हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 195 – बेसुरा होना कठिन है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 195 बेसुरा होना कठिन है ?

एक संगीतमय आध्यात्मिक आयोजन से लौट रहे थे। वृंद के एक युवा गायक ने किसी संदर्भ में एकाएक कहा, “गुरुजी, बेसुरा गाना बहुत कठिन है।” उसके इस वाक्य पर पूरे वृंद में एक ठहाका उठा। कुछ क्षण तो मैं भी उस ठहाके में सम्मिलित रहा पर बाद में ठहाका अंतर्चेतना तक ले गया और चिंतन में बदल गया। इतनी सरलता से कितनी बड़ी बात कह गया यह होनहार युवक कि बेसुरा होना कठिन है।

जीवन जीने के लिए मिला है। जीने का अर्थ हर श्वास में एक जीवन उत्पन्न करना और उस श्वास को जी भर जीना है। श्वास और उच्छवास भी मिलकर एक लय उत्पन्न करते हैं, अर्थात साँसों में भी सुर है। सुर का बेसुरा होना स्वाभाविक नहीं है। वस्तुत:  ‘बेसुरा होना कठिन है’, इस वाक्य में अद्भुत जीवन-दर्शन छिपा है।  इस दर्शन का स्पष्ट उद्घोष है कि जीवन सकारात्मकता के लिए है।

स्मरण आता है कि जयपुर से वृंदावन की यात्रा में एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश से न्यायप्रणाली की विसंगतियों को लेकर संवाद हुआ था। उन्होंने बताया कि न्यायालय में आया हर व्यक्ति प्रथमदृष्टया न्यायदेवता के लिए निर्दोष है। उसे दोषी सिद्ध करने का काम पुलिस का है, व्यवस्था का है ।

महत्वपूर्ण बात है कि न्यायदेवता हरेक को पहले निर्दोष मानता है। इसका एक अर्थ यह भी है कि मनुष्य का मूल सज्जनता है। यह हम ही हैं जो भीतर के सज्जन को दुर्जन करने के अभियान में लगे होते हैं।

जीवन का अभियान सुरीला है, जीवन गाने के लिए है। नदी को सुनो, लगातार कलकल गा रही है। समीर को सुनो, निरंतर सरसर बह रहा है। पत्तों को सुनो, खड़खड़ाहट, एक स्वर, एक लय, एक ताल में गूँज रही है। बूँदों की टपटप सुनो, जो बरसात के साथ जब नीचे उतरती हैं तो एक अलौकिक संगीत उत्पन्न होता है। बादल की गड़गड़ाहट हो या बिजली की कड़कड़ाहट, संगीत का रौद्र रस अवतरित होता है। कभी रात्रि के नीरव में रागिनी का दायित्व उठाने वाले कीटकों के स्वर सुनो। बरसात में मेंढ़क की टर्र-टर्र सुनो।  कोयल की ‘कुहू’ सुनो, मोर की ‘मेहू’ सुनो। प्रकृति में जो कुछ सुनोगे वह संगीत बनकर कानों में समाएगा। शून्य में, निर्वात में जो कुछ अनुभव हो रहा है, वह संगीत है। तुम्हारे मन में जो गूँज रहा है, उसकी अनुगूँज भी संगीत है। हर तरफ राग है, हर तरफ रागिनी सुनाई पड़ रही है। यह कल्लोल है, यह नाद है, यही निनाद है।

इन सुरों को हम भूल गए। हमारे कान आधुनिकता और शहरीकरण के प्रदूषण से ऐसे बंद हुए कि प्रकृति का संगीत ही विस्मृत हो चला। हमने जीवन में प्रदूषण उत्पन्न किया, हमने जीवन में कर्कशता उत्पन्न की, हमने जीवन में कलह उत्पन्न किया, हमने जीवन में असंतोष उत्पन्न किया, हमने जीवन में अनावश्यक संघर्ष उत्पन्न किया। इन सबके चलते सुरीले से बेसुरे होने की होड़-सी लग गई।

कभी विचार किया कि इस होड़ में क्या-क्या खोना पड़ा?  परिवार छूटा, आपसी संबंध छूटे, संतोष छूटा, नींद छूटी, स्वास्थ्य का नाश हुआ। इतना सब खोकर कुछ पाया भी तो क्या पाया,…बेसुरा होना!.. सचमुच बेसुरा होना कठिन है।

संसार सुरीला है। जीवन के सुरीलेपन की ओर लौटो। तुम्हारा जन्म सुरीलेपन के लिए हुआ है।  सुरमयी संसार में सुरीले बनो। यही तुम्हारा मूल है, यही तुम्हारी प्रकृति है, यही तुम्हारी संस्कृति है।

स्मरण रहे, सुरीला होना प्राकृतिक है, सुरीला होना सहज है, सुरीला होना सरल है, बेसुरा होना बहुत कठिन है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 74 ⇒ ओज़ोन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ओज़ोन”।)  

? अभी अभी # 74 ⇒ ओज़ोन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

मेरे घर से कुछ ही दूर, सर्विस रोड पर एक होटल है जिसका नाम ozone है! जाहिर है, अंग्रेजी नाम है तो हिंदी में तो लिखने से रहे। कभी शहर की सबसे पुरानी एक होटल थी, जिसका नाम लेन्टर्न था, आज यह होटल अतीत हो चुकी है, ठीक उसी तरह जैसे कभी इंदौर में मिल्की वे और स्टार लिट टॉकीज थे। वहीं पास में एक खूबसूरत जगह शबे मालवा भी थी। कुछ फिल्मों के शौकीन दर्शकों को शायद बेम्बिनो टॉकीज भी याद हो।

बाजारवाद और विज्ञापन की दुनिया में हम किसी ब्रांड से इतने जुड़ जाते है, कि उसके नाम को महज एक नाम मानकर आगे बढ़ जाते हैं। एक ईगल फ्लास्क आता था, जो उस समय हर घर की जरूरत था। वीआईपी तब केवल एक सूटकेस का नाम होता था। आजकल हर वीआईपी के हाथ में एक सूटकेस होता है। ।

मैं कभी ozone होटल में गया नहीं, लेकिन जब भी इस होटल के सामने से गुजरता हूं, इसका नाम मुझे पर्यावरण की याद दिलाता है। होटल वाले अपने आसपास हरियाली बनाए रखते हैं, और सुरूचिपूर्ण साज सज्जा भी। आइए, इसी बहाने आज ozone की भी संक्षिप्त चर्चा कर ली जाए।

आप चाहें तो इसे ट्राई ऑक्सीजन भी कह सकते हैं। ऑक्सीजन के तीन अणुओं से बनी, एक रंगहीन और गंध हीन गैस है ओजोन, जो पर्यावरण का एक प्राकृतिक हिस्सा है। बोलचाल की भाषा में जितनी क्रीमी लेयर आम है, ओजोन परत, उतनी ही पर्यावरण के संबंध में खास है।

जब भी मौसम बईमान होता है, पहाड़ बर्फ विहीन होकर अपनी जगह छोड़ने लग जाते हैं, प्रकृति तांडव करने लग जाती है। समुद्र अपनी सीमाएं लांघकर, अठखेलियों की जगह उत्पात मचाने लगता है। एक ही मौसम में, गर्मी, आंधी, तूफान और बरसात का सामना एक साथ करना पड़ता है। ।

जितनी चिंता हमें इस देश की और इसके पर्यावरण की है, उतनी शायद ही किसी को हो। स्वच्छ भारत अब नारा नहीं, एक हकीकत हो गया है। वृक्षारोपण ने भले ही समारोह की शक्ल ले ली हो, फिर भी आम आदमी हरियाली और पेड़ पौधों से प्यार करता है। लेकिन यह विकास की आंधी, कहीं न कहीं, पहले वृक्षों को उजाड़ती है और फिर वापस उन्हें उगाने की भी चिंता करती है।

प्राकृतिक और धार्मिक स्थानों तक दर्शक, श्रद्धालु ही नहीं, पर्यटक भी पहुंचे, इसलिए इन स्थलों का विकास भी जरूरी हो जाता है। जहां अधिक लोग, वहां अधिक सुविधा और इन सबसे ओजोन परत को बड़ी असुविधा। पहाड़ की ऊंचाइयों पर बर्फ जमता है, ग्लेशियर पिघलते हैं, नदियां निकलती हैं। पूरी सृष्टि का यही चक्र है। ।

कुदरत से हम हैं, हम से कुदरत नहीं ! यह अमानत हमें विरासत में मिली है। अमानत में खयानत होगा अपराध, लेकिन प्रकृति से खिलवाड़ के खिलाफ कोई कानून नहीं, कोई दंड नहीं। और तो और, जब बागड़ ही खेत को खाने लगे, तो खेत की रखवाली कौन करे।

इसलिए प्रकृति खुद कानून अपने हाथ में ले लेती है, वह पहले आगाह करती है, लेकिन जब कथित पर्यावरण का विनाश रथ, रुकने का नाम नहीं लेता, तो कयामत आ जाती है। यही वह दंड है, लेकिन यह लोभी, लालची इंसान कितना उद्दंड है। ।

कल सुबह टहलते हुए हमने भी अपनी ozone होटल की खबर ली। कोरोना काल में यह बंद रही। वैसे भी कुछ विशिष्ट व्यक्ति ही यहां आते थे। इस होटल से हमारे जैसे लोगों की दूरी का एक ही कारण था, wine & dine जो इनके विज्ञापन का ही एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।

हमें लगा, शायद यह होटल बंद होने के कगार पर है, लेकिन अचानक यहां फिर से चहल पहल शुरू हुई, पुरानी रौनक लौटी, लेकिन एक मामूली के बदलाव के साथ। जाहिर है, मालिक ही बदले होंगे, क्योंकि ozone होटल के wine & dine स्वरूप को अब थोड़ा बदल दिया गया है। किसी ने wine शब्द को काले रंग से ढंका नहीं, मिटा ही दिया है। अब केवल dine ही दिखाई देता है। मतलब अब यहां भोजन के साथ मदिरा पान नहीं। ।

शायद यह एक संकेत है, ओजोन परत के साथ खिलवाड़ अब बंद होना चाहिए। पहाड़ों और तीर्थ स्थलों को अपने मूल स्वरूप में ही रहने दें। हर तरह की खाने पीने और मौज मस्ती की सुविधा मानवता को बहुत भारी पड़ ही रही है। हमारी ozone होटल तो शायद ठोकर लगने के बाद होश में आ जाए, हम कब होश में आएंगे, पूछता है पहाड़, पूछता है ग्लेशियर और पूछती है ट्राई ऑक्सीजन जिसे हम आम भाषा में पर्यावरण कहते हैं ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 73 ⇒ खुशबू बदबू… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खुशबू बदबू”।)  

? अभी अभी # 73 ⇒ खुशबू बदबू? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमारे शरीर में एक विभाग नाक का भी है, बड़ा इज्जतदार विभाग है यह, शरीर का वह अंग है, जो न केवल सांस लेता छोड़ता है, यह हर खतरे को सूंघ भी लेता है। हम ईश्वर से हमेशा यही दुआ करते हैं, कि बस हमारी नाक बची रहे। कभी हमारी नाक नीची ना हो, क्योंकि नाक है, तो हमारी इज्जत है।

आपको याद है रामायण वाला रावण की सिस्टर शूर्पणखा वाला नाक का किस्सा ! जिसे अपनी इज्जत प्यारी होती है, उसे अपनी नाक भी बहुत प्यारी होती है। बेचारी शूर्पणखा पहली ही नजर में लक्ष्मण को अपना दिल दे बैठी। इश्क पर जोर नहीं, गालिब बहुत बाद में कह गए। बेचारी शूर्पणखा ने एक नारी होते हुए भी प्यार का इजहार क्या कर दिया, लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक ही काट ली। अपनी इज्जत बचाने के लिए क्या किसी की इज्जत इस तरह मिट्टी में मिलाई जाती है। 

सबको अपनी नाक प्यारी होती है। यह नाक केवल खतरे को ही नहीं सूंघती, सांस लेती और छोड़ती भी रहती है। कहते हैं, हम इंसान ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं।

इसी एक नाक में दो हिस्से होते हैं, जो हर मौसम में शरीर को ठंडा गरम रखते हैं। नाक के अंदर जिन्हें हम बाल समझते हैं, वे वेंटिलेटर का काम करते हैं। हमारे एक नहीं दो स्वर चलते हैं, सूर्य और चंद्र, जो शरीर को मौसम के हिसाब से ठंडा गर्म बनाए रखते हैं। कबीर ने इन्हें इड़ा और पिंगला का नाम दिया है। ।

गजब की सूंघने की शक्ति है, इस नाक की। अगर हमारी नाक नहीं होती तो हम खुशबू और बदबू में भेद ही नहीं कर पाते। हमारी मनपसंद खाने की चीज को यह सूंघकर ही पहचान लेती है। सुबह की सैर के वक्त ताजी हवा स्वास्थ्य के लिए कितनी लाभकारी होती है। फूलों की खुशबू ही नहीं, कहीं बन रहे गर्मागर्म पोहे जलेबी की खुशबू भी कहां बर्दाश्त हो पाती है।

हवा और वातावरण पर हमारा कोई बस नहीं। कहीं से अगर खुशबू की जगह बदबू का झोंका आ गया, तो हम एकदम नाक भौं ही नहीं सिकोड़ते, नाक पर रूमाल भी रख लेते हैं। मीठा मीठा गप, कड़वा कड़वा थू, हमें प्यारी सिर्फ प्यारी खुशबू, नहीं बदबू। ।

मान अपमान से परे, खुशबू, बदबू से बहुत दूर, अगर नियमित कुछ प्राणायाम किए जाए, थोड़ा रेचक, पूरक और कुंभक किया जाए, अनुलोम विलोम, कपालभाति और भस्रिका की जाए, इड़ा पिंगला को सुषुम्ना से जोड़ा जाए, तो कबीर के अनुसार हमारी समाधि भी लग जाए। साधो, सहज समाधि भली ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 72 ☆ आलेख – ।। सफलता की कुंजी ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ आलेख ☆ ।। सफलता की कुंजी ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

ईश्वर ने हमें यह जीवन दिया है कि सफलता के साथ हम यह जीवन यापन करें। यह जीवन केवल एक बार मिलता है। इस सफलता कुंजी को जानने से पहले इस अमूल्य जीवन का मूल्य जाने। जीवन में कठिनाई अवश्य हो सकती है मगर जीवन व्यर्थ कदापि नहीं हो सकता। जीवन एक अवसर है श्रेष्ठ बनने का, श्रेष्ठ करने का, श्रेष्ठ पाने का। इस अमूल्य जीवन की दुर्लभता जिस दिन किसी की समझ में आ जाएगी उस दिन कोई भी व्यक्ति जीवन का दुरूपयोग नहीं कर सकता। जीवन एक फूल है जिसमें काँटे भी हैं, मगर सौन्दर्य की भी कोई कमी नहीं। ये और बात है कुछ लोग काँटो को ही कोसते रहते हैं और कुछ सौन्दर्य का आनन्द लेते हैं। जीवन में सब कुछ पाया जा सकता है, मगर सब कुछ देने पर भी जीवन को नहीं पाया जा सकता है। जीवन का तिरस्कार नहीं, अपितु इससे प्यार करो। जीवन को बुरा कहने कीअपेक्षा जीवन की बुराई मिटाने का प्रयास करो, यही बात समझदारी है। यह भी बहुतआवश्यक है कि हम निरंतर ही आत्म समीक्षा व आत्म चिंतन व आत्म विश्लेषण करते रहें।

ध्यान और आत्मचिंतन के लिए सब से जरूरी है समय देनाऔर तत्परता। पर यह कहना कि हमारे पास समय ही नहीं मिलता गलत है। जब नींद आती है, तो तब सारे जरूरी काम छोड़ कर भी सो जाना पड़ता है। जैसे नींद को महत्त्व देते हैं, ऎसे ही चौबीस घंटे में से कुछ समय ध्यान और आत्म चिंतन में भी बिताना चाहिए। तभी हमारा जीवन सार्थक होगा, नहीं तो कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। आत्म अवलोकन से ही हमारी सोच परिष्कृत होती है और यही विचार हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। हमारी पहचान हमारी सोच पर निर्भर करती है, कि हम कितना उच्चकोटि का या निम्नकोटि का सोच सकते हैं। हम लोगों के बीच में अपनी सोच के द्वारा ही पहुँचते है। इस समाज में हमारा क्या स्तर है, ये हमारी सोच पर ही निर्भर करता है। इससे यह कह सकते हैं, कि हमेअपनी सोच के स्तर को ऊपर रखना चाहिये। तभी हमारा जीवन सफल होगा। यह जीवन केवल एक बार मिला है, दुबारा नहीं मिलेगा, इसको निरंतर प्रयास कर सुधारें और इस समय से अनमोल जीवन का मूल्य जानें। एक बात जो सफलता के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि सदैव आगे बढ़ने की कोशिश करना क्योंकि भूत काल में कोई भविष्य नहीं होता। गलतियों से सीखना और कोशिश भी करनी है, कि वह गलती पुनः न हो। सबसे जरुरी चीज़ है, आत्मविश्वास और आशा। जब तक यकीन जिन्दा है तब तक आप के जीतने की उम्मीद जिन्दा है। गेम की अंतिम बाल भी परिणाम बदल सकती है। अंत में परिणाम स्वरूप हम कह सकते हैं कि निरंतर अभ्यास व कर्म ही सफलता की कुंजी है। भाग्य का कुल मिलाकर प्रतिशत1%सेअधिक नहीं है। यह बात यदि गाँठ बांध ली तो कोई भी मंज़िल दूर नहीं है।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #187 ☆ अहंकार व संस्कार ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहंकार व संस्कार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 187 ☆

☆ अहंकार व संस्कार 

अहंकार दूसरों को झुका कर खुश होता है और संस्कार स्वयं झुक कर खुश होता है। वैसे यह दोनोंं विपरीत दिशाओं में चलने वाले हैं, विरोधाभासी हैं। प्रथम मानव को एकांगी व स्वार्थी बनाता है; मन में आत्मकेंद्रितता का भाव जाग्रत कर, अपने से अलग कुछ भी सोचने नहीं देता। उसकी दुनिया खुद से प्रारंभ होकर, खुद पर ही समाप्त हो जाती है। परंतु संस्कार सबको सुसंस्कृत करने में विश्वास रखता है और जितना अधिक उसका विस्तार होता है; उसकी प्रसन्नता का दायरा भी बढ़ता चला जाता है। संस्कार हमें पहचान प्रदान करते हैं; दूसरों से अलग करते हैं, परंतु अहंनिष्ठ प्राणी अपने दायरे में ही रहना पसंद करता है। वह दूसरों को हेय दृष्टि से देखता है और धीरे-धीरे वह भाव घृणा का रूप धारण कर लेता है। वह दूसरों को अपने सम्मुख झुकाने में विश्वास करता है, क्योंकि वह सब करने में उसे केवल सुक़ून ही प्राप्त नहीं होता; उसका दबदबा भी कायम होता है। दूसरी ओर संस्कार झुकने में विश्वास रखता है और विनम्रता उसका आभूषण होता है। इसलिए स्नेह, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, त्याग व उसके अंतर्मन में निहित गुण…उसे दूसरों के निकट लाते है; सबका सहारा बनते हैं। वास्तव में संस्कार सबका साहचर्य पाकर फूला नहीं समाता। यह सत्य है कि संस्कार की आभा दूर तक फैली दिखाई पड़ती है और सुक़ून देती है। सो! संस्कार हृदय की वह प्रवृत्ति है; जो अपना परिचय स्वयं देती है, क्योंकि वह किसी परिचय की मोहताज नहीं होती।

भारतीय संस्कृति पूरे विश्व में सबसे महान् है; श्रद्धेय है, पूजनीय है, वंदनीय है और हमारी पहचान है। हम अपनी संस्कृति से जाने-पहचाने जाते हैं और सम्पूर्ण विश्व के लोग हमें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं; हमारा गुणगान करते हैं। प्रेम, करुणा, त्याग व अहिंसा भारतीय संस्कृति का मूल हैं, जो समस्त मानव जाति के लोगों को एक-दूसरे के निकट लाते हैं। इसी का परिणाम हैं…हमारे होली व दीवाली जैसे पर्व व त्यौहार, जिन्हें हम मिल-जुल कर मनाते हैं और उस स्थिति में हमारे अंतर्मन की दुष्प्रवृत्तियों का शमन हो जाता है; शत्रुता का भाव तिरोहित व लुप्त-प्रायः हो जाता है। लोग इन्हें अपने मित्र व परिवारजनों के संग मना कर सुक़ून पाते हैं। धर्म, वेशभूषा, रीति-रिवाज़ आदि भारतीय संस्कृति के परिचायक हैं, परंतु इससे भी प्रधान है– जीवन के प्रति सकारात्मक सोच, आस्था,  आस्तिकता, जीओ और जीने का भाव…यदि हम दूसरों के सुख व खुशी के लिए निजी स्वार्थ को तिलांजलि दे देते हैं, तो उस स्थिति में हमारे अंतर्मन में परोपकार का भाव आमादा रहता है।

परंतु आधुनिक युग में पारस्परिक सौहार्द न रहने के कारण मानव आत्मकेंद्रित हो गया है। वह अपने व अपने परिवार के अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में सोचता ही नहीं और प्रतिस्पर्द्धा के कारण कम से कम समय में अधिकाधिक धन-संपत्ति अर्जित करना चाहता है। इतना ही नहीं, वह अपनी राह में आने वाले हर व्यक्ति व बाधा को समूल नष्ट कर देता है; यहां तक कि वह अपने परिवारजनों की अस्मिता को भी दाँव पर लगा देता है और उनके हित के बारे में लेशमात्र भी सोचता नहीं। उसकी दृष्टि में संबंधों की अहमियत नहीं रहती और वह अपने परिवार की खुशियों को तिलांजलि देकर उनसे दूर… बहुत दूर चला जाता है। संबंध-सरोकारों से उसका नाता टूट जाता है, क्योंकि वह अपने अहं को सर्वोपरि स्वीकारता है। अहंनिष्ठता का यह भाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है और वे सब नदी के द्वीप की भांति अपने-अपने दायरे में सिमट कर रह जाते हैं। पति-पत्नी में स्नेह-सौहार्द की कल्पना करना बेमानी हो जाता है और एक-दूसरे को नीचा दिखाना उनके जीवन का मूल लक्ष्य बन जाता है। मानव हर पल अपनी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है। इन विषम परिस्थितियों में संयुक्त परिवार में सबके हितों को महत्व देना–उसे कपोल-कल्पना -सम भासता है, जिसका परिणाम एकल परिवार-व्यवस्था के रूप में परिलक्षित है। पहले एक कमाता था, दस खाते थे, परंतु आजकल सभी कमाते हैं; फिर भी वे अभाव-ग्रस्त रहते हैं और संतोष उनके जीवन से नदारद रहता है। वे एक-दूसरे को कोंचने, कचोटने व नीचा दिखाने में विश्वास रखते हैं। पति-पत्नी के मध्य बढ़ते अवसाद के परिणाम-स्वरूप तलाक़ की संख्या में निरंतर इज़ाफ़ा हो रहा है।

पाश्चात्य सभ्यता की क्षणवादी प्रवृत्ति ने ‘लिव- इन’ व ‘तू नहीं और सही’ के पनपने में अहम् भूमिका अदा की है…शेष रही-सही कसर ‘मी टू व विवाहेतर संबंधों’ की मान्यता ने पूरी कर दी है। मदिरापान, ड्रग्स व रेव पार्टियों के प्रचलन के कारण विवाह-संस्था पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। परिवार टूट रहे हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। वे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। ‘हेलो- हाय’ की संस्कृति ने उन्हें उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां वे अपना खुद का जनाज़ा देख रहे हैं। बच्चों में बढ़ती अपराध- वृत्ति, यौन-संबंध, ड्रग्स व शराब का प्रचलन उन्हें उस दलदल में धकेल देता है; जहां से लौटना असंभव होता है। परिणामत: बड़े-बड़े परिवारों के बच्चों का चोरी-डकैती, लूटपाट, फ़िरौती, हत्या आदि में संलग्न होने के रूप में हमारे समक्ष है। वे समाज के लिए नासूर बन आजीवन सालते रहते हैं और उनके कारण परिवारजनों  को बहुत नीचा देखना पड़ता है

आइए! इस लाइलाज समस्या के समाधान पर दृष्टिपात करें। इसके कारणों से तो हम अवगत हो गए हैं कि हम बच्चों को सुसंस्कारित नहीं कर पा रहे, क्योंकि हम स्वयं अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। हम हैलो-हाय व जीन्स कल्चर की संस्कृति से प्रेम करते हैं और अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों में शिक्षित करना चाहते हैं। जन्म से उन्हें नैनी व आया के संरक्षण में छोड़, अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं और एक अंतराल के पश्चात् बच्चे माता-पिता से घृणा करने लग जाते हैं। रिश्तों की गरिमा को वे समझते ही नहीं, क्योंकि पति-पत्नी के अतिरिक्त घर में केवल कामवाली बाईयों का आना-जाना होता है। बच्चों का टी•वी• व मीडिया से जुड़ाव, ड्रग्स व मदिरा-सेवन, बात-बात पर खीझना, अपनी बात मनवाने के लिए गलत हथकंडों का प्रयोग करना… उनकी दिनचर्या व आदत में शुमार हो जाता है। माता-पिता उन्हें खिलौने व सुख-सुविधाएं प्रदान कर बहुत प्रसन्न व संतुष्ट रहते हैं। परंतु वे भूल जाते हैं कि बच्चों को प्यार-दुलार व उनके स्नेह-सान्निध्य की दरक़ार होती है; खिलौनों व सुख-सुविधाओं की नहीं।

 सो! इन असामान्य परिस्थितियों में बच्चों में अहंनिष्ठता का भाव इस क़दर पल्लवित-पोषित हो जाता है कि वे बड़े होकर उनसे केवल प्रतिशोध लेने पर आमादा ही नहीं हो जाते, बल्कि वे माता-पिता व दादा-दादी आदि की हत्या तक करने में भी गुरेज़ नहीं करते। उस समय उनके माता-पिता के पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं रह जाता। वे सोचते हैं– काश! हमने अपने आत्मजों को सुसंस्कृत किया होता; जीवन-मूल्यों का महत्व समझाया होता; रिश्तों की गरिमा का पाठ पढ़ाया होता और संबंध-सरोकारों की महत्ता से अवगत कराया होता, तो उनके जीवन का यह हश्र न होता। वे सहज जीवन जीते, उनके हृदय में करुणा भाव व्याप्त होता तथा वे त्याग करने में प्रसन्नता व हर्षोल्लास का अनुभव करते; एक-दूसरे की अहमियत को स्वीकार विश्वास जताते; विनम्रता का भाव उनकी नस-नस में व्याप्त होता और सहयोग, सेवा, समर्पण उनके जीवन का मक़सद होता।

सो! यह हमारा दायित्व हो जाता है कि हम आगामी पीढ़ी को समता व समरसता का पाठ पढ़ाएं; संस्कृति का अर्थ समझाएं; स्नेह, सिमरन, त्याग का महत्व बताएं ताकि हमारा जीवन दूसरों के लिए अनुकरणीय बन सके। यही होगी हमारे जीवन की मुख्य उपादेयता… जिससे न केवल हम अपने परिवार में खुशियां लाने में समर्थ हो सकेंगे; देश व समाज को समृद्ध करने में भी भरपूर योगदान दे पाएंगे। परिणामत: स्वर्णिम युग का सूत्रपात अवश्य होगा और जीवन उत्सव बन जायेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 72 ⇒ जीरे से नाराज़ी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जीरे से नाराज़ी।)  

? अभी अभी # 72 ⇒ जीरे से नाराज़ी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

नून तेल और दाल रोटी ही की तरह, जब भी तड़के की बात होगी, राई जीरे का जिक्र जरूर होगा। नून तेल और दाल रोटी की तरह हर आम आदमी को राई जीरे का भाव भी पता होना चाहिए।

हमारे भारतीय मसाले भोजन को केवल स्वादिष्ट ही नहीं बनाते, स्वास्थ्यवर्धक भी बनाते हैं। आप लाख आयोडिनयुक्त नमक की बुराई कर लो, देश का आम आदमी आज भी सत्ताईस रुपए किलो का टाटा का नमक ही खा रहा है। आप अगर टाटा का नमक खाते हैं, तो देश का नमक खाते हैं। कोई शक।।

जब हमें हर चीज की कीमत चुकानी है तो विकास की भी चुकानी ही पड़ेगी। जाहिर है, महंगाई भी बढ़ेगी। महंगाई का सबसे अधिक बोझ आम आदमी पर पड़ता है, लेकिन जब आम आदमी भी, खास आदमी बनकर, इसी नाम की पार्टी बनाकर राजनीति में प्रवेश ही नहीं करता, खुद सत्ता में रहता हुआ, जब केंद्र की सत्ता के नाक में दम कर देता है, तब उसकी कीमत आम आदमी को भी चुकानी पड़ती है।

आज विपक्ष और जनता एक दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहा रहे। महंगाई अब डायन नहीं रही, जब आज के बच्चे भूत से नहीं डरते तो महंगाई के खिलाफ प्रदर्शन करके आप किसे डराने चले हो।।

कभी आदमी आम और खास होता था, आजकल आम आदमी के पास सिर्फ गुठली है और असली आम गरीबी रेखा के नीचे वाला आदमी, यानी below poverty line वाला बीपीएल कार्ड वाला हितग्राही चूस रहा है। उधर वास्तविक गरीब आदमी को सरकार मुफ्त राशन नसीब करवा रही है और इधर कथित आम आदमी को मिर्ची लग रही है।

आपने वाकई आम आदमी की दुखती रग पर सांसद सनी देओल का ढाई किलो का हाथ धर दिया। ये मिर्ची भी जब हरी होती है, सब्जी में छोंक दी जाती है और कुछ की चटनी बना ली जाती है, लेकिन इसे लाल होने का बहुत शौक है। बहुत महंगा पड़ा हमें इस लाल मिर्ची का शौक, जब आधा किलो, सिर्फ ₹२२० की पड़ी।।

हमारी मुख्य नाराजी तो जीरे से थी, जिसके भाव कब के आसमान छू चुके हैं। अच्छा जीरा आज थोक में साढ़े पांच सौ रुपए प्रति किलो से कम नहीं। उधर शेयर के बढ़ते भाव देख कुछ लोग खुशी से उछल रहे हैं, और इधर हमें मिर्ची पर मिर्ची लग रही है।

सबकी अपनी अपनी कमजोरी होती है, किसके मुंह में पानी नहीं आता, हमारा बस चले तो हम तो पानी भी जीरे का ही पीयें।‌ अहा! क्या खुशबू होती है भुने हुए जीरे की। तड़ तड़ से ही तो तड़के की खुशबू और स्वाद। हींग, राई और जीरा, मानो शहनाई, ढोल, मंजीरा।।

हमारे मसालों में स्वाद भी है, स्वास्थ्य भी है और सात्विकता भी। लेकिन उस पर भी दिन दहाड़े डाका, महंगाई, मिलावट ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। जिंदगी अब बेस्वाद हो चुकी है, हल्दी महंगी, धना महंगा, मत पूछो क्या भाव मिर्ची और जीरा। चुटकी भर हींग की कीमत तुम क्या जानो नरेंदर बाबू। पड़ोसी के घर से, हींग, जीरे की खुशबू, शायद आ रही है। मेरी सांसों को जो, महका रही है।

अगर लगातार महंगे होते हुए जीरे की आम आदमी से, इसी तरह नाराजी चलती रही, तो वह दिन दूर नहीं, जब आम आदमी यह कहने को मजबूर हो, कि

जिंदगी के तड़के में अब कहां हींग राई और जीरा !

फिर भी देखो, इंसान खुशी खुशी जी रहा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 70 ⇒ पा ल तू… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पा ल तू।)  

? अभी अभी # 70 ⇒ पा ल तू ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

संसार को पालने वाला वैसे तो एकमात्र सर्व शक्तिमान परमेश्वर ही है, फिर भी माता पिता संतान को पाल पोसकर बड़ा करते हैं। बच्चे बड़े होकर माता पिता की सेवा तो कर सकते हैं, लेकिन उन्हें पाल नहीं सकते, उनके पालक नहीं बन सकते, उन्हें पालने में झुला नहीं सकते।

आप माता पिता के अलावा चाहे जिसका पालन पोषण कर सकते हैं, उनकी सेवा कर सकते हैं, मूक पशु पक्षी, अनाथ, असहाय, निराश्रित और दिव्यांग सभी इस श्रेणी में आते हैं।।

मनुष्य बड़ा समझदार प्राणी है। वह प्रकृति का दोहन भी करना जानता है और अन्य प्राणियों, पशु पक्षियों का अपने स्वार्थ के लिए उपयोग भी। गाय, भैंस, घोड़ा, हाथी, बकरी और ऊंट को भी उसने नहीं छोड़ा। किसी पर सवारी की तो किसी का दूध निकाला। अरे वह तो इतना दयालु है कि मुर्गी भी पाल लेता है। आखिर मुर्गी अंडे जो देती है।

विडंबना देखिए, पालता वह है, और जिसे पालता है, वह प्राणी पालतू का कहलाता है। शायद पालतू की परिभाषा भी यही है। पहले उसे पाल तू, तब वह कहलाए पालतू। वह तो इतना चतुर है कि उसने इन प्राणियों का वर्गीकरण भी कर डाला है, जंगली और पालतू। जंगली को जंगल में छोड़ और बाकी को, शान से पाल तू।।

वह अपने पेट की खातिर जहरीले सांप तक को पाल लेता है। उसका जहर दवा के रूप में अमृत का काम करता है, सांप नेवले की लड़ाई करवाता है, तमाशा करके दो पैसे भी कमा लेता है। फिर भी आस्तीन के सांप से उसको हमेशा शिकायत बनी रहती है।

आजकल जहां भाई भाई साथ नहीं रहते, हर घर में सास बहू की खटपट चला करती है, निकम्मों को आजकल कोई घास नहीं डालता, फिर भी देखिए इन्हीं घरों में पालतू विदेशी ब्रीड का कुत्ता किस शान से पाला जाता है। घर के हर सदस्य का लाड़ला और चहेता होता है वह और बच्चों की आंख का तारा। उसे कुत्ता कहना इंसानियत का अपमान है। चलो, कोई तो है ऐसा मूक जानवर, जो हमें प्रेम करना सिखला रहा है। हमें नफरत के बजाय प्यार का पाठ पढ़ा रहा है।।

बच्चों को चिड़िया और कुत्ते बिल्ली के बच्चों के साथ खेलना बड़ा अच्छा लगता है। इनके साथ तो बड़े भी बच्चे बन जाते हैं। जब इन्हें पाला जाता है, तब ये भी छोटे ही तो होते हैं। बच्चों के साथ साथ ये भी बड़े होने लगते हैं।

जड़ भगत कहना शोभा तो नहीं देता, लेकिन जब साहब, मेम साहब अथवा कोई नौकर जब सुबह इस प्रजाति को टहलने के लिए ले जाता है, तो हमारा स्वच्छ भारत धन्य हो जाता है। बहुत समझदार है हमारा सीज़र, कभी घर गंदा नहीं करता। बस बाहर जाने का इशारा भर कर देता है। सबै भूमि गोपाल की।।

कुत्ता एक वफादार प्राणी है, फिर चाहे वह सड़क पर रहे, अथवा बंगले में। गाय को तो खैर हमने गऊ माता का दर्जा दिया है, उसकी तो आप सेवा ही कर सकते हो, पाल नहीं सकते। द्वापर में केवल एक गोपाल अवतारित हुआ है, जो केवल छोटी छोटी गैया का ही नहीं, पूरे जगत का पालनहार है।

ओ पालनहारे, निर्गुण और न्यारे ;

तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं।

हमरी उलझन, सुलझाओ भगवन् ;

तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 70 – किस्साये तालघाट… भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 70 – किस्साये तालघाट – भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

समय की गति और निर्ममता का मुकाबला किसी से नहीं किया जा सकता. समय के चक्र में कब 25 वर्ष बीत गये पता ही नहीं चला. अभय कुमार के जीवन से उनकी पहली ब्रांच और उसके उस समय के शाखा प्रबंधक कभी भी दूर नहीं हुये, फुरसत के हर पलों में हमेशा मौजूद रहे. उन यादों को, उस गुरुता को और उस प्रेरणादायक प्रशिक्षण को भुलाना असंभव था. समय के साथ प्रगति के सोपान चढ़ते हुये और अपने गुरु को तालघाट शाखा से ही ट्रेनी ऑफिसर बन कर अपने कैरियर का सफर शुरू कर, आज अभय कुमार उस प्रदेश के राजधानी स्थित प्रधान कार्यालय में महाप्रबंधक के पद पर पदस्थ थे जिस प्रदेश के निवासियों का श्रेष्ठिभाव आज भी कायम था. हालांकि दोनों पड़ोसी प्रदेशों के राज्यपथ अब समान रूप से विस्तृत और सपाट थे इन पथों पर एयर प्लेन की लेंडिंग का दावा दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री तालठोक कर किया करते थे जबकि सरकारें एक ही दल की जनशक्ति से बनी थीं. प्रदेशों के निवासियों में श्रेष्ठता और हीनता का द्वंद आज भी जारी था और लगता है हमेशा ही जारी रहेगा.

पर अभय कुमार इन सबसे दूर थे क्योंकि उनका मूल प्रदेश, प्रेरणादायक प्रदेश और वर्तमान प्रदेश अलग अलग था. उनकी नजरों में सब बराबर थे पर सर्विस और कैरियर के हिसाब से पहला प्यार तालघाट से जुड़ा प्रदेश ही था जहाँ उनके कैरियर ने अपनी गरुण की उड़ान पायी थी. आज वो जिस नगर में आये थे, वहाँ से तालघाट सौ कि. मी. से भी कम दूरी पर था. सुबह सुबह जैसे ही राजधानी वापस जाने के लिए कार म़े बैठे, रास्ते में दूरीमापक बोर्ड पर नजर पड़ी जो यात्रियों को सूरक्षित वापसी और फिर वापस आने का निमंत्रण दे रहा था और दूसरे प्रदेश स्थित नगरों की दूरी भी संकेत कर रहा था. अचानक ही बिना किसी पूर्व योजना के सामने की सीट पर बैठे अपने निजी सचिव को निर्देश दिया “तालघाट की ओर चलिए “आगे बैठे निजी सचिव और ड्राइवर दोनों ही चौंक गये क्योंकि ये विजिट प्रोग्राम में नहीं था. “सर, तालघाट शाखा हमारी ब्रांच नहीं है. ” उनके निजी सचिव ने कहा. ‘ पर ये मेरी पहली ब्रांच थी’ कुयें की गहराई से आती आवाज से फ्रंट सीट के यात्री चकित थे और स्तब्ध भी. पर वही हुआ जो आदेश था और लगभग एक घंटे बाद उनकी कार बैंक की तालघाट शाखा के सामने खड़ी थी.

शाखा अपने पुराने परिसर से शिफ्ट होकर नये और विशाल तथा आधुनिक परिसर में आ गई थी और शाखा और प्रबंधन का लेवल अपग्रेड होकर स्केल फोर हो चुका था. अब यहाँ शाखाप्रबंधक नहीं पाये जाते और मुख्य प्रबंधक कक्ष में लगी सूची में भी इतने पुराने वक्त के शाखाप्रबंधक का नाम नहीं था. शाखा का पुराना परिसर और शाखा प्रबंधक निवास जिनसे अभय कुमार जी की यादें जुड़ी थीं, अब वेयर हाऊस में तब्दील हो चुके थे. वो बीते हुये पल, वो उनके गुरु सदृश्य शाखाप्रबंधक का शून्य में मिल जाना, प्रशिक्षण और बैंकिंग के काम सीखने में गुजरा हुआ वक्त, सब कुछ निर्मम शून्य में विलीन हो चुके थे. बीते वक्त के स्मारक अब थे नहीं जिन्हें छूकर वे उस दौर को फिर से पाने की कोशिश करने के लिये आये थे.

शाखा के वर्तमान परिसर में विराजित मुख्य प्रबंधक से औपचारिक और संस्थागत अनौपचारिक चर्चा संपन्न कर और पेश किये गये स्नेक्स को संक्षिप्त और औपचारिक रूप से ग्रहण कर उन्होंने अपने वर्तमान की ओर प्रस्थान किया. मन में खीर की मिठास और मृदुलता न मिल पाने की टीस, पीड़ा दे रही थी. अतीत हमें सुनहरा लगता है उस वक्त जब हम ऊपर वर्तमान में उड़ रहे होते हैं पर नीचे पहुंचने पर उसे ढूंढना संभव नहीं होता क्योंकि अतीत की कोई जमीन नहीं होती. ये सिर्फ उड़ान भरने वालों का लांचिंग पैड होता है और इस लांचिंग के सपोर्ट धीरे धीरे विलुप्त होते जाते हैं.

दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन पर वो मिलते नहीं क्योंकि जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते”  निर्मम वक्त उन्हें अपनी आगोश में समेटकर, हमारे वर्तमान से बहुत दूर विलुप्त हो जाता है.

 – समाप्त – 

नोट : किस्साये तालघाट यहीं समाप्त होता है. अपडाउनर्स और बहुत से ब्रेक कभी खत्म नहीं होते, रूप बदलते रहते हैं. इनके बीच ही कुछ “अभय कुमार”आते हैं जो एक खुशनुमा एहसास होते हैं और यह भी जताते हैं” कि उम्मीद कभी नाउम्मीदी से परास्त नहीं होती”. आशा है आपको यह कथा पसंद आई होगी. इस कथा में लगभग 80% याने काफी कुछ सच्चा घटित हुआ भी है जिसे 20% कल्पना के फेविकॉल से जुड़कर यह किस्साये तालघाट बनी है. धन्यवाद!!!

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 38 – देश-परदेश – बिल्ली मौसी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 38 ☆ देश-परदेश – बिल्ली मौसी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज प्रातः भ्रमण के समय घरों और सड़कों पर अनेक स्थानों पर बिल्लियों की चहल कदमी देख कर आश्चर्य हुआ। सामान्यतः श्वान सड़कों में विचरण करते हुए ही बहुतायत में पाए जाते हैं। प्रथम मन में विचार आया की सुबह बिल्ली का रास्ता काटना शुभ नहीं माना जाता है, तभी ऊपर लगे बैनर पर दृष्टि पड़ी, तो लगा इस घर में रहने वाले तो हर समय ही बिल्लियों के बीच में रहकर भी रईस प्रतीत हो रहे हैं। शायद ये मान्यताएं अब बदल गई हैं। घर वापसी के समय जब दूध का पैकेट लिया तो विक्रेता ने कहा आज तो “शरत पूर्णिमा” है, अतिरिक्त दूध ले जाए, खीर बनती है। तब समझ में आया बिल्लियों की चहलकदमी आने वाली रात्रि की तैयारी है, ताकि घर के बाहर रखी खीर को येन केन अपने भोजन का हिस्सा बनाया जाय। हो सकता है आने वाले कल के दिन “कबूतरों” के शिकार कम हों, क्योंकि ये बिल्लियां रात्रि भर लोगों के घर के बाहर चांदनी रात में रखी हुई खीर का शिकार जो कर चुकीं होंगी।

कंजी आंख वाले मनुष्य को “बिल्ली आंख” या बिना आवाज़ के चलने वाले को भी “बिल्ली चाल” की उपमा देना हमारे दैनिक जीवन का ही भाग है।

विदेशों के समान अब हमारे देश में भी बिल्ली पालन अब स्टेटस सिंबल हो गया है। महानगरों में बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर श्वान के साथ ही साथ बिल्लियों के पालन के लिए भी अलग से खंड (विभाग) की व्यवस्था करे हुए हैं। जेब में पैसा होना चाहिए, बस! बिल्ली प्राणी पालतू श्रेणी में  आती है, चुंकि ये  सिंह परिवार का सदस्य है, और मांसाहारी भी है, इसलिए कुछ परिवार इससे दूरी बनाए रखते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 69 ⇒ आओ चीन को कोसें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आओ चीन को कोसें “।)  

? अभी अभी # 69 ⇒ आओ चीन को कोसें ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अगर आप दुश्मन को कमजोर करना चाहते हैं,तो उसे सामूहिक रूप से कोसना शुरू कर दें ! अगर सामूहिक अरदास और प्रार्थना असर करती है तो सामूहिक बददुआ भी बड़ी कारगर होती है ।

कोविड – 19 उर्फ कोरोना वायरस जब से आया है, इंसान का जीना हराम हो गया है । पहले भी जीना हराम होने के हमारे पास कई वाजिब कारण थे, सास बहू के झगडे थे, विपक्ष का रोना था, पाकिस्तान की खुराफात थी, आतंकवाद से लड़ाई में तो खैर पूरी दुनिया हमारे साथ थी । जिस शत्रु से हमारा युद्ध होता है, उसे कोसने की हमें फुर्सत नहीं होती । कोरोना की लड़ाई आमने सामने की लड़ाई नहीं है, पीछे हटने की लड़ाई है । यह पहली ऐसी लड़ाई है,जो हम घर में बैठकर लड़ रहे हैं । दुश्मन के लिए हमने मैदान साफ कर दिया है । वह  आए, सुनसान सड़कों, बंद संस्थानों, वाहनों के जाम चक्कों से अपना सर टकराए,और निराश हो वापस चला जाए ।।

पहले हमने कोरोना को कोसा ! लेकिन जब स्पष्ट हो गया कि इसे कोसने से हमें कुछ हासिल नहीं होने का, तो इसके मां बाप को कोसना शुरू कर दिया । कैसी औलाद पैदा कर दी चीन ने, जिसने दुनिया में तबाही मचा दी । हम इसको नहीं छोड़ेंगे ।

घर के बुजुर्ग ट्रंपवा बहुत खफा हैं चीन पर । चीन की  टट्टी पेशाब बंद कराने की बात कर रहे हैं । याद कीजिए नाइन इलेवन की वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की घटना ! जिसमें ३००० बेकसूर लोग मारे गए थे । लेकिन अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को घर में घुसकर मारा था । इस कोरोना हमले में तो अमरीका के दो लाख से अधिक लोगों की जानें गई है । छोड़ेगा नहीं अमरीका चीन को ।।

दुश्मन का दुश्मन,हमारा दोस्त । फिर हमारा दोस्त अभी अभी  २४ फरवरी को  नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम में इंडिया पधारा था। हमने उससे नमस्ते नहीं की, उसको गले लगाया था । हम यह भी जानते हैं कि हमारा दुश्मन नंबर एक पाकिस्तान चीन से मिला हुआ है । दुश्मन का दोस्त, हमारा दुश्मन ।

जब हम कोरोना वीरों के लिए ताली, थाली बजा सकते हैं, रात्रि को ९ बजे, नौ दीप जला सकते हैं, उन पर पुष्प वर्षा करवा सकते हैं तो कोरोना के पिताजी की नींद हराम क्यों नहीं कर सकते ।।

हमारे  महर्षि दुर्वासा, और  परशुराम के शापों का असर दुनिया ने देखा है ।  क्यों न एक दिन हम चाइना धिक्कार दिवस के रूप में  मनाएं । चाइना तेरा मुंह काला हो, तेरा सत्यानाश हो, तुझे कीड़े पड़ें जैसे आशीर्वचन से जब १३० करोड़ भारतवासी मिलकर चाइना को कोसेंगे, धिक्कारेंगे तो उसकी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाएगी ।

हो सकता है इस शुभ कार्य में ट्रंप सहित दुनिया के अन्य देश भी हमारी मदद करें । आखिर पूरी दुनिया को तबाह करने वाला, कोरोना वायरस का जनक चाइना ही तो है ।।

 – सन्दर्भ कोरोना 

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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