हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #172 ☆ आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 172☆

☆ आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र 

‘जो अपने वश में नहीं, वह किसी का भी गुलाम बन सकता है’ मनु का यह कथन आत्मावलोकन करने का संदेश देता है, क्योंकि जब तक हम अपने अंतर्मन में नहीं झाँकेगे; अपनी बुराइयों व ग़लतियों से अवगत नहीं हो पाएंगे। उस स्थिति में सुधार की गुंजाइश कहाँ रह जाएगी? यदि हम सदैव दूसरों के नियंत्रण में रहेंगे, तो हमारी इच्छाओं, आकांक्षाओं व तमन्नाओं की कोई अहमियत नहीं रहेगी और हम गुलामी में भी प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। वास्तव में स्वतंत्रता में जीवंतता होती है, पराश्रिता नहीं रहती और जो व्यक्ति स्व-नियंत्रण अर्थात् आत्मानंद में लीन रहता है, वही सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ होता है। इसलिए पक्षी पिंजरे में कभी भी आनंदित नहीं रहता; सदैव परेशान रहता है, क्योंकि आवश्यकता है–अहमियत व अस्तित्व के स्वीकार्यता भाव की। सो! जो व्यक्ति अपनी परवाह नहीं करता; ग़लत का विरोध नहीं करता तथा हर विषम परिस्थिति में भी संतोष व आनंद में रहता है; वह जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।

‘बहुत कमियां निकालते हैं हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाक़ात ज़रा आईने से भी कर लें।’ जी हाँ! आईना कभी झूठ नहीं बोलता; सत्य से साक्षात्कार कराता है। इसलिए मानव को आईने से रूबरू होने की सलाह दी जाती है। वैसे दूसरों में कमियां निकालना तो बहुत आसान है, परंतु ख़ुद को सहेजना-सँवारना अत्यंत कठिन है। संसार में सबसे कठिन कार्य है अपनी कमियों को स्वीकारना। इसलिए कहा जाता है ‘ढूंढो तो सुकून ख़ुद में है/ दूसरों से तो बस उलझनें मिलती हैं।’ इसलिए मानव को ख़ुद से मुलाक़ात करने व ख़ुद को तलाशने की सीख दी जाती है। यह ध्यान अर्थात् आत्म-मुग्धता की स्थिति होती है, जिसमें दूसरों से संबंध- सरोकारों का स्थान नहीं रहता। यह हृदय की मुक्तावस्था कहलाती है, जहां इंसान आत्मकेंद्रित रहता है। वह इस तथ्य से अवगत नहीं रहता कि उसके आसपास हो क्या रहा है? यह आत्मसंतोष की स्थिति होती है, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का स्थान नहीं रहता।

ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ना दूसरों से ग़िला कीजिए।’ शायद इसीलिए कहा जाता है कि बुराई को प्रारंभ में जड़ से मिटा देना चाहिए, वरना ये कुकुरमुत्तों की भांति अपने पाँव पसार लेती हैं। सो! उलझनों को शांति से सुलझाना कारग़र है, अन्यथा वे दरारें दीवारों का आकार ग्रहण कर लेती हैं। शायद इसीलिए यह सीख दी जाती है कि मतभेद रखें, मनभेद नहीं और मन-आँगन में दीवारें मत पनपने दें।

मानव को अपेक्षा व उपेक्षा के व्यूह से बाहर निकलना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियाँ मानव के लिए घातक हैं। यदि हम किसी से उम्मीद करते हैं और वह पूरी नहीं होती, तो हमें दु:ख होता है। इसके विपरीत यदि कोई हमारी उपेक्षा करता है और हमारे प्रति लापरवाही का भाव जताता है, तो वह स्थिति भी हमारे लिए असहनीय हो जाती है। सामान्य रूप में मानव को उम्मीद का दामन थामे रखना चाहिए, क्योंकि वह हमें मंज़िल तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होती है। परंतु मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए, क्योंकि उसमें निराशा की गुंजाइश नहीं होती। विपत्ति के समय मानव को इधर-उधर नहीं झाँकना चाहिए, बल्कि अपना सहारा स्वयं बनना चाहिए– यही सफलता की कुंजी है तथा अपनी मंज़िल तक पहुंचने का बेहतर विकल्प।

‘ज़िंदगी कहाँ रुलाती है, रुलाते तो वे लोग हैं, जिन्हें हम अपनी ज़िंदगी समझ लेते हैं’ से तात्पर्य है कि मानव को मोह-माया के बंधनों से सदैव मुक्त रहना चाहिए। जितना हम दूसरों के क़रीब होंगे, उनसे अलग होना उतना ही दुष्कर व कष्टकारी होगा। इसलिए ही कहा जाता है कि हमें सबसे अधिक अपने ही कष्ट देते व रुलाते हैं। मेरे गीत की यह पंक्तियाँ भी इसी भाव को दर्शाती हैं। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ इस संसार में इंसान अकेला आया है और उसे अकेले ही जाना है और ‘यह किराए का मकान है/ कौन कब तक यहाँ ठहर पाएगा।’

ज़िंदगी समझ में आ गई तो अकेले में मेला/ समझ नहीं आई तो मेले में भी अकेला अर्थात् यही है ध्यानावस्था में रहने का सलीका। ऐसा व्यक्ति हर पल प्रभु सिमरन में मग्न रहता है, क्योंकि अंतकाल में यही साथ जाता है। ग़लती को वह इंसान सुधार लेता है, जो उसे स्वीकार लेता है। परंतु मानव का अहं सदैव उसके आड़े आता है, जो उसका सबसे बड़ा शत्रु है। अपेक्षाएं जहां खत्म होती हैं: सुक़ून वहाँ से शुरू होता है। इसलिए रिश्ते चंदन की तरह होने चाहिए/ टुकड़े चाहे हज़ार हो जाएं/ सुगंध ना जाए, क्योंकि जो भावनाओं को समझ कर भी आपको तकलीफ़ देता है; कभी आपका अपना हो ही नहीं सकता। वैसे तो आजकल यही है दस्तूर- ए-दुनिया। अपने ही अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं, क्योंकि रिश्तों में अपनत्व भाव तो रहा ही नहीं। वे तो पलभर में ऐसे टूट जाते हैं, जैसे भुना हुआ पापड़। सो! अजनबीपन का एहसास सदा बना रहता है। इसलिए पीठ हमेशा मज़बूत रखनी चाहिए, क्योंकि शाबाशी व धोखा दोनों पीछे से मिलते हैं। बात जब रिश्तों की हो, तो सिर झुका कर जीओ। परंतु जब उसूलों की हो, तो सिर उठाकर जीओ, क्योंकि अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है। लेकिन नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं है, साधारण इंसान को फरिश्ता बना देती है।

दो चीज़ें देखने में छोटी नज़र आती हैं–एक दूर से, दूसरा गुरूर से। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलते हैं, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर उम्र निकल जाती है। सो! मानव को समय का सदुपयोग करना चाहिए, क्योंकि गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता। काश! लोग समझ पाते रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। सो! श्रेष्ठ वही कहलाता है, जिसमें दृढ़ता हो, पर ज़िद्द नहीं; दया हो, पर कमज़ोरी नहीं; ज्ञान हो, अहंकार नहीं। इसके साथ ही मानव को इच्छाएं, सपने, उम्मीदें व नाखून समय-समय पर काटने की सलाह दी गई है, क्योंकि यह सब मानव को पथ-विचलित ही नहीं करते, बल्कि उस मुक़ाम पर पहुंचा देते हैं, जहाँ से लौटना संभव नहीं होता। परंतु यह सब आत्म-नियंत्रण द्वारा संभव है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 23 – चुनाव प्रचार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 23 – चुनाव प्रचार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

साठ के दशक में बैलों की जोड़ी और दीपक निशान युक्त बैज, सेफ्टी पिन के साथ कमीज़ में टांकते हुए हमारे देश के चुनाव प्रचार की यादें आज भी स्मृति में हैं।

आजकल तो सोशल मीडिया का समय है, इसलिए ट्विटर, फेस बुक, व्हाट्स ऐप जैसे प्रचार साधन जोरों पर हैं। समाचार पत्र, पेम्प्लेट, बैनर, होर्डिंग, भवनों की दीवारें पोस्टर और पेंटर की कूची से रंग भरना अभी भी जारी हैं।

यहां विदेश में दो फुट चौड़ा और दो फुट लंबा एक्रेलिक शीट पर लिख कर सड़क के किनारे पर खड़ा कर देते हैं। यातायात या जन जीवन पर कोई रुकावट तक नहीं होती है। हमारे देश में तो नामांकन भरने, चुनाव परिणाम सब के अलग-अलग लंबे जलूस के रूप में जाते हैं।

प्रत्याशी स्वयं भी घर-घर जाकर और सभा के माध्यम से अपना परिचय देने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। समय, धन, बाहुबल का सहारा चुनाव की जीत में बैसाखी का कार्य करते हैं। इन सब से लोगों को भी अनेक परेशानियां होना स्वाभाविक है।

विश्व में सबसे बड़े लोकतंत्र का खिताब होने पर भी हमारे चुनाव प्रचार / व्यवस्था में ढेरों कमियां हैं। सुधार अत्यंत मंद गति से हो रहे हैं, शायद अंग्रेजी कहावत “Slow and steady wins the race.” के सिद्धांत को मानते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 10 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 10 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।

राम मिलाय राज पद दीन्हा।।

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।

लंकेस्वर भए सब जग जाना।।

अर्थ:–

आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने। आपकी सलाह को मानकर विभीषण लंकेश्वर हुए। यह बात सारा संसार जानता है।

भावार्थ:-

सुग्रीव जी के भाई बाली ने उनको अपने राज्य से बाहर कर दिया था। बाली ने उनकी पत्नी तारा को भी उनसे छीन लिया था। इस प्रकार बाली ने सुग्रीव का सर्वस्व हरण कर लिया था। हनुमान जी ने सुग्रीव और श्री राम जी का मिलन कराया। बाद में श्री रामचंद्र जी द्वारा बाली का वध हुआ और सुग्रीव को उनका राज्य वापस मिला।

श्री हनुमान जी के द्वारा लंका में विभीषण को दी गई सलाह को उन्होंने  मान लिया।  रावण द्वारा लंका से भगाया जाने के बाद विभीषण श्री रामचंद्र जी के शरणागत हो गए।  श्री रामचंद्र जी ने उनको लंका का राजा बना दिया।

संदेश:-

किसी के साथ अन्याय होता दिखे तो चुप बैठने की जगह श्री हनुमान जी की तरह उसकी सहायता करना ही मानवता है।

हमको सदैव अच्छे एवं नीतिज्ञ  व्यक्ति का साथ देना चाहिए। अगर कोई अन्यायी या दुराचारी सत्ता पर बैठा हो तो चुप बैठने की जगह श्री हनुमान जी की तरह उसको हटाने का कार्य करना ही वीर व्यक्ति का लक्षण है।

इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।  राम मिलाय राज पद दीन्हा।।

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना। लंकेस्वर भए सब जग जाना।।

हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां राजकीय मान सम्मान दिलाती है। हनुमत कृपा पर विश्वास आपको चतुर्दिक सफलता दिलाएगा।

विवेचना:-

पहली चौपाई में महात्मा तुलसीदास बताते हैं कि हनुमान जी ने सुग्रीव जी को श्री रामचंद्र जी से मिलाकर सुग्रीव जी पर उपकार किया। श्री राम चन्द्र जी द्वारा उन्हें किष्किंधा का राजा बना दिया गया। यदि श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव की मुलाकात नहीं होती और दोनों की आपस में मित्रता की संधि नहीं होती तो सुग्रीव कभी भी बाली को परास्त कर किष्किंधा के राजा नहीं हो पाते।

संकटमोचन हनुमान अष्टक में भी इस बात का वर्णन है:-

बालि की त्रास कपीस बसै गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो |

चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो ||

कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो

|| को० – 2 ||

अर्थात बाली के डर से सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर रहते थे। एक दिन सुग्रीव ने जब श्री राम जी और श्री लक्ष्मण जी को आते देखा तो उन्हें बाली का भेजा हुआ योद्धा समझ कर भयभीत हो गए। तब श्री हनुमान जी ने ही ब्राह्मण का वेश बनाकर प्रभु श्रीराम का भेद जाना और सुग्रीव से उनकी मित्रता कराई। यह पूरा प्रसंग रामचरित मानस तथा अन्य सभी रामायणों में भी मिलता है। यह प्रसंग निम्नानुसार है:-

सुग्रीव बाली से डरकर ऋष्यमूक पर्वत पर अपने मंत्रियों और मित्रों के साथ निवास कर रहे थे। बाली को इस बात का श्राप था कि अगर वह ऋष्यमूक पर्वत पर जाएगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी। इस डर के कारण बाली इस पर्वत पर नहीं आता था। परंतु इस बात की पूरी संभावना थी कि वह अपने दूतों को सुग्रीव को मारने के लिए भेज सकता था। सुग्रीव ने  एक दिन दो वनवासी योद्धा युवकों को तीर धनुष के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर आते हुए देखा।

आगे चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया॥

तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

सुग्रीव के यह लगा कि ये दोनों योद्धा बाली के द्वारा भेजे गए दूत हैं। सुग्रीव जी यह देखकर अत्यंत भयभीत हो गए। उनके साथ रह रहे लोगों में हनुमान जी सबसे बुद्धिमान एवं बलशाली थे। अतः उन्होंने श्री हनुमान जी से कहा तुम ब्राह्मण भेष में जाकर यह पता करो कि यह लोग कौन है?

अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना॥

धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई॥2॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

सुग्रीव इतना डरा हुआ था कि उसने कहा कि अगर यह लोग बाली के द्वारा भेजे गए हैं तो वह तुरंत ही वह इस स्थान को छोड़ देगा। यह सुनने के उपरांत हनुमान जी तत्काल  ब्राह्मण वेश में युवकों से मिलने के लिए चल दिए। हनुमान जी ने उन दोनो युवकों से उनके बारे में पूछा।

यहां यह बताना आवश्यक है कि इसके पहले हनुमान जी श्री रामचंद्र जी के बाल्यकाल में उनको एक बार देख चुके थे। परंतु बाल अवस्था और युवा काल में शरीर में बड़ा अंतर आ जाता है। अतः उनको वे तत्काल पहचान नहीं सके।

पठए बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला॥

बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाइ पूछत अस भयऊ॥3।।

को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥

कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4।।

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

हनुमान जी द्वारा पूछे जाने पर श्री रामचंद्र ने अपना परिचय दिया और परिचय प्राप्त करने के बाद हनुमान जी ने उनको तत्काल पहचान लिया तथा उनके चरणों पर गिर गये।

प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥

पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥

हनुमान जी को इस बात की ग्लानि हुई कि वे भगवान को पहचान नहीं पाए और तत्काल उन्होंने भगवान से पूछा कि मैं तो एक साधारण वानर हूं आप भगवान होकर मुझे क्यों नहीं पहचान पाए।

पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥

मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥

तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

इस प्रकार हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को अपना पुराना परिचय याद दिला कर सुग्रीव के लिए एक रास्ता बनाया। सुग्रीव को एक सशक्त साथी की आवश्यकता थी जो बाली को हराकर सुग्रीव को राजपद दिला सकने में समर्थ हो। हनुमान जी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की शक्ति के बारे में पता था। अतः उन्होंने श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को सुग्रीव के पास चलने के लिए प्रेरित किया।

देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥

नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

अर्थ:- श्रीरामचंद्र जी को अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवन कुमार हनुमान्‌ जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुःख जाते रहे। (उन्होंने कहा-) हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वे आपका दास है॥1॥

 तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥

सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

अर्थ:- हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए। वह सीताजी की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेगा॥2॥

इसके उपरांत श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को लेकर हनुमान जी सुग्रीव के पास पहुंचे और दोनों के बीच में मित्रता कराई।

तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ। पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ॥4॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

अर्थ:- तब हनुमान्‌जी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी (अर्थात्‌ अग्नि को साक्षी देकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मैत्री करवा दी)॥4॥

इसी प्रकार का विवरण बाल्मीकि रामायण में भी है।

काष्ठयोस्स्वेन रूपेण जनयामास पावकम्। दीप्यमानं ततो वह्निं ह्निं पुष्पैरभ्यर्च्य सत्कृतम्।। 

तयोर्मध्येऽथ सुप्रीतो निदधे सुसमाहितः। ततोऽग्निं दीप्यमानं तौ चक्रतुश्च प्रदक्षिणम्।।

सुग्रीवो राघवश्चैव वयस्यत्वमुपागतौ। ततस्सुप्रीतमनसौ तावुभौ हरिराघवौ।।

(बाल्मीकि रामायण / किष्किंधा कांड/5/15,16,17)

हनुमान जी ने सुग्रीव जी और श्री रामचंद्र जी के बीच में वार्तालाप होने के बाद अग्नि देव को साक्षी रख उनका पुष्प आदि से पूजन किया। इसके उपरांत श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव के बीच में अग्नि को रखा गया। दोनों ने अग्नि की परिक्रमा की। इस प्रकार सुग्रीव और श्री राम जी की मैत्री हो गई। दोनों एक दूसरे को मैत्री भाव से देखने लगे। इस मैत्री के उपरांत बाली को मारने की योजना बनी। फिर सुग्रीव को राज्य पद प्राप्त हुआ।

इस प्रकार अगर हनुमान जी पूरी योजना बनाकर क्रियान्वित नहीं करवाते तो सुग्रीव को किष्किंधा का राज्य नहीं प्राप्त हो सकता था। हनुमान जी ने यह सब किसी स्वार्थवश नहीं किया वरन महाराज बाली द्वारा किए जा रहे अन्याय को समाप्त करने का उपाय किया।

इसी प्रकार की दूसरी घटना श्रीलंका की है। जहां पर दुराचारी अत्याचारी निरंकुश शासक रावण राज्य करता था। रावण का दूसरा भाई विभीषण धार्मिक, सज्जन और ईश्वर को मानने वाला था। किन्तु शारीरिक शक्ति में वह रावण से कमजोर था। हनुमान जी ने उसको श्री रामचंद्र जी के पास पहुंचने की सलाह दी। श्री विभीषण ने बाद में इस सलाह का उपयोग किया और वह लंका का राजा भी बना।

हनुमान जी द्वारा विभीषण को सलाह देने की पूरी कहानी पर अगर हम ध्यान दें, तो हम पाते हैं कि सीता जी की खोज में लंका भ्रमण के दौरान विभीषण का महल हनुमान जी को एकाएक दिखा था। विभीषण के भवन के बाहर धनुष बाण के प्रतीक बने हुए थे। घर के बाहर लगी तुलसी के पौधे और धनुष बाण के इन्हीं प्रतीकों ने महावीर हनुमान जी को आकर्षित किया।

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।

नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई ॥

(रामचरितमानस/सुंदरकांड/दोहा क्रमांक 5)

अर्थ:— वह महल राम के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज हनुमान हर्षित हुए।

उनके मन में यह उम्मीद जगी कि यहां से उनको सहायता मिल सकती है। इसके बाद की घटना और भी आकर्षक है।

हनुमान जी ने मन ही मन में कहा और तर्क करने लगे :-

लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥

मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥

और हनुमान जी ने सोचा की यह लंका नगरी तो राक्षसों के कुल की निवास भूमि है। यहाँ सत्पुरुषों का क्या काम ?  इस तरह हनुमानजी मन ही मन में विचार करने लगे। इतने में विभीषण की आँख खुली।

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥

एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥

विभीषण जी ने जागते ही ‘राम! राम!’ का स्मरण किया, तो हनुमानजी ने जाना की यह कोई सत्पुरुष है। इस बात से हनुमानजी को बड़ा आनंद हुआ। हनुमानजी ने विचार किया कि इनसे जरूर पहचान करनी चहिये, क्योंकि सत्पुरुषों के हाथ कभी कार्य की हानि नहीं होती। उसके उपरांत हनुमान जी ब्राह्मण के वेश में विभीषण के सामने पहुंचे। विभीषण जी ने उनको अच्छा आदमी समझ कर अपने पास बुलाया और चर्चा की। तब हनुमान जी ने पूरा वृतांत सुनाया।

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।

सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।

(रामचरितमानस/ सुंदरकांड/ दोहा)

विभीषण के ये वचन सुनकर हनुमानजी ने रामचन्द्रजी की सब कथा विभीषण से कही और अपना नाम बताया। परस्पर एक दूसरे की बातें सुनते ही दोनों के शरीर रोमांचित हो गए। श्री रामचन्द्रजी का स्मरण आ जाने से दोनों आनंदमग्न हो गए।

हनुमान जी की विभीषण से दूसरी भेंट लंकापति रावण के दरबार में हुई। परंतु वहां पर हनुमान जी और विभीषण के बीच में कोई वार्तालाप नहीं हुआ। लंकापति रावण हनुमान जी को मृत्युदंड देना चाहता था जिसको विभीषण ने पूंछ में आग लगाने में परिवर्तित करवा दिया था। इस प्रकार यहां पर विभीषण जी ने हनुमान जी की मदद की।

विभीषण जी से हनुमान जी की तीसरी भेंट श्री रामचंद्र जी के सैन्य शिविर में हुई। जहां पर शरण लेने के लिए विभीषण जी पहुंचे थे। रामचंद्र जी के द्वारा सुग्रीव जी से यह पूछने पर श्री सुग्रीव ने कहा की यह दुष्ट हमारी जानकारी लेने के लिए आया है अतः इसको बांध कर बंदी गृह में रख देना चाहिए। महावीर हनुमान जी भी वहीं बैठे थे। उन्होंने कोई राय नहीं दी। श्री रामचंद्र समझ गए कि हनुमान जी की राय सुग्रीव जी की राय के विपरीत है। तब श्री रामचंद्र जी ने कहा कि नहीं शरणागत को शरण देना चाहिए। यह सुनकर हनुमान जी अत्यंत प्रसन्न हो गए।

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।

सरनागत बच्छल भगवाना॥

(रामचरितमानस /सुंदरकांड)

अर्थात श्रीरामचन्द्रजी के वचन सुनकर हनुमानजी को बड़ा आनंद हुआ कि भगवान् सच्चे शरणागत वत्सल हैं (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करनेवाले)॥

विभीषण जी से लंका में पहली भेंट के समय हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी की प्रशंसा में कुछ बातें विभीषण जी को बताई थीं। उन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए आज विभीषण जी  श्री राम जी की शरण में आए थे। विभीषण जी ने इस बात को इस प्रकार कहा :-

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।

त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥

(रामचरितमानस /सुंदरकांड/ दोहा संख्या 45)

विभीषण जी ने कहा हे प्रभु! हे भय और संकट मिटानेवाले! मै आपका सुयश सुनकर आपके शरण आया हूँ। सो हे आर्ति (दुःख) हरण हारे! हे शरणागतों को सुख देनेवाले प्रभु! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।  विभीषण ने इस समय श्री रामचंद्र जी की प्रशंसा में बहुत सारी बातें कहीं। अंत में श्री रामचंद्र जी ने समुद्र के जल से विभीषण जी को लंका के राजा के रूप में राजतिलक कर दिया।

जदपि सखा तव इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥

अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।

(रामचरितमानस /सुंदरकांड)

श्री रामचंद्र जी ने कहा कि हे सखा! यद्यपि आपको किसी बात की इच्छा नहीं है तथापि जगत्‌ में मेरा दर्शन अमोघ है। अर्थात् निष्फल नहीं है। ऐसा कहकर प्रभु ने विभीषण का राजतिलक कर दिया। उस समय आकाश से अपार पुष्पों की वर्षा हुई।

इस प्रकार हम पाते हैं कि सुग्रीव जी और विभीषण जी दोनों को राज्य पाने में श्री हनुमान जी सहायक हुए हैं। हनुमान जी ने सदैव ही अच्छे और सज्जन व्यक्ति का साथ दिया है। अगर किसी अन्यायी या दुराचारी ने अन्याय पूर्वक सत्ता पर कब्जा कर लिया हो तो हनुमान जी उसको सत्ता से हटा देने का कार्य करते हैं। जय हनुमान 🙏🏻

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 177 ☆ शिवोऽहम्… (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 177 शिवोऽहम्… (2) ?

शिवोऽहम् के संदर्भ में आज  निर्वाण षटकम् के दूसरे श्लोक पर विचार करेंगे।

न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुः

न वा सप्तधातुः न वा पंचकोशः।

न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।

न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पंचप्राणों में से कोई हूँ। न मैं सप्त धातुओं में से कोई हूँ, न ही पंचकोशों में से कोई । न मैं वाणी, हाथ, अथवा पैर हूँ, न मैं जननेंद्रिय या मलद्वार हूँ।  मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ , मैं शिव हूँ।

वैदिक दर्शन में प्राण को ही प्रज्ञा भी कहा गया। शाखायन आरण्यक का उद्घोष है,

यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः

अर्थात जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।

प्राण, वायु के माध्यम से शरीर में संचरित होता है। संचरण करने वाली वायु पाँच स्थानों पर मुख्यत: स्थित होती है। इन्हें पंचवायु कहा गया है। पंचवायु में प्राण, अपान, समान, व्यान, और उदान समाविष्ट हैं।

स्थूल रूप से समझें तो प्राणवायु का स्थान नासिका का अग्रभाग माना गया है। यह सामने की ओर गति करने वाली है। प्राणवायु देह तथा प्राण की अधिष्ठात्री है। अपान का अर्थ है नीचे जाने वाली। अपान वायु गुदा भाग में होती है। मूत्र, मल, शुक्र आदि को शरीर के निचले भाग की ओर ले जाना इसका कार्य होता है। समान वायु संतुलन बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसका स्थान आमाशय बताया गया है। भोजन का समुचित पाचन इसका दायित्व है। व्यान वायु शरीर में सर्वत्र विचरण करती है। इसका स्थान हृदय माना गया है। रक्त के संचार में इसकी विशेष भूमिका होती है। उदान का अर्थ ऊपर ले जाने वाली वायु है। अपने उर्ध्वगामी स्वभाव के कारण यह कंठ, उर, और नाभि में स्थित होती है। वाकशक्ति मूलरूप से इस पर निर्भर है। 

इसी तरह त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि एवं मज्जा, शरीर की सप्तधातुएँ हैं। इनमें से किसी एक के अभाव में मानवशरीर की रचना  दुष्कर है। शरीर में इनका संतुलन बिगड़ने पर अनेक प्रकार के विकार जन्म लेते हैं।

अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय, शरीर के पंचकोश हैं। हर कोश का नामकरण ही उसे परिभाषित करने में सक्षम है। विभिन्न कोशों द्वारा चेतन, अवचेतन एवं अचेतन की अनुभूति होती है।

जगद्गुरु उपरोक्त श्लोक के माध्यम से अस्तित्व का विस्तार प्राण, पंचवायु, सप्तधातु, पंचकोश से आगे ले जाते हैं। तीसरी पंक्ति में वर्णित वाणी, हाथ, पैर, जननेंद्रिय अथवा गुदा तक, स्थूल या सूक्ष्म तक आत्मस्वरूप को सीमित रखना भी हाथी के जितने भाग को स्पर्श किया, उतना भर मानना है।

विवेचन करें तो मनुष्य को ज्ञात सारे आयामों से आगे हैं शिव। शिव का एक अर्थ कल्याण होता है। चिदानंदरूप शिव होना मनुष्यता की पराकाष्ठा है। इस पराकाष्ठा को प्राप्त करना, हर जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #118 ☆ हाथ की मानव जीवन में उपयोगिता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 118 ☆

☆ ‌हाथ की मानव जीवन में उपयोगिता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

हिंदी भाषा में एक कहावत है, जो मानव जीवन में हाथ की महत्ता दर्शाती है ।

हाथ कंगन को आरसी क्या

पढ़ें लिखे को फारसी क्या।

सूरदास जी का यह कथन भीहाथ की महत्ता समझाता है जिसके पीछे विवशता, खीझ, तथा चुनौती का भाव स्पष्ट दिखाई देता है।

कर तो छुड़ाए जात हो, निर्बल जानि कै मोहि।

जौ हिरदय से जाहु तुम, तौ मर्द बखानौ तोहि।।

वैसे तो जीव जब योनियों में पलता है, तो उसका आकार प्रकार योनि गत जीवन व्यवहार वंशानुगत गुणों के आधार पर तय होता है और शारीरिक संरचना की बनावट अनुवांशिक गुणों के आधार पर तय होती है। जीव जगत के अनेक भेद तथा वर्गीकरण है। पौराणिक मान्यता के अनुसार चौरासी लाख योनियां है, जिसमें जलचर, थलचर, नभचर, कीट पतंगों तथा जड़ चेतन आदि है। सब की शारीरिक बनावट अलग-अलग है

रूप रंग का भी भेद है। हर योनि के जीव की आवश्यकता के अनुसार शारीरिक अंगों का विकास हुआ। इसी क्रम में मानव शरीर में हाथ का विकास हुआ, जिसे भाषा साहित्य के अनुसार हस्त, भुजा, पाणि, बाहु, कर आदि समानार्थी शब्दों से संबोधित करते हैं। चक्र हाथ में धारण करने के कारण भगवान विष्णु का नाम चक्रधर तथा चक्रपाणि पड़ा, तथा हमारे ‌षोडश संस्कारों में एक प्रमुख संस्कार पाणिग्रहण संस्कार भी है जिससे हमारे जीवन की दशा और दिशा तय होती है। आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हुए हाथ जहां व्यक्ति के भीतर अभयदान के साथ प्रसन्नता प्रदान करता है वहीं दण्ड देने के लिए सबल के उठे हाथ आश्रित के हृदय में सुरक्षा का भरोसा दिलाते हैं।

हमारी पौराणिक मान्यता के अनुसार हाथ की बनावट तथा उसकी प्रकृति के बारे में हस्त रेखाएं बहुत कुछ कहती हैं। पौराणिक मान्यताओं अनुसार—–

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।

करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम ॥

अर्थात् हाथ के अगले भाग में लक्ष्मी, मध्य में विद्या की देवी सरस्वती तथा कर के मूल में सृष्टि सृजन कर्ता ब्रह्मा का निवास होता है इस लिए प्रभात वेला में उठने के पश्चात अपना हाथ देखने से इंसान मुख दोष दर्शन से बच जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हाथ में ही सूर्य चंद्रमा बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु आदि नवग्रहों के स्थान निर्धारित है, जिसके उन्नत अथवा दबे हुए स्थान देख कर व्यक्ति जीवन के भूत भविष्य वर्तमान के घटनाक्रम की भविष्यवाणी की जाती है तथा नवग्रहों की शांति के लिए सबेरे उठ कर हमारे शास्त्रों में नवग्रह वंदना करने का विधान है, ताकि हमारा दिन मंगलमय हो।

ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु॥

हाथ जहां हमारे दैनिक जीवन की नित्य क्रिया संपादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं वहीं हाथ लोकोपकार करते हुए ,सबलों से निर्बलों की रक्षा करते हुए उद्धारक की भूमिका भी निभाते हैं, अपराधी को दंडित भी करते हैं। उसमें ही हस्त रेखा का सार छुपा बैठा है।

व्यक्ति के हाथ के मणिबंध से लेकर उंगली के पोरों तथा नाखूनों की बनावट व रेखाएं देखकर इंसान के जीवन व्यवहार की भविष्यवाणी एक कुशल हस्तरेखा विशेषज्ञ कर सकता है। हाथों का महत्व मानव जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तभी किसी विद्वान का मत है कि हाथों की शोभा दान देने से है कंगन पहनने से नहीं।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – युद्ध की विभीषिका और मानव अधिकार- भाग-2 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – युद्ध की विभीषिका और मानव अधिकार- भाग-2 ??

(गुरुवार 24 फरवरी को रूस-यूक्रेन युद्ध को एक वर्ष पूरा हो गया है। इस संदर्भ में युद्ध और मानवाधिकार पर यह विशेष आलेख दो भागों में दिया जा रहा है। आज पढ़िए इस आलेख का अंतिम भाग।)

माना जाता है कि पूर्वी बंगाल के वासियों के असंतोष को दबाने के लिए पाकिस्तानी सैनिकों ने आम नागरिकों पर भी बर्बर अत्याचार किए।  एक वेब पेज के अनुसार लगभग 30 लाख नागरिकों का जनसंहार हुआ था। चार लाख से अधिक महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ। पिछले दिनों बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने 1971 के युद्ध में किये गए मानवाधिकारों के जघन्य उल्लंघन के लिए पाकिस्तान को माफी मांगने के लिए भी कहा है।

मानवाधिकारों के उल्लंघन में यौन हिंसा विद्रूप औज़ार के रूप में प्रयोग की जाती है। ‘रेप इज़ अ साइकोलॉजिकल वॉरफेयर।’  यह वाक्य ही मनुष्य के मानसिक पतन का क्रूर उदाहरण है। इस आधार पर हर जघन्य अपराध को तर्क का जामा पहनाया जा सकता है। जघन्यता को तर्क ओढ़ाने की इस सोच को छत्रपति शिवाजी महाराज की युद्धनीति में स्त्रियों के सम्मान का अध्ययन करना चाहिए। उनके एक सेनानायक ने शत्रुसेना के परास्त सूबेदार की अनन्य सुंदर पुत्रवधू गौहर बानू  को भी विजित संपदा के साथ महाराज के सामने प्रस्तुत किया। छत्रपति ने न केवल सेनानायक से नाराज़गी जताई अपितु गौहर बानू को ससम्मान लौटाते हुए कहा, “काश मेरी माँ भी आपकी तरह सुन्दर होती तो मैं भी इतना ही सुन्दर होता!”

मानवाधिकारों के सम्मान की इस परंपरा का भारतीय सेना ने भी सदैव निर्वहन किया है। शत्रु द्वारा अनेक अवसरों पर किये गये युद्ध अपराध का समुचित उत्तर भारत की सेना ने युद्ध के प्रोटोकॉल का पालन करते हुए ही दिया है।

उपसंहार-

जैसाकि आरम्भ में कहा गया है, युद्ध, मानव निर्मित सबसे बड़ी विभीषिका है।  इस विभीषिका को आरम्भ जीवित लोग करते हैं पर इसका अंत केवल मृतक ही देख पाते हैं। विडंबना यह है कि युद्ध शनै:-शनै: जीवित व्यक्तियों की संवेदना को भी मृतप्राय कर देता है। किसी युद्ध में एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य के अधिकारों को रौंद रहा हो और सुदूर बैठा तीसरा मनुष्य मनोरंजन के कार्यक्रमों के ब्रेक में युद्ध की विभीषिका को भी किसी रंजक कार्यक्रम की तरह देख रहा हो, इससे अधिक भीषण परिणाम और क्या हो सकता है?

युद्ध की विभीषिका को मनुष्य के स्तर पर अनुभव करने का प्रयास करती इस लेख के लेखक की ‘युद्ध के विरुद्ध’  शीर्षक से एक कविता है-

कल्पना कीजिए,

आपकी निवासी इमारत

के सामने वाले मैदान में,

आसमान से एकाएक

टूटा और फिर फूटा हो

बम का कोई गोला,

भीषण आवाज़ से

फटने की हद तक

दहल गये हों

कान के परदे,

मैदान में खड़ा

बरगद का

विशाल पेड़

अकस्मात

लुप्त हो गया हो

डालियों पर बसे

घरौंदों के साथ,

नथुनों में हवा की जगह

घुस रही हो बारूदी गंध,

काली पड़ चुकी

मटियाली धरती

भय से समा रही हो

अपनी ही कोख में,

एकाध काले ठूँठ

दिख रहे हों अब भी

किसी योद्धा की

ख़ाक हो चुकी लाश की तरह,

अफरा-तफरी का माहौल हो,

घर, संपत्ति, ज़मीन के

सारे झगड़े भूलकर

बेतहाशा भाग रहा हो आदमी

अपने परिवार के साथ

किसी सुरक्षित

शरणस्थली की तलाश में,

आदमी की

फैल चुकी आँखों में

उतर आई हो

अपनी जान और

अपने घर की औरतों की

देह बचाने की चिंता,

बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष

सबके नाम की

एक-एक गोली लिये

अट्टाहस करता विनाश

सामने खड़ा हो,

भविष्य मर चुका हो,

वर्तमान बचाने का

संघर्ष चल रहा हो,

ऐसे समय में

चैनलों पर युद्ध के

विद्रूप दृश्य

देखना बंद कीजिए,

खुद को झिंझोड़िए,

संघर्ष के रक्तहीन

विकल्पों पर

अनुसंधान कीजिए,

स्वयं को पात्र बनाकर

युद्ध की विभीषिका को

समझने-समझाने  का यह

मनोवैज्ञानिक अभ्यास है,

मनुष्यता को बचाये

रखने का यह प्रयास है..!

युद्ध की विभीषिका की वेदना कुरेदेगी तो मानवाधिकारों की रक्षा की संवेदना भी बची रहेगी।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 9 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 9 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

जम कुबेर दिगपाल जहां ते।

कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।

अर्थ:- यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।

भावार्थ:- यह चौपाई श्री रामचंद्र जी द्वारा हनुमान जी की प्रशंसा में कही गई है। उन्होंने कहा है कि यम अर्थात यमराज, जो हर व्यक्ति का लेखा जोखा रखते हैं, कुबेर अर्थात विश्व के सभी ऐश्वर्य के स्वामी दसों दिगपाल अर्थात दसों दिशाओं के रक्षक  देवता गण विश्व के सभी कवि सभी विद्वान सभी पंडित मिलकर के भी आपके यश का पूर्णत वर्णन नहीं कर सकते हैं।

संदेश-

अगर आप अच्छी इच्छा शक्ति और अच्छे इरादे  के साथ कर्म करें तो आपकी प्रशंसा करने के लिए सभी बाध्य हो जाते हैं।

इस चौपाई का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई के बार बार पाठ करने से यश कीर्ति की वृद्धि होती है, मान सम्मान बढ़ता है।

विवेचना:-

यह चौपाई “जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते” इसके पहले की चौपाई “सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा नारद सारद सहित अहीसा “ के साथ पढ़ी जानी चाहिए। इस चौपाई में भी श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी की प्रशंसा की है। यम से यहां पर आशय यमराज से है जो कि मृत्यु के देवता है। इनके पिताजी भगवान सूर्य कहे जाते हैं और यमुना जी इनकी बहन है। इनके अन्य भाई बहनों के नाम शनिदेव, अश्वनीकुमार, भद्रा, वैवस्वत मनु, रेवंत, सुग्रीव, श्राद्धदेव मनु और कर्ण है। इनके एक पुत्र का नाम युधिष्ठिर है जो पांच पांडवों में से एक हैं। यमराज जी जीवों के शुभाशुभ कर्मों के निर्णायक हैं। वे परम भागवत, बारह भागवताचार्यों में हैं। यमराज दक्षिण दिशा के दिक्पाल कहे जाते हैं। ये समस्त जीवो के अच्छे और बुरे कर्मों को बताते हैं। परंतु ये भी हनुमान जी द्वारा किए गए अच्छे कार्यों को  पूर्णरूपेण बताने में असफल हैं।

कुबेर जी धन के देवता माने जाते हैं पूरे ब्रह्मांड का धन इनके पास है। यक्षों के राजा कुबेर उत्तर दिशा के दिक्पाल हैं। संसार के रक्षक लोकपाल भी हैं। इनके पिता महर्षि विश्रवा थे और माता देववर्णिणी थीं। वह रावण, कुंभकर्ण और विभीषण के सौतेले भाई हैं। धन के देवता कुबेर को भगवान शिव का द्वारपाल भी बताया जाता है। श्री कुबेर जी के पास ब्रह्मांड का पूरा धन होने के उपरांत भी वे हनुमान जी की कीर्ति की व्याख्या पूर्ण करने में असमर्थ हैं।

सनातन धर्म के ग्रंथों में दिक्पालों का बड़ा महत्व है। सनातन धर्म के अनुसार 10 दिशाएं होती हैं और हर दिशा की रक्षा करने के लिए एक दिग्पाल हैं। यथा – पूर्व के इन्द्र, अग्निकोण के वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्यकोण के नैऋत, पश्चिम के वरूण, वायु कोण के मरूत्, उत्तर के कुबेर, ईशान कोण के ईश, ऊर्ध्व दिशा के ब्रह्मा और अधो दिशा के अनंत। दसों दिशाओं में होने वाली हर कार्यवाही की पर इनकी नजर होती है। परंतु श्री रामचंद्र जी के अनुसार ये भी हनुमान जी की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं।

कहा जाता है कि जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि। परंतु ये कवि गण भी हनुमान जी की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं।

अगर हम हनुमान जी के हर एक गुण का अलग-अलग वर्णन करें तो भी हम  हनुमान जी के समस्त गुणों को लिपिबद्ध नहीं कर सकते। जैसे कि उनके दूतकर्म के लिए वाल्मीकि रामायण में श्री रामचंद्र जी के मुंह से कहा गया है:-

एवम् गुण गणैर् युक्ता यस्य स्युः कार्य साधकाः।

स्य सिद्ध्यन्ति सर्वेSर्था दूत वाक्य प्रचोदिताः।।

(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)

अर्थात हे लक्ष्मण एक राजा के पास हनुमान जैसा दूत होना चाहिए जो अपने गुणों से सारे कार्य कर सके। ऐसे दूत के शब्दों से किसी भी राजा के सारे कार्य सफलता पूर्वक पूरे हो सकते हैं।

सीता जी का पता लगाने के लिए जामवंत जी की कसौटी पर केवल हनुमान जी ही खरे उतरते हैं। देखिए जामवंत जी ने क्या कहा :-

हनुमन् हरि राजस्य सुग्रीवस्य समो हि असि |

राम लक्ष्मणयोः च अपि तेजसा च बलेन च ||

(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड-६६-३)

अर्थात हे हनुमान आप वीरता में वानरों के राजा सुग्रीव के समान हैं। आपकी वीरता स्वयं श्री राम और लक्ष्मण के बराबर है।

रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने अवतरण का उद्देश्य भी स्पष्ट किया है –

राम काज लगि तब अवतारा।

सुनतहिं भयउ परबतकारा।।

अर्थात – महावीर हनुमान जी का जन्म ही राम काज करने के लिए हुआ था। यह सुनते ही हनुमान जी पर्वत के आकार के बराबर हो गए।

जब हनुमान जी मां जानकी का पता लगाने के अलावा लंका को जला कर वापस लौटे।  उसके उपरांत सभी बंदर, भालू श्री रामचंद्र जी के पास आए तब जामवंत जी ने हनुमान जी की प्रशंसा में श्री राम चंद्र जी से कहा:-

नाथ पवसुत कीन्हीं जो करनी।

सहसहुं मुख न जाई सो बरनी।।

पवनतनय के चरित सुहाए।

सुनत कृपानिधि मन अति भाए।।

श्रीरामचंद्र जी ने जब यह सुना कि हनुमान जी लंका जलाकर आए हैं तब उन्होंने परम वीर हनुमान जी से घटना का पूरा विवरण जानना चाहा :-

कहु कपि रावन पालित लंका।

केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।

महावीर स्वामी महावीर हनुमान जी ने इसका बड़ा छोटा सा जवाब दिया प्रभु यह सब आपकी कृपा की वजह से हुआ है। यह विनयशीलता की पराकाष्ठा है:-

 प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।

 बोला बचन बिगत हनुमाना।।

साखा मृग के बड़ी मनुसाई।

साखा ते साखा पर जाई।।

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।

निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।

सो सब तव प्रताप रघुराई।

नाथ न मोरी कछु प्रभुताई।

ता कहूं प्रभु कछु अगम नहीं जा पर तुम्ह अनुकूल।

तव प्रभावं बड़वानलहि जारि सकल खलु तूल।।

(रामचरितमानस/सुंदरकांड)

अर्थात महावीर हनुमान जी अपने श्री राम को प्रसन्न देख कर अपने अभिमान और अहंकार का त्याग कर अपने कार्यों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि एक बंदर की क्या विशेषता हो सकती है। वो तो एक पेड़ की शाखा से दूसरी शाखा पर कूदता रहता है। इसी तरह से मैंने समुद्र पार किया और सोने की लंका जलाई। राक्षसों का वध किया और अशोक वाटिका उजाड़  दी।

हे प्रभु  ये सब आपकी प्रभुता का कमाल है। मेरी इसमें कोई शक्ति नहीं है। आप जिस पर भी अनुकूल हो जाते हैं उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होता। आपके प्रभाव से तुरंत जल जाने वाली रुई भी एक बड़े जंगल को जला सकती है।

सूरदास जी ने सूरसागर के नवम स्कंद के 147 वें पद में लिखा है :-

कहाँ गयौ मारुत-पुत्र कुमार।

ह्वै अनाथ रघुनाथ पुकारे, संकट-मित्र हमार।।

इतनी बिपति भरत सुनि पावैं आवैं साजि बरूथ।

कर गहि धनुष जगत कौं जीतैं, कितिक निसाचर जूथ।

नाहिं न और बियौ कोउ समरथ, जाहि पठावौं दूत।

को अब है पौरुष दिखरावै, बिना पौन के पूत?

इतनौ वचन स्त्र वन सुनि हरष्यौ, फूल्यौ अंग न मात।

लै-लै चरन-रेनु निज प्रभु की, रिपु कैं स्त्रोनित न्हात।

अहो पुनीत मीत केसरि-सुत,तुम हित बंधु हमारे।

जिह्वा रोम-रोम-प्रति नाहीं, पौरुष गनौं तुम्हारे!

जहाँ-जहाँ जिहिं काल सँभारे,तहँ-तहँ त्रास निवारे।

सूर सहाइ कियौ बन बसि कै, बन-बिपदा दुख टारै॥147॥

यह पद लक्ष्मण जी को शक्ति लगने के उपरांत की प्रकृति का वर्णन करता है। उस समय श्री हनुमान जी संजीवनी बूटी ढूंढ़ने के बजाय पूरा पर्वत ही उठा कर ले आते हैं और श्री लक्ष्मण जी के प्राण बचाते हैं। हनुमान जी की सेवा के अधीन होकर प्रभु श्रीराम ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा—

कपि-सेवा बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ।

देबेको न कछू रिनियाँ हौं, धनिक तूँ पत्र लिखाउ।।

(विनय-पत्रिका पद १००।७)

‘भैया हनुमान! तुम्हें मेरे पास देने को तो कुछ है नहीं; मैं तेरा ऋणी हूँ तथा तू मेरा धनी (साहूकार) है। बस इसी बात की तू मुझसे सनद लिखा ले।’

इसी प्रकार समय-समय पर हनुमान जी की प्रशंसा मां जानकी, भरत जी, लक्ष्मण जी, रावण एवं अन्य देवताओं ने की है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हनुमान जी की प्रशंसा में हर किसी ने कुछ न कुछ कहा है परंतु तब भी उनकी प्रशंसा पूर्ण नहीं हो पाई है। ऐसे हनुमान जी से प्रार्थना है कि वे हमारी रक्षा करें।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #171 ☆ सब्र और ग़ुरूर ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सब्र और ग़ुरूर । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 171 ☆

☆ सब्र और ग़ुरूर

‘ज़िंदगी दो दिन की है। एक दिन आपके हक़ में और एक दिन आप के खिलाफ़ होती है। जिस दिन आपके हक़ में हो, ग़ुरूर मत करना और जिस दिन खिलाफ़ हो, थोड़ा-सा सब्र ज़रूर करना।’ सब दिन होत समान अर्थात् समय निरंतर चलता रहता है; परिवर्तनशील है; पल-पल रंग बदलता है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सुख में कभी फूलता नहीं; अपनी मर्यादा व सीमाओं का उल्लंघन नहीं करता तथा अभिमान रूपी शत्रु को अपने निकट नहीं फटकने देता,क्योंकि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह दीमक की तरह बड़ी से बड़ी इमारत की जड़ों को खोखला कर देता है। उसी प्रकार अहंनिष्ठ मानव का विनाश अवश्यंभावी होता है। वह दुनिया की नज़रों में थोड़े समय के लिए तो अपना दबदबा क़ायम कर सकता है, परंतु एक अंतराल के पश्चात् वह अपनी मौत स्वयं मर जाता है। लोग उसके निकट जाने से भी गुरेज़ करने लगते हैं। इसलिए मानव को इस तथ्य को सदैव अपने ज़हन में रखना चाहिए कि ‘सुख के सब साथी दु:ख में न कोय।’ सो! मानव को सुख में अपनी औक़ात को सदैव स्मरण रखना चाहिए, क्योंकि सुख सदैव रहने वाला नहीं। वह तो बिजली की कौंध की मानिंद अपनी चकाचौंध प्रदर्शित कर चल देता है

इंसान का सर्वश्रेष्ठ साथी उसका ज़मीर होता है; जो अच्छी बातों पर शाबाशी देता है और बुरी बातों पर अंतर्मन को झकझोरता है। किसी ने सत्य ही कहा है कि ‘हाँ! बीत जाती है सदियाँ/ यह समझने में/ कि हासिल करना क्या है/ जबकि मालूम यह भी नहीं/ इतना जो मिला है/ उसका करना क्या है?’ यही है हमारे जीवन का कटु यथार्थ। हम यह नहीं जान पाते कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है; हम संसार में आए क्यों हैं और हमारे जीवन का प्रयोजन क्या है? इसलिए कहा जाता है कि अच्छे दिनों में आप दूसरों की उपेक्षा मत करें; सबसे अच्छा व्यवहार करें तथा इस बात पर ध्यान केंद्रित करें कि सीढ़ियां चढ़ते हुए बीच राह चलते लोगों की उपेक्षा न करें, क्योंकि लौटते समय वे सब आपको दोबारा अवश्य मिलेंगे। सो! अच्छे दिनों में ग़ुरूर अथवा अहं से दूर रहने का संदेश दिया गया है।

जब समय विपरीत दिशा में चल रहा हो तो मानव को थोड़ा-सा सब्र अथवा संतोष अवश्य रखना चाहिए, क्योंकि सुख वह आत्म-धन है; जो हमारी सकारात्मक सोच को दर्शाता है। इसलिए दु:ख को कभी अपना साथी मत समझिए, क्योंकि सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। एक के जाने के पश्चात्  ही दूसरा दस्तक देता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘जो सुख में साथ दें, रिश्ते होते हैं/ जो दु:ख में साथ दें, फरिश्ते होते हैं।’ विषम परिस्थितियों में कोई कितना ही क्यों न बोले; स्वयं को शांत रखें, क्योंकि धूप कितनी तेज़ हो; समुद्र को नहीं सुखा सकती। सो! अपने मन में मलिनता कभी भी न आने दें; समय जैसा भी है–अच्छा या बुरा गुज़र जाएगा।

विनोबा भावे के अनुसार ‘जब तक मन नहीं जीता जाता और राग-द्वेष शांत नहीं होते; तब तक मनुष्य इंद्रियों का गुलाम बना रहता है।’ सो! मानव को स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना होगा। इसके लिए वाशिंगटन उत्तम सुझाव देते हैं कि ‘अपने कर्त्तव्य में लगे रहना और चुप रहना बदनामी का सबसे अच्छा जवाब है।’ हमें लोगों की बातों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए,क्योंकि लोगों का काम तो दूसरों के मार्ग में कांटे बिछा कर पथ-विचलित करना है। यदि आप कुछ समय के लिए ख़ुद को नियंत्रित कर मौन का दामन थाम लेते हैं और तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते, तो उसका परिणाम घातक नहीं होता। क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति आता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। सो! मौन रह कर अपने कार्य को सदैव निष्ठा से करें और व्यस्त रहें– यही सबसे कारग़र उपाय है। इस प्रकार आप निंदा व बदनामी से बच सकते हैं। वैसे भी बोलना एक सज़ा है। इसलिए मानव को यथा-समय,यथा-स्थान उचित बात कहनी चाहिए ताकि हमारी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान सुरक्षित रह सके। सच्ची बात यदि मर्यादा में रहकर व मधुर भाषा में बोल कर कही जाए, तो सम्मान दिलाती है; वरना कलह का कारण बन जाती है। ग़लत बोलने से मौन रहना श्रेयस्कर है और यही समय की मांग है। दूसरे शब्दों में वाणी पर नियंत्रण व मर्यादापूर्वक वाणी का प्रयोग मानव को सम्मान दिलाता है तथा इसके विपरीत आचरण निरादर का कारण बनता है।

कबीरदास के मतानुसार ‘सबद सहारे बोलि/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद करि औषधि/ एक सबद करि घाव’ अर्थात् वाणी से निकला एक कठोर शब्द भी घाव करके महाभारत करा सकता है तथा वाणी की मर्यादा में रहकर बड़े-बड़े युद्धों पर नियंत्रण किया जा सकता है। आगे चलकर वे कहते हैं कि ‘जिभ्या जिन बस में करी/ तिन बस किये जहान/ नहीं तो औगुन उपजै/ कहें सब संत सुजान।’ इस प्रकार मानव अपने अच्छे स्वभावानुसार बुरे समय को टाल सकता है। दूसरी ओर ‘जे आवहिं संतोष धन,सब धन धूरि समान।’ रहीम जी का यह दोहा भी मानव को आत्म-संतुष्ट रहने की सीख देता है। मानव को किसी से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए,बल्कि जो मिला है अर्थात् प्रभु प्रदत्त कांटों को भी पुष्प-सम मस्तक से लगाना चाहिए और प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिए।

भगवद्गीता का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि ‘जो हुआ है, जो हो रहा है और जो होगा निश्चित अच्छा ही होगा।’ इसमें मानव कुछ नहीं कर सकता। इसलिए उसे नतमस्तक हो स्वीकारना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि ‘होता वही है जो मंज़ूरे ख़ुदा होता है।’ सो! उस परम सत्ता की रज़ा को स्वीकारने के अतिरिक्त मानव के पास कोई विकल्प नहीं होता है।

मीठी बातों से मानव को सर्वत्र सुख प्राप्त होता है और कठोर वचन का त्याग वशीकरण मंत्र है। तुलसी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। मानव को अपनी प्रशंसा सुन कर कभी गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह आपकी उन्नति के मार्ग में बाधक है। इसलिए कठोर वचनों का त्याग वह  वशीकरण मंत्र है; जिसके द्वारा आप दूसरों के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। सो! जीवन में मानव को कभी अहम् नहीं करना चाहिए तथा जो मिला है; उसी में संतोष कर अधिक की कामना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मार्ग हमें पतन की ओर ले जाता है। दूसरे शब्दों में वह हमारे हृदय में राग-द्वेष के भाव को जन्म देता है और हम दूसरों को सुख-सुविधाओं से संपन्न देख उनसे ईर्ष्या करने लग जाते हैं तथा उन्हें नीचा दिखाने के अवसर तलाशने में लिप्त हो जाते हैं। इतना ही नहीं, हम अपने भाग्य को ही नहीं, प्रभु को भी  कोसने लगते हैं कि उसने हमारे साथ वह अन्याय अर्थात् अनर्थ क्यों किया है? दोनों स्थितियों में इंसान ऊपर उठ जाता है। उसे मनोवांछित फल प्राप्त होता है और वह जीते जी आनंद से रहता है। ग़मों व दु:खों की गर्म हवा का झोंका भी उसका स्पर्श नहीं कर पाता।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – युद्ध की विभीषिका और मानव अधिकार- भाग-1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – युद्ध की विभीषिका और मानव अधिकार- भाग-1 ??

(आज गुरुवार 24 फरवरी को रूस-यूक्रेन युद्ध को एक वर्ष पूरा हो रहा है। इस संदर्भ में युद्ध और मानवाधिकार पर यह विशेष आलेख दो भागों में दिया जा रहा है। इस आलेख का अंतिम भाग आप कल के अंक में पढ़ सकते हैं।)

रूस-यूक्रेन युद्ध को आज एक वर्ष पूरा हो रहा है। दुखद है कि जान-माल की अपरिमित हानि के बाद भी यह लड़ाई अब तक जारी है। वस्तुत: युद्ध, मानव निर्मित सबसे बड़ी विभीषिका है। आपदा में व्यापक स्तर पर जनहानि होती है, युद्ध में जनसंहार होता है। आपदा आकस्मिक होती है जबकि युद्ध ठंडे मस्तिष्क से योजना बनाकर लड़ा जाता है। युद्ध के लक्ष्य और शत्रु के वध का प्रयास भी पूर्व निश्चित होता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो युद्ध  अपराध है। विचारपूर्वक योजना बनाकर की गई हत्या के लिए मृत्युदंड अथवा आजीवन कारावास का प्रावधान लगभग पूरी दुनिया में है। तब भी युद्ध को जिस गंभीर स्तर का अपराध माना जाना चाहिए था, वैसा न करते हुए अनेक बार सिलेक्टिव तरीके से उसे अनिवार्य समझा गया है। समस्या के हल के लिए युद्ध को अंतिम विकल्प माना जाता है, जबकि सत्य यह है कि युद्ध आज तक किसी भी समस्या का हल नहीं बन सका। युद्ध स्वयं एक समस्या है। युद्ध के बाद भी दोनों पक्षों को अंततः वार्ता के लिए आमने सामने बैठना ही होता है। ‘टू टर्न द टेबल, यू हैव टू कम टू द टेबल।’  सत्य का एक आयाम यह भी है कि ‘वॉर इज़ वॉट हैपन्स व्हेन लैंग्वेज फेल्स।’ भाषा संवाद का माध्यम है। अत: कहा जा सकता है कि जब संवाद समाप्त हो जाता है तो युद्ध आरम्भ होता है। समय साक्षी है कि विवाद का हल सदैव संवाद से ही हुआ है।

युद्ध की परिभाषा-

  1. सामान्य तौर पर माना जाता है कि ‘वॉर इज़ अ कन्टेनशन/ वायलेंस बिटवीन द आर्म्ड फोर्सेस’ अर्थात युद्ध सशस्त्र सेनाओं के बीच होनेवाला हिंसक विवाद है।
  2. युद्ध दो या अधिक राज्यों के बीच सशस्त्र सेनाओं के माध्यम की एक ऐसी प्रतिद्वंद्विता है जिसका लक्ष्य एक दूसरे को परास्त करना और विजेता की इच्छा के अनुरूप शांति की शर्तों को लादना है।

– (एल. ओपेनहीम)

  1. युद्ध दो या अधिक राज्यों के बीच प्रधानतः सशस्त्र सेनाओं के माध्यम से एक प्रतिद्वंद्विता होती है। प्रत्येक प्रतिद्वंद्वी समूह का दूसरे को परास्त करना तथा अपनी शर्तों के अनुरूप शांति को लादना अंतिम उद्देश्य होता है।

– (जे. बी. स्ट्रेक )

  1. युद्ध मनुष्य के मानवीय संघर्ष का सबसे अधिक हिंसक रूप है।

– (किबालयंग)

  1. युद्ध एक सामाजिक समूह द्वारा दूसरे सामाजिक समूह पर किया संगठित आक्रमण है। इसमें आक्रांता समूह जानबूझकर अनाक्रांता की जान-माल की बरबादी करके अपने हितों की वृद्धि करता है।

– (हॉबेल)

  1. युद्ध उन संबंधों का औपचारिक तौर पर टूटना है जो शांतिकाल मे राष्ट्रों को परस्पर एक दूसरे से बाँधे रखते हैं।

– (इलियट-मैरिल)

  1. साधारणतया युद्ध शब्द का प्रयोग ऐसे शस्त्रात्मक संघर्ष के लिए किया जाता है जो कि चेतन इकाइयों, जैसे; प्रजातियों या जनजातियों, राज्य अथवा छोटी भौगोलिक इकाइयों, धार्मिक अथवा राजनीतिक दलों, आर्थिक वर्गों से निर्मित जनसंख्यात्मक समूहों के अन्तर्गत होता है।

– (सामाजिक-विज्ञान कोश)

ध्यान देने वाली बात है कि विभिन्न परिभाषाओं में ‘शांति के लिए युद्ध’ कहा गया है। ‘पीस बाय फोर्स’ याने अंतिम लक्ष्य शांति है। संभवत: इसीलिए पीसकीपिंग फोर्स या शांतिसेना शब्द  प्रचलन में आया होगा। शांति, चर्चा द्वारा ही संभव है। चर्चा के लिए साथ आना होता है, एक-दूसरे को सुनना होता है।

साथ आना मनुष्यता का लक्षण है। एक दूसरे के अधिकारों की रक्षा मनुष्य से अपेक्षित भी है अन्यथा मनुष्य और मनुष्येतर प्राणियों में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। यही कारण है कि समयानुसार युद्ध के लिए भी कुछ नियम बनाये गए। मानव के मूलभूत अधिकारों की रक्षा का प्रावधान हुआ। समय-समय पर  इन प्रावधानों में बेहतरी होती चली गई।

मानव अधिकार-

संयुक्त राष्ट्रसंघ  ने 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा अंगीकार की थी। इसमें मनुष्य के मूलभूत अधिकारों की घोषणा है‌। ये अधिकार मानव की गरिमा हैं।  ये अधिकार स्त्री-पुरुष के लिए समान हैं। इनका हरण नहीं किया जा सकता।

इसके प्रमुख अनुच्छेद और उनमें वर्णित मानव अधिकारों की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है-

अनुच्छेद 1–2 : गरिमा, स्वतंत्रता और समानता की मूलभूत अवधारणाओं की स्थापना।

अनुच्छेद 3-5 :  जीवन का अधिकार, साथ ही दासता तथा यातना का निषेध जैसे अन्य व्यक्तिगत अधिकारों की स्थापना।

अनुच्छेद 6-11 : मानवाधिकारों की मौलिक वैधता का उल्लेख। उल्लंघन होने पर उनकी रक्षा के लिए विशिष्ट उपायों की जानकारी।

अनुच्छेद 12-17 : समुदाय के प्रति व्यक्ति के अधिकारों का निर्धारण। इसके अंतर्गत प्रत्येक राज्य के भीतर आंदोलन और निवास की स्वतंत्रता, संपत्ति का अधिकार और राष्ट्रीयता के अधिकार का समावेशन।

अनुच्छेद 18-21 :  संवैधानिक स्वतंत्रता और आध्यात्मिक, सार्वजनिक और राजनीतिक स्वतंत्रता, जैसे विचार, धर्म, विवेक, व्यक्ति की शांतिपूर्ण संगति एवं जानकारी प्राप्त करने और प्रदान करने की स्वतंत्रता को अनुमति।  संचार के किसी भी माध्यम से विचाराभिव्यक्ति का अधिकार।

अनुच्छेद 22-27 :  व्यक्ति के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को अनुमति। स्वास्थ्य सम्बंधी सुश्रुषा, समुचित जीवन स्तर का अधिकार। प्रसूति काल एवं बाल्यावस्था में वांछनीय देखभाल।

अनुच्छेद 28-30 : पूर्व अनुच्छेदों में उल्लेखित अधिकारों का प्रयोग करने के साधनों की स्थापना। साथ ही अनुच्छेद 1 से 30 में उल्लेखित किसी भी बात का अपनी सुविधा से ऐसा अर्थ लगाना निषिद्ध करना, जिससे इन अनुच्छेदों में निर्दिष्ट अधिकारों और स्वतंत्रताओं में से किसी का भी हनन हो सकता हो।

युद्ध और मानवाधिकार-

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मानवाधिकारों को न केवल सार्वभौमिक कहा है अपितु हर स्थिति में इनकी रक्षा किये जाने पर बल दिया है। युद्ध भी इसका अपवाद नहीं है। फलत: कोई कारण नहीं बनता कि युद्ध में मानव के अधिकार निरस्त हो जाएँ।

नरसंहार, शांति के खिलाफ अपराध, युद्ध नियमों का उल्लंघन और मानवता के खिलाफ अपराध, युद्ध अपराधों की प्रमुख श्रेणियाँ हैं।

मानवाधिकार उल्लंघन के इन कृत्यों में नागरिकों पर हमला, असैनिक / निवासी इमारतों पर हमला, अस्पतालों और स्कूलों जैसे संरक्षित संस्थानों पर हमला, सैनिकों के शवों से छेड़छाड़ करना, आत्मसमर्पण करने का अवसर नहीं देना, नागरिकों के शवों से छेड़छाड़ करना, युद्धकालीन यौन हिंसा, लूट, यातना, बाल सैनिकों का उपयोग आदि शामिल हैं।

तथापि कटु सत्य यह है कि नियम बनते ही तोड़े जाने के लिए हैं। युद्ध एक ऐसी विशेष परिस्थिति है जहाँ हर ओर मृत्यु का तांडव हो रहा होता है। ऐसे में युद्ध को मॉनिटर करना या संतुलित ढंग से निरीक्षण कर पाना संभव नहीं होता। यही कारण है मानव इतिहास के विभिन्न युद्धों में मानवाधिकारों का निरंतर हनन हुआ है। मानवी बर्बरता और मनुष्य के भीतर का विद्रूप और वीभत्स चेहरा अनेक बार सामने आया है।

विचार करें तो युद्ध अपने आप में मनुष्यता का उल्लंघन है। संयुक्त राष्ट्रसंघ का इस सम्बंध में स्पष्ट दिशा निर्देश है- “सभी सदस्य राष्ट्रों को अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में किसी भी राज्य की क्षेत्रीय अखंडता या राजनीतिक स्वतंत्रता के खिलाफ या संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों से असंगत किसी अन्य तरीके से बल के खतरे या प्रयोग से बचना चाहिए।” (अनुच्छेद 2/4) तथ्य यह है कि इन दिशा-निर्देशों के बाद भी विश्व में अनेक बार युद्ध हुए हैं। इन युद्धों में न्यूनाधिक मात्रा में मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएँ हुई हैं।

प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध सहित अन्य अनेक युद्धों / युद्ध सदृश्य संघर्षों में मानवाधिकारों का सरेआम और खुलकर उल्लंघन हुआ है।

द्वितीय विश्वयुद्ध में नाज़ियों द्वारा बंदी बनाये गए सोवियत सैनिकों के साथ जो दुर्व्यवहार किया गया, वह रोंगटे खड़े कर देता है। एक अध्ययन के अनुसार लगभग 3.3 मिलियन सोवियत सैनिकों का संहार किया गया। इनमें से अनेक को गोली मार दी गई। गोली का खर्च बचाने के लिए जानबूझकर खतरनाक स्थितियाँ और भुखमरी पैदा की गई। बड़ी संख्या में सोवियत सैनिक भूख के चलते मृत्यु को प्राप्त हुए। यहाँ तक कि विवशता में कुछ सोवियत सैनिकों के नरभक्षी हो जाने की रिपोर्टें भी मिलीं।

विश्व के सबसे बड़े जनसंहार होलोकास्ट में लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी गई थी। यह यहूदियों की कुल आबादी का लगभग दो-तिहाई आँकड़ा माना जाता है। इनमें गैस चेंबर में डालकर मार देना, मारपीट,  सरेआम गोली मारना, ठंड में निर्वस्त्र छोड़ देना जैसे क्रूर तौर तरीके सम्मिलित थे।

1864 के सेरासियन जनसंहार में लगभग 25 लाख नागरिकों को अत्यंत वीभत्स और जघन्य तरीके से मृत्यु के हवाले कर दिया गया था। रशियन सेना ने इनमें महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा था। माना जाता है कि इसके चलते सेरासियन की 90% आबादी समाप्त हो गई थी।

1915 में तुर्की की ऑटोमन सेना ने आर्मेनिया में जबरदस्त नरसंहार किया था। इसमें लगभग 15 लाख नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी।

फिलीपींस और वियतनाम में अमेरिकी सेना द्वारा स्थानीय सैनिकों और नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार की सारी हदें पार कर दी गईं। 1968 में वियतनाम के माई लाई गाँव में रात के समय बड़ी संख्या में महिलाओं और बच्चों सहित नागरिकों की सामूहिक हत्या कर दी गई थी।

70 के दशक में कंबोडिया में खमेर रूज के शासन में लगभग 20 लाग लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इसके कारणों में निरंतर कठोर काम करवाना, भुखमरी, मृत्युदंड शामिल थे।

90 के दशक में रवांडा के गृहयुद्ध में हुतू जनजाति द्वारा तुत्सी जनजाति के 5 लाख नागरिकों की हत्या करने का अंदेशा है। इसी दशक में बोस्निया में हुआ नरसंहार भी मानवता के चेहरे पर कालिख पोतने वाला है।

क्रमशः… 

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603 ईमेलसंजयउवाच@डाटामेल.भारत; [email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जाएगी। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आलेख ☆ “हिंदी उपन्यासकार अनूपलाल मंडल, उनकी कथा यात्रा और औपन्यासिक विन्यास” – भाग -2 ☆ डॉ. सदानंद पॉल ☆

डॉ. सदानंद पॉल

परिचय

तीन विषयों में एम.ए., नेट उत्तीर्ण, जे.आर.एफ. (MoC), मानद डॉक्टरेट.

‘वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ लिए गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकार्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्स होल्डर सहित सर्वाधिक 300+ रिकॉर्ड्स हेतु नाम दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: ‘नेशनल अवार्ड’ प्राप्तकर्त्ता.

पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 10,000 से अधिक रचनाएँ और पत्र प्रकाशित. सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में अहर्ता  प्राप्त. पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.

☆ आलेख ☆ “हिंदी उपन्यासकार अनूपलाल मंडल, उनकी कथा यात्रा और औपन्यासिक विन्यास” – भाग-1 ☆ डॉ. सदानंद पॉल ☆

(डॉ सदानंद पॉल जी के शोध आलेख का अंतिम भाग … इस आलेख में प्रकाशित तथ्य एवं विचार डॉ सदानंद पॉल जी के व्यक्तिगत विचार हैं।)

उनकी कुछ रचनाएँ मैंने ‘अनूपलाल मंडल विशेषांक’ पर प्रूफ-सहयोगार्थ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद में देखा। अपने ‘सर’ और वरिष्ठ साहित्यिक मित्र डॉ0 रामधारी सिंह ‘दिवाकर’ के सौजन्यत: इसे अवलोकन किया, पढ़ा और वहीं को वापस कर दिया। उनकी शैली, भाषाई शिष्टता संस्कृत से निःसृत हिंदी सदृश है, परन्तु ‘प्लॉट’ के दुर्बल पक्ष होने के कारण मुझे कुछ खास नहीं लगा। कहानी में विन्यास अच्छी थी, किंतु औपन्यासिक रिद्म में नहीं थी, परंतु देशभक्ति उनकी कहानियाँ में निहित है। हाँ, वे टीकापट्टी सहित भागलपुर क्षेत्र से स्वतंत्रता-आंदोलन हेतु आगाज़ किए थे। डॉ0 परमानंद पांडेय ने लिखा है- “भागलपुर में बयालीस का आंदोलन छिड़ गया था। मैं भागा-भागा रहता था। पुलिस मेरे भी पीछे थी। …. तब तक मंडल जी (अनूपलाल मंडल) भी जेल जा चुके थे।” इसपर डॉ0 छेदी पंडित ने लिखा है- “उन्होंने कई बार स्वतंत्रता-संग्राम में सम्मिलित होने एवं जेल-यातना भोगने की चर्चा की, फिर पूछने पर कि वे स्वतंत्रता-सेनानी का पेंशन पाने का प्रयास  क्यों नहीं किया, जवाब रूखा था कि ‘गुलामी की जंजीर तोड़ने में स्वल्प सहयोग कर मैंने अपना ही काम किया था, दूसरे का नहीं। मैं गुलामी के बंधन से मुक्त हूँ, इससे बढ़कर क्या लाभ हो सकता है ? मैंने पैसे के लिए कष्ट नहीं उठाया था, अपितु भारत माँ की सेवा की थी। माँ की सेवा का मूल्य थोड़े ही लिया जाता है !”

यद्यपि उन दिनों पुस्तकों का सृजन और प्रकाशन बेहद क्लिष्टतम था, तथापि तीन दर्जन से अधिक की संख्या में प्रणयन कोई सामान्य बात नहीं है। आइये, इस बारे में हम अनूप-साहित्य पर विद्वानों के मत जानते हैं…..

पं0 राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है- “उपन्यास तो आप सुंदर लिख लेते हैं…. पर मुझे एक बात आपकी बिल्कुल नापसंद लगी और वह यह कि आपके पात्र में मर्दानापन नहीं झलकता। वक्त आने पर छुई-मुई हो जाता है, उसका तेज, उसका शौर्य न जाने कहाँ चला जाता है ? यह तो ठीक लक्षण नहीं ! उपन्यासों में ऐसी कमी उन्हें दुर्बल बना देती है। प्रेम करने चलते हो, तो पाँव लड़खड़ाने से भला कहाँ, कैसे काम चलेगा ? साधु बनो तो पूरे साधु बनो, चोर बनना हो तो पक्का चोर बनो। साहित्य में अधकचरे से काम नहीं चलता, वैसे जीवन में भी ! रामखुदाई से काम नहीं चला करता। मस्त होकर लिखो। देखोगे- कमी न रह पाएगी। चीज चोखी उतरेगी।” कुछ ऐसा ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नहले पे दहला कहा है- “आपके उपन्यास ‘केंद्र और परिधि’ में नायक-पात्र की दुर्बलता उजागर हुई है, क्योंकि लिखते-लिखते आप ऐसी जगह जाकर ‘नर्वस’ हो जाते हैं, जहाँ नायक-नायिका को दिलेरी दिखानी चाहिए, उसे दुस्साहसिक होना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर पाठक वहाँ निराश हो जाता है, कथा का सौंदर्य नष्ट हो जाता है, रस-परिपाक में बाधा आ जाती है। मैं सोचता हूँ- आपका जीवन ही कुछ ऐसे साँचे में ढाला है, जहाँ संवेदनशीलता ही अधिक है, दुस्साहसिकता नहीं के बराबर। अच्छे उपन्यास के जितने गुण हैं, वे इस उपन्यास में मुझे दीख पड़े हैं, परंतु अगर ऐसी खामियाँ नहीं होती, तो यह कृति हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों में आदर के साथ स्थान पाती।”

लेखिका सुशीला झा ने लेख ‘अनूपलाल मंडल की नारी-भावना’ में लिखती हैं- “नारी-रूप के कुशल चित्रकार हैं अनूपजी। उनके महिला पात्र अन्नपूर्णा, अरुणा, शीला, नंदिता, रेखा मित्रा, मणि, ज्योति, वसुमति, कुसुम मिश्रा, लता, प्रभावती, उषा इत्यादि कोमल तंतुओं से निर्मित कमनीय नारियाँ हैं। अभया, दुर्गा, यमुना, मल्लिका व मेनका, रज्जो, सरस, सोना, उत्पला सिन्हा, हेमंतनी शुक्ला इत्यादि नारियों में कमनीयता के साथ बुद्धिमत्ता भी है। ‘अन्नपूर्णा’ की प्रमदा, ‘समाज की वेदी पर’ की सुधामयी, ‘साकी’ की सुषमा, ‘मीमांसा’ की अरुणा, ‘अभियान पथ’ की शकुंतला, ‘बुझने न पाए’ की मृणालिनी, निर्मला, चंपा, ‘केंद्र और परिधि’ की नंदिता, ‘ज्योर्तिमयी’ की नायिका ज्योर्तिमयी, मंझली भाभी अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाली आदर्श पत्नियाँ हैं। मीना आदर्श गणिका के रूप में एकनिष्ठ होकर कुमार से अनुरक्त हो गई है और अंत में वही उसकी जमींदारी तथा उसके जीवन की रक्षा भी करती है। सविता वीरांगना जगत से निकलकर लोकहित के लिए सन्यासिनी बन गई। अनूपजी का हृदय वेश्याओं और विधवाओं के प्रति विशेष रूप से सहानुभूति लिए हैं। प्रश्न उठता है कि वेश्याओं के प्रति इतने समादर क्यों प्रदर्शित किया गया है?”

डॉ0 दुर्योधन सिंह ‘दिनेश’ ने अनूपजी के उपन्यास ‘समाज की वेदी पर’ की समीक्षा करते हुए लिखा है- “वह सम्पूर्ण नारी-जाति का सम्मान करता है और आदर की निगाह से देखता है, चाहे वह वेश्या हो या देव कन्या। नारी पात्रों में हसीना के माध्यम से उपन्यासकार एक ऊँचा आदर्श प्रस्तुत करता है। वेश्या के वासनात्मक परिवेश में पलकर भी हसीना सती-साध्वी बनी रहती है। वह हिन्दू धर्म में दीक्षित होकर प्रो0 धीरेंद्र की आदर्श पत्नी बन जाती है और समय आने पर पति के कंधा से कंधा मिलाकर चलती है  वह वेश्यावृत्ति पर कसकर कुठाराघात करती है।”

अनूपलाल मंडल इतने रचकर भी अपठित और विस्मृत क्यों हो गए हैं ? देश और बिहार की बात ही छोड़िये, उनके गृहजिला के कितने व्यक्ति उन्हें जानते हैं ? कितने साहित्य-मनीषियों ने उनकी रचनाएँ सिंहावलोकित किए हैं ? स्वीकारात्मक उत्तर में कुछ फीसदी ही होंगे ! प्रख्यात कथाकार डॉ0 रामधारी सिंह दिवाकर लिखते हैं- “अनूपलाल मंडल के विस्मृत हो जाने या अचर्चित रह जाने की एक वजह बिहार के स्कूलों और विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रमों से उनको निकाल बाहर करना है। आरम्भ से ही बिहार के हिंदी पाठ्यक्रमों से अनूपलाल मंडल का नाम मिटा देने की साज़िश का नतीजा है कि विद्यार्थियों की कौन कहे, एम0 ए0 तक हिंदी पढ़ानेवाले बिहार के प्राध्यापकों तक ने ऐसे महत्वपूर्ण उपन्यासकार का नाम नहीं सुना ! किसी भी साहित्यकार का कुछ नहीं पढ़ना और साहित्यकार का नाम ही न सुनना– दो भिन्न स्थितियाँ हैं। अनेक साहित्यकार हैं, जिनका लिखा हमने-आपने नहीं पढ़ा है, लेकिन नाम सुना है, किंतु अनूपलाल मंडल बिहार के ऐसे अभिशप्त कथाकार हैं, जिनका नाम ही मिटता जा रहा है।” हालाँकि 1948 में प्रकाशित व अनूपजी द्वारा  बांग्ला से हिंदी में अनूदित रचना ‘नीतिशास्त्र’ को कुछ कालावधि के लिए टी0 एम0 भागलपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था और ‘मीमांसा’ के अंश को आई0 ए0 पाठ्यक्रम हेतु रांची विश्वविद्यालय ने शामिल  किया था।

उन्होंने कुर्सेला स्टेट के बड़े जमींदार व रायबहादुर बाबू रघुवंश प्रसाद सिंह की जीवनी भी लिखी, तब रघुवंश बाबू की 70वीं जन्मतिथि थी। जमीन और आमलोगों से जुड़े अनूपजी द्वारा ऐसे कृत्यकारक समझ से परे है! तब क्या कारण रहे होंगे या उनकी भूमिका ‘दरबारी’ की थी, यह सुस्पष्ट तब हुआ जा सकता है, जब उनकी आत्मकथा प्रकाशित होगी! ‘मैला आँचल’ के अमरशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु के पिता शिलानाथ मंडल (विश्वास) और अनूपलाल मंडल के बीच दोस्ताना संबंध था, इस दृष्टि से अनूपजी ‘रेणुजी’ के पितातुल्य थे। ऐसा कहा जाता है, रेणुजी को लेखक बनाने में क्षेत्र के अन्य लेखक-त्रयी का अमिट योगदान रहा है, उनके नाम हैं- अनूपलाल मंडल, सतीनाथ भादुड़ी (बांग्ला) और रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’। इतना ही नहीं, ‘मैला आँचल’ की पांडुलिपि का प्रूफरीडिंग और टंकण अनूपजी ने ही कराए थे। अनूपजी ने रेणु-प्रसंग को लिखा है- “नेशनल स्कूल, फारबिसगंज में मुझे एक व्यक्ति मिला, जिनका नाम श्री शिलानाथ विश्वास (मंडल) था, परिचय हुआ और वह परिचय हमदोनों की मित्रता का कारण बना। वे मेरे लिए घर से सौगात लाते, मुझे अपने सामने बिठाकर खिलाते और दिनभर हमदोनों की गपशप चलती। उसी गपशप के प्रसंग में उनसे ज्ञात हुआ कि उनका लड़का मिडिल अंग्रेजी पास कर कांग्रेस का वालेंटियर हो गया है, दिनभर गाँव-गाँव चक्कर लगाता है और रात को यहीं आकर विश्राम करता है। मैं (शिलानाथ) चाहता था कि कम से कम वह मैट्रिक पास कर जाता, तो अच्छा होता। वह आपके (मेरे) उपन्यासों को बड़े चाव से पढ़ गया है, जो आप मुझे बराबर भेंटस्वरूप देते रहे हैं। मैंने उन्हें आश्वस्त किया। …. और एक दिन 13-14 साल का सलोना किशोर, बड़े-बड़े केश, नाक-नक्श सुंदर, खादी के नीले हाफ पैंट और सफेद खादी की हाफ शर्ट में उसकी शक्ल खिली हुई थी, मैंने उनसे कहा- ‘जब तुम्हें मेरे उपन्यास पढ़ने का चाव है, तो तुम्हें उसके पहले हाईस्कूल में भी पढ़ लेना चाहिए, कम से कम आई0 ए0, बी0 ए0 न भी कर सको, तो कम से कम मैट्रिक तो करना चाहिए। जब कभी अपना देश स्वाधीन होगा, तब आज के जो बी0 ए0, एम0 ए0 पास लीडर हैं, वे ही मिनिस्टर होंगे, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति बनेंगे और प्रत्येक स्वाधीन देश में वे ही राजदूत बनाकर बाहर भेजे जाएंगे। जो पढ़ा-लिखा नहीं हैं, वह वालेंटियर का वालेंटियर ही धरा रह जायेगा। भगवान ने तुम्हें इतनी अच्छी आकृति दी है, बुद्धि भी तुम्हारी तीक्ष्ण है। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी बात मानो, अभी कुछ नहीं बिगड़ा, नाम लिखाकर मैट्रिक पास कर लो, फिर वालेंटियर क्या नायक होकर कांग्रेस में काम करना है।’ लड़का भला था, क्षणभर में मुझसे कहा- ‘आप बाबू जी से कह दीजिएगा कि मैं पढूँगा। वे मेरा नाम लिखा देने की व्यवस्था कर दें।’ वह लड़का फणीश्वरनाथ रेणु है, जिसने ‘मैला आँचल’ लिखकर हिंदी उपन्यास क्षेत्र में सनसनी पैदा कर दी। अब तो अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत हो चुका है और रूसी भाषा में ‘मैला आँचल’ अनूदित हो चुका है। मेरे प्रति उसकी वैसी ही श्रद्धा-निष्ठा है, जैसी पहले थी।” डॉ0 लक्ष्मी नारायण ‘सुधांशु’ को आगे बढ़ाने में उनकी महती भूमिका रही। उन्होंने लिखा है- “सुधांशु जी के ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ का युगांतर से प्रकाशन हुआ, पार्ट पैमेंट के तौर पर उनका बिल चुकाना था। ‘समाज की वेदी पर’ के दूसरे संस्करण के बिल का चुकता भी नहीं हो सका था कि प्रेस के सौजन्य से दूसरी पुस्तक भी छप चुकी थी और उसका बिल सामने था, साख बनाकर रखनी थी, इसलिए उसके चुकाने की अवस्था में जाना मेरे लिए अत्यंत आवश्यक हो उठता। तब द्विजदेनी जी याद आते !” कला भवन, पूर्णिया की स्थापना में उनकी महती भूमिका रही।

अनूपजी के उपन्यास प्रेमचंदीय उपन्यासों की भाँति प्रगतिशील यथार्थ में अंतर्निहित नहीं हैं, अपितु उनकी रचनाएँ अज्ञेयजी की रचनाओं की भाँति रोमांटिक यथार्थ से जुड़े हैं, बावजूद वे व्यक्तित्व में अज्ञेय नहीं थे ! कथा-शिल्प में भी प्रेमचंद से उनकी तुलना बेमानी कही जाएगी। कथाकार मधुकर सिंह ने लिखा है- “अनूपलाल मंडल ‘जैनेन्द्र कुमार’ के भी समकालीन रहे हैं, इनकी भावुकता का प्रभाव भी स्वाभाविक है, क्योंकि प्रेमचंद के बाद अज्ञेय, जैनेन्द्र और यशपाल सशक्त कथाकार रहे हैं। इनमें यशपाल सर्वथा अलग धारा के कथाकार हैं, जो प्रेमचंद-परंपरा के ज्यादा करीब हैं। मंडल जी में जैनेन्द्र की भावधारा के होने के बावजूद इनके विषय, पात्र, परिवेश बिल्कुल अलग रहे हैं, जो जैनेन्द्र की तरह कहीं से भी आधुनिक नहीं हैं।” तभी यह बात अक्सरात मानस-पटल को कुरेदता है कि उन्हें किसने बिहार के ‘प्रेमचंद’ का तमगा दिया, यह ‘पता’ किसी को नहीं है ! सर्वविदित है, कोई भी रचनाकार न सिर्फ अपने क्षेत्र, अपितु  सीमापारीय होते हैं ! ‘बिहार का प्रेमचंद’ कहकर उनकी रचनाओं को शुरुआती दिनों से ही ‘संकुचित’ किया जाने की अघोषित साजिश चलती आई है, इसलिए इन  उपन्यासों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में पुनर्प्रकाशित कर ही अनूपलाल मंडल की पहचान को विस्तृत फलकीय, कालातीत और चिरनीत रखा जा सकता है। डॉ0 खगेन्द्र ठाकुर ने स्पष्ट लिखा है- “अनूपलाल मंडल प्रेमचंद की छाया में पले लेखक नहीं हैं। मंडल जी का औपन्यासिक धरातल प्रेमचंद से भिन्न है और सच यह भी है कि प्रेमचंद ने जो ऊँचाई प्राप्त की, वहाँ तक मंडल जी नहीं पहुँच पाए। अनूपलाल मंडल के लेखन का एक परिप्रेक्ष्य है, लेकिन वह प्रेमचंद से भिन्न है। सिर्फ समानता दोनों के उपन्यासकार होने में हैं। हाँ, मंडल जी के उपन्यास-लेखन का दृष्टिकोण विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ से मिलता-जुलता है। प्रेमचंद के ‘निर्मला’ और ‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास ही मंडल जी के उपन्यासों से मेल खाते हैं !” वहीं, प्रो0 सुरेंद्र स्निग्ध ने दृढ़ता से अनूपलाल मंडल को ‘प्रेमचंद स्कूल’ का उपन्यासकार  कहा है और स्निग्ध जी के कारण ही वह ‘बिहार के प्रेमचंद’ हो गए होंगे ! कहा जाता है, वे शांतिनिकेतन, बोलपुर जाकर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से आशीर्वाद भी लिए थे। उन्हें ‘साहित्यरत्न’ से लेकर विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ ने ‘विद्यासागर’ की मानद उपाधि भी प्रदान किया था। तभी तो डॉ0 परमानंद पांडेय ने उन्हें लिखते हुए ‘अनूप साहित्यरत्न’ कहा है।

‘साकी’ का अंत उन्होंने उर्दू के एक शे’र से किया था और मैं भी इस शे’र के साथ हूँ, जो है-

“साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना,
जब सर को झुकाता हूँ, तो शीशा नज़र आता है।”

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संदर्भ-ग्रंथ:- 

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की पुस्तकें, पत्रिकाएँ, अन्य पुस्तकें, उनसे जुड़े साहित्यकारों/लोगों के साक्षात्कार और आलेखक द्वारा उपन्यासकार अनूपलाल मण्डल के गांव-घर की स्वानुभूति साहित्यिक-यात्रा।

© डॉ. सदानंद पॉल

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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