हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 17 ☆ लघुकथा – अहसास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “अहसास“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 17 ☆

✍ लघुकथा – अहसास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

श्रीमती जी की आदत थी कि आम खाकर उसकी गुठली घर के पास ही कच्ची जगह में मिट्टी के अंदर दबा देती । कभी कभी घर के पास कच्ची जगह में फेंक देती। समय आने पर गुठली में से अंकुर फूटता, पहले जड़ दिखती फिर छोटा सा तना और उस पर छोटी छोटी पत्तियां। श्रीमती जी देखकर खुशी के मारे फूल जाती। अंकुरित गुठली को वह जगह मिलती वहां गाड़ देती। जब आम का छोटा सा पेड़ हो जाता तो हमारा तबादला हो जाता। पेड़ का क्या हुआ हमें कुछ पता नहीं चलता। हां, जहां होते वहां श्रीमती जी उस पेड़ की कल्पना करती कि अब बड़ा हो गया होगा, अब तो आम भी आ गए होंगे। ऐसा ही चलता रहता।

रिटायर होने के बाद जब यह घर बना तो आसपास काफी खाली जगह थी। श्रीमती जी आदत के अनुसार गुठली डाल दिया करती। की पेड़ भी हुए परंतु उनमें से एक पेड़ ही जीवित रहा। उसे बढते हुए देखकर सब खुश होते। आशु कल्पना करता कि जब आम लगेंगे तो पहला आम मैं खाऊंगा। गुड्डी तपाक से बोल पड़ती कि तुम्हीं क्यों, क्या मैं नहीं खा सकती पहला आम। फिर दोनों समझौता करते, अच्छा आधा आधा हम दोनों। उनकी बात सुनकर सब हँस पडते। बच्चे बड़े होते गए और पेड़ भी बड़ा होता गया।

अब पांच साल से वह पेड़ फल दे रहा है। कहते हैं कि पेड़ अपना फल नहीं खाता, बांट देता है, यह हम उस समय महसूस करते जब पका आम धप्प से गिरता। कुछ ग सलाह देते कि कच्चे आम तोड़ कर अचार डाल लो तो कुछ कहते कि तोड़ कर अखबार में लपेट कर रख दो, पर जाएंगे। परंतु श्रीमती जी को आम तोड़ना मंजूर नहीं था। कोई तोड़ने की कोशिश करता तो वह नाराज होती हैं और बच्चों को तो डांट ही देती है। कहती हैं कि पेड़ खुद थोड़े ही आम खाता है। जब फल पर जाता है तो तुरंत नीचे गिरा देता है। जिसके नसीब में होता है वह खा भी लेता है।

आज सुबह श्रीमती जी दरवाजा खोलकर खुली हवा खाने के निकलीं तो देखा कि सामने राजू टहल रहा है। उसने अचानक उछल कर दो अधपके आम तोड़ लिए। श्रीमती जी ने ऊपर की ओर देखा तो जहां से आम तोड़े थे उस जगह से पेड़ की डाल से दो बूंद पानी टपक रहा है और इधर श्रीमती जी की आंख से दो आंसू निकल कर गालों पर लुढ़क गए।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 68 – एक क्षण विश्वास… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – एक क्षण विश्वास।)

☆ लघुकथा # 68 – एक क्षण विश्वास  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दरवाजे की घंटी जोर-जोर से बज रही थी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक दुर्बल बुढ़िया खड़ा थी।

“क्या है?” मैंने पूछा

“मैं आपके पड़ोसी शर्मा जी के घर पर काम करती हूं उन्होंने आपके लिए एक उपहार भेजा है।”

“क्या मज़ाक कर रही हो अम्मा, शर्मा जी और उनकी वाइफ कभी सीधे मुंह बात नहीं करती वह मेरे लिए उपहार क्या भेजेगी?

उसके चेहरे पर एक मीठी मुस्कान थी। मैंने कहा अम्मा मुझ पर व्यंग्य कर रही हो।

“आपका ही उपहार है मैडम, इसे आप ले लीजिए।”

“क्या बेटा मुझे ठंडा एक गिलास पानी मिलेगा?”

मैंने सोचा चलो, अच्छा है पड़ोसी ने कुछ उपहार तो दिया है पर क्या इस अजनबी औरत को पानी देना चाहिए? उसकी आंखों में मुझे सच्चाई दिखाई दी वह पसीने में डूबी थी और मुँह  सूख था।

चारों ओर दोपहरी का सन्नाटा था। कोई एक भी पशु पक्षी नहीं दिख रहे थे।

अचानक मेरे मन में ख्याल आया कि ज्यादा दया दिखाना उचित है या नहीं?

मैंने दरवाजा बंद करते हुए कहा आप रुको मैं पानी देती हूँ। एक बोतल में फ्रिज का पानी भरा। दो रोटी और कुछ सब्जी को एक पेपर प्लेट में रखा। बाहर आई और कहा अम्मा यहां बैठकर खा लो चाहे तो  दोपहर में आराम करके शाम को चली जाना और यह उपहार भी आप ही लेते जाना और मैंने दरवाजा बंद कर लिया। अंदर ए सी ऑन कर बैठ गई पर मन में यही ख्याल आता रहा कि वह बेचारी बुढ़िया किस मजबूरी में मेरे घर आई ।

उसके मन में क्या चल रहा है? आजकल बाहर इतना खतरा है कि किसी अजनबी पर एक क्षण विश्वास नहीं कर सकते भले ही वह सच बोल रहा हो। चलो शाम को दरवाजा खोल कर देखूंगी। अभी जाने दो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 225 – खेल तमाशा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित अत्यंत हृदयस्पर्शी लघुकथा “खेल तमाशा ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 225 ☆

🔥लघुकथा🔥🌹खेल तमाशा 🌹

शहर के मध्य बहुत बड़ा सर्व सुविधायुक्त आजकल के माॅल का फैशन। सामान खरीदने या फिर मौज मस्ती की जगह। थियेटर, गेम जोन से लेकर गाड़ी चलाना, गाना बजाना, खाना पीना सभी प्रकार के मनोरंजन के साधन।

एक मदारी रोज ही अपने छोटे से बंदर को लेकर, वहाँ पास में तमाशा दिखाता था।कभी-कभी दया या दान का काम करते उसे भी सभी आने- जाने वालों से अपनी रोजी- रोटी मिल जाती थी।

तेज भीषण गर्मी, लू की तपन,बंदर भी खूब रंगबिरंगी कपड़ों से सजा, लंबी पूँछ, सर पर टोपी, पूरे साजों श्रृंगार करके तमाशा दिखा रहा था।

आज शाम बहुत भीड़ लगी थी, तमाशा देखने वालों की। कतारों में खड़े लोग तालियाँ बजा रहे थे। अचानक इतनी भीड़ देख कर हैरानी हो रही थी। झाँक कर देखने पर पता चला–गर्मी की तपन से मदारी का बंदर मर चुका था। वह अपने छोटे से बच्चे को बंदर बना कर नचा रहा था।

बाकी सभी अपने-अपने बच्चों को दिखा रहे थे – – कितना सुंदर बंदर बना है बच्चा। चिप्स और केले दिये जा रहे थे।

मदारी हँसते – रोते खुल्ले सिक्के, नोट बटोर रहा था। आज उसे सभी दिनों से खेल तमाशे का मेहताना ज्यादा मिला। जीवन तमाशा बनते देखता रहा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – गद्य क्षणिका – पराये भी अपने… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– पराये भी अपने…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — पराये भी अपने — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

दिवाली से चार दिन पहले हमारे पड़ोसी नंदलाल के घर में मृत्यु हुई थी। शोकातुर घर के लिए हमारे घर से खाना जाता था। वहाँ दिवाली के चिराग नहीं जले। मेरे पिता ने दिन के वक्त ही हमसे कहा था हम दो ही चिराग जलायेंगे। हमने ऐसा ही किया। शोकग्रस्त नंदलाल के घर के उधर के पड़ोसी ने भी दो ही दीये जलाये। मेरे पिता ने इस बार कहा था, “पड़ोसी ऐसा ही होना चाहिए।”

 © श्री रामदेव धुरंधर

19 — 04 — 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – फर्ज़ ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक लघुकथा “फर्ज़”। )  

☆ लघुकथा – फर्ज़ ☆

( इंडिया टुडे में प्रकाशित सत्य घटना पर आधारित)

शैलेंद्र भैया आज होते तो कितने खुश होते? भाई को याद कर ज्योति के नेत्र नम हो गए। बड़ी मुश्किल से वह अपने आँसू रोक पा रही थी। यही स्थिति घर के सभी लोगों की थी। कोई किसी से कुछ भी नहीं कह पा रहा था। सभी अपने आंसुओं के सैलाब को रोक कर विवाह के रस्मों को निभाने का प्रयास कर रहे थे।

अचानक एक गाड़ी आकर रुकती है। धड़धड़ाते हुए कुछ फौजी अपने शोल्डर बैग लेकर उतरते हैं। घर-परिवार के सब लोग विस्मित नेत्रों से देखते हैं। अरे! इनमें से कुछ तो शैलेंद्र के मित्र हैं, जो उसकी निर्जीव देह तिरंगे में लपेट कर लाये थे।

सब लोगों के साथ बाबूजी भी स्तब्ध थे। तभी उन फ़ौजियों में से एक ने आगे बढ़कर बाबूजी के चरण स्पर्श करते हुए कहा – “बाबूजी, हम शैलेंद्र के मित्र हैं, आपके बेटे और ज्योति बहन के भाई।”

बाबूजी के नेत्र भर आए और उसे गले लगाकर रो पड़े। शैलेंद्र के मित्रों की आँखें भी भर आईं थीं। तभी एक और मित्र आगे बढ़ा और बाबूजी के कंधे पर हाथ रखकर बोला – “बाबूजी, ऐसे दिल छोटा नहीं करते। चलिये हम सब मिलकर शादी की रस्में पूरी करते हैं।”  

और फिर देखते ही देखते शादी का माहौल ही बदल गया।

यह बात बिजली की तरह सारे गाँव में फैल गई।

सारे गाँव ने और यहाँ तक कि दूल्हे के परिवार ने भी देखा कि कैसे शैलेंद्र के मित्रों ने बढ़ चढ़ कर शादी की एक एक रस्म निभाने का भरसक प्रयत्न किया जो एक भाई को निभानी होती हैं।    

शैलेंद्र के पिताजी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। वे मन ही मन सोच रहे थे कि – “आज मेरा बेटा इस दुनिया में नहीं है किन्तु, ईश्वर ने मुझे इतने बेटे दिये हैं जो मेरे सुख और दुख में शामिल होने के लिए सदैव तैयार हैं।”

दूसरी ओर शैलेंद्र के मित्र नम नेत्रों से अपने मित्र को याद कर रहे थे और सोच रहे थे – “ईश्वर हमें शक्ति दें, ताकि हम देश की सुरक्षा के साथ ही अपने भाइयों के सुख दुख में शामिल हो सकें।”

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “विश्वास…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “विश्वास…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

वे हमारे पडोसी थे। महानगर के जीवन में सुबह दफ्तर के लिए जाते समय व लौटते समय जैसी दुआ सलाम होती, वैसी हम लोगों के बीच थी। कभी कभी हम सिर्फ स्कूटरों के साथ हाॅर्न बजाकर, सिर झुका रस्म निभा लेते।

एक दिन दुआ सलाम और रस्म अदायगी से बढ कर मुस्कुराते हुए वे मेरे पास आए और महानगर की औपचारिकता वश मिलने का समय मांगा। मैं उन्हें ड्राइंगरूम तक ले आया। उन्होंने बिना किसी भूमिका के एक विज्ञापन मेरे सामने रख दिया। मजेदार बात कि हमारे इतने बडे कार्यालय में कोई पोस्ट निकली थी। और उनकी बेटी ने एप्लाई किया था। इसी कारण दुआ सलाम की लक्ष्मण रेखा पार कर मेरे सामने मुस्कुराते बैठे थे। वे मेरी प्रशंसा करते हुए कह रहे थे – हमें आप पर पूरा विश्वास है। आप हमारी बेटी के लिए कोशिश कीजिए। मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं इसके लिए पूरी कोशिश करूंगा। नाम और योग्यताएं नोट कर लीं।

दूसरे दिन शाम को वे फिर हाजिर हुए। मैंने उन्हें प्रगति बता दी। संबंधित विभाग से मेरिट के आधार पर इंटरव्यू का न्यौता आ जाएगा। बेटी से कहिए कि तैयारी करे।

– तैयारी? किस बात की तैयारी?

– इंटरव्यू की और किसकी?

– देखिए मैं आपसे सीधी बात करने आया हूं कि संबंधित विभाग के अधिकारी को हम प्लीज करने को तैयार हैं। किसी भी कीमत पर। हमारी तैयारी पूरी है। आप मालूम कर लीजिएगा।

मैं हैरान था कि कल तक उनका विश्वास मुझमें था और आज उनका विश्वास…?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ अधूरी बात… ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ कथा-कहानी ☆ अधूरी बात… ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

‘ऐ ठहरो!’ गढ़वाल राइफल्स का फौजी गौण सिंह थपलियाल की आवाज़ कड़क हो गई, ‘देख नहीं रहे हो बोट भर चुकी है ?’

‘मगर मेरे सारे घरवाले तो उसमें बैठ गये। मेरे अब्बा, अम्मीं, मेरे बच्चे और मेरी बीवी -।’ वह आदमी हाथ में एक भारी सा बैग थामे गिड़गिड़ा रहा था।

‘तो क्या? बाद में आना। अगली पारी में।’ गौण सिंह मानो किसी बेजान दीवार से बात कर रहा है। उसकी आवाज़ को कोई संवेदना छू तक नहीं जाती।

नाव में बैठी उसकी बीवी उठ खड़ी हो गई, ‘सा‘ब जी, उसे हमारे साथ आने दो। वरना मुझे भी यहाँ उतार दो।’

‘ऐ औरत, चुप मारके बैठो। वरना सभी को उतार देंगे। फिर डूब मरना बाढ़ के इन सैलाबों में।’ आवाज़ में मिलिट्री रोब की तल्खी उतर आयी।

उस आदमी की बूढ़ी माँ अपनी आँखें पोंछती जा रही थी। डोगरी में उसने भी कुछ कहने की कोशिश की। मगर होठों के शब्द मुँह के अंदर ही गुम हो गये। उसके बच्चे और अब्बा असहाय सा इधर उधर देख रहे थे।

किया क्या जाए? यह काम ही ऐसा है कि सख्त होना पड़ता है। वरना बाढ़ के पानी में अगर मिलिट्री रेसक्यू बोट ही डूब जाए तो ऊपरवालों को जवाब देना नहीं पड़ेगा ? और अखबार में जो छी छी होगी – वो ?

करे तो क्या करे गौण सिंह ? उसका मिजाज तो ऐसे ही खट्टा है। चार दिनों से घर पर बात भी जो न हो सकी। क्या सोच रहे हैं बाबूजी, अम्मां, ? और रामबाला ? बस, यह बात करने के लिए ही तो थपलियाल ने आते समय बीवी को मोबाइल खरीद कर दिया था, ‘रोज एकबार मुझसे बात कर लिया करना। बार्डर की पोस्टिंग पर तो इससे बात नहीं हो पायेगी। तब तो छावनी के टेलिफोन से ही मैं बात कर लूँगा। बस, जब यूनिट स्टेशन पर रहेगा तो इससे जब चाहे बात कर लेना।’

मगर चार दिन हो गये मोबाइल एकदम गूँगा बना बैठा है। धत तेरी की। जम्मू कश्मीर में बाढ़ क्या आयी चिनाब झेलम के सैलाब में गांव, कसबे तो क्या शहर की इमारतें भी डूबने लगीं। साथ साथ ले डूबी सेना के जवानों की इस खिड़की से आती जाड़े की धूप सी मुठ्ठी भर खुशी को भी। ज़ाहिर है थपलियाल का मिजाज चिड़चिड़ा हो गया है।

फिर राजस्थान से जब उसका ब्रिगेड कश्मीर के लिए रवाना हुआ तो फोन पर यह बात सुनकर अम्मां तो क्या बाबूजी भी रो पड़े थे, ‘सारे देश में पोस्टिंग के लिए और कोई जगह नहीं मिली? वहाँ तो आये दिन बम और धमाके और फायरिंग -’

मोबाइल पर मेसेज में एक ‘जोक’ आया था। कश्मीर और खूबसूरत बीवी में क्या समानता है? दोनों पर पड़ोसी नजर गड़ाये रहते हैं। कैंटीन में जवान उसे पढ़कर खूब हँस रहे थे। लेकिन नौकरी नौकरी है। और आर्डर आर्डर। इससे छुटकारा कहाँ ? तो चलो …….

फिर, सूबेदार शिवपाल यादव गाली देते हुए कह नहीं रहा था ? ‘ये कश्मीरी साले सब बेईमान हैं। खायेंगे हिन्दुस्तान का और वफ़ादारी निभायेंगे पाकिस्तान से। सब के सब आईएसआई के एजेंट।’

उधर जब मिलिट्री का कारवाँ ट्रकों पर गुजरता है तो गौण सिंह ने सड़कों पर खड़े लोगों में – खासकर नौजवानों की निगाहों में देखा है – एक धिक्कार! एक घृणा!

बार बार गढ़े मुर्दे उखाड़े जाते हैं – मिलिट्री के काले करतूतों का पर्दाफाश होता है और मुँह पर कपड़े बांधे किशोर वय के लड़के सड़क पर आकर जवानों पर ढेला पत्थर फेंकते हैं। उन्हें खदेड़ने के लिए जम्मू कश्मीर पुलिस लाठी भाँजने लगती है। अंत में फिर फौज को बुलायी जाती है। और अगर कहीं गोली चल जाए, और कोई हादसा हो जाए तो फिर से वही चक्र चलने लगता है।

अपने लापता बेटों की तस्वीर लेकर मायें निकल आती हैं – सड़कों पर। मिलिट्री बूटों तले रौंदी गई इज्जत के चिथड़ों को लेकर माँ, बाप और बहनें वादिओं की सरज़मीं को ग़मज़दा बना देती हैं।

मगर हस्तिनापुर की जनता कितनी भी रोये, मना करे, द्रौपदी का चीरहरण होता रहता है। इंद्रप्रस्थ के कानों जूँ तक नहीं रेंगती। कुरुक्षेत्र के मैदाने जंग में किसान और मामूली जनता की औलादों की लाशों का अंबार अठ्ठारह रोज तक लगते रहे। तो आज भी दिल्ली अपनी कुंभकर्णी नींद से जागती नहीं …..

जखम के सिक्के के भी दो पहलू हैं। एक तरफ अगर पुलिस मिलिट्री के प्रति कश्मीरी अवाम का आक्रोश है, तो दूसरी ओर चस्पाँ है धर्म के नाम पर अपने घर से खदेड़े गये कश्मीरी पंडितों का दर्द। राजनीति के सिक्के के भी दो पहलुएँ हैं। एक तरफ अगर है – हिन्दुस्तान पाकिस्तान के बीच की जन्मावधि खटास, तो दूसरी तरफ है यह सवाल – क्या पाकिस्तान बन जाने से वहाँ के अवाम बहुत खुश हैं? तर्जे जफा और दर्दे जिगर तो दोनों तरफ बराबर है। तो?

करीब तीन महीने से ज्यादा हो गया है जब अबकी बार गौण सिंह थपलियाल घर से वापस आया था। मोबाइल पर रामबाला से तो हर रोज बात होती रही। कभी कभी दिन में दो दफे। रात के सोते समय भी गौण एकबार हरे बटन को दबा लिया करता था, ‘क्या कर रही है …..?’

‘चुप रहिए जी। बाऊजी का खाना लगा रही हूँ।’

‘अभी तुम लोगों ने खाना नहीं खाया? यहाँ तो रात भी बूढ़ा गई है।’

‘हम मिलिट्री ड्यूटी पर थोड़े न हैं।’

मोबाइल पर आती गिलास और लोटे की खनक, माँ की खांसी की आवाज सुनते सुनते थपलिआल की नाकों में माँ के आँचल की महक आने लगती। इतने में बाबूजी की आवाज आती, ‘बहू, एक रोटी और दे जाना। आज चने की दाल किसने बनायी? तू ने या तेरी सास ने….?’

उधर से माँ की आवाज आती, ‘ मैं कबसे ऐसी दाल बनाने लगी ?’

‘हाँ, जभी मैं सोचूँ – इतनी जायकेदार कैसे बन गयी?’

शायद मोबाइल को आँचल में छुपा कर रामबाला यहाँ से वहाँ दौड़ती रही। और बीच बीच में फुसफुसाकर बात कर लेती, ‘थोड़ी देर बाद फोन नहीं कर सकते?’

‘तुझसे बात किये बगैर जो नींद नहीं आती।’

तब तक बाबूजी शायद फिर से कहते, ‘पता नहीं अपना बेटा वहाँ क्या खा रहा है। हाँ, सुना तो है मिलिट्री में फल, मेवे, मटन सब रोज़ रोज़ मिलै।’

इधर से गौण कहता, ‘मगर माँ या बीवी के हाथ का खाना नहीं मिलता रे। और तू भी नहीं मिलती ….।’

‘धत्!’कितनी बार मारे गुस्सा और शर्म के रामबाला ने मोबाइल के लाल बटन को झट से दबा दिया। और थपलियाल को फिर से हरी झंडी लहरानी पड़ी, ‘हैलो, तू ने लाइन काट क्यों दिया?’

घर से लौटने के शायद डेढ़ महीने बाद रामबाला ने उसे वो बात बतायी थी। एक रात जब दोनों बात कर रहे थे …..

‘सुनिए जी, आप से एक बात करनी थी।’

‘क्या ?’

मगर उधर से सिर्फ खामोशी। गढ़वाल की हवा हिमालय में दौड़ रही थी। उसी की साँय साँय ……

‘अरे बोल न। क्या बात है?’

फिर भी रामबाला चुप रही।

‘इस तरह से तो तुझे मुझे और उलझन में डाल देगी। घर में सब ठीक है न? बाऊजी ….अम्मां ?’

‘सब ठीक है। वो बात नहीं है-।’

‘तो फिर क्या हुआ ? तेरे पीहर में ?’

‘वहाँ सब ठीक है जी।’

अब थपलियाल को गुस्सा आ गया, ‘अरे तो बोलती क्यों नहीं – बात क्या है? मुझे कन्फ्यूज कर रही है।’

‘आप न – आप न – बाप बननेवाले हैं -’

बस गढ़वाल ने लाल बटन दबा दिया।

तब से रोज़ रात को जबतक उसकी हालचाल ठीक से न ले ले, थपलियाल को चैन नहीं आता। इसी लिए आज चार दिनों से उसका मिजाज ट्रिगर पर उँगली धरे बैठा है। कितना कुछ पूछने बताने की चाह है, मगर सारी बातें अधूरी रह गई।

पता नहीं दोस्तों के कहने पर या कहाँ से उसे पता चला था तो बड़ी समझदारी दिखाते हुए उसने पूछ लिया था, ‘वो कुछ हिलता डुलता है ?’

उधर से खिलखिलाने का फव्वारा फूट पड़ा, ‘अरे डाक्टरनी ने कहा है – वो तो चार महीने बाद ही होता है, जी।’

‘ओ -!’गौण सिंह थपलियाल बहुत निराश हो गया था।

वज़ह तो सभी ज़गह करीब करीब एक ही होती है। इंसानी काली करतूत। भले बेचारी प्रकृति के मत्थे सारा दोष मढ़ दिया जाता है – कि यह कुदरत का कहर है ! उत्तराखंड में अगर होटल, आश्रम और बाँध बनाने के चक्कर में पहाड़ की छाती को खोखला कर देने से जल प्लावन आता है, तो यहाँ भी अमुक एस्टेट और लैंड प्रापर्टी बनाने के चक्कर में झीलों का गला घोंट दिया जाता है। नतीज़तन जब पहाड़ की बर्फ पिघल कर बहने लगी तो चेनाब और झेलम में उसे फैलने की ज़गह ही न मिली, क्योंकि झीलें तो गायब थीं। तो सैलाब घुस गया गली मुहल्ले में। हर आशियाना उजड़ कर रह गया।

कुदरत ने कहर बरपाया तो क्या हुआ, भारतीय मिलिट्री को मौका मिल गया – इन्सानियत का हाथ बढ़ाने। उनके खिलाफ यहाँ की मिट्टी में जो जहर घुल गया है, उसी में अमृत घोलने का प्रयास होने लगा। अपनी जान हथेली पर रखकर फौजी जवान बचाव कार्य में जुट गये। बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए पहुँच गये हर गली मुहल्ले में।

तो आपात सेवा में फौजिओं को तैनात कर दिया गया। गढ़वाल रेजिमेंट्स के लोग कूपवाड़ा में दो बोट, भोजन के पैकेट्स और दवाई लेकर हाजिर हो गये।

बड़ी बड़ी इमारतों में जहाँ पहली मंजिल तक पानी पहुँच गया था और सारे लोग दूसरी मंजिल पर जाकर बैठे रहे, वहाँ तो भोजन सामग्री बाँट कर वे आगे बढ़ गये, मगर जिन झीलों की बगलवाले मुहल्लों में जहाँ निरन्तर पानी का दबाव था, या जहाँ गरीब जनता का एक मंजिला आशियाना पूरी तरह डूब चुका था, उन लोगों को बोट पर बैठाकर करीब तीन किमी दूर तक पंचायत भवन में ठहराया जा रहा था। उम्रदराज मरीजों को मिलिट्री अस्पताल में पहुँचाना तो था ही। इधर गैस्ट्रोएंटराइटिस का भी प्रकोप होने लगा। सरकारी व्यवस्था के लिए यह समस्या भी – एक तो करैला ऊपर से नीम चढ़ा – की स्थिति हो गई।

विद्या नौटियाल बोट को चला रहा था और गौण सिंह पतवार को सॅँभालते हुए दूसरे छोर पर बैठा था। सामान कुछ बॅँट गये थे। अभी काफी बोट में पड़े हुए थे। लालबाग चैराहे के पास आकर विद्या आसपास के मकानों की छत पर खड़े लोगों से पूछ रहा था, ‘ इधर सब खैरिअत है न? किसी को कोई जरूरत हो तो बताना। कहीं कोई परिवार मुसीबत में हो तो हमें बताओ। हम भर सब मदद करेंगे।’

औरतों ने उन्हें देखते ही नकाब नीचे कर लिया था। उनकी आँखों की पुतलियां घूम फिर कर इन पर ठहर जातीं।

इतने में एक मोटा थुलथुल आदमी गली की सीढ़िओं पर खड़े उन्हें आवाज देने लगा, ‘यहाँ नूरानी मस्जिद में हमारे आदमी हैं। दो दिनों से उन्होने उन्होने कुछ खाया नहीं है। आप इधर बोट लगाइये।’

‘आपकी तारीफ?’ नौटियाल ने बोट की मशीन बंद करते हुए पूछा।

‘अरे मुझे नहीं पहचाना? मैं हूँ – बिलाल भट्ट गिलानी। रूलिंग पार्टी का सेक्रेटरी।’

बस, यह राजनैतिक पैंतरा तो वेदव्यास ने ही लिख दिया था। कुरूक्षेत्र के युद्ध में गुरु द्रोण के शौर्य के आगे जब पांडव परेशान थे, तो वे सोचने लगे कि क्या किया जाए कि द्रोण अस्त्र त्याग करने में मजबूर हों। उसी समय अश्वत्थामा नाम का एक हाथी रणभूमि में मारा गया। द्रोण के बेटे का नाम भी अश्वत्थामा ही था। तो सबने मशविरा करके युधिष्ठिर को भेजा। द्रोणाचार्य के पास जाकर उसने कहा, ‘ अश्वत्थामा मारा गया।’ फिर धीरे से बोला, ‘जो गज है।’ यानी समूचा सच भी नहीं, झूठ भी नहीं। बेटे की मौत की गलत खबर से दुखी होकर द्रोण ने हथियार त्याग दिया और पांचालीका भाई धृष्टद्युम्न ने उनका सर धड़ से अलग कर दिया।

बिलाल भट्ट ने कह दिया कि वह रुलिंग पार्टी का सेक्रेटरी है। वर्तमान या भूतपूर्व – किसे मालूम? प्रादेशिक सेक्रेटरी, या शहर का, या मुहल्ले का? खैर, नूरानी मस्जिद में देने के लिए ढेर सारे फुड पैकेट्स लेकर बोट से उतरते ही नौटियाल और थपलियाल ने देखा कई आदमी और औरतें उनके बोट के पास खड़े होकर चिल्ला रहे थे, ‘सा‘ब, आपलोगों ने हमें कुछ नहीं दिया। और उन लोगों के देने जा रहे हैं ?’

‘क्यों क्या बात है? तुम लोग मसजिद में जाकर भट्ट साहब से अपने पैकेट्स क्यों नहीं ले लेते?’गौण सिंह ने कहा।

‘वो हमें कुछ नहीं देंगे साहब। चाहे हम भूखों मर जाएँ।’एक आदमी ने दोनों हाथ उठाकर कहा।

‘मगर क्यों ?’

‘क्योंकि हम शिया हैं। वो सिर्फ सुन्निओं की पनाहगाह है।’

इतने में वो आदमी हाँफते हुए फिर से सीढ़ी पर हाजिर हो गया, ‘क्या बात है जनाब? उनलोगों से क्या बात कर रहे हैं? आइये, यहाँ सामान देते जाइये।’

नौटियाल ने ऊपर जाकर मस्जिद में झाँक कर देखा। वहाँ खास कोई न था। उसने कड़क कर पूछा, ‘बात क्या है? यहाँ तो कोई है ही नहीं। तो फिर किसके लिए आप फुड पैकेट्स यहाँ रखवाना चाहते हैं? उधर तो वे लोग खुद पैकेट्स लेने आये हैं।’

‘मैं ने कहा न – मैं सब बाँट दूँगा। आप यहाँ सामान रखिए और जाइये न।’उसका बात करने का अंदाज ही बहुत अक्खड़ था।

‘वो तो मदद के सामान बाजार में बेच देता है।’एक औरत, जिसकी गोद में एक बच्चा चीख रहा था, ने बताया।

‘ऐ बीवी।’डोगरी में गाली देते हुए बिलाल भट्ट गिलानी चिल्ला रहा था, ‘अपने बेटे का मुँह बंद रख। तब से भौंकता जा रहा है।’

विद्या नौटियाल और गौण सिंह की आँखें मिल गईं। आँखों ही आँखों में दोनों नें ने तय कर लिया। बोट के पास खड़े लोगों में फुड पैकेट्स बँटने लगे। उधर मस्जिद के सामने हो हल्ला मच गया। बिलाल भट्ट ने आवाज देकर अपने आदमिओं को बुला लिया, ‘ये इंडियन मिलिट्री हमारी मदद के लिए नहीं आते हैं। सब दिल्ली के एजेंट हैं। यहाँ हमारे जख्मों पर भी पाॅलिटिक्स कर रहे हैं।’

‘यह क्या बक रहे हैं?’गौण सिंह को गुस्सा आ गया, ‘हम तो जरूरतमंदों में ही जिन्स बाँट रहे हैं।’

बात बढ़ गई। और सात आठ लोग उधर खड़े हो गये। बिलाल चिल्ला रहा था, ‘गो बैक इंडिया। हमें आजादी चाहिए।’

स्थिति बिगड़ न जाए, इसलिए दोनों वहाँ से जल्दी जल्दी रवाना हो गये।

रास्ते में कई लोगों को बैठाकर वे सबको को टिकानेवाले उसी पंचायत भवन में ले जा रहे थे, तो रास्ते में वो परिवार उन्हें मिल गया। वह आदमी अब तक गिड़गिड़ा रहा था, ‘सा‘ब, दो दिनों से हमारे बच्चों को हम कुछ खिला न सके। खुदा के लिए, इन्हें लेते जाइये।’

नौटियाल ने कहा था, ‘देख लो भाई, अब जगह कितनी बची है। कितने लोग और बैठ ही सकते हैं ?’

एक एक करके उसका अब्बू, उसकी अम्मीं, एक बहन और बीवी और दो बच्चे – सभी बैठ गये। बोट में अब जगह कहाँ थी ?

तभी गौण सिंह थपलियाल को कहना पड़ा था, ‘नहीं जी, हम तुम्हें ले नहीं जा सकते।’

उसकी औरत चीख उठी, ‘उसे भी बैठा लो, साहिब।’

‘और बोट डूब जाए तो ? तुम जिम्मेदार होगी?’ घर पर बात न होने के कारण, और अभी इस झमेले से उसका दिमाग खट्टा हो गया था।

वो आदमी जाने क्या बुदबुदा रहा था। उसकी बीवी बोट पर खड़ी हो गई।

‘ऐ बैठ जाओ। सबको पानी में डुबोना है क्या?’विद्या नौटियाल की घुड़की से उसकी आँखों से आँसू की धार फूट पड़ी।

बाकी लोग गूँगी निगाहों से सबकुछ देख रहे थे। मन ही मन सब अपनी किस्मत से शायद शिकायत कर रहे होंगे।

चार दिनों से मेरी कोई खबर न पाकर रामबाला भी ऐसे ही रो रही होगी! सबकी नजर बचाकर रसोई में, या पानी भरते समय। खास कर कल जब राहत कार्य में लगे एक फौजी का सैलाब मे बह जाने की खबर टीवी में आ चुकी है। थपलियाल के मन में भादो कुहार के मौसम की तरह भावनाओं के बादल उमड़ पड़े। उसने दोस्त की ओर देखा, ‘क्यों विद्या, यह नहीं हो सकता कि तू इसे लेकर चला जा, मैं यहीं रुक जाता हूँ।’

‘पागल हो गया है क्या? तेरी ड्यूटी बोट पर है। वहाँ जवाब कौन देगा? सूबेदार तो हर समय डंडा लिये खड़ा रहता है।’

‘अगर लोगों को बचाने में मैं भी उसी तरह बह जाता तो? सुन, इन्हें उतार कर दूसरी खेप लेकर इधर ही चले आना। चल कर्नल साहब को समझा लेंगे।’

‘तू भी न यार, बड़ा जिद्दी है साले।’विद्या ने मुँह फेर लिया, ‘पतवार कौन सँभालेगा?’

वह औरत बोली, ‘मेरा खाविंद कर लेगा, सा‘ब।’

जगह की अदला बदली हो गई। गौण सिंह थपलियाल बोट से उतर कर वहीं खड़ा है, वह आदमी बोट पर पतवार सँभाले बैठा है। बोट चल पड़ा ……

उस औरत की आँखों में एक अलग सैलाब उमड़ पड़ा है …….वह क्या बुदबुदा रही है ?

उसकी ओेर देखते हुए गौण के मन में यही होता है – हम तो यहाँ इनके आँसू पोंछने के लिए आये थे, मगर यह आँसू ……? इसको कौन सा नाम देंगे? उसे लगा यह आँसू कोई नोनाजल नहीं बल्कि एहसान की भावना की अमृत धार है।

उसे लगा भले ही टावर न मिलने से मोबाइल का कनेक्षण नहीं हो पा रहा है, मगर रामबाला से उसकी अधूरी बात पूरी हो गई …

 ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

पताः फ्लैट नं. 301, चैथी मंजिल, टावर नं 1, मंगलम आनन्दा, फेज 3 ए,  रामपुरा रोड, सांगानेर, जयपुर, 302029 मो. 9455168359, 9140214489.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ४ – बाप-बेटा – भूख और मौत ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ४ ☆

☆ कथा कहानी ☆ ~ बाप-बेटा – भूख और मौत ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

खेत में काम करते-करते करीब तीन बज गए थे। सूरज भी यह देखकर हैरान था कि यह आदमी है या दानव। बिना कुछ खाए पिये, सुबह से लगा तो शाम तक लगा ही रह गया। रोटी तो दूर, एक गिलास पानी भी उसे अभी तक नसीब नही हुआ था। ऐसा बिल्कुल नही था कि दीनानाथ को भूख प्यास नही लगी थी। दीनानाथ को जोर की भूख के साथ साथ प्यास भी लगी थी। लेकिन उनका बेटा किशन, यदि अपनी जिद्द पर अड़ा तो अड़ा ही रह गया। अपने बाबूजी को खेत में खाना – पानी लेकर नही गया तो नही गया। किशन की माँ गिडगिड़ाते गिडगिड़ाते थक गयी, लेकिन किशन को क्या, उसको तो अपने मित्रों के साथ कहीं और जाना था, तो जाना था, उसके लिये यह बात बिल्कुल सामान्य बात थी।

 थक हार कर सुरसतिया खाना लेकर खेत में पहुंची, तो उसे दीनानाथ कहीं भी दिखाई नही दिए। लू के थपेड़ो ने दीनानाथ पर जो कहर बरपाना था, बरपा दिया था।

टूटे पेड़ की जड़ के नीचे ऐठे हुए दीनानाथ को अब धूप नही लग रही थी। क्योंकि उनके साँसों ने भी साथ छोड़ दिया था। सुरसतिया की चीख पुकार सुनकर गांव के लोग भाग कर खेत में आये और दीनानाथ को उठाकर घर ले आये।

घर पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। सुरसतिया का रो रो कर बुरा हाल था। लोगों के बीच से किसी की आवाज आयी कि यदि दीनानाथ को भूख से मरा घोषित करा दिया जाय तो पाँच लाख की सहायता राशि मिल जायेगी।

यह बात किशन के कानों तक पहुंची तो उसकी बेचैनी बढ़ गयी। गांव के लेखपाल पवन मौर्या कही दूर के नही रहने वाले थे। वे भी बगल के गांव नौताल के रहने वाले थे। दीनानाथ की मृत्यु की खबर सुनकर वे भी द्वार करने आये थे।

किशन के कान में भूख से मरने वाली बात गूँज रही थी। अब वह पवन लेखपाल के पीछे ही पड़ गया। साहब, कुछ ले देकर बस यही रिपोर्ट लगा दीजिए। मेरा बड़ा काम हो जाएगा।

 गांव के कुछ नौजवान यह सब देख रहे थे। मनोज से जब नही रहा गया तो, उसने किशन पर चिल्लाते हुए कहा। अबे नालायक! पहले अपने बाबूजी के क्रिया – कर्म की तैयारी कर, उनका अंतिम संस्कार कर, फिर भूख से मरने और पैसे की बात करना -कराना। मनोज की बातों का कुछ भी असर किशन पर नही पड़ रहा था। वह तो अपने बाबूजी का पोस्टमार्टम करवाना चाहता था। क्योंकि भूख से मरने की पुष्टि तो पोस्टमार्टम में ही होती। पवन लेखपाल के मन में रह रह कर लालच आ रहा था, लेकिन उसकी चिंता यह थी की एस0 डी0 एम0 साहब तो इस बात पर कभी भी राजी नही होंगे, कि यह रिपोर्ट लगे कि दीनानाथ भूख से मर गया क्योंकि अब देश विकास की गति में आगे निकल चुका है। देश की सरकार हर एक नागरिक को राशन की दुकान से अन्न एवं अन्य सुविधा देने के लिये कृत संकल्पित है। पवन कई बार यह बात एस0 डी0 एम0 साहब के मुँह से सुन चुका था कि कोई ऐसा काम नही होना चाहिए जिससे सरकार की छवि को नुकसान हो। यह तो इस सरकार में भूख से मरने वाली बात है, जो बहुत बड़ी बात हुई। वैसे दीनानाथ का भी राशन कार्ड बना था और वह हर महीने राशन की दुकान से राशन उठाता था।

 सुरसतिया को अच्छी तरह से पता था कि आज उसके पति दीनानाथ की मौत भूख प्यास से तो हुई है, लेकिन राशन की कमी से नहीं हुई है। इसलिए वह ऐसी रिपोर्ट लगवाने के पक्ष में बिल्कुल ही नहीं थी।

लेकिन दीनानाथ का एकलौता बेटा किशन अपने बाबूजी को भूख के कारण ही मरना सुनना चाह रहा था।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ पुरस्कृत लघुकथा – पाप… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पाप)

☆ पुरस्कृत लघुकथा – पाप… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

(कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता-2024 में प्रथम पुरस्कार प्राप्त लघुकथा)

कन्या पैदा हुई। घर के सब लोग एकदम ख़ामोश थे। कन्या के गले में तम्बाकू रख दिया गया, कन्या हिचकी भी नहीं ले पाई। दो मर्दों ने, जिनमें से एक कन्या का पिता था, गड्ढा खोदा और निरासक्त भाव से उसे धरती के अँधेरे में पहुँचा दिया। दफ़न के वक्त कन्या के पिता ने कन्या से कहा, “जा, जहाँ से आई थी, आगे अब भैया को भेजना।”

कन्या का पिता कन्या को दफ़न करने और पुजारी जी को सीधा पहुँचाने के बाद कन्या की माँ के पास आ बैठा। वह रो रही थी। कन्या के पिता ने कहा, “रोती क्यों हो? वंश तो बेटे से ही चलेगा न!”

“हमारा अंश थी वह! दुनिया मे आई और आँख खोलने से पहले चली भी गई। भारी पाप लगेगा हमें।”

“पाप क्यों लगेगा, हमने कौन सी गऊ हत्या की है?

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 346 ☆ लघु कथा – “पत्तों की जादूगरनी…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 346 ☆

?  लघु कथा – पत्तों की जादूगरनी…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 किले से शहर जाने वाली सड़क, दिन भर पर्यटकों की आमादरफ्त होती रहती थी।

अपनी आजीविका के लिए मालिन हरिया सड़क किनारे कभी फूलों से तो कभी पेड़ पौधों की टहनियों से अनोखी कलाकृति बनाया करती थी। पर्यटक बरबस रुकते, जो तेज रफ्तार आगे निकल जाते वे भी लौटने पर मजबूर हो जाते। लोग उसके आर्ट की प्रशंसा करते, सेल्फी लेते, फोटो खींचते। इनाम में हरिया को इतना तो मिल ही जाता कि उसकी गुजर बसर हो जाती, यह हरिया मालिन की कला का जादू ही था।

हर दिन एक नई योजना हरिया के हुनर में होती थी। कभी छींद के पत्तों से वह पंखा बना लेती तो कभी नारियल के खोल की गुड़िया बनाकर बेचा करती थी। कभी टेसू के फूलों से सजावट करती, तो कभी गेंदें के फूलों की बड़ी सी रंगोली डालती।

एक संस्था ने हरिया के ईको आर्ट की प्रदर्शनी भी शहर में लगवाई थी, जिसकी खूब चर्चा अखबारों में हुई थी।

हरिया को भी लोगों के प्रोत्साहन से नया उत्साह मिलता, वह कुछ और नया नया करती।

आज हरिया ने हरी पत्तियों से कला का ऐसा जादू किया था कि तोतों की ढेर सारी आकृतियां बिल्कुल सजीव बन पड़ी थीं। “पत्तों की जादूगरनी” सड़क किनारे अपनी कला का जादू बिखेर रही थी, मन ही मन संतुष्ट और प्रसन्न थी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares