हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 71 ☆ बच्चों के विकास में बाल कविताओं की भूमिका ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “बच्चों के विकास में बाल कविताओं की भूमिका।)

☆ किसलय की कलम से # 71 ☆

☆ बच्चों के विकास में बाल कविताओं की भूमिका ☆ 

बच्चों के बौद्धिक स्तर, उनकी आयु व अभिरुचि का ध्यान रखते हुए उनके सर्वांगीण विकास में देश, समाज एवं परिवार के प्रत्येक सदस्य का उत्तरदायित्व होता है। हमारे समवेत प्रयास ही बच्चों के यथोचित विकास में चार चाँद लगा सकते हैं। बाल विकास में साहित्य का जितना योगदान है उतना किसी अन्य विकल्प का नहीं है। खासतौर पर आठ सौ वर्ष से अब तक लिखी गईं बाल कविताओं एवं प्रचलित विविध पद्यात्मक अंशों के योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि आज भी इनका बच्चों के जीवन में विशेष स्थान है। जब बाल कविताओं का इतना महत्त्व है तब इनके उपयोग, स्तर, विषय के अतिरिक्त इनके प्रयोग एवं सृजन में सावधानी तथा संवेदनशीलता पर ध्यान देना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। वहीं इस अहम विषय की जानकारी भी आमजन को होना बहुत जरूरी है।

इसलिए यहाँ सर्वप्रथम यह जान लेना चाहिए कि बाल कविताओं का सीधा अभिप्राय बालकों से संबंधित रचनाओं से होता है। वैश्विक स्तर पर कविताओं को मानव जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। वार्ता, मनोरंजन, हर्ष-विषाद, स्नेह-स्मृति सहित बच्चे-बूढ़ों का कविताओं से सनातन नाता रहा है। बच्चों के जन्म लेते ही माँ अपने बच्चों को सुलाने के लिए लोरियाँ सुनाती है। बहलाने हेतु लोकगीत अथवा पारंपरिक गीतों का सहारा लेती है। उम्र और समझ के अनुसार छोटी-छोटी पंक्तियों और सरल शब्दों वाले गीत सुना कर उन्हें बहलाती है और स्वयं भी आनंदित होती है। प्रायः देखा गया है कि 3 से 4 वर्ष तक की आयु के बच्चे छोटे-छोटे गीत और कविताओं पर ध्यान देने लगते हैं। 5 से 6 वर्ष के बच्चे तो कविताओं से संबंधित प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं। लेकिन आज दुर्भाग्य यह है कि कविताएँ, गीत, पद्यात्मक लोकोक्तियाँ, पहेलियाँ आदि सुनाने के लिए न तो दादा-दादी और न ही नाना-नानी मिलते, वहीं माँ-बाप को इतनी फुर्सत नहीं मिलती कि वे बच्चों को बाल कविताएँ सुना सकें और उनकी जिज्ञासाओं को शांत कर सकें। उन्हें समझाने की बात तो दूर, उन्हें पारंपरिक, आधुनिक और बौद्धिक खुराक भी नहीं दे पाते।

हम सभी को ज्ञात होना चाहिए कि बच्चों को एकांत और नीरसता कतई पसंद नहीं होती। बच्चों को खेल-खेल में जीवनोपयोगी बातों, पद्यात्मक लोकोक्तियों, मुहावरों, मुक्तकों और पहेलियों के माध्यम से कुछ न कुछ सिखाते रहना चाहिए। शिक्षा और संस्कृति  विषयक कवितायें छोटी होने के साथ-साथ बच्चों को याद होने लायक हों।शब्द व भाव उनके द्वारा भोगे गए बचपने के हों तो उन्हें रुचिकर भी लगेगा और वे उन्हें याद भी कर सकेंगे। बच्चे अक्सर उन्हें गुनगुनाते भी रहते हैं। कवितायें आनंदप्रद तो होती ही हैं वे बच्चों के विकसित हो रहे मस्तिष्क को और भी सक्रिय करती हैं, क्योंकि बच्चे बाल कविताओं  को पढ़ते समय कवि की भावनाओं से जुड़कर अपने व्यक्तिगत जीवन की बातों को भूल-से जाते हैं। आशय यह है कि इस महत्त्वपूर्ण बात को ध्यान में रखकर कवि द्वारा बच्चों की उम्र व समझ के अनुरूप ही काव्य रचना करना चाहिए। बाल कविताओं की सृजन प्रक्रिया में बच्चों के परिवेश, उनकी रुचि, भाषा की सरलता, छोटी पंक्तियाँ आदि पर विशेष ध्यान देना श्रेयस्कर होता है अन्यथा बहुविषयक बोझिलता बच्चों के लिए अप्रियता का कारण बन सकती है।

कविताओं में लल्ला लल्ला लोरी, ईचक दाना बीचक दाना या फिर अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो जैसे निरर्थक शब्दों का प्रयोग भी अधिकतर बालकों की रुचि को और बढ़ा देते हैं। उम्र के पड़ाव पर पड़ाव पार होने के बावज़ूद ऐसी अनेक काव्य पंक्तियाँ या काव्यांश होंगे जो आज भी हम सबको मुखाग्र  हैं। भले ही ये शब्द लय की पूर्णता हेतु प्रयोग किए जाते हैं लेकिन गीत या कविता की लोकप्रियता में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। कवि द्वारा यह ध्यान देना भी जरूरी  है कि सृजन में राजनीति, वैमनस्य, फरेब, हिंसा जैसे विषय समाहित न हों, क्योंकि हमारे इर्द-गिर्द के पशु-पक्षी, फल-फूल, सब्जियाँ, आकाश, सूरज-चाँद-सितारे और अपने खिलौनों के साथ हमउम्र बच्चे ही इनकी छोटी-सी दुनिया होते हैं। धर्म, राजनीति, लिंगभेद, जाति का इनकी दिनचर्या में कोई स्थान नहीं होता।

बच्चों की दिनचर्या और इनकी बारीक से बारीक गतिविधियों पर असंख्य कविताएँ लिखी गई हैं। बाल काव्य लेखन में निश्चित रूप से महाकवि ‘सूर’ को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। ‘तुलसी’ बाबा को बाल काव्य सृजन में दूसरा स्थान प्राप्त है। इन श्रेष्ठतम महाकवियों के बाल विषयक काव्य का विश्व में कोई सानी नहीं। बावज़ूद इसके बालोपयोगी और बच्चों की समझ में आने वाली कविताओं का आज भी टोटा है। इसका आशय यह कदापि नहीं है कि बाल कविताएँ लिखी ही नहीं जा रही हैं। बड़े से बड़ा कवि बाल कविताओं को अपने सृजन में अवकाश देता है।

बालोपयोगी एवं बाल मनोरंजन हेतु लिखी गई कविताओं का बहुत प्राचीन इतिहास है। 14वीं शताब्दी के प्रारंभ को ही देखें तो अमीर खुसरो लिख चुके थे-

‘एक थाल मोती से भरा

सबके ऊपर औंधा धरा’

भारतेंदु हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, कामता प्रसाद गुरु, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय, देवी दयाल चतुर्वेदी, आचार्य भगवत दुबे, अश्विनी पाठक, सुरेश कुशवाहा तन्मय आदि ऐसे कवि-कवयित्री हैं जिन्होंने बाल कविताओं के माध्यम से बच्चों के ज्ञानवर्धन के साथ मनोरंजन भी किया है।

आज बदलती शिक्षा प्रणाली, बदलते परिवेश व व्यस्त दिनचर्या के चलते जीवनमूल्य, मनुष्यता एवं चारित्रिक बातें समयानुकूल नहीं मानी जातीं। आज अधिकांश लोगों का मात्र एक ही उद्देश्य रहता है कि हमारी संतान विद्यालय में पैर रखते ही कक्षा में अव्वल आए और मेरिट में आते हुए पूर्ण शिक्षित हो, तदुपरांत श्रेष्ठ से श्रेष्ठ नौकरी या व्यवसाय प्राप्त कर ले।

आज की परिस्थितियों में धर्म, राजनीति, रिश्ते और परहित के पाठ जीवन जीने के लिए उतने जरूरी नहीं माने जाते जितना कि निजी वर्चस्व और समृद्धि की सुनिश्चितता होती है। यही वर्तमान जीवनशैली आज का मूल मंत्र है जो हमें अपने ही परिवार और इस समाज से मिला है। हम गहनता से चिंतन-मनन करें तो कारण स्वतः स्पष्ट हो जाएगा कि आज के बच्चे भारतीय संस्कृति, धर्म, परंपराओं, रिश्तों एवं व्यवहारिकता से दूर क्यों होते जा रहे हैं।

बच्चों में सद्कर्मों के अंकुरण में बाल कविताओं का स्थान कमतर नहीं है। आज बालकों को पाठ्यक्रम से इतर पढ़ने, समझने, सामाजिक जीवन जीने तथा साहित्य सृजन हेतु समय और अवसर दोनों ही नहीं मिलते। एक जमाना था जब बच्चों को साहित्य लेखन हेतु प्रोत्साहित किया जाता था उनके लेखन की गलतियों को नजरअंदाज करते हुए उनकी बौद्धिक एवं सामाजिक क्षमता को बढ़ाया जाता था। यह सृजन क्षमता उनकी बहुआयामी मौलिकता की पहचान एवं उनके यथोचित विकास में सहायक होती थी। बच्चों द्वारा किया गया सृजन एवं बचपन में कंठस्थ कविताएँ उन्हें जीवन भर याद रहती हैं, जो उन्हें समय-समय पर सद्कर्मों हेतु प्रेरित करती हैं।

साहित्य सृजन में रुचि रखने वाले बालकों को स्थानीय और देश-विदेश की नई-पुरानी, अच्छी-बुरी और धर्म-कर्म की विस्तृत जानकारी सहजरूप से ज्ञात हो जाती है जो उन्हें आम आदमी से अलग करती है। इस तरह हम देखते हैं कि बाल कविताएँ बचपन में ही नहीं उनके वयस्क और बुजुर्ग होने तक कहीं न कहीं उनकी सहायक बनती ही हैं।

हमें यह ख़ुशी है कि उन परिस्थितियों में जब मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा हो और जब लोगों का ध्यान केवल बच्चों को आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने में लगा हो, ऐसे समय में बच्चों के नैतिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विकास हेतु कुछ लोग व संस्थायें निरंतर सक्रिय हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्वान चर्चा

विश्व में उन सभी स्थानों पर जहां मानव जाति पाई जाती है, श्वान भी साथ में ही बसते हैं। महाभारत ग्रंथ में भी युधिष्ठिर और उनके श्वान भक्ति का संदर्भ आज भी लिया जाता हैं।

महाभारत का आरंभ और अंत भी श्वान कथा से ही होता हैं।                             

प्रातः और सायं भ्रमण के समय यहां अमेरिका की धरती पर भी अपने मालिकों के साथ भ्रमण करते हुए पाए जाते हैं। हमारे देश में अमीरों के श्वान तो उनके सेवकों के भरोसे ही रहते हैं। कुछ सेवक तो उनके दूध में पानी मिला कर हेराफेरी करने में भी अग्रणी होते हैं, और उनको उद्यान में घुमाने के समय चैन को बेंच से बांध कर स्वयं व्हाट्स ऐप में हमारे जैसे फुरसतियों  के किस्से पढ़ते रहते हैं।

यहां पर श्वान को भ्रमण के समय चैन/ रस्सी बांध कर ही ले जाना अनिवार्य हैं। यहां अधिकतर श्वानोंं की चैन पतंग की चरखी नुमा यंत्र से नियंत्रित रहती हैं। ढील देने से चैन की लंबाई बढ़ जाती हैं।         

श्वानों   की नई नई नस्लें देख कर आश्चर्य  भी होता हैं। बस दिल में एक कसक है, यहां हमारे देश जैसे सड़कों पर घूमते हुए  कारों के पीछे दौड़ते हुए श्वान नहीं दिखे, शायद देसी श्वान की नस्ल को यहां की जलवायु में जीवन असंभव होगा। हमारे देश के अमीर लोग तो ठंडे प्रदेशों के श्वान के लिए पूर्णतः वातानुकूलित व्यवस्था करवा लेते हैं। हो सकता है, यहां के अमीर भी हमारे यहां के देसी श्वान पालते हो और उनके लिए गर्म जलवायु की व्यवस्था करवा लेते हों।

श्वान को घर से बाहर घुमाने लाए हुए सभी व्यक्तियों के हाथ में प्लास्टिक की थैली देखकर प्रथम तो अजीब सा प्रतीत हुआ, बाद में देखा इसका उपयोग उसके द्वारा त्यागे हुए मल को उठाने के लिए किया जाता हैं। सफाई  को बनाए रखने में ये एक महत्वपूर्ण व्यवस्था हैं। कुछ स्थानों पर मुफ्त प्लास्टिक थैली उपलब्ध भी होती हैं। हमारे देश के श्वान पालक इन सब से कब संज्ञान लेंगें?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 158 ☆ नर में नारायण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

आज की साधना (नवरात्र साधना)

इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे।

अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे।

मंगल भव। 💥

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

पुनर्पाठ 🙏🏻

☆  संजय उवाच # 158 ☆ नर में नारायण ☆?

कई वर्ष पुरानी घटना है। शहर में खाद्यपदार्थों की प्रसिद्ध दुकान से कुछ पदार्थ बड़ी मात्रा में खरीदने थे‌। संभवत: कोई आयोजन रहा होगा। सुबह जल्दी वहाँ पहुँचा। दुकान खुलने में अभी कुछ समय बाकी था। समय बिताने की दृष्टि से टहलते हुए मैं दुकान के पिछवाड़े की ओर निकल गया। देखता हूँ कि वहाँ फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की लंबी कतार लगी हुई है। लगभग 30-40 बच्चे होंगे। कुछ समय बाद दुकान का पिछला दरवाज़ा खुला। खुद सेठ जी दरवाज़े पर खड़े थे। हर बच्चे को उन्होंने खाद्य पदार्थ का एक पैकेट देना आरंभ किया। मुश्किल से 10 मिनट में सारी प्रक्रिया हो गई। पीछे का दरवाज़ा बंद हुआ और आगे का शटर ग्राहकों के लिए खुल गया।

मालूम हुआ कि वर्षों से इस दुकान की यही परंपरा है। दुकान खोलने से पहले सुबह बने ताज़ा पदार्थों के छोटे-छोटे पैक बनाकर निर्धन बच्चों के बीच वितरित किए जाते हैं।

सेठ जी की यह साक्षात पूजा भीतर तक प्रभावित कर गई।

अथर्ववेद कहता है,

।।ॐ।। यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।।
स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।।

-(अथर्ववेद 10-8-1)

अर्थात जो भूत, भवि‍ष्‍य और सब में व्‍याप्त है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।

योगेश्वर का स्पष्ट उद्घोष है-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

(श्रीमद्भगवद्गीता-6.30)

अर्थात जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

वस्तुत: हरेक की श्वास में ठाकुर जी का वास है। इस वास को जिसने जान और समझ लिया, वह दुकान का सेठजी हो गया।

… नर में नारायण देखने, जानने-समझ सकने का सामर्थ्य ईश्वर हरेक को दें।…तथास्तु!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #152 ☆ आईना झूठ नहीं बोलता ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आईना झूठ नहीं बोलता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 152 ☆

आईना झूठ नहीं बोलता 

लोग आयेंगे, चले जायेंगे। मगर आईने में जो है, वही रहेगा, क्योंकि आईना कभी झूठ नहीं बोलता, सदैव सत्य अर्थात् हक़ीक़त को दर्शाता है…जीवन के स्याह व सफेद पक्ष को उजागर करता है। परंतु बावरा मन यही सोचता है कि हम सदैव ठीक हैं और दूसरों को स्वयं में सुधार लाने की आवश्यकता है। यह तो आईने की धूल को साफ करने जैसा है, चेहरे को नहीं, जबकि चेहरे की धूल साफ करने पर ही आईने की धूल साफ होगी। जब तक हम आत्मावलोकन कर दोष-दर्शन नहीं करेंगे; हमारी दुष्प्रवृत्तियों का शमन कैसे संभव होगा? हम हरदम परेशान व दूसरों से अलग-थलग रहेंगे।

जीवन मेंं सदैव दूसरों का साथ अपेक्षित है। सुख बांटने से बढ़ता है तथा दु:ख बांटने से घटता है। दोनों स्थितियों में मानव को लाभ होता है। सुंदर संबंध शर्तों व वादों से नहीं जन्मते, बल्कि दो अद्भुत लोगों के मध्य संबंध स्थापित होने पर ही होते हैं। जब एक व्यक्ति अपने साथी पर अथाह, गहन अथवा अंधविश्वास करता है और दूसरा उसे बखूबी समझता है, तो यह है संबंधों की पराकाष्ठा।

सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधा हुआ। दोनों में यदि अंतर भी हो, तो भी भाव-धरातल पर समता की आवश्यकता है। इसी में जाति, धर्म, रंग, वर्ण का ही स्थान नहीं है, बल्कि पद-प्रतिष्ठा भी महत्वहीन है। वैसे प्यार व दोस्ती तो विश्वास पर कायम रहती है, शर्तों पर नहीं। महात्मा बुद्ध का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है कि ‘जल्दी जागना सदैव लाभकारी होता है। फिर चाहे नींद से हो, अहं से, वहम से या सोए हुए ज़मीर से। ख़िताब, रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है…बशर्ते लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग से नहीं।’ सो! संबंध तीन-चार वर्ष में समाप्त होने वाला डिप्लोमा व डिग्री नहीं, जीवन-भर का कोर्स है। यह अनुभव व जीने का ढंग है। सो! आप जिससे संबंध बनाते हैं, उस पर विश्वास कीजिए। यदि कोई उसकी निंदा भी करता है, तो भी आप उसके प्रति मन में अविश्वास का भाव न पनपने दें, बल्कि संकट की घड़ी में आप उसकी अनुपस्थिति में ढाल बन कर खड़े रहें। लोगों का काम तो कहना होता है। वे किसी को उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख केवल ईर्ष्या ही नहीं करते; उनकी मित्रता में सेंध लगा कर ही सुक़ून पाते हैं। सो! कबीर की भांति आंख मूंदकर नहीं, आंखिन देखी पर ही विश्वास कीजिए। उन्हीं के शब्दों में ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसों बुरा न कोय।’ इसलिए अपने अंतर्मन में झांकिए, आप स्वयं में असंख्य दोष पाएंगे। दोषारोपण की प्रवृत्ति का त्याग ही आत्मोन्नति का सुगम व सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। केवल सत्य पर विश्वास कीजिए। झूठ के आवरण को हटाने के लिए चेहरे पर लगी धूल को हटाने की आवश्यकता है अर्थात् अपने अंतस की बुराइयों पर विजय पाने की दरक़ार है।

इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ऐसे लोगों की ओर आकर्षित मत होइए, जो ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचे हैं। वास्तव में वे तुम्हारे सच्चे हितैषी हैं, जो तुम्हें ऊंचाई से गिरते देख थाम लेते हैं। सो! लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग़ से नहीं। जहां प्रेम होता है, तमाम बुराइयां अच्छाइयों में परिवर्तित हो जाती हैं तथा अविश्वास के दस्तक देते व अच्छाइयां लुप्तप्राय: हो जाती हैं। त्याग व समर्पण का दूसरा नाम दोस्ती है। इसमें दोनों पक्षों को अपनी हैसियत से बढ़ कर समर्पण करना चाहिए। अहं इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। ईगो अर्थात् अहं तीन शब्दों निर्मित है, जो रिलेशनशिप अर्थात् संबंधों को अपना ग्रास बना लेता है। दूसरे शब्दों में एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। संबंध तभी स्थायी अथवा शाश्वत बनते हैं, जब उनमें अहं, राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होता।

सो! जिससे बात करने में खुशी दुगुन्नी तथा दु:ख आधा रह जाए, वही अपना है; शेष तो दुनिया है, जो तमाशबीन होती है। वैसे भी अहंनिष्ठ लोग समझाते अधिक व समझते कम हैं। इसलिए अधिकतर मामले सुलझते कम, उलझते अधिक हैं। यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसा जीवन। इसलिए कहा जाता है कि असंभव दुनिया में कुछ भी नहीं है। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोचते हैं। इसलिए कहा जाता है, मानव असीम शक्तियों का पुंज है। स्वेट मार्टन के शब्दों में ‘केवल विश्वास ही एकमात्र ऐसा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचा देता है।’ सो! आत्मविश्वास के साथ-साथ लगन व्यक्ति से वह सब करवा लेती है, जो वह नहीं कर सकता। साहस व्यक्ति से वह सब करवाता है; जो वह कर सकता है। किन्तु अनुभव व्यक्ति से वह करवा लेता है, जो उसके लिए करना अपेक्षित है। इसलिए अनुभव की भूमिका सबसे अहम् है, जो हमें ग़लत दिशा की ओर जाने से रोकती है और साहस व लगन अनुभव के सहयोगी हैं।

परंतु पथ की बाधाएं हमारे व्यक्तित्व विकास में अवरोधक हैं। सो! कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है। यहाँ साहस अपना चमत्कार दिखाता है। सो! संकट के समय परिवर्तन की राह को अपनाना चाहिए। तूफ़ान में कश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं/ ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध के बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। सो! अहंनिष्ठ मानव पल भर मेंं अर्श से फ़र्श पर आन गिरता है। इसलिए ऊंचाई पर पहुंचने के लिए मन में प्रतिशोध का भाव न पनपने दें, क्योंकि उसका जन्म ईर्ष्या व अहं से होता है। आंख बंद करने से मुसीबत टल नहीं जाती और मुसीबत आए बिना आँख नहीं खुलती। जब तक हम अन्य विकल्प के बारे में सोचते नहीं, नवीन रास्ते नहीं खुलते। इसलिए मुसीबतों का सामना करना सीखिए। यह कायरता है, पराजय है। ‘डू ऑर डाई, करो या मरो’ जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। ‘कौन कहता है आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’ दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। अक्सर मानव को स्वयं स्थापित मील के पत्थरों को तोड़ने में बहुत आनंद आता है। सो थककर राह में विश्राम मत करो और न ही बीच राह से लौटने का मन बनाओ। मंज़िलें बाहें पसारे आपकी राह तकेंगी। स्वर्ग-नरक की सीमाएं निश्चित नहीं हैंं; हमारे कार्य-व्यवहार ही उन्हें निर्धारित करते हैं।

श्रेष्ठता संस्कारों से प्राप्त होती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। जिसने दूसरों के दु:ख में दु:खी होने का हुनर सीख लिया, वह कभी दुखी नहीं हो सकता। ‘ज़रा संभल कर चल/ तारीफ़ के पुल के नीचे से/  मतलब की नदी बहती है।’ इसलिए प्रशंसकों से सदैव दूरी बना कर रखनी चाहिए, क्योंकि ये उन्नति के पथ में अवरोधक होते हैं। इसलिए कहा जाता है, घमंड मत कर ऐ दोस्त/ अंगारे भी राख बनते हैं। इसलिए संसार में इस तरह जीओ कि कल मर जाना है। सीखो इस तरह कि जैसे आपको सदैव जीवित रहना है। शायद इसलिए ही थमती नहीं ज़िंदगी किसी के बिना/  लेकिन यह गुज़रती भी नहीं/ अपनों के बिना। ‘सो! क़िरदार की अज़मत को न गिरने न दिया हमने/  धोखे बहुत खाए/ लेकिन धोखा न दिया हमने।’ इसलिए अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, आनंद आभास है/  जिसकी सबको तलाश है/ दु:ख अनुभव है/ जो सबके पास है। फिर भी ज़िंदगी में वही क़ामयाब है/ जिसे ख़ुद पर विश्वास है। इसलिए अहं नहीं, विश्वास रखिए। आपको सदैव आनंद की प्राप्ति होगी। रास्ते अनेक होते हैं। और निश्चय आपको करना है कि आपको जाना किस ओर है?

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -4 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 4 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

प्रातः भ्रमण

हमारे देश में उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रातः काल के भ्रमण को सर्वोत्तम बताया जाता हैं। इसी मान्यता का पालन करने के लिए हम भी दशकों से प्रयास रत हैं। पूर्ण रूप से अभी तक सफलता प्राप्त नहीं हुई हैं। इसी क्रम में विदेश में कोशिश जारी हैं।

घड़ी के हिसाब से भोर की बेला में तैयार होकर जब घर से बाहर प्रस्थान किया तो देखा सूर्य देवता तो कब से अपनी रोशनी से धरती को ओतप्रोत कर चुके हैं। घड़ी को दुबारा चेक किया तो भी लगा की अलसुबह सूर्य के प्रकाश का तेज तो दोपहर जैसा प्रतीत हो रहा था। हवा ठंडी और सुहानी थी, इसलिए मेज़बान की सलाह से पतली जैकेट जिसको अंग्रेजी मे विंड चीटर का नाम दिया गया, पहनकर चल पड़े, सड़कें नापने के लिए। हमें लगा यहां के लोग तो बहुत धनवान हैं, इसलिए  देर रात्रि तक जाग कर सुबह देरी से उठते होंगे, परंतु ये तो हमारा भ्रम निकला। सड़क पर बहुत सारे युवा, वृद्ध प्रातः भ्रमण कर रहें थे। कुछ ने हमारा अभिवादन भी किया। अच्छा लगा कि यहां भी संस्कारी लोग रहते हैं। हमारे देश में तो अनजान व्यक्ति को तो अब लोग अच्छी दृष्टि से देखते भी नहीं हैं, अभिवादन तो इतिहास की बात हो गई हैं। हम लोग तो अपने पूर्वजों के संस्कारों को तिलांजलि दे चुके हैं।

सड़कें इतनी साफ और स्वच्छ थी, हमें लगा, हमारे चलने से कहीं गंदी ना हो जाएं। कहीं पर भी कोई कागज़, गुटके के खाली पैकेट भी नहीं दिखाई दे रहे थे। विदेश की सफाई और स्वच्छता के बारे में सुना और पढ़ा था, आज अपनी आँखों से देखा तब जाकर विश्वास हुआ की इतनी स्वच्छता भी हमारे ब्रह्मांड पर हो सकती हैं।

यहां के अधिकतर नागरिक सैर के समय अपने श्वान को साथ लेकर चल रहे थे, अगले भाग में श्वान चर्चा करेंगे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 157 ☆ नवरात्रि विशेष – नौ संकल्प ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

सोमवार, 26 सितम्बर से नवरात्र साधना आरम्भ होगी।

इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे।

अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे।

मंगल भव। 💥

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 157 ☆ नवरात्रि विशेष – नौ संकल्प ?

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

भारतीय संस्कृति नारी को पूजनीय मानती रही है। यही कारण है कि नवरात्रि एवं अन्यान्य पर्व-त्योहारों में कुमारिका एवं विवाहिता का पूजन-सम्मान होता रहा है। तथापि इस सत्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि कालांतर में स्त्री को शरीर की परिधि तक सीमित कर दिया गया। इस परिधि को तोड़ कर बाहर आने का स्त्री का संघर्ष अनवरत जारी है। इन पंक्तियों के लेखक की ‘वह’ शृंखला की एक कविता में यह संघर्ष कुछ यूँ अभिव्यक्त हुआ है-

वह जानती है

बोलते  ही ‘देह’,

हर आँख में उभरता है

उसका ही आकार,

इस आकार को, मनुष्य

सिद्ध करने के मिशन में

सदियों से जुटी है वह !

वस्तुत: स्त्री के इस मिशन को सफल करने की दृष्टि से नवरात्रि अर्थात शक्तिपर्व महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। कल से आरंभ हो रहे इस पर्व में शास्त्रोक्त एवं परंपरागत पद्धति से उपासना अवश्य करें। अनुरोध है कि साथ ही निम्नलिखित नौ संकल्पों की सिद्धि का व्रत भी ले सकें तो निश्चय ही दैवीय आनंद की प्राप्ति होगी।

  1. अपने बेटे में बचपन से ही स्त्री का सम्मान करने का संस्कार डालना देवी की उपासना है।
  2. घर में उपस्थित माँ, बहन, पत्नी, बेटी के प्रति आदरभाव देवी की उपासना है।
  3. दहेज की मांग रखनेवाले घर और वर तथा घरेलू हिंसा के अपराधी का सामाजिक बहिष्कार करना देवी की उपासना है।
  4. स्त्री-पुरुष, सृष्टि के लिए अनिवार्य पूरक तत्व हैं। पूरक न्यून या अधिक, छोटा या बड़ा नहीं अपितु समान होता है। पूरकता के सनातन तत्व को अंगीकार करना देवी की उपासना है।
  5. स्त्री को केवल देह मानने की मानसिकता वाले मनोरुग्णों की समुचित चिकित्सा करना / कराना भी देवी की उपासना है।
  6. हर बेटी किसीकी बहू और हर बहू किसीकी बेटी है। इस अद्वैत का दर्शन देवी की उपासना है।
  7. किसीके देहांत से कोई जीवित व्यक्ति शुभ या अशुभ नहीं होता। मंगल कामों में विधवा स्त्री को शामिल नहीं करना सबसे बड़ा अमंगल है। इस अमंगल को मंगल करना देवी की उपासना है।
  8. गृहिणी 24 क्ष 7 अर्थात पूर्णकालिक सेवाकार्य है। इस अखंड सेवा का सम्मान करना तथा घर के कामकाज में स्त्री का बराबरी से या अपेक्षाकृत अधिक हाथ बँटाना, देवी की उपासना है।
  9. स्त्री प्रकृति के विभिन्न रंगों का समुच्चय है। इन रंगों की विविध छटाओं के विकास में स्त्री के सहयोगी की भूमिका का निर्वहन, देवी की उपासना है।

या देवि सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।

💐 शारदीय नवरात्रि की हार्दिक मंगलकामनाएँ 💐

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #151 ☆ नींद और निंदा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख नींद और निंदा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 151 ☆

☆ नींद और निंदा 

‘नींद और निंदा पर जो विजय पा लेते हैं, वे सदा के लिए अपना जीवन सुखी बना लेते हैं’ अकाट्य सत्य है। नींद एक ओर आलस्य का प्रतीक है, तो दूसरी ओर अहं का। प्रथम में मानव आलस्य के कारण कुछ भी करना नहीं चाहता और अंत में भाग्यवादी हो जाता है। वह उसमें विश्वास करने लग जाता है कि समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! वह परिश्रम करने से ग़ुरेज़ करने लगता है। ऐसे व्यक्ति पर किसी की सीख का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, परंतु जागते हुए को जगाना कठिन ही नहीं, असंभव होता है। ऐसा व्यक्ति तर्क-वितर्क व विवाद के माध्यम से स्वयं को व अपनी बात को ठीक सिद्ध करने का प्रयास करता है, क्योंकि वह परिश्रम में नहीं, भाग्य में विश्वास रखता है। सो! वह अकारण दु:खों से घिरा रहता है और उसे कदम-कदम पर पराजय का मुख देखना पड़ता है, क्योंकि आलस्य इसका मूल कारण है।

निंदा आत्मघाती भाव है, जिसमें व्यक्ति निंदा करते हुए भूल जाता है कि वह छिद्रान्वेषण कर अपने समय की हानि व आत्मिक शक्तियों का ह्रास कर रहा है। इस प्रकार परदोष दर्शन उसका स्वभाव बन जाता है। इसके विपरीत वह व्यक्ति अपने दोषों से अवगत हो जाता है और उनसे मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करता है, जिससे उसके जीवन में चामत्कारिक परिवर्तन हो जाता है। तदोपरांत वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। शायद! इसीलिए ही कबीरदास जी ने निंदक को अपने घर-आँगन व उसके आसपास रखने का सुझाव दिया है, क्योंकि ऐसे लोग नि:स्वार्थ भाव से आपके हित में कर्मशील रहते हैं तथा अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। दूसरे शब्दों में वे आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं।

मालवीय जी के मतानुसार ‘जो व्यक्ति अपनी निंदा सुन लेता है; संपूर्ण जगत् पर विजय प्राप्त कर लेता है।’ परंतु जो अपनी निंदा सुनकर अपना आपा खो बैठता है, अपने समय व शक्ति का ह्रास करता है। अक्सर वह तुरंत प्रतिक्रिया देता है, जो प्रज्ज्वलित अग्नि में घी का काम करता है। दूसरी और जो व्यक्ति निंदा सुन कर आत्मावलोकन करता है; अपने अंतर्मन में झांकने के पश्चात् दोषों से मुक्ति पाने का प्रयास करता है; वह जीवन में उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘सबसे उत्तम वह है, जो स्वयं को वश में रखे और किसी बात पर उत्तेजित ना हो।’ वास्तव में अहंकार व क्रोध मानव के सबसे बड़े शत्रु हैं। वैसे तो अहं व वहम दोनों मानव की उन्नति में अवरोधक होते हैं। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे परिश्रम नहीं करने देता, क्योंकि उसे वहम हो जाता है कि उससे अच्छा काम कोई कर ही नहीं सकता। सो! वह कभी भी अहं के मायाजाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। ऐसा व्यक्ति आत्मघाती होता है, जो अपने पाँवों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारता है और आत्मविश्वास को खो बैठता है।

विलियम जेम्स के शब्दों में ‘विश्वास उन शक्तियों में से एक है, जो मनुष्य को जीवित रखती हैं। विश्वास का पूर्ण अभाव ही जीवन का अवसान है। आत्मविश्वास मानव की सर्वोत्तम धरोहर है, जिसके बल पर वह असाध्य कार्य कर गुज़रता है।’ वह दाना मांझी की तरह वर्षों के कठिन परिश्रम के पश्चात् पर्वतों को काटकर सड़क का अकेले निर्माण कर सकता है। यही है सफलता का सर्वोत्तम सोपान। ‘जीवन चलने का नाम/ चलते रहो सुबहोशाम’ गीत की पंक्तियाँ जीवन में निरंतर गतिशील रहने को प्रेरित करती हैं और मन में यह विश्वास जाग्रत करती हैं कि घने बादल व विशालकाय पर्वत भी मानव के पथ की बाधा नहीं बन सकते। वहीं संतोषानंद जी के गीत के बोल इस भाव को पुष्ट करते हैं– ‘तुम साथ ना दो यारो/ चलना मुझे आता है/ हर आग से वाक़िफ हूं/ जलना मुझे आता है’  इस तथ्य को उजागर करता है कि मानव आत्मविश्वास के बल पर बड़ी से बड़ी आपदा का सामना करने में समर्थ है। परंतु शर्त यही है कि वह निंदा से पथ-विचलित न हो, बल्कि उससे सीख लेकर आत्म-परिष्कार कर निरंतर आगे बढ़ता जाए, क्योंकि बीच राह से लौट जाना कारग़र नहीं है। आत्मविश्वासी व्यक्ति सदैव सफलता प्राप्त कर विजयी होते हैं और कहते हैं ‘देखना है ग़र मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊँचा कर दो आसमान को।’ वे पक्षियों की भांति आकाश की बुलंदियों को छूने का जज़्बा रखते हैं। परंतु इसके लिए आवश्यक है सकारात्मक सोच का होना और स्व-पर व राग-द्वेष को तज निष्काम भाव से परहितार्थ कर्म करना।

स्वेट मार्टेन के मतानुसार ‘जिस प्रकार वनस्पतियों को सूर्य से जीवन प्राप्त होता है, उसी प्रकार आशा भाव से अपनों में जीवन संचरित होता है।’ निरंतर सफलता हमें संसार का एक पहलू दर्शाती है और विपत्ति हमें चित्र का दूसरा पहलू  दिखाती है। कोल्टन मानव को विपत्तियों में अडिग रहने का संदेश देते हैं। मुझे स्मरण हो रही है मेरे प्रथम काव्य-संग्रह शब्द नहीं मिलते की पंक्तियाँ ‘दु:ख से ना घबरा मानव/ सुख का सूरज निकलता रहेगा।’ सुख-दु:ख, पूनम-अमावस, वसंत-पतझड़ व दिन-रात क्रमानुसार अनुसार आते-जाते रहते हैं। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए, अन्यथा वह हमें तनाव व अवसाद की स्थिति में ले जाता है, जहाँ उसे कोई भी अपना नहीं भासता और वह दु:खों के सागर के अथाह जल में डूबता-उतराता रहता है। उसे जीवन में आशा की किरण तक दिखाई नहीं पड़ती और उसका जीवन नरक-तुल्य बन जाता है। ‘प्रभु सुमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा।’ ऐसी स्थिति से उबरने का एकमात्र साधन प्रभु का नाम-स्मरण है, जो उसे भव से पार उतार सकता है। इसलिए मानव के लिए अधिक नींद व निंदा दोनों स्थितियाँ घातक होती है और वे दोनों रास्ते का पत्थर बन अवरोध उत्पन्न कर सकती हैं। ऐसी स्थिति में मानव कभी भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता।

© डा. मुक्ता

31.8.22

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हिन्दी के कुछ साहित्यकारों के वास्तविक नाम  ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? हिन्दी के कुछ साहित्यकारों के वास्तविक नाम  ?  प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे☆

(प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि यदि उनके पास और ऐसी जानकारी है तो वे हमसे साझा कर सकते हैं जिन्हें हम पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे।)

प्रेमचंद –धनपत राय

राहुल सांकृत्यान –केदारनाथ पाण्डे

रांगेय राघव –कृष्णाचार्य रंगाचार्य

सुमित्रा नंदन पंत – गुसांई दत पंत

त्रिलोचन – वासुदेव सिंह

नागार्जुन- वैद्मनाथ मिश्र

जैनेन्द्र कुमार –आनंदी लाल जैन

शैलेश मटियानी –रमेश चंद्र सिंह मटियानी

धूमिल – सुदामा प्रसाद पाण्डे

अमरकांत – श्री राम वर्मा

इब्बार रब्बी – रविन्द्र प्रसाद

मोहन राकेश – मदन मोहन गुगलानी

वेणुगोपाल –नंद किशोर शर्मा

चंचल चौहान- हरवीर सिंह चौहान

पंकज बिष्ट – प्रताप सिंह बिष्ट

से रा यात्री – सेवा राम गुप्ता 

विमल कुमार – अरविंद कुमार

अरुण कमल – अरुण कुमार

कुमार अंबुज – पुरुषोत्तम सक्सेना

राजेश जोशी- राजेश नारायण जोशी

बटरोही – लक्ष्मण सिंह बिष्ट

बोधिसत्त्व – अखिलेश मिश्र

पानू खोलिया – पान सिंह खोलिया

कमलेश्वर – कैलास प्रसाद सक्सेना

शानी- गुलशेर खान

वीरेन डंगवाल – वीरेंद्र डंगवाल

शिवानी- गौरा पंत

संजीव- राम सजीवन प्रसाद

गुलजार- संपूर्ण सिंह

आलोक धन्वा – नित्यानंद सिंह

मुद्राराक्षस – सुभाष चन्द्र गुप्ता

माया मृग – संदीप कुमार

उर्मिल कुमार थपलियाल – सोहन लाल थपलियाल

मोहन वर्मा- बद्री नाथ वर्मा

नरेंद्र पुंडरीक- नारायण दास मिश्र

शैलेश पंडित –भागवत मिश्र

गीता श्री – गीता कुमारी

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला‘-  सुर्जु कुमार

उदय प्रकाश – उदयराज सिंह

पहाड़ी – रमा प्रसाद घिल्डियाल

अभिज्ञात – ह्रदय नारायण सिंह

जितेंद्र जितांशु – जितेन्द्र नाथ शर्मा

उषा प्रियवंदा- – उषा सक्सेना

गीतांजलि श्री – गीतांजलि पांडेय

 

संग्राहिका : मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

Cycle Thief                   

सत्तर के दशक में इस शीर्षक से अंग्रेजी फिल्म देखी थी। फिल्म श्याम और श्वेत काल खंड की थी।  

विश्व के सबसे समृद्ध कहे जाने वाले देश अमेरिका में एक साइकिल को सांकल से बांध कर रखा हुआ देखा तो मानस पटल में ये विचार आया की यहां भी लोग अभी तक साइकिल की चोरी/ उठाई गिरी करते हैं। ऐसी संपन्न अर्थव्यवस्था वाले देश की स्थिति भी हमारे देश जैसी ही है।

यहां साइकिल को मेट्रो ट्रेन और बस में लेकर जाने की भी सुविधा हैं। हमारे देश में भी तो दूध विक्रेता ट्रेन की खिड़की में साइकिल और दूध के भरे डिब्बे लटकाकर एक गांव से दूसरे गांव ले जाते हैं। ये उनकी रोजी-रोटी अर्जित करने का साधन हैं।

स्थानीय जानकारी प्राप्त हुई की यहां पर अधिकतर लोग साइकिल को स्वयं ही कसते (असेंबल) हैं, क्योंकि दुकान में इस कार्य के लिए बहुत अधिक शुल्क लिया जाता है।

साइकिल के दाम अधिक होने से यहां पर भी पुरानी साइकिल का बाज़ार हैं। किराये की साइकिल को एक स्थान से लेने के पश्चात किसी अन्य स्थान पर भी छोड़ा जा सकता है।

(भारत में भी अब कुछ मेट्रो शहरों में साइकिल रेंट सेवाएं उपलब्ध हैं। आप अपने नजदीक उपलब्ध ऑन लाइन साइकिल सेवाएं मोबाईल अप्प की मदद से ले सकते हैं।)

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 156 ☆ मेरी भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

समूह को कुछ दिनों का अवकाश रहेगा।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 156 ☆ मेरी भाषा ?

भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। कूटनीति का एक सूत्र कहता है कि किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा और संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की।

असली मुद्दा स्वाधीनता के बाद का है। राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की  प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं।

यूरोपीय भाषा समूह के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक  अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’, ‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो गया है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय, अर्थ का अनर्थ कर रहा है। ‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट खास तौर पर फेसबुक, ट्विटर, वॉट्सएप पर देवनागरी को रोमन में लिखने का चलन भी है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की  पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति संकोच अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके वैचारिक वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

हिंदी पखवाड़ा, सप्ताह या दिवस मना लेने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो जाती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। समय की मांग है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। नयी शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय भाषाओं का प्रवेश हो चुका है,  यह सराहनीय है।

केदारनाथ सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है, जिसमें वे कहते हैं,

जैसे चींटियाँ लौटती हैं/ बिलों में,

कठफोड़वा लौटता है/ काठ के पास,

वायुयान लौटते हैं/ एक के बाद एक,

लाल आसमान में डैने पसारे हुए/

हवाई-अड्डे की ओर/

ओ मेरी भाषा/ मैं लौटता हूँ तुम में,

जब चुप रहते-रहते/

अकड़ जाती है मेरी जीभ/

दुखने लगती है/ मेरी आत्मा..!

अपनी भाषाओं के अरुणोदय की संभावनाएँ तो बन रही हैं। नागरिकों से अपेक्षित है कि वे इस अरुण की रश्मियाँ बनें।

 © संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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