(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 4 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
वायुयान में प्रवेश से पूर्व कर्मचारी पुनः पासपोर्ट और टिकट की जांच कर रहें थे। ध्यान देने पर पत्ता चला ये सभी कर्मचारी तो हवाई अड्डे में प्रवेश के समय टिकट काट रहे थे, और सामान की प्राप्ति देने का कार्य कर रहे थे। वहां का कार्य समाप्त कर अब यहां व्यवस्था संभाल रहे हैं। निजी कम्पनियों की इस प्रकार की कार्य प्रणाली ही लाभ वृद्धि में सहायक होती हैं। टीवी पर आने वाले स्वर्गीय सरदार भट्टी जी के एक हास्य कार्यक्रम में भी इसी प्रकार से दिखाया गया था। भट्टी जी के हास्य में एक अलग मौलिकता हुआ करती थी।
वायुयान में यात्रा करने वाले सभी भारतीय ही थे, क्योंकि सबकी अधीरता बयां कर रही थी, कि सबसे पहले वो ही प्रवेश करें। हमें अपने मुंबई प्रवास के समय चर्चगेट स्टेशन की याद आ गई, जब ट्रेन में प्रवेश के लिए हम सब एक दूसरे को धक्का देकर प्लेटफार्म पर आई हुई ट्रेन में सीट पाने की लालसा में कमांडो कार्यवाही करने से भी गुरेज नहीं करते थे। शरीर के कई भागों में नील के निशान भी आसानी से दृष्टिगोचर हो जाते थे।
एयरलाइंस के कर्मचारियों को भी भीड़ नियंत्रण का अनुभव होता हैं। उद्घोषणा हुई कि सर्वप्रथम व्हील कुर्सी का उपयोग कर रहे यात्री और बिजनेस क्लास के यात्री प्रवेश करें। उसके पश्चात छोटे बच्चों वाले परिवार अंदर जा सकते हैं। हमारे जैसे अन्य प्रतीक्षा कर रहे यात्री अपनी बैचनी में एयरलाइंस की इस व्यवस्था को भी नापसंद करते हैं। सबको ज्ञात है, कि उनकी सीट आरक्षित है, परंतु फिर भी पहले प्रवेश की मानसिकता कहीं हमारे ओछेपन की प्रतीक तो नहीं हैं ?
☆ ॥ जीवन में सुविचार का महत्व ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
विचारों का मानव जीवन में बड़ा महत्व है। सभी प्राणियों में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो सोचता और समझता है और विचार कर भविष्य के निर्णय ले सकता है। जो कुछ मनुष्य करना चाहता है, पहले उस पर विचार करता है या यों भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति जैसे विचार करता है वैसे ही कर्म करने को वह तत्पर होता है। अंग्रेजी में कहावत है- “The man becomes what he thinks.” अर्थात् जो जैसा सोचता है वैसा ही वह बनता है। सभी मार्गों का उद्गम विचारों से ही होता है। व्यक्ति समाज का एक सक्रिय घटक है, इसलिये उसके विचारों और कार्यों का प्रभाव केवल उस पर ही नहीं उसके परिवेश पर भी पड़ता है, पूरे समाज पर पड़ता है। जिसका व्यक्तित्व जितना महान होता है, उसका प्रभाव भी उतना ही विस्तृत और बड़ा होता है। इतिहास में ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि एक व्यक्ति विशेष के विचारों ने पूरे देश के इतिहास को बदल दिया है। उसके विचार से सारे समाज में एक नई जागृति आई या क्रांति हो गई। प्राचीन काल में देखें तो सम्राट अशोक और आधुनिक काल में देखें तो महात्मा गांधी ऐसे ही उदाहरण कहे जा सकते हैं। सम्राट अशोक के क्रूरतापूर्ण विचारों का ही परिणाम कलिंग युद्ध था, जिसकी जन-धन हानि से वह स्वयं घबरा उठा और उसके विचारों ने सर्वथा नया मोड़ ले प्रियदर्शी अशोक का रूप दिया। उसने अहिंसावादी बौद्ध धर्म का अनुशरण कर लिया और नये विचारों ने एक नये शांत सुखदायी सम्पन्न राज्य का निर्माण किया। महात्मा गांधी ने अपने सुदृढ़ विचारों से सत्य, अहिंसा, त्याग की भावना जगाकर बहुत बड़ी संख्या में अपने अनुयायी तैयार कर देश को विदेशी शासन से मुक्ति दिलाई। आज उनके विचारों को समग्र विश्व मान्यता देकर समस्याओं के समाधान खोजने में लगा है।
सुविचार, सद्बुद्धि और सदाचार का एक दूसरे से बड़ा सघन संबंध है। इसलिये भविष्य के उत्कर्ष और सही विकास के लिये सुविचार बहुत आवश्यक है। यदि विचार में अच्छाई नहीं होती तो पतन होता है, अनैतिकता का विस्तार होता है। इसलिये यह बहुत आवश्यक है कि बचपन से सुविचार की शिक्षा हो। विचारों की उत्पत्ति पर देश-काल का भी प्रभाव पड़ता है। जैसे एक महात्मा के विचार वातावरण को बदल देते हैं वैसे ही वातावरण भी व्यक्ति के विचारों को प्रभावित करता है। अत: बालमन पर सुविचार और सदाचार की सीख के लिये घर, समाज और परिवेश का वैसा ही होना आवश्यक है। अर्थात् विचारों से व्यवहार बनते हैं और सदाचार पूरा वातावरण सुविचारों के पोषक होते हैं। इसलिये शिष्ट व्यवहार सदाचार व नैतिक आचरण समाज को विचारों से ही मिलते हैं और समाज या देश को सुख शांति व प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ाते हैं। घर, समाज व शाला और धार्मिक संस्थाओं से अनुकरण के आधार पर व्यक्ति सीखता है उनका वातावरण और विचार पवित्र और निश्छल होना बहुत आवश्यक है। आज के प्रदूषित वातावरण में ऐसा नहीं दिखता इससे ही अनाचार, दुराचार, अत्याचार और पापाचार का बोलबाला है। समाज का हर वर्ग त्रस्त है। इस त्रासदी से मुक्ति के लिये सदाचार, नैतिकता और सुविचार की महती आवश्यकत है।
यूनान का बादशाह सिकन्दर बड़ा महत्वाकांक्षी था। समस्त संसार को जीतकर वह विश्व विजेता बनना चाहता था। इसी महत्वाकांक्षा को लेकर वह अपने देश से निकला। मार्ग में अनेकों देशों को जीतता हुआ वह भारत में आया। उसने पंचनद प्रदेश में युद्धकर उसे जीत लिया और पराजित राजा पुरु को बंदी कर उसे सामने लाने का अपनी सेना को आदेश दिया। राजा पुरु सामने लाया गया। सिकन्दर ने उससे पूछा- तुम्हारे साथ कैसा बर्ताव किया जाय। पुरु ने निर्भीक स्वर में उत्तर दिया- जैसे एक राजा दूसरे राजा के साथ व्यवहार करता है वैसा ही व्यवहार उसके साथ किया जाय। उसके निर्भीक उत्तर से वीर सिकन्दर बहुत प्रभावित हुआ और उसका राज्य उसे वापस करता हुआ उसकी वीरता और निर्भीकता की सराहना की। तभी उसे अपने गुरु अरस्तु का उपदेश याद हो आया। गुरु ने कहा था कि भारत आश्चर्यकारी आध्यात्मिक देश है। वहां के निवासी वीर और सत्यवादी हैं। यदि तुम वहां जाओ तो वहां के किसी संत जो प्राय: सारा जीवन चिन्तन-मनन और ईश्वर भक्ति में बस्ती से दूर किसी नदी किनारे, एकान्त स्थान में बिताते हैं, उससे जरूर मिलना।
सिकन्दर ने विजय तो पाली थी परन्तु उसकी सेना भारत के गरम मौसम से ऊब गई थी और वापस स्वदेश जाने को उत्सुक थी। ऐसी स्थिति में सिकन्दर वापस लौटने को मजबूर हो गया। जाने से पहले वह किसी संत/फकीर या आध्यात्मिक महापुुरुष से मिल लेना चाहता था। उसने एक संत का परिचय पाकर उससे मिलने गया। संत अपनी कुटिया में शांत भाव में थे। सामने पहुंचकर सिकन्दर ने कहा- मैं विश्व विजय के लिये निकला सिकन्दर महान हूं। यहां भारत को जीता है। आपको प्रमाण है। साधु महात्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया। सिकन्दर ने फिर से अभिमान से उन्हें नमस्कार किया पर साधु की कोई प्रतिक्रिया न हुई। उसने फिर गुस्से से अपने को महान बताते हुये उस संत का अपमान व तिरस्कार करते हुए कहा- तू कैसा संत है कुछ बोलता ही नहीं। यह सुनकर संत ने कहा- क्या बोलूं? सुन रहा हूं कि तू खुद को विश्व विजेता एक महान व्यक्ति बताता है। तू तो मेरी दृष्टि में वैसा ही मालूम होता है जैसे कोई पागल कुत्ता जो अनायास भौंकता है और दूसरे निर्दोष प्राणियों पर हमला कर उन्हें नुकसान पहुंचाता या मार डालता है। तूने अनेकों देशों के निर्दोष लोगों पर अकारण हमलाकर उन्हें मार डाला है। देशों को उजाड़ दिया है। बच्चों और स्त्रियों को बेसहारा करके उन्हें रोने विलपने के लिये छोडक़र भारी अपराध किया है। उन्हें सारा जीवन भारी कष्ट में बिताना होगा। जो दूसरों के अकारण प्राण लेता है वह विजेता कैसे वह तो ईश्वर की दृष्टि में बड़ा अपराधी है, मूर्ख है। विजेता तो हम उसे मानते हैं, जो अपने मन पर विजय पाता है। मन की बुराईयों को जीतता है और दूसरों के दुख-दर्दों को नष्ट कर उन्हें प्रसन्न रखने के लिये संकल्प कर हमेशा भलाई करने का कार्य करता है। बड़ा विजेता वह है जो औरों पर नहीं अपने मन पर अपने आप पर विजय पाकर बुरे काम करना छोड़ देता है और सदाचारी बनकर परहित कार्यों में जीवन बिताता है। वही ईश्वर को प्रिय होता है। अत्याचारी को भगवान पसंद नहीं करता। सिकन्दर संत की वाणी से जैसे सोते से जाग गया और आत्म निरीक्षण में लगकर स्वत: को ईश्वर का अपराधी समझकर अपने व्यवहार में सुधार करने का विचार करने लगा। परन्तु वह अधिक दिन जीवित न रहा।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 150 ☆ अतिलोभात्विनश्यति-2 ☆
गतांक में लोभ को पाप की जड़ कहा था। पत्ती से जड़ तक की प्रक्रिया को विस्तार से समझने के लिए एक श्लोक का संदर्भ लेंगे-
लोभात् क्रोध: प्रभवति लोभात् काम: प्रजायते।
लोभात् मोहश्च नाशश्च लोभ: पापस्य कारणम्।।
लोभ से क्रोध जन्म लेता है, लोभ से वासना उत्पन्न होती है, लोभ से मोह पलता है और मोह से विनाश होता है, लोभ पाप का कारण है।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्रोध और लोभ आपस में कैसे जुड़े हुए हैं? एक उदाहरण की सहायता से उत्तर तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। आजकल किसी प्रसिद्ध क्षेत्र के निकटवर्ती गाँव में आवासीय संकुल बनाकर मार्केटिंग की दृष्टि से उसे प्रसिद्ध क्षेत्र का एनेक्स कहा जाता है। किसी और को कुछ प्राप्त होते देखने से उत्पन्न होने वाला डाह, लोभ का एनेक्स है। क्रोध का मुख्य घटक है डाह।
मनुष्य में डाह अंतर्भूत है। कम या अधिक है पर हरेक के भीतर है।
इस ‘हरेक’ को समझने के लिए एक प्रयोग अपने आप पर कर सकते हो।…तुम निराश हो, परेशान हो, कुछ हद तक बिखरे-बिखरे हो? सोचो क्यों..? तुम्हें लगा था कि तुम हमेशा बादशाह रहोगे, तुम्हारे सिवा कोई बादशाह न है, न होगा। ध्यान देना, एक समय में दुनिया में कोई अकेला बादशाह नहीं हुआ। अपने-अपने इलाके में अपनी-अपनी तरह के सैकड़ों, हज़ारों बादशाह हुए। हरेक इसी भ्रम में रहा कि उसके सिवा कोई बादशाह नहीं। कुछ ऐसी ही स्थिति तुम्हारी है।
बादशाहत हमेशा के लिए किसी की नहीं थी। बादशाहत हमेशा के लिए किसी की रहेगी भी नहीं। जब तक का इतिहास जान सकते हो, समझ सकते हो, पढ़ सकते हो, पढ़ना-समझना-जानना। उससे पीछे का भी जहाँ तक अनुमान लगा सकते हो, लगाना। अतीत के अनुभव के आधार पर भावी इतिहास की भी कल्पना करना। अपनी कथित बादशाहत का सत्य स्वयं समझ जाओगे।
सत्य तो यह है कि तुम अपने से ऊपर किसी को नहीं पाते। इसलिए टूटने लगते हो, बिखरने लगते हो। किसी को बढ़ते देखते हो तो तुम्हारे भीतर मत्सर जन्म लेने लगता है, जो शनै:-शनै: तुम पर हावी होने लगता है। क्षणभंगुर का स्वामी होने का जो मिथ्या अहंकार है तुम्हें, वह अहंकार भीतर ही भीतर खाये जा रहा है, कुंठित कर रहा है, कुंठा से बाहर निकलो।
स्मरण रखना कि दूसरे की सफलता से जो कुंठित होता है, सफलता उससे दूर होती जाती है। दूसरे की सफलता से जो प्रेरित होता है, सफलता उसके निकट आने लगती है।
जीवन में आनंदित रहना चाहते हो तो जो तुम्हारे पास है, उसका उत्सव मनाना सीखो।
आनंद असीम है। आनंद वस्तु या विषय में नहीं, ग्रहण करने वाले की क्षमता पर निर्भर करता है। इस क्षमता के विकास के लिए संतोष का संचय करो। यह भी याद रहे कि संतोष कहीं से लाकर संचित नहीं करना पड़ता, बस लोभ को बाहर का मार्ग दिखाओ, संतोष स्वयंमेव भीतर प्रविष्ट हो जाएगा।
संतोष तुम्हारे द्वार पर खड़ा है। यह कथनी को करनी में बदलने का समय है। शुभं अस्तु।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
आज अखबारों के पन्ने और टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले समाचार बुलेटिन ऐसे समाचारों से भरे होते हैं, जिनसे समझदार श्रोताओं के मन दुख और वितृष्णा से भर उठते हैं। अनाचार, व्यभिचार, छल-कपट, धोखाधड़ी, घपले-घोटाले और छोटे-छोटे स्वार्थों के लिये हत्या, अपहरण, आगजनी तथा आतंकवादियों के राक्षसी हत्या के बढ़ते नये-नये समाचार प्राय: रोज ही पढ़े और देखे जाते हैं। ऐसे समाचारों की वृद्धि एक सभ्य व्यक्ति को सोचने के लिये विवश करता है कि समाज में ये बुराईयां तेजी से क्यों बढ़ रही हैं?
एक वह युग था जब महात्मा गांधी जैसे सात्विक और त्यागी व्यक्ति के नेतृत्व में देश विदेशी शासन से मुक्ति के लिये कठोर सघन संघर्ष कर रहा है। तब सबके मन में एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के पवित्र भाव तरंगित होते थे कि देश के लिये कुछ ऐसा किया जाय जिससे स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयत्नों को बल मिले, देश का भविष्य उज्जवल हो सके। सबकी आंखों में रामराज्य के सुखों की कल्पना थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हर भारतीय व्यक्ति को देश की प्रगति और सम्पन्नता की आशा थी। गांवों से गरीबी के उन्मूलन की अभिलाषा थी। इसलिये ही चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव सरीखे क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुतियां दी थीं। देशहित के लिये उनमें जुनून था। नेता जी वीर सुभाषचन्द्र बोस सरीखे विचारक के मन में आकाश के तारे तोड़ लाने और भारत माँ की पूजा में समर्पित करने की उत्कट कामना थी। इन्हीं व ऐसे ही अनेकों अज्ञात नाम देशभक्तों के स्तुत्य प्रयत्नों और त्याग से हमें आजादी तो मिली पर सपने पूरे न हो सके। केवल निराशा और विषाद ही बढ़ सके। गीता में कहा है- ‘आत्मैव आत्मनो बन्धु:- आत्मैव रिपु आत्मन:।’ अर्थात् व्यक्ति स्वत: ही अपना मित्र है और स्वत: ही अपना शत्रु है। अपने ही सोच और कार्य व्यक्ति को ऊपर उठाते हैं और वही उसे नीचे गिराते हैं। उठने के लिये तो सोच की पवित्रता, कर्मठता और त्याग तप की भावना जरूरी है, किन्तु गिरने के लिये दुष्प्रवृत्ति और स्वार्थ ही पर्याप्त है। उत्कर्ष के लिये श्रम और समय जरूरी है पर पतन के लिये स्वार्थ और लोभ ही आज देश की दुर्गति का कारण, यही स्वार्थ और धन का लालच है। हमने अपने पुराने धार्मिक और आध्यात्मिक आदर्शों को भुला दिया है। सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत को त्याग दिया है। सारे जीवन व्यापार और व्यवहार केवल धन केन्द्रित हो गये हैं। धन आज भगवान बन बैठा है और उसी की पूजा हो रही है। पुराने सिद्धांतों, आदर्शों और जीवन मूल्यों का तिरस्कार हो रहा है। हर क्षेत्र में छोटे से ऊंचे पदों तक पै बैठे लोग, उद्यमी और व्यापारी सभी श्रम और कर्मनिष्ठा को भूल सिर्फ स्वार्थ लाभ में लिप्त हैं। सबको केवल धन चाहिये। प्राप्ति के साधन चाहे जो हो कोई चिंता नहीं। जरूरत है सारे समाज में एक साथ सदाचार की शिक्षा, मनोभाव में परोपकार की भावना और उत्कृष्ठ कर्तव्यनिष्ठा की। तभी बुराई के दलदल से उबरने की संभावना। इस हेतु कर्म करना अनुचित न होगा पर प्रश्न है कि बिल्ली के गले में घण्टी बांधे कौन?
☆ ॥ सुख की खोज ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
इस धरती पर सुख की कामना हर प्राणी करता है। उसके सारे क्रियाकलाप प्रत्यक्ष हों या परोक्ष उसे सुख प्राप्ति की दिशा में ही आगे बढ़ाने के लिये चलते रहते हैं। उसकी पंच ज्ञानेन्द्रियां जिनके द्वारा वह अनुभव पाता है या रस प्राप्त करता है, उसे किसी न किसी सुखानुभूति के लिये काम करने में लगाये रहती हैं। देखने, सुनने, संूघने, स्वाद पाने या सुखद स्पर्श प्राप्त करने की लालसा व्यक्ति के मन में निरन्तर रहती है। कभी एक इच्छा बलवती होती है, कभी दूसरी। कामना के इसी प्रपंच में फंसा जीवन एक मकड़ी की भांति नित नये जाल बुनता रहता है व एक दिन उसी में उलझकर समाप्त हो जाता है। वास्तव में ये सभी इन्द्रियों के सुख तात्कालिक और क्षणिक होते हैं तथा पुनरावृत्ति की प्यास बढाने वाले होते हैं। सुखों को जितना उपभोग होता है प्यास उतनी ही अधिक गहराती जाती है और फिर फिर प्राप्ति की आकांक्षा बढ़ती जाती है। रसोपभोग की पुनरावृत्ति एक दुर्निवार रुग्णता या विकार का रूप ले लेती है।
व्यक्ति में सुख प्राप्ति की इच्छा जन्मजात व स्वाभाविक है। वह उसी की खोज में व्यस्त रहता है। बारीकी से देखने पर समझ में आता है कि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति भी ऐसा सब सुख की प्राप्ति के लिये ही करता है। अपने तात्कालिक असहय दुखों से मुक्ति पाना भी तो सुख पाने की दिशा में बढऩा ही है। जब से संसार का सृजन हुआ है तब से जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी का जीवन क्रम उसी रीति-नीति पर चलता आया है। वह है सुख की कामना- प्रयत्न-प्राप्ति-रसोपभोग-अतृप्ति-क्रमिक शारीरिक क्षय और विनाश। तथाकथित सुख पाकर भी सुख पाया नहीं जाता। सुख प्राप्तिकी नित्य कामना कभी पूरी नहीं होती। इसका सरल अर्थ यही है कि सच्चा सुख जिसे हर व्यक्ति चाहता है इस संसार में कहीं नहीं है। यदि वह चाहिये हो तो उसकी खोज कहीं अन्यत्र की जानी चाहिये।
सुख के स्वरूप में भी व्यक्तिगत रुचि के अनुसार भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। किसी को खाने में, किसी को गाने में, किसी को संग्रह में, किसी को विग्रह में, किसी को दान में, किसी को सम्मान में, और ये भी व्यक्ति की अलग-अलग मनोदशाओं पर विविधता लिये हुये। भिन्न रुचिहि लोभ:। जितने लोग उतनी उनकी रुचियों और सुख लालसाओं में भिन्नता। एक व्यक्ति धनी मानी होकर भी दुखी रहता है और दूसरा निर्धन होकर भी सुख की नींद सोता है। यह सिद्ध करता है कि सुख बाह्य उपलब्ध साधनों से प्राप्त नहीं होता, आंतरिक मनोवृत्तियों से मिलता है। अगर ऐसा है तो सुख का मूल उत्स मन ही है। मन में ही उसकी खोज की जानी चाहिये। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है- ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’। अर्थात् जीव आत्मा परमात्मा का अंश है। परमात्मा सत् चित आनन्द रूप है इसलिये उसका अंश आत्मा में भी वही गुण स्वभाविक है।
सच्चे सुख-परम आनन्द जो नित्य है, को पाने के लिये आत्मज्ञान चाहिये, आत्मा को समझना जरूरी है, अपने वास्तविक स्वरूप को समझने के लिये अपने अन्तकरण को टटोलना, भीतर झांककर देखना आवश्यक है। जिसे अपने अन्तकरण में परमानंद ईश्वर के दर्शन हो गये उसे संसार तृणवत दिखता है और मनमंदिर में परम चिन्तन शांति और सम्पूर्ण सुख प्राप्त हो जाता है। सुख का भंडार अपने मन में ही है बाह्य आडम्बरों में नहीं अत: अन्तर्मुखी हो, सुख के हेतु अपने भीतर ही खोज की जानी चाहिये। यदि दुनियां के प्रपंच से हटकर मन शुद्ध और शांत हो गया, तो प्रभु के दर्शन सुलभ है और सब सुख प्राप्त हो जाना कठिन नहीं। कबीर कहते हैं-
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख क्रोध बनाम पश्चाताप। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 144 ☆
☆ क्रोध बनाम पश्चाताप ☆
‘क्रोध मूर्खता से प्रारंभ होता है और पश्चाताप पर समाप्त होता है’ पाइथागोरस का यह कथन कोटिश: सत्य है कि मूर्ख व्यक्ति ही क्रोधित होता है,क्योंकि वह इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि इसकी सबसे अधिक हानि क्रोधी को ही उठानी पड़ती है। क्रोध के समय मानव का विवेक नष्ट हो जाता है और वह आत्म-नियंत्रण में नहीं रहता। वह तुरंत प्रतिक्रिया दे देता है; जो आग में घी का काम करती है। इसलिए वह मूर्ख कहलाता है,क्योंकि अपने अहित के बारे में वह सोचता ही नहीं। अक्सर क्रोध की स्थिति में वह प्रतिपक्षी के प्राण लेने पर भी उतारू हो जाता है। वह वाणी पर भी आत्म-नियंत्रण खो देता है। उस स्थिति में वह ऊल-ज़लूल सोचता ही नहीं; दूषित भावों को बढ़ा-चढ़ा कर अकारण उगल देता है। एक अंतराल के पश्चात् उसे अपनी ग़लती का एहसास होता है और वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगता है, जिसका कोई लाभ नहीं होता,क्योंकि समय व अवसर हाथ से निकल जाने के पश्चात् व्यक्ति हाथ मलता रह जाता है, जैसा कि ‘फिर पछताय होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।’
गुस्सा और मतभेद बारिश की तरह होना चाहिए,जो बरस कर समाप्त हो जाए और प्रेम हवा की तरह ख़ामोश होना चाहिए और सदैव आसपास रहना चाहिए–यह सोच अत्यंत सार्थक है। दूसरे शब्दों में क्रोध दूध के उबाल जैसा होना चाहिए और मतभेद बारिश की तरह होने चाहिएं। जिस प्रकार बादल उमड़-घुमड़ कर आते हैं और बरस कर शांत हो जाते हैं; तप्त धरा को शीतलता प्रदान करते हैं,जिसके उपरांत मन-आँगन प्रफुल्लित हो जाता है। जैसे बारिश सब कुछ बहाकर ले जाती है और धरा हरी-भरी हो जाती है। उसी प्रकार हृदय में पल्लवित मलिनता व मनोमालिन्य भी तुरंत समाप्त हो जाने चाहिए। पति-पत्नी में विचार-वैषम्य बारिश की तरह होने चाहिए और मानव को अपने मन की बात कहने के पश्चात् शांत हो जाना चाहिए; मनो-मालिन्य को घर में आशियां नहीं बनाने देना चाहिए, क्योंकि वह स्थिति अत्यंत घातक होती है,जिसका भयावह परिणाम बढ़ते तलाक़ों के रूप में हमारे समक्ष हैं। बच्चे व परिवारजन सब इस एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। दूसरी ओर प्रेम मलय वायु की झोंकों की भांति होना चाहिए, जो ख़ामोशी के रूप में सदैव आपके अंग-संग रहे। स्नेह, प्रेम व सौहार्द का बसेरा मौन में ही संभव है। सो! इसके लिए सहनशीलता अपेक्षित है,जो मौन की प्राथमिक शर्त है। प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता; त्याग व समर्पण चाहता है,जो विनम्रता के भाव के रूप में जीवन में पदार्पण करता है। सो! जहां प्रेम है; वहां देवता निवास करते हैं; लक्ष्मी का वास रहता है तथा पारस्परिक वैमनस्य भाव का स्थान नहीं होता।
‘मरहम होते हैं कुछ लोग/ शब्द बोलते ही दर्द गायब हो जाता है/ ऐसे लोगों की वाणी में माधुर्य होता है और उनकी वाणी ज़ख्मों पर मरहम की भांति कार्य करती है।’ उस स्थिति में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव समाप्त हो जाते हैं। उनमें ऐसी आकर्षण शक्ति होती है कि मन उनके आसपास रहने और सत्वचन सुनने को तत्पर रहता है। इसलिए कहा जाता है कि मानव अपने शब्दों द्वारा दूसरों की पीड़ा हर सकता है। ‘वीणा के तार ढीले मत छोड़ो/ ढीला छोड़ने व अधिक खींचने से उसका स्वर मधुर व सुरीला नहीं
निकलता।’ इतना ही नहीं, यदि वीणा के तारों को अधिक कसा जाए; वे टूट जाएंगे’ के माध्यम से सदैव मीठे वचन बोलने की सीख दी गई है। मीठी बातों से सर्वत्र सुख प्राप्त होता है। सो! कठोर वचनों का त्याग करना वशीकरण मंत्र है–तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है।
मनुष्य जब अपनी ग़लतियों का वकील और दूसरों की ग़लतियों का जज बन जाता है, फैसले नहीं फ़ासले बढ़ जाते हैं। सो! मानव को अपनी ग़लती को स्वीकारने में संकोच कर लज्जा का अनुभव नहीं करना चाहिए,क्योंकि व्यर्थ वाद-विवाद से दिलों में दरारें पनप जाती हैं–जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। ‘ऐ मन! सीख ले तू/ ख़ुद से बात करने का हुनर/ खत्म हो जाएंगे/ सारे दु:ख द्वंद्व/ नहीं रहेगा तू अकेला जहान में/ साथ देंगे तेरे अपने ही दुश्मन/ तू सबका प्रिय बन जाएगा।’ स्वरचित पंक्तियां स्वयं से बात करने की सीख देती हैं। मौन नवनिधि है और सबसे कारग़र दवा है, जिससे रिश्ते पनपते हैं। ‘अपनी ऊंचाई पर कभी घमंड न करना ऐ दोस्त!/ सुना है बादलों को भी पानी ज़मीन से उठाना पड़ता है।’ दूसरी और कोई तुम्हारे लिए दरवाजा बंद कर ले,तो उसे एहसास दिला देना कि कुंडी दोनों ओर होती है। इससे तात्पर्य है कि मानव को रिश्तों को बनाए रखने व स्थायित्व प्रदान करने हेतु झुकने व समझौता करने में तनिक भी संकोच नहीं चाहिए। परंतु अपने आत्म-सम्मान व अस्तित्व को बनाए रखना उसकी प्राथमिक व आवश्यक शर्त है।
जीवन में आधा दु:ख ग़लत लोगों से उम्मीद रखने से होता है और बाकी का आधा दु:ख सच्चे लोगों पर संदेह अर्थात् शंका करने से आता है। इसलिए सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए। वह इंसान कभी हार नहीं सकता, जो बर्दाश्त करना जानता है। सो! मानव तो सहना चाहिए, कहना नहीं,क्योंकि ‘सहने’ से समाधान निकलता है और ‘कहने’ से राई का पर्वत बन जाता है। रिश्तों का निबाह करने के लिए मानव को सहन करना आना चाहिए; कहना नहीं। प्लेटो के मतानुसार ‘मानव व्यवहार तीन मुख्य स्रोतों से निर्मित होता है– इच्छा,भाव व ज्ञान और ऐसे व्यक्ति को सदैव संभाल कर रखना चाहिए,जिसने आपको यह तीन चीज़ें भेंट की हों–साथ, समय व समर्पण।’ ऐसे लोग सदैव मानव के सुख-दु:ख के साथी होते हैं।
कोई कितना भी बोले व स्वयं को शांत रखें; आपको अकारण प्रभावित नहीं कर सकता,क्योंकि धूप कितनी भी तेज़ हो; समुद्र को सुखा नहीं सकती। मन को शांत रखना जीवन को सफल बनाने का अनमोल खज़ाना है। वाशिंगटन के मतानुसार ‘अपने कर्त्तव्य में लगे रहना और चुप रहना– बदनामी का सबसे सबसे अच्छा जवाब है।’ वैसे बोलना भी एक सज़ा है। सो! इंसान को यथायोग्य,यथास्थान उचित बात कहनी चाहिए। यदि सच्ची बात मर्यादा में रहकर मधुर भाषा में कही जाए,तो सम्मान दिलाती है,वरना कलह का कारक बन जाती है। ग़लत बात बोलने से चुप रहना उचित व श्रेयस्कर है। वाणी से निकला हर एक कठोर शब्द घाव करके महाभारत करा सकता है। यदि वाणी की मर्यादा को ध्यान में रखकर बात कही जाए,तो बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ रोकी जा सकती हैं। इसलिए कबीर जी कहते हैं कि ‘मीठी वाणी बोलना/ काम नहीं आसान/ जिसको आती यह कला/ होता वही सुजान।’
‘चुपचाप कहते रहो तो सब अच्छा है। अगर बोल पड़े तो आपसे बुरा कोई नहीं’ के माध्यम से मानव को मौन रहकर सहन करने का संदेश दिया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि संसार में वही व्यक्ति सफल है,जिसने जीवन में सर्वाधिक समझौते किए होते हैं। परंतु सहनशीलता तभी तक अच्छी होती है; जब तक उसे आत्म-सम्मान से समझौता नहीं करना पड़ता। हर वस्तु की अधिकता हानिकारक होती है और उसका खामियाज़ा मानव को अवश्य भुगतना पड़ता है। सो! जीवन में समन्वय की राह पर चलते हुए सांमजस्यता प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।
☆ ॥ मंदिर का निर्माण ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
नगर से कुछ दूर पहाड़ी के पास सडक़ के किनारे बिड़ला जी ने एक मंदिर बनवाने का निर्णय किया। निर्माण की पूर्व तैयारी के रूप में सभी आवश्यक सामग्री, निर्माण स्थल पर जुटाई जा रही थी। दूर-दूर से चट्टानें तोडक़र पत्थर भी मंगवाये गये थे। ईंट पत्थरों के ढेर लगे हुये थे। सामान ट्रकों में भर-भरकर रोज लाया जाता था। बहुत से मजदूर उन्हें भवन निर्माण के लिये सुडौल आकार देने में लगे थे। पत्थरों को छेनी-हथौड़ी से तराशने, निश्चित आकार देने और बनाकर व्यवस्थित रखने के काम में बहुत से संग तराश लगाये गये थे, जो दिन रात मेहनत से कार्यों में जुटे थे।
कार्य स्थल पर लोगों की भीड़ और निर्माण सामग्री के विभिन्न ढेरों को देखकर सडक़ से चलने वाले अक्सर रुककर उत्सुकता से निहारते थे। एक दिन कोई प्रवासी वहां से निकला। पत्थरों पर छेनी हथौड़ों की मार की ध्वनि सुनकर उसका भी ध्यान उस ओर गया। काम करने वाले एक मजदूर से उसने पूछा- ‘क्यों भाई! ये क्या कर रहो हो?’ उत्तर मिला ‘देख नहीं रहे हो? अपना सिर फोड़ रहे हैं। पत्थर तोड़े जा रहे हैं और क्या?’ पूंछने वाले को लगा जैसे उसे थप्पड़ लग गया। कोई साफ उत्तर नहीं मिला, व्यर्थ ही उसने पूछा।
कुछ आगे बढक़र फिर वही प्रश्न उसने दूसरे मजदूर से पूछा। उसने उत्तर दिया- ‘भैया, रोजी-रोटी कमाने को पत्थरों को तराशने का काम जो मिल गया है, वही कर रहे हैं।’
राहगीर वास्तव में जानना चाहता था कि सारा काम किसलिये किया जा रहा है। कुछ दूर आगे बढक़र उसने एक अन्य व्यस्त कारीगर से पूछा ‘क्यों भाई यह क्या काम हो रहा है?’ उसने उत्तर दिया- ‘एक सेठ मंदिर बनवा रहे हैं, उसी के लिये पत्थर तराशे जा रहे हैं। मैं वही काम कर रहा हूं।’
प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा कुछ शांत हुई। उसे ज्ञात हुआ कि वहां पर एक मंदिर बनने वाला है। उसी की पूर्व तैयारी में सब जुटे हैं। वह एक पथिक की भांति कुछ सोचता-विचारता आगे बढ़ गया। कुछ आगे चलने पर उसने सुना कि एक सेठ किसी से पूछ रहा था कि एक दिन पहले वह काम पर गैरहाजिर क्यों था? मजदूर ने सेठ को बताया कि चूंकि उसकी मां बीमार थी, इससे उस दिन वह नहीं आ सका था। उसने आगे कहा- ‘दादा! कल का काम भी मैं आज पूरा कर लूंगा। मुझे ख्याल है कि मैं एक मंदिर के निर्माण में अपनी योग्यता के अनुसार पूरी तरह काम कर रहा हूं, जो जब बन जायेगा तब लाखों लोग वहां भगवान के दर्शन को श्रद्धा से आयेंगे और मंदिर को देखकर सुख शांति या एक-एक पत्थर पर उकेरी गई कला को देखकर बनाने वालों की सराहना करेंगे। हम कारीगरों का उस भव्य मंदिर के निर्माण में एक महत्वपूर्ण योगदान है।’
पथिक उन चारों मजदूरों के मन की बात सुनता हुआ अपने गंतव्य की ओर चला जा रहा था। उसे लगा कि उन चारों के उत्तरों और कार्य के प्रति उनके दृष्टिकोणों में जमीन-आसमान का अन्तर था। जबकि सभी अपनी आजीविका कमाने के लिये ही वहां एक कार्य कर रहे थे। पहले के उत्तर में कार्य के प्रति खीझ, बोझ और उपेक्षा का भाव था। दूसरे के उत्तर में अपना पेट भरने के लिये अर्थ लाभ का भाव स्पष्ट था। तीसरे के उत्तर में अपने स्वार्थ हेतु कार्य करने के साथ ही पत्थरों को कलात्मक रूप देने की भावना की झलक थी, किन्तु चौथे के उत्तर में तो कार्य करने की ललक, कार्य के प्रति निष्ठा, अपनी जिम्मेदारी को समझने और मंदिर के निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोगी होने की भावना के साथ ही जनता की अपेक्षाओं और कला के मूल्यांकन से उन्हें मिलने वाली आनन्दानुभूति और मंदिर में भावी सुन्दर स्वरूप की कल्पना का चित्र भी उभरता है।
चारों द्वारा मजदूरी लेकर एक सा काम किये जाने पर भी प्रत्येक की अपनी मनोभाव की भारी भिन्नता स्पष्ट समझ में आती है। मन की लगन और भावना ही कार्य को गरिमा प्रदान करती है। दूरदर्शिता और दृष्टिकोण के भेद कार्य की शैली में भिन्नता के रंग भर देते हैं। आजीविका के लिये श्रम तो सभी करते हैं पर जहां श्रम के साथ भावना के मिठास का पुट घुल जाता है वहां कार्य में सौंदर्य और आनन्द बढ़ जाता है। भावनापूर्ण श्रम ने ही संसार को सुन्दर बनाया है।
☆ ॥ अपनी योग्यता का लाभ औरों को दें ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
बगीचों में जब फूल आते हैं तब बगीचे अपनी खूशबू वातावरण में बांट देते हैं। जब आम वृक्षों में मौसम में फल आते हैं तो वे झुककर विनम्रता से अपने फल जनसाधारण को उपलब्ध कराते हैं। मनुष्य को भी जब सौभाग्य से योग्यता और अधिकार प्राप्त हो तो उसे भी उनका उपयोग समाज में विनम्रतापूर्वक जनहित में करना चाहिये। विभिन्न पदों के साथ अधिकारों की प्रतिष्ठा इसीलिये तो की गई है कि उनके समुचित उपयोग से जनता को लाभ मिल सके, उनका समस्याओं का समय पर निराकरण हो सके। परन्तु ऐसा क्या निर्बाध गति से हो रहा है? देखने में तो अधिकतर यह आ रहा है कि मनुष्य जब अधिकारपूर्ण किसी ऐसे पद को पा जाता है, जिससे वह जनसाधारण का हित कर सकता है, तब प्राय: वह जनहित को विशेष बिसराकर अपने और अपने परिवारजनों के सुखोपभोग में रत हो अहंकार और स्वेच्छाचार युक्त व्यवहार करने लगता है। ऐसा भला क्यों होता है? संबंधित जनों को आत्मचिंतन करना चाहिये। नैतिक दृष्टि से अनुचित व्यवहारों का समर्थन कोई भी नहीं कर सकता। शिक्षा तो व्यक्ति को ज्ञानवान तथा सुसंस्कारवान बनाती है। परन्तु तथाकथित सुशिक्षित और समझदार लोगों को अपने पद का दुरुपयोग करते देखा जाता है। आये दिन अखबारों के पन्ने ऐसे समाचारों से भरे होते हैं। बड़े लोग जिस राह पर चलते हैं, समाज के अन्य लोग भी बिना सोचे समझे उनका अनुकरण करते हुये वही राह पकड़ लेते हैं, क्योंकि ‘महाजनो येन गत: स पन्था:’।
जो जितने ऊँचे पद पर आसीन होता है, उसके अधिकार भी उतने ही बड़े महत्वपूर्ण तथा प्रभावी होते हैं। उतने ही बड़े क्षेत्र की जनता के सुख दुखों का उनसे संबंध होता है। उच्च पदाधिकारियों की जिम्मेदारियां भी उतनी ही अधिक होती है। अत: प्रत्येक को अपने कर्तव्यों का पूरा बोध होना चाहिये और उनके व्यवहार भी संयत तथा स्वानुशासित होने चाहिये। किसी कारणवश छोटा भी अनैतिक आचरण बहुत सी असहाय निरपराध जनता के लिये अहितकारी भर नहीं बल्कि घातक हो सकता है। इस बात का उन्हें निरंतर ध्यान होना चाहिये और उन्हें अपने धर्म का कड़ाई से पालन करने की मानसिकता बना लेनी चाहिये।
प्राचीन काल में सर्वोच्च शासक राजा होता था और उसका कर्तव्य था कि वह अपनी समस्त प्रजा का पुत्रवत्, स्नेह की भावना से पालन पोषण करे। उसके लिये धर्मोपदेश था-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवश नरक अधिकारी।
वर्तमान युग में राजा का स्थान राजनेताओं ने ले लिया है। अत: उनसे वही अपेक्षायें हैं जो पहले राजा से होती थीं। उन्हें जनसेवी, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, न्याय परायण, दूरदर्शी और उदारमना होना ही काफी नहीं है, अपने दैनिक व्यवहार में खुद को वैसा प्रदर्शन भी करना चाहिये। परन्तु कई बार देखने में कुछ उल्टा ही आता है। अधिकार सम्पन्न उच्च पदस्थ लोग छोटे से लाभ के लिये कानून-कायदों का पालन नहीं करते। उनके परिवारी और मित्रमण्डली के लोग भी ऐसा करना अपना अधिकार मान लेते हैं और निर्धारित नियमों की अव्हेलना करते हैं। उनके मातहत जनसेवक भी उनकी कृपा की आकांक्षा में अपने कर्तव्यों में शिथिलता बरतते हुये उनके विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही करने में असमर्थ होते हैं। यही अनुशासन हीनता को जन्म देता है। लोग गलत रास्तों को अपनाने लगते हैं और परिणाम स्वरूप अपराधों को बढ़ावा मिल जाता है। जनतांत्रिक शासन प्रणाली में जहां सबको समानता, स्वतंत्रता, बन्धुता और न्याय पाने का संवैधानिक हक है, लोग वांछित सुविधाओं से वंचित हो जाते हैं तथा दुखी होते हैं।
सबको विशेषत: जो उच्च पदों पर अधिक अधिकार और सुविधा सम्पन्न समझदार लोग हैं, आत्मचिंतन कर अपने कर्तव्यों, दायित्वों और जनहित को ध्यान में रखकर सदाचार का व्यवहार कर नियमों का दृढ़ता से पालन करना और कराना चाहिये ताकि छोटे से छोटा व्यक्ति भी प्रशासनिक व्यवस्था द्वारा उसके लिये निर्धारित लाभ बिना रुकावट पा सके और प्रसन्न रह सके।
☆ ॥ मनोभाव॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
प्रकृति ने मनुष्य को जो स्वाभाविक वरदान दिये हैं उनमें अत्याधिक महत्वपूर्ण हमारे मनोभाव हैं। मनोभाव ही व्यक्ति को प्रेरणा और गति प्रदान करते हैं। लोगों के द्वारा जो भी व्यवहार किये जाते हैं, उनका उद्गम मनोभावों में ही होता है। प्रेम और हिंसा दो ऐसे प्रमुख मनोभाव हैं, जिनका उपयोग कोई भी अपनी सुरक्षा के साधन के रूप में कर सकता है। व्यवहार में दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। प्रेम के व्यवहार से हम औरों को अपना मित्र बना सकते हैं और हिंसा से अपना शत्रु। पर दोनों को आत्मरक्षा के लिये प्रयोग किया जा सकता है। प्रेम से प्रेम उत्पन्न होता हे और हिंसा से हिंसा। प्रेम का आत्मरक्षा हेतु प्रयोग करने पर सुरक्षा के साथ शांति और सुख का भी विकास होता है, परन्तु हिंसा के अपनाये जाने पर अनायास विपत्तियां टूट पड़ती हैं। खिन्नता का विस्तार होता है।
यद्यपि हिंसा और शक्ति के उपयोग से तत्कालिक विजय और बर्चस्व पाया जा सकता है। किन्तु सच्ची सुरक्षा और शांति नहीं मिल पाती है। विजय के दंभ से और अधिक प्राप्ति की लालसा जागती है। पराजित पक्ष को आक्रोश और प्रतिहिंसा का जोश जागता है और दोनों पक्षों में विरोध की दाहकता प्रबल हो जाती है। दोनों ओर अशांति बढ़ती है। अत: हिंसा किसी समस्या का स्थायी हल प्रस्तुत नहीं करती बल्कि नई कठिनाइयों को जन्म देती है। इसके विपरीत प्रेम से किसी गुत्थी का हल किये जाने से दोनों पक्षों में सहयोग, संतोष बढ़ता है और परिणाम स्वरूप सुखद वातावरण जीवन में बहुरूपी विकास की राहें सुलभ कराता है तथा सदा सभी सहयोगियों की खुशी बढ़ाता है। सरस, शांत वातावरण दे सबको उन्नति के अवसर प्रदान करता है और हर विषाद को हरता है। इसीलिये संसार के सभी धर्म प्रेम की भावना और सद्भावना की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। सबसे मिल के रहने के उपदेश देते हैं और वैर-विरोध या आपसी टकराव से दूर रहने को कहते हैं। हिंसा को बुरा बताते हैं।
विश्व की वर्तमान अशांति का कारण प्रेम की उद्दात भावना को सही ढंग से न समझ पाना है। स्वार्थ सिद्धि के लिये संसार में लोग ओछे व्यवहारों का सहारा ले लेते हैं, जो स्नेह और समन्वय की भावना को नष्ट कर हिंसा को जन्म देते हैं। व्यक्ति यदि सहजता से प्रेम-सद्भाव के महत्व को समझ सके तो संसार के अधिकांश विवाद दूर हो जायें, देशों के बीच विभिन्न कारणों से खुदती हुई खाइयाँ पट जायें और विश्व में सुख-शांति का अवतरण हो। असुरक्षा व भय की भावना समाप्त हो और आतंकवाद का बढ़ता ताण्डव अपने आप खत्म हो जाये। भारतीय मूलमंत्र ‘अहिंसा परमो धर्म:’ का वास्तविक अर्थ संसार को समझने में कोई कठिनाई न हो तथा निष्कलुष पावन भावनाओं का नवोन्मेष हो सके।