(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – नवाचार …।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 202 ☆
आलेख – नवाचार…–
https://www.ieindia.org इंस्टिट्यूशन आफ इंजीनियर्स इंडिया देश की 100 वर्षो से पुरानी संस्था है । यह प्राइवेट तथा शासकीय विभिन्न विभागों , इंजीनियरिंग शिक्षा की संस्थाओं, इंजीनियरिंग की सारी फेकल्टीज के समस्त इंजीनियर्स का एक समग्र प्लेटफार्म है । जो विश्व व्यापी गतिविधियां संचालित करता है । नालेज अपडेट , सेमिनार आयोजन , शोध जर्नल्स का प्रकाशन , इंजीनियर्स को समाज से जोड़ने वाले अनेक आयोजन हेतु पहचाना जाता है । यही नहीं स्टूडेंट्स चैप्टर के जरिए अध्ययनरत भावी इंजीनियर्स के लिए भी संस्था निरंतर अनेक आयोजन करती रहती है ।
इंस्टिट्यूशन सदैव से नवाचारी रही है । लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रति वर्ष चुने गए प्रतिनिधि संस्था का संचालन करते हैं। संस्था के सदस्य सारे देश में फैले हुए हैं अतः चुनाव के लिए ओ टी पी आधारित मोबाइल वोटिंग प्रणाली विकसित की गई है।
जब देश में इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या सीमित थी तो इंस्टिट्यूशन ने बी ई के समानांतर ए एम आई ई डिग्री की दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से परीक्षा लेने की व्यवस्था की । अब इंजीनियरिंग कालेजों की पर्याप्त संख्या के चलते AMIE में नए इनरोलमेंट तो नहीं किए जा रहे किंतु पुराने विद्यार्थियों हेतु परीक्षा में नवाचार अपनाते हुए, प्रश्नपत्र जियो लोकेशन, फेस रिक्गनीशन, ओ टी पी के तिहरे सुरक्षा कवच के साथ आन लाइन भेजने की अद्भुत व्यवस्था की गई है ।
मुझे अपने कालेज के दिनों में इस संस्था के स्टूडेंट चैप्टर की अध्यक्षता के कार्यकाल से अब फैलो इंजीनियर्स होने तक लगातार सक्रियता से जुड़े रहने का गौरव हासिल है । मैने भोपाल स्टेट सेंटर से नवाचारी साफ्टवेयर से चुनाव में चेयरमैन बोर्ड आफ स्क्रुटिनाइजर्स और परीक्षा में केंद्र अध्यक्ष की भूमिकाओं का सफलता से संचालन किया है । इंस्टिट्यूशन के चुनाव तथा परीक्षा के ये दोनो साफ्टवेयर अन्य संस्थाओं के अपनाने योग्य हैं, इससे समय और धन की स्पष्ट बचत होती है ।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 27 – किसान बाज़ार ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विगत गुरुवार के दिन यहां विदेश में किसान बाज़ार जाने का अवसर मिला तो लगा की अपने देश के समान छोटे किसान गठरी में अपने उत्पाद विक्रय करने आते होंगे। जो अधिकतर मुख्य सब्जी मंडी के आस पास सुबह के समय आकर ताज़ी सब्जियां सस्ते में विक्रय कर देते हैं।
यहां का माहौल कुछ अलग ही है। किसान अपने-अपने तंबू नुमा काउंटर में कुर्सी पर बैठ कर सब्जियों, अंडे, शहद इत्यादि विक्रय कर रहे थे। उनका विक्रय मूल्य सामान्य से कुछ अधिक था। बाज़ार बंद होने के समय उनसे पूरा ढेर के लिए छूट पूछी तो बताया यहां के भाव तय हैं। सभी किसान अपने समान सहित छोटे वातानुकूलित ट्रक/वैन इत्यादि में भरकर रवाना हो गए। हमारे किसान तो लाए गए उत्पाद को औने पौने दाम में विक्रय कर ही वापिस जातें हैं। यहां के किसान के पास वातानुकूलित स्टोरेज की उत्तम व्यवस्था जो उपलब्ध हैं।
किसान बाज़ार के प्रचार में भी “स्थानीय खरीद को प्राथमिकता दिए जाने ” का संदेश है,हमारे देश में भी आजकल “Vocal for Local” की ही बात हो रही हैं।
एक चीज़ और हमारे देश जैसी अवश्य देखने को मिली,यहां भी एक वृद्ध सज्जन अपने तंबू में चाकू/ छुरियां की धार तेज कर रहे थे। उनसे बातचीत हुई तो जानकारी मिली कि वे एक सेवानिवृत हैं, और अपने को व्यस्त रखने के लिए ये रोज़गार अपना लिया है। वो भी अपना ताम झाम समेट अपनी वैन से चले गए। हमारे देश में तो चाकू तेज़ करने वाले पैदल या साइकिल का ही उपयोग कर अपना जीवकोपार्जन करते हैं। यहां पर जीवन और व्यवसाय में सुविधायुक्त साधन उपलब्ध है,इसलिए श्रम का उपयोग सीमित हैं। विदेश में श्रम को सबसे मूल्यवान माना जाता हैं।
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 17 – अध्याय – 1 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
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साधु सन्त के तुम रखवारे ।
असुर निकन्दन राम दुलारे ।।
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अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ।
अस बर दीन जानकी माता ।।
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अर्थ:– आप साधु संतों के रखवाले, असुरों का संहार करने वाले और प्रभु श्रीराम के अत्यंत प्रिय हैं।
आप आठों प्रकार के सिद्धियों और नौ निधियों के प्रदाता हैं। आठों सिद्धियां और नौ निधियों को किसी को भी प्रदान करने का वरदान आपको जानकी माता ने दिया है।
भावार्थ:- श्री हनुमान जी राक्षसों को समाप्त करने वाले हैं।श्री रामचंद्र जी के अत्यंत प्रिय है। साधु संत और सज्जन पुरुषों कि वे रक्षा करते हैं। श्री रामचंद्र जी के इतने प्रिय हैं कि अगर आपको उनसे कोई बात मनवानी हो तो आप श्री हनुमानजी को माध्यम बना सकते हैं।
माता जानकी ने श्री हनुमान जी को अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों का वरदान दिया हुआ है। इस वरदान के कारण वे किसी को भी अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां प्रदान कर सकते हैं।
संदेश:- अपनी शक्तियों का सही इस्तेमाल करें और उन्हें उन्हीं को सौंपे, जो इसके असली हकदार हों।
इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-साधु सन्त के तुम रखवारे । असुर निकन्दन राम दुलारे ।।
2-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन जानकी माता ।।
हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से दुष्टों का नाश होता है, आपकी रक्षा होती है और आपके सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं।
विवेचना:- पहली चौपाई में हनुमान जी के लिए कहा गया है कि वे साधु और संतों के रखवाले हैं। असुरों के संहारक हैं और रामचंद्र जी के दुलारे हैं।
इस चौपाई को पढ़ने से कई प्रश्न मस्तिष्क में आते हैं। पहला प्रश्न है कि साधु कौन है और कौन संत है। इसके अलावा असुर किसको कहेंगे इस पर भी विचार करना होगा।
साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ ‘सज्जन व्यक्ति’ से है। लघुसिद्धान्तकौमुदी में कहा है:-
‘साध्नोति परकार्यमिति साधुः’ (जो दूसरे का कार्य कर देता है, वह साधु है।)।
वर्तमान समय में साधु उनको कहते हैं जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है। आज के युग में सामान्यतः भिक्षाटन के ध्येय से लोग अपना सर साफ करके गेरुआ वस्त्र पहन कर के साधु सन्यासी बन जाते हैं। यह चौपाई ऐसे साधुओं के लिए नहीं है। वर्तमान में नकली और ढोंगी साधुओं व बाबाओं ने वातावरण को इतना प्रदूषित कर रखा है कि लोग सच्चे साधुओं व बाबाओं पर भी शंका करते हैं। इसका कारण यह है कि यह पहचानना बहुत मुश्किल हो गया है कि कौन सच्चा साधु है और कौन ढोंगी साधु है।
एक विद्वान ने सच्चे साधुओं की ऐसी पहचान बताई है, जिसके द्वारा हम नकली और असली साधु या बाबा में सरलता से भेद कर सकते हैं। इस विद्वान के अनुसार सच्चा साधु तीन बातों से हमेशा दूर रहता है- नमस्कार, चमत्कार और दमस्कार। इनके अर्थ जरा विस्तार से बताना आवश्यक है। नमस्कार का अर्थ है सच्चा साधु इस बात का इच्छुक नहीं होता है कि कोई उसे प्रणाम करें। वह भी अपने से श्रेष्ठ साथियों को ही केवल नमन करता है किसी और को नहीं।‘
‘चमत्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी कोई चमत्कार नहीं दिखाता है। वह जादू टोने के कार्यों से दूर रहता है। जादू टोने का कार्य करने वाले कोई जादूगर आदि हो सकते हैं सच्चे साधु सन्यासी नहीं। ढोंगी साधु और सन्यासी हमेशा चमत्कार करने की कोशिश करते हैं जिससे जनता उनसे प्रभावित रहे। उनको निरंतर द्रव्य प्रदान करती रहे।
इसी तरह ‘दमस्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी अपने लिए धन एकत्र नहीं करता और न किसी से धन की याचना करता है। वह केवल अपनी आवश्यकता की न्यूनतम वस्तुएं मांग सकता है, कोई संग्रह नहीं करता। आजकल के अधिकतर बाबाओं के पास बड़ी-बड़ी संपत्तियां हैं।
कुछ लोग विशेष साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहते हैं। यह भी कहते हैं ऐसे व्यक्तियों के ज्ञानवान या विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है।परंतु यह परिभाषा मेरे विचार से सही नहीं है। साधु को ज्ञानवान होना आवश्यक है। उसे विद्वान होना ही चाहिए। आप समाज में रहकर भी अगर कोई विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते हैं या कोई विशेष साधना करते हैं और जप तप नियम संयम का ध्यान रखते हैं तो आप साधु हो सकते हैं।
कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण यह है कि साधना से व्यक्ति सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला हो जाता है। साथ ही वह लोगों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहता है।
आईये अब हम साधु शब्द की शब्दकोश के अर्थ की बात करते हैं। साधु का संस्कृत में अर्थ है सज्जन व्यक्ति। इसका एक उत्तम अर्थ यह भी है 6 विकार यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर देता है। जो इन सबका त्याग कर देता है उसे ही साधु की उपाधि दी जाती है। साधु वह है जिसकी सोच सरल और सकारात्मक रहे और जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे।
आइए अब हम संत शब्द पर चर्चा करते हैं। इस शब्द का अर्थ है सत्य का आचरण करने वाला व्यक्ति। प्राचीन समय में कई सत्यवादी और आत्मज्ञानी लोग संत हुए हैं। सामान्यत: ‘संत’ शब्द का प्रयोग बुद्धिमान, पवित्रात्मा, सज्जन, परोपकारी, सदाचारी आदि के लिए किया जाता है। कभी-कभी साधारण बालेचाल में इसे भक्त, साधु या महात्मा जैसे शब्दों का भी पर्याय समझ लिया जाता है। शांत प्रकृति वाले व्यक्तियों को संत कह दिया जाता है। संत उस व्यक्ति को कहते हैं, जो सत्य का आचरण करता है और आत्मज्ञानी होता है। जैसे- संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास। ईश्वर के भक्त या धार्मिक पुरुष को भी संत कहते हैं।
मेरे विचार से प्रस्तुत चौपाई में साधु और संत शब्द का उपयोग उन व्यक्तियों के लिए किया गया है जो सत्य का आचरण करते है सत्य निष्ठा का पालन करते है किसी को दुख नहीं देते हैं। उनसे किसी को तकलीफ नहीं होती है। वह लोगों के दुख दूर करने का प्रयास करते हैं तथा जिसकी सोच सरल और सकारात्मक होती है। जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे वह संत है।
इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री हनुमान जी ऐसे उत्तम पुरुषों के रक्षक हैं। उनको कोई कष्ट नहीं होने देते हैं। उनके हर दुखों को दूर करते हैं। यह दुख दैहिक दैविक या भौतिक किसी भी प्रकार का हो सकता है। संत और साधु पुरुषों को अपना काम करना चाहिए। उनकी तकलीफों को दूर करने का कार्य तो हनुमान जी कर ही रहे हैं। एक प्रकार से ऐसे पुरुषों के माध्यम से हनुमान जी यह चाहते हैं कि जगत का कल्याण हो। जगत के लोग सही रास्ते पर चलें और किसी को किसी प्रकार की तकलीफ ना रहे।
यह चौपाई बहुत लोगों को सन्मार्ग पर लाने का एक साधन भी है। इसके कारण बहुत सारे दुष्ट लोग भी संत बनने की तरफ प्रेरित हो सकते हैं।
श्री हनुमान जी अगर साधु संतों की रक्षा करते हैं तो दुष्टों को दंड देने का कार्य भी वे करते हैं। जिस प्रकार की पुलिस की ड्यूटी होती है कि वह सज्जन लोगों की रक्षा करें। उसी प्रकार से चोर बदमाश डकैत आदि को दंड देना भी पुलिस की ही जवाबदारी है। हालांकि वर्तमान में भारतीय पुलिस कई स्थानों पर इसका उल्टा भी करती है।
आइए अब हम असुर पर विचार करें। हम कह सकते हैं की जो सुर नहीं है वह असुर है। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में असुर दैत्य और राक्षस की तीन श्रेणियां है। यह सभी देवताओं का विरोध करते हैं। अब अगर हम रामायण या रामचरितमानस को देखें और पढ़ें तो पाएंगे कि हनुमान जी ने राक्षसों का वध सुंदरकांड से प्रारंभ किया है और युद्ध कांड या लंका कांड में लगातार करते चले गए हैं। इन्हीं राक्षसों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने असुर कहकर संबोधित किया है। हनुमान जी के पराक्रम का विवरण गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस एवं महर्षि वाल्मीकि रचित बाल्मीकि रामायण में मिलता है। दोनों स्थानों पर यह विस्तृत रूप से बताया गया है कि हनुमान जी ने किन-किन राक्षसों का संहार किया है। हनुमान जी का श्री रामचंद्र जी से मिलन किष्किंधा कांड में होता है। उसके उपरांत सुंदरकांड और युद्ध कांड / लंका कांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए एक एक राक्षस के बारे में बताया गया है।
सबसे पहले हम सुंदरकांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए राक्षसों की चर्चा करते हैं।
1-सिंहिका वध -जब श्री हनुमान जी माता सीता का पता लगाने के लिए समुद्र के ऊपर से जा रहे थे तब सिंहिका राक्षसी ने हनुमान जी को रोकने का प्रयास किया था। उसने हनुमान जी को खा जाने की चेष्टा की थी। सिंहिका राक्षसी समुद्र के ऊपर उड़ने वाले पक्षियों की छाया को देखकर छाया पकड़ लेती थी। जिससे कि उस पक्षी की गति रुक जाती थी। इसके उपरांत वह उस पक्षी को खा जाती थी। हनुमान जी जब समुद्र के ऊपर से लंका की तरफ जा रहे थे तो सिंहिका ने हनुमान जी की छाया को पकड़ लिया। हनुमान जी की गति रुक गई। गति रुकने के बारे में पता करने के लिए हनुमान जी ने चारों तरफ देखा परंतु पाया कि चारों तरफ किसी प्रकार का कोई अवरोध नहीं है। इसके उपरांत उन्होंने नीचे का देखा तब समझ में आया की सिंहिका ने उनकी छाया को पकड़ रखा है। इसके आगे का विवरण वाल्मीकि रामायण,श्रीरामचरितमानस और हनुमत पुराण में अलग-अलग है।
हनुमत पुराण के अनुसार हनुमान जी वेग पूर्वक सिंहिका के ऊपर कूद पड़े। भूधराकार, महा तेजस्वी महाशक्तिशाली पवन पुत्र के भार से सिंहिका पिसकर चूर चूर हो गई।
वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के प्रथम सर्ग के श्लोक क्रमांक 192 से 195 के बीच में इसका पूरा विवरण दिया गया है। इसके अनुसार हनुमानजी उसको देखते ही लघु आकार के हो गए और तुरंत उसके मुंह में प्रवेश कर गए। उन्होंने अपने नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को विदीर्ण कर उसका वध किया और फ़िर सहसा उसके मुख से बाहर निकल आए।
ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः।
उत्पपाताथ वेगेन मनः सम्पातविक्रमः।।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /प्रथम सर्ग/194)
रामचरितमानस में सिर्फ इतना लिखा हुआ है कि समुद्र में एक निशिचर रहता था। यह आकाश में उड़ते हुए जीव-जंतुओं को मारकर खा जाता था।हनुमान जी को भी उसने खाने का भी उसने प्रयास किया। परंतु पवनसुत ने उसको मार कर के स्वयं समुद्र के उस पार पहुंच गए।
किंकर राक्षसों का वध –
देवी सीता से वार्तालाप करने के उपरांत हनुमान जी ने सोचा थोड़ी अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जाए। वे अशोक वाटिका को पूर्णतया विध्वंस करने लगे। उनको रोकने के लिए कींकर राक्षसों का समूह आया। वे सब के सब एक साथ हनुमानजी पर टूट पड़े। हनुमान जी ने उन सभी को समाप्त कर दिया। जो कुछ थोड़े बहुत बच गये वे इस घटना के बारे में बताने के लिए रावण के पास गए।
स तं परिघमादाय जघान रजनीचरान्।
स पन्नगमिवादाय स्फुरन्तं विनतासुतः।।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /42 /40)
विचचाराम्बरे वीरः परिगृह्य च मारुतिः।
स हत्वा राक्षसान्वीरान्किङ्करान्मारुतात्मजः।।
युद्धाकाङ्क्षी पुनर्वीरस्तोरणं समुपाश्रितः।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/42/41 -42)
रामचरितमानस में भी इस घटना का इसी प्रकार का विवरण है।
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥
इन लोगों ने जाकर जब रावण से इस घटना के बारे में बताया तब रावण ने कुछ और विशेष बलशाली राक्षसों को भेजा-
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥
भावार्थ:— यह बात सुनकर रावण ने बहुत सुभट पठाये (राक्षस योद्धा भेजे)। उनको देखकर युद्धके उत्साह से हनुमानजी ने भारी गर्जना की।
हनुमानजी ने उसी समय तमाम राक्षसों को मार डाला। जो कुछ अधमरे रह गए थे वे वहां से पुकारते हुए भागकर गए॥
चैत्य प्रसाद के सामने राक्षसों की हत्या-
अशोक वाटिका को नष्ट करने के उपरांत हनुमान जी रावण के महल चैत्य प्रसाद चढ गये। एक खंभा उखाड़ कर वहां पर उपस्थित सभी राक्षसों को मारने लगे। वाल्मीकि रामायण में इसको यों कहा गया है-
दह्यमानं ततो दृष्ट्वा प्रासादं हरियूथपः।
स राक्षसशतं हत्त्वा वज्रेणेन्द्र इवासुरान्।।
(वाल्मीकि रामायण/ सुंदरकांड/43/19)
जम्बुमाली वध – इसके बाद रावण ने अपने पौत्र जम्बुमाली को युद्ध करने भेजा। दोनों में कुछ देर तक अच्छा युद्ध हुआ। इसके बाद हनुमानजी ने एक परिघ को उठाकर उसकी छाती पर प्रहार किया। इस वार से रावण का पौत्र धाराशाई हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा मृत्यु को प्राप्त हुआ।
जम्बुमालिं च निहतं किङ्करांश्च महाबलान्।
चुक्रोध रावणश्शुत्वा कोपसंरक्तलोचनः।।
स रोषसंवर्तितताम्रलोचनः प्रहस्तपुत्त्रे निहते महाबले।
प्रहस्त पुत्र महाबली जम्बुमाली और 10 सहस्त्र महाबली किंकर राक्षसों के मारे जाने का संवाद सुन रावण ने अत्यंत पराक्रमी और बलवान मंत्री पुत्रों को युद्ध करने के लिए तुरंत जाने की आज्ञा दी।
परमवीर महावीर हनुमान जी ने इस दौरान कुछ और विशेष राक्षसों का वध किया जिनके नाम निम्नानुसार हैं-
1-रावण के सात मंत्रियों के पुत्रों का वध
2-रावण के पाँच सेनापतियों का वध
इसके बाद रावण ने विरूपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस और भासकर्ण ये पांच सेनापति हनुमानजी के पास भेजे। यह सभी हनुमान जी द्वारा मारे गए।
3-रावणपुत्र अक्षकुमार का वध
स भग्नबाहूरुकटीशिरोधरः क्षरन्नसृङिनर्मथितास्थिलोचनः।
नीचे गिरते ही उसकी भुजा, जाँघ, कमर और छातीके टुकड़े-टुकड़े हो गये, खूनकी धारा बहने लगी, शरीरकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं, आँखें बाहर निकल आयीं, अस्थियोंके जोड़ टूट गये और नस-नाड़ियोंके बन्धन शिथिल हो गये। इस तरह वह राक्षस पवनकुमार हनुमान्जीके हाथसे मारा गया॥
4-लंका दहन
5-धूम्राक्ष का वध
5-अकम्पन का वध
6-रावणपुत्र देवान्तक और त्रिशिरा का वध
7-निकुम्भ का वध
8-अहिरावण का वध
महाबली हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान जी का रूप धारण कर अहिरावण का वध कर राम और लक्ष्मण जी को पाताल लोक से वापस लेकर के आए थे।
इनके अलावा युद्ध के दौरान महाबली हनुमान ने सहस्त्र और राक्षसों का वध किया।
अशोक वाटिका में सीता जी ने भी हनुमान जी को रघुनाथ जी का सबसे ज्यादा प्रिय होने का वरदान दिया है। यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दिया है। ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है-
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।”
पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥
इस प्रकार असुरों को समाप्त करके हनुमान जी रामचंद्र जी के प्रिय हो गए। रामचंद्र जी ने इसके उपरांत हनुमान जी को कई वरदान दिये।
अगली चौपाई तुलसीदास जी लिखते हैं :-
“अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,
अस बर दीन जानकी माता”
मां जानकी ने हनुमान जी को वरदान दिया है कि वे अष्ट सिद्धि और नवनिधि का वरदान किसी को भी दे सकते हैं। इसका अर्थ है हनुमान जी के पास पहले से ही अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां थीं परंतु इनको वे किसी को दे नहीं सकते थे। माता सीता ने हनुमान जी को यह वरदान दिया है कि वे अपनी इन सिद्धियों निधियों को दूसरों को भी दे सकते हैं।
भारतीय दर्शन में अष्ट सिद्धियों की और 9 निधियों की बहुत महत्व है। अष्ट सिद्धियों के बारे में निम्न श्लोक है।
अर्थ – अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा तथा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ये सिद्धियां “अष्टसिद्धि” कहलाती हैं।
ऐसी पारलौकिक और आत्मिक शक्तियां जो तप और साधना से प्राप्त होती हैं सिद्धियां कहलाती हैं। ये कई प्रकार की होती हैं। इनमें से अष्ट सिद्धियां जिनके नाम हैं अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ज्यादा प्रसिद्ध हैं।
1-अणिमा – अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लेने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति छोटे से छोटा आकार धारण कर सकता है और वह इतना छोटा हो सकता है कि वह किसी को दिखाई ना दे। हनुमान जी जब श्री लंका गए थे तो वहां पर सीता मां का पता लगाने के लिए उन्होंने अत्यंत लघु रूप धारण किया था। यह उनकी अणिमा सिद्धि का ही चमत्कार है।
2-महिमा – शरीर का आकार अत्यन्त बड़ा करने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति अपना आकार असीमित रूप से बढ़ा सकता है। सुरसा ने जब हनुमान जी को पकड़ने के लिए अपने मुंह को बढ़ाया था तो हनुमान जी ने भी उस समय अपने शरीर का आकार बढा लिया था। यह चमत्कार हनुमान जी अपनी महिमा शक्ति के कारण कर पाए थे।
3-गरिमा – शरीर को अत्यन्त भारी बना देने की क्षमता। गरिमा सिद्धि में व्यक्ति की शरीर का आकार वही रहता है परंतु व्यक्ति का भार वढ़ जाता है। यह व्यक्ति के शरीर के अंगो का घनत्व बढ़ जाने के कारण होता है। महाभारत काल में,भीम के घमंड को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण के, आदेश पर हनुमान जी भीम के रास्ते में सो गए थे। भीम के रास्ते में हनुमान जी की पूंछ आ रही थी। भीम ने उनको अपनी पूछ हटाने के लिए कहा परंतु हनुमान जी ने कहा कि मैं वृद्ध हो गया हूं। उठ नहीं पाता हूं। आप हटा दीजिए। भीम जी ने इस बात की काफी कोशिश की कि हनुमान जी की पूंछ को हटा सकें परंतु वे पूंछ को हटा नहीं पाए। इस प्रकार भीम जी का अत्यंत बलशाली होने का घमंड टूट गया।
4- लघिमा – शरीर को भार रहित करने की क्षमता। यह सिद्धि गरिमा की प्रतिकूल सिद्धि है। इसमें शरीर का माप वही रहता है परंतु उसका भार अत्यंत कम हो जाता है। इस सिद्धि में शरीर का घनत्व कम हो जाता है। इस सिद्धि के रखने वाले पुरुष पानी को सीधे चल कर पार कर सकते हैं।
5- प्राप्ति – बिना रोक टोक के किसी भी स्थान पर कुछ भी प्राप्त कर लेने की क्षमता। प्राप्ति सिद्धि वाला व्यक्ति किसी भी स्थान पर बगैर रोक-टोक के कुछ भी प्राप्त कर सकता है। एक पुस्तक है Living with Himalayan masters . इस पुस्तक के लेखक नाम श्रीराम है। इस पुस्तक में लेखक ने लिखा है कि उनको हिमालय पर कुछ ऐसे संत मिले जिनसे कुछ भी खाने पीने की कोई भी चीज मांगो वह तत्काल प्रस्तुत कर देते थे। मेरी मुलाकात भी 1989 में सिवनी, मध्यप्रदेश में मध्य प्रदेश विद्युत मंडल के कार्यपालन यंत्री श्री एमडी दुबे साहब से हुई थी। उनके पास भी इस प्रकार की सिद्धि है। इसके कारण वे कहीं से भी कोई भी सामग्री तत्काल बुला देते थे। मुझको उन्होंने एक शिवलिंग बुलाकर दिया था। वर्तमान में वे मुख्य अभियंता के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद जबलपुर में निवास करते हैं। मुझे बताया गया है कि अभी करीब 3 महीने पहले श्रीसत्यनारायण कथा के दौरान श्रीसत्यनारायण कथा के वाचक श्री हिमांशु तिवारी द्वारा श्री यंत्र मांगे जाने पर उनको तत्काल श्री यंत्र अर्पण किया था।
6- प्राकाम्य – इस सिद्धि में व्यक्ति जमीन के अलावा नदी पर भी चल सकता है हवा में भी उड सकता है। कई लोगों ने वाराणसी में गंगा नदी को चलकर के पार किया है।
7- ईशित्व – प्रत्येक वस्तु और प्राणी पर पूर्ण अधिकार की क्षमता। ईशित्व सिद्धि वाले व्यक्ति अगर चाहे तो पूरे संसार को अपने बस में कर सकता है। अगर वह चाहे तो उसके सामने वाले साधारण व्यक्ति को ना चाहते हुए भी उसकी बात माननी ही पड़ेगी।
8- वशित्व – प्रत्येक प्राणी को वश में करने की क्षमता। इस सिद्धि को रखने वाला व्यक्ति किसी को भी अपने वश में कर सकता है। हम यह कह सकते हैं सम्मोहन विद्या जानने वाले व्यक्ति के पास वशित्व की सिद्धि होती है।
अष्ट सिद्धियां वे सिद्धियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति किसी भी रूप और देह में वास करने में सक्षम हो सकता है। वह सूक्ष्मता की सीमा पार कर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा जितना चाहे विशालकाय हो सकता है।
परमात्मा के आशीर्वाद के बिना सिद्धि नहीं पायी जा सकती। अर्थात साधक पर भगवान की कृपा होनी चाहिए। भगवान हमारे ऊपर कृपा करें इसके लिए हमारे अंदर भी कुछ गुण होना चाहिए। हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसे देखकर भगवान प्रसन्न हो जाएं। एकबार आप भगवान के बन गये तो फिर साधक को सिद्धि और संपत्ति का मोह नहीं रहता। उसका लक्ष्य केवल भगवद् प्राप्ति होती है।
कुछ लोग सिद्धि प्राप्त करने के चक्कर में अपना संपूर्ण जीवन समाप्त कर देते है। एक बार तुकाराम महाराज को नदी पार करनी थी। उन्होने नाविक को दो पैसे दिये और नदी पार की। उन्होने भगवान पांडुरंग के दर्शन किये। थोडी देर के बाद वहाँ एक हठयोगी आया उसने नांव में न बैठकर पानी के ऊपर चलकर नदी पार की। उसके बाद उसने तुकाराम महाराज से पूछा, ‘क्या तुमने मेरी शक्ति देखी?’
तुकाराम महाराज ने कहा हाँ, तुम्हारी योग शक्ति मैने देखी। मगर उसकी कीमत केवल दो पैसे हैै। यह सुनकर हठयोगी गुस्सेमें आ गया। उसने कहा, तुम मेरी योग शक्ति की कीमत केवल दो पैसे गिनते हो? तब तुकाराम महाराज ने कहा, हाँ मुझे नदी पार करनी थी। मैने नाविक को दो पैसे दिये और उसने नदी पार करा दी। जो काम दो पैसे से होता है वही काम की सिद्धि के लिए तुमने इतने वर्ष बरबाद किये इसलिए उसकी कीमत दो पैसे मैने कही। कहने का तात्पर्य हमारा लक्ष्य भगवद्प्राप्ति का होना चाहिए। उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।
हमारा मन काम-वासना से गीला रहता है। गीले मन पर भक्ति का रंग नहीं चढता। मकान की दिवाले गीली होती है, तो उनपर रंग-सफेदी आदि नहीं की जाती। ऐसे ही मन का भी है। गीली लडकी जलाई जाती है तो धुआँ उडाकर दूसरे की आँखाें में आँसु निकालती है। इसलिए मन में से वासना-लालसा निकालकर उसे शुष्क करना पडेगा तभी उसमें भक्ति का रंग खिलेगा और भगवान उसे स्वीकार करेंगे।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 182☆ विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है
‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।
यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा।
जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।
फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।
रंगमंच के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही। सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।
लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।
मुखौटे से जुड़ा एक प्रसंग स्मरण हो आया है। तेज़ धूप का समय था। सेठ जी अपनी दुकान में कूलर की हवा में बैठे ऊँघ रहे थे। सामने से एक मज़दूर निकला; पसीने से सराबोर और प्यास से सूखते कंठ का मारा। दुकान से बाहर तक आती कूलर की हवा ने पैर रोकने के लिए मज़दूर को मजबूर कर दिया। थमे पैरों ने प्यास की तीव्रता बढ़ा दी। मज़दूर ने हिम्मत कर अनुनय की, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ सेठ जी ने उड़ती नज़र डाली और बोले, ‘दुकान का आदमी खाना खाने गया है। आने पर दे देगा।’ मज़दूर पानी की आस में ठहर गया। आस ने प्यास फिर बढ़ा दी। थोड़े समय बाद फिर हिम्मत जुटाकर वही प्रश्न दोहराया, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ पहली बार वाला उत्तर भी दोहराया गया। प्रतीक्षा का दौर चलता रहा। प्यास अब असह्य हो चली। मज़दूर ने फिर पूछना चाहा, ‘सेठ जी…’ बात पूरी कह पाता, उससे पहले किंचित क्रोधित स्वर में रेडिमेड उत्तर गूँजा, “अरे कहा न, दुकान का आदमी खाना खाने गया है।” सूखे गले से मज़दूर बोला, “मालिक, थोड़ी देर के लिए सेठ जी का मुखौटा उतार कर आप ही आदमी क्यों नहीं बन जाते?”
जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बन कर रहने के लिए है।
सूत्रधार कह रहा है कि प्रदर्शन के पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया पर्दे के आगे मुखौटा लगाकर खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक प्रवृत्ति की ओर, लौटें बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 181☆ शिवोऽहम्… (6)
आत्मषटकम् के छठे और अंतिम श्लोक में आदिगुरु शंकराचार्य महाराज आत्मपरिचय को पराकाष्ठा पर ले जाते हैं।
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।
न चासङ्गतं नैव मुक्तिर्न मेयः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥
मैं किसी भिन्नता के बिना, किसी रूप अथवा आकार के बिना, हर वस्तु के अंतर्निहित आधार के रूप में हर स्थान पर उपस्थित हूँ। सभी इंद्रियों की पृष्ठभूमि में मैं ही हूँ। न मैं किसी वस्तु से जुड़ा हूँ, न किसी से मुक्त हूँ। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।
विचार करें, विवेचन करें तो इन चार पंक्तियों में अनेक विलक्षण आयाम दृष्टिगोचर होते हैं। आत्मरूप स्वयं को समस्त संदेहों से परे घोषित करता है। आत्मरूप एक जैसा और एक समान है। वह निश्चल है, हर स्थिति में अविचल है।
आत्मरूप निराकार है अर्थात जिसका कोई आकार नहीं है। सिक्के का दूसरा पहलू है कि आत्मरूप किसी भी आकार में ढल सकता है। आत्मरूप सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित है, सर्वव्यापी है। आत्मरूप में न मुक्ति है, न ही बंधन। वह सदा समता में स्थित है। आत्मरूप किसी वस्तु से जुड़ा नहीं है, साथ ही किसी वस्तु से परे भी नहीं है। वह कहीं नहीं है पर वह है तभी सबकुछ यहीं है।
वस्तुतः मनुष्य स्वयं के आत्मरूप को नहीं जानता और परमात्म को ढूँढ़ने का प्रयास करता है। जगत की इकाई है आत्म। इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं हो सकता। अतः जगत के नियंता से परिचय करने से पूर्व स्वयं से परिचय करना आवश्यक और अनिवार्य है।
मार्ग पर जाते एक साधु ने अपनी परछाई से खेलता बालक देखा। बालक हिलता तो उसकी परछाई हिलती। बालक दौड़ता तो परछाई दौड़ती। बालक उठता-बैठता, जैसा करता स्वाभाविक था कि परछाई की प्रतिक्रिया भी वैसी होती। बालक को आनंद तो आया पर अब वह परछाई को प्राप्त करना का प्रयास करने लगा। वह बार-बार परछाई को पकड़ने का प्रयास करता पर परछाई पकड़ में नहीं आती। हताश बालक रोने लगा। फिर एकाएक जाने क्या हुआ कि बालक ने अपना हाथ अपने सिर पर रख दिया। परछाई का सिर पकड़ में आ गया। बालक तो हँसने लगा पर साधु महाराज रोने लगे।
जाकर बालक के चरणों में अपना माथा टेक दिया। कहा, “गुरुवर, आज तक मैं परमात्म को बाहर खोजता रहा पर आज आत्मरूप का दर्शन करा अपने मुझे मार्ग दिखा दिया।”
आत्मषटकम् मनुष्य को संभ्रम के पार ले जाता है, भीतर के अपरंपार से मिलाता है। अपने प्रकाश का, अपनी ज्योति की साक्षी में दर्शन कराता है।
इसी दर्शन द्वारा आत्मषटकम् से निर्वाणषटकम् की यात्रा पूरी होती है। निर्वाण का अर्थ है, शून्य, निश्चल, शांत, समापन। हरेक स्थान पर स्वयं को पाना पर स्वयं कहीं न होना। मृत्यु तो हरेक की होती है, निर्वाण बिरले ही पाते हैं।
षटकम् के शब्दों को पढ़ना सरल है। इसके शाब्दिक अर्थ को जानना तुलनात्मक रूप से कठिन। भावार्थ को जानना इससे आगे की यात्रा है, मीमांसा कर पाने का साहस उससे आगे की कठिन सीढ़ी है पर इन सब से बहुत आगे है आत्मषट्कम् को निर्वाणषटकम् के रूप में अपना लेना। अपना निर्वाण प्राप्त कर लेना। यदि निर्वाण तक पहुँच गए तो शेष जीवन में अशेष क्या रह जाएगा? ब्रह्मांड के अशेष तक पहुँचने का एक ही माध्यम है, दृष्टि में शिव को उतारना, सृष्टि में शिव को निहारना और कह उठना, शिवोऽहम्…!
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
“हा लेख सेनेच्या सर्व Lady Wives ना समर्पित करते.”
“Proud To Be A Wife Of Indian Soldier.”
आज आम्ही सर्व बहिणी एकत्र जमलो होतो .आमचे स्पेशल गेटटूगेदर होते . ताईच्या घरी नुकतेच renovation झाल्यामुळे घर मस्त दिसत होते. आता त्यांनी वयाच्या व सवयींच्या अनुरूप घरात चेंजेस केले होते.
ताई म्हणाली,
अग !! तीस वर्षे झाली. लग्नानंतर काही वर्षांनी आम्ही या घरात रहायला आलो. तेच ते बघून बघून कंटाळा आला होता . मुलांची शिक्षण ,लग्न सर्व याच घरात झाली .••••
मी हसले, … तर ताई म्हणाली,… का ग ? कशाला हसलीस ?? …
मी म्हटलं,… अगं!! या तीस वर्षांत तर मी अक्षरशः अर्ध्या भारतभर फिरले . या अवधीत किती घर बदलली ???व मुलांच्या किती शाळा बदलल्या ??? मोजावेच लागेल मला.
आता मात्र सर्वांची उत्सुकता वाढली.
‘आर्मी लाईफ’ वेगळेच असते. त्याबद्दल जाणून घ्यायची उत्सुकताही असते. काही समज गैरसमज ही असतात .आज सर्वांनी आग्रह केला , म्हणून मी त्यांना माझ्या तीस वर्षांहून जास्त आर्मी लाईफचा अनुभव सांगायला सुरुवात केली.
मी म्हटलं,
लग्नानंतर सामान्यतः एका स्त्रीचे आयुष्य म्हणजे तिचा नवरा त्याची नोकरी, मुले त्यांचे शिक्षण, घर सांभाळणे. प्रामुख्याने हेच तिचे विश्व असते . नवऱ्याच्या नोकरीवर तिचे आयुष्य अवलंबून असते . दोघांनी मिळून घराकडे लक्ष द्यायचे. हा एक साधारण अलिखित करार असतो.
परंतु ‘आर्मी ऑफिसर’ बरोबर लग्न झाल्यावर हे समीकरण थोडं बदलत. कारण,
“An Army man is on duty for 24 hours.”
येथे ‘No ‘ शब्द चालतच नाही. It is always ‘YES ‘ and only ‘YES.’
नोकरी बरोबर मधून मधून कोर्सेसही असतात. युद्ध व्हाव अस कधीच कोणाला वाटत नाही. पण झालंच तर तुमची तयारी असावी. म्हणून “जीत का मंत्र ” द्यायला,
“लक्ष की ओर हमेशा अग्रसर’ रहायला ‘physically mentally toughness’ जागृत ठेवायला , वेगवेगळे कोर्सेस होत राहतात. कोणत्याही वेळेस युद्ध जिंकायला तयार असणे. याची तयारी होत असते.
“Actually, any army personnel is paid for this day only.”
“आधी देशाचे काम मग घरचे.” हा साधा सरळ हिशोब असतो.
हे सर्व नोकरीत रुजू व्हायच्या आधी माहीत असतंच. ही नोकरी करणे तुमचा ‘choice’ असतो. तुम्हीच ठरविलेले असते. आर्मी ऑफिसर शी लग्न झाल्यावर का?? कशाला?? मीच का?? असे प्रश्न उद्भवतच नाही.
म्हणून बायकोची जबाबदारी वाढते.
आता थोडं माझ्याबद्दल म्हणजे जनरल ‘army wives’ बद्दल सांगायचे झाले तर थोडयाफार फरकाने सर्वांची स्टोरी मिळतीजुळतीच असते.
रिटायरमेंट नंतर, सध्या ज्या घरात मी पर्मनंट राहते आहे , ते माझ्या आयुष्यातले ‘विसावे’ घर आहे. म्हणजे आजपर्यंत मी वेगवेगळ्या शहरात वेगवेगळया घरात राहिले. कधी दहा खोल्यांच्या जुन्या ब्रिटिशकालीन बंगल्यात, तर कधी अगदी दोन खोल्यांचे घर.
प्रत्येक ‘Posting’ मधे अशीच तयारी करायची की, कुठेही सहज राहता येईल, स्वयंपाक करता येईल . म्हणजे प्रत्येक Posting मधे ‘mini ‘ संसाराच्या चार पेट्या तयार करायच्या, व वेळ निभावून घ्यायची. “स्वयंपाक ,शाळा, अभ्यास “या तीन गोष्टींना प्राथमिकता द्यायची व नवीन जागी लवकरात लवकर ‘ adjust ‘ व्हायचा प्रयत्न करायचा . आमच्या ‘Comfort’ ची व्याख्या खूप सीमीत होती.
प्रत्येक ‘Posting ‘ मधे दोन तीन पेट्या वाढायच्याच. असं म्हणतात, पेटयांचा टोटल नंबर मोजून आर्मी ऑफिसरची ‘Rank’ व एकंदर किती ‘Postings’ झाल्या ते कळत. आम्ही रिटायर्ड झालो, तेव्हा ‘सत्तर’ पेटया होत्या. म्हणजे नोकरीच्या पस्तीस वर्षाचा आमचा संसार त्या जीवाभावाच्या पेट्यांमधे होता.
तुमचे विचार खूप स्पष्ट असले , तर तुम्ही तुमचे आयुष्य छान प्लान करू शकता. आम्हाला या नोकरीचे प्लस मायनस points माहीत होते. म्हणून आम्ही आधीच ठरवले की व्यवस्थित रहायचे. मग पेटयांचा नंबर वाढणारच. त्या टिपिकल काळया लाकडी पेट्या खूप कामाच्या होत्या. त्यांनी आयुष्यभर खूप इमानदारीने आमची साथ दिली. कधी पलंग, तर कधी पेटी. आवश्यकतेनुसार त्यात सामान ठेवून वेळोवेळी काळया पेटयांची मदत झाली.
आता मुलींच्या शिक्षणाबद्दल सांगायचे झाले तर, माझ्या मुलीने बारावी पास होईपर्यंत बारा शाळांमधून शिक्षण घेतले. म्हणजे साधारण प्रत्येक वर्षी… नवीन शाळा, शिक्षक, मित्र मैत्रिणी बदलायच्या. प्रत्येक नवीन जागी स्वतःला प्रूव्ह करायचे. बरं, हे सर्व वर्ष सुरू होण्यापूर्वीच होईल असे नाही. एकदा तर ‘ half yearly ‘ परीक्षेच्या एक दिवस आधी अॅडमिशन घेतली . दुसऱ्या दिवशीपासून सुरू होणाऱ्या परीक्षेचे सिलेबस व रोल नंबर घेऊन घरी आलो . ‘उधमपूर ‘ ‘जम्मू काश्मीर’ मधील ही नवीन जागा, ती पण पहाडी , शाळेत एडमिशन साठी जाताना एक मुलगी रडली व येताना दुसरी . व त्यात आणखी भर म्हणजे त्यांचे बाबा आमच्याबरोबर नवीन जागी नव्हते . वेळेवर काही कारणाने त्यांना थांबावे लागले. मी मुलींना घेऊन उधमपूरला पोचले होते. मला तो दिवस चांगला आठवतो . त्यादिवशी दोघींनी दहा बारा तास अभ्यास करून दुसऱ्या दिवशीच्या परीक्षेची तयारी केली होती .कारण सिलेबस वेगळा होता.
आर्मीमध्ये नेहमी नवऱ्याबरोबर राहता येईलच, असे नसते, ‘Field posting’ मधे फॅमिलीला बरोबर राहता येत नाही . म्हणून अशा तडजोडी करण्याशिवाय दुसरा पर्याय नसतोच . यात एकच खंत वाटते की अगदी लहानपणापासूनचे बरोबर शिकलेले मित्र मैत्रिणी माझ्या मुलींना नाहीत .
यातही एक सकारात्मक विचार असा की… प्रत्येक नवीन स्टेशनवर ,नवीन मुलांमध्ये , पहिल्या ‘पाच ‘ मधे तुम्ही आपली पोझिशन मेन्टेन ठेवली, तर आयुष्यात पुढे द्याव्या लागणाऱ्या ‘competitive ‘ परीक्षेची तयारी आपोआपच होत जाते. मुलेही टफ लाईफला सामोरे जायला हळूहळू शिकतात . हे सर्व खूप सोप्प नक्कीच नव्हतं, पण दुसरा पर्यायही नव्हता. बरे असो, याचा प्रभावी परिणाम आता दिसतोय. सर्वांना कुठेही सहज एडजस्ट होता येतंय.
– क्रमशः भाग पहिला.
लेखिका : सुश्री संध्या बेडेकर
प्रस्तुती : सुश्री कालिंदी नवाथे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – कविता में विज्ञान…, आत्मकथ्य
विज्ञान को सामान्यतः प्रत्यक्ष ज्ञान माना गया है जबकि कविता को कल्पना की उड़ान। ज्ञान, ललित कलाओं और विज्ञान में धुर अंतर देखनेवालों को स्मरण रखना चाहिए कि राइट बंधुओं ने पक्षियों को उड़ते देख मनुष्य के भी आकाश में जा सकने की कल्पना की थी। इस कल्पना का परिणाम था, वायुयान का आविष्कार।
सांप्रतिक वैज्ञानिक काल यथार्थवादी कविताओं का है। ऐसे में दर्शन और विज्ञान में एक तरह का समन्वय देखने को मिल सकता है। मेरा रुझान सदैव अध्यात्म, दर्शन और साहित्य में रहा। तथापि अकादमिक शिक्षा विज्ञान की रही। स्वाभाविक है कि चिंतन-मनन की पृष्ठभूमि में विज्ञान रहेगा।
विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ कविता स्वत: संभूत है। यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भुत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है।
अपनी कविता की चर्चा करूँ तो उसका आकलन तो पाठक और समीक्षक का अधिकार है। मैं केवल अपनी रचनाप्रक्रिया में अनायास आते विज्ञान की ओर विनम्रता से रेखांकित भर कर सकता हूँ।
‘मायोपिआ’ नेत्रदोष का एक प्रकार है। यह निकट दृष्टिमत्ता है जिसमें दूर का स्पष्ट दिखाई नहीं देता। निजी रुझान और विज्ञान का समन्वय यथाशक्ति ‘मायोपिआ’ शीर्षक की कविता में उतरा। इसे नम्रता से साझा कर रहा हूँ।
वे रोते नहीं
धरती की कोख में उतरती
रसायनों की खेप पर,
ना ही आसमान की प्रहरी
ओज़ोन की पतली होती परत पर,
दूषित जल, प्रदूषित वायु,
बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,
उनके दुख का कारण नहीं,
अब…,
विदारक विलाप कर रहे हैं,
इन्हीं तत्वों से उपजी
एक देह के मौन हो जाने पर…,
मनुष्य की आँख के
इस शाश्वत मायोपिआ का
इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!
(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)
आइंस्टिन का सापेक्षता का नियम सर्वज्ञात है। ‘ई इज़ इक्वल टू एम.सी. स्क्वेयर’ का सूत्र उन्हीं की देन है। एक दिन एकाएक ‘सापेक्ष’ कविता में उतरे चिंतन में गहरे पैठे आइंस्टिन और उनका सापेक्षता का सिद्धांत।
भारी भीड़ के बीच
कर्णहीन नीरव,
घोर नीरव के बीच
कोलाहल मचाती मूक भीड़,
जाने स्थितियाँ आक्षेप उठाती हैं
या परिभाषाएँ सापेक्ष हो जाती हैं,
कुछ भी हो पर हर बार
मन हो जाता है क्वारंटीन,
….क्या कहते हो आइंस्टीन?
(कवितासंग्रह ‘क्रौंच’ से)
कविता के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है,” कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है? बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फंसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता के जाते रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जाग्रत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पाए।’
न्यूक्लिअर चेन रिएक्शन की आशंकाओं पर मानुषी प्रकृति की संभावनाओं का यह चित्र नतमस्तक होकर उद्धृत कर रहा हूँ,
वे देख-सुन रहे हैं
अपने बोए बमों का विस्फोट,
अणु के परमाणु में होते
विखंडन पर उत्सव मना रहे हैं,
मैं निहार रहा हूँ
परमाणु के विघटन से उपजे
इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन,
आशान्वित हूँ हर न्यूक्लियस से,
जिसमें छिपी है
अनगिनत अणु और
असंख्य परमाणु की
शाश्वत संभावनाएँ,
हर क्षुद्र विनाश
विराट सृजन बोता है,
शकुनि की आँख और
संजय की दृष्टि में
यही अंतर होता है।
(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से)
अपनी कविता के किसी पक्ष की कवि द्वारा चर्चा अत्यंत संकोच का और दुरूह कार्य है। इस सम्बंध में मिले आत्मीय आदेश का विनयभाव से निर्वहन करने का प्रयास किया है। इसी विनयभाव से इस आलेख का उपसंहार करते हुए अपनी जो पंक्तियाँ कौंधी, उनमें भी डी एन ए विज्ञान का ही निकला,
ये कलम से निकले, काग़ज़ पर उतरे, शब्द भर हो सकते हैं तुम्हारे लिए, मेरे लिए तो मन, प्राण और देह का डी एन ए हैं !
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 16 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
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और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै।।
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चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा।।
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अर्थ:– हे हनुमान जी आप भक्तों के सभी प्रकार के मनोरथ को पूर्ण करते हैं। जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।
हे हनुमान जी, आपके नाम का प्रताप चारों युगों तक फैला हुआ है। जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।
भावार्थ:- मनोरथ का अर्थ होता है “मन की इच्छा”। यह अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है। अगर हम हनुमान जी के पास, मन की अच्छी इच्छाओं को लेकर जाएंगे तो कहा जाएगा कि हम अच्छे मनोरथ से हनुमान जी से कुछ मांग रहे हैं। हनुमान जी हमारी इन इच्छाओं की पूर्ति कर देते हैं।
चारों युग अर्थात सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलयुग में परम वीर हनुमान जी का प्रताप फैला हुआ है। हनुमान जी का प्रताप से हर तरफ उजाला हो रहा है। उनकी कीर्ति पूरे विश्व में फैली हुई है।
संदेश:- हनुमान जी से अगर हम सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं वह प्रार्थना अवश्य पूरी होती है।
इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
और मनोरथ जो कोई लावै। सोइ अमित जीवन फल पावै।।
चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा।।
इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से जातक के सभी मनोरथ सिद्ध होंगे और उसकी कीर्ति हर तरफ फैलेगी।
विवेचना:- ऊपर हमने पहली और दूसरी पंक्ति का सीधा-साधा अर्थ बताया है। मनोरथ का अर्थ होता है इच्छा। परंतु किस की इच्छा। मनोरथ का अर्थ केवल मन की इच्छा नहीं है। अगर हम मनोरथ को परिभाषित करना चाहें तो हम कह सकते हैं की “मन के संकल्प” को मनोरथ कहते हैं। हमारा संकल्प क्योंकि मन के अंदर से निकलता है अतः इसमें किसी प्रकार का रंज और द्वेष नहीं होता है। हमारी इच्छा हो सकती है कि हम अपने दुश्मन का विध्वंस कर दें। भले ही वह सही रास्ते पर हो और हम गलत रास्ते पर हों। परंतु जब हम संकल्प लेंगे और वह संकल्प हमारे दिल के अंदर से निकलेगा तो हम इस तरह की गलत इच्छा हनुमान जी के समक्ष नहीं रख पाएंगे। हनुमान जी के समक्ष इस तरह की इच्छा रखते ही हमारी जबान लड़खड़ा जाएगी। दुश्मन अगर सही रास्ते पर है तो फिर हम यही कह पाएंगे कि हे बजरंगबली इस दुश्मन से हमारी संधि करा दो। हमें सही मार्ग पर लाओ। हमें कुमार्ग से हटाओ। यह संत-इच्छा पूरी हो इसके लिए हमें हनुमान जी से मन क्रम वचन से ध्यान लगाकर मांग करनी होगी। ऐसा नहीं है कि आप चले जा रहे हैं और आपने हनुमान जी से कहा कि मेरी इच्छा पूरी कर दो और हनुमान जी तत्काल दौड कर आपकी इच्छा को पूरी कर देंगे। इसीलिए इसके पहले की चौपाई में तुलसीदास जी कह चुके हैं “मन क्रम वचन ध्यान जो लावे”। हनुमान जी से कोई मांग करने के पहले आपको उस मांग के बारे में मन में संकल्प करना होगा। संकल्प करने के कारण आपकी मांग आपके मस्तिष्क से ना निकालकर हृदय से निकलेगी। आपके मन से निकलेगी। आदमी के अंदर का मस्तिष्क ही उसके सभी बुराइयों का जड़ है। मानवीय बुराइयां मस्तिष्क के अंदर से बाहर आती हैं। आप जो चाहते हो कि पूरी दुनिया का धन आपको मिल जाए यह आपका मस्तिष्क सोचता है, दिल नहीं। दिल तो खाली यह चाहता है कि आप स्वस्थ रहें। आपको समय-समय पर भोजन मिले। भले ही इस भोजन के लिए आपको कितना ही कठोर परिश्रम करना पड़े।
मनुष्य के मन का जीवन चक्र में बहुत बड़ा स्थान है। मैं एक बहुत छोटा उदाहरण आपको बता रहा हूं। मैं अपने पौत्र को जमीन से उठा रहा था। इतने में मेरे घुटने में कट की आवाज हुई और मेरी स्थिति खड़े होने लायक नहीं रह गई। मैंने सोचा कि मेरे घुटने की कटोरी में कुछ टूट गया है और मैं काफी परेशान हो गया। हनुमान जी का नाम बार-बार दिमाग में आ रहा था। मेरा लड़का मुझे लेकर डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने मुझे देखने के बाद एक्सरे कराने के लिए कहा। एक्सरे कराने के उपरांत रिजल्ट देखकर डॉक्टर ने कहा कि नहीं कोई भी हड्डी टूटी नहीं है। लिगामेंट टूटे होंगे। यह सुनने के बाद मन के ऊपर जो एक डर बैठ गया था वह समाप्त हो गया। और मैं लड़के के सहारे से चलकर अपनी गाड़ी तक गया। यह मन के अंदर के डर के समाप्त होने का असर था जिसके कारण डॉक्टर को दिखाने के बाद मैं पैदल चल कर गाड़ी तक पहुंचा। एक दूसरा उदाहरण भी लेते हैं। एक दिन मैं अपने मित्र के नर्सिंग होम में बैठा हुआ था। कुछ लोग एक वृद्ध को स्ट्रेचर पर रखकर मेरे मित्र के पास तक आए। उन्होंने बताया कि इनको हार्ट में पेन हो रहा है। मेरे मित्र द्वारा जांच की गई तथा फिर ईसीजी लिया गया। इसीजी देखने के उपरांत मेरे मित्र ने पुनः पूछा कि क्या आपको दर्द हो रहा है ? बुजुर्ग महोदय ने कहा हां अभी भी उतना ही दर्द है। मेरे मित्र को यह पुष्टि हो गई कि यह दर्द हृदय रोग का ना हो कर गैस का दर्द है। जब हमारे मित्र ने यह बात बुजुर्ग को बताई तो उसके उपरांत वे बगैर स्ट्रेचर के चलकर अपनी गाड़ी तक गए। यह मन का आत्म बल ही था जिसके कारण वह बुजुर्ग व्यक्ति अपने पैरों पर चलकर गाड़ी तक पहुंचे। एक बार मन भयभीत हो गया कि हमारी सम्पूर्ण शारीरिक शक्ति व्यर्थ हो जाती है। इसलिए मन का शरीर में असाधारण स्थान है। ऐसा होने पर भी, भौतिक जीवन जीने वाले लोग मन की ओर उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। अपने मस्तिष्क को श्रेष्ठ मानते हैं। शरीर के अंदर यह मन क्या है ? यह आपकी आत्मा है और आत्मा शरीर में कहां निवास करती है यह किसी को नहीं मालूम। आत्मा कभी गलत निर्णय नहीं करती। मन कभी गलत निर्णय नहीं करता। मन के द्वारा किया गया निर्णय हमेशा सही और उपयुक्त होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि :-
काम, क्रोध, मद, लोभ, सब, नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि, भजहुँ भजहिं जेहि संत।
विभीषण जी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढ़ने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं आप भी राम के हो जाएं। मनुष्य को भी इस लोक में और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।
इस प्रकार तुलसी दास जी विभीषण के मुख से रावण को रावण की आत्मा या रावण के मन की बात को स्वीकार करने के लिए कहते हैं।
रामचरित मानस में तुलसी दास जी यह भी बताते हैं कि संत के अंदर क्या-क्या चीजें नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह भी है क्या-क्या चीजें आपके मस्तिष्क के अंदर अगर नहीं है तो यह निश्चित हो जाता है कि आप मन की बात सुनते हो।
विभीषण जी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढ़ने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने (रावण) जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं उसी प्रकार आप भी दुर्गुणों को छोड़कर राम के हो जाएं। मनुष्य को इस लोक और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।
ऊपर की सभी बातों से स्पष्ट है कि अगर आप काम, क्रोध, मद, लोभ आदि मस्तिष्क के विकारों से दूर होकर के मन से संकल्प लेंगे और हनुमान जी को एकाग्र (मन क्रम वचन से) होकर याद कर उनसे मांगेंगे तो आपको निश्चित रूप से जीवन फल प्राप्त होगा। परंतु यह जीवन फल क्या है। इसको गोस्वामी तुलसीदास जी ने कवितावली में स्पष्ट किया है।:-
सियराम सरूप अगाध अनूप, विलोचन मीनन को जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख राम को नामु, हिये पुनि रामहिं को थलु है।।
मति रामहिं सो, गति रामहिं सो, रति राम सों रामहिं को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसी के मते,इतनो जग जीवन को फलु है।।
अर्थात राम में पूरी तरह से रम जाना अमित जीवन फल है। परंतु यह गोस्वामी जी जैसे संतों के लिए है। जनसाधारण का संकल्प कुछ और भी हो सकता है। आप की मांग भी निश्चित रूप से पूर्ण होगी। आपको किसी और दरवाजे पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक और बात में पुनः स्पष्ट कर दूं कि यहां पर हनुमान जी शब्द से आशय केवल हनुमान जी से नहीं है वरन सभी ऊर्जा स्रोतों जैसे मां दुर्गा और उनके नौ रूप या कोई भी अन्य देवी देवता या रामचंद्र जी कृष्ण जी आदि से है।
एक तर्क यह भी है कि अपने मन की बातों को हनुमान जी से कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे तो सर्वज्ञ हैं। उनको हमारे बारे में सब कुछ मालूम है। वे जानते हैं कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है। अकबर बीरबल की एक प्रसिद्ध कहानी है जिसमें एक बार अकबर की उंगली कट गई सभी दरबारियों ने इस पर अफसोस जताया परंतु बीरबल ने कहा चलिए बहुत अच्छा हुआ ज्यादा उंगली नहीं कटी। अकबर इस पर काफी नाराज हुआ और बीरबल को 2 महीने की जेल का हुक्म दे दिया। कुछ दिन बाद अकबर जंगल में शिकार खेलने गए। शिकार खेलते-खेलते वे अकेले पड़ गए। आदिवासियों के झुंड ने उनको पकड़ लिया। ये आदिवासी बलि चढ़ाने के लिए किसी मनुष्य को ढूंढ रहे थे। अकबर को बलि के स्थान पर लाया गया। बलि देने की तैयारी पूर्ण कर ली गई। अंत में आदिवासियों का ओझा आया और उसने अकबर का पूरा निरीक्षण किया। निरीक्षण के उपरांत उसने पाया कि अकबर की उंगली कटी हुई है। इस पर ओझा ने कहा कि इस मानव की बलि पहले ही कोई ले चुका है। अतः अब इसकी बलि दोबारा नहीं दी जा सकती है। फिर अकबर को छोड़ दिया गया। राजमहल में आते ही अकबर बीरबल के पास गए और बीरबल से कहा कि तुमने सही कहा था। अगर यह उंगली कटी नहीं होती जो आज मैं मार डाला जाता।
भगवान को यह भी मालूम है कि हमारे साथ आगे क्या क्या होने वाला है। अगर हम एकाग्र होकर हनुमान जी का केवल ध्यान करते हैं तो वे हमारे लिए वह सब कुछ करेंगे जो हमारे आगे की भविष्य के लिए हित वर्धक हो। उदाहरण के रूप में एक लड़का पढ़ने में अच्छा था। डॉक्टर बनना चाहता था। पीएमटी का टेस्ट दिया जिसमें वह सफल नहीं हो सका। वह लड़का हनुमान जी का भक्त भी था और उसने हनुमान जी के लिए उल्टा सीधा बोलना प्रारंभ कर दिया। गुस्से में दोबारा मैथमेटिक्स लेकर के पढ़ना प्रारंभ किया। आगे के वर्षों में उसने इंजीनियरिंग का एग्जाम दिया। एन आई टी में सिलेक्शन हो गया। शिक्षा संपन्न करने के बाद उसने अखिल भारतीय सर्विस का एग्जाम दिया और उसमें सफल हो गया। आईएएस बनने के बाद कलेक्टर के रूप में उसकी पोस्टिंग हुई। तब उसने देखा कि उस समय जिन लड़कों का पीएमटी में सिलेक्शन हो गया था, वे आज उसको नमस्ते करते घूम रहे हैं। तब वह लड़का यह समझ पाया बजरंगबली ने पीएमटी के सिलेक्शन में उसकी क्यों मदद नहीं की थी।
निष्कर्ष यह है कि आप एकाग्र होकर, मन क्रम वचन से शुद्ध होकर, हनुमान जी का सिर्फ ध्यान करें,उनसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है,आपको अपने आप जीवन का फल और ऐसा जीवन का फल जो कि अमित होगा, कभी समाप्त नहीं हो सकता होगा हनुमान जी आपको प्रदान करेंगे।
हनुमान चालीसा की अगली चौपाई “चारों युग परताप तुम्हारा है प्रसिद्ध जगत उजियारा” अपने आप में पूर्णतया स्पष्ट है। यह चौपाई कहती है कि आपके गुणों के प्रकाश से आपके प्रताप से और आपके प्रभाव से चारों युग में उजाला रहता है। यह चार युग हैं सतयुग त्रेता द्वापर और कलयुग। यहां पर आकर हम में से जिसको भी बुद्धि का और ज्ञान का अजीर्ण है उनको बहुत अच्छा मौका मिल गया है। हमारे ज्ञानवीर भाइयों का कहना है हनुमान जी का जन्म त्रेता युग में हुआ है। फिर सतयुग में वे कैसे हो सकते हैं। इसलिए हनुमान चालीसा से चारों युग परताप तुम्हारा की लाइन को हटा देना चाहिए। इसके स्थान पर तीनों युग परताप तुम्हारा होना चाहिए।
हनुमान जी चिरंजीव है। उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है और न उनकी मृत्यु कभी होगी। यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दी है ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है :-
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।”
हर त्रेता युग में एक बार श्री रामचंद्र जन्म लेते हैं और रामायण का अख्यान पूरा होता है। परंतु हनुमान जी पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले त्रेता युग में जन्म ले चुके हैं और उसके उपरांत उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है इसलिए वे मौजूद मिलते हैं। इस प्रकार से चारों युग परताप तुम्हारा कहना उचित लग रहा है। आइए इस संबंध में विशेष रुप से चर्चा करते हैं।
ब्रह्मा जी की उम्र 100 ब्रह्मा वर्ष के बराबर है। अतः मेरे विचार से ब्रह्मा जी के पहले वर्ष के पहले कल्प के पहले मन्वंतर जिसका नाम स्वयम्भुव है के पहले चतुर्युग के पहले सतयुग में हनुमान जी नहीं रहे होंगे। एक मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है। इस प्रकार एक मन्वंतर में 71 बार सतयुग आएगा। अतः पहले त्रेता युग मैं हनुमान जी अवतरित हुए होंगे। उसके बाद से सभी त्रेतायुग में हनुमान जी चिरंजीव होने के कारण मौजूद मिले होंगे।
चैत्र नवरात्रि प्रतिपदा रविवार को सतयुग की उत्पत्ति हुई थी। इसका परिमाण 17,28,000 वर्ष है। इस युग में मत्स्य, हयग्रीव, कूर्म, वाराह, नृसिंह अवतार हुए जो कि सभी अमानवीय थे। इस युग में शंखासुर का वध एवं वेदों का उद्धार, पृथ्वी का भार हरण, हरिण्याक्ष दैत्य का वध, हिरण्यकश्यपु का वध एवं प्रह्लाद को सुख देने के लिए यह अवतार हुए थे। इस काल में स्वर्णमय व्यवहार पात्रों की प्रचुरता थी। मनुष्य अत्यंत दीर्घाकृति एवं अतिदीर्घ आयुवाले होते थे।
उपरोक्त से स्पष्ट है की पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले सतयुग में हनुमान जी नहीं थे। उसके बाद के सभी सतयुग में हनुमान जी रहे हैं। परंतु प्रकृति के नियमों में बंधे होने के कारण उन्होंने कोई कार्य नहीं किया है जो कि ग्रंथों में लिखा जा सके।
आइए अब हम हिंदू समय काल के बारे में चर्चा करते हैं।
जब हम कोई पूजा पाठ करते हैं तो सबसे पहले हमारे पंडित जी हमसे संकल्प करवाते हैं और निम्न मंत्रों को बोलते हैं।
संकल्प में पहला शब्द द्वितीये परार्धे आया है। श्रीमद भगवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष की है जिसमें से की पूर्व परार्ध अर्थात 50 वर्ष बीत चुके हैं तथा दूसरा परार्ध प्रारंभ हो चुका है। त्रैलोक्य की सृष्टि ब्रह्मा जी के दिन से प्रारंभ होने से होती है और दिन समाप्त होने पर उतनी ही लंबी रात्रि होती है। एक दिन एक कल्प कहलाता है।
यह एक दिन 1. स्वायम्भुव, 2. स्वारोचिष, 3. उत्तम, 4. तामस, 5. रैवत, 6. चाक्षुष, 7. वैवस्वत, 8. सावर्णिक, 9. दक्ष सावर्णिक, 10. ब्रह्म सावर्णिक, 11. धर्म सावर्णिक, 12. रुद्र सावर्णिक, 13. देव सावर्णिक और 14. इन्द्र सावर्णिक- इन 14 मन्वंतरों में विभाजित किया गया है। इनमें से 7वां वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। 1 मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है।
यह भिन्न संख्या पृथ्वी के 27.25 डिग्री झुके होने और 365.25 दिन में पृथ्वी की परिक्रमा करने के कारण होती है। दशमलव के बाद के अंक को सिद्धांत के अनुसार नहीं लिया गया है। दो मन्वन्तर के बीच के काल का परिमाण 4,800 दिव्य वर्ष (सतयुग काल) माना गया है। इस प्रकार मन्वंतरों के बीच का काल=14*71=994 चतुर्युग हुआ।
हम जानते हैं कि कलयुग 432000 वर्ष का होता है इसका दोगुना द्वापर युग, 3 गुना त्रेतायुग एवं चार गुना सतयुग होता है। इस प्रकार एक महायुग 43 लाख 20 हजार वर्ष का होता है।
71 महायुग मिलकर एक मन्वंतर बनाते हैं जो कि 30 करोड़ 67 लाख 20 हजार वर्ष का हुआ। प्रलयकाल या संधिकाल जो कि हर मन्वंतर के पहले एवं बाद में रहता है 17 लाख 28 हजार वर्ष का होता है। 14 मन्वन्तर मैं 15 प्रलयकाल होंगे अतः प्रलय काल की कुल अवधि 1728000*15=25920000 होगा। 14 मन्वंतर की अवधि 306720000*14=4294080000 होगी और एक कल्प की अवधि इन दोनों का योग 4320000000 होगी। जोकि ब्रह्मा का 1 दिन रात है। ब्रह्मा की कुल आयु (100 वर्ष) =4320000000*360*100=155520000000000=155520अरब वर्ष होगी। यह ब्रह्मांड और उसके पार के ब्रह्मांड का कुल समय होगा। वर्तमान विज्ञान को यह ज्ञात है कि ब्रह्मांड के उस पार भी कुछ है परंतु क्या है यह वर्तमान विज्ञान को अभी ज्ञात नहीं है।
अब हम पुनः एक बार संकल्प को पढ़ते हैं जिसके अनुसार वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है अर्थात 6 मन्वंतर बीत चुके हैं सातवा मन्वंतर चल रहा है। पिछले गणना से हम जानते हैं की एक मन्वंतर 306720000 वर्ष का होता है। छे मन्वंतर बीत चुके हैं अर्थात 306720000*6=1840320000 वर्ष बीत चुके हैं। इसमें सात प्रलय काल और जोड़े जाने चाहिए अर्थात (1728000*7) 12096000 वर्ष और जुड़ेंगे इस प्रकार कुल योग (1840320000+12096000) 1852416000 वर्ष होता है।
हम जानते हैं एक मन्वंतर 71 महायुग का होता है जिसमें से 27 महायुग बीत चुके हैं। एक महायुग 4320000 वर्ष का होता है इस प्रकार 27 महायुग (27*4320000) 116640000 वर्ष के होंगे। इस अवधि को भी हम बीते हुए मन्वंतर काल में जोड़ते हैं ( 1852416000+116640000) तो ज्ञात होता है कि 1969056000 वर्ष बीत चुके हैं।
28 वें महायुग के कलयुग का समय जो बीत चुका है वह (सतयुग के 1728000+ त्रेता युग 1296000+ द्वापर युग 864000 ) = 3888000 वर्ष होता है। इस अवधि को भी हम पिछले बीते हुए समय के साथ जोड़ते हैं (1969056000+ 3888000 ) और संवत 2079 कलयुग के 5223 वर्ष बीत चुके हैं।
अतः हम बीते गए समय में कलयुग का समय भी जोड़ दें तो कुल योग 1972949223 वर्ष आता है। इस समय को हम 1.973 Ga वर्ष भी कह सकते हैं।
ऊपर हम बता चुके हैं कि आधुनिक विज्ञान के अनुसार पृथ्वी का प्रोटेरोज़ोइक काल 2.5 Ga से 54.2 Ma वर्ष तथा और इसी अवधि में पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई है। इन दोनों के मध्य में भारतीय गणना अनुसार आया हुआ समय 1.973 Ga वर्ष भी आता है। जिससे स्पष्ट है कि भारत के पुरातन वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव की जो गणना की थी वह बिल्कुल सत्य है।
आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य 4.603 अरब वर्ष पहले अपने आकार भी आया था। इसी प्रकार पृथ्वी 4.543 अरब वर्ष पहले अपने आकार में आई थी।
हमारी आकाशगंगा 13.51 अरब वर्ष पहले बनी थी। अभी तक ज्ञात सबसे उम्रदराज वर्लपूल गैलेक्सी 40.03 अरब वर्ष पुरानी है। विज्ञान यह भी मानता है कि इसके अलावा और भी गैलेक्सी हैं जिनके बारे में अभी हमें ज्ञात नहीं है। हिंदू ज्योतिष के अनुसार ब्रह्मा जी का की आयु 155520 अरब वर्ष की है जिसमें से आधी बीत चुकी है। यह स्पष्ट होता है कि यह ज्योतिषीय संरचनाएं 77760 अरब वर्ष पहले आकार ली थी और कम से कम इतना ही समय अभी बाकी है।
ऊपर की विवरण से स्पष्ट है की हनुमान जी चारों युग में थे और उनकी प्रतिष्ठा भी हर समय रही है। एक सुंदर प्रश्न और भी है कि आदमी को यश या प्रतिष्ठा कैसे मिलती है। इस विश्व में बड़े-बड़े योद्धा राजा राष्ट्रपति हुए हैं परंतु लोग उनको एक समय बीतने के बाद भूलते जाते हैं परंतु तुलसीदास जी को नरसी मेहता जी को और भी ऋषि-मुनियों को कोई आज तक नहीं भूल पाया है। यश का सीधा संबंध आदमी के हृदय से है। जिसके हृदय में श्री राम बैठे हुए हैं उसकी प्रतिष्ठा हमेशा रहेगी। उसका यश हमेशा रहेगा। एक राजा की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक वह सत्ता में है। सत्ता से हटते ही उसकी प्रतिष्ठा शुन्य हो जाती है। एक धनवान की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक उसके पास धन है। कभी इस देश में टाटा और बिड़ला की सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा थी, आज अंबानी और अदानी की है। परंतु संतों की प्रतिष्ठा सदैव एक जैसी रहती है। वह कभी समाप्त नहीं होती है। इसी तरह से कुछ और भी हैं जैसे कवि या लेखक, साइंटिस्ट आदि। इन की प्रतिष्ठा हमेशा ही एक जैसी रहती है, क्योंकि इनका किया हुआ कभी समाप्त नहीं होता है।
हनुमान जी के हृदय में श्री राम जी सदैव बैठे हुए हैं उनकी प्रतिष्ठा कैसे समाप्त हो सकती है। एक भजन है :-
जिनके हृदय श्री राम बसे,
उन और को नाम लियो ना लियो।
एक दूसरा भजन भी है :-
जिसके ह्रदय में राम नाम बंद है
उसको हर घडी आनंद ही आनंद है
लेकर सिर्फ राम नाम का सहारा
इस दुनिया को करके किनारा
राम जी की रजा में जो रजामंद है
उसको हर घडी आनंद ही आनंद है
अतः जिसके हृदय में श्री राम निवास करते हैं उसको कोई और नाम लेने की आवश्यकता नहीं है। हनुमान जी की प्रभा को करोड़ों सूर्य के बराबर बताया गया है:-
ओम नमों हनुमते रुद्रावताराय
विश्वरूपाय अमित विक्रमाय
प्रकटपराक्रमाय महाबलाय
सूर्य कोटिसमप्रभाय रामदूताय स्वाहा।
इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि इन करोड़ों सूर्य के प्रकाश के बराबर हनुमान जी का प्रकाश चारों युग में फैल रहा है।
हनुमान जी की प्रतिष्ठा के बारे में बाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के प्रथम सर्ग के द्वितीय श्लोक में श्री रामचंद्र जी ने कहा है कि हनुमान जी ने ऐसा बड़ा काम किया है जिसे पृथ्वी तल पर कोई नहीं कर सकता है। करने की बात तो दूर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है।
कृतं हनुमता कार्यं सुमहद्भुवि दुर्लभम्।
मनसापि यदन्येन न शक्यं धरणीतले॥
(वा रा /युद्ध कांड/1./2)
और भी तारीफ करने के बाद श्री रामचंद्र जी ने कहा इस समय उनके पास अपना सर्वस्व दान देने के रूप में आलिंगन ही महात्मा हनुमान जी के कार्य के योग्य पुरस्कार है। यह कहने के उपरांत उन्होंने अपने आलिंगन में हनुमान जी को ले लिया।
एष सर्वस्वभूते परिष्वङ्गो हनूमतः।
मया कालमिमं प्राप्य दत्तस्तस्य महात्मनः॥
(वाल्मीकि रामायण/युद्ध कांड/1 /13)
इत्युक्त्वा प्रीतिहृष्टाङ्गो रामस्तं परिषस्वजे।
हनूमन्तं कृतात्मानं कृतकार्यमुपागतम् ॥
(वा रा/युद्ध कांड/ 1/14)
इस प्रकार भगवान श्री राम ने हनुमान जी को उनकी कृति और यश को हमेशा के लिए फैलने का वरदान दिया।
रुद्रावतर पवन पुत्र केसरी नंदन अंजनी कुमार भगवान हनुमान जी की कीर्ति जब से यह संसार बना है और जब तक यह संसार रहेगा सदैव फैलती रहेगी। उनके प्रकाश से यह जग प्रकाशित होता रहेगा। जय श्री राम। जय हनुमान।
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख विश्वास–अद्वितीय संबल। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 175 ☆
☆ विश्वास–अद्वितीय संबल☆
‘केवल विश्वास ही एक ऐसा संबल है,जो हमें मंज़िल तक पहुंचा देता है’ स्वेट मार्टिन का यह कथन आत्मविश्वास को जीवन में लक्ष्य प्राप्ति व उन्नति करने का सर्वोत्तम साधन स्वीकारता है,जिससे ‘मन के हारे हार है,मन के जीते जीत’ भाव की पुष्टि होती है। विश्वास व शंका दो विपरीत शक्तियां हैं– एक मानव की सकारात्मक सोच को प्रकाशित करती है और दूसरी मानव हृदय में नकारात्मकता के भाव को पुष्ट करती है। प्रथम वह सीढ़ी है, जिसके सहारे दुर्बल व अपाहिज व्यक्ति अपनी मंज़िल पर पहुंच सकता है और द्वितीय को हरे-भरे उपवन को नष्ट करने में समय ही नहीं लगता। शंका-ग्रस्त व्यक्ति तिल-तिल कर जलता रहता है और अपने जीवन को नरक बना लेता है। वह केवल अपने घर-परिवार के लिए ही नहीं; समाज व देश के लिए भी घातक सिद्ध होता है। शंका जोंक की भांति जीवन के उत्साह, उमंग व तरंग को ही नष्ट नहीं करती; दीमक की भांति मानव जीवन में सेंध लगा कर उसकी जड़ों को खोखला कर देती है।
‘जब तक असफलता बिल्कुल छाती पर सवार न होकर बैठ जाए; असफलता को स्वीकार न करें’ मदनमोहन मालवीय जी का यह कथन द्रष्टव्य है,जो गहन अर्थ को परिलक्षित करता है। जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास है; असफलता उसके निकट दस्तक नहीं दे सकती। ‘हौसले भी किसी हक़ीम से कम नहीं होते/ हर तकलीफ़ में ताकत की दवा देते हैं।’ सो! हौसले मानव-मन को ऊर्जस्वित करते हैं और वे साहस व आत्मविश्वास के बल पर असंभव को संभव बनाने की क्षमता रखते हैं। जब तक मानव में कुछ कर गुज़रने का जज़्बा व्याप्त होता है; उसे दुनिया की कोई ताकत पराजित नहीं कर सकती, क्योंकि किसी की सहायता करने के लिए तन-बल से अधिक मन की दृढ़ता की आवश्यकता होती है। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘मनुष्य युद्ध में सहस्त्रों पर विजय प्राप्त कर सकता है, लेकिन जो स्वयं कर विजय प्राप्त कर लेता है; वह सबसे बड़ा विजयी है।’ फलत: जीवन के दो प्रमुख सिद्धांत होने चाहिए–आत्म-विश्वास व आत्म- नियंत्रण। मैंने बचपन से ही इन्हें धारण किया और धरोहर-सम संजोकर रखा तथा विद्यार्थियों को भी जीवन में अपनाने की सीख दी।
यदि आप में आत्मविश्वास है और आत्म-नियंत्रण का अभाव है तो आप विपरीत व विषम परिस्थितियों में अपना धैर्य खो बैठेंगे; अनायास क्रोध के शिकार हो जाएंगे तथा अपनी सुरसा की भांति बढ़ती बलवती इच्छाओं, आकांक्षाओं व लालसाओं पर अंकुश नहीं लगा पायेंगें। जब तक इंसान काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार पर विजय नहीं प्राप्त कर लेता; वह मुंह की खाता है। सो! हमें इन पांच विकारों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए और किसी विषय पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए। यदि कोई कार्य हमारे मनोनुकूल नहीं होता या कोई हम पर उंगली उठाता है; अकारण दोषारोपण करता है; दूसरों के सम्मुख हमें नीचा दिखाता है; आक्षेप-आरोप लगाता है, तो भी हमें अपना आपा नहीं खोना चाहिए। उस अपरिहार्य स्थिति में यदि हम थोड़ी देर के लिए आत्म-नियंत्रण कर लेते हैं, तो हमें दूसरों के सम्मुख नीचा नहीं देखना पड़ता, क्योंकि क्रोधित व्यक्ति को दिया गया उत्तर व सुझाव अनायास आग में घी का काम करता है और तिल का ताड़ बन जाता है। इसके विपरीत यदि आप अपनी वाणी पर नियंत्रण कर थोड़ी देर के लिए मौन रह जाते हैं, समस्या का समाधान स्वत: प्राप्त हो जाता है और वह समूल नष्ट हो जाती है। यदि आत्मविश्वास व आत्म-नियंत्रण साथ मिलकर चलते हैं, तो हमें सफलता प्राप्त होती है और समस्याएं मुंह छिपाए अपना रास्ता स्वतः बदल लेती हैं।
जीवन में चुनौतियां आती हैं, परंतु मूर्ख लोग उन्हें समस्याएं समझ उनके सम्मुख आत्मसमर्पण कर देते हैं और तनाव व अवसाद का शिकार हो जाते हैं, क्योंकि उस स्थिति में भय व शंका का भाव उन पर हावी हो जाता है। वास्तव में समस्या के साथ समाधान का जन्म भी उसी पल हो जाता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते; तीसरा विकल्प भी होता है; जिस ओर हमारा ध्यान केंद्रित नहीं होता। परंतु जब मानव दृढ़तापूर्वक डटकर उनका सामना करता है; पराजित नहीं हो सकता, क्योंकि ‘गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में’ के प्रबल भाव को स्वीकार लेता है और सदैव विजयी होता है। दूसरे शब्दों में जो पहले ही पराजय स्वीकार लेता है; विजयी कैसे हो सकता है? इसलिए हमें नकारात्मक विचारों को हृदय में प्रवेश ही नहीं करने देना चाहिए।
जब मन कमज़ोर होता है, तो परिस्थितियां समस्याएं बन जाती हैं। जब मन मज़बूत होता है; वे अवसर बन जाती हैं। ‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना/ वैसे तो हर शख़्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’ इसलिए मानव को हर परिस्थिति में सम रहने की सीख दी जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियाँ– ‘दिन-रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं/ यादों के महज़ दिल को/ मिलता नहीं सुक़ून/ ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं।’ सच ही तो है ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती।’ इसी संदर्भ में सैमुअल बैकेट का कथन अत्यंत सार्थक है– ‘कोशिश करो और नाकाम हो जाओ, तो भी नाकामी से घबराओ नहीं। फिर कोशिश करो; जब तक अच्छी नाकामी आपके हिस्से में नहीं आती।’ इसलिए मानव को ‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे भीतर एक ज़माना है। ‘वैसे भी ‘मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से रखनी चाहिए। उम्मीद एक दिन टूटेगी ज़रूर और तुम उससे आहत होगे।’ यदि आपमें आत्मविश्वास होगा तो आप भीषण आपदाओं का सामना करने में सक्षम होगे। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो सत्कर्म व शुद्ध पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं की जा सकती।
योगवशिष्ठ की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है, जो मानव को सत्य की राह पर चलते हुए साहसपूर्वक कार्य करने की प्रेरणा देती है।
‘सफलता का संबंध कर्म से है और सफल लोग आगे बढ़ते रहते हैं। वे ग़लतियाँ करते हैं, लेकिन लक्ष्य-प्राप्ति के प्रयास नहीं छोड़ते’–कानरॉड हिल्टन का उक्त संदेश प्रेरणास्पद है। भगवद्गीता भी निष्काम कर्म की सीख देती है। कबीरदास जी भी कर्मशीलता में विश्वास रखते हैं, क्योंकि अभ्यास करते-करते जड़मति भी विद्वान हो जाता है। महात्मा बुद्ध ने भी यह संदेश दिया है कि ‘अतीत में मत रहो। भविष्य का सपना मत देखो। वर्तमान अर्थात् क्षण पर ध्यान केंद्रित करो।’ बोस्टन के मतानुसार ‘निरंतर सफलता हमें संसार का केवल एक ही पहलू दिखाती है; विपत्ति हमें चित्र का दूसरा पहलू दिखाती है।’ इसलिए क़ामयाबी का इंतज़ार करने से बेहतर है; कोशिश की जाए। प्रतीक्षा करने से अच्छा है; समीक्षा की जाए। हमें असफलता, तनाव व अवसाद के कारणों को जानने का प्रयास करना चाहिए। जब हम लोग उसकी तह तक पहुंच जाएंगे; हमें समाधान भी अवश्य प्राप्त हो जाएगा और हम आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर होते जाएंगे।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – नव संवत्सर विशेष – परिवर्तन का संवत्सर🍁
(इस विषय पर लेखक के विस्तृत लेख का एक अंश)
पुराने पत्तों पर नयी ओस उतरती है,
अतीत का चक्र वर्तमान में ढलता है,
प्रकृति यौवन का स्वागत करती है,
अनुभव की लाठी लिए बुढ़ापा साथ चलता है
नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास, हर तरफ होता है हर्ष।
भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढी पाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है। स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला।
गुढी पाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला ज़रीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।
माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगें घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है,” हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।
प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। ज़री के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढी पाडवा।
कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है। बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’ यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।
तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर में भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।
सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-
न राग बदला, न लोभ, न मत्सर,
बदला तो बदला केवल संवत्सर
परिवर्तन का संवत्सर केवल काग़ज़ों तक सीमित न रहे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈