हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 147 ☆ लघुकथा – डबल पैसा ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा डबल पैसा ? । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 147 ☆

☆ लघुकथा – डबल पैसा ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

“रिक्शावाले भइया! चौक चलोगे?”

“हां बिटिया! काहे न चलब”

“पैसा कितना लेबो?”

रिक्शावाले ने एक नजर हम दोनों पर डाली और बोला – “दुई सवारी है पैसा डबल लगी। रस्ता बहुत खराब है और चढ़ाई भी पड़त है। ”

“पैसा डबल काहे भइया! रास्ते में जहां चढ़ाई होगी हम दोनों रिक्शे से उतर जाएंगे”

 “दो लोगन का खींचै में हमार मेहनत भी डबल लगी ना बिटिया!”

अदिति ने उसको मनाते हुए कहा- “अरे! चलो भइया हो जाएगा, थोड़ा ज्यादा पैसा ले लेना और दोनों जल्दी से रिक्शे में बैठ गईं। ”

 रिक्शावाला सीट पर बैठकर रिक्शा चलाने लगा। चढ़ाई होती तो वह सीट से नीचे उतरकर एक हाथ से हैंडिल और एक से सीट को पकड़कर रिक्शा आगे खींचता। चढ़ाई आने पर हम रिक्शे से उतर भी गए फिर भी रिक्शावाला पसीने से तर-बतर हो बार- बार अँगोछे से पसीना पोंछ रहा था। पैडल पर रखे उसके पैर जीवन जीने के लिए भीड़, उबड़-खाबड- रास्तों और विरुद्ध हवा से जूझ रहे थे।

 रिक्शावाले की बात मेरे दिमाग में घूमने लगी ‘डबल सवारी है तो पैसा डबल लगेगा’। बचपन से मैंने माँ को घर और ऑफिस की डबल ड्यूटी करते हुए चकरघिन्नी सा घूमते ही तो देखा है। दोनों के बीच तालमेल बिठाने के लिए वह जीवन भर दो नावों में पैर रखकर चलती रही। घर का काम निपटाकर ऑफिस जाती और वापस आने पर रात का खाना वगैरह न जाने कितने छोटे-मोटे काम—

 निरंतर घूम रहे पैडल के साथ- साथ बचपन की यादों के न जाने कितनी पन्ने खुलने लगे। सुबह होते ही स्कूल के लिए भाग-दौड़ और शाम को हम दोनों का होमवर्क, स्कूल की यूनीफॉर्म, बैग तैयार करके रखना सब माँ के जिम्मे, साथ में पारिवारिक जीवन के उतार, चढ़ाव, तनाव—-। थोड़ी देर में ही मन अतीत की गलियों में गहरे विचर आया। स्त्रियों को उनकी इस डबल ड्यूटी के बदले क्या मिलता है ?

“बिटिया! आय गवा चौक बाजार, उतरें।”

“दीदी! उतरो नीचे किस सोच में डूब गई” – आस्था ने कहा

उसकी आवाज से मानों तंद्रा टूटी। मैंने रिक्शावाले के हाथ में बिना कुछ कहे दुगने पैसे रख दिए।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – मोक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

श्री संजय भारद्वाज जी की माताजी श्रीमती मंगला काशीलाल मिश्र का मोक्षगमन कल 29 जनवरी 2025 रात्रि लगभग 1 बजे हुआ। ईश्वर से प्रार्थना है कि वे उन्हें श्री चरणों में स्थान दें और शोक संतप्त परिवार को इस दुख को सहन करने की शक्ति प्रदान करें। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🙏

? संजय दृष्टि – लघुकथा – मोक्ष ??

(आज हम श्री संजय भारद्वाज जी की पूर्व प्रकाशित लघुकथा पुनर्पाठ में प्रस्तुत कर रहे हैं।)

उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका।

मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए सन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।

देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।

अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।

संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी‌।

……..धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 57 – हम तो गुलाम हैं… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हम तो गुलाम हैं…।)

☆ लघुकथा # 57 – हम तो गुलाम हैं… श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

आज क्या बात है सोहन तुमने जल्दी दुकान को साफ कर दिया? सारी चीज अच्छे से जमा दिया और सफेद, ऑरेंज, हरे रंग के गुब्बारे से पूरी दुकान को सजा दिया। शाबाश बहुत बढ़िया किया।

भैया मैंने बहुत अच्छा काम किया इसके बदले में आज मैं शाम को 4:00 बजे जल्दी छुट्टी करके घर जाना चाहता हूं।

दुकान के मालिक किशोर ने कहा – वह तो मैं समझ गया था कि इतने काम करने के पीछे कुछ न कुछ मतलब होगा ।

सुनो, छुट्टी तो तुम्हें 7:00 बजे ही मिलेगी। अभी मैं दुकान का सामान लेकर पास में जो परेड ग्राउंड है वहां पर जा रहा हूं। बड़े-बड़े लोगों ने बुलाया है और जल्दी-जल्दी गिफ्ट पैक करो वहां पर सबको खेलकूद के लिए उपहार दिए जाएंगे।

भैया जब आप आओगे तब मैं चला जाऊंगा?

तुमने भी क्या छोटे बच्चों की तरह रट लगाकर रखी है। मैंने कहा जल्दी नहीं जाना है। ज्यादा बकवास करोगे तो रात में 10:00 ही जाने दूंगा।

ठीक है भैया सामान पैक करके उसने गाड़ी में रख दिया।

अपनी पत्नी और बच्चों को फोन किया कि तुम लोग जाओ घूम कर आओ मैं नहीं आ सकता। दुकान के मालिक भी परेड ग्राउंड गए हैं। शाम को 7:00 बजे छुट्टी देने के लिए भैया ने बोला है। फिर हम लोग एक साथ बाहर खाना खाने चलेंगे। आज तुम बच्चों के साथ घूम के आ जाओ। कुछ सामान बच्चों को दिला देना।  मैंने कुछ पैसे बच्चों के अकाउंट में डाल दिये हैं। बिटिया सुमन ऑनलाइन पेमेंट कर देंगी। कम से कम तुम लोग तो मजा करो मेरी मजबूरी को समझो।

तभी बिटिया सुमन ने फोन लेकर कहा कि ठीक है पापा हम लोग शाम को इकट्ठे खाना खाने चलेंगे। आप हमारी चिंता मत करो।

ठीक है बेटा ध्यान से जाना। सोहन दुकान में बैठे-बैठे सोचने लगता है। देश आजाद हो गया संविधान लागू हो गया। लेकिन हम गरीबों को कभी आजादी नहीं मिलेगी। जब तक जीवन है काम करना पड़ेगा। घूमना फिरना तो बड़े रईसों का काम है। हमारे लिए कैसा जश्न?  हम तो गुलाम  हैं

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #201 – लघुकथा – तीर्थयात्रा – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “अथकथा में, हे कथाकार!)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 201 ☆

☆ लघुकथा- तीर्थयात्रा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

हरिद्वार जाने वाली गाड़ी दिल्ली पहुंची थी कि फोन घनघना उठा,” हेल्लो भैया !”

“हाँ हाँ ! क्या कहा ? भाभी की तबियत ख़राब ही गई. ज्यादा सीरियस है. आप चिंता न करें.” कहते हुए रमन फोन काट कर अपनी पत्नी की ओर मुड़ा, “ सीमा ! हमें अगले स्टेशन पर उतरना पड़ेगा.”

“क्यों जी ? हम तो तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं. फिर वापस घर लौटना पड़ेगा ?” सीमा का वर्षों पूर्व संजौया सपना पूरा हो रहा था, “ कहते हैं कि तीर्थयात्रा बीच में नहीं छोड़ना चाहिए. अपशगुन होता है.”

“कॉमओन सीमा ! कहाँ पुराने अंधविश्वास ले कर बैठ गई,” सीमा के पति ने कहा, “ कहते हैं कि बड़ों की सेवा से बढ़ कर कोई तीर्थ नहीं होता हैं ”

यह सुन कर सीमा सपनों की दुनिया से बाहर आ गई और रेल के बर्थ पर बैठेबैठे बुजुर्ग दंपत्ति के हाथ यह देखसुन कर आशीर्वाद के लिए उठ गए.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२७/०२/२०१६ 

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 56 – मानवता… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मानवता।)

☆ लघुकथा # 56 – मानवता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’        

“भैया अम्मा की तबियत ठीक नहीं है आप भाभी और बच्चों को लेकर आ जाइए।”

शांति ने अपने बड़े भाई को फोन किया।

बड़े भाई  अरुण की  आंखें भर आयीं थी और वह अपनी छोटी बहन से कह रहा था कि 4 साल से मां बिस्तर में हैं और तू अपना घर परिवार देखते हुए कैसे सेवा कर रही है?

अपनी माँ को अकेले में छोड़कर तुम्हारी भाभी से डर कर के घर में शांति बनी रहे अपने बच्चों को देख रहा था लेकिन तूने हर कर्तव्य का निर्वाह किया।

सुबह शाम मां को खाना बनाकर अपने हाथ से उनको खाना खिलाना। उनके बिस्तर को ठीक करना, गन्दे कपड़े धोना आदि  सभी काम वह स्वयं ही करती है इतनी हिम्मत कहां से आई जीजाजी और बच्चों को भी तो तू ही संभालती है।

शांति ने मुस्कुरा कर कहा भैया “अरे कुछ नहीं , आप तो बेकार ही परेशान हो जाते हैं,  आप ही आ जाते तो कम से कम अम्मा आपको ही देख लेतीं उनकी तबियत बहुत खराब है।”

बड़ी दीदी भी आई है मां दरवाजे की तरफ अपनी उदास नजरों से देखती है कुछ कह नहीं पाती। आप हम दोनों बहनों के बीच में अकेले भाई हो। आप ही का इंतजार कर रही है अब जल्दी से आ जाओ भैया।

इतने में अंदर से कुछ आवाज आती है और शांति – भैया अब मैं फोन रख रही हूं।

हाथ का पानी का गिलास छूटकर नीचे जा गिरा।

उसकी मां अब इस दुनिया से जा चुकी थी बड़ी बहन कमला ने आवाज दी। वह भी हड़बड़ा कर मां के कमरे में पहुंची।

क्या हुआ कहते हुए जब उसने मां को छुआ तो वह भी सन्न रह गई।

वे तो अनन्त यात्रा पर निकल चुकी थीं।

सभी को फोन कर के बुलाया गया। कुछ ने थोड़ा सच में तो कुछ ने नाटक में आंसू भी गिराये, दुख  प्रकट किया।

बड़े बेटे के साथ भाभी भी आई।

भाभी का ध्यान अम्मा के बक्से  पर ही टिका हुआ था।

अन्तिम संस्कार के बाद शाम को बड़ी बहन कमला से बोली  जीजी  सन्दूक मैं मां के गहने सब छोटी ने ही रख लिए क्या? हमें उन में कुछ नहीं मिलेगा?

बीच में सन्दूक रख कर छोटी बहन ने चाबी भाभी को दे दी।

भाभी भाई और बड़ी बहन कमला के बीच उनकी अम्मा से अधिक उनके जेवरों और पैसों पर चर्चा हो रही थी। 

भाई ने कहा – दोनों भी अम्मा की एक एक चीज यादगार के रूप में रख लो।

भैया आज ही सुनार बुला रहे हो जो भी लोग  सुनेंगे वे क्या कहेंगे?

अरे कोई कुछ भी क्यों कहेगा ? किसी के घर डाका डालने जा रहे हैं क्या ? बड़े भाई भाभी एक ही जबान में बोल पड़े।

अब  जेवर कौन रखता है? सोनार को बुलाकर इसे बेच देते हैं और रकम ले लेते हैं।

कोई प्रॉपर्टी खरीद लेंगे।

फिर बहस का विस्तार हुआ।

यही अधिकार तब दिखाते जब अम्मा बीमार थीं। तब तो उनकी सेवा में हिस्सेदारी करने कोई भी नहीं आया।

रहने दो दीदी बेकार की बात बढ़ाने में क्या फायदा?  भाई ने बहन को शान्त करते हुए

कहा।

सुनार बहुत देर तक गहनों को देखता रहा।

सुनार  की आंखों  से दो बूंद आंसू लुढ़क आए…। कमला मां की कमरे में जाकर उनकी तस्वीर देखने लगी। मां सारे संस्कार तूने हम बहनों को ही दिए भाई को क्या कुछ भी नहीं सिखाया?

भाई के अंदर की सारी मानवता मर गई है क्या…?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 328 ☆ लघुकथा – “एंकर…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 328 ☆

?  लघुकथा – एंकर…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

वह एंकर है। शो होस्ट करती है। उस पर कभी लाइव कंसर्ट, कभी टीवी  तो कभी रेडियो के एंकर की जिम्मेदारी होती है। लाइव शो के उन घंटों में बिना किसी फ्लाइट में बैठे ही उसका फोन फ्लाइट मोड में होता है, और वह दुनियां से बेखबर, दर्शकों को अपनी खनखनाती आवाज से एक स्वप्न लोक में ले जाती है। जब वह बोलती है , तो बस वह ही बोलती है, शो को एक सूत्र में बांधे हुए। जैसे एंकर तूफानी समुद्र में भी जहाज को स्थिर बनाए रखता है। उसके लाइव शो भी बस उसके इर्द गिर्द ही होते हैं।  हर शो के बाद लोग उसकी आवाज के उतार चढ़ाव और संयोजन की प्रशंसा में इंस्टा पर कमेंट्स करते हैं। उसे अपने स्टड होस्टिंग टेलेंट पर नाज होता है।

लेकिन आज स्थिति अजब थी, उसका टी वी शो शिड्यूल था, और उसी वक्त उसके बचपन की सखी नीरा का रो रो कर बुरा हाल था। नीरा की मम्मी मतलब उसकी रीमा मां जिन्होंने बचपन में उसके बेजान घुंघराले उलझे बालों में तेल डालकर उसकी खूब हेड मसाज की थी, उसी वक्त आपरेशन थियेटर में थीं। सच कहें तो उसके स्टड व्यक्तित्व को गढ़ने में रीमा मां का बड़ा हाथ था। वे ही थीं जो उसके बालों में हाथ फेरते हुए उसे दुनियादारी के पाठ पढ़ाया करती थी, और उसे उसके भीतर छिपे टेलेंट को हौसला दिया करती थीं। उनके ही कहने पर उसने पहली बार अपने स्कूल में एनुअल डे की होस्टिंग की थी। इसी सब से  पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली की मम्मी को वह  कब आंटी से रीमा मां कहने लगी थी, उसे याद नहीं।

इधर स्टूडियो में उसका लाइव शो टेलिकास्ट हो रहा था, उधर आपरेशन थियेटर में रीमा मां का क्रिटिकल आपरेशन चल रहा था। बाहर नीरा हाथों की अंगुलियां भींचे हुए कारीडोर में चक्कर लगा रही थी। उसका टेलिकास्ट पूरा हुआ और वह अस्पताल भागी, वह नीरा के पास पहुंची ही थी कि आपरेशन थियेटर के बाहर लगी लाल बत्ती बुझ गई। डाक्टर सिर लटकाए बाहर निकले, आई एम सॉरी, उन्होंने कहा। नीरा उसकी बांहों में अचेत ही हो गई। उसने नीरा को संभाला, और उसके उलझे बालों में उंगलियां फेरने लगी।

विषम स्थिति से उसे खुद को और नीरा को निकालना होगा, वह अपनी रीमा मां की एंकर है, स्टड और बोल्ड।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 42 – लघुकथा – कूड़ेदान ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – कूड़ेदान )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 42 – लघुकथा – कूड़ेदान ?

पिछली रात मेरे घर में कुछ मेहमान आए थे, रात को सोने में देरी हो गई थी तो सुबह न जल्दी नींद खुली और न घर का कूड़ा मुख्य दरवाज़े के बाहर रखा।

सुबह आठ बजे के करीब घंटी बजी। मुझे कुछ देर और सोने की इच्छा थी पर दरवाज़े पर कौन है यह तो देखना ही था। मैं झल्लाकर उठी, दरवाज़ा खोला तो सामने मोहल्ले का सफ़ाई कर्मी राजू खड़ा था। मुस्कराकर नमस्ते कहकर बोला, तबीयत ठीक नहीं माताजी?

मैंने अलसाते हुए कहा – नहीं, ठीक है बस नींद नहीं खुली।

– आपको डायाबेटिज़ है माताजी ?

– हाँ राजू, बहुत साल हो गए। तुम्हें कैसे पता?

– आपके सूखे कूड़े दान में इंजेक्शन का ढक्कन रहता है न तो मालूम पड़ा। रोज़ सोचता हूँ पूछूँ पर आप सुबह ही कूड़ा रख देती हैं तो मुझे मौका नहीं मिलता पूछने का। अपना ध्यान रखो माताजी।

– अरे राजू कूड़ा तो सुबह अंकल ही रखते हैं। आज वे मंदिर चले गए और मेरी नींद न खुली। बेल बजाकर कूड़ा उठाने के लिए थैंक यू राजू।

सफ़ाईवाला राजू कूड़ा लेकर चला गया।

मुझे मेरे प्रति उसकी चिंता और सद्भावना अच्छी लगी। यही तो इन्सानियत होती है।

कुछ दिन बाद मुझे कुछ सामान लेने के लिए पास की दुकान जाना था। मैं सामान लेकर लौटी तो थोड़ी थकावट के कारण मोहल्ले के एक बेंच पर बैठ गई।

बेंच के पीछे से कुछ परिचित -सी आवाज़ आई तो मैंने बेंच के पीछे झाँककर देखा। सफ़ाईवाला राजू और उसका साथी बानी दोनों बेंच के पीछे तंबाकू खाने बैठे थे।

हमारे मोहल्ले के बेंच सिमेंट से बने ऊँचे बेंच हैं। कोई पीछे बैठा हो तो पता नहीं चलता।

मैं चुपचाप बैठी रही। वे आपस में बातें करने लगे।

– “606 वाले अंकल लगता है बहुत दारू पीते हैं। रोज़ बोतलें निकलती हैं उनके घर से। ” राजू बोला।

– “उनको छोड़ ई बिल्डिंग 201 की मैडम हैं न जो अकेली ही रहती हैं, अरे वह मोटी सी, बहुत ज़ोर से हँसती है वह तो 606 की भी गुरु है। ” बानी बोला।

– क्यों उनकी बोतलें ज़्यादा होती है क्या?

– बोतलें तो होती ही हैं साथ में खूब सिगरेट भी फूँकती हैं। वह तो मुझे हर महीने 100 रुपये एकश्ट्रा देती है बोतलें उठाने के लिए। फिर बोतलें बेचकर मैं भी कुछ और रुपया कमा लेता हूँ। आपुनको तो फायदा है रे पर उनका क्या?

– सही है। बोतलें बेचकर कमाता तो मैं भी हूँ।

थोड़ी देर दोनों चुप रहे। दोनों शायद मुँह में ठूँसे हुए तंबाकू का मज़ा ले रहे थे।

थोड़ी देर बाद राजू बोला- लाश्टवाली ऊपर के घर में जो साहब और मैडम रहते हैं न वे बहुत बाहर से खाना मँगवाकर खाते हैं।

– तेरेको कैसे मालूम?

– अरे बाज़ार के वे गोल काले डिब्बे नहीं क्या आते सफेद ढक्कनवाले। अक्सर सूखे कचरे में वे पड़े रहते हैं और खाना बरबाद भी करते हैं।

– ये अमीरों के चोंचले ही कुछ अलग होते हैं।

– सही कहा इनको अन्न के लिए कोई सम्मान नहीं रे। खाना बरबाद करना तो अमीरी के लक्षण हैं। एक हमी को देख लो दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए सुबह से शाम तक लोगों के घर- घर जाकर कूड़ा उठाते रहते हैं। शाम तक तो आपुन के बदन से भी कूड़े का बास आता है। साला नशीबच खोटा है अपुन का।

– सब भाग्य का खेल है रे ! आपुन लोगों के नसीब में गरीबी लिखी है। पता नहीं इन बड़े अमीरों को खाना फेंकने की सज़ा कभी मिलेगी भी कि नहीं।

– मिलती है रे सज़ा, झरूर मीलती है। वो 303 की ऊँची माताजी है न, बड़ी सी बिंदी लगाती है, उसको डायाबिटीज़ है। यार ! कभी तो कुछ बुरा किया होगा न जो आज रोज़ खुद कोइच सुई टोचती रहती है। बुरा लगता है रे बुड्ढी दयालु है। हम गरीबों को अच्छा देखती भी है पर देख भुगत तो रही है न?

मैं और अधिक समय वहाँ न बैठ सकी। कुछ तीव्र तंबाकू की गंध ने परेशान किया और कुछ उनकी आपसी बातों ने।

मैं मन ही मन सोचने लगी कि अपना घर साफ़ करके कूड़ा जब हम बाहर रखते हैं तब प्रतिदिन कूड़ा साफ़ करनेवाला घर के भीतर के इतिहास -भूगोल की जानकारी पा जाता है। हमारे खान -पान और चरित्र का परिचय शायद हमारे कूड़ेदान ही बेहतर दे जाते हैं।

© सुश्री ऋता सिंह

23/10/24, 3.30pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 214 – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “जल संरक्षण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 213 ☆

🌻लघु कथा 🌻 कुंभ स्नान 🌻

सारा विश्व, भारतवर्ष प्रयागराज में आस्था के प्रतीक कुंभ महोत्सव में मांँ गंगा स्नान महत्व को अपना धर्म – कर्म की राह में एक कदम आगे बढ़ा रहा है। जय- जयकार करते सभी सोशल मीडिया, चैनल भक्ति से सराबोर दैनिक समाचार पत्र, और जगह जगह कुंभ जाने की इच्छा।

श्री राम और रामायण पर आस्था और पूर्ण विश्वास रखने वाली श्रेया का विधिवत चौपाई का पठन करना प्रतिदिन का उसका नियम था।

वह कर्म का लेख और भाग्य विधाता को सर्वोपरि मान कर अपने जीवन में आने वाली सभी कठिनाईयाँ सब सहती जा रही थी। ।

घर के आसपास रिश्ते- नाते, अडोसी – पड़ोसी, कुटुंब परिवार सभी कुंभ जाने की बात कर रहे थे। ठिठुरती ठंड में पतिदेव पेपर पढ़ने में तल्लीन।

चाय लेकर सोची वह भी याचना करके देखे की कुंभ ले चले। धीरे से दबी जुबान में श्रेया ने कहा – – सुनिए सभी कुंभ स्नान को प्रयागराज जा रहे हैं क्या? हम लोग भी जाएंगे।

कुटिलता भरी मुस्कान लिए अत्यधिक कड़वाहट भरे शब्दों का इस्तेमाल करते सौरभ उठा बाथरूम से भरी बाल्टी का पानी श्रेया के ऊपर डालते बोला – – हो गया पतिदेव के हाथ से कुंभ स्नान। इस जन्म तुम आराम से स्वर्ग पहुँच जाओगी। ठंड की सिहरन से श्रेया कांपने लगी।

पास के मंदिर में घंटी की आवाज और जोर-जोर से रामायण की चौपाई सुनाई दे रही थी—-

बरु भल बास नरक कर ताता।

दुष्ट संग जनि देई बिधाता।।

🙏हर हर गंगे 🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 273 ☆ लघु कथा – लंबी उम्र का सुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय लघु कथा – ‘लंबी उम्र का सुख‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 273 ☆

☆ लघुकथा ☆ लंबी उम्र का सुख

भाई हिम्मत लाल 83 के हुए। हिम्मत लाल जी अपने ढंग से ज़िन्दगी जीने के आदी हैं। जो उन्हें पसन्द आता है वही करते हैं। अपने स्वास्थ्य के बारे में बहुत जागरूक रहते हैं। उन्हें गर्व है कि उन्होंने लंबी उम्र पायी।

हिम्मत भाई अपने स्वास्थ्य का बहुत ख़याल रखते हैं। सवेरे उठकर पुल पर टहलने के लिए निकल जाते हैं। वहां लंगड़ा लंगड़ा कर टहलते हुए बूढ़ों को दया की दृष्टि से देखते हैं। अक्सर रुककर उनसे उनकी उम्र पूछते हैं, फिर कहते हैं, ‘मैं 83 का। एकदम फिट हूं।’ फिर  उनके चेहरे पर आये ईर्ष्या और बेचारगी के भाव को पढ़कर खुश हो लेते हैं।

घर लौटकर हिम्मत भाई योग करते हैं, उसके बाद च्यवनप्राश के साथ दूध पीते हैं। थोड़ी देर बाद फलों का जूस लेते हैं। कुछ स्वास्थ्य वर्धक दवाएं भी लेते रहते हैं। कपड़ों-लत्तों के मामले में वे अपने को चुस्त रखते हैं। अन्य बूढ़ों की तरह कोई भी कपड़े पहन लेना उन्हें पसन्द नहीं। घर में अक्सर बरमूडा पहन कर रहते हैं। घरवालों को हिदायत है कि उनकी ज़रूरतों का भी उतना ही ख़याल रखा जाए जितना दूसरे सदस्यों की ज़रूरतों का।

शाम को रोज़ वे अपने हमउम्र दोस्तों के साथ किसी के घर या दूकान में बैठक जमाते हैं। दुनिया भर की बातें, हंसी-मज़ाक होता है। टाइम अच्छा कट जाता है।

लेकिन धीरे-धीरे हिम्मत भाई की इस बैठक में गड़बड़ हो रही है। बैठक के सदस्य एक एक कर ग़ायब हो रहे हैं। पता चलता है कि किसी को स्कूटर चलाने की मनाही हो गयी तो कोई घुटने की तकलीफ़ से लाचार हो गया। एक को स्मृति- लोप की शिकायत हो गयी। डर पैदा हो गया कि ऐसा न हो कि घर से निकलें और लौट कर ही न आएं।

रिश्तेदारियों में भी अब दिक्कत होने लगी है। उनके समवयस्क ज़्यादातर रिश्तेदार दुनिया से विदा हो गये हैं और उन घरों में अब बहुओं का राज हो गया है। जिन घरों में बिना रोक-टोक के चले जाते थे वहां अब खांस-खूंस कर जाना पड़ता है। अगली पीढ़ी के लड़के मिलने पर सिर्फ औपचारिकता निभा कर खिसक लेते हैं।

हिम्मत भाई अब शिद्दत से महसूस करते हैं कि उनकी दुनिया छोटी हो रही है। जो चेहरे सामने आते हैं उनमें परिचित कम और अजनबी चेहरे ज़्यादा दिखायी पड़ते हैं।

हिम्मत भाई का लंबी उम्र पाने का गर्व धीरे धीरे छीज रहा है। समझ में आ रहा है कि अपनी बनायी हुई आत्मीय लोगों की दुनिया के बग़ैर जीवन का कोई अर्थ नहीं है। अपने जीने का अर्थ तभी है जब हमें प्रेम करने वाले भी जीवित और स्वस्थ रहें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – सच का आईना – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “– सच का आईना –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — सच का आईना — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

शादी के दो दिन हुए। दोनों अब अपने वर्तमान को ध्यान में रखते हुए बात करने की भावना में ओत – प्रोत थे। सहसा पति ने कहा, “मैं एक लड़की को चाहता था, लेकिन शादी न हो सकी। अब तुम अपनी बोलो, ताकि हमारी गृहस्थी में कुछ छिपा न रहे।” पत्नी एक लड़के को चाहती थी, लेकिन शादी न हो सकी। पर वह बोली नहीं। वह स्त्री थी। अपना सच बोला अपने जीवन में उसे महंगा पड़ सकता था।

***

© श्री रामदेव धुरंधर
23 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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