत, गाँव, सरोवर झील और चारागाह हैं। स्विस लोगों का जीवन स्तर दुनिया में सबसे ऊँचे जीवन स्तरों में से एक है। यहाँ की स्विस घड़ियाँ, चीज़, चॉकलेट आदि बहुत मशहूर हैं।
इस देश की तीन राजभाषाएँ हैं-जर्मन ,फ़्रांसिसी और इतालवी। स्विट्स़रलैण्ड एक लोकतन्त्र है। जहाँ आज भी प्रत्यक्ष लोकतन्त्र देखने को मिल सकता है। यहाँ कई बॉलीवुड फ़िल्म के गानों की शूटिंग होती है। लगभग 20 % स्विस लोग विदेशी मूल के हैं। इसके मुख्य शहर और पर्यटक स्थल ज्यूरिख, बर्न, बासल, इंटरलाकेन, लुगानो, लूत्सर्न, इत्यादि हैं।
यहाँ बर्फ के सुंदर ग्लेशियर हैं। ये ग्लेशियर साल में आठ महीने बर्फ की सुंदर चादर से ढके रहते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ सुंदर वादियाँ हैं। जो सुंदर फूलों और रंगीन पत्तियों वाले पेड़ों से ढकी रहती हैं। भारतीय निर्देशक यश चोपड़ा की फिल्मों में इस खूबसूरत देश के कई नयनाभिराम दृश्य देखने को मिलते हैं। स्विट्जरलैंड में भी हमारे लिए पाँच सितारा होटल “पार्क रेडिशन”बुक था। यह सारा कार्य हमारे बच्चों द्वारा ही किया गया था।
यहां हम रिगि की पहाड़ियों पर ट्रेन द्वारा ऊपर गए। इसकी हाइट पाँच हजार चार सौ फीट थी। यहां लोगों ने भेड़, बकरी और गाय पाल रखी थी। मौसम बहुत अच्छा था। रिगि की पहाड़ी के ऊपर का तापमान 10 डिग्री था। ऊपर पहुंचने में 40 मिनट का समय लगा। हम पाँच हजार चार सौ फीट की ऊँचाई पर ख़ड़े थे। नीचे घर आदि सभी कुछ बहुत छोटे नजर आ रहे थे। मेरा मस्तिष्क बहुत तरोताजा होकर बहुत तेजी से चल रहा था। ईश्वर प्रदत्त प्राकृतिक सुंदरता को देख कर हमने मन ही मन उस सर्वशक्तिमान को प्रणाम किया।
पानी के जहाज द्वारा लुसर्ण लेक से लुसर्ण शहर में गए।
इस तरह तीन दिन हमने स्विट्जरलैंड की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लिया और फिर 13 मई को वापस म्यूनिख आ गए। हमने म्यूनिख में रैंट पर एक फ्लेट ले लिया था। जिसमें सभी प्रकार की सुविधाएं थी। हम अपनी पसंद का भोजन बना खा सकते थे। हमारे फ्लेट के नीचे बाजार था। इस बाजार में 90% प्रतिशत दुकानें टर्किश लोगों की थी। यह टर्किश लोग द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद काम के लिए जर्मनी आकर बस गए थे। इस बाजार में सभी प्रकार का सामान उपलब्ध था। भारतीय भोजन की सामग्री भी उपलब्ध थी।
अब एक दिन म्यूनिख में रहकर हम लोग 15 मई शाम को 9:00 बजे हवाई यात्रा द्वारा नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम के लिए निकल पड़े। दो घंटे की हवाई यात्रा के बाद हम लोग रात के 11:00 बजे एम्सटर्डम पहुंच गए थे।
नीदरलैंड यूरोप महाद्वीप का एक प्रमुख देश है। यह उत्तरी-पूर्वी यूरोप में स्थित है। इसकी उत्तरी तथा पश्चिमी सीमा पर उत्तरी समुद्र स्थित है। दक्षिण में बेल्जियम एवं पूर्व में जर्मनी है। नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम है।
नीदरलैंड को अक्सर हॉलैंड के नाम से भी संबोधित किया जाता है एवं सामान्यतः नीदरलैंड के निवासियों तथा इनकी भाषा दोनों के लिए डच शब्द का उपयोग किया जाता है।
फ्रांस की क्रांति द्वारा उत्पन्न नवीन विचारों से जर्मनी प्रभावित हुआ था। नेपोलियन ने अपनी विजय द्वारा विभिन्न जर्मन-राज्यों को राईन-संघ के अंतर्गत संगठित किया। जिससे जर्मन-राज्यों को एक साथ रहने का एहसास हुआ। इससे जर्मनी में एकता की भावना का प्रसार हुआ। यही कारण था कि जर्मन-राज्यों ने वियना कांग्रेस के समक्ष उन्हें एक सूत्र में संगठित करने की पेशकश की। पर उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
इसकी कई स्मारकीय इमारतें प्राचीन शहर के लंबे इतिहास को दर्शाती हैं।
एम्सटर्डम नीदरलैंड का सबसे महत्वपूर्ण शहर माना जाता था।
एम्सटर्डम ने जिस समय डच स्वर्ण युग इस शीर्षक का पदभार संभाला था तब यह नीदरलैंड का सांस्कृतिक केंद्र बन गया था।
एम्सटर्डम में संग्रहालयों का अपना एक उचित स्तर है।
सेंट्रल म्यूजियम कला और संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है।
“कैसल डी हार” एम्सटर्डम स्थित है और पूरे सप्ताह दर्शकों के लिए खुला रहता है।
शहर में विशाल “डोम टॉवर” है। नीदरलैंड में सबसे ज्यादा चर्च और टॉवर है। यह 14वीं सदी के बने हुए हैं।
एम्सटर्डम देश की सबसे बड़ी प्रदर्शनी और सम्मेलन का केंद्र है।
यह बिल्कुल सेंट्रल स्टेशन के बगल में स्थित है और एक साल में लगभग एक लाख से अधिक आगंतुकों का स्वागत करता है।
यहां साल में एक बार एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय पर्यटन और अवकाश मेला आयोजित किया जाता है।
17 मई 2018 को रात 9:30 बजे एम्सटर्डम से ट्रेन द्वारा हमारी यात्रा बेल्जियम के लिए प्रारंभ हुई थी। प्रति व्यक्ति 26 यूरो का टिकट था। (भारतीय रूपए अनुसार दो हजार अस्सी रुपए) ट्रेन बहुत ही सुविधा जनक थी। रेलवे स्टेशन भीड़ रहित व सभी प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण था। रेलवे स्टेशन पर भी एयरपोर्ट जैसा आभास हो रहा था। स्टेशन पर बड़ी बड़ी ब्रांड के शो रूम थे। हमने एम्सटर्डम के स्टेशन से यहां के प्रसिद्ध रंग-बिरंगे नकली टुलिप के कुछ फूल खरीदे। यह लकड़ी के बने बहुत सुंदर फूल थे।टुलिप के फूल के बगीचे यहां की मुख्य विशेषता है। ट्रेन की सीट बहुत बड़ी-बड़ी व खुली खुली थी।पूरी ट्रेन में बहुत कम यात्री थे। सभी सीट खाली पड़ी थी। यात्रा बहुत ही आरामदायक थी।
ट्रेन काफी खाली थी। यह चेयर कार थी। ट्रेन से दूर दूर तक खेत दिखाई दे रहे थे। यूरोप के सभी देशों में खेती मुख्य व्यवसाय है।
चारों तरफ के सुंदर नजारे को देखते देखते केवल तीन घंटे की ट्रेन यात्रा के बाद 12:30 बजे हम लोग बेल्जियम के “मिडी स्टेशन” पर पहुंच गए थे।
यूरोप में बेल्जियम एक छोटा सा देश है जो स्पेन, इटली, जर्मनी, फ्रांस, यू.के जैसे कुछ बड़े देशों की तुलना में काफी छोटा है, लेकिन इसके छोटे आकार के बावजूद, इस जगह में कई चीजें हैं जैसे वफ़ल, चॉकलेट, हीरे, फ्रेंच फ्राइज़ और कई अनगिनत चीजें शामिल हैं जो यहाँ मिलती हैं।बेल्जियम अपने मध्ययुगीन पुराने शहरों, फ्लेमिश पुनर्जागरण वास्तुकला और यूरोपीय संघ और नाटो के अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय के लिए जाना जाता है।
बेल्जियम देश के अनोखे रोचक तथ्य यह हैं कि बेल्जियम का आधिकारिक नाम”बेल्जियम का साम्राज्य” है। और बेल्जियम के राजा फिलिप वर्तमान शासक हैं।
बेल्जियम में तीन आधिकारिक भाषा हैं और उनमें से कोई भी बेल्जियन नहीं है लोग देश के विभिन्न हिस्सों में डच, फ्रेंच और जर्मन बोलते हैं।
बेल्जियम अलग-अलग प्रकार की 800 से अधिक बियर बनाता है।बेल्जियम प्रत्येक व्यक्ति प्रति वर्ष 150 लीटर बीयर औसतन पीता है। दुनिया का मुख्य हीरा केंद्र और दूसरा सबसे बड़ा पेट्रोकेमिकल केंद्र बेल्जियम में है। दुनिया में लगभग 90% कच्चे हीरे बेच दिए जाते हैं।पॉलिश किए जाते हैं। और एंटवर्प,बेल्जियम में वितरित किए जाते हैं।
बेल्जियम में 18 वर्ष की आयु तक अनिवार्य शिक्षा है। यह दुनिया की सर्वोच्चतम शिक्षा में से एक है।
बेल्जियम नीदरलैंड के साथ उत्तर की ओर, पूर्व में जर्मनी, दक्षिण पूर्व में लक्ज़मबर्ग और दक्षिण और पश्चिम में फ्रांस का हिस्सा है। उत्तर-पश्चिम में उत्तरी सागर के किनारे समुद्र तट भी हैं।
“स्पा” शब्द, जो कि कई जगहों के बारे में बात करने और कल्याण उपचार पाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। बेल्जियम के शहर स्पा से आता है।
बेल्जियम की फुटबॉल टीम – रेड डेविल्स – फीफा रैंकिंग में दुनिया में नंबर एक है।फुटबॉल (सॉकर) ही एकमात्र चीज है जो सभी बेल्जियम के लोगों को एकजुट कर सकती है। और उन्हें सभी मतभेदों और असहमति को भुला सकती है। भले ही थोड़े समय के लिए।
बेल्जियम प्रति वर्ष 220,000 टन चॉकलेट का उत्पादन करता है।यह बेल्जियम में प्रत्येक व्यक्ति के लिए लगभग 22 किलो चॉकलेट है।
ब्रुसेल्स केवल बेल्जियम की राजधानी नहीं है, बल्कि यूरोपीय संघ की राजधानी भी है। (ईयू) और नाटो का मुख्यालय है। यही कारण है कि ब्रसेल्स को “यूरोप का दिल” कहा जाता है।
यूरोप का पहला कैसीनो “ला रेडॉउट” साल 1763 में बेल्जियम में खोला गया था।
बेल्जियम में 11,787 वर्ग मील (30,528 वर्ग किलोमीटर) का क्षेत्रफल है।
नेपोलियन, ब्रुसेल्स के दक्षिण में एक शहर “वाटरलू” में हार गया था।
बेल्जियम के लोगों का कहना है कि वे ‘अपने पेट में एक ईंट के साथ पैदा’ हुए हैं इसलिए हर बेल्जियम वासी एक घर खरीदने या बनाने की कोशिश करता है। जिसे वे जल्दी से जल्दी कर लेते हैं।
बेल्जियम में दुनिया भर की सड़कों और रेलमार्ग का उच्चतम घनत्व है। यह नीदरलैंड और जापान के बाद प्रति वर्ग किलोमीटर के तीसरे सबसे ज्यादा वाहनों वाला देश है। सभी प्रकार की रोशनी सहित बेल्जियम की राजमार्ग व्यवस्था ही एकमात्र मानव निर्मित संरचना है। जो रात में अंतरिक्ष सी दिखाई देती है।
ब्रुसेल्स का रॉयल पैलेस, बकिंघम पैलेस से 50% बड़ा है।
मार्च 2003 में इलेक्ट्रॉनिक आईडी कार्ड पेश करने के लिए बेल्जियम, इटली के साथ, दुनिया का पहला देश था। यह पूरी आबादी के लिए ई-आईडी जारी करने वाला पहला यूरोपीय देश होगा। बेल्जियम में मतदान अनिवार्य है और इस कानून को लागू किया गया है। बेल्जियम में टेलीविजन को 1953 में दो चैनलों के साथ पेश किया गया था। एक डच में और एक फ्रेंच में।
80% बिलियर्ड खिलाड़ियों ने बेल्जियम-निर्मित गेंदों का उपयोग किया है।
विश्व का सबसे बड़ा चॉकलेट बिक्री बिंदु ब्रसेल्स राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। देश के उद्योग में रसायन, संसाधित खाद्य और पेय पदार्थ, इंजीनियरिंग, धातु उत्पाद और मोटर वाहन असेंबलिंग शामिल हैं।
बेल्जियम की कोस्टल ट्राम दुनिया की सबसे लंबी ट्राम लाइन है। जो 68 किमी लंबी है। पूरी दुनिया में बेल्जियम के घरों में “केवल टी.वी” का सबसे अधिक प्रतिशत है। जो की 97% है।
बेल्जियम के लोगों की औसतन आयु 78-81 वर्ष की है।
यूरोप के लगभग सभी देशों में गर्मी के समय जून जुलाई में रात दस बजे तक दिन रहता है।
यहां पर बाजार ठीक आठ बजे बंद हो जाते हैं। होटल रात के बारह बजे तक खुले रहते हैं।
यहां के सभी रेलवे स्टेशन सुव्यवस्थित,आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण व पूर्णता स्वच्छ हैं।
19 मई 2018 को शाम के 7:45 पर हम लोग बस द्वारा ब्रसेल्स से पेरिस के लिए निकल पड़े। बस सभी प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण थी। बस में एक कैंटीन तथा शौचालय की व्यवस्था भी थी।लगभग तीन घंटे की बस यात्रा के बाद 11:15 पर हम लोग पेरिस पहुंच चुके थे। जैसा की पेरिस के बारे में सुन रखा था। पेरिस उससे भी कहीं अधिक था।
फ्रांस के उत्तर में सीन नदी के तट पर बसा कल्पनाओं का शहर है पेरिस। फ्रांस की राजधानी पेरिस को ‘रोशनी का शहर’ और ‘फैशन की राजधानी’ भी कहा जाता है। 105.4 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले इस शहर की जनसंख्या 22 लाख है। पूरा पेरिस 20 भागों में बंटा है। जिन्हें अरौंडिसमैंट कहते हैं। 6,100 गलियों, 1,124 बार और 1,784 बेकरियों वाले इस शहर के बनने की कहानी बड़ी रोचक है। वर्ष 1852 तक यह आम शहर जैसा ही था। उसी वर्ष नेपोलियन बोनापार्ट का भतीजा लुई नेपोलियन तृतीय राजा बना और उस ने बड़े ही जोरशोर से शहर का नवीनीकरण करना शुरू किया। बैरन हौसमैन नामक इंजीनियर को उस ने यह जिम्मेदारी सौंपी थी।
हौसमैन ने न सिर्फ सौंदर्यीकरण का काम किया, बल्कि शहर को अभिजात्य वर्ग में ला खड़ा करने की भी पुरजोर कोशिश की। शहर में जितनी भी गरीब लोगों की बस्तियां थीं। उन्हें उजाड़ कर जनता को जबरदस्ती शहर के बाहरी हिस्सों में भेज दिया गया था। और फिर चौड़ी खूबसूरत सड़कों, बड़े-बड़े खुले ब्लौक्स और महंगे बाजारों तथा सुंदर घरों का निर्माण किया गया। हरियाली की कमी न हो। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया। 17 साल तक यह सारा काम चलता रहा। और जनता हौसमैन को कोसती, गालियां देती रही।गरीब तो गरीब, अमीरों ने भी उस का विरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
1870 तक जो पेरिस बन कर तैयार हुआ।उस ने सब की आंखें चौंधिया दीं थीं और कुछ ही समय में यह शहर पूरे यूरोप के गर्व का कारण बन गया।आज पूरे संसार में पेरिस की जो छवि है।उस का मुख्य श्रेय हौसमैन को ही जाता है।
घूमने के लिहाज से वैसे तो पूरे पेरिस शहर में कहीं भी चले जाइए। हर जगह खूबसूरती बिखरी मिलेगी।फिर भी कुछ जगहें ऐसी हैं। जिन्हें देखे बिना पेरिस यात्रा अधूरी ही कहलाएगी।
एफिल टावर फ्रांस की क्रांति की एक शताब्दी पूरी होने का जश्न मनाने के लिए 1889 में पेरिस में एक वर्ल्ड फेयर का आयोजन किया जा रहा था। इस के मुख्यद्वार के रूप में एक बड़ा और भव्य टावर बनाने का प्लान बनाया गया।जिसे बाद में तोड़ दिया जाना था। जिस कंपनी ने इस का निर्माण किया था। उस के मुख्य इंजीनियर एलैक्जैंडर गुस्ताव एफिल के नाम पर इस का नाम एफिल टावर रखा गया।लोहे के जालदार काम से बनी इस संरचना की ऊंचाई 1,063 फुट है। जिस में 3 लैवल हैं और 1,665 सीढि़यां हैं। हर लैवल पर जाने के लिए अलग-अलग लिफ्ट की व्यवस्था है। पहली 2 मंजिलों पर रैस्टोरैंट आदि की भी सुविधा है। हर मंजिल से पूरे शहर का विहंगम दृश्य देखने को मिलता है। जैसा कि पहले से तय था। वर्ष 1909 में इसे नष्ट करने के बारे में सोचा गया था।लेकिन तब तक यह जनता और सरकार, सब के दिलों में घर कर चुका था।इसलिए इसे एक बड़े रेडियो एंटीना की तरह प्रयोग करने का निश्चय किया गया।आज यह टावर पेरिस की पहचान और शान है।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब हिटलर पेरिस में घुसा। तो लोगों ने एफिल टावर की लिफ्ट के केवल काट दिए थे। ताकि हिटलर उन के शहर की इस शान पर न चढ़ सके। हिटलर कुछ सीढि़यां चढ़ा, लेकिन फिर हार मान कर लौट गया।आज यहां पूरे संसार से हर साल 60-70 लाख लोग आते हैं। रात के समय जब पूरे टावर पर लगी 20 हजार लाइटें जगमगाने लगती हैं। तब तो इस की शोभा देखते ही बनती है। इस से जुड़ा एक मजेदार तथ्य है कि मैटल से बना होने के कारण इस की लंबाई सूर्य की गरमी से प्रभावित होती है और मौसम के अनुसार 15 सैंटीमीटर तक घटती बढ़ती रहती है।
डिज्नीलैंड पार्क वाल डिज्नी के पात्रों और फिल्मों की थीम पर बना यह विशाल और भव्य पार्क शहर के मध्य भाग से 32 किलोमीटर पूर्व में स्थित है. 4,800 एकड़ में फैला यह पार्क 1992 में शुरू हुआ था। वर्ष 2002 में इसी के साथ डिज्नी स्टूडियोज का निर्माण किया गया। इन दोनों पार्कों में कुल मिला कर 57 झूले, राइड्स आदि हैं।इन के अलावा यहां रंगबिरंगी परेड, लेजर शो और तरहतरह की अन्य गतिविधियां भी होती रहती हैं। पूरे डिज्नी पार्क को 5 भागों–मेन स्ट्रीट यूएसए, फैंटेसीलैंड, एडवैंचरलैंड, फ्रंटियरलैंड और डिस्कवरीलैंड में बांटा गया है।एक भाग से दूसरे तक जाने के लिए पैदल चलने के अलावा ट्रेन से जाने की भी सुविधा है। एलिस इन वंडरलैंड, पाइरेट्स, स्नोवाइट, पीटर पैन, टौय स्टोरी आदि की थीम पर बने झूले आप को एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं।स्लीपिंग ब्यूटी का महल तो इतना सुंदर है कि देखने वाला मानो सचमुच स्वप्नलोक में ही विचरण करने लगता है। 7 रिजौर्ट, 6 होटल, कई रैस्टोरैंट, शौपिंग सैंटर और एक गोल्फ कोर्स वाले इस थीम पार्क में हर साल एक से डेढ़ करोड़ लोग आते हैं।
फ्रांस की क्रांति और अन्य युद्धों में मारे गए शहीदों की याद में “आर्क औफ ट्रायम्फ” नामक गेट बनाया गया है।रोमन वास्तुकला पर आधारित इस गेट को 1806 में जीन कैलग्रिन ने डिजाइन किया था।कुछ युद्धों और शहीदों के नाम इस की दीवारों पर खुदे हुए हैं।नीचे एक चैंबर बना है। जिस में ‘अनजाने सैनिक का मकबरा’ है। जो पहले विश्वयुद्ध में मारे गए थे। उन सैनिकों को समर्पित है।
नौत्रे डेम कैथेड्रल-
यह एक रोमन कैथोलिक चर्च है। जो फ्रैंच गोथिक शैली में बना है। पूरी दुनिया के कुछ अत्यंत मशहूर चर्चों में से यह एक है। यहां जीसस क्राइस्ट के क्रौस का एक छोटा हिस्सा क्राउन औफ थौर्न तथा उन के कुछ अन्य स्मृतिचिह्न भी रखे गए हैं। नेपोलियन बोनापार्ट के राज्याभिषेक के अलावा अन्य कई बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं का यह चर्च गवाह रहा है। यहां कुल 10 बड़ेबड़े घंटे हैं। जिन में से सब से बड़ा 13 टन से भी ज्यादा भारी है और उस का नाम इमैन्युअल है।
“लुव्र म्यूजियम” यह संसार के सब से बड़े म्यूजियमों में से एक है।शहर के पश्चिमी भाग में सीन नदी के दाहिने तट पर स्थित यह इमारत लगभग 60,600 वर्ग मीटर में फैली है।12वीं शताब्दी में फिलिप द्वितीय ने इस का निर्माण एक किले के रूप में करवाया था। कई राजाओं ने इसे अपना निवास बनाया। अनेक स्वरूप और नाम बदलते हुए 10 अगस्त, 1793 को पहली बार 537 पेंटिंग्स और 184 कलाकृतियों के साथ इसे म्यूजियम का रूप दिया गया। आज इस का इतना विस्तार हो चुका है कि अगर यहां की हरेक कलाकृति को सिर्फ 4 सैकंड देख कर ही आगे बढ़ जाएं तो हमें को पूरा म्यूजियम देखने के लिए 3 महीने का समय चाहिए होगा।
इस तरह फ्रांस और इटली घूमते हुए हम लोग 22 मई को वापस म्यूनिख आ गया। दो दिन म्यूनिख का आनंद लेकर हम लोग 25 मई को अपने प्रिय देश भारत के लिए चल दिए। इस यूरोप यात्रा का एक एक पल अविस्मरणीय है और रहेगा। किसी ने ठीक ही कहा है –
(श्री राजेन्द्र कुमार भण्डारी “राज” जी का e-abhivyakti में स्वागत है। श्री राजेन्द्र कुमार जी बैंक में अधिकारी हैं एवं इनकी लेखन में विशेष रुचि है। आपकी प्रकाशित पुस्तक “दिल की बात (गजल संग्रह) का विशिष्ट स्थान है। यह यात्रा संस्मरण “मेरी यात्रा” में श्री राजेन्द्र कुमार भण्डारी “राज” जी ने गुजरात, महाराष्ट्र एवं गोवा के विशिष्ट स्थानों की यात्रा का सजीव चित्रण किया है। )
मैंने अपनी यात्रा द्वारका दिल्ली से 15 अक्तूबर 2018 को पौने तीन बजे दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन से प्रारम्भ की जो अहमदाबाद तक थी। मैं अहमदाबाद सुबह नौ बजकर पचपन मिनट पर पहुँचा। इसके बाद जबलपुर से सोमनाथ जाने वाली ट्रेन पकड़ी, क्योंकि सबसे पहले मुझे सोमनाथ बाबा के दर्शानाथ हेतु सोमनाथ जाना था। जबलपुर-सोमनाथ एक्स्प्रेस रूक-रुक कर चल रही थी, क्योंकि यह ट्रेन अपने समय से पहले ही दो घंटे विलंब से थी और अहमदाबाद से यह ग्यारह बजकर बाईस मिनट पर चली थी। अतः यह हर गाड़ी को स्टेशन से पहले रूक कर उसे पहले जाने देती थी अपनी देरी से आने का परिणाम जो भुगतना था। इस रास्ते में बहुत अच्छे-अच्छे स्टेशन जैसे वीरपुर, सूरेन्दरनगर, राजकोट, भक्तिनगर, नवागड़, जेतलसर, जूनागड़, केशोद, मालिना, हाटीना, चौरवाड रोड़ और वैरावल आदि-आदि आए। वैरावल में नाव यानि कि नौका ही नौका थे, जैसे कि वैरावल वैरावल ना होकर नौकागढ़ हो। मौसम बहुत सुहाना था। मस्त-मस्त हवा चल रही थी। ठंड का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं था। दिन में धूप भी मजेदार थी। कपास, अरण्ड, मिर्ची, जीरा और सूरजमुखी के खेत चमचमा रहे थे। वह दृश्य देखते ही बनता था। जैसै-जैसे सूरज ढ़ल रहा था मौसम की मस्ती बढ़ती जा रही थी। मौसम अपने पूरे यौवन पर था। अब शाम हो चली थी। दिन ढ़ल गया था। रात होने लगी थी। पक्षियों की तरह मैं भी अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रहा था। जूनागढ़ के बाद गाडी़ ने अपनी रफ्तार बढ़ा दी। मानों दिन की सारी कमी अब पूरी करनी हो। अन्ततः मैं सोमनाथ पहुँच ही गया, रात के आठ बजकर इक्यावन मिनट पर।
चलने को यहाँ के लोग “हालो” बोलते हैं। हालो भई हालो मतलब “चलो भाई चलो” और “बैसो” मतलब “बैठो”, त्रण मतलब “तीन”। जमी लिधौ मतलब “खाना खा लिया” आदि-आदि। भाषा बडी मधुर हैं लोग शांत व सुशील स्वभाव के हैं अर्थात जैसी भाषा वैसै ही लोग, मानस मतलब “लोग”। शुद्ध भाषा का अनुसरण ये लोग बखूबी करते हैं। पर एक बात यहाँ ख़ास हैं रात को सब लोग अपने-अपने मुख्यः द्वार के बाहर बैठ जाते हैं जैसे कोई पंचायत कर रहे हों। घर की सारी बत्तियां बन्द करके, केवल एक मुख्य कमरे को छोडकर, इससे बिजली की बचत तो होती ही हैं पर साथ में पैसे की भी। अब मैं सोमनाथ पहुँच गया। सोमनाथ रेलवे स्टेशन से मैनें आटो-रिक्शा लिया और आशापुरा होटल नौ बजे पहुँच गया। यह होटल सोमनाथ मंदिर के बिल्कुल पास में ही था। सुबह 17 अक्तूबर 2018 को 7 बजे सोमनाथ बाबा के दर्शन किए और समुद्र को प्रणाम किया उसके बाद त्रिवेणी के भालसा मंदिर (यहाँ श्री कृष्ण जी के पैर में तीर लगा था। जब श्री कृष्ण जी यहाँ विश्राम कर रहे थे तब एक भील ने उनके पग में तीर मारा था) के दर्शन किऐ।
फिर कार से ग्यारह बजकर पाँच मिनट पर दीव के लिए निकल पड़ा। रास्ते में बड़ी गर्मी थी, परंतु समुद्र होने के कारण इसका तनिक भी पता न चला। दीव के रास्ते में सुंदरपुरम, गौरखमडी, प्रांचि, मोरडिया, कोडियार केसरिया होते हुऐ दीव शहर सवा बजे पहुँचा। रास्ते में नारियल के पेड़ों की भरमार थी। जौं, गन्ना और मूंगफली, बाजरा की खेती थी। भेड बकरियाँ रास्ते की शान थी। जहाँ देखो वहाँ जालाराम का होटल या ढाबा मिल जाता था। यहाँ धर्मशालायेँ भी बहुत हैं। लोग मावा व गुटका बहुत खाते हैं तथा साथ ही सोडा भी बहुत पीते हैं। मैं पहले दीव फोर्ट, दीव संग्रहालय, चक्रवर्ती बीच, आई एन एस कुकरी, गंगेशवर मंदिर, फिर नागवा बीच गया। यहाँ पानी कौटा जेल देखा जो समुंदर के बीचो बीच में है। मैं यहाँ बीच से पाँच बजकर बीस मिनट पर चला। ताड़़ी व नारियल के पेडों की भरमार को देखते हुऐ चैक पोस्ट से छः बजे निकला और सोमनाथ, आठ बजकर अड़तालीस मिन्ट पर पहुँचा गया। वहाँ से सवा दस बजे सोमनाथ से औखाँ के लिए ट्रैन पकडी जो सोमनाथ से दस बजकर उन्नीस मिनट पर औखाँ के लिए चल पडी।
रास्ते में वेरावल, कसौद, जूनागढ़, राजकोट, जामनगर, खमबाडिया, भोगाथ, भाटिया से होते हुऐ द्वारका से सात बजकर पचपन मिनट पर पहुँचा। खाने के पैकेट को यहाँ पार्सल बोलते है द्वारका में जुलेलाल गेस्ट में ठहरा। मगर वहाँ से 18 अक्तूबर 2018 दोपहर के दिन बेट द्वारका के लिए निकला। सबसे पहले रुक्मणी माता मंदिर के दर्शन किए। उसके बाद 16 किलेमीटर दूर नागेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन किए। इसके बाद 5 किलोमीटर दूरी पर गोपी तलाब था वहाँ गोपी तलाब के दर्शन किए। अंत में चार बजकर बीस मिनट पर औखाँ यानि कि बेट द्वारका गया। वहाँ पाँच बजकर बीस मिनट पर द्वारिकाधीश श्री कृष्ण जी के दर्शन करने के बाद बेट द्वारिका से छः बजकर चालीस मिनट पर द्वारिका के लिए वापस हो लिया और सात बजकर पचपन मिनट पर द्वारिका पहुचँ गया।
अगले सफ़र के लिए मैंने अपने तरक्क़ी के पहले पडाव़ व मेरी मनचाही जगह पौरबन्दर को चुना। मैंने जुलेलाल होटल को खाली किया। होटल ठीक नौ बजे छोड़ कर नौ बजकर दो मिनट पर पोरबन्दर की बस पकडी़ और चल पडा़ अपनी मनपसन्द राह यानि मंजिल की ओर। जय श्रीकृष्णा। जय सुदामाजी की।
पोरबन्दर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी और श्री कृष्णजी के सखा श्री सुदामाजी की जन्म स्थली हैं। रास्ते में, भोगात, लामबा, हरसद, वीसावडा, पालकडा, रातडी आवीयो नतलब आया। यहाँ हऱसद माताजी का चर्चित मंदिर हैं। कुछ शब्द जैसे बे वी गयो, आ वी गयो, चालो, सू नाम छै, क्या जाओ छौ, तमारो देश मतलब गावँ के गुजराती भाषा के शब्द बडे़ मधुर लगते थे। पोरबन्दर में कीर्ती मंदिर यानी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के दर्शन किए बाद में सुदामा मंदिर के दर्शन, राऩावाव में जामुवंत गुफा के जो पोरबन्दर से 12 किलोनीटर की दूरी पर है। (जामवंत की गुफा की मिट्टी में सोना पाया जाता हैं ऐसा यहाँ के लोग कहते हैं, परंतु यह मिट्टी घर तक ले जाते जाते गायब हो जाती हैं केवल कुछ नसीब वालों के घर तक पहुंचती हैं।)
माधोपुर में माँ रानी रुक्मणी के मंदिर के दर्शन किये। माधोपुर पोरबन्दर से 40 किलोमीटर दूर है। यह माँ रुक्मणी का जन्म स्थल हैं जहाँ से भगवान श्री कृष्ण रुक्मणी को भगा कर ले गये थे। इसके बाद चौपाटी गया तथा शाम को राम मंदिर शांतिपनी मंदिर गया वहाँ लक्ष्मी-नारायण के दर्शन किए। और रात को सूरत के लिये ट्रेन पकड़ी जो पोरबन्दर से नौ बजकर सात मिनट पर मुंबई के लिये रवाना हुई। पोरबन्दर की छवि निराली है। पुरानी यादें ताजा हो गईं। कुछ पुराने मित्र मिल गये। बडा़ मजा आया। अब सूरत से मुझे शिरडी जाना था जो नासिक से कुछ आगे है। रास्ते में बड़े-बडे़ स्टेशन जैसे जामनगर, राजकोट, सुरेन्द्रनगर, नडियाड, कणजरी बोरीवली, आनन्द, वसाद, बडोदरा (बरोडा), विश्वामित्री, ईटोला, मियागाम, करजन, भरूच, अंकलेश्वर, पानौली, कौसम्मभा, कीम, सायण, गोठनगाम आदि-आदि फिर सूरत आया। यहाँ की भाषा वाह क्या कहने- आ बाजू मतलब “इस तरफ”। पग मतलब “पैर”, हम सपिड बधारी मतलब “रफ्तार तेज कर ली”, हम जौईयो का मतलब “चाहना”, जलसा करो मतलब “आनंद हो”, तपास मतलब “ढूँढना”, बांधौ नथी मतलब “कोई ऐतराज नहीं” आदि-आदि।
भरूच में सिंगदाना (मूंगफली) बहुत मिलता है। वैसे समस्त गुजरात में मूंगफली, अरणड, बाजरा, मिर्च, सौप, सूरजमुखी, जौ, नारियल, कैसर आम, आलू, अदरक, लहसुन, सिरडी (ईख मतलब गन्ना), चना, मुँग दाल, अरहर दाल आदि-आदि बहुत होता हैं। यहाँ ज़मीन में आयल (तेल) बहुत निकलता है। सूरत में डायमंड यानी हीरा और साडि्यों का काम ज्यादा होता हैं। राजकोट में मशीनरी का जिस मशीन का पार्ट कहीं नहीं मिलता वह यहाँ जरूर मिल जाएगा। साढ़े बारह बजे सूरत पहुँचा और सूरत बस अड्डे से नासिक के लिए बस पकड़ी जो डेढ़ बजे नासिक के लिए रवाना हुई। नवसार, धर्मपुरा और पेठा से होती हुए नासिक पौने नौ बजे पहुँची। धर्मपुरा में नाश्ते के लिए एक होटल पर रुकी जो बहुत ही बेकार था केवल भजिया चाय और कोल्ड ड्रिंक के अलावा यहाँ कुछ नहीं था। रास्ता भी काफी खराब था।
नासिक से शिर्डी के लिए बस ली जो नौ बजे शिर्डी के लिए रवाना हुई। नासिक बहुत खूबसूरत शहर है। शिर्डी ग्यारह बजकर बीस मिनट पर पहुँच गया। और होटल ग्यारह बजकर चालीस मिनट पर पहुँच गया। सुबह बाबा साईनाथ के दर्शन किए। रविवार की वजह से मंदिर में बहुत भीड़ थी। यहाँ पहले दर्शन पास लेना पडता हैं फिर दर्शन की लाईन में लगना पडता है। लाईन से ही बाबा के दर्शन होते हैं। हर अच्छी और पक्की व्यवस्था है। बड़े आराम से दर्शन दिए बाबा साईनाथ जी महाराज ने। दिल और मन दोनों गदगद हो गया। थोडा बाजार घूमा और फिर खाना खाकरवापस होटल आ गया। और थोडा सा आराम किया। उसके बाद ट्रैवल एजेंसी से गोवा जाने वाली बस की टिकट कराई जो चार बजे की थी। होटल से सवा तीन बजे निकला और बस पकडी। बस ठीक चार बजे गोवा के लिए चल पड़ी। शिर्डी छोडने का दिल तो नहीं कर रहा था, परन्तु आध्यात्मिकता में ज्यादा न पड़ कर बाकी कार्य भी पूरे करने थे क्योंकि काफी दिनों से मेरी इच्छा गोवा देखने की थी, तो मैने सोचा यह अच्छा अवसर हैं क्योंकि की गोवा यहाँ से नजदीक भी था अत: इस अवसर का लाभ लिया जाए इसलिए मैने आनन-फानन में चार बजे गोवा की टिकट कराई और चल दिया गोवा बच्चों को बोला तो वे भी बड़े खुश हुए और उन्होंने गोवा से दिल्ली वापसी की 24 तारीख की चार बजकर पैंतीस मिनट की एयर एशिया की टिकट की बुकिंग करा दी ।
अब मै सुबह पाँच बजे गोवा पहुँच गया था। रास्ते में गाडी कोपरगाँव, अहमदनगर टोल पर रुकी। पणजी से होते हुए गोवा सवा दस बजे पहुँच गया। वहाँ से कोलुआ बीच के लिए टैक्सी ली और सीधा जिम्मी कॉटेज पहुँचा। ग्यारह बजे कमरा लिया। थोड़ा आराम किया और एक बजे कोलुआ बीच गया। पूरे दिन मौज मस्ती की। खाना खाया। शाम को मार्केटिंग की। अगले दिन उतर (नौर्थ) गोवा घूमने गया। फिर पणजी आया। यहाँ कैसिनो बहुत हैं यहाँ जुआ खेलना अलाउड है। यहाँ के लोग जुआ बहुत खेलते हैं। गोवा में नारियल, काजू बहुत होता है। और यहाँ शराब भी बहुत बनती है। ख़ासकर काजू और नारियल की। मंगलवार 23 अक्तूबर 2018 को बस से नौर्थ गोवा घूमा। सिन्कूरियम डॉलफिन ट्रिप पर गया। सनो पार्क घूमा। रास्ते में रिवर जुआरी और रिवर मांडवी, रॉक बीच आए। 24 अक्तूबर 2018 को दाबोली विमानतल से चार बजकर पैंतीस मिनट पर एयर एशिया की फ्लाइट पकड़ी । सात बजकर अठारह मिनट पर दिल्ली हवाई अड्डा पहुँच गया और 8 बजकर 40 मिनट पर वापस अपने आशियानें मतलब घर पहुँच गया। आखिर में जमानें की खाक़ छान कर “राज़” वापस अपने द्वार।
प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से
(इस श्रंखला में अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )
नर्मदा परिक्रमा 6
भड़पुरा से झाँसीघाट
रात्रि विश्राम हमने भडपुरा स्थित कुटी में किया। कुटी की देखभाल एक बूढ़ी माँ माँग-ताँग कर करती है। वह आश्रम किसी बड़े किसान ने इस शर्त पर बनवा दिया था कि परिक्रमा करने वालों को भोजन मिलना चाहिए। वे वैरागी हैं, उसका बेटा नवरात्रि में दुर्गा जी की मूर्ति का पंडा बना था। वहीं झाँकी के पंडाल में रहता था। सुबह नहाने धोने भर को घर आता था। उसे ख़बर लगी तो वह देखने आया। बातचीत करके संतुष्ट हो कर चला गया। उसकी बीबी को छः लोगों के लिए रोटी सब्ज़ी बनाना था तो उसका मूड ख़राब होने से वातावरण ठीक नहीं रहा। हमने खाना बनाने में मदद की पेशकश की, जिसे निष्ठुरता से ठुकरा दिया गया। उसका 12 साल का लड़का बहुत बातूनी था। उसी के मार्फ़त बातचीत चलती रही। अंत में अपनी घरेलू चार रोटियों के बराबर एक टिक्कड नमक मिर्च में बनी आलू की सब्ज़ी के साथ एक गोल थाली में आए जैसे भीम अपनी गदा के साथ रथ में चला आ रहा हो। किसी ने दो किसी ने तीन और किसी ने चार खाए। सच हैं स्वाद भोजन में नहीं भूख में होता है। नींद न जाने टूटी खाट, भूख न जाने बासी भात। यहाँ तो न खाट थी और न भात परंतु नर्मदा जी का किनारा था। बाहर निकल कर नर्मदा की ओर देखा वह शांत होकर हँसिया खिले चाँद की रोशनी में निंद्रामग्न थी। लहरों की झिलमिल जो दिन में नज़र आती है वह नदारत थी।
वर्षो बाद जमीन पर और कुछ लोगों ने शायद जीवन में पहली बार गद्दे के बिना सोने का प्रयास शुरू हुआ। बिस्तर तीन तरफ़ से खुली दहलान में लगाए गए। सबसे पहले तो मच्छरों का हमला हुआ लड़के ने कचरा जलाकर धुआँ करके उनसे छुटकारा दिलाया। उसके बाद मुंशीलाल जी के पास एक कुतिया आकर सो गई। उसे डंडे से भगाया। सोने की कोशिश की तो बरगद के पेड़ पर तेज़ हलचल होने लगी। जैसे भूतों का डेरा हो। उठकर देखा तो चमगादड़ का एक झुंड बरगद के फलों को खा रहा था। फलों के टुकड़े पट-पट नीचे गिर रहे थे। एकाध घंटा चमगादड़ देखते रहे। फिर सोने की कोशिश की तो सिर के पास कुछ आवाज़ आई। हाथ फेरा तो एक मेंढक पकड़ में आया उसे दूर फेंक दिया। सब डर गए कि मेंढक की खोज में साँप वहाँ आ सकता है। हमने सोचा छोड़ो यार शंकर भगवान गले में डाले रहते हैं। अब आएगा सो आएगा। 90% सांप ज़हरीले नहीं होते हैं और फिर जैसे हम सांप से डरते हैं उसी प्रकार वे भी आदमी से डरते हैं। अरुण दनायक जी अपनी डायरी लिखने बैठ गए। लोग पहले पानी पीते फिर पेशाब जाते रात गुज़रने की राह देखते रहे। देर रात एक झपकी लगी और सवेरा हो गया। कहीं कोई पाखाना नहीं था। खुले में हल्के हुए। कुटी की गाय का एक-एक गिलास कच्चा दूध पिया। उनको तीन सौ रुपए दान स्वरूप दिए और चल पड़े।
हम पाँचों फिर चले और बीहड डांगर, नाले पार करते हम भीकमपुर पहुँचे। ऊँची घास से रास्ता नहीं सूझता था। एक भी गलत कदम कम से कम बीस फुट नींचे गिरा सकता था। और हुआ भी यही एक जगह रास्ते की खोज में दनायक जी गिरते गिरते बचे वापिस मुड उपर से मुंशीलाल पाटकार ने आवाज लगाई इधर आईये रास्ता यहाँ से है।
भडपुरा के हनुमान आश्रम का तोता हमारे पहुँचते ही अपने सिर पर आकर बैठ गया। उतरने से साफ़ इंकार करता रहा। चिकनी चाँद उसे भा गई। तोता महाराज वीडियो के शौक़ीन थे।
जिस देश में गंगा बहती है का “है आग हमारे सीने मे हम आग से खेला करते हैं “ गीत पर ख़ूब नाचा ससुरा। विडियो बंद करो तो चोंच मारता था। फिर लगाया “चल उड़ जा रे पंछी ये देश हुआ बेगाना” मस्त हो गए तोता राम।
काफ़ी मान-मनुअ्अल के बाद अरूण दनायक भाई के सिर को भी उपकृत किया। एक और साथी की ज़िद पर महाराज वहाँ पहुँचे लेकिन टैक्स के रूप में काटकर ख़ून निकल दिया। उसे काजू दिए तो उसने कुतर कर छोड़ दिए। तोता खुले में रहता था उड़ता नहीं था। पता चला कि उसे गाँजा पीसकर खिलाया गया है इसलिए जब उसे तलफ की आदत हो है तो वह बाबाओं के पास रहता है।
धरती कछार पड़ा वहाँ के स्कूल में दनायक जी ने बच्चों से मुलाकात में गांधी चर्चा की जिसने हमें आन्नदित किया कि गांधी जी की पहुँच समय और भौगोलिक स्थितियों की ग़ुलाम नहीं है। आंगनवाडी केन्द्र की ममता चढार की कर्तव्य परायणता से प्रफुल्लित हुए। धरती कछार से गोपाल बर्मन को कोलिता दादा का बैग रखने को साथ ले लिया। उसने बातों-बातों में बताया कि लोग भाजपा से नाराज़ हैं। ग्रामीण समाज में भी लड़कियाँ खुल कर बिना झिझक सामने आने लगीं हैं और शादियों के लिए लड़कों को निरस्त भी करने लगीं हैं। वहीं दूसरी ओर उनका यौन व्यवहार भी तेज़ी से बदल रहा है। बाय फ़्रेंड-गर्ल फ़्रेंड का कल्चर खेतों में या मेड पर विडीओ, वट्सएप, फ़ेस्बुक के माध्यम से से रहा है। ये मोबाइल क्रांति का असर है। अब लड़कियाँ को सेनेटरी पैड और विटामिन की गोलियाँ आंगनवाड़ी से प्रदान की जाती हैं।
आश्रम से चले तो आधा घण्टे में एक बड़े नाले से सबका सामना पड़ा। सौ फ़ुट चढ़ाई चढ़ कर फिर नीचे उतर नाला पार किया, फिर चढ़ाई चढ़कर ऊपर पहुँचे तो पहाड़ी के सामने एक और नाला दिखा। भूगोल का दिमाग़ लगाया तो देखा कि एक ही नाला सांप की कुंडली की तरह चारों तरफ़ घुमा हुआ है। चार-पाँच बार पहाड़ियाँ चढ़-उतर कर नाला पार करना होगा लोगों का दम निकल जाएगा। निर्णय लिया कि दाहिनी तरफ़ नर्मदा में उतर जाएँ वहाँ से किनारे-किनारे झाँसीघाट की तरफ़ बढ़ेंगे। आगे बढ़े तो एक सौ फ़ुट ऊँची खाई का मुँह नाले में खुल रहा था। वह नाला नर्मदा में मिल रहा था। उतरने को कहीं कोई रास्ता नहीं था। सुरेश पटवा और कोलिता दादा आगे थे बाक़ी तीन पीछे भटक गए। कोलिता दादा को पीछे करके सुरेश पटवा बैठ कर सौ फ़ुट खाई में स्कीइंग करके नाले के किनारे से नर्मदा की गोद में पहुँच गए। उन्होंने कोलिता दादा को भी इसी तरह स्कीइंग करके उतारा। तब तक बाक़ी लोग ऊपर आ गए थे वे चिल्ला रहे थे कि रास्ता कहाँ है। उनको तरीक़ा बताया तो आगे बढ़ने को तैयार न थे। लेकिन कोई रास्ता था भी नहीं। आधे घंटे की मशक़्क़त के बाद सब लोग नीचे आ गए। वहाँ से विक्रमपुर का रेल पुल अब स्पस्ट दिख रहा था और झाँसीघाट का सड़क पुल धुंधला सा नज़र आ रहा था।
ग्वारीघाट से लगभग पचास किमी दूर जबलपुर और नरसिंहपुर की सीमा पर स्थित भीकमपुर गाँव है। नर्मदा दाहिनी तट की ओर शान्त सी बहती है उधर बाँए तट से सनेर अथाह जलराशि लिये आगे बढती है। ऐसा लगता है नर्मदा बडी विनम्रता से सनेर की भेंट की हुई जलराशि वैसे ही स्वीकारती है जैसे भिषुणी भिक्षा ग्रहण करती है और फिर अगले घाट की ओर चली जाती है। सनेर सदानीरा है,इसका जल स्वच्छ है और इसे लोग सनीर भी कहते हैं। सनेर नदी का उदगम सतपुडा के पहाड से होता है। इसका उदगम स्थल लखनादौन जिला सिवनी स्थित नागटोरिया रय्यत है। यह बारहमासी नदी धनककडी, नागन देवरी, दरगडा, सूखाभारत आदि गावों से गुजरते हुये संगम स्थल भीकमपुर पहुँचती है। कोलूघाट तट पर सिवनी जिले के आदिवासियों का मेला भरता है तो संगम तट भीकमपुर में जबलपुर व नरसिंहपुर जिले के लोग शिवरात्रि आदि पर्वो पर एकत्रित होते हैं।
नदी पार करने के लिए नाव का सहारा लिया फिर दो घंटे में विक्रमपुर के रेल्वे पुल के नीचे से निकल झाँसीघाट पहुँच गए। नहाया धोया नर्मदा जी को प्रणाम करके झोतेश्वर धर्मशाला पहुँचे।
प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से
(इस श्रंखला में अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )
नर्मदा परिक्रमा 5
बिजना घाट से भड़पुरा
सुबह जल्दी ही अगली यात्रा पर निकल लिए। पहले नदी के कछार में से ही चलते रहे। मुरकटिया घाट से नर्मदा का पहले बाई फिर दाई ओर मुडना देखा, उन दीर्घ चट्टानों को देखा जिन्हे नर्मदा मानो अपने साथ बहा कर लाई हो और फिर किनारे लगा दिया।हमें यहाँ नर्मदा का एक स्वरूप और दिखा बीच नदी पर स्थित गुफाओं का निर्माण मानो नर्मदा ने चट्टानो पर अपनी लहरिया छैनी हथौडी चलाकर छेद और गुफायें बना डाली हैं। आगे चले दुर्गम तो नहीं पर कठिन मार्ग कहीं नर्मदा के तीरे तीरे तो कहीं बीहड डांगर पार करते हम बढते रहे।
अचानक रास्ते में एक नाला आ गया। किसानों से पूछा तो उन्होंने ऊपर से नाला पार करने को बताया। हम सीधी चढ़ाई चढ़ने लगे। रास्ता बिलकुल भी नहीं था खेतों में कँटीली झड़ियाँ थीं। एक कोने से हरी घास में से रास्ता टटोला तो मिल गया। नाला पार करके डाँगर के उतार-चढ़ाव से लोग भारी थकने लगे। नाले की ठंडाई में थोड़े आराम किया। आगे जाकर एक महाराज मिल गए।
उनसे चार पुरुषार्थ की चर्चा चल पड़ी। हिंदू धर्म में चार पुरुषार्थ की बड़ी महिमा गाई जाती है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। कोई भी मनुष्य जब कोई काम करता है तो इनमे से किसी एक या एकाधिक पुरुषार्थ की प्रेरणा से कर्म करता है। एक साधु से जब हमने इस बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि वे तो सब छोड़ चुके हैं। हरि ओम्।
हमने पूछा कि आदमी प्रकृतिजन्य चीज़ों जैसे भोजन करना, साँस लेना और निस्तार करना छोड़ सकता है क्या?
वे बोले प्रकृतिजन्य चीज़ें कभी छूटती हैं क्या? ये तो ज़िंदगी के साथ ही छूटेंगीं, बच्चा।
हमने कहा कि चार पुरुषार्थ में अर्थ, धर्म और मोक्ष मानव निर्मित अवधारणा या सिद्धांत हैं जबकि काम प्रकृतिजन्य है, उसकी माया जीव जंतु पेड़ पौधों सब में दिखती है। उसे अनंग याने बिना अंग का भी कहा गया है। वह पकड़ में ही नहीं आता तो कैसे छूट सकता है? वे बग़लें झाँकने लगे, कुछ सोचते रहे। फिर बोले सब भगवान की माया है। माया ही तो नहीं छूटती। बड़ी हठीली होती है।
हम अर्थ पर आ गए। पूछा अर्थ छूटता है क्या? वे सचेत हो चुके थे, वे मौन सोचते रहे। फिर पूछा हमारा अर्थ से क्या आशय है।
हमने कहा धन जिससे हम ख़रीदारी करते हैं। धन कमाया जाय या दान में मिले उसकी प्रकृति खरदीने की होती है। जहाँ ख़रीद-बेंच आई तो व्यापार शुरू और व्यापार आया तो लालच तो आना ही है। लालच आया तो चैन गया। धन सारा सुख और आराम दिला सकता है। जैसे आपके आश्रम को चलायमान रखने के लिए धन की ज़रूरत होती है।
वे बोले बिना अर्थ के तो कुछ सम्भव ही नहीं है। काम और अर्थ का निपटारा करके हम धर्म और मोक्ष पर आए कि धर्म और मोक्ष कहीं परिभाषित नहीं हैं। धर्म वह है जिसे जीव धारण करता है अतः सबके धर्म अलग-अलग हुए फिर वे अलग धर्म सामूहिक रूप से सब लोगों पर एक से कैसे लागू हो सकते हैं। वे चुप रहे।
मोक्ष गूँगे का गुड बताया जाता है जिसे जीते जी मिला वह बता नहीं सकता कि मोक्ष की क्या प्रकृति है। जैसे महावीर या बुद्ध ने अपने मोक्ष को कभी नहीं बताया। मोक्ष कैसे मिलेगा यह बताया है। उनके शिष्यों ने बताया कि उन्हें मोक्ष प्राप्त हो गया। जिसे मरने पर मोक्ष मिला वह मोक्ष की प्रकृति बताने हेतु मरने के बाद वापस आ नहीं सकता।
हम अपरिभाषित मूल्यों के दिखावे में जीने वाले समाज हैं। कहते कुछ हैं, मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। इसी को आडंबर या पाखण्ड कहते हैं। पश्चिमी सभ्यता के लोग काम और अर्थ को खुलकर जीते हैं। धर्म और मोक्ष से उन्हें कुछ मतलब नहीं है। इसलिए उन्हें कुछ छुपाना नहीं पड़ता है। हमारा समाज भी अब काम और अर्थ को जी भरकर जी रहा है। उपभोग से अर्थ व्यवस्था का विकास होता है। रोज़गार पैदा होते हैं।
साधु जी मुस्कराए और गले लगाकर पीछा छुड़ाया। चिलम को ब्रह्मान्ध्र तक खींच काम की प्राकृतिक महिमा और मानव जनित धर्म अर्थ और मोक्ष की अंतरधारा में विलीन हो गए। हम आगे की यात्रा पर निकल गए।
फिर नशा धर्म का या नशे का धर्म निभाते साधु मिले। आँखों के लाल डोरे उनके अफ़ीमची और गाँजे की चिलम खींचने की कहानी कह रहे थे। उन्होंने तुलसी जी की चौपाई सुनाई।
जड़-चेतन गुण-दोष मय विश्व कीन्ह करतार
संत हंस गुण पय लहहिं छोड़ वारि विकार।
साधुओं से रुद्र शिव शंकर चर्चा और तत्व ज्ञान की मीमांसा पश्चात औघड़ बाबा के साथ गाँजा चिलम सुट्टा खींचा और आशीर्वाद का आदान प्रदान हुआ।
प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से
(इस श्रंखला में अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )
नर्मदा परिक्रमा 4
भेड़ाघाट से बिजना घाट
भेड़ाघाट से बिजना घाट की यात्रा सबसे लम्बी थकाऊ और उबाऊ थी। पहले हमने तय किया था कि रामघाट में रुककर रात गुज़ारेंगे। मंगल सिंह परिहार जी वहाँ से चार किलोमीटर आगे रास्ता देख रहे थे। सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। खजूर मूँगफली दाने और चने व पानी के दम पर खींचे जा रहे थे। चार घण्टे चल चुके थे। दोपहर में तेज़ धूप में चलने से शरीर का ग्लूकोस जल जाता है और हवा में ऑक्सिजन भी कम हो जाती है। मांसपेशियाँ जल्दी थकने लगतीं हैं और साँस फूलने लगती है। दो बजे के बाद सूर्य की रोशनी सामने से परेशान करने लगती है। ऐसे माहौल में नदी किनारे रास्ता भी नहीं था। बर्मन लोगों ने नदी के कछार को हल चलाकर मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले में बदल दिया था। खाने पीने का कोई ठिकाना नहीं था। साथियों को बाटी-भर्ता का लालच देकर खींचे जा रहे थे, जबकि भोजन का कहीं कोई ठिकाना नहीं था। उधर दनायक जी को परिहार जी मोबाइल से जल्दी आने की कह रहे थे। सब थक कर चूर थे। ऐसे में दल को खींच कर आगे ले जाना ज़रूरी था।
15 अक्टूबर को मंगल सिंह परिहार के आश्रम नुमा फ़ार्म हाऊस में विश्राम का अवसर मिला। वे एक बहुत पुराने परिचित सहकर्मी रहे हैं। उन्होंने दिन के ग्यारह बजे से, जब हम भेड़ाघाट से चले ही थे, तब से बिजना गाँव से नर्मदा पार करके मुरकटिया घाट आकर मोबाईल से सम्पर्क साध कर हमारी स्थिति लेना शुरू कर दिया। वे हर आधा घंटे में दनायक जी को मोबाईल से सम्पर्क साध कर स्थिति पूछते जा रहे थे। कभी मोबाईल लगता था और कभी नहीं लगता था।
हम लोग रामघाट से सड़क छोड़ नर्मदा किनारे आ गए वहाँ से अत्यंत दुरुह यात्रा शुरू हुई। छोटी नदी, नाले, झरने, सघन हरियाली और ताज़े गोंडे गए खेतों की मिट्टी के बड़े-बड़े ढेलों के बीच से घुटनों और ऐडियों की परीक्षा का समय था क्योंकि कहीं भी समतल ज़मीन नहीं थी। आगे छोटी पहाड़ियों का जमघट एक के बाद एक घाटियाँ का सिलसिला जिनको स्थानीय बोली में ड़ांगर कहते हैं। चम्बल में जैसे बीहड़ होते हैं जिनमे कँटीले पेड़-पौधे होते हैं वैसे नर्मदा के आजु-बाजु ड़ांगर का साम्राज्य है उनके बीच से पानी झिर कर जंगली नालों को आकार देते हैं। उनको पार करने के लिए ऊपर चढ़ाई चढ़ना फिर उतरना फिर चढ़ना। यात्रियों का दम निकलने लगता है। पसीने से तरबतर शरीर में पूरी साँस धौंकनी के साथ भरकर पहाड़ियों को पार करने के बीच में नर्मदा दर्शन से हिम्मत बनती टूटती रहती है।
चार बजे कुछ हाल-बेहाल और कुछ निढ़ाल-पस्त हालत में बिजना घाट के सामने वाले मरकूटिया घाट पर मंगल सिंघ परमार बिस्कुट और केले फल के साथ स्वागत आतुर मिले। वहाँ उनकी सिकमी ज़मीन थी। उसी पर खड़े थे। बैठने को कोई छायादार जगह नहीं थी। यात्री बिस्कुट और केलों को क्षणभर में चट कर गए। नाव से नर्मदा पार करके दूसरी पार उतरे वहाँ एक बर्मन दादा पूड़ी और खीर का भंडारा करा रहे थे। यात्रियों ने भंडारा खाया। ख़ूब पानी पिया तो कुम्लाए चेहरों की रंगत और ढीले शरीरों में जान लौटने लगी।
मंगल सिंह परिहार ने प्राकृतिक छटाओं में बसा अपना आश्रम दिखाया। जिसमें पारिजात और रुद्राक्ष के वृक्ष लगे हैं। सूर्यास्त का दृश्य अत्यंत सुंदर नज़र आता है। उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज नागौद रियासत के राजा रहे हैं। परमार, परिहार, बुंदेले और बघेल ये सब गहडवाल राजपूत हैं। परमारों ने महोबा, परिहारों ने नागौद, बुन्देलों ने छतरपुर और बघेलों ने रीवा रियासत स्थापित की थी। ये सब पहले अजमेर के पृथ्वीराज़ चौहान या कन्नौज के जयचंद राज्यों के सरदार थे। 1091-92 में मुहम्मद गोरी के हाथों अजमेर, दिल्ली और कन्नौज हारने के बाद इन्होंने इन राज्यों को स्थापित किया था। नागौद कभी स्वतंत्र राज्य और कभी रीवा के बघेलों का करद राज्य हुआ करता था। उसके उत्तर-पश्चिम में केन नदी का अत्यंत ऊपजाऊ कछारी भाग था लेकिन दक्षिण-पूर्व में पथरीली ज़मीन थी। अतः राजपूतों ने नर्मदा के कछारी मे बसने का निर्णय लिया था।
अंग्रेज़ों ने 1861 में जबलपुर को राजधानी बनाकर सेंट्रल प्रोविंस राज्य बनाया तो रीवा, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल रियासत छोड़कर मध्य प्रांत के नागौद सहित बाक़ी सब इलाक़े उसमें रख दिए। तब ही नर्मदा घाटी का सर्वे करके जबलपुर की सीमा नर्मदा के उत्तर-दक्षिण में चरगवाँ-बरगी तक निर्धारित कर दी। परिहारों को ज़मींदारी में मगरमुहां का इलाक़ा दिया गया। कई परिहार सौ-सौ एकड़ के ज़मींदार बनकर आज के पाटन और शाहपुरा इलाक़े में आ बसे। उनमें मंगल सिंह परिहार के पूर्वज भी थे। मंगल सिंह के पिताजी मुल्लुसिंह परमार निरक्षर थे परंतु उन्होंने अपने आठ बेटों को पोस्ट-ग्रेजुएट कराया।
मंगल सिंह जी से देर रात तक बातें होतीं रहीं। वे हमें एक वेदान्ती साधु के दरबार में ले गए। हमसे कहा कि साधु जी वेदों के प्रकांड विद्वान हैं। आप उनसे गूढ़ प्रश्न कीजिए तब उनकी ज्ञान गंगा बहने लगेगी। हम लोग उनके दरबार मे पहुँचे पाँव-ज़ुहार होने के बाद बातचीत चली तो मौक़ा देखकर हमने एक सवाल का तीर चलाया कि हमारी जानने कि इच्छा है कि महाराज रुद्र और शिव का अंतर बताएँ तो बड़ी कृपा होगी। स्वामी जी ने थोड़ा इधर-उधर घुमाया। फिर विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया कि प्रश्न गूढ़ है और उनका ज्ञान वेदों तक ही सीमित है उन्होंने पुराण नहीं पढ़े हैं। वे नेपाल से नर्मदा की गोद में आकर बस गए हैं। नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं। वापस आकर परिहार जी ने शिमला मिर्च की साग-रोटी और दाल-चावल का बढ़िया भोजन कराया। उसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा। परिहार जी की बातें सुनते रहे। उनकी बातों के क्रम को बीच में बोलकर तोड़ना उनके रुतबे को कम करने जैसा होता है यह बात हम जानते थे परंतु अन्य लोगों को नहीं पता था। एक सहयात्री ने टोकने की कोशिश की तो हमने उसे चुपके से समझा दिया कि भैया:-
बंभना जाय खाय पीय से
क्षत्री जाय बतियाय
लाला जाय लेय-देय से
शूद्र जाय लतियाय।
इस बुंदेलखंड की कहावत को गाँठ बाँध लो और चुपचाप सुनो। सुबह दो-दो रोटियाँ तोड़कर आश्रम से फिर नर्मदा की गोद मे पहुँच गए। इस प्रकार 13,14 और 15 अक्टूबर की यात्रा पूरी हुई। यहाँ से हमारे एक और साथी प्रयास जोशी ने हमसे विदा ली।
प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से
(इस श्रंखला में अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )
नर्मदा परिक्रमा 3
तिलवारा घाट से भेड़ाघाट
15 तारीख़ को हम तिलवारा घाट से चलने को तैयार हुए तो पता चला कि पुल के किनारे से एक नाला गारद और कंपे से भरा होने के कारण दलदली हो गया है लिहाज़ा एक किलोमीटर ऊपर से नए घूँसोर, लमहेंटा,चरगवा, धरती कछार से एक रोड शाहपुरा निकल गई है। लम्हेंटा घाट पर शनि मंदिर से लगा ब्रह्म कुंड देखा। ऐसी मान्यता है कि जब कोई कोढ़ी मर जाता है तो उसके शव को ब्रह्मकुंड में सिरा देते हैं। वह सीधा पाताल लोक पहुँच जाता है।
शाम को चार बजे धुआँधार पहुँच गए। डूंडवारा से पसर कर बहने वाली नर्मदा अचानक लजा कर सिमट गई। उसका पानी सिमट कर गहरे खड्ड में तेज़ी से गिरने लगा तो वह छोटे कणों में बदलकर धुएँ की शक्ल में दिखने लग गया। यही जबलपुर की शान धुआँधार जलप्रपात है। अचानक यादों के फ़्लैश बैक में 1987 का चित्र घूम गया, जब सुरेश पटवा स्टेट बैंक भेड़ाघाट में शाखा प्रबंधक हुआ करते थे। दो साहूकार सुनील जैन और ब्रजकिशोर मूर्तियों के कुशल कारीगरों और नाविकों को दो-तीन रुपया प्रतिमाह सूद पर क़र्ज़ दिया करते थे याने 24-36 प्रतिशत वार्षिक का ब्याज वसूलते थे। जिसके लिए उन्होंने बैंक से लिमिट ले रखी थी। कारीगर और नाविक न तो बैंक से क़र्ज़ लेते थे न बैंक में रक़म जमा करते थे। बैंक का बट्टा बैठ रहा था।
वे दोनों अपनी लिमिट बढ़वाने बैंक आए तो उनसे पुरानी लिमिट का खाता बंद करके बढ़ी हुई लिमिट का नया खाता फ़र्म के नाम से खुलवाने को कहा गया। उन्होंने कारीगरों और नाविकों से रक़म वसूल कर खाते बंद कर दिए। उनके बढ़ी लिमिट के प्रस्ताव जबलपुर क्षेत्रीय कार्यालय भेज दिए गए। इस बीच 200 नाविकों और कारीगरों को दस-दस हज़ार के क़र्ज़ बाँटकर उनके बचत खाते भी खोल दिए गए। वे शोषण मुक्त हुए और बैंक लाभ कमाने लगा। दोनों साहूकारों को नई लिमिट दी और उनको मूर्तियों का स्टॉक रखने को ज़रूरी बताया। उन्होंने कारीगरों से मूर्तियाँ ख़रीदना शुरू कर दिया। इस प्रकार बैंक स्थानीय वित्तीय कारोबार का मध्यस्थ बन गया।
भेड़ाघाट संगमरमर की मूर्तियों और कलाकारी के लिए मशहूर है। संगमरमर या सिर्फ मरमर (फारसी) संग-पत्थर, ए-का, मर्मर-मुलायम = मुलायम पत्थर।
यह एक कायांतरित शैल है, जो कि चूना पत्थर के कायांतरण का परिणाम है। यह अधिकतर कैलसाइट का बना होता है, जो कि कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3) का स्फटिकीय रूप है। यह शिल्पकला के लिये निर्माण अवयव हेतु प्रयुक्त होता है। इसका नाम फारसी से निकला है, जिसका अर्थ है मुलायम चिकना पत्थर।
संगमरमर एक कायांतरित चट्टान है जिसका निर्माण अवसादी कार्बोनेट चट्टानों के क्षरण और कभी-कभी संपर्क कायांतरण के फलस्वरूप होता है। यह अवसादी कार्बोनेट चट्टानें चूना पत्थर या डोलोस्टोन, या फिर पुराना संगमरमर हो सकती है। कायांतरण की इस प्रक्रिया के दौरान मूल चट्टान का पुनर्क्रिस्टलीकरण होता है। अवसादी निक्षेपों से संगमरमर बनने की इस प्रक्रिया में उच्च तापमान और दबाव के चलते मूल चट्टान मे उपस्थित किसी भी प्रकार के जीवाश्मिक अवशेष और चट्टान की मूल बनावट नष्ट हो जाती है। ये चट्टानें डूंडवारा से बगरई तक नर्मदा के आग़ोश में फैली हुई हैं। नर्मदा पहले धुआँधार के खड्ड में न गिरकर उसके दाहिनी तरफ़ से सीधे सरस्वती घाट पहुँचती थी। हज़ारों सालों से नर्मदा चट्टानों को काटती रही तब कहीं जाकर संगमरमर का स्वप्नलोक उजागर हुआ। जिसकी बन्दरकूदनी में राजकपूर ने नाव पर “चंदा एक बार जो उधर मुँह फेरे मैं तुझसे प्यार कर लूँगी, आँखें दो चार कर लूँगी” गीत को सेल्यूलाईड पर नर्गिस के साथ रचकर बॉलीवुड का इतिहास रच दिया। अब लाखों लोग उस सौंदर्य लोक को निहारने वहाँ जाते हैं।
बगरई कारीगरों का गाँव है। वहाँ कारीगरों के 250-300 गाँव हैं। चारों तरफ़ संगमरमर पत्थर की खदानें हैं। दस हज़ार रुपयों में एक ट्रॉली ख़रीद कर कटर, छेनी, वसूली और दांतेदार रगड़ से पत्थर को मूर्तियों की शक्ल में ढाल देते हैं। अधिकांश कारीगरों ने बैंकों से क़र्ज़ लिए थे वे सब ख़राब हो गए, उनका रिकार्ड बिगड़ने से उनको क़र्ज़ मिलना बंद हो गया। अब निजी माइक्रो फ़ाइनैन्स कम्पनी उन्हें 24% वार्षिक दर से क़र्ज़ उनके घर पर देते हैं और घर से ही वसूली करते हैं। बगरई गाँव में एक बसोड के घर रुक कर पानी पिया। अरुण दनायक जी ने उनसे लम्बी बातचीत की, उनके फ़ोटो उतारे। आगे रामघाट की तरफ़ चल दिए। तब पता नहीं था कि हमें बिजना घाट तक का सफ़र तय करना होगा।
पंचवटी तट स्थित नेपाली कोठी, जहाँ हमारे ठहरने की व्यवस्था मेरे अरुण जी के सुधीर भाई ने की थी, वहीं रात्रि विश्राम किया। यहाँ से हमारे एक अन्य साथी अविनाश दवे भी बिछुड गये।