(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – निठल्ला चिंतन
हर मनुष्य को चाहे वह कितना ही आलसी क्यों न हो, शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक प्रक्रियाओं द्वारा 24×7 कार्यरत रहना पड़ता है। जब हम ‘कुछ नहीं’ करना चाहते तो वास्तव में क्या करना चाहते हैं? अपने शून्य में उपजे अपने ‘कुछ नहीं’ में छिपी संभावना को खुद ही पढ़ना होता है। जिस किसीने इस ‘कुछ नहीं’ को पढ़ और समझ लिया, यकीन मानना वह जीवन में ‘बहुत कुछ’ करने की डगर पर निकल गया।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 179☆ शिवोऽहम्*…(4)
आदिगुरु शंकराचार्य महाराज के आत्मषटकम् को निर्वाणषटकम् क्यों कहा गया, इसकी प्रतीति चौथे श्लोक में होती है। यह श्लोक कहता है,
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञः।
अहम् भोजनं नैव भोज्यम् न भोक्ता
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।
मैं न पुण्य से बँधा हूँ और न ही पाप से। मैं सुख और दुख से भी विलग हूँ, इन सबसे मुक्त हूँ। अर्थ स्पष्ट है कि आत्मस्वरूप सद्कर्म या दुष्कर्म नहीं करता। इनसे उत्पन्न होनेवाले कर्मफल से भी कोई सम्बंध नहीं रखता।
मंत्रोच्चारण, तीर्थाटन, ज्ञानार्जन, यजन कर्म सभी को सामान्यतः आत्मस्वरूप का अधिष्ठान माना गया है। षटकम् की अगली पंक्ति सीमाबद्ध को असीम करती है। यह असीम, सीमित शब्दों में कुछ यूँ अभिव्यक्त होता है, ‘मैं न मंत्र हूँ, न तीर्थ, न ही ज्ञान या यज्ञ।’ भावार्थ है कि आत्मस्वरूप का प्रवास कर्म और कर्मानुभूति से आगे हो चुका है।
मंत्र, तीर्थ, ज्ञान, यज्ञ, पाप, पुण्य, सुख, दुखादि कर्मों पर चिंतन करें तो पाएँगे कि वैदिक दर्शन हर कर्म के नाना प्रकारों का वर्णन करता है। तथापि तत्सम्बंधी विस्तार में जाना इस लघु आलेख में संभव नहीं।
आगे आदिगुरु का कथन विस्तार पाता है, ‘मैं न भोजन हूँ, न भोग का आनंद, न ही भोक्ता।’ अर्थात साधन, साध्य और सिद्धि से ऊँचे उठ जाना। विचार के पार, उर्ध्वाधार। कुछ न होना पर सब कुछ होना का साक्षात्कार है यह। एक अर्थ में देखें तो यही निर्वाण है, यही शून्य है।
वस्तुत: शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी। शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाना होगा।… अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें। तत्पश्चात आकलन करें कि शून्य पाया या शून्य खोया?
शून्य अवगाहित करती सृष्टि,
शून्य उकेरने की टिटिहरी कृति,
शून्य के सम्मुख हाँफती सीमाएँ
अगाध शून्य की अशेष गाथाएँ,
साधो…!
अथाह की कुछ थाह मिली
या फिर शून्य ही हाथ लगा?
साधक एक बार शून्यावस्था में पहुँच जाए तो स्वत: कह उठता है, ‘मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, शिवोऽहम्..!’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 12 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।
अर्थ:-
भगवान राम के द्वारपाल आप ही हैं आपकी आज्ञा के बिना उनके दरबार में प्रवेश नहीं मिलता है।
भावार्थ:-
संसार में मनुष्य के बहुत सारी कामनाएं होती हैं परंतु अंतिम कामना होती है मोक्ष की। हनुमान जी राम जी के दरबार में बैठे हुए हैं। विभिन्न प्रकार की कामनाओं को लेकर आने वाले पहले हनुमान जी के पास जाते हैं। उसके बाद आगे श्री रामचंद्र जी के पास जाते हैं। हनुमान जी लोगों की मोक्ष को छोड़कर सभी तरह की कामनाओं की पूर्ति कर देते हैं। परंतु मोक्ष प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को श्री राम चंद्र जी के पास जाना पड़ता है। श्री रामचंद्र जी के पास जाने के लिए श्री हनुमान जी के पास से होकर जाना पड़ता है। इसीलिए कहा गया है हनुमान जी की आज्ञा के बगैर कोई भी रामचंद्र जी के पास नहीं जा सकता है।
संदेश:-
अगर आप ईश्वर में श्रद्धा रखते हैं तो किसी भी स्थिति में आपको डरने की आवश्यकता नहीं है।
इस चौपाई को बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।
ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए इस चौपाई का बार बार पाठ करना चाहिए।
विवेचना:-
अगर हम इसका जनसाधारण में फैला हुआ अर्थ माने तो इस चौपाई का अर्थ है कि आप रामचंद्र जी के द्वार के रखवाले हैं। आपकी आज्ञा के बिना रामचंद्र जी से मिलना संभव नहीं है। परन्तु क्या यह विचार सही है।
कहा गया है कि ईश्वर अनंत है और उनकी कथा भी अनंत प्रकार से कही गई है। :-
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
(रामचरितमानस/बालकांड)
हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते हैं।
एक तरफ तो कहते हैं पूरा ब्रह्मांड ही भगवान का घर है। दूसरी तरफ तुलसीदास जी कह रहे हैं श्री हनुमान जी रामचंद्र जी के महल के दरवाजे के रखवाले हैं। क्या रामचंद्र जी का अगर कोई घर है तो उसमें द्वार भी है। आइए हम इस पर चर्चा करते हैं।
कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि अगर ईश्वर को प्रसन्न करना है तो पहले संतो को, गुरु को, शास्त्रों के लिखने वालों को, अच्छे लोगों को प्रसन्न करो। अगर नई नवेली बहू को अपने पति को प्रसन्न करना है तो पहले सास-ससुर, जेठ-जेठानी को प्रसन्न करना पड़ेगा।
नए समय में कोई भी नवेली बहू सास ससुर जेठ जेठानी के चक्कर में नहीं पड़ती है। इसी प्रकार इस घोर कलयुग में अच्छे लोग या संत आदि का मिल पाना भी अत्यंत कठिन है। किसी ने इस पर पूरा गाना भी बना डाला :-
पार न लगोगे श्रीराम के बिना, राम न मिलेगे हनुमान के बिना |
परंतु क्या हनुमान जी की हैसियत द्वारपाल जैसी है। श्रीरामचंद्र जी जिनको अपना सखा, भरत जैसा भाई कहते हैं, क्या वे द्वारपाल हैं। क्या रुद्रावतार को हम द्वारपाल कह सकते हैं। क्या पवन पुत्र को हम दरवाजे का रखवाला कहेंगे। ऊपर में बता भी चुका हूं कि हनुमान जी की उत्पत्ति उसी खीर से हुई है जिस खीर को खाने से कौशल्या माता जी के गर्भ से श्री राम जी पैदा हुए हैं। यह सत्य है की हनुमान जी ने हमेशा अपने को श्री राम जी का दास कहा है ,परंतु श्री राम जी ने कभी भी उनको अपना दास नहीं माना है। अपना भाई माना है ,सखा माना है या संकटमोचक माना है। कहीं भी चाहे वह बाल्मीकि रामायण हो , रामचरितमानस हो या अन्य कोई रामायण हो किसी में भी श्रीरामचंद्र जी ने हनुमान जी को अपना दास नहीं कहा है। अब अगर श्री रामचंद्र जी ने को अपना दास नहीं माना है तो हम कलयुग के लोग हनुमान जी को द्वारपाल कैसे बना सकते हैं।
वास्तविकता यह है यहां पर द्वारपाल का अर्थ द्वारपाल नहीं है वरन लक्ष्य तक पहुंचने का एक सोपान है। अगर हमें किसी ऊंचाई पर आसानी से पहुंचना है तो हमें सीढ़ी या सोपान का उपयोग करना पड़ता है। हनुमान जी श्रीरामचंद्र जी तक पहुंचने की वहीं सीढ़ी या सोपान है। जिस प्रकार हम ब्रह्म तक पहुंचने के लिए पहले किसी देवता की मूर्ति पर ध्यान लगाते हैं। बाद में हम इसके काबिल हो जाते हैं कि हम बगैर मूर्ति के भी ब्रह्म के ध्यान में मग्न हो सकें। उसी प्रकार रामचंद्र जी का ध्यान लगाने के पहले आवश्यक है कि हनुमान जी का ध्यान लगाया जाये। हनुमान जी का ध्यान लगाना आसान है। हनुमानजी एक जीवंत देवता है।आज भी वह इस विश्व में निवास कर रहे हैं। उनकी मृत्यु नहीं हुई है।
सही बात तो यह है कि श्रीरामचंद्र जी की कल्पना बगैर हनुमान जी के संभव नहीं है। आप को श्री रामचंद्र जी के साथ नीचे बैठे हुए हनुमान जी अवश्य दिखाई देंगे। संभवत इसीलिए महर्षि तुलसीदास ने लिखा है “राम दुआरे तुम रखवारे”।
आइए अब हम इसका एक दूसरा विश्लेषण भी करते हैं।
राम पूर्वतापिन्युपनिषद में कहा गया है-
रमन्ते योगिनोअनन्ते नित्यानंदे चिदात्मनि।
इति रामपदेनासौ परंब्रह्मभिधीयते।
श्रीराम नाम के दो अक्षरों में ‘रा’ तथा ‘म‘ ताली की आवाज की तरह हैं, जो संदेह के पंछियों को हमसे दूर ले जाती हैं। ये हमें देवत्व शक्ति के प्रति विश्वास से ओत-प्रोत करते हैं। इस प्रकार वेदांत वैद्य जिस अनंत सच्चिदानंद तत्व में योगिवृंद रमण करते हैं उसी को परम ब्रह्म श्रीराम कहते हैं।
स्वयं गोस्वामी जी ने रामचरितमानस में राम ग्रंथों के विस्तार का वर्णन किया है-
नाना भांति राम अवतारा। रामायण सत कोटि अपारा॥
मनुष्य के जीवन में आने वाले सभी संबंधों को पूर्ण तथा उत्तम रूप से निभाने की शिक्षा देने वाले प्रभु श्री रामचन्द्रजी के समान दूसरा कोई चरित्र नहीं है। श्रीराम सदैव कर्तव्यनिष्ठा के प्रति आस्थावान रहे हैं। उन्होंने कभी भी लोक-मर्यादा के प्रति दौर्बल्य प्रकट नहीं होने दिया। इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में श्रीराम सर्वत्र व्याप्त हैं। कहा गया है-
एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट-घट में लेटा।
एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा।
अब आप बताइए कि जो राम घाट घाट में लेटा हुआ है, जो राम सब जगह फैला हुआ है उसके पास दरवाजा कहां होगा।
एक और वाणी है:-
हममें, तुममें, खड्ग, खंभ में, घट, घट व्यापत राम।।
इसे भक्त पहलाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यप से कहा था। इसका साफ-साफ अर्थ है की श्री राम हर जगह उपस्थित हैं। अतः यहां दरवाजा बनाने की आवश्यकता नहीं है। जब हर व्यक्ति के हृदय में श्री राम मौजूद हैं तो बीच में कोई और कैसे आ सकता है।
विभीषण जी की पहली मुलाकात हनुमान जी से श्रीलंका में हुई थी। विभीषण जी ने हनुमान जी को संत माना और कहा कि यह श्री रामचंद्र जी की कृपा है कि उनको हनुमान जी के दर्शन हुए। इसका अर्थ तो यह है की विभीषण जी मानते हैं अगर हनुमान जी का दर्शन होना है तो श्रीरामचंद्र जी की कृपा होनी चाहिए।
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥ २ ॥
मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है। परन्तु हे हनुमान्! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है; क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते॥२॥
जिस समय नल और नील समुद्र पर सेतु बना रहे थे उस समय वे हर पत्थर पर राम नाम लिखकर के समुद्र पर छोड़ देते थे। राम नाम लिखा हुआ पत्थर समुद्र पर तैरने लगता था। रामचंद्र जी ने भी एक पत्थर रखा परंतु वह डूब गया। रामचंद्र जी ने जब इसका कारण नल और नील से पूछा। उन्होंने जवाब दिया कि हम पत्थर पर आपका नाम लिख करके समुद्र मे छोड़ देते हैं। आपके नाम की महिमा से पत्थर तैरने लगता है। इस पत्थर आपका नाम नहीं लिखा इसलिए वह पत्थर डूब गया है।
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
भावार्थ:- मैं श्रीरघुनाथ जी के “राम” नाम की वंदना करता हूँ, जो कि अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा को प्रकाशित करने वाला है। “राम” नाम ब्रह्मा, विष्णु, महेश और समस्त वेदों का प्राण स्वरूप है, जो कि प्रकृति के तीनों गुणों से परे दिव्य गुणों का भंडार है।
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
भावार्थ:- “राम” नाम वह महामंत्र है जिसे श्रीशंकर जी निरन्तर जपते रहते हैं, जो कि जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होने के लिये सबसे आसान ज्ञान है। “राम” नाम की महिमा को श्रीगणेश जी जानते हैं, जो कि इस नाम के प्रभाव के कारण ही सर्वप्रथम पूजित होते हैं।
किसी ने यह भी कहा है की:-
राम से बड़ा राम का नाम।
राम नाम की महिमा अपरंपार है और यह वह महामंत्र है जो कि किसी को भी मुक्ति दिला सकता है। अतः यह कहना कि बगैर हनुमान जी को प्रसन्न किए हुए रामजी को प्रसन्न नहीं किया जा सकता है ,सही नहीं होगा।
अब प्रश्न यह उठता है की हनुमान चालीसा में “राम दुआरे तुम रखवारे | होत न आज्ञा बिनु पैसारे ” क्यों लिखा गया है।
किसी भी परिवार में एक मुखिया होता है। यह मुखिया पिता भी हो सकता है घर का बड़ा भाई भी हो सकता है कई घरों में माता भी मुखिया का कार्य करती हैं। घर के बाकी सभी सदस्य अपने अपने कार्य के लिए स्वतंत्र होते हैं और वह आवश्यकता पड़ने पर मुखिया के अधिकार का भी इस्तेमाल कर लेते हैं।
दुआरे अवधी बोली का शब्द है जो की मूल हिंदी शब्द द्वारे का अपभ्रंश है। द्वारे शब्द के तीन अर्थ होते हैं – दरवाज़े पर, दर तक, पास।
इसी प्रकार रखवारे शब्द का अर्थ होता है चौकीदार या रखने वाला।
यहां पर हम दोनों शब्दों के कम प्रचलित अर्थ को लेते हैं। जैसे कि द्वारे का अर्थ पास और रखवारे का अर्थ रखने वाला। अब अगर “राम दुआरे तुम रखवारे” का अर्थ लिया जाए तो कहा जायेगा कि तुमने अपने पास रामचंद्र जी को रखा हुआ है। अर्थात तुम्हारे हृदय में राम हैं। यह सत्य भी है। इस संबंध में यहां पर यह घटना की चर्चा करना उपयुक्त होगा।
लक्ष्मण जी को इस बात का ही अभिमान हो गया था कि वे श्री रामचंद्र जी के सबसे बड़े भक्त हैं। अकेले वे ही जो कि श्री रामचंद्र जी के साथ 14 वर्ष वन में रहे हैं। हर दुख दर्द में उन्होंने श्री राम जी का साथ दिया है। श्री राम जी को लक्ष्मण जी के अभिमान का आभास हो गया। और इसके उपरांत ही एक घटना घटी। घटना यू है :-
राम दरबार सजा हुआ था। चारों भाई, सीता जी हनुमान जी, गुरु वशिष्ट जी और सभी लोग अपने अपने आसनों पर विराजमान थे। श्री राम के राज्याभिषेक होने की प्रसन्नता में सीता मैया ने सभी को कुछ ना कुछ उपहार दिया। जिसमें श्री हनुमान जी को उन्होंने एक बहुमूल्य रत्नों की माला दी। हनुमान जी ने माला लेने के उपरांत उसके एक-एक मनके को तोड़कर के देखने लगे। फिर उन्होंने पूरी माला को तोड़ने के उपरांत फेंक दी।
सीता मैया के उपहार के अपमान को देखकर श्री लक्ष्मण जी बहुत क्रोधित हो गए। उन्होंने श्री हनुमान जी से पूछा कि आपको इन रत्नों के मूल्य के बारे में नहीं पता है। यह रत्न कितने कीमती हैं। इस पर हनुमानजी ने कहा, ‘ मैंने यह हार अमूल्य समझ कर लिया था। परंतु बाद में मैनें पाया कि इसमें कहीं भी राम- नाम नहीं है। मैं समझता हूं। कि कोई भी अमूल्य वस्तु राम के नाम के बिना अमूल्य नहीं हो सकती। अतः उसे त्याग देना चाहिए।’ लक्ष्मण जी ने पुनः हनुमान जी से कहा कि आपके बदन पर भी कहीं राम नाम नहीं लिखा है तो आपको अपना बदन भी तोड़ देना चाहिए।
लक्ष्मण की बात सुनकर हनुमानजी ने अपना वक्षस्थल तेज नाखूनों से फाड़ दिया और उसे लक्ष्मण जी को दिखाया।
हनुमान जी के फटे हुए वक्षस्थल में श्रीराम दिखाई दे रहे थे। लक्ष्मण जी इस बात को देखकर आश्चर्यचकित रह गए, और उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ।
यह कहानी एक दूसरे प्रकार से भी मिलती है। इसमें विभीषण एक रत्नों की माला मां सीता को भेंट की। उन्होंने यह माला अत्यंत मूल्यवान समझकर माता जानकी को भेंट की थी। उन्होंने यह भी सोचा था कि दूसरा कोई भी इतनी मूल्यवान माला मां को भेंट नहीं कर सकता है। श्री विभीषण जी के इस घमंड को माता सीता ने समझ लिया। माला पाने के उपरांत माता सीता ने श्री रामचंद्र जी से पूछा कि इस बहुमूल्य माला को मैं किसको दूं। श्री रामचंद्र जी ने कहा कि तुम सबसे ज्यादा जिसको मानती हो उसको यह माला दे दो। माता जानकी ने वह माला हनुमान जी को दे दी। इसके आगे की कहानी एक जैसी ही है।
इस प्रकार यह स्पष्ट श्री राम जी सदैव श्री हनुमान के साथ में रहते हैं अतः यह कहना कि श्री हनुमान जी ने अपने पास श्री राम जी को रख लिया है। हनुमान जी के ह्रदय के श्री रामचंद्र जी की मूर्ति से बगैर हनुमान जी की आज्ञा के मिल पाना असंभव है। अगर आपको हनुमान जी के हृदय में स्थित श्री राम जी से मिलना है तो आपको श्री हनुमान जी की आज्ञा लेनी पड़ेगी। अगर आपके अंदर वह सामर्थ्य है कि आप अपने हृदय के अंदर स्थित रामचंद्र जी को महसूस कर पा रहे हैं तो आप सीधे श्री रामचंद्र जी के पास पहुंच सकते हैं। जय हनुमान।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 173☆
☆ अनुभव और निर्णय☆
अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?
मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।
मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।
मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।
दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।
उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय है।
बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत् सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।
तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है।
वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष –समग्र
“चर और अचर के, जीव और जीवन के हर आयाम का समग्रता से प्राप्त अनुभव ही ज्ञान कहलाता है,” एक वक्ता ज्ञान को परिभाषित कर रहे थे।
मेरी आँखों के आगे तैरने लगे वे असंख्य चेहरे, जो नारी से परे रहकर जगत की दृष्टि में ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुँचे थे। विचार उठा, आधी दुनिया को तजकर अधूरी दुनिया से प्राप्त अनुभव समग्र कैसे हो सकता है?
जिन्हें आधी दुनिया कहते हैं, शेष आधी दुनिया भी उन्हीं की कोख से जन्म लेती है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना आज गुरुवार दि. 9 मार्च से आरम्भ होगी। यह श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को विराम लेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – रंगोत्सव
होली अर्थात विभिन्न रंगों का साथ आना। साथ आना, एकात्म होना। रंग लगाना अर्थात अपने रंग या अपनी सोच अथवा विचार में किसी को रँगना। विभिन्न रंगों से रँगा व्यक्ति जानता है कि उसका विचार ही अंतिम नहीं है। रंग लगानेवाला स्वयं भी सामासिकता और एकात्मता के रंग में रँगता चला जाता है। रँगना भी ऐसा कि रँगा सियार भी हृदय परिवर्तन के लिए विवश हो जाए। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,
सारे विरोध उनके तिरोहित हुए,
भाव मेरे मन के पुरोहित हुए,
मतभेदों की समिधा,
संवाद के यज्ञ में,
सद्भाव के घृत से,
सत्य के पावक में होम हुई,
आर-पार अब
एक ही परिदृश्य बसता है,
मेरे मन के भावों का
उनके ह्रदय में,
उनके विचार का
मेरे मानसपटल पर
प्रतिबिंब दिखता है…!
होली या फाग हमारी सामासिकता का इंद्रधनुषी प्रतीक है। यही कारण है कि होली क्षमापना का भी पर्व है। क्षमापना अर्थात वर्षभर की ईर्ष्या मत्सर, शत्रुता को भूलकर सहयोग- समन्वय का नया पर्व आरंभ करना।
जाने-अनजाने विगत वर्षभर में किसी कृत्य से किसी का मन दुखा हो तो हृदय से क्षमायाचना। आइए, शेष जीवन में हिल-मिलकर अशेष रंगों का आनंद उठाएँ, होली मनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से आरम्भ होगी। यह श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को विराम लेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 24 – मित्रता की स्वर्ण जयंती ☆ श्री राकेश कुमार ☆
सन ’72 में गोविंद राम सक्सेरिया महाविद्यालय, जबलपुर में अध्यन के लिए प्रवेश लिया, तो कक्षा के सभी सहपाठी अनजान थे, क्योंकि पाठशाला में विज्ञान से उत्तीर्ण होकर वाणिज्य विषय चयनित किया था।
विगत दिनों जबलपुर के पुराने सहपाठी से विदेश में पचास घंटे साथ व्यतीत करने का अवसर प्राप्त हुआ। ये संयोग ही था कि मित्रता को भी पचास वर्ष पूरे हुए हैं।
महाविद्यालय में साथ बिताए हुए पांच वर्ष की स्मृतियों को मानस पटल पर आने में कुछ क्षण ही लगे। मानव प्रवृत्ति ऐसी ही होती हैं, जब कोई पुराना मित्र या पुराने स्थान से संबंधित कोई भी वस्तु सामने होती है, तो मन के विचार प्रकाश की गति से भी तीव्र गति से दिमाग में आकर स्फूर्ति प्रदान कर देते हैं। हम अपने आप को उस समय की आयु का समझ कर हाव भाव व्यक्त करते हैं। पुरानी यादें, पुराने मित्र या पुरानी शराब का नशा कुछ अलग प्रकार का होता है।
हम दोनों मित्रों ने अगस्त 88 में जबलपुर से विदा ली थी। मित्र अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में जीवकोपार्जन के लिए निकल गए थे, और हमें पदोन्नत होने पर इस्पात नगरी, भिलाई जाना पड़ा था।
मित्र के साथ बिताए हुए समय का केंद्र बिंदु तो जबलपुर ही था, परंतु उनके वर्तमान देश अमेरिका के बारे में भी चर्चाएं होना भी स्वाभाविक है। बातचीत में मित्र ने बताया कि- “US is land full of Golden opportunities and they want each and every one in US शुड 1. Be a homeowner and 2. Be a business owner.”
क्योंकि ये देश ही तो विश्व में पूंजीवाद का सिरमौर है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 178☆ शिवोऽहम्… (3)
निर्वाण षटकम् का हर शब्द मनुष्य के अस्तित्व पर हुए सारे अनुसंधानों से आगे की यात्रा कराता है। इसका सार मनुष्य को स्थूल और सूक्ष्म की अवधारणा के परे ले जाकर ऐसे स्थान पर खड़ा कर देता है जहाँ ओर से छोर तक केवल शुद्ध चैतन्य है। वस्तुत: लौकिक अनुभूति की सीमाएँ जहाँ समाप्त होती हैं, वहाँ से निर्वाण षटकम् जन्म लेता है।
तृतीय श्लोक के रूप में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का परिचय और विस्तृत होता है,
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।3।।
अर्थात न मुझे द्वेष है, न ही अनुराग। न मुझे लोभ है, न ही मोह। न मुझे अहंकार है, न ही मत्सर या ईर्ष्या की भावना। मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से परे हूँ। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ , मैं शिव हूँ।
राग मनुष्य को बाँधता है जबकि द्वेष दूरियाँ उत्पन्न करता है। राग-द्वेष चुंबक के दो विपरीत ध्रुव हैं। चुंबक का अपना चुंबकीय क्षेत्र है। अनेक लोग, समान और विपरीत ध्रुवों के निकट आने से उपजने वाले क्रमश: विकर्षण और आकर्षण तक ही अपना जीवन सीमित कर लेते हैं। यह मनुष्य की क्षमताओं की शोकांतिका है।
इसी तरह मोह ऐसा खूँटा होता है जिससे मनुष्य पहले स्वयं को बाँधता है और फिर मोह मनुष्य को बाँध लेता है। लोभ मनुष्य को सीढ़ी दर सीढ़ी मनुष्यता से नीचे उतारता जाता है। इनसे मुक्त हो पाना लौकिक से अलौकिक होने, तमो गुण से वाया रजो गुण, वाया सतो गुण, गुणातीत होने की यात्रा है।
एक दृष्टांत स्मरण हो आ रहा है। संन्यासी गुरुजी का एक नया-नया शिष्य बना। गुरुजी दैनिक भ्रमण पर निकलते तो उसे भी साथ रखते। कोई न कोई शिक्षा भी देते। आज भी मार्ग में गुरुजी शिष्य को अपरिग्रह की शिक्षा देते चल रहे थे। संन्यास और संचय का विरोधाभास समझा रहे थे। तभी शिष्य ने देखा कि गुरुजी एक छोटे-से गड्ढे के पास रुक गये, मानो गड्ढे में कुछ देख लिया हो। अब गुरुजी ने हाथ से मिट्टी उठा-उठाकर उस गड्ढे को भरना शुरू कर दिया। शिष्य ने झाँककर देखा तो पाया कि गड्ढे में कुछ स्वर्णमुद्राएँ पड़ी हैं और गुरुजी उन्हें मिट्टी से दबा रहे हैं। शिष्य के मन में विचार उठा कि अपरिग्रह की शिक्षा देनेवाले गुरुजी के मन में स्वर्णमुद्राओं को सुरक्षित रखने का विचार क्यों उठा? शिष्य का प्रश्न गुरुजी पढ़ चुके थे। हँसकर बोले, “पीछे आनेवाले किसी पथिक का मन न डोल जाए, इसलिए मैं मिट्टी पर मिट्टी डाल रहा हूँ।”
मिट्टी पर मिट्टी डालने की लौकिक गतिविधि में निहितार्थ गुणातीत होने की अलौकिकता है।
गतिविधि के संदर्भ में देखें तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जीवन के चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से हर पुरुषार्थ की विवेचना अनेक खंडों के कम से कम एक ग्रंथ की मांग करती है। यदि इनके प्रचलित सामान्य अर्थ तक ही सीमित रहकर भी विचार करें तो धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष की लालसा न करना याने इन सब से ऊपर उठकर भीतर विशुद्ध भाव जगना। ‘विशुद्ध’, शब्द लिखना क्षण भर का काम है, विशुद्ध होना जन्म-जन्मांतर की तपस्या का परिणाम है।
परिणाम कहता है कि तुम अनादि हो पर आदि होकर रह जाते हो। तुम अनंत हो पर अपने अंत का साधन स्वयं जुटाते हो। तुम असीम हो पर तन और मन की सीमाओं में बँधे रहना चाहते हो। तुम असंतोष और क्षोभ ओढ़ते हो जबकि तुम परम आनंद हो।
राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन सब से हटकर अपने अस्तित्व पर ध्यान केंद्रित करो। तुम अनुभव करोगे अपना अनादि रूप, अनुभूति होगी अंतर्निहित ईश्वरीय अंश की, अपने भीतर के चेतन तत्व की। तब शव होने की आशंका समाप्त होने लगेगी, बचेगी केवल संभावना, जो प्रति पल कहेगी ‘शिवोऽहम्।‘
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 कृपया आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना जारी रखें। होली के बाद नयी साधना आरम्भ होगी 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
दरिद्रता शब्द के अनेक पर्याय वाची शब्द हैं जिनमें – दीन, अर्थहीन, अभाव ग्रस्त, गरीब, कंगाल, निर्धन आदि। जो दारिद्र्य के पर्याय माने जाते है।
प्राय: दरिद्रता का अर्थ निर्धनता से लगाया जाता है। जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति तथा घर अन्न-धन से खाली होता है, विपन्नता की स्थिति में जीवन यापन करने वाले परिवार को ही दरिद्रता की श्रेणी में रखा जाता है। ऐसे लोगों को प्राय: समाज के लोग हेय दृष्टि से देखते है। यदि हमें अन्न तथा धन के महत्व को समझना है तो हमें पौराणिक कथाओं के तथ्य को शबरी, सुदामा, महर्षि कणाद्, कबीर, रविदास, लालबहादुर शास्त्री के तथा द्रौपदी के अक्षयपात्र कथा और उनके जीवन दर्शन को समझना, श्रवण करना तथा उनके जीवन शैली का अध्ययन करना होगा। दरिद्रता के अभिशाप से अभिशप्त प्राणी का कोई मान सम्मान नहीं, वह जीवन का प्रत्येक दिन त्राषद परिस्थितियों में बिताने के लिए बाध्य होता है। ऐसे परिवार में दुख, हताशा, निराशा डेरा डाल देते है। उससे खुशियों के पल रूठ जाते हैं। दुख और भूख की पीड़ा से बिलबिलाता परिवार दया तथा करूणा का पात्र नजर आता है।
कहा भी गया है कि-
बुभुक्षितः किं न करोति पापं।
अर्थात् दरिद्रता की कोख से जन्मी भूख की पीड़ा से पीड़ित मानव कौन से जघन्यतम कृत्य करने के लिए विवश नहीं होता।
लेकिन वही परिवार जब श्रद्धा, आत्मविश्वास और भरोसे के भावों को धारण कर लेता है और भक्ति तथा समर्पण पर उतर आता है तो भगवान को भी मजबूर कर देता है झुकने के लिए और भगवत पद धारण कर लेता है। कम से कम सुदामा और कृष्ण तथा शबरी का प्रसंग त़ो यही कहता है।—-
“देख सुदामा की दीन दशा करुणा करके करुणानिधि रोये
पानी परात को हाथ छुओ नहीं नैनन के जल से पग धोये !”
जो भगवान भक्ति की पराकाष्ठा की परीक्षा लेने हेतु वामन के रूप में राजा बलि की पीठ नाप लेते हैं वहीं भगवान दीन हीन सुदामा के पैर आंसुओं से धोते हैं। शबरी के जूठे बेर खाते नजर आते हैं।
भले ही इस कथा के तथ्य अतिशयोक्ति पूर्ण के जान पड़ते हों, लेकिन भक्त के पांव पर गिरे ईश्वर के मात्र एक बूंद प्रेमाश्रु भक्त और भगवान के संबंधों की व्याख्या के लिए पर्याप्त है यहाँ तुलना मात्रा से नहीं भाव की प्रगाढता से की जानी चाहिए। पौराणिक मान्यता के अनुसार लक्ष्मी और दरिद्रता दोनों सगी बहन है दरिद्रता के मूल में अकर्मण्यता प्रमाद तथा आलस्य समाहित है, जबकि संपन्नता के मूल में कठोर परिश्रम, लगन, कर्मनिष्ठा समाहित है। कर्मनिष्ठ अपने श्रम की बदौलत अपने भाग्य की पटकथा लिखता है। दरिद्रता इंसान को आत्मसंतोषी बना देती है। जबकि धन की भूख इंसान में लोभ जगाती है। एक तरफ दरिद्रता में संतोष का गुण है, वहीं लक्ष्मी में अहंकार तथा लोभ रूपी अवगुण भी है, जो इंसान को लालची और बेइमान बना देती है इस लिए कुछ मायनों में दरिद्रता व्यक्ति के आत्मसम्मान को मार देती है, उसमें स्वाभिमान के भाव को जगाती भी है ,इसी लिए सुदामा ने भीख मांगकर खाना स्वीकार किया लेकिन भगवान से उन्हें कुछ भी मांगना स्वीकार्य नहीं था।
और तो और कबीर साहब धनवान और निर्धन की अध्यात्मिक परिभाषा लिखते हुए कहते हैं कि
कबीरा सब जग निर्धना, धनवन्ता नही कोई ।
धनवन्ता सोई जानिए, राम नाम धन होई ॥,
इसीलिए रहीम दास जी ने लिखा
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दिनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।
अर्थात् दरिद्र की सेवा मानव को दीन बंधु ,दीनदयाल, दीनानाथ जैसी उपाधियों से विभूषित कर देती है। इतना ही नहीं दीन दुखियों की सेवा में निरंतर रत रहने वाला मानव आत्मिक शांति के साथ सदैव सुखी रहता है।
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 11 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
☆
जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
☆
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।
☆
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
☆
अर्थ:–
हे हनुमान जी आपने बाल्यावस्था में ही हजारों योजन दूर स्थित सूर्य को मीठा फल जानकर खा लिया था।
आपने भगवान राम की अंगूठी अपने मुख में रखकर विशाल समुद्र को लाँघ गए थे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
संसार में जितने भी दुर्गम कार्य हैं वे आपकी कृपा से सरल हो जाते हैं।
भावार्थ:-
इन चौपाइयों में हनुमान जी की शक्ति के बारे में बताया गया है। सबसे पहले यह बताया गया है कि जन्म के कुछ दिन बाद ही हनुमान जी ने 1000 युग-योजन की दूरी पर स्थित सूर्य देव को अच्छा फल समझकर खा लिया था।
हनुमान जी को समस्त शक्तियां प्राप्त हैं। उनके ह्रदय में प्रभु विराजमान है। समस्त शक्तियां उनके पास है इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रभु की मुद्रिका को मुंह में रखकर उन्होंने समुद्र को पार कर लिया था।
दुनिया में जितने भी दुर्गम कार्य हैं वे दूसरों के लिए कठिन हैं राम कृपा से तथा हनुमान जी की कृपा से आसान हो जाते हैं।
संदेश:-
श्री हनुमान जी जैसी दृढ़ता सभी के अंदर होनी चाहिए। अगर आपके अंदर इतनी दृढ़ता होगी तब ही सूर्य को निगलने अर्थात कठिन से कठिन कार्य को करने की क्षमता आपके अंदर आ पाएगी।
मन में अगर किसी कार्य को करने का भाव हो तो वह कितना ही मुश्किल हो पूरा हो ही जाता है।
इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों से सूर्यकृपा विद्या, ज्ञान और प्रतिष्ठा मिलती है। दूसरी और तीसरी चौपाई के बार-बार वाचन से महान से महान संकट से मुक्ति मिलती है और सभी समस्याओं का अंत होता है।
विवेचना:-
पहली दो चौपाइयों में हनुमान जी के बलशाली और कार्य कुशल होने के बारे में बताया गया है। तीसरी चौपाई में यह कहा गया है कि इस जगत में जितने भी कठिन से कठिन कार्य हैं वे सभी भी आपके लिए अत्यंत आसान हैं। इस प्रकार उदाहरण दे कर के हनुमान जी को सभी कार्यों के करने योग्य बताया गया है।
संकट मोचन हनुमान अष्टक में कहा भी गया है:-
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नहीं जात है टारो।
(संकटमोचन हनुमान अष्टक)
इसका भी अर्थ यही है की है हनुमान जी आप समस्त कार्यों को करने में समर्थ है। ईश्वर की जिस पर कृपा होती है सभी कार्यों को करने में समर्थ रहता है। भगवान श्री राम की कृपा हमारे बजरंगबली पर थी। इसलिए हमारे बजरंगबली सभी कार्यों को करने में समर्थ है।
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ॥
कुछ इसी तरह का श्रीरामचरितमानस के बालकांड में भी लिखा हुआ है:-
मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।।2।।
(रामचरितमानस /बालकांड/सोरठा क्रमांक 2)
रामचंद्र जी की कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है। कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु भगवान मुझ पर द्रवित हों (दया करें)॥2॥
अब हम इस विवेचना की पहली चौपाई या यूं कहें तो हनुमान चालीसा के अट्ठारहवीं चौपाई पर आते हैं।
जुग सहस्र जोजन पर भानू | लील्यो ताहि मधुर फल जानू ||
यहां पर सबसे पहले गोस्वामी तुलसीदास जी ने सूर्य लोक से पृथ्वी की दूरी के बारे में बताया है। उनका कहना है कि सूर्य से पृथ्वी एक युग सहस्त्र योजन दूरी पर है। सूर्य से पृथ्वी की दूरी विश्व में सबसे पहले बाराहमिहीर नामक भारतीय वैज्ञानिक ने बताया था। यह खोज उनके द्वारा 505 ईसवी में की गई थी। उन्होंने अपनी किताब सूर्य सिद्धांत में यह दूरी बताई है। वर्तमान में यह मूल पुस्तक उपलब्ध नहीं है परंतु उसको अन्य विद्वानों ने 800 ईसवी तक लिखा है।
बाराहमिहीर ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। बाराहमिहीर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। उज्जैन में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा।
हनुमान चालीसा में दिए गए सूर्य की दूरी का अर्थ निम्नवत है।
सूर्य सिद्धांत के अनुसार एक योजन’ का मतलब 8 मील से होता है (1 मील में 1.6 किमी होते हैं)। अब अगर 1 योजन को युग और सहस्त्र से गुणा कर दिया जाए तो 8 x 1.6 x 12000 x 1000=15,36,00000 (15 करोड़ 36 लाख किमी),
bbc.com के अनुसार सूर्य की औसत दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है।
इस घटना का उल्लेख संकटमोचन हनुमान अष्टक में भी मिलता है। संकटमोचन हनुमान अष्टक का पाठ बजरंगबली के भक्तों में अत्यंत लोकप्रिय है। इसमें लिखा है :-
बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहूँ लोक भयो अँधियारो |
ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो ||
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो || 1 ||
हनुमान जी द्वारा सूर्य को निगल जाने की घटना को हनुमत पुराण के पृष्ठ क्रमांक 23 और 24 पर दिया गया है। इस ग्रंथ में लिखा है कि माता अंजना अपने प्रिय पुत्र हनुमान जी का लालन-पालन बड़े ही मनोयोग पूर्वक करती थी। एक बार की बात है कि वानर राज केसरी और माता अंजना दोनों ही राजमहल में नहीं थे। बालक हनुमान पालने में झूल रहे थे। इसी बीच उनको भूख लगी और उनकी दृष्टि प्राची के क्षितिज पर गई। अरुणोदय हो रहा था। उन्होंने सूर्यदेव को लाल रंग का फल समझा। बालक हनुमान, शंकर भगवान के 11 वें रुद्र के अवतार थे। रुद्रावतार होने के कारण उनमें अकूत बल था। वे पवन देव के पुत्र थे अतः उनको पवनदेव ने पहले ही उड़ने की शक्ति प्रदान कर दी थी। हनुमान जी ने छलांग लगाई और अत्यंत वेग से आकाश में उड़ने लगे। पवन पुत्र रुद्रावतार हनुमान जी सूर्य को निगलने के लिए चले जा रहे थे। पवन देव ने जब यह दृश्य देखा तो हनुमान जी की रक्षा हेतु पीछे-पीछे चल दिए। हवा के झोंकों से पवन देव हनुमान जी को शीतलता प्रदान कर रहे थे। दूसरी तरफ जब सूर्य भगवान ने देखा की पवनपुत्र उनकी तरफ आ रहे हैं तो उन्होंने भी अपने को शीतल कर लिया। हनुमान जी सूर्य देव के पास पहुंचे और वहां पर सूर्य देव के साथ क्रीड़ा करने लगे।
उस दिन ग्रहण का दिन था। राहु सूर्य देव को अपना ग्रास बनाने के लिए पहुंचा। उसने पाया कि भुवन भास्कर के रथ पर भुवन भास्कर के साथ एक बालक बैठा हुआ है। राहु बालक की चिंता ना कर सूर्य भगवान को ग्रास करने के लिए आगे बढ़ा ही था कि हनुमान जी ने उसे पकड़ लिया। बालक हनुमान की मुट्ठी में राहु दबने लगा। वह किसी तरह से अपने प्राण बचाकर भागा। उन्होंने इस बात की शिकायत इंद्रदेव जी की से की। इंद्रदेव ने नाराज होकर हनुमान जी के ऊपर बज्र का प्रहार किया जो हनुमान जी की बाईं ढोड़ी पर लगा। जिससे उनकी हनु टूट गयी। इस चोट के कारण हनुमान जी मूर्छित हो गए। हनुमान जी को मूर्छित देख वायुदेव अत्यंत कुपित हो गए। वे अपने पुत्र को अंक में लेकर पर्वत की गुफा में प्रविष्ट हो गए।
वायु देव के बंद होने से सभी जीव धारियों के प्राण संकट में पड़ गए। सभी देवता गंधर्व नाग आदि जीवन रक्षा के लिए ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी सब को लेकर वायुदेव जिस गुफा में थे उस गुफा पर पहुंचे। ब्रह्मा जी ने प्यार के साथ हनुमान जी को स्पर्श किया और हनुमान जी की मुर्छा टूट गई। अपने पुत्र को जीवित देख कर के पवन देव पहले की तरह से प्राणवायु को बहाने लगे।
इस समय सभी देवता उपस्थित थे। सभी ने अपनी अपनी तरफ से हनुमान जी को वर दिया। जैसे कि ब्रह्मा जी ने कहा कि उनके ऊपर ब्रह्मास्त्र का असर नहीं होगा। इंद्र देव ने कहा कि हनुमान जी के ऊपर उनके वज्र का असर नहीं होगा आदि, आदि।
इस प्रकार ब्रह्मा जी के नेतृत्व में सभी देवताओं ने मिलकर हनुमान जी को बहुत सारे आशीर्वाद एवं वरदान दिए।
वाल्मीकि रामायण में भी इस घटना का वर्णन है। किष्किंधा कांड के 66वें सर्ग समुद्र पार करने के लिए जामवंत जी हनुमान जी को उत्साहित करते हैं। यह उत्साह बढ़ाने के दौरान वे हनुमान जी द्वारा सूर्य को सूर्य लोक में जाने की बात को बताते हैं।
तावदापपत स्तूर्णमन्तरिक्षं महाकपे।
क्षिप्तमिन्द्रेण ते वज्रं कोपाविष्टेन धीमता।।
(वा रा /कि का/66/.23 )
तदा शैलाग्रशिखरे वामो हनुरभज्यत।
ततो हि नामधेयं ते हनुमानिति कीर्त्यते।।
(वा रा /कि का/66/.23 )
अर्थ:- एक दिन प्रातः काल के समय सूर्य भगवान को उदय हुआ देख तुमने उन्हें कोई फल समझा। उस फल को लेने की इच्छा से तुम कूदकर आकाश में पहुंचे और 300 योजन ऊपर चले गए। वहां सूर्य की किरणों के ताप से भी तुम नहीं घबराए। हे ! महाकपि उस समय तुम को आकाश में जाते देख इंद्र ने क्रोधवश तुम्हारे ऊपर बज्र मारा। तब तुम पर्वत के शिखर पर आकर गिरे। तुम्हारी बायीं और की ठोड़ी टूट गई।
इसके बाद का वर्णन वाल्मीकि रामायण में भी वैसा ही है जैसा कि हनुमत पुराण में है। इस वर्णन को हम आपको बता चुके हैं।
अर्थात वाल्मीकि रामायण से यह प्रतीत होता है हनुमान जी पृथ्वी से 300 योजन ऊपर तक पहुंच गए थे। वहां पर इंद्र ने उनके ऊपर बज्र प्रहार किया। ऐसा प्रतीत होता है इंद्रदेव की प्रवृत्ति अमेरिका जैसी ही थी जिस तरह से अमेरिका किसी दूसरे देश को आगे नहीं बढ़ने देता है वैसे ही इंद्र देव बालक हनुमान को सूर्य तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे। परंतु इस समय पवन देव ने अपनी शक्ति दिखाई। जिसके कारण भगवान ब्रह्मा ने बीच-बचाव कर शांति की प्रक्रिया को स्थापित किया।
अब हम चर्चा करेंगे वर्तमान समय के बुद्धिमान लोग इस घटना के बारे में क्या कहते हैं और उसका उत्तर क्या है।
वर्तमान समय के अति बुद्धिमान प्राणी कहते हैं पृथ्वी से सूर्य 109 गुना बड़ा है। पृथ्वी पर रहने वाला कोई प्राणी पृथ्वी से बड़ा नहीं हो सकता है अतः यह कैसे संभव है कि पृथ्वी पर रहने वाला कोई प्राणी सूर्य को अपने मुंह में कैद कर ले। इसका उत्तर हनुमत पुराण में अत्यंत स्पष्ट रूप से है। हनुमत पुराण पढ़ने से यह प्रतीत होता है हनुमान जी ने बाल अवस्था में ही पवन और सूर्य देव की सहायता से सूर्य लोक पर कब्जा कर लिया था। भगवान सूर्य के साथ जो उस समय सूर्य लोक के स्वामी थे मित्रवत व्यवहार बना लिया था। यह बात राहु और इंद्र को बुरी लगी। इंद्र के पास अति भयानक अस्त्र था जिसे वज्र कहते हैं। उससे उन्होंने हनुमान जी पर आक्रमण किया। इस आक्रमण को हनुमान जी बर्दाश्त नहीं कर सके। हनुमान जी के पिता पवन देव ने फिर अपने बल का इस्तेमाल कर पूरे ब्रह्मांड को विवश कर दिया कि वह हनुमान जी के सामने नतमस्तक हो। ब्रह्मांड के सभी बड़े देवता आये और उन्होंने अपनी अपनी तरफ से वरदान दिया। जैसे भगवान ब्रह्मा और इंद्र देव ने अपने हथियार ब्रह्मास्त्र और वज्र का उन पर असर ना होने का वरदान दिया। यह भी कहा जा सकता है कि भगवान ब्रह्मा और इंद्र देव ने हनुमान जी के ऊपर कभी भी ब्रह्मास्त्र और वज्र को का इस्तेमाल न करने का आश्वासन दिया।
रामचरितमानस काव्य है काव्य में कवि अपनी भाषा-शैली के अनुसार विभिन्न अलंकार आदि का प्रयोग करते हैं रामचरितमानस में भी इन सब का प्रयोग किया गया है। बाल्मीकि रामायण उस समय का ग्रंथ है जिस समय रामचंद्र जी अयोध्या में पैदा हुए तथा राज किया। इस प्रकार हम बाल्मीकि रामायण को शत प्रतिशत सही मान सकते हैं।
श्री हनुमान चालीसा की अगली चौपाई है :-
“प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं |
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ||”
इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी ने प्रभु द्वारा दी गई मुद्रिका को अपने मुख में रख लिया और समुद्र को पार कर गए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
अब प्रश्न उठता है कि महावीर हनुमान जी ने लंका जाते समय मुद्रिका को अपने मुंह में क्यों रखा। मुद्रिका उनके पास पहले जिस स्थान पर थी उसी स्थान पर क्यों नहीं रहने दिया। आइए हम इस प्रश्न के उत्तर को खोजने का प्रयास करते हैं।
हनुमत पुराण के पेज क्रमांक 73 पर लिखा हुआ है कि सीता जी की खोज के लिए निकलते समय श्री राम जी ने हनुमान जी से कहा “वीरवर तुम्हारा उद्योग, धैर्य एवं पराक्रम और सुग्रीव का संदेश इन सब बातों से लगता है कि निश्चय ही तुमसे मेरे कार्य की सिद्धि होगी। तुम मेरी यह अंगूठी ले जाओ। इस पर मेरे नामाक्षर खुदे हुए हैं। इसे अपने परिचय के लिए तुम एकांत में सीता को देना। कपिश्रेष्ठ इस कार्य में तुम ही समर्थ हो। मैं तुम्हारा बुध्दिबल अच्छी तरह से जानता हूं। अच्छा जाओ तुम्हारा कल्याण हो।
इसके उपरांत पवन कुमार ने प्रभु की मुद्रिका अत्यंत आदर पूर्वक अपने पास रख ली। और उनके चरण कमलों में अपना मस्तक रख दिया। इसका अर्थ स्पष्ट है कि महावीर हनुमान जी के पास उस अंगूठी को रखने के लिए मुंह के अलावा कोई और स्थान भी हो सकता है। हो सकता है कि उन्होंने अपने वस्त्र में उस अंगूठी को बांध लिया हो।
रामचरितमानस में भी यह प्रसंग किष्किंधा कांड में मिलता है। किष्किंधा कांड के 22वें दोहे के बाद एक से सात चौपाई तक इस बात का वर्णन है।
पाछें पवन तनय सिरु नावा।
जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥
परसा सीस सरोरुह पानी।
करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥5॥
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु।
कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥
हनुमत जन्म सुफल करि माना।
चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥6॥
भावार्थ:- सबके पीछे पवनसुत श्री हनुमान्जी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होंने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी और कहा कि बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर तुम शीघ्र लौट आना। हनुमान्जी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चल दिए ॥6॥
बाल्मीकि बाल्मीकि रामायण में भी इस घटना को ज्यों का त्यों लिखा गया है। यह घटना वाल्मीकि रामायण किष्किंधा कांड के 44वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 12 13 14 एवं 15 में वर्णित है:-
ददौ तस्य ततः प्रीतस्स्वनामाङ्कोपशोभितम्।
अङ्गुलीयमभिज्ञानं राजपुत्र्याः परन्तपः।।
अनेन त्वां हरिश्रेष्ठ चिह्नेन जनकात्मजा।
मत्सकाशादनुप्राप्तमनुद्विग्नाऽनुपश्यति।।
व्यवसायश्च ते वीर सत्त्वयुक्तश्च विक्रमः।
सुग्रीवस्य च सन्देशस्सिद्धिं कथयतीव मे।।
स तद्गृह्य हरिश्रेष्ठः स्थाप्य मूर्ध्नि कृताञ्जलिः।
वन्दित्वा चरणौ चैव प्रस्थितः प्लवगोत्तमः।।
(वा रा/ कि का/44./12,13,14,15)
यहां भी वर्णन बिल्कुल रामचरितमानस जैसा ही है। पन्द्रहवें श्लोक में लिखा है की वानर श्रेष्ठ हनुमान जी ने उस अंगूठी को माथे पर चढ़ाया। श्री रामचंद्र जी के चरणों को हाथ जोड़कर प्रणाम करके महावीर हनुमान जी चल दिए।
तीनों ग्रंथों में कहीं पर यह नहीं लिखा है की हनुमानजी ने श्री रामचंद्र जी से अंगूठी लेने के उपरांत उसको कहां पर रखा। यह स्पष्ट है कि उन्होंने अंगूठी को अपने पास रखा अर्थात अपने वस्त्रों में उसको सुरक्षित किया।
हनुमान जी जब समुद्र को पार करने लगे तो सभी ग्रंथों में यह लिखा है कि उन्होंने वायु मार्ग से समुद्र को पार किया हनुमान जी के पास इस बात की शक्ति थी कि वह हवाई मार्ग से गमन कर सकते थे। जब वे बाल काल में धरती से सूर्य तक की दूरी उड़ कर जा सकते थे तो समुद्र के किनारे से लंका तक जाने की दूरी तो अत्यंत कम ही थी। इतनी लंबी उड़ान उस समय धरती पर लंकापति रावण पक्षीराज जटायु और संपाती ही कर सकते थे। वायु मार्ग से उड़ते समय इस बात का डर था की वायु के घर्षण के कारण अंगूठी वस्त्रों से निकल सकती है। अंगूठी को बचाने के लिए उन्होंने सबसे सुरक्षित स्थान अपने मुख में अंगूठी को रख लिया। हनुमान जी ने अपने वस्त्रों से उस अंगूठी को निकालकर मुंह में सिर्फ सुरक्षा के कारणों से रखा था।
हनुमानजी को योग की अष्ट सिद्धियां प्राप्त थी। इन आठ सिद्धियों के नाम है:- अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, इशीता, वशीकरण। उपरोक्त शक्ति में से लघिमा ऐसी शक्ति है जिसके माध्यम से उड़ा जा सकता है। हनुमानजी महिमा और लघिमा शक्ति के बल पर समुद्र पार कर गए थे।
विमान को संचालित करने के लिए गुरुत्वाकर्षण विरोधी (anti-gravitational) शक्ति की आवश्यकता होती है और ‘लघिमा’ की (anti-gravitational) शक्ति प्रणाली अनुरूप होती है। लघिमा (laghima) को संस्कृत में लघिमा सिद्धि कहते हैं और इंग्लिश में इसे लेविटेशन (levitation) कहा जाता है। लघिमा योग के अनुसार आठ सिद्धियों में से एक सिद्धि है।
दैनिक भास्कर के डिजिटल एडिशन में आज से 8 वर्ष पुराना एक लेख है। जिसमें बताया गया है कि वाराणसी के चौका घाट पर मूछों वाले हनुमान जी का मंदिर है। इस मंदिर के बनने की कहानी भी हनुमान जी के शक्ति को बयान करती है। 18वीं शताब्दी में वाराणसी का डी एम हेनरी नाम का अंग्रेज था। वाराणसी के वरुणा नदी के किनारे रामलीला होती थी। हेनरी वहां पहुंचा। उसने रामलीला को बंद कराने का प्रयास किया। जिसका कि वहां के निवासियों ने विरोध किया। हेनरी ने चैलेंज किया कि आप लोग कहते हैं कि हनुमान जी ने समुद्र को छलांग लगाकर पार कर लिया था। अगर आपका हनुमान इस नदी को छलांग लगाकर पार कर ले तो मैं मान लूंगा यह रामलीला का उत्सव सही है। लोगों ने इस तरह का टेस्ट ना लेने की बात की परंतु वह टेस्ट लेने पर अड़ा रहा। हनुमान बने पात्र को आखिर कूदना पड़ा। कूदने के लिए जब उन्होंने श्री रामचंद्र जी बने पात्र से आज्ञा मांगी तो उन्होंने कहा ठीक है। तुम कूद करके नदी पार कर लो। परंतु पीछे मुड़कर मत देखना। हनुमान बने पात्र ने नदी कूदने का प्रयास किया। परंतु जब दूसरी तरफ पहुंच गया तो उसने पीछे मुड़कर देख लिया और वही पत्थर की तरह से जम गया। आज उस स्थान पर मूछों वाले हनुमान जी का मंदिर बना हुआ है।
महाबली हनुमान जी धरती से सूर्य लोक तक जाने के लिए समर्थ है। अतः यह सोचना कि समुद्र के किनारे से लंका तक समुद्र को पार करके नहीं जा सकते हैं मूर्खता की पराकाष्ठा होगी। अतः उनका समुद्र को पार करके जाना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है।
हनुमान चालीसा की अगली चौपाई है :-
“दुर्गम काज जगत के जेते |
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते “
इसका शाब्दिक अर्थ दो तरह से कहा जा सकता है। पहला अर्थ है जगत के बाकी लोगों के लिए जो कार्य दुर्गम होते हैं आपके लिए अत्यंत आसान होते हैं। इसका दूसरा अर्थ भी है संसार के दुर्गम कार्य भी आपकी कृपा से आसान हो जाते हैं। मुझे दूसरा अर्थ ज्यादा सही लग रहा है। अगर हनुमान जी की आप पर कृपा है तो आप मुश्किल से मुश्किल कार्य भी आसानी से कर सकते हैं। जैसे कि अभी ऊपर रामलीला के प्रसंग में मैंने बताया कि रामलीला के एक साधारण से पात्र पर जब हनुमान जी की कृपा हो गई तो उसने वरुणा नदी को पार कर लिया। आपकी कृपा जिस व्यक्ति पर है वह किसी भी कार्य को बगैर किसी परेशानी के आराम से कर सकता है। चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी कह रहे हैं कि कोई भी कार्य को करने के लिए आपको प्रयास तो करना पड़ेगा। चाहे वह काम आसान हो और चाहे कठिन। परंतु केवल प्रयास करने से कार्य नहीं हो जाएगा। काम होने के लिए ईश्वर की कृपा आवश्यक है। अगर हनुमान जी की कृपा आप पर है तो कार्य को होने से कोई भी रोक नहीं सकता है। अगर आप इस घमंड में हैं कि आप बहुत शक्तिशाली हैं आपका रसूख समाज में बहुत ज्यादा है और आप किसी भी कार्य को करने में समर्थ हैं तो यह आपकी भूल है। हो सकता है आप कार्य करने को आगे बढ़े और जहां आपको कार्य करना है उस जगह तक जाने का संसाधन ही आपको ना मिल पाए। ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिसमें विद्यार्थी को सब कुछ आ रहा होता है परंतु भ्रम वश वह पास होने लायक प्रश्न भी हल नहीं कर पाता है।
एक लड़का था। मान लेते हैं कि लड़के का नाम विजय था। देश के प्रमुख 10 इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक से उसने बी ई की परीक्षा दी और अपने गांव चला गया। गांव पर ही उसको अपने एक साथी का पत्र मिला जिसमें उसने बताया था कि 16 तारीख तक एक अच्छे संस्थान में ग्रैजुएट ट्रेनी के लिए वैकेंसी आई है। यह पत्र उसको 13 तारीख को प्राप्त हुआ था। विजय ने यह मानते हुए की अब अगर लिखित परीक्षा का फार्म आ भी जाए तो कोई फायदा नहीं है। लिखित परीक्षा के फार्म हेतु उसने आवेदन दे दिया। लिखित परीक्षा का आवेदन फार्म 20 तारीख के आसपास आ गया। उसके साथ यह भी लिखा था कि इस फॉर्म को आप 30 तारीख तक भर सकते हैं। विजय ने तत्काल फार्म भरा और भेजा। लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के उपरांत प्रथम नंबर पर आया और हनुमान जी की कृपा से ही अंत में विजय को उस संस्थान के उच्चतम पद पर पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं यह भी कहना चाहता हूं कि यह कहानी बिल्कुल सच्ची है संभवतः आप लोगों के आसपास भी ऐसी कई घटनाएं घटित हुई होंगी।
अगर आपके पेट में खाना पच जाता है उससे शरीर में खून बनता है मांस बनता है और मांसपेशियां बनती है। आपके दिन भर का कार्य उस खाने पचने की वजह से हो जाता है। अगर यह खाना न पचे तो आप बीमार हो जाएंगे और किसी कार्य के काबिल नहीं रहेंगे। इसी प्रकार अगर आप की सफलताएं पच जाएं अर्थात आपको सफलताओं का अहंकार ना हो तो आप जिंदगी में आगे बढ़ते चले जाएंगे। अगर आप यह माने यह सब प्रभु की कृपा से हुआ है तो आपके अंदर अहंकार नहीं आएगा। अगर आपको अपनी सफलता नहीं पचेगी तो आपके अंदर अहंकार आ जाएगा। किसी न किसी दिन यह अहंकार आपको जमीन पर ला देगा। उसी के लिए पुराने जमाने के लोग कहते थे कि सफलता मिले तो भगवान को नमस्कार करो, अहंकार न बढे उसके लिए वह परहेज है। लोग कहते हैं कि तुम्हे सफलता मिली है वह वृद्धो के आशीर्वाद से मिली है, अत: वृद्धों को प्रणाम करो।
कुछ लोग कह सकते हैं कि वृद्धो के आशीर्वाद से सफलता मिली वह सत्य नहीं है, गलत बात है। आशीर्वाद से क्या होता है? जो सफलता मिलती है वह परिश्रम से मिलती है। लडका एम.बी.बी.एस. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुआ। इतना होने पर भी उसके पिताजी कहते हैं कि वृद्धों के आशीर्वाद से तुम प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ, उन्हे नमस्कार कर। परंतु ऐसे लोग यह नहीं जानते हैं कि आपके अंदर सफलता का अहंकार ना आ जाए इसलिए बड़ों को प्रणाम करने के लिए कहा जा रहा है।
जीवन में यदि हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचना है, सफलताएं प्राप्त करना है तो उसमें पुरुषार्थ के साथ भगवान पर अटूट विश्वास का होना भी आवश्यक है। भगवान की सहायता के बिना हमारा कल्याण नहीं होगा, इसलिए जीवन उन्नत करने के लिए हम प्रयत्न अवश्य करेंगे, फिर भी भगवान की सहायता की जरुरत है। उनकी सहायता से ही हम आगे बढ सकेंगे। अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकेंगे।
अगर हम हनुमान जी के शरणागत हो जाएं और प्रयास करें तो हमारी सभी इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है। अंत में
हे मनोहर, वायुवेग से चलने वाले, इन्द्रियों को वश में करने वाले, बुद्धिमानो में सर्वश्रेष्ठ। हे वायु पुत्र, हे वानर सेनापति, श्री रामदूत हम सभी आपके शरणागत है॥