हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 17 – हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 1 ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 1)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 17 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 1  ?

(अक्टोबर 2017)

हमारी ग्रीस की यात्रा – ज़मीं से जुड़े लोग

हम अपने नाती को साथ लेकर इटली और ग्रीस की यात्रा पर निकले थे। इटली की सैर पूरी हो गई तो हम ग्रीस के लिए रवाना हुए। हमारी पहली मंजिल क्रीट थी।

क्रीट ग्रीस का एक सुंदर और सबसे बड़ा द्वीप है। एक तरफ पहाड़ का सुंदर हरा-भरा दृष्य है और दूसरी तरफ आकर्षक शांत, गहरे नीले रंग का समुद्र। क्रीट का हवाई अड्डा भी समुद्र किनारे से सटा हुआ है।

आसमान में उड़ते – उड़ते, सागर पर चलते जहाज़ों को निहारते रहे और अचानक हवाई जहाज़ के पहियों ने धरा को छू लिया। मेरी नज़रें अब भी स्थिर होकर शांत नीले समंदर को निहार रही थी। अचानक तंद्रा टूटी। अनाउंसमेंट ने बेल्ट न खोलने और बैठे रहने की हिदायत दी। थोड़ी देर बाद एयरो ब्रिज से विमान जा लगा और उतरने की इजाज़त दी।

सारा दृष्य मन को आह्लादित कर रहा था।

हमारे रहने की व्यवस्था भी ऐसे ही एक रमणीय स्थल पर था। बस हर वक़्त दिल बाग – बाग हो उठता, हर दृष्य मनमोहक ही था। मुझे प्रकृति से बहुत लगाव है, पेड़ – पौधे, पहाड़, समुद्र, बाग- बगीचे मुझे बहुत भाते हैं। बलबीर मेरी इन छोटी – छोटी बातों का ध्यान रखते हैं। इसलिए क्रीट में भी हमारी बुकिंग ‘ विलेज हाईट गॉल्फ रिज़ोर्ट में किया गया था जो पहाड़ पर, समुद्र के किनारे स्थित था।

इस रिज़ोर्ट तक पहुँचने के लिए रिज़ोर्ट की ही गाड़ी हमने भारत में बैठकर ही ऑनलाइन बुक की थी। गाड़ी हमें एयरपोर्ट पर लेने आई। ड्राइवर अंग्रेजी बोलने में समर्थ था। वह प्लैकार्ड लेकर ही खड़ा था। रोम से क्रीट की दूरी 1299 किमी.है। यात्रा दिन के समय और सुखद रही। हम रिज़ोर्ट पहुँचे।

विशाल परिसर, आला दर्ज़े की व्यवस्थाएँ, छोटे -छोटे दो बेडरूम हॉल, किचन, डाइनिंग रूमवाले यात्रियों के लिए बनाए गए अस्थायी निवास स्थान।

रिज़ोर्ट से मुख्य शहर तक शटल चलती है, निःशुल्क। अतएव सैलानी शहर जाकर आवश्यक भोजन सामग्री खरीद लाते और अपने निवास स्थान पर भोजन पकाने की व्यवस्था होने के कारण भोजन पकाकर ही खाते। मैं स्वयं निरामिषभोजी हूँ अतएव यह व्यवस्था हमारे परिवार के लिए अत्यंत सटीक बैठती है।

यह बताना यहाँ आवश्यक है कि विदेश में बाहर भोजन खाना बहुत महँगा पड़ता है। हमारे रुपये को विदेशी मुद्रा में परिवर्तित करने पर इस बात का अहसास होता है। योरोप में इंग्लेंड को छोड़कर अधिकांश स्थानों में यूरो ही प्रचलित है। एक यूरो 84 भारतीय रुपये के बराबर हैं। ये समय- समय पर ऊपर नीचे होते रहते हैं।

हम भी सात दिन वहाँ रहने के लिए आवश्यक वस्तुएँ बाज़ार से खरीद लाए। रिज़ोर्ट के भीतर भी एमरजेंसी में आवश्यक सामान मिलते हैं जैसे ब्रेड, मक्खन, चीज़, अंडे, ज्यूस, स्थानीय फल आदि। इस स्थान को टक इन कहते हैं।

पहले दिन तो हमने रिज़ोर्ट का आनंद लिया। सुंदर लायब्रेरी, फिल्म देखने के लिए सी.डी उपलब्ध थे। शाम के समय मनोरंजन के कार्यक्रम होते हैं। उस दिन ग्रीक जादूगर मनोरंजन के लिए आया था। उसने हमारा न केवल मनोरंजन किया बल्कि हमें खूब हँसाया। हम भारतीयों को देखकर वह भी बहुत ही खुश हो रहा था।

दूसरे दिन हम शहर घूमने निकले। शटल से हम शहर के मुख्य भाग तक पहुँचे और वहाँ छोटी लाइन की धीरे चलनेवाली ट्रेन में बैठे। यह ट्रेन सारा शहर घुमाता है। वैसे क्रीट कोई बहुत बड़ा शहर नहीं है।

शहर घूमने के बाद हमने अन्य द्वीपों का सैर प्रारंभ किया। हम जिस दिन ‘सिसी’ नामक द्वीप में जाने के लिए रवाना हुए तो पता चला वह इस साल के सीज़न का आखरी दिन था। दूसरे दिन से छोटे द्वीपों के भ्रमण हेतु जहाज़ बंद होने जा रहे थे।

अब वहाँ ठंडी भी बढ़ने लगी थी।

क्रीट ग्रीस द्वीप समूह का सबसे बड़ा और घनी आबादीवाला द्वीप है। यह एजीयन सागर के दक्षिण में स्थित है। यह संसार का अट्ठ्यासीवाँ सबसे विशाल द्वीप है।

कहा जाता है कि मेडिटेरियन सागर का यह पाँचवा विशाल द्वीप है। सिसिली, सार्डीनिया साइप्रस, और कॉरसिका आदि स्थानों के बीच यह क्रीट द्वीप बसा है।

हम जहाज़ से सिसी जाने के लिए टिकट खरीदकर समुद्र किनारे स्थित एक काॅफ़ी शाॅप में आकर बैठ गए। वहाँ की काॅफ़ी का आनंद लेते रहे और आपस में वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता की चर्चा भी करते रहे। समुद्र में उठती लहरें और पछाड़ खाकर पत्थर की दीवारों से उसका टकराना अत्यंत मोहक दृश्य था।

पास की मेज़ पर एक परिवार बैठा था। यद्यपि वे भारतीय दिखते थे परंतु आपस में इंग्लिश में बातचीत कर रहे थे। उनकी ज़बान में विदेशीपन का ऐक्सेंट था। ज़ाहिर था वे काफ़ी समय से देश से बाहर थे।

अचानक अनाउंसमेंट हुआ कि पंद्रह मिनिट में जहाज़ रवाना होनेवाला था। आसपास बैठै सभी यात्री उठने को उद्यत हुए।

विदेशों में अक्सर बहुत बड़े से मग में काॅफ़ी देते हैं, हम भी उसका मज़ा ले रहे थे।

अनाउंसमेंट सुनते ही हम भी शीघ्रता से काॅफ़ी गटकने लगे। मैंने काॅफ़ी के कप में एक बूंद काॅफ़ी न छोड़ी। मेरा नाती ज़ोर से हँसकर बोला, ” नानी, कप में एक बूंद काॅफ़ी न छोड़कर साढ़े चार यूरो वसूल कर रही हो!!” यह सुनकर हम तीनों ज़ोर से हँस पड़े। हम हिंदी में बातचीत कर रहे थे, शायद हँसी मज़ाक़ करते हुए हमारी आवाज़ थोड़ी बढ़ गई जो पड़ोस की मेज़ तक पहुँची। यहाँ स्मरण कराना उचित है कि समस्त योरोप में लोग बहुत धीमे स्वर में बातचीत करते हैं। मोबाइल पर भी उनकी आवाज़ धीमी ही होती है। पास खड़ा व्यक्ति भी कुछ नहीं सुन सकता। भारतीयों का स्वभाव इसके विपरीत है। हम सबकी आवाज़ ऊँची है, शायद हम लोग अधिक सुरीले भी हैं। हमारा परिवार कोई अपवाद नहीं।

हमारी बातचीत सुनकर पड़ोस में बैठै भारतीय परिवार के सज्जन हमारे पास आए और बोले, आप पंजाबी हो? मेरे पति महोदय रीऍक्ट करते उससे पूर्व ही मैंने हामी भर दी। और जनाब ठेठ पंजाबी में शुरू हो गए। बलबीर सिंह ऐसे मौकों पर ज़रा गश खाने लगते हैं क्योंकि उन्हें अपनी मातृभाषा नहीं आती तब मुझे ही मैदान संभालने के लिए आगे आना पड़ता है। हालाँकि यह मेरी भी मातृभाषा नहीं बल्कि ससुराली भाषा है। ख़ैर जनाब ने पंजाबी में अपना परिचय दिया। मैं उनसे बातें करती रही।

अब जहाज़ छूटने का वक्त हो रहा था। शिवेन हमारा नाती टॉयलेट गया था। टॉयलेट का उपयोग करने के लिए 2 यूरो देने पड़ते हैं। उसने बाहर आकर बताया कि टॉयलेट के अंदर प्रवेश करते ही सारा कमरा अंधकारमय हो गया। पॉट के पास खड़े होने पर ऊपर लगे सेंसर के कारण बत्ती जल उठी। फ्लश करने की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयं कुछ समय बाद फ्लश चलने लगता है तथा पॉट स्वच्छ होता हैं। उसके इस अनुभव से हमने भी नई टेक्नोलॉजी के बारे में जानकारी हासिल की। यह बिजली की और पानी की बचत की दृष्टि से की गई व्यवस्था होती है। लोग अक्सर टॉयलेट में बत्ती जलाकर ही लौट जाते हैं।

हम सब जहाज़ में बैठे, वे जनाब हमारे साथ ही बैठ गए। फिर से बातचीत का सिलसिला जारी रहा। उनका परिवार हमारी बातचीत में कोई रुचि नहीं ले रहा था। बनिस्बत वे जहाज़ी सैर का मज़ा ले रहे थे। पर ये जनाब फर्राटे से ग्रामीण भाग में बोली जानेवाली लहज़े में पंजाबी बोल रहे थे। बलबीर सिंह बीच – बीच में मुस्कराते और सिर हिलाते रहे। कभी – कभी इंग्लिश में जवाब देते पर जनाब बस पंजाबी में यों बोल रहे थे मानो ज़बान को किसी ने वर्षों से बाँध रखा था जो आज खुल गई।

बातचीत से ज्ञात हुआ कि जनाब का नाम था हरविंदर सिंह, नौ साल की उम्र में वे अपने पिता के साथ लंदन चले गए थे। वे जालंधर के निवासी थे। उनकी उम्र पचपन के करीब थी पर चेहरे पर झुर्रियों का ऐसा जाल बिछा था कि वे पैंसठ के ऊपर लग रहे थे। ! अपनी पत्नी, तीन बेटियाँ और एक चार वर्षीय नातिन को लेकर लंदन से सप्ताह भर छुट्टी मनाने तथा पत्नी की पचासवीं वर्षगांँठ मनाने ग्रीस आए थे।

जहाज़ में बैठै वे निरंतर बातचीत करते रहे। कभी – कभी खुशी से भर उठते और बलबीर का हाथ अपने हाथ में ले लेते और बड़ी देर तक सहलाते रहते। कहते रहे कि लंडन में तो जी बड़ी संख्या में पंजाबी रहते हैं, पर वे हमारे जैसे परदेसी हैं जो वहीं उनकी तरह पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं पर हम तो आज भी भारतीय हैं, उनकी नज़रों में हम ख़ास पंजाबी हैं।

उनके बर्ताव से मुझे एक बात स्पष्ट हो रही थी कि इतने वर्षों के बाद भी उनके भीतर अपनी मिट्टी की खुशबू और भाषा की ललक किस क़दर घर किए हुए थी। उनकी पत्नी कीनिया में जन्मी, पली बढ़ी पंजाबी महिला थीं पर उन्हें केवल इंग्लिश और टूटी -फूटी हिंदी आती थी। हरविंदर सिंह मोने थे अर्थात सरदारों की तरह पगड़ी नहीं बाँधते थे पर थे सिक्ख संप्रदायी के। उन्होंने दो घंटे की यात्रा के दौरान अपने सारे इतिहास – भूगोल की जानकारी दे दी। उनके चेहरे पर एक लालिमा सी छाने लगी थी। चेहरे की झुर्रियाँ कुछ चमकने लगी थी। आँखों में एक अलग सी आभा दिखाई देने लगी थी। क्या इंसान के हृदय में देश से दूर रहने पर देशवासियों के लिए इतना स्नेह उमड़ता है ? मैं सोच रही थी कि यदि ऐसा है तो हम देश से दूर क्यों जाकर बसते हैं!

हम सिसी पहुँचे। यह मछुआरों का गाँव था पर कहीं कोई दुर्गंध नहीं, कूड़ा – कचरा नहीं बल्कि साफ़ सुथरे पाॅश रेस्तराँ बने हुए थे। हमने उस छोटे से द्वीप में एक चक्कर लगाया। सुंदर छोटे -छोटे घर बने हुए थे। खिड़कियों के बाहर सुंदर मौसमी फूल गमलों में लगे आकर्षक दिखाई रहे थे। घर की खिड़कियों पर लेस के पर्दे लगे थे जो सुंदर और मोहक दिख रहे थे।

समुद्र से थोड़ी दूरी पर कई छोटे- बड़े रेस्तराँ थे। दोपहर का समय था। हमें भी कहीं भोजन कर लेने की आवश्यकता थी। यहाँ के अधिकांश रेस्तराँ में बीयर के साथ फिशफ्राय या मछली के ही अन्य व्यंजन प्रसिद्ध हैं।

एक सुंदर से रेस्तराँ में हम तीनों भी बैठ गए मैन्यूकार्ड देखते ही मैं चकरा गई। ऐसा लगा जैसे पास रखा बटुआ भी काँप उठा। बारह -पंद्रह यूरो के नीचे कोई डिश न थी। पर खाना तो था। हम लोगों की एक अजीब मानसिकता है कि हम अनजाने में ही विदेशी मुद्राओं को देशी मुद्रा में कन्वर्ट करते हैं और ख़र्च से पूर्व हृदय की गति बढ़ जाती है।

आप पाठकों से यही निवेदन करूँगी कि आप जब विदेश घूमने जाएँ तो करेंसी कन्वर्ट कर तुलना न करें। ऐसा करने पर घूमने का आनंद कम हो जाता है।

खैर हम तीनों ने यही बात आपस में चर्चा की फिर मन को वश में किया और क्या खाएँ इस पर तीनों विचार करने लगे!

इतने में हरविंदर सिंह का परिवार भी वहीं आ गया। उन्होंने हम सबके साथ बैठकर खाने की इच्छा व्यक्त की। ‘ मोर द मेरियर ‘ इस सिद्धांत में हम लोग भी विश्वास रखते हैं। चार टेबल जोड़े गए और सब साथ में बैठे। अब सभी बातचीत करने लगे। कुछ इंग्लिश कुछ हिंदी और कुछ पंजाबी में। हँसी – ठट्ठे भी होने लगे। इतने में हरविंदर जी खड़े हो गए, बलबीर उनके बाँई ओर बैठे थे। उन्होंने बलबीर का हाथ पकड़ा और कहा – ” अब सारा भारतीय परिवार एक साथ खाना खाएगा, यह हमारा सौभाग्य है कि आप मेरे भाई हो, आज का बिल मैं पे करूँगा। “

यह सुनकर हम दोनों पति-पत्नी हतप्रभ हो गए। हम इसके लिए प्रस्तुत नहीं थे। अबकी बलबीर ने मैदान संभालकर कहा, ” हम आपके शुक्रगुज़ार हैं, आप भारत आइए हमें मेहमान नवाज़ी का मौक़ा दीजिए। हम भी आपके पास लंडन ज़रूर आएँगे तब आप अपनी इच्छा पूरी कर लेना। आज माफ़ करें। साथ में खाएँगे ज़रूर पर डच करेंगे। “( अपना ख़र्च उठाना) बलबीर के ज़रा ज़ोर देने पर वे थोड़ी उदासीनता के साथ मान गए। भोजन के पश्चात रेस्तराँ के टिश्यू पेपर पर एक दूसरे को पूरा पता, फोन नं, ई-मेल आई डी आदि दिए गए।

रेस्तराँ में लोकलगीत बज रहे थे और वहाँ पर आए हुए सैलानी खूब पीकर झूम रहे थे। सब अपनी मेज़ से उठ – उठकर नाचने लगे।

सारा माहौल उत्सव – सा बन गया। उपस्थित लोगों के चेहरे पर बेफ़िक्री की छाप थी। जीवन का हर पल आनंद लेने की यह वृत्ति हमें भी अच्छी लगी।

रेस्तराँ के मालिक के साथ उसके दोस्त ने शर्त लगाई तो संगीत के ताल पर वह नृत्य करने लगा और नृत्य करते हुए एक खाली तथा गोलाकार मेज़ को पहले अपने एक हाथ में उठा लिया फिर उसे अपनी उँगलियों पर गोल – गोल घुमाने लगा और नृत्य करने लगा। संगीत समाप्त होने पर रेस्तराँ के मालिक को उसके दोस्त ने पचास यूरो दिए जो शर्त की रकम थी। हमें लोकल लोगों ने बताया कि इस तरह के मनोरंजन ग्रीस में आम बात है। वे जीवन के हर दिन का आनंद लेने में विश्वास करते हैं। हमें उनकी यह जीवन के प्रति दृष्टिकोण अच्छा लगा। फिर बातचीत करते हुए हम जहाज़ पर लौट आए।

ज्यादातर बातचीत हम दोनों ही कर रहे थे क्योंकि जनाब हरविंदर सिंह जी ने तो उस दिन मानो पंजाबी बोलने का व्रत ले रखा था। किसी को बोलने का ख़ास मौका नहीं दे रहे थे। उनके घर के सदस्य उनका उत्साह देखकर बगले झाँकने लगे। पर हमें उनके उत्साह और उमंग देखकर अंदाजा आ रहा था कि वे क्यों इतने उतावले हो रहे थे। सैर करके अपने -रिज़ोर्ट लौट आए।

तीसरे दिन हमने लोकल मार्केट, और साधारण जगहों की सैर की। उस दिन शाम को रिसोर्ट में ब्राज़िलियन नृत्य का आयोजन था। यह नृत्य ब्राज़िलियन ही कर रहे थे। इसे सांबा नृत्य कहते हैं। इनके वस्त्र काफ़ी अलग होते हैं, खूब रंगीन भी होते हैं। नृत्य में शरीर का लचीलापन स्पष्ट दिखाई देता है। नृत्यांगनाएँ बहुत ही दुबली -पतली होती हैं। सिर पर लंबे और रंगीन पंखों जैसी पतली -पतली बेंत लगी रहती हैं। साथ में लाइव म्यूज़िक भी था। हमने दो घंटे के इस कार्यक्रम का खूब आनंद लिया।

चौथे दिन हमें रिसोर्ट में ब्रेकफास्ट के लिए आमंत्रण मिला साथ ही फ्री पैर के मसाज का कुपन दिया गया। यह रिसोर्ट की ओर से कॉम्लीमेंटरी था।

दो दिन हम आस – पास की कुछ और जगहों के दर्शन कर एथेंस के लिए रवाना हो गए।

हद तो तब हो गई जब पूरी छुट्टियाँ काटकर हम अपने घर लौटे। अभी हम टैक्सी से उतरकर लिफ्ट में कदम रखे ही थे कि मेरा फ़ोन बज उठा। उधर से हरविंदर सिंह जी हमारे कुशल पूर्वक घर पहुँचने की बात पूछने के लिए लंडन से फोन कर रहे थे।

सच में लोग परदेसी तो बन जाते हैं पर देश और भाषा दिलो- दिमाग़ में सुप्त रूप से बसे रहती हैं। सच में ऐसे लोग अपनी ज़मीं से जुड़े लोग होते हैं!!!!

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

31/10/17

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 16 – हमारी इटली यात्रा – भाग 4 ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी इटली यात्रा – भाग 4)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 16 ☆  

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(अक्टोबर 2017)

हमारा चौथा पड़ाव था वेनिस।

रोम से वेनिस सुपर फास्ट ट्रेन द्वारा चार घंटे का सफर है। कैरोलीन और डेनिस भी साथ थे। वास्तव में कैरोलीन के कहने पर ही हम भी चल पड़े थे। वे दोनों वहाँ से तेईस दिनों की क्रूज़ पर निकलने वाले थे। जिस होटल में वे रहने जा रहे थे, हमें भी वहाँ एक कमरा मिल गया। ट्रेन से जाते हुए हमें वहाँ की हरियाली और कन्ट्रीसाइड तथा गाँवों की छवि देखने को मिलीं।

यह शहर शेक्सपियर की पुस्तक द मर्चेंट ऑफ वेनिस के कारण और भी जग प्रसिद्ध है।

हम वेनिस पहुँचे। होटल में सामान रखकर गंडोला से सैर करने निकल पड़े। पूरे शहर में बहती नहर वेनिस शहर का सबसे बड़ा आकर्षक और दर्शनीय स्थल है! कुछ साठ कैनेल हैं और सौ से अधिक सुंदर छोटे -छोटे पुलों से यह शहर सजा हुआ है।

गंडोला काठ की बनी सुंदर सजी हुई लाल -काली नौकाएँ हैं जिसे माँझी चलाता है और एक घंटे भर नहर की सैर कराता है। ये कैनेल समुद्र के जल से भरते हैं। सारा शहर कैनेल के किनारे स्थित है जो सात सौ साल पुराना माना जाता है। यह प्राचीन काल में व्यापार का केंद्र था। जैसे हमारे देश में लखपत, बूँदी या लोथल में हज़ारों साल पहले व्यवस्था थी।

हम गंडोले में बैठे, मेरे माथे पर लगी बड़ी बिंदी देख नाविक ने पूछा ” इंडिया?” हमने भी मुस्कराकर हामी भर दी। उसने तुरंत अपना मोबाइल निकाला और अमिताभ बच्चन का गाना सुनाया – दो लफ्जों की है दिल की कहानी… वह बड़ा प्रसन्न था कि भारतीय फ़िल्मों की शूटिंग करने वहाँ जाते हैं। बातों ही बातों में एक घंटे की सैर पूरी हो गई।

कैरोलीन और डेनिस ने कहा कि सेंट मार्क स्क्वेअर ज़रूर जाना है। वह समुद्र का किनारा है और बहुत ख़ूबसूरत भी। हम गंडोले की सैर पूरी करके पैदल चलकर सेंट मार्क स्क्वेअर के लिए निकले।

वहाँ की सड़कें बहुत सँकरी सी हैं। वहाँ चलकर ही जाया जाता है। किसी प्रकार की गाड़ियाँ नहीं चलती। बीच -बीच में छोटे – छोटे पुल पार करने पड़ते हैं। सड़क के किनारे सोवेनियर की सुंदर दुकानें हैं।

वेनिस में काँच के सामान बनाने की कई छोटी-छोटी फैक्ट्रियाँ हैं। काँच को फूँक मारकर किस तरह फुलाते हैं और आकार देते हैं यह दृश्य देखने लायक होता है। जिसे देखने के लिए भारी संख्या मैं सैलानी जाते हैं। काँच की बड़ी- बड़ी मूर्तियाँ भी बनते हुए हमने देखे।

सड़क के किनारे कॉफ़ी, वाइन, बीयर, ज्यूस आदि की छोटी – छोटी दुकानें हैं। ये दुकानें रास्ते के किनारे बने फुटपाथ पर हैं।

हमने भी वहाँ कॉफी का मज़ा लिया और साथ बातचीत करते हुए सेंट मार्क स्क्वेअर पहुँचे।

एक विशालकाय इमारत के बीच बड़ा – सा खुला आँगन दिखाई दिया। पुराने ज़माने में विभिन्न व्यापारी वर्ग वहाँ एकत्रित होते थे तथा अपनी वस्तुओं को अन्य व्यापारियों को बेचते थे। उस आँगन में चार – पाँच हज़ार लोग एक साथ खड़े हो सकते हैं इतनी बड़ी जगह है। चारों तरफ आज रेस्तराँ हैं जहाँ शाम को लाइव म्यूज़िक का कार्यक्रम चलता है। एक पुराना पर सुंदर चर्च भी है।

छह बजे घंटा घर में ज़ोर से घंटा बजने लगा। अँधेरे के झुरमुट में अचानक सारी बत्तियाँ जल उठीं और सारी जगह अचानक जगमगा उठी। सब सैलानी नाचते – झूमते से दिखाई देने लगे, हमने भी हाथ-पैर, कमर हिलाने का प्रयास किया और आपस में हँसते रहे। हमारा नाती बाबू हमें नाचते देख बड़ा खुश हुआ क्योंकि उसने हमें कभी नाचते हुए नहीं देखा था।

अचानक हमें अहसास हुआ कि कैरोलीन और डेनिस वहाँ से गायब हो गए थे।

थोड़ी दूर जब हम समुद्र की ओर बढ़े तो देखा दोनों पति-पत्नी एक दूसरे के कँधे पर हाथ रखकर, समुद्र की ओर एक टक निहार रहे थे। हम उनके निकट पहुँचे तो उन दोनों की तंद्रा टूटी।

कैरोलीन ने बताया कि उस दिन उनके विवाह को छप्पन वर्ष पूर्ण हुए थे। कैरोलीन सत्रह वर्ष की थीं और डेनिस उन्नीस वर्ष के जब उनका विवाह हुआ था। वे यहीं पर हनीमून मनाने के लिए आए थे। आज फिर एक बार अपनी यादों को रंग भरने और उन्हें फिर से जीने के लिए वे इतनी दूर लौट आए। कितना ख़ूबसूरत अनुभव रहा होगा! कितनी सुंदर और सुखद यादें उभर आई होंगीं!

उन्हें देख कर हमें प्रसन्नता हुई कि कितने सावन और पतझड़ साथ बिताने के बाद आज भी उनमें उमंग है, प्रेम है, साथ – साथ घूमने का जुनून है। सप्ताह भर घूमते समय हमने यह भी ग़ौर किया कि वे एक दूसरे का हाथ थामें ही चलते थे। हम भारतीयों को कितनी गलत फ़हमी है कि पाश्चात्य देशों में लोग कई विवाह करते हैं और तलाक़ भी ले लेते हैं। उनमें परिवार के प्रति प्रेम नहीं। पर वास्तविकता कितनी अलग और खूबसूरत है!

हम जब वेनिस से रोम लौट रहे थे तो वे स्टेशनपर हमें अलविदा कहने के लिए भी आए। ई-मेल और फोन नंबर लिया। ऑस्ट्रेलिया आने और उनके पास रहने का आमंत्रण भी दिया। हमने भी उन्हें सुंदर भारत देखने का निमंत्रण दिया। ईश्वर इस दंपति को लंबी उम्र दें हम यही प्रार्थना करते हुए एक दूसरे से विदा लिए।

रोम में और दो -तीन दिन रहकर लोकल बस हॉप ऑन हॉप ऑफ में बैठकर हम लोकल रोम घूमते रहे। इन बसों की खासियत यह है कि एक बार टिकट खरीद लें तो दिन भर अलग अलग जगह पर चढ़ते – उतरते रहिए और दर्शनीय स्थलों का आनंद लीजिए।

दस दिन रोम और उसके आस-पास की जगहें देखने के बाद हम ग्रीस के लिए रवाना हुए।

इस यात्रा के दौरान एक बात खुलकर सामने आई कि प्रेम, अपनत्व, रिश्ते आदि निभाने की बात जाति, धर्म, देश से संबंधित नहीं है।

यह व्यक्तिगत बातें हैं जिसे हम आम लोग समझते नहीं या यों कहें समझना नहीं चाहते। इस विशाल संसार में हमने दो दोस्त और बना लिए।

हम दस दिन ग्रीस में रहकर भारत लौट आए।

दिसंबर का महीना था कि एक दिन कैरोलीन का फोन आया और उसने बताया कि वे केवल सात दिनों का क्रूज़ कर लंडन पहुँचे थे कि डेनिस बहुत बीमार पड़े और पाँच दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद वे चल बसे। कहते हुए कैरोलिन का गला भर आया। मैं सांत्वना देने के लिए शब्द ही नहीं जुटा पा रही थी।

मन ही मन मैं सोचती रही कि विवाह की छप्पनवीं वर्षगाँठ देश से दूर वेनिस में आकर मनाई और एक जीवन समाप्त हो गया। ईश्वर किसकी मौत कहाँ तय करते हैं यह कहना मुश्किल है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 15 – हमारी इटली यात्रा – भाग 3 ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी इटली यात्रा – भाग 3)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 15 ☆  

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(अक्टोबर 2017)

हमारा तीसरा पड़ाव था पॉम्पे।

पॉम्पे संसार का एकमात्र ऐसा शहर है जो ज्वालामुखीय लावा के कारण उध्वस्त हो चुका था और फिर कभी न बसा। यह शहर बहुत पुराना शहर था। पॉम्पे मैगनस नामक रोमन जेनरल ने इस शहर की स्थापना की थी। बाद में यह शहर लोगों की छुट्टी मनाने की जगह बन गई थी। यहाँ के मकान अत्यंत सुंदर और रंग बीरंगी टाइल्स से बने थे। यहाँ फलों -सब्ज़ियों का बाजार था, रेस्तराँ थे। तकरीबन 12000 लोग यहाँ स्थायी रूप में रहते थे। उत्सवों के समय आसपास के रहवासी भी उत्सव मनाने यहाँ ऊपर आया करते थे।

नेपल्स की खाड़ी के पास एक ज्वालामुखीय पर्वत है जिसका नाम है विसूवियस।

सन 79 में इस पर्वत से निकला लावा या भूराल ने देखते ही देखते पूरे शहर को उध्वस्त कर दिया, निगल लिया। लोगों को एक क्षण में पत्थर जैसा बना दिया।

आज मनुष्य की कोई ऐसी मूर्ति यहाँ नहीं हैं पर उस समय के बर्तन, कुछ पत्थर बने पशु और उध्वस्त घर अवश्य देखने को मिलते हैं। सारा शहर सुचारु रूप से बना हुआ था। आधुनिक ढंग से सड़कें, गलियों में वितरित तथा स्टेटस के हिसाब से मकान बने हुए थे। एक भव्य मंदिर भी था क्योंकि अभी लोग ईसाई नहीं थे। वहाँ पहुँचकर सच में मन में टीस- सी उठती है कि किस तरह बसा बसाया शहर और एक अत्यंत उन्नतशील सभ्यता क्षण में उध्वस्त हो गई। तकरीबन 10, 000 लोगों की मौत हुई थी। 1748 तक किसी को इस शहर के अस्तित्व के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। आज यह स्थान UNESCO की देखरेख में है। आज भी यहाँ आरक्योलॉजिकल सर्वे हो रहे हैं।

पॉम्पे के उध्वस्त शहर में घूमते हुए हमें आठ – नौ घंटे लगे। हम पॉम्पे के इतिहास की जानकारी पढ़कर ही यह स्थान देखने गए थे। हर स्थान के दर्शन के समय हम ऐतिहासिक तथ्यों से रिलेटे कर सके।

स्मरण रहे हमने हर स्थान का चुनाव अपनी जिज्ञासा के अनुरूप किया था और हम किसी ग्रुप के साथ कभी नहीं घूमें। उसका मुख्य कारण यह है कि ऐसी ट्रिप वाली बसें आपको जगहें बाहर से ही दिखाती हैं या दो घंटे में सैर करके लौट आने को कहती है। हम इस तरह से घूमना नहीं चाहते थे तो हर स्थान पर पर्याप्त समय दे सके।

यहाँ हमें बड़े -बड़े घरों के सामने ईंट से बँधी चौड़ी सड़कें दिखीं। सारा शहर छोटी छोटी गलियों में वितरित थी। बड़े अमीरों के घर के भीतर सुंदर मूर्तियाँ लगी दिखाई दी, कुछ घरों में फव्वारे और बगीचे भी दिखाई दिए। सभी आठ दस घर एक दूसरे के साथ स्टे हुए थे। फिर उसके बाद एक गली हुआ करती थी। हर घर के बाहर बरामदा सा है। उनमें खंभे बने हुए हैं।

हमने ज्वालामुखी की राख से लिप्त बर्तन, कुत्ते और घर में उपयोग में लाए जानेवाले बर्तन देखे। हमारा मन सिहर उठा। सभी कुछ मानो ठोस पदार्थ से बने हुए दिखाई देते हैं। उस रात क्या हुआ होगा इसका अंदाज़ा लगाना भी कठिन ही है।

बाहर निकलने के गेट से पूर्व एक रेस्तराँ है जहाँ साधारण इटालियन भोजन और कॉफी की व्यवस्था है। हम भी सारा दिन चलकर थक चुके थे तो थोड़ी देर आराम करने के लिए कॉफी का स्वाद लेकर वहाँ बैठ गए।

उस दिन हम बारह पर्यटक रिसोर्ट से चले थे तो हमारे लिए एक मिनी बस की व्यवस्था रिसोर्ट ने कर दी थी। अवश्य ही थोड़ी ऊँची कीमत देकर यह व्यवस्था की गई थी उसका कारण यह था कि पॉम्पे तक जाने के लिए कोई ट्रेन की व्यवस्था नहीं थी। वहाँ प्राइवेट टैक्सी या इस तरह के मिनी बस द्वारा ही पहुँचा जा सकता है। लौटते समय हमें वह पहाड़ भी दिखाया गया जहाँ से ज्वालामुखी का प्रकोप हुआ था। हम नैपल्स की खाड़ी तक पहुँचे। यह ऐतिहासिक शहर है। यहाँ बहुत पुराने चर्च भी हैं। यहाँ की इमारतें अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध हैं। हम सभी बहुत थक चुके थे इसलिए हम किसी भी चर्च की सुंदरता को देखने के लिए नहीं गए जिसका आज हमें पश्चाताप भी है।

चौथे दिन हम रिज़ोर्ट में रहे। यहाँ भोजन पकाने की सुविधा थी। यहाँ हमने एक बेडरूम हॉल किचन वाला फ्लैट बुक किया था। उस दिन हमने कैरोलीन और डेनिस को दोपहर के समय भारतीय भोजन के लिए आमंत्रित किया था। उन्हें भी हमारा यह आतिथ्य बहुत मन भाया।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 14 – हमारी इटली यात्रा – भाग 2 ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी इटली यात्रा – भाग 2)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 14 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – हमारी इटली यात्रा – भाग 2 ?

(अक्टोबर 2017)

रोम में घूमते हुए हम अपने पसंदीदा और चयनित स्थानों को प्रतिदिन देखने निकलते। यहाँ आप सबसे एक बात साझा करती हूँ आप अगर किसी ट्रैवेलिंग कंपनी के साथ जाते हैं तो वे आपको दिखाएँगे तो सभी महत्त्वपूर्ण स्थान पर विस्तार से देखने का समय नहीं दिया जाता। जिस कारण आप अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान पर पर्याप्त समय रुककर उसका आनंद नहीं ले पाते। यही कारण है कि हम अपनी यात्रा की व्यवस्था स्वयं करते हैं। दौड़-भागकर आप किसी भी स्थान को देखने का आनंद पूर्ण रूप से नहीं ले सकते।

अब हमारा दूसरा पड़ाव था वैटीकन सिटी।

हमारे रिसोर्ट के शटल गाड़ी ने हमें सुबह – सुबह ही स्टेशन ले जाकर उतार दिया। हमें पता था वह दिन हमारे लिए लंबा और थकाने वाला था तो हम भरपेट नाश्ता करके ही निकले। समय पर ट्रेन आने पर हम वैटीकन शहर पहुँचे।

यह शहर थोड़ी ऊँचाई पर स्थित है। अर्थात पहाड़ी इलाका है। यह सारा शहर ऊँची दीवार से घिरा हुआ है। संसार का यह सबसे छोटा शहर और सबसे छोटा देश भी है। परंतु यहाँ जाने के लिए वीज़ा की आवश्यकता नहीं होती।

कैथोलिक ईसाई धर्म के लोगों के लिए यह स्थान धार्मिक स्थल है। इस छोटे शहर में काफी हलचल रहती है। यह न केवल ईसाई धर्म गुरु पोप का निवास स्थान है बल्कि यह सुंदर और ऐतिहासिक संरचनाओं के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। ईसाई धर्म के लोगों के बकेट लिस्ट में यहाँ आने की उत्कट इच्छा अवश्य होती है।

यह हमारा सौभाग्य ही है कि हमें इस ऐतिहासिक स्थान पर पर्यटन करने का अवसर मिला।

वैटीकन के मुख्य तीन हिस्से हैं। सेंट पीटर्स बैसिलिका, सिस्टीन चैपेल और वैटिकन पेलेस

इसमें विशाल संग्रहालय है। इस संग्रहालय में तीन हज़ार वर्ष पूर्व की वस्तुएँ भी देखने को मिलती हैं।

बैसिलिका का हर कोना आकर्षक चित्रकारी से परिपूर्ण है। दीवारें, छत पर सभी जगहों पर सुंदर चित्रकारी है। कहीं – कहीं पर विशाल कालीन भी दीवारों पर दिखाई देते हैं। यहाँ अत्यंत रंगीन और आकर्षक चित्रकारी के सुंदर नमूने दिखाई देते हैं। ये चित्रकारी रोम साम्राज्य के विस्तार, उसकी संस्कृति और समाज का दर्शन कराते हैं।

अगर आप पोप के निवास स्थान का भ्रमण करना चाहते हैं तो लोकल उनकी अपनी बसें चलती हैं जो सब तरफ काँच से बनी पारदर्शी होती है। जो यात्रियों को वहाँ की सैर कराती है। इन सबके लिए टिकट है। भीतर उनका अपना प्रेस है, बिशप और पोप का आवास स्थान है, सुंदर उद्यान है। कई आकर्षक फव्वारे हैं। बस से उतरने की इजाजत नहीं होती। भीतर कई प्कार के फूल दिखाई दिए। बस में साथ चलनेवाले गाइड ने बताया कि वहाँ के बगीचों में जो फूल दिखाई देते हैं वे संसार के विभिन्न राज्यों से लाए गए हैं। भीतर भरपूर स्वच्छता दिखाई दी। इमारतें चमक रही थीं क्योंकि निरंतर सफाई की जाती है। वैटीकन सिटी घूमने में भी कई घंटे लगते हैं।

यहाँ हज़ारों की संख्या में पर्यटक आते हैं। विभिन्न दालानों में भयंकर भीड़ दिखाई देती है। विभिन्न चित्रकारी और अन्य सुंदर वस्तुओं को देखते हुए जब हम आगे बढ़ रहे थे तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि चल नहीं रहे थे बल्कि भीड़ के धक्के से बस आगे बढ़ते जा रहे थे। विभिन्न प्रकार की गंध से पूरा वातावरण विचित्र सा हो रहा था। हम और अधिक वहाँ न रुक सके और खुले विशाल परिसर की ओर निकल पड़े।

वैटिकन सिटी सन 1929 में टाइबर नदी के किनारे आज के इस रूप में स्वतंत्र पहचान के साथ स्थापित किया गया। यह मूल रूप से कैथोलिक चर्च के रूप में चौथी शताब्दी में निर्माण किया गया था। यहाँ पादरी पीटर चौक है जो विशाल, भव्य तथा बैसीलस का एक हिस्सा है। इस शहर में एक पुस्तकालय भी है जहाँ पुराने ऐतिहासिक पुस्तकें जो पैपरस पर लिखे गए थे उपलब्ध हैं।

इस सुंदर आकर्षक छोटे से शहर को देखने के लिए एक दिन का कार्यक्रम बनाकर ही जाना चाहिए। शाम को सात बजे हमारे रिसोर्ट की शटल बस रेल्वे स्टेशन पर आती थी। हम पाँच बजे के करीब ही वैटिकन सिटी से निकल गए। हम चलकर स्टेशन पहुँचे। मौसम में ठंडक थी इसलिए चलते हुए परेशानी नहीं हुई। समय पर ट्रेन से शटल बस में बैठकर रिसोर्ट पहुँचे। हम इतने थक गए थे कि उस रात हम जल्दी ही सो गए। हमारे रिसोर्ट में भोजन पकाने की पूरी सुविधा थी। यह एक फ्लैट जैसी व्यवस्था है। हम अपना भोजन पकाकर ही खाते थे जिससे देश का स्वाद परदेस में भी मिलता रहा।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 13 -हमारी इटली यात्रा – भाग 1 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी इटली यात्रा… का भाग 1 – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 13 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… हमारी इटली यात्रा – भाग 1 ?

(अक्टोबर 2017 )

सफ़र करना किसे नहीं भाता है पर सफ़र के दौरान अगर सभी इंद्रियों का उचित उपयोग करें तो हम न केवल दृश्य देखने का आनंद ले सकते हैं बल्कि नए लोगों से परिचय भी बढ़ा सकते हैं। मैं ये दोनों बातें अपने अनुभव से कह रही हूँ। इससे सफ़र का आनंद भी बढ़ जाता है।

अपने पाठकों के साथ मैं अपना एक सुंदर स्मरणीय अनुभव साझा करना चाहूँगी।

वर्ष 2017 अक्टोबर हम इस वर्ष इटली और ग्रीस घूमने गए थे। पहला पड़ाव रोम था। हमारे रहने की व्यवस्था एयरपोर्ट से पचास किलो मीटर दूर एक सुंदर गॉल्फ क्लब रिज़ोर्ट में की गई थी।

शहर से दूर होने के कारण इस रिज़ोर्ट से रोज़ सुबह दो बार मुख्य मेट्रो रेलवे स्टेशन तक यात्रियों को ले जाने की व्यवस्था रखी गई थी। शाम को साढ़े सात बजे फिर वहीं से यात्रियों को रिज़ोर्ट वापस ले आने की व्यवस्था भी थी। इस व्यवस्था के कारण सभी रोज़ कहीं न कहीं सैर करने निकलते। सारा दिन दर्शनीय स्थानों तक यात्रा करते आनंद लेते और संध्या होते ही लौट आते। मेट्रो रेलवे की सुविधा उपलब्ध होने के कारण खास टैक्सी द्वारा यात्रा करने की भी आवश्यकता नहीं होती है जिससे काफी समय और धन की बचत भी होती है।

हम 14 अक्टोबर 2017 रोम पहुँचे। दूसरे दिन हम लोकल विज़िट के लिए रवाना हुए।

हम सबसे पहले कोलेज़ियम देखना चाहते थे! इस शहर के दर्शनीय आकर्षक स्थानों के फ़ेहरिस्त में कोलेजियम सर्वोपरि था।

बचपन से इतिहास में इसकी तस्वीरें और अन्य ऐतिहासिक पुस्तकों में ग्लैडियटर्स की लड़ाइयों के बारे में भी खूब पढ़ा था इसलिए हम उसे साक्षात आँखों से देखकर उस इतिहास को जीना चाहते थे।

यहाँ पूरे परिसर का अगर आप चक्कर काटना चाहते हैं तो दस -पंद्रह लोगों के समूह के साथ एक गाइड साथ चलता है और वह विस्तार से जानकारी देता है। इसके लिए बड़ी रकम भी टिकट के लिए देनी पड़ती है। हमें इटालियन भाषा आती नहीं अतएव अंग्रेज़ी में बोलने वाले गाइड के साथ हम भी हो लिए।

अब घर से बाहर निकले हैं तो खास जगहें तो देखनी ही है फिर जेब की ओर ध्यान देंगे तो आनंद लेने से दूर हो जाएँगे। यह सोचकर हमने भी बड़ी कीमत अदा की और गाइड के साथ हो लिए। यह तय कर लिया कि कहीं और एडजस्ट करेंगे ताकि आर्थिक संतुलन न बिगड़े।

यह कलोज़ियम 70 ईसा पूर्व जनता के मनोरंजन के लिए बनाया गया था। इसे बनने में भी काफी समय लगा था। यह एक विशालकाय एम्फ़ीथियेटर था। यह संसार का सबसे बड़ा एम्फीथिएटर था जो आज रोम शहर के मध्य में स्थित है। यह विशाल गोलाकार में बनाई गई चार मंज़िला इमारत है।

आज से दो हज़ार पूर्व रोम का योरोप के कई राज्यों पर भयंकर दबदबा रहा है। यूरोप के अधिकांश राज्य काथ्रेज जिसे हम आज स्पेन कहते हैं, ग्रीस तथा ईजिप्ट (अफ्रीका) आदि तक सब पर रोम का ही प्रभुत्व रहा है। इस राज्य को इटली नाम बाद में दिया गया और रोम उसकी राजधानी बनी। उस समय वहाँ के निवासी रोमन कहलाते थे। आज रोम को लोकल रोमा कहते हैं।

उनकी सभ्यता, आर्थिक लेन-देन व व्यापार, राजनैतिक परिपाटी, विशाल सैन्य दल और खुला समाज अपने काल में उसे इतिहास के पृष्ठों पर अलग दर्ज़ा देता रहा है।

कोलेज़ियम के स्थायित्व को मद्देनजर नज़र रखते हुए उसका निर्माण पहाड़ के पास किया गया था।

इसकी ऊँचाई 50 मीटर थी और भीतरी खुला हिस्सा 180 मीटर लंबा। यहाँ एक समय में पचास हज़ार दर्शक बैठ सकते थे। अंडाकार में निर्मित यह अद्भुत संरचना उस समय की वास्तु कला के महत्त्व को दर्शाता है।

कोलेज़ियम के भीतर सामने की सीटें खास अतिथियों और सेनेटॉर्स के लिए आरक्षित होती थी। आम जनता के लिए मनोरंजन निःशुल्क होता था।

प्रारंभ में कोलेजियम में पानी भरा जाता था, जिसमें छोटे जहाजों के आपसी युद्ध के खेल दिखाए जाते थे। बाद में इस व्यवस्था को रद्द किया गया।

अरेना के भीतर ग्लैडियटर्स, जंगली जानवर आदि के निवास की व्यवस्था थी। नीचे उनके आने-जाने के गुप्त मार्ग बने थे। पशुओं के लिए जालीदार चैंबर्स बने होते थे। अधिकतर ग्लैडियटर्स दास ही होते थे। अफ्रीका से बब्बर शेरों को लाकर, ग्लैडियटर्स के साथ भिड़ाया जाता था। ये सब खूंखार खेल थे। इस कोलेजियम में हज़ारों पशु और लाखों ग्लैडियटर्स की मनोरंजन के नाम पर बलि चढ़ाई गई थी।

इस पूरे परिसर को देखने के लिए हमें चार घंटे लगे। पुराने ज़माने में जब वहाँ खेल होता था तो हर आर्च के नीचे आकर्षक मूर्तियाँ लगी होती थीं। भीतर भी पर्याप्त छोटे -छोटे फव्वारे सजावट के रूप में लगाए गए थे। जनता के लिए पीने के पानी की व्यवस्था भी थी। इस पूरे कोलेजियम में अस्सी द्वार थे जहाँ से आम जनता आना जाना करती थी। कोलेजियम आज अपनी आँखों से देखकर इस बात का अनुमान लगाना कठिन हो रहा था कि दो हज़ार वर्ष पूर्व यह जाति एक तरफ अति सभ्य और उन्नत थी कि इस तरह का विशाल और अद्भुत संरचना करने में सक्षम थी और वहीं दूसरी ओर बर्बरता की मात्रा भी अपनी चरम सीमा पर थी।

स्त्री – पुरुष सभी इस स्थान पर आकर हत्या और बर्बरतापूर्ण होने वाले इन खेलों के चश्मदीद गवाह हुआ करते थे। संभवतः क्रूरता अब उनके खून में थी तभी तो जूलियस सीज़र को निहत्थे हाल में छुरा भोंककर मारते समय उनके निष्ठुर करीबियों के हाथ नहीं काँपे थे।

 मनुष्य के मन पर उन सब बातों का प्रभाव पड़ता है जो वह नियमित देखता है। भूखे पशुओं के साथ जब ग्लैडियटर्स भिड़ते थे तब वे लहुलुहान हो जाते थे। हिंस्र और वह भी भूखे शेर के सामने भला मनुष्य कब तक टिक पाता। अगर ग्लैडियटर अत्यंत शक्तिशाली होता था तो वह संपूर्ण प्रहार के साथ पशु को मार गिराता। भीड़ तालियाँ बजाती और प्रसन्न होती। ग्लैडियटर्स की जयजयकार होती। पर फिर भी वह और अन्य अनेक युद्ध लड़ने के लिए दास का जीवन जीता ही रहता और प्रशिक्षण पाता रहता था। कई बार ग्लैडियटर्स आपस में साथ रहते और प्रशिक्षण लेते हुए अच्छे मित्र बन जाते। फिर बढ़िया खेल की उपमा देकर दो दोस्तों को मैदान पर उतारा जाता। इस दृश्य को देखने के लिए विशाल भीड़ एकत्रित होती, खेल लंबा चलता, दोनों वार से बचते रहते फिर भीड़ वार करने और घायल करने के लिए दोनों को प्रोत्साहित करती। आखिर दो दोस्तों में से एक क्षत-विक्षत की हालत में धराशाई हो जाता और राजा अपना अंगुष्ठा नीचे की ओर कर देता जिसका अर्थ होता मार डालो। फिर एक ही वार से अपने ही मित्र की विवशता से हत्या करनी पड़ती। सोचकर देखिए दो हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्य किस हद तक निष्ठुर था।

 फिर समय ने करवट बदली। यह अत्यंत दुख की बात है कि भयंकर आगजनी और भूकम्प के कारण कोलेजियम आज खंडहर बन गया। शायद क्रूरता की इति इसी तरह संभव थी। हम जब कोलेजियम देखने गए तब भारी मात्रा में वहाँ रिस्टोरेशन के काम चल रहे थे।

इटली जाने से पूर्व हमने स्वदेश में रहते ही पसंदीदा स्थानों के इतिहास के पन्ने पलटे थे, कुछ अंग्रेज़ी में बने डाक्यूमेंट्री फ़िल्म्स भी देखी थी जिस कारण कोलेज़ियम की भव्यता, वहाँ होनेवाले खेलों और प्रदर्शनों का अंदाज़ लगा सके।

हम कोलेजियम के भीतर सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते और बरामदों में चलते हुए बहुत थक चुके थे। हमें लौटते हुए शाम हो गई थी।

योरोप के हर शहर में हॉप ऑन हॉप ऑफ बसों की व्यवस्था होती है। हम भी इसी बस से रेल्वे स्टेशन पहुँचे और वहाँ से रिसोर्ट।

हमने एक इटालियन पिज्जा हाउस में वहाँ का लोकल व्हेज पिज्जा खाया, तुलनात्मक दृष्टि से हमारे देश में बिकनेवाला पिज्जा अधिक स्वादिष्ट है। वहाँ के लोग बड़ी मात्रा में गोमांस खाते हैं इसलिए मांसाहारी भोजन से हमने दूर रहना उचित समझा। चिकन खाने की यहाँ लोगों को आदत नहीं है।

इटली वैसे अपने इतिहास के कारण ही पर्यटकों की भीड़ एकत्रित करने में सक्षम है अन्यथा यहाँ के लोगों की भाषा, बर्ताव, विदेशियों के प्रति दृष्टिकोण खास सकारात्मक नहीं है। वहाँ के लोग बिल्कुल अंग्रेजी नहीं बोलते या समझते। अधिकतर लोग साधारण शिक्षित हैं अतएव साधारण नौकरी ही करते हैं। आसपास के यूरोपीय देशों में युरोरेल द्वारा यात्रा करते हुए काम पर जाते हैं।

हम जिस रिज़ोर्ट में रुके थे वहाँ हमारे साथ एक दंपति कैरोलीन और डेनिस भी थे। वे आस्ट्रेलिया के ऑरेंज काऊँटी नामक स्थान से आए थे। वे भी कोलेजियम देखने निकले थे। रिजो़र्ट के शटल में बैठते ही हमारा परिचय उनके साथ हुआ और हमारी मानसिक कैमेस्ट्री मैच होती नज़र आई! कैरोलीन बहत्तर वर्ष की थीं और डेनिस चौहत्तर वर्ष के। परंतु दोनों ही फाइन ऍन्ड फिट थे।

दोस्ती हुई और दस दिन हम सब साथ -साथ घूमते रहे! दोनों पति-पत्नी हँसमुख और मिलनसार थे। डेनिस को मज़ाक करने की अच्छी आदत थी जिसके कारण सैर करते समय वक्त अच्छा कटता था! हम हर स्थान पर साथ – साथ एक परिवार की तरह रहे। समय -समय पर भारतीय सूखा नाश्ता जैसे चकली, च्यूड़ा, लड्डू, नमकीन आदि हम उनके साथ शेयर करते रहे और उन्हें बहुत आनंद आया। वे हमारे नाती शिवेन के फैन भी हो गए।

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #141 – “यात्रा वृतांत – बौद्ध धर्म की समृद्ध परंपराओं की धरोहर बाघ गुफाएं” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – “यात्रा वृतांत– बौद्ध धर्म की समृद्ध परंपराओं की धरोहर बाघ गुफाएं)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 141 ☆

 ☆ “यात्रा वृतांत– बौद्ध धर्म की समृद्ध परंपराओं की धरोहर बाघ गुफाएं” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

बाघ गुफाएं जैसा कि इनके नाम से विदित होता है कि ये बाघ के रहने की गुफाएं हैं। आपने ठीक पहचाना। इनका यह नाम इसी वजह से पड़ा है। ये गुफाएं अपनी प्राचीन समृद्ध परंपरा, अपनी संस्कृति और अपने समृद्ध इतिहास के पन्नों से 10 वीं शताब्दी में विलुप्त हो गई थी। या यूं कहें कि बौद्ध धर्म को भुला दिया जाने के कारण उनकी ऐतिहासिक धरोहर को भुला दिया गया था। इसी कारण इन गुफाओं में बाघ रहने लगे थे।

इतिहास की के आंधी पानी के थपेड़े खाकर यह जंगली इतिहास में तब्दील हो गई थी। जिसे मानव इतिहास की वर्तमान सभ्यता ने भुला दिया था। वह तो भला हो लेफ्टिनेंट डेंजरफील्ड का जिन्हों ने इन्हें खोज कर हमारे सम्मुख ला दिया। चूंकि ये गुफाएं बाघों के आवास का प्रमुख स्थान बन चुकी थी, इस कारण इन्हें बाघ गुफाएं कहा गया।

प्राचीन मालवा के महिष्मति अर्थात वर्तमान महेश्वर के महाराजा सुबंधु के एक ताम्रपत्र पर एक विशेष तथ्य का उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार महाराज सुबंधु ने बौद्ध विहार को विशेष अनुदान प्रदान किया था। जिसके अनसरण में गुफाओं का कल्याण कर कल्याण विहार की रचना की गई थी।

प्राचीन मालवा क्षेत्र तथा वर्तमान मध्यप्रदेश के धार जिले के कुक्षी तहसील में बाघ नामक नदी बहती है। यह नदी इंदौर से 60 किलोमीटर दूर बहती है। जिस के विंध्य पर्वत के दक्षिणी ढलान पा बाघ गांव के पास यह गुफाएं शैल पर उत्कीर्ण की गई है।

इस स्थान पर मेघनगर रेलवे स्टेशन से ट्रेन द्वारा तथा यहां से सड़क मार्ग से 42 किलोमीटर दूर, धार से 140 किलोमीटर दूर तथा कुक्षी से 18 किलोमीटर उत्तर में बस द्वारा या निजी साधन से यहां जाया जा सकता है। इंदौर और भोपाल से हवाई जहाज से यहां आ सकते हैं।

यह बाघ गुफाएं अजंता- एलोरा की तर्ज पर बनी हुई है। इन्हें एक ही शैल से उत्कीर्ण करके बनाया गया है। जिसे शैल उत्कीर्ण वास्तुकला कहते हैं। यह भवन निर्माण की उन्नत व पच्चीकारी की बेहतरीन शैली थी। जिसमें बिना नींव, छत और दीवार के एक ही शैल को तराश कर बरामदा, कक्ष, आराधना कक्ष, विहार, प्रार्थना स्थल आदि बनाए जाते हैं।

यह गुफाएं बौद्ध धर्म की अनुपम ऐतिहासिक धरोहर है। प्राचीन समय में बौद्ध भिक्षुओं के प्रचार-प्रसार, शिक्षा-दीक्षा, उपासना, अर्चना, निर्माण महा निर्माण, विहार, प्रति विहार, आराधना, ध्यान स्थल, ध्यान उपासना आदि के कक्ष, बरामदे, कमरे, प्रदक्षिणा स्थल को ध्यान में रखकर बनाया गया है।

क्योंकि प्राचीन काल में समुद्र से व्यापार करने वाले व्यापारी इसी मार्ग से होकर जाते थे। इनके ठहरने, विश्राम करने तथा शिक्षा-दीक्षा के साथ-साथ उपासना करने के लिए आहार विहार के लिए यहां उत्तम व्यवस्था थी। इसलिए यह देश विदेश से जुड़ी हुई थी।

धार के कुक्षी में स्थित ये बाघ वफाएं भी इसी उद्देश्य बनाई गई थी। ये गुफाएँ प्राचीन मालवा प्रांत की शिक्षा-दीक्षा की बेहतरीन व्यवस्था को भी प्रदर्शित करती है। यहां 9 गुफाएं एक ही शैल पर अलग-अलग उत्कीर्ण की गई है। इन 9 गुफाओं में बौद्ध भिक्षुओं के आहार-विहार, उपदेश, प्रवचन, श्रवण के उद्देश्य से बनाई गई थी। वे यहां रहकर बौद्ध धर्म का अनुपालन कर उसका प्रचार-प्रसार कर सके।

इन 9 गुफाओं की अपनी-अपनी महत्ता और स्वरूप के हिसाब से इनमें लंबे-चौड़े बरामदे, कोठियां, शैलकृत स्तूप, चैत्य, बुद्ध प्रतिमा, बोधिसत्व, अलौकिक, मैत्रेय, नृत्यांगना, वाद्य कक्ष सहित अनेक पक्षों के दृश्यांकन अंकित है। इन 9 गुफाओं में से दो, तीन, चार, पांच एवं साथ में भित्ति चित्र बने हुए हैं। इन्हें सुरक्षा की दृष्टि से संरक्षित करके पृथक कर दिया गया है।

गुफा संख्या दो सर्व प्रसिद्ध भित्ति चित्र वाली गुफा है। इसमें पद्माणी बुद्ध का चित्र अंकित है। इस चित्र की मुखाकृति सौम्य है। इसका शरीर पुष्पा व आभूषण से सुसज्जित है। अर्धमूंदे हुए नेत्र उसकी सौम्यता को दुगुणित कर देते हैं।

यह बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं को प्रदर्शित करते हैं। यहां बुद्ध, धर्म चक्र, उपदेशक, बोधिसत्व, निर्माण, महानिर्वाण, प्रभामंडल, स्थिति प्रज्ञा की बेहतरीन मुद्रा में स्थित है।

इसी तरह गुफा संख्या दो को पांडव गुफा कहते हैं। गुफा संख्या 4 रंगमहल कहलाती है। तीसरे नंबर की गुफा हाथीखाना कहलाती है। गुफा संख्या 4 और 5 बेहतरीन अवस्था में है। इनमें से कुछ चित्र स्पष्ट है। कुछ प्राय नष्ट व धुँधले हो गए हैं।

चौथी गुफा जिसे रंगमहल कहते हैं। वह एक चैत्य स्थल है। वहां बौद्ध भिक्षुओं के स्मृति चिन्ह, अवशेष व प्रतीक संरक्षित रखे जाते थे। यहां पर बुद्ध की पद्मासन लगी प्रतिमा स्थापित है। यह अस्पष्ट होती जा रही है।

पांचवी गुफा में अनेक चित्र हैं। बुद्ध का सुंदर चित्र स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। शेष चित्र धुँधले हो गए हैं। इस गुफा में 5 कमरे हैं। इनमें चित्रांकन किया गया है। इसमें फल, फूल, पत्तियां, बेल, बूटे, कमल, पशु, पक्षी का यथा स्थान चित्रण हुआ है।

इन गुफाओं के चित्रों की कुछ अन्य विशेषताएं भी है। इनमें बौद्ध धर्म के अलावा भी जीवन के विविध आयामों का चित्रांकन हुआ है। इसमें नृत्य, गायन, अश्वरोहण, गजा रोहण, प्रेम, विरह, दुख, संताप आदि का अंकन बखूबी देखा जा सकता है।

प्रकृति का चित्रण इसके अंदर अद्भुत रूप से समाया हुआ है। फूल, लता, पत्तियां, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी आदि का रोचक समन्वय चित्रों में देखा जा सकता है।

जीवन के विविध आयाम यथा- सुख-दुख, संताप, रोष, प्रेम के साथ-साथ लज्जा, वात्सल्य, प्रेम, ममता, विनय, स्नेह,शीलता, शौर्य, दीनता, लाचारी, भय, शांत, श्रंगार, हर्ष रूद्र,वीर आदि भाव को चित्रों में महसूस किया जा सकता है।

आप से आग्रह हैं कि आप गुफाओं को देखने और महसूस करने के लिए इनकी सैर अवश्य करें। ताकि आप हमारी अपनी विरासत का जान कर, इसकी पुरातन वास्तु भवन शैली की तन मन में सहेज सके। ताकि आप और हम भारत की प्राचीन धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक विरासत को जान समझ सके।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

03-02-2023 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 12 ☆ नर्मदा परिक्रमा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…नर्मदा परिक्रमा – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 13 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… नर्मदा परिक्रमा ?

हमारे जीवन का हर अध्याय अपने समय पर ही खुलता है और पूर्ण भी होता है। कुछ बातें ऐसी होती हैं जो समय आने पर ही संभव होती हैं और समझ में भी आती हैं।

हमारा रिटायर्ड शिक्षिकाओं का एक छोटा – सा समूह है जिसे हम यायावर दल कहते हैं क्योंकि हम सब रिटायर होने के बाद निरंतर कहीं ना कहीं घूमने के लिए निकल पड़ते हैं। इस दल में पचहत्तर वर्षीया शिक्षिका सबसे उत्साही हैं।

कुछ समय से आपस में हम सभी नर्मदा परिक्रमा की बात कर रहे थे और लो 2022 आते-आते मानो सभी के मन की बात खुलकर सामने आ गई और 5 मार्च हम 4 सहेलियाँ नर्मदा परिक्रमा के लिए निकल पड़ीं।

सच पूछा जाए तो इस परिक्रमा के विषय में विशेष कोई जानकारी हमें नहीं थी। यह अवश्य ज्ञात था कि एक पवित्र नदी के चारों तरफ एक परिक्रमा पूर्ण करना हिंदू धर्म के अंतर्गत एक तीर्थ यात्रा ही है। बस तो उसी अनुभव को प्राप्त करने के लिए हम लोग निकल पड़े।

मन में एक आस्था थी। हमें यह विश्वास भी था कि कुछ अलग, कुछ हटकर और कुछ विशेष करने के लिए जा रहे थे। साथ में मन में खास कोई अपेक्षाएँ भी नहीं थीं कि हमें किस तरह के दृश्यों का या परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। पर जो कुछ मिला, जो देखा जो अनुभव किया वह सब न केवल अद्वितीय और अनोखा है बल्कि अविस्मरणीय भी।

हम चार सहेलियों ने एक इनोवा बुक किया और 3500 किलोमीटर की यात्रा बाय रोड करने का निर्णय लिया क्योंकि हमारे पास वह शारीरिक बल, क्षमता और संकल्प करने की दृढ़ता नहीं थी कि हम यह यात्रा पदयात्रा के रूप में पूर्ण करते जबकि यह यात्रा लोग पदयात्रा के रूप में ही पूर्ण करते हैं।

हम पुणे से 5 मार्च को प्रातः ओंकारेश्वर के लिए रवाना हुए। यह 603 किलोमीटर की दूरी है। हमें वहाँ पहुँचने में रात हो गई। वहीं पर हमसे ट्रैवेल एजेंट श्री मयंक भाटे मिलने आए जो मूल रूप से इंदौर के निवासी हैं। इस परिक्रमा की सारी व्यवस्था उनके द्वारा ही की गई थी। रात को भोजन कर एक साधारण होटल में रात बिताने के लिए हम सब उपस्थित हुए।

दूसरे दिन प्रातः नर्मदा स्नान कर वहीं घाट पर पूजा -अर्चना कर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए रवाना हुए। हमने नाव द्वारा मंदिर जाने का निर्णय लिया। वैसे यदि यात्री चाहें तो एक बड़ा पुल है उसे भी पार कर चलकर मंदिर में जा सकते हैं। हमें नर्मदा में नौका विहार का भी आनंद लेना था इसलिए हम लोगों ने नाव से ही जाना उचित समझा।

यहाँ एक और आवश्यक बात की जानकारी देना चाहूँगी कि नियमानुसार परिक्रमा करने वाले जब घाट पर पूजा अर्चना करते हैं तो वहाँ पर पंडित आपसे एक संकल्प करवाते हैं। उस संकल्प के आधार पर जिस घट में आप पानी लेकर पूजा करते हैं उसे लेकर दूसरे दिन गुजरात के भरूच डिस्ट्रिक्ट अंकलेश्वर में समुद्र में उस पानी को छोड़ना होता है। नर्मदामाता भी वहीं तक अपनी यात्रा बनाए रखती हैं। हाँ जाने के लिए 4 घंटे नाव से यात्रा करने की आवश्यकता होती है। उस नाव में काफी भीड़ होती है। लाइफ जैकेट की कोई व्यवस्था नहीं होती और साथ ही साथ कितने दिनों में समुद्र में जाकर नाव पहुँचेगी इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती। कारण बड़ी भीड़ होती है। इसलिए हम चारों सहेलियों ने संकल्प ना करते हुए ज्योतिर्लिंग का दर्शन कर एक और रात ओंकारेश्वर में बिताकर वहाँ से दूसरे दिन राजपिपल्या होते हुए शहादा पहुँचे।

रास्ते में हम भटियाण बुजुर्ग नामक गाँव के एक संत का दर्शन करने गए। वे 99 वर्षीय हैं। पचास -साठ वर्ष पूर्व पदयात्रा करने निकले थे फिर किसी साधु की सेवा में सारा जीवन वहीं रह गए। वे दक्षिणा के रूप में दस रुपये ही लेते हैं और सभी को भुने चने और इलायचीदाने (साखरफुटाणे)देते हैं।

दोपहर को हम नर्मदालय में भारती ठाकुर के आश्रम पहुँचे। भारती ठाकुर पिछले कई दशकों से बंजारों के बच्चों को शिक्षित करने तथा उनकी देखभाल में जुटी हैं। उनसे मुलाकात तो न हो सकी पर उनका आश्रम देखकर और समाज सेवाभाव देखकर हम सब निःशब्द हो गए। उस रात हम शहदा में रुके। भारती ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस और माँ शारदा की भक्ति करती हैं और मिशन से जुड़ी हुई हैं।

केदारेश्वर, पुष्पदंतेश्वर महादेव मंदिर, शूलपाणी मंदिर स्वामी नारायण मंदिर, रंगावधूत नारेश्वर होते हुए नारेश्वर आश्रम में निवास के लिए एक रात रुके।

यहाँ पर नर्मदापरिक्रमा पद यात्री रात के समय रुकते हैं। हम प्रातः स्नान करने गए तो वहाँ कुछ गेरवावस्त्र धारी नदी को स्वच्छ करते हुए दिखाई दिए। वे फूल, निर्माल्य, दीया आदि वस्तुएँ एकत्रित करते दिखे। नदी के प्रति समर्पित भाव देखकर हम भी अभिभूत हुए।

अगले दिन हम नारेश्वर दर्शन, कुबेर भंडारी दर्शन कर गरुड़ेश्वर में रुके। आपको बता दें कि यह स्थान सरदार सरोवर से केवल छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यात्री स्टैच्यू ऑफ यूनिटी भी देखने के लिए जा सकते हैं।

अगले दिन हम गरुड़ेश्वर मंदिर वासुदेव सभा मंडप, दत्त मंदिर, जल कोटि – सहस्र धारा, राज राजेश्वर मंदिर अहिल्याबाई फोर्ट अहिल्या घाट देखने के लिए माहेश्वर पहुँचे।

नर्मदा नदी के किनारे बसा यह शहर अपने बहुत ही सुंदर व भव्य घाट तथा माहेश्वरी साड़ियों के लिये प्रसिद्ध है। घाट पर अत्यंत कलात्मक मंदिर हैं जिनमें से राजराजेश्वर मंदिर प्रमुख है।

विश्वास है कि आदिगुरु शंकराचार्य तथा पंडित मण्डन मिश्र का प्रसिद्ध शास्त्रार्थ यहीं हुआ था। इस शहर को महिष्मती नाम से भी जाना जाता था। कालांतर में यह महान देवी अहिल्याबाई होल्कर की भी राजधानी रही है। देवी अहिल्याबाई होलकर के कालखंड में बनाए गए यहाँ के घाट सुंदर हैं और इनका प्रतिबिंब नदी में और खूबसूरत दिखाई देते हैं। संध्या के समय जब किले में रोशनी की जाती है तो सारा परिसर जगमगा उठता है।

अहिल्याबाई घाट पर स्नान करने की सुविधा उपलब्ध है। हम स्नान व माता की पूजा कर किला व अहिल्याबाई होल्कर के निवास स्थान का दर्शन करने गए। अहिल्याबाई शिव मंदिर में आज भी नर्मदा की मिट्टी से 108 लिंग बनाकर उनकी पूजा की जाती है और तत्पश्चात विसर्जित कर दिया जाता है। यह प्रथा अहिल्याबाई के समय से आज तक चलती आ रही है। वहीं पर बाल गोपाल के लिए बना हुआ सोने के झूले का दर्शन भी मिला।

इतिहास गवाह है कि एक विधवा स्त्री ने किस तरह माता नर्मदा पर आस्था रखते हुए अपनी प्रजा के लिए कितना काम किया। माहेश्वर में आज जो साड़ियाँ बनती हैं इस कार्य को अहिल्याबाई ने ही स्त्रियों को कुटीर उद्योग सिखाने और स्वावलंबी बनाने के लिए प्रारंभ किया था। वे अत्यंत न्यायप्रिय रानी थीं।

उस रात हम मंडलेश्वर गोंधवलेकर महाराज नेमावर आश्रम में संध्यारती के लिए पहुँचे। प्रसाद भी अनेक पदयात्रियों के साथ ग्रहण किया और उन सबसे बातचीत करने, उनके अनुभव जानने का अवसर मिला।

इसके अगले दिन हम जबलपुर पहुँचे। यह हमारी यात्रा का नौवां दिन था। हम लोगों ने कभी आश्रमों में रात गुज़ारी तो कभी साधारण व उपलब्ध होटलों में। सभी स्थान पर ताज़ा भोजन और स्नान के लिए गरम पानी अवश्य मिला। साफ़ – सुथरा स्थान आवास के लिए उपलब्ध कराए गए।

आज भेड़ाघाट नामक अलग स्टेशन है। भेड़ाघाट में नर्मदा का विशाल प्रवाह देखने को मिला। तीव्र गति से प्रवाहित होता स्वच्छ जल आपको आकर्षित करेगा। यहाँ नौका विहार और केबल कार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। विविध रंग के संगमरमर के बीच से गुज़रती नाव और आकर्षक दृश्य आपको आह्लादित कर देंगे। संध्या के समय ग्वारी घाट जबलपुर में माता नर्मदा की अद्भुत सुंदर संध्यारती होती है। हम सबने इसका भी आनंद लिया। लोगों की नदी के प्रति आस्था ही उसे जीवित बनाती है। यहाँ नौका विहार के लिए नावों को खूब सजाया जाता है और संध्यारती से पूर्व लोग नौका विहार करते हैं।

दूसरे दिन सुबह धुआँधार जल प्रपात और चौंसठ योगिनी मंदिर दर्शन के लिए गए। चौंसठ योगिनी मंदिर हज़ार वर्ष पुराना मंदिर है। शिव -पार्वती की मूर्तियों के साथ चौंसठ अन्य मूर्तियाँ भी हैं। पुराण के अनुसार एक संपूर्ण पुरुष बत्तीस कलाओं से युक्त होता है और स्त्री भी बत्तीस कलाओं से युक्त होती है। दोनों के संयोग से बनते हैं चौंसठ। तो ये माना जा सकता है कि चौंसठ योगिनी शिव और शक्ति जो सम्पूर्ण कलाओं से युक्त हैं उन के मिलन से प्रकट हुई हैं। अन्य कई कथाएँ भी हैं। आज यह खंडहर मात्र है। औरंगज़ेब ने इन मूर्तियों को क्षति पहुँचाई थी।

हमारी यात्रा के दौरान भारी संख्या में हमें पदयात्री मिलते रहे। ये पदयात्री दिन में पच्चीस से तीस किलोमीटर चलते हैं। कुछ भक्त नंगे पैर चलते हैं। प्रातः सात बजे चलना प्रारंभ करते हैं और सूर्यास्त से पूर्व किसी आश्रम में रात गुज़ारने के लिए पहुँच ही जाते हैं।

समस्त मार्ग में पदयात्रियों को लोग जल, बिस्कुट, अल्पाहार देकर उनकी सेवा करते हैं।

समस्त राज्य में परिक्रमायात्रियों के लिए लोगों के मन में गहन श्रद्धा भाव परिलक्षित होता है।

स्त्री-पुरुष सभी निर्भय होकर यात्रा करते हैं। उनकी पीठ पर एक हैवरसैक होता है। जिसमें दो जोड़े वस्त्र, थाली, गिलास, चम्मच, चादर आवश्यक दवाइयाँ होती हैं। एक योगासन मैट का रोल होता है जिसे वे सोने के लिए काम में लाते हैं। साथ में मोबाइल और एक लाठी होती है। एक डोलची लेकर चलते हैं जिसमें जल भरकर रखते हैं। सभी यात्री बिना रुपये – पैसे के चलते हैं। अन्य लोग उन्हें धर्म के नियमानुसार दक्षिणा देते रहते हैं। पद यात्री श्वेत वस्त्र धारण किए हुए होते हैं। इससे उन्हें पहचानना भी आसान हो जाता है। प्रत्येक यात्री एक अद्भुत आस्था लेकर चलता है और उसे भी 3500 किलोमीटर की यात्रा पूरी करनी पड़ती है।

शूलपाणी का इलाका घने जंगल का इलाका है। यहाँ पक्की सड़क अवश्य बनाई गई है पर यह बंजारों का गाँव है, वे मुख्य सड़क से बहुत दूर जंगल के भीतर निवास करते हैं। पच्चीस -तीस किलोमीटर के परिसर में न रुकने का स्थान है न पानी की सुविधा। पर पदयात्री तो इसी मार्ग से चलते हैं। उनका अनुभव है कि नौ किलोमीटर की दूरी से मोटरसाइकिल पर सवार लोग पानी, चाय, बिस्कुट आदि देने के लिए आते हैं। यह सेवा भाव ही है जो सनातन धर्म की शक्ति है।

अगली सुबह हम अमरकंटक के लिए रवाना हुए। यह यात्रा काफी लंबी थी। हमें पहुँचते रात हो गई। यहाँ रामकृष्ण मठ में हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। हम रात की आरती में सम्मिलित होने के लिए नर्मदामाता मंदिर पहुँचे। सुंदर तथा विशाल परिसर, जल से भरे कई कुंड दिखाई दिए। रात के आठ बजे आरती प्रारंभ हुई। समस्त परिसर आलोकित था मानो नर्मदा माता स्वयं वहाँ उपस्थित थीं।

हर स्थान पर हमें अनुभव रहा कि माता हर समय साथ चल रही हैं। जल में उतरे तो वह हमें बुलाती हैं मानो कहती हैं -आओ मुझसे गले लगो। तट पर हों तो वह स्वयं बढ़कर हम तक आती हैं। मन के भीतर एक अद्भुत शांति का अहसास होता है जिसे हम शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकते। स्नान करते हुए हर श्रद्धालु कहता है माता आओ।

दूसरे दिन प्रातः कपिल धारा और दूध धारा जल प्रपातों का हमने दर्शन किया। यहाँ कुछ गुफाएँ हैं जहाँ ऋषि कपिल और ऋषि दुर्वासा तपस्या करते थे। कहा जाता है कि ऋषियों की तपस्या में व्यवधान उत्पन्न न हो इस कारण माता ने अपने प्रवाह को अन्यत्र मोड़ लिया।

हम माता की बगिया नामक स्थान देखने पहुँचे। यह नर्मदा नदी का उद्गम स्थल है। एक छोटा सा कुंड मात्र दिखाई देता है और जल पृथ्वी में समा जाता है। आगे डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर जल बाहर निकलकर अपने पूर्ण व विस्तृत रूप में नदी बनकर बहने लगता है। इस स्थान में श्रद्धालु माता को साड़ी पहनाते हैं जो सिंबॉलिक होता है। कई स्थानों पर साड़ी टंगी हुई दिखाई देती है।

हमारी अगली यात्रा अब नरसिंहपूर से होशंगाबाद की ओर प्रारंभ हुई। होशंगाबाद को अब नर्मदापुरम कहा जाता है। यहाँ एक सुंदर स्वच्छ घाट है, नाम है सेठानी घाट। हम दोपहर को पहुँचे इसलिए केवल नर्मदा माता का दर्शन मात्र कर सके। तेज़ धूप और गर्मी का प्रकोप भारी पड़ने लगा था।

नर्मदापुरम से आगे एक लच्छोरा नामक गाँव है। यहाँ पुणे की प्रतिभाताई चितळे रहती हैं। हम उनसे मिलने गए। वे कई वर्ष पूर्व नर्मदा परिक्रमा करने निकली थीं। इस अवसर पर उन्हें जो अनुभव मिला तो वे सब कुछ छोड़कर अपने पति के साथ नर्मदा के तट पर घर बनाकर रहने लगीं। आज वे उन लोगों की सेवा करती हैं जो पदयात्रा करते हुए परिक्रमा करते हैं। ऐसे कई यात्री और श्रद्धालु हैं जो नदी के तट पर से ही यात्रा करते हैं। यह और भी कठिन यात्रा है। बीहड़ जंगल, भरी हुई अन्य छोटी नदियों तथा पहाड़ और असमतल मार्ग का उन्हें सामना करना पड़ता है। ऐसे लोग अक्सर प्रतिभाताई के घर रुकते हैं। उन्हें पूर्ण आराम और निःशुल्क सेवा प्रदान की व्यवस्था चितळे दंपति स्वयं करते हैं। संपूर्ण समर्पण का उत्कृष्ट उदाहरण हैं चितळे दंपति। नर्मदा मैया का श्रद्धालुओं के प्रति सेवा भाव और स्नेह का दर्शन आप यहाँ कर सकते हैं। वरना गृहस्थ जीवन उत्सर्गित करके कोई इस तरह सेवा कैसे भला कर सकता है!!

अब तक हमारी यात्रा के बारह दिन निकल चुके थे। हम एक रात हरदा में रहे। पट्टभिराम मंदिर का दर्शन किया जो अपने आप में एक अद्भुत सुंदर पुरातन मंदिर है। पदयात्री यहाँ भी अमरकंटक से लौटते समय रुकते हैं और निःशुल्क आवास, भोजन, स्नान आदि की सुविधाएँ पाते हैं।

हमारी यात्रा अब समाप्ति की ओर थी। हम लौटकर ओंकारेश्वर आए, इस बार हमें गजानन महाराज के आश्रम में एक कमरा मिल ही गया। यह नर्मदा नदी के तट से थोड़ी दूरी पर स्थित है। स्वच्छ तथा सुलभ व्यवस्था जिसके लिए एक छोटी -सी रकम ली जाती है। परंतु जो पदयात्री होते हैं उन्हें प्राथमिकता दी जाती है और उनके लिए सभी सुविधाएँ निःशुल्क हैं।

फिर एक बार मैया के जल में स्नान करने का हम सबको स्वर्णिम अवसर मिला। स्नान के बाद वस्त्र बदलने के लिए हर घाट पर छोटे -छोटे अस्थायी कमरे जैसा बना हुआ होता है जहाँ सभी जाकर गीले वस्त्र बदल सकते हैं। अबकी बार हम सब चलकर ऊँचे पुल पर चलकर ओंकारेश्वर मंदिर में दर्शन करने गए। अपनी भक्ति और आस्था से भोलेनाथ का उत्तम दर्शन हम सबने पाया। अभिषेक का भी अवसर मिला।

अगले दिन हम उज्जैन के लिए निकले। दो दिन दो ज्योतिर्लिंग के दर्शन को हमने अपना अहो भाग्य माना।

हमारी यह संपूर्ण यात्रा न केवल सुखद रही बल्कि विश्वास दृढ़ हो गया कि चाहे कोई कितना भी प्रयास कर ले, गुलाम बना लिया अत्याचार कर लिया, तलवारें चला लीं, मंदिरों को क्षति पहुँचाई पर सनातन धर्म न डिगा।

देश की हर नदी पूजनीय है। वह जीवन दान देती है। वह माता है। हम सबका पोषण करती है। यही कारण है कि भारत आज भी हिंदुत्व को जीवित रखने में सक्षम है।

दुनिया में हर जगह नदियाँ बहती हैं, उसके किनारे ही दुनिया बसती है पर भारतीय संस्कृति ने नदियों को, पेड़ों को जंगलों को जीवित माना है। उनकी पूजा की जाती है और आज भी करते हैं। कर्नाटक में विशाल मंदिर है जहाँ बनशंकरी की पूजा होती है। इसी माता बनशंकरी ने हनुमान जी का मार्ग दर्शन किया था और वे लंका तक जा पहुँचे थे। यह आस्था ही तो है जो हमारे धर्म को जीवित रखती है।

दुनिया हेवन माँगती है, जन्नत माँगती है ताकि मरने के पश्चात भी आनंद लिया जा सके परंतु सनातन धर्म कर्मों के बल पर मोक्ष का मार्गदर्शन करता है।

जीवन के अंत में जिसने जन्म दिया उसीमें एकाकार हो जाने की उत्कट इच्छा ही सनातन धर्म है। ।

नर्मदे हर, नर्मदे हर, नर्मदे हर!

अनायासेन मरणं विना दैन्येन जीवनम्। देहान्ते तव सायुज्यं देहि मे परमेश्वरम् ॥

© सुश्री ऋता सिंह

28/3/2022

फोन नं 9822188517, ईमेल – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #140 – “यात्रा वृतांत – दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 140 ☆

 ☆ “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

जैसे ही मिट्ठू मियां को मालूम हुआ कि मैं, मेरी पत्नी और पुत्री प्रियंका पशुपतिनाथ मंदिर मंदसौर और एलोरा की तर्ज पर बना मंदिर धर्मराजेश्वर देखने जा रहे हैं वैसे ही उसने मुझसे कहा, “मालिक! मैं भी चलूंगा।”

मगर मेरा मूड उसे ले जाने का नहीं था। मैंने स्पष्ट मना कर दिया, “मिट्ठू मियां! मैं इस बार तुम्हें नहीं ले जाऊंगा।”

मिट्ठू मियां कब मानने वाला था। मुझसे कहा, “मुझे पता है नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर देखने जाते वक्त बहुत परेशानी हुई थी।” यह कह कर उसने मेरी ओर देखा।

मैं कुछ नहीं बोला तो उसने कहा, “मैं कैसे भूल सकता हूं कि आप हवाई अड्डे के अंदर कैसे मुझे ले गए थे। वह तरकीब मुझे याद है,” उसने कहा, “हवाई जहाज में आप मुझे हैण्डबैग में भरकर ले गए थे। वहां मेरा जी बहुत घबराया था। मगर मैं चुप रहा। मुझे हवाई जहाज की यात्रा करना थी।”

“हां मुझे मालूम है,” मैंने कहा तो मिट्ठू मियां बोला, “इस बार मैं चुप रहूंगा। आप जैसा कहोगे वैसा करूंगा। मगर आपके साथ जरूर चलूंगा,” उसने तब तक बहुत आग्रह किया जब तक हम जीप लेकर चल न दिए।

मैं उसका आग्रह टाल न सका। झट से ‘हां’ में गर्दन हिला कर सहमति दे दी।

तब खुश होकर मिट्ठू मियां हमारी जीप में सवार हो गया। मगर, उसे जीप बहुत धीरे-धीरे चलती हुई लग रही थी। वह बोला, “आप जीप थोड़ी तेज चलाइए। मैं आपकी जीप के साथ उड़ता हूं। देखते हैं कि कौन तेज चलता है?” कह कर मिट्ठू मियां उड़ गया।

मैंने उसकी बात मान ली और जीप तेज चला दी। मगर मिट्ठू बहुत तेज उड़ रहा था। वह जीप से कहीं आगे निकल गया। इस तरह हम नीमच से निकलकर 55 किलोमीटर दूर मंदसौर यानी दशपुर पहुंच गए।

यहां शिवना नदी के किनारे पशुपतिनाथ का मंदिर स्थित है। जिसके अंदर चमकते हुए तांबे की उग्र चट्टान को तराश कर बनाई गई अष्टमुखी शिव प्रतिमा के हमने दर्शन किए। यह मूर्ति 11.25 फीट ऊंची तथा 64065 किलो 525 ग्राम वजनी पत्थर से निर्मित है। इसमें जीवन की आठों दिशाओं को शिव के मुखमंडल द्वारा दर्शाया गया है।

इस अद्भुत मूर्ति को देखकर मिट्ठू मियां के मुंह से निकल पड़ा, “मालिक! यह तो नेपाल के पशुपतिनाथ की चार मुखी मूर्ति से बहुत बड़ी व अद्भुत मूर्ति है।”

मैं भी चकित था, “वाकई! बहुत अद्भुत मूर्ति हैं,” कहते हुए मैंने मिट्ठू मियां को कैमरा दिया। वह उसे लेकर ऊंचा उड़ गया। उसने मंदसौर के पशुपतिनाथ के 111 फीट ऊंचे मंदिर का बहुत ऊंचाई से हमें दर्शन करा दिए।

इस अद्भुत मंदिर को देखकर मैं, मेरी पत्नी और बेटी- हम सब बहुत खुश हुए। हम कई फोटो लिए। वे बहुत ही सुंदर आए थे।

चूंकि हमें यहां से 122 किलोमीटर दूर चंदवासा जाना था। यह मंदसौर जिले की शामगढ़ तहसील में स्थित है। यहीं से धमनार और वहां की गुफाएं 3 किलोमीटर दूर पड़ती है। यह स्थान शामगढ से मंदिर 22 किलोमीटर दूर है। इस कारण हमने जीप स्टार्ट की ओर चल दिए। ताकि समय से हम दर्शनीय स्थान पर पहुंच सकें।

मिट्ठू मियां को उड़ने की आदत थी। वह जीप के साथ-साथ उड़ता जा रहा था। वह हमसे रेस लगा रहा था। मगर हर बार हम हार जाते थे। क्योंकि मिट्ठू मियां हवा में सीधा उड़ रहा था। हम भीड़ भरे रास्ते और सड़क पर चल रहे थे। इस कारण हम उससे पीछे रह जाते।

इस तरह मिट्ठू मियां से रेस लगाते हुए हम जैसे ही शामगढ़ से चंदवासा पहुंचे मिट्ठू मिया ने उड़ते-उड़ते ही कहा, “मालिक! मुझे धर्मराजेश्वर का अद्भुत मंदिर दिखाई दे रहा है।”

मैंने मिट्ठू मियां को बुलाकर उसे कैमरा पकड़ा दिया। वह ड्रोन कैमरे की तरह कैमरा लेकर उड़ पड़ा। जैसे हम धमनार पहुंचे वैसे ही धर्मराजेश्वर मंदिर को देखकर चकित रह गए।

चंदन गिरी की पहाड़ियों की एक चट्टान को तराश कर यह शिव मंदिर बनाया गया था। इस मंदिर को 104 गुणा 67 फीट लंबाई-चौड़ाई और 30 मीटर की गहराई को एक चट्टान को तराश कर यानी खोद कर बनाया गया था। यह दृश्य ऊंचाई से बहुत अद्भुत लग रहा था।

किसी चट्टान को ऊपर से तराश कर खोदते जाना, साथ ही उसे मुख्य मंदिर के साथ साथ-साथ सात लघु मंदिर की शक्ल में उभारना, अद्भुत कला कौशल का काम है। इस तरह एक चट्टान को तराश कर बनाए जाने वाले मंदिर या गुफा को शैल उत्कीर्ण शैली या शैल वास्तुकला कहते हैं। यह बहुत ही वैज्ञानिक और बुद्धिमत्ता का काम है।

मिट्ठू मियां इस मंदिर के ऊपर उड़ते हुए बोला, “वाह! यह मंदिर एलोरा के कैलाश मंदिर की तरह तराश कर बनाया गया अद्भुत मंदिर है।”

तब अचानक मेरे मुंह से निकल गया, “इस मंदिर व एलोरा के कैलाश मंदिर में कुछ तो अंतर होगा?” मेरे यह कहते ही मिट्ठू मियां एक शिलालेख के पास पहुंच गया।

वहां पर जो शिलालेख उत्कीर्ण था, उससे पता चला कि एलोरा का कैलाश मंदिर दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली से निर्मित वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। वही दशपुर का धर्मराजेश्वर का यह शिव मंदिर उत्तर भारतीय नागरी शैली का उत्कृष्ट नमूना है। दोनों ही मंदिरों में बारीक पच्चीकारी, भित्ति चित्र, भित्ति पर उकेरी गई मूर्तियां तथा द्वार मंडप, सभा मंडप, अर्धमंडप, गर्भगृह, कलात्मक शिखर, मुख्य द्वार पर निर्मित भैरव व भवानी की प्रतिमा के अद्भुत दर्शन होते हैं।

अरावली की पहाड़ियों के पास स्थित चंदन गिरी की पहाड़ियों पर यत्र तत्र बिखरी पड़ी इन भारतीय संस्कृति की विरासत और अद्भुत वास्तुकला के नमूनों को देखकर हम चकित थे। तभी मिट्ठू मियां ने हमें चेताया, “मलिक, इस मंदिर को ही देखते रहोगे या यहां की बौद्ध धर्म की अद्भुत गुफाओं के भी दर्शन करोगे।”

समय तेजी से भाग रहा था। मैंने कहा, “क्यों नहीं।” यह कहते हुए हम मंदिर से झट से बाहर निकलें। इंडियन रॉक कट आर्किटेक्चर के अद्भुत नमूने की गुफाएं देखने चल दिए। 

जैसे ही टिकट लेकर हम अंदर गए वैसे ही मिट्ठू मिया ने हमें उस अद्भुत तथ्य से मुझे अवगत करा दिया। जिसकी जानकारी हमें नहीं थी।

“मालिक! एलोरा में 34 गुफाएं हैं। जिसने 5 जैन गुफाएं, 12 बौद्ध गुफाएं और 17 हिन्दू गुफाएं उल्लेखित हैं। इस तरह 34 गुफाएं बनी हुई है। मगर यहां तो 51 गुफाएं तो संरक्षित की गई है।”

“वाह!” मेरे साथ-साथ सभी ने कहा, “इसका मतलब यहां एलोरा और अजंता से ज्यादा गुफाएं बनी हुई हैं।” यह कहते हुए मैं एक गुफा के अंदर घुसा। वहां सभा मंडप, चैत्य, विहार आदि अनेक कक्ष व प्रार्थना स्थल बने हुए थे। इसके साथ अनेक कक्ष निर्मित थे। जिनमें प्राचीन समय की व्यापारी, बौद्ध भिक्षु आदि आहार-विहार के साथ देश विदेश में धर्म का प्रचार व शिक्षा-दीक्षा का कार्य किया करते थे।

इसके साथ साथ हमने अनेक गुफाओं के दर्शन किए।

चूंकि समय ज्यादा हो गया था, यह स्थान चंबल अभ्यारण्य के अंतर्गत आता है, यहां खाने-पीने व ठहरने के लिए कोई उत्तम व्यवस्था नहीं है। अतः हमें शीघ्र वापस लौट जाना पड़ा।

मगर वापस लौटते-लौटते मिट्ठू मियां ने एक अद्भुत दृश्य हमारे कैमरे में कैद करवा दिया। जिसके द्वारा हमें मालूम हुआ कि यहां तो 235 से अधिक गुफाएं बनी हुई है। मगर समय के थपेड़े व दसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के लोप हो जाने की वजह से ये सभी गुफाएं जंगली जानवरों की शरण स्थली बन गई थी। इस कारण कई स्थानों पर इस तरह बनी हुई गुफाओं को बाघ गुफाएं कहते हैं।

यह याद करते हुए मिट्ठू मियां हम वापस अपने घर लौट पड़े। मगर इस बार की हमारे यात्रा बहुत अद्भुत व यादगार रही थी। हमारे साथ-साथ मिट्ठू मियां और हम सभी बहुत खुश थे। कारण, सभी की गर्मी की छुट्टियाँ बहुत ही आनंददायक पर्यटन की सैर के साथ बीती थीं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

02-05-2023 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 09 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ५ – आनंदपुर ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग पाँच – आनंदपुर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 09 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग पाँच – आनंदपुर ?

(वर्ष 1994)

चंडीगढ़ में रहते हुए एक बात समझ में आई कि बड़े – बड़े बंगलों में रहनेवाले लोग आसानी से किसी नए पड़ोसी से मित्रता नहीं करते। पर नए पड़ोसी के बारे में जानने की उत्कंठा अवश्य ही बहुत ज्यादा होती है उनमें। हम फ्लैटों में रहनेवालों की प्रकृति इससे अलग होती है।हम लोग तुरंत नए पड़ोसी की सहायता में जुट जाते हैं। हमें चंडीगढ़  जाने के बाद शुरू-शुरू में दिक्कत तो हुई पर समय के साथ कुछ लोगों से परिचय हो ही गया।

हमारे मोहल्ले में एक क्लब था जहाँ स्त्री , पुरुष सभी रमी खेलने आते थे। हम वहाँ जाने लगे तो कुछ मित्र बने। एक बैडमिंटन कोर्ट था तो दोस्त बनाने के लिए हमने सुबह बैडमिंटन खेलना प्रारंभ किया। अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कई हमउम्र महिलाएँ बैडमिंटन खेलने आती थीं। सच में उत्कंठित पड़ोसन अब खेल के बहाने हमारे मित्र बनने लगीं।

एक रविवार उन्होंने मुझे अपने साथ गुरुद्वारे जाने के लिए आमंत्रित किया,  मैंने भी सहर्ष उस आमंत्रण को स्वीकार किया।पंजाब का हर शहर गुरुद्वारों का विशाल गढ़ है। गुरुद्वारों के प्रति जितनी लोगों में आस्था है उतना ही करसेवा का जुनून भी है। इसे वे एक अनुष्ठान के रूप में करते हैं।

चंडीगढ़ शहर ,पंजाब और हरियाणा के बीच स्थित है। दोनों राज्यों की यह  राजधानी भी है इसलिए महत्वपूर्ण शहर बन गया है और यूनियन टेरीटरी भी है।बहुत ही सिस्टमैटिक रूप से शहर का निर्माण किया गया है। हर एक क्रॉस रोड पर गोल चक्कर है जो मौसमी फूलों ,पौधों से सजा रहता है।यहाँ ट्रैफिक लाइट की व्यवस्था नहीं थी। (अब भीड़ बढ़ने के कारण ट्रैफिक लाइट है।)

चंडीगढ़ से बीस किलोमीटर की दूरी पर पंचकुला नामक शहर पड़ता है। यह शहर हरियाणा का हिस्सा है।यहाँ एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है जिसे नाडासाहेब कहा जाता है।

इसका प्रांगण विशाल है। गुरु गोविंद सिंह जी भंगनी में मुगल सेना को हराकर आगे बढ़ते हुए इस स्थान पर आ पहुँचे थे। नाडा शाह  नामक एक सज्जन ने उनका स्वागत किया था। इसीलिए इस स्थान का नाम नाडासाहेब पड़ गया। यहाँ कुछ समय रुकने के बाद वे अपनी सेना के साथ आनंदपुर  के लिए रवाना हो गए थे।

इस विशाल गुरुद्वारे में हर महीने पूर्णिमा के दिन भारी भीड़ होती है। उत्तर प्रदेश से भी बड़ी संख्या में लोग दर्शन हेतु आते हैं।

इसके बगल में ही बड़ी इमारत है जहाँ हज़ारों की संख्या में लोग लंगर में भोजन ग्रहण करते हैं। पूर्णिमा का दिन विशाल उत्सव का दिन होता है।

उस दिन मुझे आनंद के सागर में हिलोरें लेने का अद्भुत आनंद मिला।करसेवा का वह आनंदमय सामुहिक कृति की स्मृतियाँ मुझे आज भी रोमांचित करती है।

पंजाबी भाषा तो ससुराल में रहते ही मैंने बोलना सीख लिया था पर लहजा तो चंडीगढ़ जाकर ही सीखने का अवसर मिला। बलबीर पंजाबी भाषा से कोसों दूर रहे हैं। नाम के आगे सिंह लिखा होने के कारण हर कोई उनसे पंजाबी में बातें करता  और वे मुस्कराकर रह जाते क्योंकि समझ न पाते तो उत्तर क्या देते भला!

बलबीर अपनी कंपनी के चीफ इन्टरनल  ऑडिटर थे। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल तीनों राज्य के दौरे पर जाया करते थे। एकबार उन्हें  रोपड़  जाना था, यह पंजाब का एक महत्वपूर्ण शहर है। मुझे साथ ले जाना चाहते थे क्योंकि ग्रामीण पंजाबी समझना उनके बस की बात न थी। मैं तुरंत साथ चलने को तैयार हो गई। नेकी और पूछ -पूछ! चंडीगढ़ की पड़ोसियों से आनंदपुर गुरुद्वारे का बखान सुना था।बस मुझे तो गुरुद्वारे का दर्शन करना था।साथ चलने का निवेदन मानो नानकसाहब का बुलावा था।

आनंदपुर साहिब का निर्माण सन 1665 में सिक्खों के नौवें गुरु तेगबहादुर जी ने किया था। वे कीरतपुर से आए थे। इस गाँव का नाम मखोवल था। गुरु तेगबहादुर ने इसे चक्की नानकी नाम दिया जो उनकी माता का नाम था।

सन 1675 में गुरु तेगबहादुर पर औरंगज़ेब ने भीषण अत्याचार किए ।वे चाहते थे कि गुरु तेगबहादुर मुसलमान धर्म स्वीकार  कर लें।उनके बार – बार इन्कार करने पर उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। इस शहीद गुरु के बेटे गोविंद दास को दसवें गुरु के रूप में नियुक्त किया गया। आज हम उन्हें गुरु गोविंद सिंह  के नाम से संबोधित करते हैं, स्मरण करते हैं। गुरुगोविंद सिंह जी ने ही इस गाँव का नाम चक्की नानकी  से बदलकर आनंदपुर रखा।

वह छोटा – सा गाँव अब शहर बनने लगा। सिक्ख समुदाय के लोग गुरुगोविंद सिंह जी की ओर बढ़ने लगे। बड़ी संख्या में लोग दसवें गुरु की ओर आकर्षित होते रहे। आनंदपुर सिक्ख समुदाय का महत्त्वपूर्ण गढ़ बनने लगा। पास पड़ोस के पहाड़ी रियासतों और मुगलों की चिंता बढ़ने लगी। गुरुगोविंद सिंह जी के साहस, शौर्य की बात प्रसिद्धी पाने लगी। मुगल शासक औरंगज़ेब ने बैसाखी के दौरान होनेवाली भीड़ पर पाबंदी लगा दी। सन 1699 में गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की और विशाल सैन्य बल एकत्रित कर ली। बड़ी मात्रा में हथियार भी एकत्रित कर लिए  गए। औरंगज़ेब और उसके मातहत जितने हिंदू राजा थे वे व्यग्र हो उठे। वे आनंदपुर को घेरना चाहते थे। इस कारण कई  युद्ध हुए।

सन 1700 से 1704 तक मुगलों के साथ कई बार भारी युद्ध हुए। मुगल सेना को मुँह की खानी पड़ी, कभी धूल चाटने की नौबत भी आई।1704 में आनंदपुर को जानेवाली सभी प्रकार की सुविधाओं पर मुगलों ने अंकुश लगा दिए। मई माह से दिसंबर तक भोजन आदि का मार्ग बंद कर दिए गए।कई सिक्ख सैनिक प्राण बचाकर अपने घर भाग गए। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि भारतीय नारी युद्ध मैदान से भागे हुए सैनिक की पत्नी बनकर जीने से विधवा होकर जीने को  अधिक श्रेष्ठ  मानती थीं।आवश्यकता पड़ने पर वे भी विरांगनाएँ तलवार लेकर निकल पड़ती थीं। जो सैनिक भागकर लौट आए थे उन्हें उनकी पत्नियों ने प्रताड़ित किया, धिक्कारा और वे सब लौटकर आए और युद्ध मैदान पर शहीद हो गए।

 युद्ध के अंत में आखिर औरंगजेब ने गुरुगोविंद सिंह को सपरिवार अपने अनुयायियों के साथ वहाँ से निकलने का मार्ग दिया। दो समूहों में बँटकर वे आनंदपुर से निकले। धोखा देने के स्वभाव से मजबूर मुगलों ने एक समूह पर आक्रमण किया और गुरु गोविंद सिंह के दोनों छोटे बच्चे और  माता गुजारी को घेर लिया। उनका बड़ा बेटा जोरावर सिंह जो आठ वर्षीय था  और फतेह सिंह  जो पाँच वर्ष का था उन्हें बंदी बना लिया गया। उन दोनों को बदले की भावना से जलनेवाले औरंगज़ेब ने ज़िंदा चुनवा दिया। माता गुजारी सदमें को न सह सकीं और उनका देहांत हो गया।

आज आनंदपुर एक विशाल और महत्वपूर्ण गुरुद्वारा है। देश के इतिहास में इसका महत्वपूर्ण स्थान भी है। विशाल ,भव्य इमारत है। संग्रहालय है। लंगर के लिए विशेष स्थान है। पास में ही छोटा सरोवर है। आज भी विभिन्न पर्वों के अवसर पर देश -विदेश से सिक्ख संप्रदाय के लोग यहाँ उपस्थित होते हैं। खासकर खालसा समुदाय के लोग बड़ी आस्था के साथ यहाँ आते हैं।

हमारा अहो भाग्य ही है कि चंडीगढ़ में रहते हुए हमें ऐसे विशेष स्थानों पर दर्शन का लाभ मिला।

इन सभी गुरुद्वारों की एक विशेषता है कि यहाँ स्वच्छता को बहुत महत्त्व दिया जाता है।यहाँ शोर नहीं होता। दिनरात पाठ की धुन जारी रहती है।अलग – अलग स्थान पर लोग इच्छानुसार कर सेवा करते रहते हैं। सभी शांति से दर्शन करते हैं। ठेलमठेल कभी दिखाई नहीं देती। लोग कतारों में खड़े होकर नामस्मरण करते दिखते हैं।

सभी लंगर में श्रद्धा से प्रसाद ग्रहण करते हैं। गुरुद्वारे में फूल,माला, नारियल आदि नहीं चढ़ाए जाते। गरम काढ़ा परसाद दिन भर सभी को बाँटा जाता है। हमें यहीं आकर ज्ञात हुआ कि काढ़ा परसाद का अर्थ है कढ़ाही में बनाया गया प्रसाद। हर घर में आटा, घी, गुड़ और पानी ये चारों वस्तुएँ उपलब्ध होती ही थीं। बाद में गुड़ की जगह खंड (शक्कर) का प्रयोग होने लगा। इस तरह भोग चढ़ाकर प्रसाद बाँटने की प्रथा बनी।

आज भी बड़ी मात्रा में काढ़ा प्रसाद ही बाँटते हैं। एक बार आप इस शांतिमय परिसर, आनंदमय वातावरण और स्वादिष्ट प्रसाद, सामूहिक लंगर का आनंद लेने गुरुद्वारे  में दर्शन हेतु अवश्य अवश्य जाएँ।

वाहे गुरु दा खालसा

वाहे गुरु दी फतेह।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 08 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ४ पौंटा साहब  ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग चार – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 08 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ४ – पौंटा साहब  ?

(वर्ष 1994)

अपने जीवन के कुछ वर्ष चंडीगढ़ शहर में रहने को मिले। यह हमारे परिवार के लिए सौभाग्य की बात थी क्योंकि यह न केवल एक सुंदर,सजा हुआ शहर है बल्कि हमें कंपनी की ओर से कई प्रकार की सुविधाएँ भी उपलब्ध थीं।

बर्फ पड़ने की खबर मिलते ही हम सपरिवार ड्राइवर को साथ लेकर शिमला के लिए निकल पड़ते थे। चूँकि हिमाचल की सड़कें पहाड़ी हैं हम जैसे लोगों के लिए वहाँ गाड़ी चला पाना संभव ही नहीं होता। कई होटल भी हैं तो रहने की भी अच्छी व्यवस्था हमेशा ही होती रही। संभवतः यही कारण है कि हिमाचल का अधिकांश दर्शननीय स्थान देखने का हमें सौभाग्य मिला।

अब स्पिति हमारे बकेटलिस्ट में है!

हम सभी को श्वेतिमा से लगाव है अतः श्वेत बर्फ से ढकी चोटियाँ हमें मानो पुकारती थीं और हम अवसर मिलते ही रवाना हो जाते थे।

चंडीगढ़ के निवासी ऐसे ट्रिप को अक्सर शिवालिक ट्रिप नाम देते हैं क्योंकि यह शिवालिक रेंज के अंतर्गत पड़ता है।

शिमला, कसौली, कुफ्री,चैल, तत्तापानी कालका,सोलन, परवानु आदि सभी स्थानों के दर्शन का भरपूर हमने आनंद लिया।

इस वर्ष हम कुल्लू मनाली के लिए रवाना हुए। चंडीगढ़ से 120 कि.मी. की दूरी पर डिस्ट्रिक्ट सिरमौर है। यहाँ एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है जिसका नाम है पौंटासाहब। हमने सबसे पहले यहीं अपना पहला पड़ाव डाला। यद्यपि दूरी 120 किलोमीटर की ही थी पर फरवरी के महीने में अभी भी कड़ाके की ठंडी थी, सुबह ओस और धुँध के कारण गाड़ी शीघ्रता से आगे नहीं बढ़ पा रही थी। रास्ते भी घुमावदार थे। अँधेरा भी जल्दी ही हो जाने के कारण हमने उस रात वहीं रुकने का मन बनाया।

पौंटा साहब का असली नाम था पाँव टिका। गुरु गोविन्द सिंह जी एक समय इस स्थान पर अपने घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना के साथ यहाँ उतरे थे। उन दिनों वे सिक्ख धर्म का प्रचार कर रहे थे। मुगलों द्वारा भारी मात्रा में धर्म परिवर्तन ने ज़ोर भी पकड़ रखा था। ऐसे समय अपने देशवासियों को एकत्रित करना और समाज की सुरक्षा के लिए तैयार रहना उस समय के देशवासियों की बड़ी ज़िम्मेदारी थी। गुरु गोविंद सिंह जी जो सिक्ख सम्प्रदाय के दसवें गुरु थे, इस तरह घूम-घूमकर लोगों को जागरूक करने और सिक्ख धर्म का प्रचार करने निकलते थे।

गुरु गोविंद सिंह जी कहीं भी अधिक समय तक नहीं रुकते थे। पर इस स्थान पर वे चार वर्ष से अधिक समय तक रुके रहे। जिस कारण इस स्थान को पाँव टिका कहा गया। अर्थात गुरु के पाँव अधिक समय तक टिक गए। इसका रूप बदला और यह पौंटिका कहलाया। फिर समय के चलते इसका नामकरण हुआ और यह पौंटासाहब कहलाया।

उन दिनों सिरमौर के राजा मेदिनी प्रकाश थे। वे सिक्ख समुदाय के साथ एक मित्रता का हाथ बढ़ाना चाहते थे। उन्होंने ही गुरुगोविंद सिंह जी को सिरमौर में आने का आमंत्रण दिया था।

गुरुगोविंद सिंह के साथ उनकी बड़ी फौज भी हमेशा साथ चलती थी। सभी के रहने के लिए एक उत्तम स्थान आवश्यक था। राजा मेदिनी प्रकाश ने विशाल स्थान घेरकर एक सुरक्षित किले की तरह इस स्थान का निर्माण कराया, साथ ही भीतर एक विशाल गुरुद्वारा भी बनवाया। यमुना के तट पर बसा यह गुरुद्वारा आज जग प्रसिद्ध है।

यह स्थान न केवल सिक्ख सम्प्रदाय का धार्मिक स्थल है बल्कि इस स्थान का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। यहीं पर लंबे अंतराल तक रहते हुए गुरु गोविन्द सिंह जी ने दशम ग्रंथ की रचना की थी। उनका पुत्र अजीत सिंह का जन्म भी यहीं हुआ था।

यहाँ सोने की एक पालकी है जिसे भक्तों ने गुरुद्वारे को उपहार स्वरूप में दिया था।

गुरुद्वारे के भीतर दो मुख्य स्थान हैं जिन्हें तलब असथान और दस्तर असथान कहते हैं। असथान का अर्थ है स्थान। तलब असथान में कार्यकर्ताओं को तनख्वाह बाँटी जाती थी। दस्तर असथान में पगड़ी बाँधने की रस्म अदा की जाती थी।

गुरुद्वारे के पास ही माता यमुना का मंदिर स्थापित है। यहाँ एक बड़ा हॉल है जहाँ कवि सम्मेलन आयोजित किया जाता था। इसी स्थान पर गुरु गोविंद सिंह जी के रहते हुए कविता लेखन की स्पर्धा का आयोजन भी किया जाता था। यहाँ एक संग्रहालय भी है जिसमें कई पुरातन वस्तुएँ रखी गई हैं। गुरुगोविंद सिंह जी की कलम भी यहाँ देख सकते हैं। उनके द्वारा उपयोग में लाई गई कई वस्तुएँ यहाँ देखने को मिलेंगी।

 यहाँ बड़ी संख्या में न केवल सिक्ख आते हैं बल्कि अन्य पर्यटक भी दर्शन के लिए आते रहते हैं। यहाँ आकर एक बात बहुत स्पष्ट समझ में आती है कि ईश्वर एक है, एक ओंकार। बड़ी मात्रा में लंगर की यहाँ सदा व्यवस्था रहती है। सब प्रकार के लोग,सब जाति के,वर्ग के लोग एक साथ बैठकर लंगर में प्रसाद का आनंद लेते हैं। यहाँ दिन भर बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ रहती है।

यमुना के तट पर होने के कारण प्रकृति का सुंदर दृश्य सब तरफ देखने को मिलता है।

आज इस शहर में कई प्रकार के उद्योग प्रारंभ किए गए हैं। रहने के लिए कई बजेट होटल भी उपलब्ध है।

पौंटासाहब कुल्लू से 360 किमी की दूरी पर है। रास्ते में अगर आप रुकते हुए ढाबों के भोजन का आनंद लेते चलें तो दर्शन करने के लिए भी पर्यटक यहाँ रुकते जाते हैं। रास्ते में आपको शॉल बनने के छोटे- छोटे कुटीर उद्योग करते लोग मिल जाएँगे।

यहाँ के लोगों का स्वभाव मिलनसार है। वे पर्यटकों की अच्छी देखभाल और आतिथ्य करते हैं। उनका स्वभाव भी सरल ही होता है। आपको यहाँ अधिकतर लोग रास्ते के किनारे उकड़ूँ बैठकर बतियाते दिखाई देंगे। सभी फुर्सत में दिखते हैं। शहरों – सी भागदौड़ यहाँ नहीं दिखती। इनके छोटे- बड़े पत्थर के घर आकर्षक दिखाई देते हैं। हर घर में खूब लकड़ियाँ स्टॉक करके रखी जाती हैं। इसका उपयोग ईंधन के रूप में होता है। ठंडी का मौसम लंबे समय तक चलने के कारण वे लकड़ियाँ जमा करते रहते हैं।

यहाँ के लोग भात तो खाते ही हैं साथ में कमलगट्टे का यहाँ प्रचुर मात्रा में उपयोग होता है। आप जैसे – जैसे गाँवों की पतली सड़को से गुजरेंगे आपको हींग के पौधों की खेती दिखाई देगी। जो हाल ही में प्रारंभ की गई है।

पौंटासाहब का दर्शन करके हम रोहतांग पास तक पहुँचे। वहाँ एक खास बात देखने को मिली कि ऊपर चलने से पहले ही वे पर्यटकों के हाथ में कपड़े की थैली पकड़ाते हैं ताकि उनके पर्यावरण की रक्षा हो सके और कचरा न फेंके जाएँ। यह एक बहुत बड़ी बात थी जो समय से बहुत पहले ही देखने को मिली। यह सतर्कता अभी चंडीगढ़ में भी नहीं थी।

हमारे परिवार का यह सौभाग्य ही रहा कि हमें दूसरी बार पौंटासाहब गुरुद्वारे का दर्शन करने का अवसर मिला। इस बार हम देहरादून से वहाँ पहुँचे थे। देहरादून से पौंटासाहब पचास कि.मी की दूरी पर स्थित है।

यह नानक साहब की असीम कृपा है कि हमें भारत के मुख्य गुरुद्वारों के दर्शन का सौभाग्य मिलता ही रहा है।

वाहे गुरु, वाहे गुरु बोल खालसा

तेरा हीरा जन्म अनमोल खालसा

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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